Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 03
Author(s): Bhadrabahuswami, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ श्री आत्मानन्द- जैन-ग्रन्थरत्नमाला-रत्नम् ८४ निर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् तृतीयो विभागः पीटिका 3 新 : प्रकाशक : श्री आत्मानन्द जैन सभा खारगेट, भावनगर (सौ.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द-जैनग्रन्थरत्रमालायाः चतुरशीतितम रत्नम् (८४) स्थविर-आर्यभद्रबाहुस्वामिप्रणीतस्वोपज्ञनिर्युक्तयुपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् श्री सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलितभाष्योपबृंहितम् । जैनागम-प्रकरणाद्यनेकग्रन्थातिगूढार्थप्रकटनप्रौढटीकाविधानसमुपलब्ध 'समर्थटीकाकारे'तिख्यातिभिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरिभिः प्रारब्धया वृद्धपोशालिकतपागच्छीयैः श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यैः पूर्णीकृतया च वृत्त्या समलङ्कृतम् । तस्यायं तृतीयो विभागः प्रथम उद्देशः । [ प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतात्मकः । ] तत्सम्पादकौसकलागमपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्यन्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश (प्रसिद्धनामश्रीआत्मारामजी महाराज) शिष्यरत्नप्रवर्तक-श्रीमत्कान्तिविजयमुनिपुङ्गवानां शिष्य-प्रशिष्यौ चतुरविजय-पुण्यविजयौ । प्रकाशं प्रापयित्रीभावनगरस्था श्रीजैन-आत्मानन्दसभा । प्रथम आवृत्ति : वीर संवत २४६३, ईस्वीसन - १९३६, विक्रम संवत १९९२, आत्मसंवत ४०, प्रत - ५०० द्वितीय आवृत्ति : वीर संवत २५२८, ईस्वीसन - २००२, विक्रम संवत २०५८, आत्मसंवत १०५, प्रत - ६०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक: बृहत् कल्पसूत्रम् । मूल्य : रू. २००/ प्रकाशक: "प्रमोदकांत खीमचंद शाह - प्रमुख श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर - ३६४ ००१." SIST * धन्य भक्ति धन्य दाता * . दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट आराधना भवन, दादर, मुंबई " श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वे. मू. पू. तप. जैन संघ ट्रस्ट, मलाड, मुंबई " महुवा जैन संघ, महुवा, जि. भावनगर » शाहीबाग गीरधरनगर जैन संघ, अहमदाबाद "भूतीबेन जैन उपाश्रय, शाहीबाग, अहमदाबाद " श्री जैन श्वे. म.पू.