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प्रथम परिच्छेद ]
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पालन करते थे। यद्यपि वर्तमान काल में श्वेताम्बर जैन साधु जितना वस्त्र, पात्र आदि का परिग्रह रखते हैं, उतना उस समय नहीं रखते थे। तत्कालीन स्थविर-कलली एक-एक पात्र, एक-एक नग्नता ढांकने का पत्र. खण्ड और शरदी को मौसम में दो सूतो और एक ऊर्णामय वस्त्र रखते थे। रजोहरण और मुखवस्त्र तो उनका मुख्य उपकरण था ही, परन्तु इनके अतिरिक्त अपने पास अधिक उपकरण नहीं रखते थे। लज्जावरण का वस्त्रखण्ड नाभि से चार अंगुल नीचे से घुटनों से ४ अंगुल ऊपर तक लटकता रहता था। बौद्धपाली त्रिपिटकों में इस वस्त्र को "शाटक" नाम दिया है और इस वस्त्र को धारण करने वाले जैन निर्ग्रन्थों को "एकशाटक' के नाम से सम्बोधित किया है। स्थविरकल्पियों की परम्परा इस वस्त्र को “अनावतार' के नाम से व्यवहार करती थी। विक्रम की दूसरी शती के मध्यभाग तक 'अग्रावतार'' का स्थविरकल्लियों में व्यवहार होता रहा, ऐसा मथुरा के देवनिर्मित स्तूप में से निकली हुई "जैन आचार्य कृष्ण" को प्रस्तर मूर्ति से ज्ञात होता है।
जैन निग्रन्थों का बौद्ध पिटकों में "एकशाटक" के नाम से अनेक स्थानों में उल्लेख मिलता है। दिगम्बरों की मान्यतानुसार महावीर के सर्व साधु "नग्न" ही रहते होते तो बौद्ध ग्रन्थकार उनको "एकशाटक" न कहकर ' दिगम्बर" अथवा "नग्न' ही कहते, परन्तु यह बात नहीं थी। इससे सिद्ध है कि महावीर के समय में निग्रन्थ श्रमणगरण वस्त्रधारी रहते थे, नग्न नहीं। यह बात ठीक है कि उस समय का वस्त्रधारित्व नाम मात्र का होता था। इस समय के बाद स्थविरकल्पियों के उपकरणों की संख्या फिर से निश्चित की गई। विक्रम की दूसरी शती के प्रथम चरण में युगप्रधान प्राचार्य श्री आर्यरक्षितजी ने जैन भागमों में चार अनुयोगों का पृथक्करण किया। इतना ही नहीं देशकाल का विचार करके प्राचार्य ने श्रमणों के उपकरणों की संख्या तक निश्चित की। स्थविरकल्पियों के लिए कूल चौदह उपकरण निश्चित किए : पात्र १, पात्रबन्धन २, पात्रस्थापनक ३, पात्रप्रमार्जनिका ४, पात्रपटलक ५, पात्ररजस्त्राण ६, गोच्छक ७ ये सात प्रकार के उपकरण "पात्रनिर्योग" के नाम से निश्चित
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