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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३४६ - इस इसवी सन् को अगर हम विक्रम सं० बना लें तो भी १०७६ के पहले ही दुर्लभसेन का समय पूरा हो जाता है, इस परिस्थिति में दुर्लभराज के द्वारा जिनेश्वर सूरिजी को १०८० में खरतर विरुद प्राप्त होने की बात प्रमारिणत नहीं होती। हम इतना मान लेते हैं कि जिनेश्वरसूरि का पाटन के किसी चौलुक्य राजा को राजसभा मे चैत्यवासियों के साथ चर्चा-विवाद होकर साधुओं का वसति-निवास प्रमाणित हुना था। तथापि इस घटना से उन्हें "खरतर" विरद मिलने का कथन कल्पना मात्र ही ठहरता है, इस सम्बन्ध में प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरि निर्मित "गणधर सार्द्धशतक' को हमने ध्यान पूर्वक पढ़ा है। जिनदत्त सूरिजी ने अपने इस ग्रन्थ में "खरतर विरुद" मिलने का कोई सूचन नहीं किया, विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में निर्मित सुमतिगरिण की "गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति" को भी हमने अच्छी तरह पढ़ा है । उसमें प्राचार्य जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, बुद्धि सागर, जिनचन्द्रसूरि और जिनवल्लभसूरि तथा ग्रन्थकर्ता श्री जिनदत्तसूरि के सविस्तर चरित्र दिए गए हैं, चैत्यवासियों के साथ वसतिवास के सम्बन्ध में चर्चा होने की बात सूचित की है, परन्तु किसी भी राजा द्वारा जिनेश्वरसूरि को कोई विरुद मिलने की बात नहीं, ऐसी कोई घटना बनी होती तो जिनदत्तसूरजी "सार्द्धशतक" के मूल में ही उसका सूचन कर देते पर ऐसा कुछ नहीं किया, न प्राचीन वृत्तिकार श्री सुमतिगणिजी ने ही "खरतर विरुद" की चर्चा की है. इससे निश्चित होता है कि राजा द्वारा "खरतर विरुद" प्राप्त होने की बात पिछले सावली लेखकों की गढ़ी हुई बुनियाद है। श्री जिनेश्वर सूरि की परम्परा के कई विद्वान् साधुनों ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में ग्रन्थों का निर्माण किया है और उनके अन्त में अपनी गुरुपरम्परा की प्रशस्तियां भी दी हैं, जिनमें "चन्द्र कुल' का निर्देश मात्र मिलता है, कहीं भी "खरतर" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, जहां तक हमें ज्ञात हुआ है, "खरतर" शब्द श्री जिनदत्तसूरिजो के लिए प्रयुक्त हुआ है और वह भी इनके विरोधी साधुनों की तरफ से, जिनदत्तसूरि की प्रकृत्ति कितनी कठोर भाषी थी, यह बात इनके ग्रन्यों के पढ़ने से जानी जातो है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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