संघ, शिव, मुंबई YASE * PRINTERS Tejas Printers 403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380007..Ph. : (079)6601045 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण जैन छेद आगमोना प्रकाशननी महत्ताने समजनार अने ए आगमोना गम्भीर रहस्योने उकेलनार विद्वान् मुनिगणना करकमलमां लि. मुनि चतुरविजय तथा मुनि पुन्यविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन पूज्यपाद, प्रातःस्मरणीय, शान्तमूर्ति, निर्मलज्ञान-चारित्रादि सदगुण विभुषित, देशविदेशमा परिभ्रमण करी जैनशासननी अभिवृद्धि करनार, अनेक प्राचीन जैन तीर्थोना जीर्णोद्धार करावनार, प्रभावसंपन्न, ख्यातकीर्ति, पुनीतनामध्येय, पुण्यपुरुष श्री १००८ श्री हंसविजयजी महाराजश्री ना पवित्र गुणपूर्ण मंगलनामनुं नियुक्ति-भाष्य-वृत्तिविभूषित बृहत् कल्पसूत्रना तृतीय विभागमा स्मरण करी अमे कृतकृत्य थइए छीए. चरणोपासक शिशुओ मुनि चतुरविजय अने मुनि पुण्यविजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्तपागच्छान्तर्गत संविग्नशाखीय आद्याचार्य न्यायाम्मोनिधि श्री १००८श्री विजयानन्दसूरि प्रशिष्यरत्न शान्तमूर्ति महाराज D cccccCCCCCC cccccccc DB3) ( an श्री १००८ श्री हंसविजयजी महाराज :जन्म : विक्रम संवत १९१४.al :दीक्षा: विक्रम संवत १९3YUSTOnly स्वर्गगमन: विक्रम संवत् १९९० फागण सुदिप्रथम १० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુનણખિીલીલા શિવમસ્તુ સર્વજગતઃ ચરમ તીર્થપતિ શ્રી મહાવીર સ્વામિને નમઃ શ્રી આત્મ-વલ્લભસૂરીશ્વરજી સદ્ગુરુભ્યો નમઃ પૂ. પ્રવર્તક મુનિરાજ શ્રી કાંતિવિજયજી મ. સાહેબના શિષ્ય પ્રશિષ્ય પૂ. મુનિરાજ શ્રી ચતુરવિજયજી મ. તથા પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે આજથી ૬૯ વર્ષ પહેલાં પૂર્ણ કાળજીથી સંપાદન કરેલ બૃહત્કલ્પસૂત્રનાં ભાગ ૧ થી ૬ અમારી સંસ્થાએ છપાવેલ તે ઘણાં વખતથી અપ્રાપ્ય હતા. તેનું પુનર્મુદ્રણ પૂજ્યોની કૃપાથી અનેક સંઘોનાં સહકારથી અમે કરી રહ્યાં છીએ તેનો અમને અપૂર્વ આનંદ છે. પ્રથમ આવૃતિ પ્રગટ થયા પછી આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ અન્ય હસ્તપ્રતોના આધારે છાપેલી નકલમાં જ અનેક સ્થળોએ શુદ્ધિવૃદ્ધિ કરી હતી તે નકલો અમદાવાદ સ્થિત લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરમાં સુરક્ષિત છે તેના આધારે અહીં શુદ્ધિ પત્રક ઉમેરવામાં આવ્યું છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓને અધ્યયનમાં સરળતા રહેશે. શુદ્ધિવૃદ્ધિયુક્ત નકલો ઉપલબ્ધ કરાવી આપવા બદલ અમે ઉપયુક્ત સંસ્થાના આભારી છીએ. આ ગ્રંથનાં વાચનથી પૂજ્ય સંયમમાર્ગનાં વધુ જાણકાર બની અને મુક્તિપંથમાં આગળ વધે એજ પ્રાર્થના. - શ્રી આત્માનંદ સભા ભાવનગર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रसंशोधनकृते सङ्गहीतानां प्रतीनां सङ्केताः । भा० पत्तनस्थभाभापाटकसत्कचित्कोशीया प्रतिः । त० पत्तनीयतपागच्छीयज्ञानकोशसत्का प्रतिः । डे० अमदावादडेलाउपाश्रयभाण्डागारसत्का प्रतिः । पत्तनान्तर्गतमांकामोदीभाण्डागारसत्का प्रतिः । ले० पत्तनसागरगच्छोपाश्रयगतलेहेरुवकीलसत्कज्ञानकोशगता प्रतिः । प्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयसत्का