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________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४९ सं. १३१० में प्रापका जन्म, १३२१ में दीक्षा, १३३२ में प्राचार्य पद प्राप्त हुमा । प्राचार्य सोमप्रभसूरि ने अप्काय की विराधना के भय से जलप्रचुर कुकुणदेश में और शुद्ध जल की दुर्लभता से मारवाड़ में अपने साधुओं का विहार निषिद्ध किया था। वि० संवत् १३३४ के वर्षा चातुमस्यि में शास्त्र की मर्यादानुसार द्वितीय कार्तिक की पूर्णिमा को चातुमस्यि पूरा होता था, परन्तु उसके पहले ही भाविनगर-भंग को जानकर सोमप्रभसूरजी प्रथम कार्तिक की चतुर्दशी को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके दूसरे दिन वहां से विहार कर गए थे, अन्य गच्छीय प्राचार्य जो वहां चातुर्मास्य में ठहरे हुए थे, उन्होंने प्रथम कार्तिक की चतुर्दशी को चातुर्मास्य पूरा नहीं किया था, परिणामतः उनके वहां रहते-रहते नगरभंग हुआ और विहार न करने वाले प्राचार्यों को मुसीबत में उतरना था। सोमप्रभसूरि के गुरु धर्मघोषसूरि १३५७ में स्वर्गवासी हुए थे, उसी वर्ष सोमप्रभसूरि ने अपने मुख्य शिष्य विमलप्रभ को प्राचार्य पद दिया था। सोमप्रभसूरि के विमलप्रभ के अतिरिक्त तीन शिष्य और प्राचार्य थे, जिनके नाम - श्री परमानन्दसूरि, श्री पद्मतिलकसूरि और श्री सोमतिलक सूरि थे। सोमप्रभसूरि के प्रथम शिष्य अल्पजीवो थे, इसलिये उन्होंने अपना जीवन अल्प समझ कर १३७३ में श्री परमानन्द और सोमतिलक को सरि-पद दिये पौर आपने तीन महीनों के बाद उसी वर्ष स्वर्गवास प्राप्त किया। श्री परमानन्दसूरि भी प्राचार्य-पद प्राप्त करने के बाद ४ वर्ष तक जो वित रहे थे, इस लिये सोमप्रभ के पट्ट को श्री सोमतिलक सूरिजी ने सम्हाला, सोमतिलकसूरिजी सं० १३५५ में जन्मे, १३६६ में दीक्षित हुए, १३७३ में सूरि बने और १४२४ में स्वर्गवासी हुए। "बृहद् नव्य क्षेत्र समास", "सत्तरिसयठाणे" आदि अनेक ग्रन्थ और स्तुति स्तोत्रादि की रचना की थी, तथा श्री पद्मतिलक, श्रीचन्द्रशेखरसूरि, श्री जयानन्दसूरि और श्री देवसुन्दरसूरि को प्राचार्य पद दिए थे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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