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तृतीय- परिच्छेव ]
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में चातुर्मास्य किया । कूईप गांव में जिनपाल गरिए को वाचनाचार्य-पद दिया, "लवरखेड़ा में राणा श्री केल्हण के समझौते और उपरोध से दक्षिणावर्त प्रारती उतारना, मान्य किया ।"
सं० १२५ में पाटन में विनयानन्द गरिण को दीक्षा दी ।
सं० १२५३ में भाण्डारिक नेमिचन्द्र श्रावक को प्रतिबोध दिया, और पतन भाग के बाद घाटी गांव में चातुर्मास्य किया ।
सं० १२५४ में धारानगरी के शान्तिनाथ देवालय में विधि का प्रवर्तन किया और तपन्यासों द्वारा महावीर नामक दिगम्बर को खुश किया, रत्नश्री प्रती को दीक्षा दी। नागहद में चातुर्मास्य किया ।
सं० १२५६ में लवरणखेट में नेमिचन्द्र, देवचन्द्र धर्मकीर्ति और देवेन्द्र नामक साधुओं क दीक्षा हुई ।
सं० १२५७ में श्री शान्तिनाथ देवालय में प्रतिष्ठा का आरम्भ अच्छे शकुन न होने के कारण श्रागे रक्खा ।
सं० १२५८ चैत्र वदि ५ शान्तिनाथ विधिचंत्य में, शान्तिनाथ प्रतिमा और शिखर प्रतिष्ठित किया, चैत्र यदि २ को वीरप्रभ और देवकीर्ति गरणी को दीक्षित किया ।
सं० १२६० श्राषाढ वदि ६ वीरप्रभ और देवकीर्ति गरगो को उपस्थापता की और सुमतिगरिए, पूर्णभद्रगरिण को दीक्षा दो, ग्रानन्दश्री को महत्तरापद दिया, जयसलमेर के देवालय में फाल्गुन शु० २ को पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित की ।
० १२६३ फाल्गुन वदि ४ को लवणखेड़ में महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा की, नरचन्द्र, रामचन्द्र, पूर्णचन्द, तथा विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री, जिनश्री की दीक्षा हुई और धर्मदेवो को प्रवर्तनी - पद दिया ।
सं० १२६५ में मुनिचन्द्र, मानभद्र गरिण तथा सुदरमति, रासमति की दोक्षा हुई ।
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