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चतुर्थ-परिच्छेद ]
प्रस्तुत पट्टावली-लेखक जैनशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र से कितना दूर था यह बात उसके निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट होती है
लेखक इन्द्र के मुख से भगवान महावीर को कहलाता है - "अहो भगवन्त ! पूज्य तुमारी जन्मरास उपरे भस्म ग्रहो बेठो छे, दोय हजार वरसनो सीघस्थ छ ।" भगवान महावीर की जन्मराशि पर दो हजार वर्ष की स्थिति वाला भस्मग्रह बैठने और उसको "सिंहस्थ" कहने वाले लेखक ने "कल्प-सूत्र” पढ़ा मालूम नहीं होता, क्योंकि कल्पसूत्र देखा होता तो वह भगवन्त को जन्मराशि न कहकर जन्म-नक्षत्र पर दो हजार वर्ष की स्थिति का भस्मग्रह बैठने की बात कहता, और "भस्मग्रह को सिंहस्थ' मानना भी ज्योतिष से विरुद्ध है। प्रथम तो भगवान् महावीर के समय में राशियों का प्रचलन ही नहीं हुआ था, दूसरा महावीर की जन्मराशि "कन्या" है पौर जन्म नक्षत्र "उत्तरा-फाल्गुनी।" इस परिस्थिति में उक्त कथन करना अज्ञानसूचक है। __अब हम पट्टावलीकार की लिखी हुई देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण तक की पट्टपरम्परा उद्धृत करके यह दिखायेंगे कि मुद्रित लौकागच्छ की सभी पट्टावलियों में देवद्धिगणि की परम्परा नन्दी-सूत्र के अनुसार देने की चेष्टा की गई है, वह परम्परा वास्तव में देवद्धि की गुरु-परम्परा नहीं है, किन्तु अनुयोगधर वाचकों की परम्परा है। तब प्रस्तुत पट्टावली में लेखक ने देवधिगणि क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा समझकर दी है, जिससे कई स्थानों पर भूलें दृष्टिगोचर होती हैं।
प्रस्तुत पट्टावली की देवर्द्धिगणि-परम्परा : (१) सुधर्मा (२) जम्बु (४) शय्यम्भव (५) यशोभद्र (७) भद्रबाहु
(८) स्थूलभद्र (१०) सुहस्ती (११) सुप्रतिबुद्ध (१३) मार्यदिन (१४) वज्रस्वामी
(३) प्रभव
(६) संभूतविजय ___(8) महागिरि (१२) इन्द्रदिन्न (१५) वज्रसेन
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