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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५७ ____ "पंचवस्तुक, उपदेशपद, पंचाशक अष्टक, षोडशक, लोकतत्त्वनिर्णय, धर्मबिन्दु, लोकबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, दर्शनसप्ततिका, नानाचित्रक, बृहन्मिथ्यात्वमथन, पंचसूत्रक, संस्कृतात्मानुशासन, संस्कृत चैत्यवन्दमभाष्य, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेशक, परलोक सिद्धि, धर्मलाभसिद्धि, शास्त्रवार्तासमुच्चय, प्रावश्यकवृत्ति, दशवकालिक बृहद्वृत्ति, दशवकालिक लघुवृत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, प्रज्ञापनोपाङ्गवृत्ति, पंचवस्तुकवृत्ति, क्षेत्रसमासवृत्ति, शास्त्रवातासमुच्चयवृत्ति, अर्हशीचूडामणि, समरादित्य चरित्र, यथाकोश ।" प्राचार्य हरिभद्रसूरि के बाद सार्द्धशतककार ने प्राचारांग टीकाकार श्री शीलाङ्काचार्य की प्रशंसा करने के उपरान्त सामान्य युगप्रधान गणधरों को प्रणाम किया है, उसके बाद देवाचार्य, नेमिचन्द्र और उद्योतनसूरि गुरु के पारतन्त्र्यगमन का निर्देश किया है, फिर श्री वर्धमानसूरि के चैत्यवास त्यागने और वसतिवास ग्रहण करने की बात कही है। इसके बाद १३ गाथाओं में वसतिवास के उद्धारक युगप्रधान श्री जिनेश्वरसूरिजी की प्रशंसा की है। जिनेश्वरसूरिजी को वर्धमानसूरिजी का शिष्य लिखा है, प्रणहिलवाड में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ करने के सम्बन्ध का तीन गाथाओं में निम्न प्रकार से वर्णन किया है - "प्रणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसिअसुपत्तसंदोहे । पउरपए बहुकविदूसगेये नायगाणुगए ॥६५॥ सड्डियदुल्लहराए, सरसइअंकोवसोहिए सुहए । मज्झे रायसहं पविसिऊरण लोयागमाणुमयं ॥६६॥ नामायरिएहि समं, करिय वियारं वियाररहिएहि । वसहिनिवासो साहूरणं, ठावित्रो ठाविप्रो अप्पा ॥६७॥" अर्थात् - अरण हिल्ल पाटक (पाटण, नगर में श्रद्धावान् श्री दुर्लभराज को सभा में नामाचार्यों (चैत्यवासियों) के साथ विचार करके श्री जिनेश्वरसूरिजी ने साधुनों के लिए वसतिवास को प्रतिष्ठित किया। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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