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द्वितीय-परिच्छेद ]
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देवानन्द विक्रम और नरसिंह इन चार प्राचार्यों के समय की चर्चा गुर्वावल तथा पट्टीवली में नहीं मिलती। गुर्वावलीकार द्वारा लिखित प्राचार्यों के सत्तासमय की विसंगति क समन्वय
ऊपर हमने गुर्वावली सूचित पट्टधरों के समय में जो विसंगतियां दिखाई हैं उनका समन्वय निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
यद्यपि मुनिसुदरसूरिजी ने श्री वज्रसेन सूरि का समय वीरनिर्वाण ६२० में माना है, परन्तु हमारी गणना से वज्रसेन का समय जिननिर्वाण से ६०५ तक पहुँचता है, उसके बाद चन्द्रसूरि, समन्तभद्रसूरि और वृद्धदेव. सूरि का समय विक्रम से १२५ तक सूचित किया है, परन्तु हमारा अनुमान है कि गुर्वावलीकार को जो १२५ का अंक मिला है; वह विक्रम संवत् का न होकर शक संवत् का होना चाहिए।
गुर्वावलीकार के लेखानुसार विक्रम संवत् १५० में वज्रसेन का स्वर्गवास हुअा है, तब उनके बाद के तीन प्राचार्यों के समय के १२५ वर्ष वज्रसेन के समय सहित नहीं लिखते, पर लिखा है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि वज्र के बाद के वज्रसेन चन्द्र समन्तभद्र और वृद्धदेवसूरि की प्रतिष्ठा तक के १२५ बर्ष की संख्या सूचित को है, प्रतिष्ठा के बाद भी वे पूर्ण वृद्धावस्था तक जीवित रहे थे, इस दशा में १० वर्ष अधिक जोवित रहे ऐसा मान लेने पर वृद्धदेवसूरि का स्वर्ग-समय विक्रम संवत् ३७५ तक पहुँच सकता है और इनके बाद प्रद्योतनसूरि, मानदेवसूरि, मानतुगसूरि और वीरसूरि इन चार प्राचार्यों का सत्ता-समय ३०० वर्ष के लगभग मान लिया जाय तो एकत्रित समयांक ६७५ तक पहुँचेगा और इस प्रकार से मानतुगसूरि बाण, मयूर और राजा श्रीहर्ष के समय में विद्यमान हो सकते हैं । बीरसूरि के अनन्तर जयदेवसूरि, देवानन्दसूरि, विक्रमसूरि, नरसिंहसूरि और समुद्रसूरि इन ५ प्राचार्यों के सम्मिलित १०० वर्ष मान लेने पर खोमारण राजा के कुलज समुद्रसूरि का समय वि० सं० ७७५ में पा सकता है, और हरिभद्र के मित्र द्वितीय मानदेवसूरि का समय भी
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