प्रतिः। ता० ताडपत्रीया मूलसूत्रप्रतिः टीकाप्रतिः भाष्यप्रतिर्वा । (सूत्रपाठान्तरस्थाने सूत्रप्रतिः, टीकापाठान्तरस्थाने टीकाप्रतिः भाष्यपाठान्तरस्थाने च भाप्यप्रतिरिति ज्ञेयम् ।) प्र. प्रत्यन्तरे ( टीप्पणीमध्योद्धृतचूर्णिपाठान्तः वृत्तकोष्ठकगतपाठेन सह यत्र प्र० इति स्यात् तत्र प्रत्यन्तरे इति ज्ञेयम् , दृश्यतां पृष्ठ २ पंक्ति २७-३२ इत्यादि ।) मुद्यमाणेऽस्मिन् ग्रन्थेऽस्माभिर्येऽशुद्धाः पाठाः प्रतिषूपलब्धास्तेऽस्मत्कल्पनया संशोध्य ( ) एताहग्वृत्तकोष्ठकान्तः स्थापिताः सन्ति, दृश्यनां पृष्ठ १० पति २६, पृ० १७ पं० ३०, पृ० २५ पं० १२, पृ० ३१ पं० १७, पृ० ४० पं० २४ इत्यादि । ये चास्माभिर्गलिताः पाठाः सम्भावितास्ते [ ] एतादृक्चतुरस्रकोष्ठकान्तः परिपूरिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ ३ पंक्ति ९, पृ० १५ पं० ६, पृ० २८ पं० ५, पृ० ४९ पं० २६ इत्यादि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयो० आचा० श्रु० अ० उ० आव० हारि० वृत्तौ आव० नि० गा० 7 आव ० निर्यु० गा० S आव० मू० भा० गा० उ० सू० उत्त० अ० गा० ओघनि० गा० कल्पबृहद्भाष्य गा० चूर्णि जीत० भा० गा० तत्त्वार्थ० दश० अ० उ० गा० दश० अ० गा० दशवै० अ० गा० दश० चू० गा० देवेन्द्र० गा० पञ्चव० गा० पिण्डनि० गा० प्रज्ञा० पद प्रशम० आ० मल० महानि० अ० विशे० गा० विशेषचूर्णि व्य० भा० पी० गा० व्यव० उ० भा० गा० टीकाकृताऽस्माभिर्वा निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः । अनुयोगद्वारसूत्र आचाराङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश आवश्यक सूत्र- हारिभद्रीय वृत्तौ आवश्यक सूत्र नियुक्ति गाथा आवश्यक सूत्र मूलभाष्य गाथा उद्देश सूत्र उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन गाथा ओ नियुक्ति गांथा बृहत्कल्पबृहद्भाष्य गाथा बृहत्कल्पचूर्णि जीतकल्पभाष्य गाथा तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि • दशवैकालिकसूत्र अध्ययन उद्देश गाथा दशवैकालिकसूत्र अध्ययन गाथा दशवैकालिकसूत्र चूलिका गाथा देवेन्द्र-नर केन्द्रप्रकरणगत देवेन्द्रप्रकरणं गाथा पञ्चवस्तुक गाथा पिण्डनिर्युक्ति गाथा प्रज्ञापनोपाङ्गसटीक पद प्रशमरत आर्या मलयगिरीया टीका महानिशीथसूत्र अध्ययन विशेषावश्यकमहाभाष्य गाथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णि व्यवहारसूत्र भाष्य पीठिका गाथा व्यवहारसूत्र उद्देश भाष्य गाथा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श० उ० शतक उद्देश श्रु० अ० उ० श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश सि० । सिद्धहेमशब्दानुशासन सिद्ध सि० हे० औ० सू सिद्धहेमशब्दानुशासन औणादिक सूत्र हैमाने० द्विस्व० हैमानेकार्थसङ्ग्रह द्विखरकाण्ड यत्र टीकाकृग्रिन्थाभिधानादिकं