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________________ तृतीय-परिच्छेद ] चलाया, फिर सं० ११६७ के वर्ष में प्राचार्य देवभद्र ने श्री जिनवल्लभ गणि को अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया, परन्तु छः मास के बाद जिनवल्लभसूरि वहीं पर देवगत हुए। इस समय में खरतरगच्छ में 'मधुकरा शाखा' निकली। श्री जिनवल्लभसरि के पट्ट पर श्री जिनदत्त हुए, जिनदत्त का पूर्व नाम सोमचन्द्र था और वे "जयदेव१ उपाध्याय' के शिष्य थे तथा धन्धूका में इनका जन्म और धन्धूका में हो सं. ११४१ में दीक्षा हुई थी। संवद् ११६६ में वैशाख वदि ६ के दिन श्री देवभद्राचार्य के द्वारा ये चित्तौड़ में जिनवल्लभसूरि के पद पर प्रतिष्ठित हुए। श्री जिनवल्लभसूरि द्वारा समुदाय से निष्कासित किसी साधु को फिर गच्छ में लेने के अपराध में १३ प्राचार्यों ने मिलकर श्री जिनदत्तसूरि को अपने गच्छ से बहिष्कृत कर दिया । जिनदत्तसूरि तीन वर्ष के लिए वहां से चले गए थे। उसके बाद पट्टावलीकार ने जिनदत्तसूरि को एक चमत्कारमूर्ति बना दिया है जो उनके जीवन के वास्तविक स्तर को ढांक देता है। जिनदत्तसरिजी ने कुल १५०० साधु और ७०० साध्वियों को दीक्षित किया, ऐसा लिखा हुआ है, परन्तु “चर्चरी" "उपदेशरसायन" और "कालस्वरूप कुलक" आदि इनकी खुद की कृतियों को पढ़ने से परिस्थिति इससे बिल्कुल विपरीत ज्ञात होती है। पट्टावली में जिनदत्तसरि के परकायप्रवेश की बात लिखी है, जो निराधार है। जिनके साथ परकायप्रवेश विद्या का सम्बन्ध है वे जिनदत्तसरि वायट-गच्छीय थे, यह बात प्रभावकचरित्रादि प्राचीन ग्रन्थों से जानी जा सकती है। १. गणधर सार्द्ध शतक की लबुटीका में सर्वराजगरिग ने सोमचन्द्र के गुरु का नाम "धर्भदेव उपाध्याय" और जन्म-स्थान का नाम “धवलक" लिखा है। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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