SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४३१ अच्छे शकुन देखकर चलियेगा, इतने में एक मालिन फूलमाला लेकर वीरविजयजो को सामने मिली इस शकुन को देखकर जानकार कहने लगेये शकुन जेठाजी ऋषि को हरायेंगे और उनके समर्थक नीचां देखेंगे । वीरविजयजी से कहा - तुम्हारी कीर्ति देश-देश में फैलेगी। उस समय वीरविजयजी के साथ खुशालविजयजी, मानविजयजो, भुजनगर से आये हुए प्रानन्दशेखरजी, खेड़ा के चौमासी दलोचन्दजी और साणंद से आए हुए लब्धिविजयजी आदि विद्वान् साधु चल रहे थे, इतना ही नहीं गांव-गांव के पढ़े लिखे श्रोता श्रावक जैसे बीसनगर के गलालशाह, जयचन्दशाह आदि। इन के अतिरिक्त अनेक साधु सूत्र-सिद्धान्त लेकर साथ में चल रहे थे और धन खर्च ने में श्रीमाली सेठ रायचन्द, बेचरदास, मनोहर, वक्तचन्द, महेता, मानचन्द प्रादि जिनशासन के कार्य में उल्लास पूर्वक भाग ले रहे थे। भाविक श्रावक. केसर चन्दन बरास प्रादि घिसकर तिलक करके भगवान् की पूजा करके जिनाज्ञा का पालन कर रहे थे, नगर सेठ मोतीभाई धर्म का रंग हृदय में धरकर सवै-गृहस्थों के आगे चल रहे थे। इधर ऋषि जेठमलजी अपने स्थान से निकलकर छीपा गली में पहुंचे, वहां सभी जाति के लोग इकट्ठे हुए थे, वहां से ऋषि जेठमलजी और उनकी टुकड़ी अदालत द्वारा बुलाई गई, सब सरकारी सभा की तरफ चले, मूर्तिपूजक और मूर्तिविरोधियों की पार्टियां अपने-अपने नियत स्थानों पर बैठी। शास्त्रार्थ में पूर्वपक्ष मन्दिर-मागियों का था, इसलिए वादी पार्टी के विद्वान् अपने-अपने शास्त्र-प्रमाणों को बताते हुए मूर्तिविरोधियों के मत का खण्डन करने लगे। जब पूर्व पक्ष ने उत्तर पक्ष की तमाम मान्यतामों को शास्त्र के आधार से निराधार ठहराया तब प्रतिमापूजा-विरोधी उत्तर पक्ष ने अपने मन्तव्य का समर्थन करते हुए कहा - "हम प्रतिमापूजा का खण्डन करते हैं, क्योकि प्रतिमा में कोई गुण नहीं है, न सूत्र में प्रतिमापूजा कही है, क्योंकि दशवें अंग सूत्र "प्रश्न व्याकरण" के आश्रवद्वार में मूर्ति पूजने वालों को मन्दबुद्धि कहा है और निरंजन निराकार देव को छोडकर चैत्या. लय में मूर्ति पूजने वाला मनुष्य अज्ञानी है।" ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy