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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ५११ दिन तक वहां रहकर १७ भेदादि पूजा करके समस्त संघ के साथ भणशाली देवा धौलका होते हुए सकुशल अपने घर पहुंचे। सं० १६७२ में खम्भात में चतुर्मासक किया। शाह कल्याण ने राजनगर में चतुर्मासक किया, वहां के संघ ने ब्याख्यान के समय पर उनके लिए पट्टक प्रासन स्थापन किया। भणशाली देवा ने शान्तिनाथ का परिकर प्रतिष्ठित करने के लिए चौमासा के बाद शाहश्री को वहां बुलवाया और शुभ दिन में परिकर को प्रतिष्ठा कराके स्थापित किया। भगशाली देवा को शाह सलीम ने हस्ती अर्पण किया और भरणशाली देवा के पुत्र भरणशाली रूपजी को अजमेर में सुलतान ने हस्ती अर्पण किया। सं० १६७३ में राजनगर में शाहश्री का चतुर्मासक था। वहाँ श्री भरणशाली देवा ने १२ व्रत १५ मनुष्यों के साथ ग्रहण किये, उनके नाम परी० वीरदास, मं० संतोषो, मं० शवजी, शा० हरजी, परी. देवजी, शा० पनीया, गणपति प्रमुख थे । उनको सुवर्ण वेढ की प्रभावना दी गई, दूसरों को मुद्रिका की प्रभावना दी। . शा० कल्याण ने सं० १६७३ में खम्भात में चतुर्मास किया । वहाँ बाई हेभायी ने प्रतिष्ठा करवाने की इच्छा व्यक्त की, जिस पर से शाहश्री को वहां बुलाया गया । शाहश्री ने फाल्गुन सुदि ११ का प्रतिष्ठा-मुहूर्त दिया । शाह श्री तेजपाल ने विमलनाथ की प्रतिष्ठा की, बाई हेमायी ने संघ को वस्त्र की प्रभावना दी। सं० १६७४ में शाहश्री ने फिर राजनगर में चतुर्मास किया और शा० कल्याण को पाटन भेजा। सं० १६७५ में चैत्र सुदि में भणशाली देवा ने प्राबु, ईडर, तारंगा का संघ निकाला, सर्वत्र कुकुम-पत्रिकाएँ भेजी । खम्भात से प्रमीपाल सो०, हरजी संधवी, सोमपाल सं०, भीमजी सो०, नाकर शाह, सोमचन्द प्रमुख पाए । सोजित्रा से बौहरा वांचा प्रमुख पाए, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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