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________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ २०१ था, परन्तु श्री विजयसेनसूरिजी ने अनेक पण्डितों की सलाह से उस ग्रन्थ को अप्रामाणिक ठहराया और उपाध्याय धर्मसागरजी को तीन पीढ़ी तक गच्छ बाहर किया। कविराज का यह कथन कि धर्मसागरजी ने "कुमतिकुद्दाल" ग्रन्थ बनाया था, यथार्थ नहीं है, क्योंकि "कुमतिकुद्दाल" धर्मसागरजी के पूर्ववर्ती तपागच्छ के विद्वान् को कृति थी और धर्मसागरजी ने उसके आधार से दूसरे ग्रन्थ बना कर अन्यान्य गच्छों का खण्डन अवश्य किया था। परिणामस्वरूप "विजयदानसूरि तथा विजयहोरसूरिजी ने उन्हें गच्छ बाहर किया था और उन ग्रन्थों का संशोधन कराये बिना प्रचार नहीं किया जायगा, इस शर्त के साथ विपरीत प्ररूपणा के सम्बन्ध में मिथ्यादुष्कृत करवा करके उन्हें वापस गच्छ में लिया था। विजयसेनसूरि के समय में उपाध्याय धर्मसागर गच्छ से बाहर थे, यह कथन प्रामाणिक ज्ञात नहीं होता, क्योंकि १६५२ में श्री विजयहोरसूरिजी स्वर्गवासी हुए थे मोर १६५३ में उपाध्याय धर्मसागरजी भी स्वर्ग सिधारे थे। इस प्रकार एक वर्ष के भीतर धर्म सागरजी ने कौन-सा महान अपराध किया और विजयसेन सूरि ने उन्हें गच्छ बाहर किया? इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस परिस्थिति में धर्मसागरजी मोर देवसूरि के बीच मामा-भाञ्जा का सम्बन्ध बता कर धर्मसागरजी द्वारा देवसूरि पर पत्र लिख कर गच्छ में लेने की सूचना करना और उसके उत्तर में गुरु का निर्वाण होने के बाद देवसूरि द्वारा 'गच्छ में लेने का आश्वासन" लिखना और वह पत्र भावियोग से विजयसेनसूरिजी के हाथ जाना, ये सब बातें एक कल्पित कहानी से अधिक नहीं हैं । कविराज लिखते हैं - "विजयदेवसूरि का पत्र पढ़ कर श्री विजयसेनसूरिजी को क्रोध माया कि ऐसे प्राचार्य को उत्तराधिकारी बनाने के बजाय किसी दूसरे को प्राचार्य बनाना ही ठीक होगा", यह सोच कर माचार्यश्री ४०० साघुत्रों के समुदाय और ८ उपाध्यायों के साथ खम्भात नगर पहुंचे। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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