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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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__ "सं० १५८५ में ऋषिमति की उत्पत्ति हुई, श्री प्रानन्दविमलसूरि क्रियोद्धार कर सर्वत्र फिरने लगे, धर्मार्थी के योग के विना कडुअामति के सर्वक्षेत्रों को अपनी तरफ खींच लिया, जहां कहीं पढ़े लिखे श्रावक थे वहां लोग ठिकाने रहे।" सं० १५८६ में शाह श्रीराग ने स्तम्भतीर्थ के पास कसारी में दोसो पासा, सहेसा के श्री शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा की।
सं० १५८८ में संघवी श्रीदत्त ने आबु, गौडी, चित्तौड़, कुम्भलमेर प्रमुख तीर्थो का संघ निकाला।
शाह वीरा सं० १५६० अहमदाबाद में चतुर्मासक रहे, वहां शाह जीवराज को संवरी किया, दोसी मंगल को प्रतिबोध देकर पूनमिया से कडुवामति किया।
सं० १५९१ में पाटण में चौमासा किया, शाह रामा ने भी स्तम्भतीर्थ प्रमुख से मनुष्यों को ठिकाने रक्खा ।
___सं० १५९२ में शाह रामा कर्णवेधी ने "श्री वोर विवाहला" और "लुम्पक वृद्ध हुँडी" जिसके पाने ३२६ और अधिकार ५७४ हैं बनाई, इस समय राजनगर के भण्डार में वह प्रति रक्खी हुई है।"
शा० वीरा सं० १५६३ में राधनपुर, थराद प्रमुख सर्वत्र विचरे और "सं० १५९४ में शाह रामा कर्णवेधी दिवंगत हुए।"
सं० १५६४ में सिरोही में चातुर्मास किया। सं० १५९५ में सादड़ी की तरफ विहार किया और नाडुलाई आये। वृद्धावस्था के कारण अब विहार भी नहीं कर सकते थे। सं० १६०१ में नाडुलाई में शरीर में बाधा हुई । यह वर्ष कठिन था अन्न से और रोग से । दूसरे संवरी शा० जीवराज प्रमुख सब पास में थे। शाह श्री वीरा के औषधार्थ किसी चीज की जरूरत थी, वह श्रावक के घर होते हुए भी मांगने पर नहीं मिली। प्रौषध करना जल्दी था प्रतः शाह वीरा के पास की चार छापरी में से दो छापरी श्रावक के हाय में दी और कहा - शाह भारणा के घर अमुक वस्तु है वह
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