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तृतीय-परिच्छेद ]
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प्रशंसा में पूरा हुआ है। वास्तव में इसको पट्टावली कहने के बजाय "गणधर-स्तुति” कहना अधिक उपयुक्त है।
(३) पट्टावली नम्बर २३२८ :
उपर्युक्त पट्टावली संस्कृत भाषा में ६ पत्रात्मक हैं, इसके कर्ता समयसुन्दर गरिण हैं, लेखक का मंगलाचरण निम्न प्रकार से है -
"गोतमादिगुरुन्नत्वाः गरिणः समय सुन्दरः ।
वक्ति गुर्वावलो-ग्रन्थं गच्छे खरतराभिधे ॥१॥ इसके बाद गरिण समयसुन्दरजी ने भगवान महावीर के प्रथम शिष्य गौतम स्वामी और प्रथम गणधर सुधर्मास्वामी का समय लिखा है, उनके समय की थोड़ी-थोड़ी जानकारी भी लिखी है, सुधर्म के बाद जम्बू, प्रभव, शयम्भवसूरि, यशोभद्रसूरि, प्राचार्यां संभूतविजय, आर्य भद्रबाहु के नाम तया इनके समय का परिचय दिया है । भद्रबाहु के पट्टधर स्थूलभद्र, स्थूलभद्र के बाद पट्टावली में आर्य संभूतहस्तिसूरि नाम लिखा है, जो यथार्थ नहीं, आर्य सुहस्तीसूरि चाहिए, आर्य सुहस्ती के बाद श्री सुस्थितसूरि, उसके बाद इन्द्रदिन्नसूरि, इन्द्रदिन के बाद श्री दिन्नसूरि और श्री दिन के बाद सिंहगिरिजी का नाम उल्लिखित है।
यहां पर महावीर निर्वाण से ५०० वर्ष के बाद श्री वज्रस्वाम का जन्म बताया है । वज्रस्वामी के चार शिष्यों से नागेन्द्र, चन्द्र, निति, विद्याधर नामक चार शाखाओं का निकलना लिखा है, वीर निर्वाण के बाद ५४४ में "जटाधर मत?" निकलने का उल्लेख किया है, वीर निर्वाण से ६६६ में दिगम्बर मत निकलने का लिखा है जो ठीक नहीं। दिगम्बर मत ६०६ में निकला था। श्री वज्रस्वामी के पट्ट पर प्राचार्य वज्रसेन बैठे थे, यह १५ पट्टों का अनुक्रम कल्पसूत्र के अनुसार है, इसके बाद श्री चन्द्रसूरि
१, रोहगुप्त की त्रैराशिक प्ररूपणा के परिणाम स्वरूप वैशेषिक दर्शन की उत्पत्ति हुई थी,
उसी वैशेषिक दर्शन के संन्यासियों को यहां जटाधर कहा है ।
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