निर्दिष्टं स्यात् तत्रास्माभिरुल्लिखितं श्रुतस्कन्ध-अध्ययन-उद्देश-गाथादिक स्थानं तत्तद्न्थसत्कं ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ १५ पं० ९ इत्यादि । यत्र च तन्नोल्लिखितं भवेत् तत्र सूचितमुद्देशादिकं स्थानमेतन्मुन्यमाणबृहत्कल्पग्रन्थसत्कमेव ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ २ पंक्ति २-३-४, पृ० ५ पं० ३, पृ० ८ पं० २७, पृ० ११ पं० २७, पृ० ६७ पं० १२ इत्यादि । प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शक ग्रन्थानां प्रतिकृतयः। शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । आगमोदय समिति । अनुयोगद्वारसूत्रअनुयोगद्वारसूत्र चूर्णीअनुयोगद्वारसूत्र सटीक मलधारीया टीका आचाराङ्गसूत्र सटीकआवश्यकसूत्र चूर्णीआवश्यकसूत्र सटीक । (श्रीमलयगिरिकृत टीका) आवश्यकसूत्र सटीक (आचार्य श्रीहरिभद्रकृत टीका)। आवश्यक नियुक्तिओघनियुक्ति सटीककल्पचूर्णिकल्पबृहद्भाष्यकल्पविशेषचूर्णिकल्प-व्यवहार-निशीथसूत्राणि आगमोदय समिति । आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्रीय टीकागत । आगमोदय समिति हस्तलिखित । जैनसाहित्यसंशोधक समिति । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक - दशवेकालिक नियुक्ति टीका सह दशाश्रुतस्कन्ध अष्टमाध्ययन | ( कल्पसूत्र ) देवेन्द्र नरकेन्द्र प्रकरण सटीक - नन्दी सूत्र सटीक (Refगरिकृत टीका) निशीथचूर्णि - पिण्डनिर्युक्ति प्रज्ञापनोपाङ्ग सटीक — बृहत्कर्मविपाक महानिशीथसूत्रराजप्रनीय सटीक - विपाकसूत्र सटीक— विशेषणवती विशेषावश्यक सटीक - व्यवहारसूत्र नियुक्ति भाष्य टीका सिद्धप्राभृत सटीक - - सिद्धहेमशब्दानुशासनसिद्धान्तविचारसूत्रकृताङ्ग सटीक— स्थानाङ्गसूत्र सटीक ९ आमोदय समिति । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । आगमोदय समिति । हस्तलिखित । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । आगमोदय समिति । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । 27 रतलाम श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । श्रीयशोविजय जैन पाठशाला वनारस । श्री माणेकमुनिजी सम्पादित । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । शेठ मनसुखभाई भगुभाई अमदावाद । हस्तलिखित | आमोदय समिति | 17 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ॥ अहम् ॥ प्रासंगिक निवेदन । नियुक्ति-भाष्य-वृत्तिसहित बृहत्कल्पसूत्रना आ अगाउ अमे वे विभागो प्रकाशित करी चूक्या छीए । आजे एनो, “प्रथम उद्देश संपूर्ण" सुधीनो त्रीजो विभाग प्रसिद्ध करवामां आवे छे । प्रथमना वे विभागोमां अमे बृहत्कल्पसटीक-प्रथमखंडनी जुदा जुदा भंडारोमांनी छ प्रतिओनो उपयोग को हतो, जेमनो परिचय अमे प्रथम विभागमा आप्यो छे । आ विभागथी अमे एना द्वितीयखंडनी ए ज भंडारोमांनी छ प्रतिओ अने ते उपरांत एक ताडपत्रीय प्रतिनो उपयोग कर्यो छे, जेमनो परिचय आ नीचे आपीए छीए । द्वितीयखण्डनी प्रतिओ १ भा० प्रति-आ प्रति पाटणना भाभाना पाडामांना विमळना ज्ञानभंडारनी छ । तेनां पानां २८६ छ । दरेक पानानी एक बाजुए १८ लीटीओ लखेली छे, पण २१७ थी २८६ पाना सुधीमां १९ लीटीओ लखवामां आवी छे । दरेक लीटीमा ४८ थी ५० अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई साडाअगीआर इंचनी अने पहोळाई साडाचार इंचनी छे । प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणे लेखकनी पुष्पिका छे इति श्रीकल्पाध्ययनटीकायां द्वितीयपंडं समाप्तमिति भद्रमस्तु ॥ ॥ छ । ॥छ॥ ॥छ ॥ श्री॥ संवत् १६०७ वर्षे फाल्गुनमासे शुक्लपक्षे प्रतिपदातिथौ शुक्रवासरे ॥ श्री ................गच्छे ॥ भ० श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री......... ................."लिषापितां सिद्धान्तकल्पस्य टीकायां द्वितीयपंडं समाप्तं ॥ ग्रंथान सहस्राणि चतुर्दश ॥ छ । ......... .........सिंहराज्ये ॥ जादृशं पुस्तके दृष्ट्वा । तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा । मम दोषो न दीयतां ॥ लिषि...." आ उल्लेखमां ज्यां खाली मीडां मूक्यां छे ते अक्षरोने ए प्रतिना कोई उठाउगीरे भूसी नाख्या छ । प्रतिनी स्थिति साधारण छे । आ प्रति भाभाना पाडाना ज्ञानभंडारनी होई एनी अमे भा० संज्ञा राखी छे । आ प्रति अमे भंडारना वहीवटदार शेठ उत्तमचंद नागरदास द्वारा मेळवी छे।। २ त० प्रति-आ प्रति पाटणना फोफलीयावाडानी आगलीसेरीमांना तपगच्छीय ज्ञानभंडारनी छे । आ भंडार अत्यारे पंचासराना पोळिया उपाश्रयमा राखवामां आन्यो छे । आ प्रतिनां पानां १८९ छे । दरेक पानानी पुठीदीठ १७ लीटीओ छे अने ए दरेक लीटीमा ७० थी ७५ अक्षर छ । प्रतिनी लंबाई १३। इंचनी अने पहोळाई ५ इंचनी छे । एना अंतमां लेखनसमयने सूचवती लेखकनी पुष्पिका आदि क°य नी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक निवेदन | ११ ते छतां प्रतिनुं रूप जोतां ते सोळमी सदीमां लखाई होय तेम लागे छे । प्रति साधारण स्थितिमां छे । लिपि सुंदर छे । प्रति तपगच्छीय भंडारनी होई एनी अमे त० संज्ञा राखी छे । आ प्रति अमे भंडारना संरक्षक शेठ मलुकचंद दोलाचंद द्वारा मेळवी छे । ३ डे० प्रति - आ प्रतिनो परिचय अमे प्रथम विभागना "प्रासङ्गिक निवेदन मां आप्यो छे ते उपरांत अहीं अमारे एटलं ज उमेरवानुं छे के आ प्रतिनां पानां ६११ छे अने तेना अंतमां आ प्रमाणे लेखकनी पुष्पिका छे ॥ संवत् १६२७ वर्षे वैशाप वदि ३ शनौ । अद्येह श्रीअहम्मदाबाद राजनगरमध्ये | द्विजदीक्पालज्ञातीय । महं रवदास सुत रामचंद्र स्वयं हस्ते लक्षितं ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ ॥ ग्रंथानं ४२५९० ॥ ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ श्रीस्तंभनक पार्श्वनाथप्रकटकश्रीनवांगीवृत्तिकारश्री अभयदेवसूरिप्रभुप्राप्तप्रतिष्ठे श्रीबृहत्खरतरगच्छे श्रीपूज्य श्रीजिनराजसूरिपट्टालंकारश्रीजिनभद्रसूरि संताने श्रीजिनचन्द्रसूरिविजयराज्ये ॥ श्रीशंखवालगोत्रे । सा० तेजा वीरपाल ज्ञानपुण्यार्थे सा० । सहसूकेन अमीपालयुतेन इयं श्रीवृहत्कल्पवृत्तिर्लेखिता ॥ ॥ छ ॥ ॥ कल्याणमस्तु ॥ ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ ९ ॥ छ ॥ ४ मो० प्रति – आप्रति पाटणना सागरगच्छना उपाश्रयमां मूकेल शेठ मोंका मोदीना भंडारनी छे । एनां पानां १३४ छे । दरेक पानानी पुठीदीठ सत्तर सत्तर लीटीओ छे अने ए दरेक लीटीमां ६६ थी ७० अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १३ || इंचनी अने पहोळाई ५ | इंचनी छे । प्रतिने छेडे नीचे प्रमाणेनी पुष्पिका छे ॥ छ ॥ ॥ छ ॥ इति श्रीकल्पवृत्ति द्वितीयखंड समाप्तं ॥ छ ॥ संवत् १५७४ वर्षे भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे तृतीया भार्गवे लिखितं प्रतिनी स्थिति जीर्णप्राय छे । प्रति मोदीना भंडारनी होई एनी संज्ञा मो० राखी छे । ५ ले० प्रति—आ प्रति पाटणना सागरगच्छना उपाश्रयमां रहेल लेहेरु वकीलना भंडारनी छे । एनां पानां १३६ छे । दरेक पानानी पूठीदीठ सत्तर सत्तर लीटीओ छे अने दरेक लीटीमा ६९ थी ७४ अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १३ ॥ इंच अने पहोळाई ५ इंच छे । प्रतिना अंतमां लेखकनी पुष्पिका आदि कय नथी । प्रतिनी स्थिति जीर्णप्राय छे । प्रति लेहेरु वकीलना भंडारनी होई एनी अमे ले० संज्ञा राखी छे । 1 उपरोक्त बन्नेय प्रतिओ अमे हेमचंद्रसभा द्वारा मेळवी छे । ६ कां० प्रति – आप्रतिनो परिचय अमे प्रथम विभागमां आप्यो छे एटले आना संबंधमां अमारे अहीं कशुं ज विशेष कहेवानुं नथी । ७ ता० प्रति – आप्रति पाटण-चखतजीनी सेरीमा रहेला संघना भंडारनी छे । एनां पानां ४२० छे, जे पैकी पत्र ९ धी १९८ सुधीनां गुम धयां छे । पानानी पुटीदीठ ४ थी ६ लीटीओ छे अने ए दरेक लीटीमां १२० धी १३० अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई ३१॥॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रासंगिक निवेदन । इचनी अने पहोलाई २॥ इंचनी छे । प्रति लांबी होई त्रण विभागमा लखाएल छे । एना अंतमा लेखकनी पुष्पिका वगेरे कशुंज नथी । आ प्रति ताडपत्रीय होई तेनी संज्ञा अमे ता० राखी छे । पुस्तक बांधवानी वेकाळजीने परिणाम प्रति वळी गएल छतां तेनी स्थिति एकंदर सारी छे । आ प्रति अमे भंडारनी संरक्षक शेठ-धर्मचंद-अभेचंदनी-पेढी द्वारा मेळवी छ। द्वितीयखंडनो विभाग उपर जणावेल द्वितीयखंडनी सात प्रतिओनो अमे प्रस्तुत संशोधनमा उपयोग कर्यो छ । आ सात प्रतो पैकी भा० प्रति सिवायनी बधीये प्रतिओमां द्वितीयखंडनी शरुआत मासकल्पप्रकृत पूर्ण थया पछी वगडाप्रकृतथी थाय छे, ज्यारे भा० प्रतिमां द्वितीयखंडनो प्रारंभ मासकल्पप्रकृत पूर्ण थवा पहेलाथी थाय छे (जुओ मुद्रित विभाग २ पृष्ठ ५९३ टिप्पणी १) अने द्वितीयखंडनी समाप्ति आ साते प्रतोमा जुदे जुदे ठेकाणे करवामां आवी छे । त० डे० अने ता० प्रतिमां द्वितीयखंडनी समाप्ति मुद्रित चतुर्थ विभागना पत्र ११९२ मां तृतीय उद्देशना १७ मा सूत्र अने भाष्यगाथा ४४१३ नी टीका पछी थाय छे (जुओ पृ० ११९२ दि०१), मो० ले० प्रतिमां द्वितीयखंडनी समाप्ति मुद्रित चतुर्थ विभागना १०१५ पानामां द्वितीय उद्देशना २० मा सूत्र अने ३३५४ मी गाथानी टीका पछी मूळसूत्रनी व्याख्या पछी थाय छे (जुओ पृ० १०१५ टि० ५), कां० प्रतिमां द्वितीयखंडनी समाप्ति मुद्रित चतुर्थ विभागना पत्र ११९१ मां तृतीय उद्देशना १७ मा सूत्र अने ४४१२ गाथानी अधूरी टीकाए थाय छे (जुओ पत्र ११९१ टि० ३) अने भा० प्रतिमा १२०३ पानामां तृतीय उद्देशना १८ मा सूत्र अने ४४५८ गाथानी अधूरी टीकाए थाय छे (जुओ पृ० १२०३ टि० १)। __ आ प्रमाणे हस्तलिखित प्रतोना लखावनाराओए द्वितीयखंडनी पूर्णता जुदे जुदे ठेकाणे करी छे जे पैकी सामान्यतया त० डे० अने ता० प्रतिना लखावनाराओए द्वितीयखंडनो विभाग एकंदर ठीक पाड्यो गणाय । बाकीना लखावनाराओए जे विभाग पाड्या छे ए केवळ निर्विवेकपणे ज पाड्या छे, जेमां सूत्रने के कोई अधिकारने पूर्ण नथी थवा दीधां एटलं ज नहि पण चालु गाथानी टीकाने पण पूर्ण थवा दीधी नथी । अस्तु गमे तेम हो ते छतां एटली वात चोकस छे के आ ग्रंथना खंडो पाडनाराओए बुद्धिमत्तापूर्वक खंडो पाड्या नथी । प्रतिओनी समविषमता _प्रस्तुत तृतीयविभागना संशोधन माटे उपर जणाव्या मुजब द्वितीयखंडनी कुल सात प्रतो एकत्र करवामां आवी छे जे चार वर्गमां वहेंचाई जाय छे । अर्थात् मो० ले० ता० प्रतिनो एक वर्ग छे, त० डे० प्रतिनो वीजो वर्ग छे, भा० त्रीजो वर्ग छे अने कां० चोथो वर्ग छे । आ चारे वर्गनी प्रतिओ एक वीजा वर्गनी प्रतिओ साथे पाठभेदवाळी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक निवेदन। १३ छता मो० ले० ता० वर्गनी प्रतिओ अने त० डे० वर्गनी प्रतिओ परस्पर घणुं खरं मळती ज रहे छे ज्यारे भा० प्रति अने कां० प्रति परस्पर जुदा वर्गनी तेमज अतिशय पाठभेदवाळी छतां परस्पर घणी वार मळती रहे छे । आम छतां पाठभेदनी बाबतमां केटलीए वार एक वीजा वर्गनी प्रतिओ सेळभेळ पण थई जाय छे । अर्थात् केटलीक वार अमुक सरखा पाठो अथवा पाठभेदो त० डे० कां० प्रतिमां होय तो केटलीए वार भा० मो० ले० प्रतिमां एकसरखा पाठो होय छे; केटलोक वखत भा० त० डे० प्रतिमां सरखा पाठभेदो होय ज्यारे केटलोक वखत मो० ले० कां० प्रतिमा समानता धरावता पाठो होय छे । आ बधुं छतां घणी वार एम पण बन्युं छे के केटलाक पाठो बधीये प्रतिओमा एकसरखा होय ते छतां मात्र अमुक एक वर्गनी प्रतोमा ज त्यां पाठभेद