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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] - को पाया और दीक्षा लेकर मोक्ष के अधिकारी हुए। प्रतिमा का विरोध करने वाले लौका के अनुयायी सं० १५३१ में प्रकट हुए, उसके पहले जैन नामधारी कोई भी व्यक्ति जिनप्रतिमा का विरोधी नहीं था। इस पर नृसिंह ऋषि बोले - सूत्र में जिनप्रतिमा का अधिकार है यह बात हम मानते हैं, परन्तु हम स्वयं प्रतिमा को जिन के समान नहीं मानते। नरसिंह ऋषिजो के इन इकबाली बयानों से अदालत ने मूर्तिपूजा मानने वालों के पक्ष में फैसला सुना दिया और जैनशासन की जय बोलता हुआ मूर्तिपूजक समुदाय वहां से रवाना हुप्रा । ___ बाद में मूर्तिपूजा विरोधियों के अगुमानों ने संघ के नेतामों से मिल कर कहा - "हम शहर में झूठे तो कहलाये, फिर भी हम वीरविजयजो से मिल कर कुछ समाधान करले । इसलिए जेठमलजी ऋषि को बीरविजयजी मिलें ऐसी व्यवस्था करो" इस पर इच्छाशाह ने कहा - यह तो चोरों की रोति है, साहूकारों को तो खुल्ले प्राम चर्चा करनी चाहिए। तुम मूर्ति को उत्थापन करते हो, इस सम्बन्ध में तुम से पूछे गये १३ प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, राजदरबार में तुम झूठे ठहरे, फिर भी धीठ बनकर एकान्त में मिलने की बातें करते हो ?, मोटे ताजे मूलजी ऋषि मदालत में तो एक कोने में जाकर बैठे थे और अब एकान्त में मिलने की बात करते हैं ?, अगर अब भो जेठाजी ऋषि और तुमको शास्त्रार्थ कर जीतने की होश हो तो हम बड़ी सभा करने को तैयार हैं। उनमें शास्त्र के जानकार चार पण्डितों को बुलायेंगे, दूसरे भी मध्यस्थ पण्डित सभा में हाजिर होंगे। वे जो हार-जीत का निर्णय देंगे, दोनों पक्षों को मान्य करना होगा। तुम्हारे कहने मुजब एकान्त में मिलकर कुलड़ी में गुड़ नहीं भांगेंगे। सभा करने की बात सुनकर प्रतिपक्षी बोले - हम सभा तो नहीं करेंगे, हमने तो पापस में मिलकर समाधान करने की बात कही थी। सभा करने का इनकार सुनने के बाद प्रतिमा पूजने वालों का समुदाय भौर प्रतिम-विरोधियों का समुदाय अपने-अपने स्थान गया। अपने स्थानक पर जाने के बाद जेठाजी ऋषि ने हकमाजी ऋषि को कहा -माज राजनगर में अपने धर्म का जो पराजय हुआ है, इसका Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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