SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयदेवसूरि के सामने नया आचार्य क्यों बनाया? "सोहम्मकुलरत्न पट्टावली रास' के कर्ता कवि श्री दीपविजयजी लिखते हैं : "सेनसूरि पाटे प्रगः, पाट साठ में होय । श्री देवसूरि श्री तिलकसूरि श्रे पडधारो दोय ॥१॥ मर्थात् – श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर श्री देवसूरि और श्री तिलकसूरि ये दो पट्टधर हुए। दो पट्टवर क्यों हुए? इसकी प्रस्तावना करते हुए कवि लिखते हैं - "तेरणे समे धरमसागर गरिण, वाचक राय महंत । कुमति कुद्दाल इति नाम छे, कीमो ग्रन्थ गुनवंत ॥७॥ बहु पंडित श्री सेनसूरि, ग्रन्थ कोनो अनमारण । वाचक “गरण बाहिर कोत्रा, पेढी त्रण प्रमाण ॥८॥" "संसारी सगपरण पर्छ, मामा ने भाणेज । देवसूरि भाणेज छ, वाचक मामा हेज ॥६॥ लखी लेख व्यतिकर सहु, मेहे यों तुरत जवाब । देवसूरि वांची करी, चिती मन में प्राप ॥१०॥ पत्र जुंबाब अहवो लख्यो, फिकर न करस्यो कोय । गुरु निर्वाण हुमा पछे, गच्छ में लेस्यां तोय ॥११॥" कवि दीपविजय के कहने का सार यह है कि उपाध्याय धर्मसागर गणि बड़े विद्वान् थे। उन्होंने 'कुमति-कुद्दाल" नामक एक ग्रन्थ बनाया Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy