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________________ ३६२ ] [ पट्टावली-पराग जिनदत्तसरिजी १२११ के श्राषाढ़ सुदि ११ के दिन अनशन करके अजमेर में स्वर्गवासी हुए थे। जिनदत्तसूरि के समय दर्म्यान सं० १२०५ में श्री जिनशेखरसूरि से 'रुद्रपल्लीय खरतरगच्छ " निकला। जिनदत्तसूरिजी के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए जिनचन्द्रसूरि का जन्म ११६७ में, दीक्षा संवत् १२०३ में, पट्ट स्थापना १२०५ में जिनदत्तसूरि द्वारा हुई थी और सं० १२३३ में इनका स्वर्गवास हुमा 1 यहां से प्रत्येक चतुर्थ पट्टधराचार्य का नाम " जिनचन्द्र" देने की पद्धति चली। श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनपतिसूरि हुए, जिन्होंने खरतरगच्छ-सामाचारी स्थापित की । सं० १२७७ में श्री जिनपतिसूरिजी स्वर्गबासी हुए, जिनपति सूरि के पट्ट पर श्री जिनेश्वरसरि बैठे। इनके समय में श्री जिनसिंहसूर से लघु खरतरगच्छ उत्पन्न हुआ, जिनेश्वरसूरि के पट्ट पर जिनप्रबोधसूरि हुए, जिनेश्वरसूरि ने इन्हें प्राचार्य पद दिया था । सं० १३४१ में आप स्वर्गवासी हुए थे। जिनप्रबोधसरि के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि हुए, जिनकी दीक्षा १३३२ में श्री जालोर नगर में हुई थी । संवत् १३४७ में जालोर में ही स्वर्गवासी हुए, श्री जिनचन्द्रसूरि के पद पर श्रीजिनकुशलसूरि हुए, जिनका जन्म संवत् १३३७ में हुआ था । १३४७ में दीक्षा, १३७७ में प्राचार्य पद और १३८६ में आप स्वर्गवासी हुए । जिनकुशलसूरि के पट्ट पर सं० १३६० में श्री जिनपद्मसूरि को श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा आठ वर्ष की उम्र में प्राचार्य - पद दिया गया । सं० १४०० के वैशाख सुदि १४ के दिन किसी के छलने से पाटण में श्रापका स्वर्गवास हुआ, श्री जिनपद्मसूरि के पट्ट पर श्री जिनलब्धिसूरि हुए, आपको भी संवत् १४०० में तरुणप्रभाचार्य ने सूरि-पद दिया, सं० १४१६ के वर्ष में आप स्वर्गवासी हुए, जिनलब्धिसूरि के पट्ट पर श्री जिनोदयसूरि हुए, प्राप भी सं० १४१५ में तरुणप्रभाचार्य द्वारा सूरि-पद पर आरूढ़ हुए, सं० १४३२ में आपने पाटण में स्वर्गवास प्राप्त किया । श्री जिनोदयसूरि के पट्ट पर श्री जिनराजसूरि हुए, जिनराजसूरि को सं० १४३३ में पतन में श्री लोकहितसूरि ने सूरि-पद दिया, जिनराजसूरि ने श्री स्वर्णभाचार्य, श्री भुवन रत्नाचार्य और श्री सागरचन्द्राचार्य को प्राचार्य पद पर स्थापित Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only ू www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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