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श्री तपा-गापति - गुणा- पद्धति
- कर्ता : उपाध्याय गुणविजय गणी
"सिरि विजयसेरणसूरि-पट्ट गुणसढिमे 'अ'सटिअमे। सिरि विजयदेवसूरो, तवइ, तवगणे तरणितुल्लो ॥२१॥ सिरि विजयसोहसूरिपमुहेहिं रणेगसाहुवग्गेहि ।
परिकलिया पुहविनले, विहरता दितु मे भदं ॥२२॥" श्री विजयहीरसूरि के पट्ट पर ५६ वें श्री विजयसेनसूरि और विजयसेनसरि के पट्ट पर ६० वें श्री विजयदेवसूरि तपागच्छ में सायं समान तप रहे हैं ॥२१॥
विजयसिंहस रि प्रमुख अनेक साधुवर्गों से परिवत श्री विजयदेवस रि पृथ्वीतल पर विचरते हुए कल्याणकारी हों ॥२२॥
श्री हीरसरिजी के पट्ट पर श्री विजयसेनसरिजी हुए, आपका जन्म सं० १६०४ में नाडुलाई में हुआ था और सं० १६१३ में माता-पिता के साथ श्री विजयदानस रि के हाथ से दीक्षा हुई थी, श्री विजयहोरस रिजी ने इनको पढ़ाया और संवत् १६२८ में फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन अहमदाबाद में इनको सरि पद दिया गया था।
एक समय श्री हीरविजयस रिजी श्री विजयसेनस रि के साथ राधनपुर में वर्षा चातुर्मास्य ठहरे हुए थे, उस समय लाहौर में रहे हुए श्री अकबर बादशाह ने विजयसेनस रि के गुणों का वर्णन सुना और उनको अपने पास बुलाने के लिये फरमान भेजा। तब अपने गुरु की आज्ञा सिर पर चढ़ाकर
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