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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५६ श्री पुप्फभिक्खू, सुमित्तभिक्खू और जिषचन्दभिक्खू यह त्रितय "सुत्तागमे" के सम्पादन में एक दूसरे का सहकारी होने से भागे हम इनका उल्लेख "भिक्षुत्रितय" के नाम से करेंगे। पुस्तक की प्रस्तावना में "नागमों की भाषा" नामक शोर्षक के नीचे लिखा है - "देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने प्रागमों को लिपिबद्ध किया, इतने समय के बाद लिखे जाने पर भी भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं आई।" देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय में भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं आई, यह कहने वाले भिक्षुत्रितय को प्रथम प्राचीन और अर्वाचीन अर्द्धमागधी भाषा में क्या अन्तर है, यह समझ लेना चाहिए था । वागमों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग हैं और मागमों में विपाक और प्रश्न व्याकरण भी हैं, इन सूत्रों की भाषाओं का भी पारस्परिक अन्तर समझ लिया होता तो वे "प्राचीनता में कमी नहीं हुई' यह कहने का साहस नहीं करते । आचारांग तथा सूत्रकृतांग सूत्र माज भी अपने उसी मूल रूप में वर्तमान हैं, जो रूप उनके लिखे जाने के मौर्य-समय में था। इनके आगे के स्थानांग मादि सभी अंग सूत्रों में भिन्न-भिन्न वाचनात्रों के समय में थोड़ा थोड़ा परिवर्तन और संक्षेप होता रहा हैं । स्थानांग प्रादि नव अंग सूत्रों में दूसरी वाचना के समय में स्कन्दिलाचार्थ की प्रमुखता में सूत्रों का जो स्वरूप निर्धारित हुआ था, वह आज तक टिका हुआ है । देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय में जो पुस्तकालेखन हुमा उसमें मुख्यता माथुरी और वालभी वाचनानुगत सूत्रों में चलते हुए पाठान्तरों का समन्वय करने की प्रवृत्ति को थी। देवद्धिगरिण ने तत्कालीन दोनों वाचनानुयायी श्रमणसंघों की सम्मति से सूत्रों का समन्वय किया था, तत्कालीन प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न, जैसे अंगुष्ठ प्रश्नादि, बाहु-प्रश्नादि, मादर्शप्रश्नादि के उत्तरों का निरूपण था। इनके अतिरिक्त दूसरे भी अनेक विचित्र विद्यानों के अतिशय थे उनको तिरोहित करके वर्तमानकालीन ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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