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भट्टारक जिनसेनसूरि का शक संवत् कलचूरी संवत् है
(शक ८३६ ) था । जो धरणीवराह के जिनसेन के शक को
भट्टारक वीरसेनसूरि ने हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेनसूरि का, जो कि पुंनाट वृक्षगण के प्राचार्य थे, अपने ग्रन्थ में स्मरण किया है । जिनसेन ने शक ७०५ में हरिवंश पुराण समाप्त किया है । उसमें वर्धमान नगर के राजा धरणीवराह का उल्लेख किया है। धरणीवराह चापवंशी राजा था और उसका सत्तासमय विक्रम सं० ६७१ हरिवंश का शक ७०५ विक्रम संवत् ८४० होता है समय के साथ संगत नहीं होता । इस परिस्थिति में शालिवाहन शक के अर्थ में न लेकर केवल और इस संवत् को विक्रम, वलभी वा गुप्त संवत् मानना चाहिए । पुन्नागरणीय जिनसेन उसी प्रदेश से आये हुए थे, जहाँ "कलचूरी संवत्" चलता था। इसलिए जिनसेन की कलचूरी संवत् की पसंदगी स्वाभाविक थी । कलचूरी संवत् ईसा से २४६ और विक्रम से ३०६ वर्षों के बाद प्रचलित हुआ था । इस प्रकार जिनसेन के हरिवंशपुराण को समाप्ति के ७०५ संवत् में कलचूरी के ३०६ वर्ष मिलाने पर ७०५+३०६=१०११ विक्रम वर्षं बनेंगे, इससे धरणीवराह के भौर जिनसेन के समय की संगति भी हो जायगी ।
संवत् के अर्थ में लेना चाहिए संवत् न मान कर "कलचूरी"
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इसी प्रकार धवला की समाप्ति का समय शक संवत् ७०३ माना जाता । इसमें कलचूरी के ३०६ वर्ष मिला कर ७०३+३०६ = १००१ बना लिये जायें तो वीरसेन का जिनसेन से परवर्तित्व सिद्ध हो सकता है ।
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