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________________ १५४ ] [ पट्टावली-पराग में खरतरों, मेवात देश में वीजामतियों और सौराष्ट्र में मोरबी आदि स्थानों में लुंका आदि मतों के अनुयायी गृहस्थों को प्रतिबोध देकर उनमें सम्यक्त्व के बीज बोये, वीरमगांव में उपाध्याय पार्श्वचन्द्र को वाद में निरुत्तर करके बहुत से लोगों को जैन-धर्म में स्थिर किया। इसी प्रकार मालव देश में भी विहार कर उज्जैनी आदि नगरों में यथार्थ उपदेश से गृहस्थों को धर्म में स्थिर किया था। __ क्रियोद्धार करने के बाद श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने १४ वर्ष तक कम से कम षष्ठ तप करने का अभिग्रह रक्खा, पाप ने उपवास तथा छ? से २० स्थानक तप का पाराधन किया, इसके अतिरिक्त अनेक विकृष्ट तप करके अन्त में १५९६ में चैत्रसुदि में आलोचनापूर्वक अनशन करके नत्र उपवास के अन्त में अहमदाबाद नगर में स्वर्गवासी हुए। "सिरि विजयदारणसूरि-पट्टे, सगवण्णए अ ५७ अडवण्णे । सिरि हीरविजयसूरी, ५८ संपइ तवगणदिरिणदसमा ॥१९॥" श्री प्रानन्दविमलसूरि के पट्ट पर श्री विजयदानसू रिजी और विजयदानसरि के पट्टधर श्री हीरविजयसू रि तपागच्छ में सूर्य समान विचर रहे हैं ॥१६॥ श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर श्री विजयदानसूरिजी ने खंभात, अहमदाबाद, पाटन, महेशाना, गन्धार बन्दर आदि अनेक स्थानों में सैकड़ों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठाएं की थीं, श्री विजयदानसूरिजी के उपदेश से ही बादशाह मुहम्मद के मान्य मंत्री गुलराज ने जो "मालिक श्री नगदल" कहलाता था, छः महीने तक शत्रुञ्जय पर का टेक्स माफ करवाया और सर्वत्र पत्रिका भेजकर नगर, ग्राम प्रादि के संघसमुदाय के साथ श्री शत्रुजय की यात्रा की थी। श्री विजयदानसूरि का वि. सं. १५५३ में जामला स्थान में जन्म, १५६२ में दीक्षा, १५८७ में सूरिपद और १६२२ में वडावली में भाराधनापूर्वक स्वर्गवास हुअा था। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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