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कडवा- मत गन्छ की पहावली
१. शाह कडवा:
नाडुलाई गांव में नागरज्ञातीय बीसानागर श्री कानजी की भार्या कनकादे की कोख से सं० १४६५ में शाह कडुवा का जन्म हुआ था। कडवा जब आठ वर्ष का हुआ, तब से हरिहर के पद बनाने लगा था। कुछ समय के बाद कडुमा को अंचलगच्छ का एक श्रावक मिला। श्रावक ने कडुमा को कहा - तुम हरिहर के पद बनाते हो वैसे जैनमार्ग के बनायो तो तुम्हारी कदर होगी "जैन" यह शब्द सुनकर कडवा को बड़ा आनन्द हुआ, वह बोला मुझको जैनमार्ग सुनानो तो मैं जैनधर्म के भी पद बनाऊं। पांचलिक श्रावक कडुवा को अपने गच्छ के उपाश्रय में ठहरे हुए साधुजी के पास ले गया, साधुजी ने उसे वार्ता के रूप में धर्म का उपदेश किया । कडुप्रा ने इस प्रकार उनके पास जाते-जाते जैनधर्म का खासा परिचय पा लिया, उसने सर्वप्रथम एक कविता बनाई जिसका प्रथम पद्य इस प्रकार था ।
माइ बाप नी कीजई भगति' विनय करन्ता रुढी युगति । जीव क्या साची पालीजइ, सील धरी कुल उजुमालीइ ॥१॥
इस प्रकार साधु-समागम से और उनको औपदेशिक बातें सुनने से कडुआ के मन में संसार की असारता का आभास हुआ, उसकी इच्छा संसार त्याग करने की हुई, अपना भाव कडुमा ने माता-पिता के सामने प्रकट किया जिसे सुनकर उसके माता-पिता को बड़ा दुःख हुमा और दीक्षा लेने की आज्ञा देने से इन्कार कर दिया । मेहता कानजो का स्वभाव
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