Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाग
भी होते हैं यह उनका विवरण किया गया है । सम्यग्दर्शन आदि आत्माके गुण हैं यह तो कहीं नहीं गया इसलिये यहां भी सम्यग्दर्शन आदि पुद्गल द्रव्यके धर्म हैं यह कहा जा सकता है ? 'सो. नहीं । सम्य. ग्दर्शन आदि परिणाम सिवाय आत्माके किसीके भी नहीं, इसलिये वे पुद्गल द्रव्यके परिणाम नहीं ६ कहे जा सकते । तत्वार्थोंका श्रद्धान आत्माके ही होता है इसलिये वह आत्माका ही परिणाम है इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान आदिको भी आत्माके ही परिणाम समझना चाहिये । यदि यह कहा जाय कि
कर्माभिधायित्वेप्यदोष इति चेन्न मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवक्षितत्वात् ॥१०॥ जिस तरह सम्यक्त्व कर्म पुद्गल है उसी तरह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको भी । पुद्गल माननेमें कोई दोष नहीं हो सकता? सो ठीक नहीं । इहांपर मोक्षके कारणोंका प्रकरण चल रहा है इसलिये मोक्षके कारण आत्माके परिणामोंकी हो विवक्षा है । वे मोक्षके कारण आत्माके परिणाम औपशामिक सम्यग्दर्शन क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि हैं इसलिये उन्हींकी विवक्षा है। सम्यक्त्वकर्म पुद्गलका विकार होनेसे पुद्गलकी पर्याय है इसलिये मोक्षका कारण आत्माका परिणाम न होनेसे उसकी विवक्षा नहीं । कदाचित् यह शंका हो कि- . ... .
स्वपरनिमित्तत्वादुत्पादस्यति चेन्नोपकरणमात्रत्वात् ॥११॥ पदार्थ जितने भी होते हैं उनकी उत्पत्ति परपदार्थों से भी होती है और अपनेसे भी होती है जिसके * तरह घडा मिट्टीका कार्य है उसकी उत्पचिमें मिट्टी भी कारण है और परपदार्थ दंड चाक डोरा आदि ५ भी कारण हैं उसीतरह सम्यग्दर्शन भी कार्य है उसकी उत्पत्ति में स्वयं आत्मा भी कारण है और समय
१--सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें बायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है इसलिये वह भी सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिमें कारण है।
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