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[ पट्टावली-पराग
सं० १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव, जिनभद्र, विजयचन्द्र को दीक्षित किया, गुरगशील को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा दी ।
सं० १२६९ में जालोर के विधिचंत्य में महावीर प्रतिमा की स्थापना की, जिनपाल गरिण को उपाध्याय पद दिया, धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरापद दिया और प्रभावती नाम रक्खा । महेन्द्र, गुणकीर्ति, मानदेव तथा चन्द्रश्री केवलश्री को दोक्षा दो, वहां से विक्रमपुर की तरफ विहार किया।
सं० १२७० बागड़ को तरफ बिहार किया, दारिदरेरक में सैकड़ी श्रावक श्राविकाओं ने सम्यक्त्व तथा मालारोपण किया तथा उपाध्याय आदि धर्मकृत्य किये ।
सं० १२७१ में बृहदद्वार में धूमधाम के साथ प्रवेश किया, दारिदरेरक की तरह यहां भी नन्द्यादिक हुए। सं० १२७३ में बृहद्वार में लौकिक दशाहिक पर्व, गंगा की यात्रा के लिए जाते हुए अनेक राणा, नगरकोटीय राजाधिराज पृथ्वीचन्द्र के साथ प्राये हुए काश्मीरी पण्डित मनोदानन्द के साथ श्री जिनपालोपाध्याय का शास्त्रार्थ हुआ और पृथ्वीचन्द्र से जयपत्र प्राप्त किया ।
सं० १२७३ के ज्येष्ठ वदि १३ को जिनप लोपाध्याय को जयपत्र मिलने के उपलक्ष्य में वर्द्धापनक किया गया । बृहद्वार से आते हुए रास्ते में भावदेव मुनि को दीक्षा दो और दारिद्रेरक में चातुर्मास्य किया ।
सं० १२७५ में ज्येष्ठ सुदि १२ को जालोर में भुवनश्री गणिनी, जगमति, मंगलश्री तथा विमलचन्द्र गरिण पद्मदेव गणि की दीक्षा हुई ।
सं० १२७७ में पालनपुर में प्रभावना हुई, कालान्तर में नाभि के निचले भाग में गांठ उत्पन्न होने की वेदना से मूत्रसंग्रहादि रोग श्रादि से अपना श्रायुष्य निकट समझकर अपने अनुयायियों को सान्त्वन और प्रोत्साहन देकर सं० १२७७ के श्राषाढ सुदि १० के दिन श्री जिनपतिसूरि स्वर्गवासी हुए ।
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