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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २८७ नयी रीतियां करने के लिये यहां स्थान नहीं है। इस पर जिनवल्लभ तथा उनके अनुयायी श्रावक वहां से लौट गये। अपने स्थान पर जाकर श्रावकों ने कहा – बड़े मकान हैं उनमें से एक के ऊपर "चतुर्विंशति जिनपट्ट" स्थापित कर देववन्दनादिक धार्मिक क्रियाएं की जाएं तो कैसा ? गुरु ने कहा – बहुत ठीक है। श्रावकों ने वैसा ही किया, गुरु का मन संतुष्ट हुना। बाद में श्रावकों ने "चित्तौड़दुर्ग" में तथा "नगर" में एक-एक जिनालय बनाने का विचार किया और गणिजी की सम्मति मांगने पर जिनवल्लभ ने उनके विचार का अनुमोदन किया। दोनों मन्दिर तैयार हो गये१ । दुर्ग में पार्श्वनाथ और नीचे महावीर के बिम्ब । जिनवल्लभ गणि द्वारा प्रतिष्ठित किये गये। ___ एक समय मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को सिद्धान्त-वाचना के निमित्त जिनवल्लभ गणि के पास भेजा । गणिजी ने उनको वाचना देना प्रारम्भ किया, पर बाद में उन्हें एक पत्र से मालूम हुअा कि दोनों साधु मेरे श्रावकों को बहकाकर अपने गुरु का भक्त बना रहे हैं, उन्होंने साधुनों को फटकारा और वे वहां से चले गए२ । जिनवल्लभ गणि ने अपने श्रावक गणदेव को धार्मिक शिक्षा देकर उपदेशक बनाया, क्योंकि उसको वक्तृत्वशक्ति अच्छी थी। अपने नये तैयार १. अष्टसप्ततिका के अनुसार मन्दिर एक ही बना था। २. मुनिचन्द्रसूरि स्वयं आगम-शास्त्र और न्याय-शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे और जिन वल्लभ के स्वर्गवास के बाद वे वर्षों जक जीवित रहे थे, इस परिस्थिति में उनके शिष्यों का जिनवल्लभ के पास वाचना लेने जाने की बात निर्मूल प्रतीत होती है और जिनवल्लभ के श्रावकों को बहकाकर अपने गुरु के रागी बनाने का कथन इससे भी विशेष असंभव प्रतीत होता है, क्योंकि मुनिचन्द्रसूरि उस समय के सुविहित साधुओं में पहले नम्बर के त्यागी और उग्र विहारी थे, वे हमेशा सौवीर जल पीते थे और मास-कल्प के क्रम से विहार करते थे, वृद्धावस्था में भी पाटन में मास कल्प की मर्यादा का पालन करने के लिए प्रतिमास मुहल्ला और मकान बदलते थे । सारा पाटन उनका भक्त और प्रशंसक था। ऐसे त्यागी पुरुष के लिए भक्त बनाने के प्रपंच की बात केवल कल्पित कहानी ही हो सकती है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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