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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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लवजो के सोमजी और कानजी नामक दो शिष्य हुए।
कानजो के पास एक गुजराती छोपा दीक्षा लेने आया था, परन्तु कानजी के प्राचरण अच्छे न जानकर उनका शिष्य न होकर वह स्वयं साधु बन गया और मुंहपर मुंहपत्ति बांध ली। धर्मदास को एक जगह उतरने को मकान नहीं मिला, तब वह एक ढुण्ढे (फुटे टुटे खण्डहर) में उत्तरा तब लोगों ने उसका नाम “ढुण्ढक दिया।
लौ कामति कुंवरजी के धर्मशी; श्रीपाल और अभीपाल ये तीन शिष्य थे, इन्होंने भी अपने गुरु को छोड़कर स्वयं दीक्षा ली, इनमें से पाठ कोटि प्रत्याख्यान का पन्थ चलाया, जो आजकल गुजरात में प्रचलित है ।
धर्मदास के धनजी नामक शिष्य हुए।
धनजी के भूदरजी नामक शिष्य हुए और भूदरजी के रघुनाथजी जयमलजी और गुमानजी नामक तीन शिष्य हुए जिनका परिवार मारवाड़ गुजरात और मालवा में विचरता है ।
रघुनाथजी के शिष्य भीखमजी ने १३ पंथ चलाया।
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