होय छे । आ बधाय समविपम पाठभेदोने अमे पाने पाने नोंघेला छे जेने विद्वानो स्वयं जोई शकशे । आ बधा पाठभेदो पैकीना केटलाक पाठभेदोने क्यारेक चूर्णिनो तो कोइक वार विशेषचूर्णिनो अने केटलीक वार उभयनो टेको होय छे; ते उपरांत केटलीक वार अमुक एक ज स्थळना जुदा जुदा पाठभेद पैकी अमुक पाठने चूर्णिनो टेको होय अने अमुक पाठने विशेषचूर्णिनो टेको होय एम पण बनवा पाम्युं छे; आ बधेय ठेकाणे अमे चूणि विशेषचूर्णिना पाठो सरखामणी माटे टिप्पणमां नोंध्या छ । प्रस्तुत ग्रन्थमा विद्वानोए पोतानी इच्छानुसार हस्तक्षेप करवाने लीधे एनी जुदी जुदी हस्तलिखित प्रतिओमां अनेक प्रकारना पाठभेदो वधी पड्या छे । जेवा के-केटलीक वार अवतरणो उमेरायां छे, क्यारेक गाथाना पाठभेदो कराया छे, केटलोक वखत चूर्णी आदिना पाठो उमेराया छे, कोइक वार गाथाओने नियुक्तिगाथा पुरातनगाथा वगेरे जुदा जुदा' निर्देशो कराया छे, केटलीक वार वृत्तिमा विशदता लाववामाटे पाठभेद् अने उमेरो करायेल छे अने केटलेक ठेकाणे गाथाओनो क्रमभेद करायो छे. आ बधायने अंगे अमारे घj घणुं कहेवानुं छे जे अमे प्रस्तुत ग्रन्थना छेल्ला विभागमा स्पष्टता पूर्वक जाणावीशुं। ___ आ सिवाय सूत्रोनी संख्यादर्शक अंको, प्रकृतोनो विभाग वगेरे जे जे नवीन बाबतोनो अमे उमेरो कर्यो छे तेविषे पण अमारे जे जे कहेवानुं छे ते अंतिम विभागमा स्पष्टरीते कहीशुं । अहीं मात्र अमे एटलुंज निवेदन करीए छीए के अनेक विद्वानोना मनस्वी हस्तक्षेपने परिणामे जन्मेला पाठभेदोनो विवेक करवामां अत्यंत सावधानी तेम ज तटस्थता जाळववा छतां अमारी स्खलना थएली जणाय तो सुज्ञ विद्वानो क्षमा करे। निवेदक-गुरु-शिष्य मुनि चतुरविजय-पुण्यविजय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ॥ अहम् ॥ प्रथमोद्देशकप्रकृतानामनुक्रमः । सूत्रम् प्रकृतनाम पत्रम् सूत्रम् प्रकृतनाम पत्रम् - १-५ प्रलम्बप्रकृतम् २५५ ३०-३१ प्रतिबद्धशय्याप्रकृतम् ७२७ ६-९ मासकल्पप्रकृतम् । ३४१ ३२-३३ गाथापतिकुलमध्यवास१०-११ वगडाप्रकृतम् ६११ प्रकृतम् ७३८ १२-१३ आपणगृह-रथ्यामुखा ३४ व्यवशमनप्रकृतम् ७५१ दिप्रकृतम् ६५१ ३५-३६ चारप्रकृतम् ৩০০ १४-१५ अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् ६५९ ३७ वैराज्य-विरुद्धराज्यप्रक१६-१७ घटीमात्रकप्रकृतम् तम् १८ चिलिमिलिकाप्रकृतम् ६७२ ३८-४१ अवग्रहप्रकृतम् ७८८ १९ दकतीरप्रकृतम् ६७६ ४२-४३ रात्रिभक्तप्रकृतम् ८०१ २०-२१ चित्रकर्मप्रकृतम् ४४ रीत्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतम् ८३९ २२-२४ सागारिकनिश्राप्रकृतम् ६९१ ४५ हरियाहडियाप्रकृतम् ८४८ २५-२९ सागारिकोपाश्रयप्रकृतम् ६९५ ४६ अध्वप्रकृतम् ४७ सङ्खडिप्रकृतम् १ यद्यपि वृत्तिकृता ३२४९-४२ भाष्यगा- | थाव्याख्यायामेतत्प्रकृतसूत्रं रथ्यामुखापणगृहा ४८-४९ विचारभूमी-विहारभूमिदिसूत्रलेन निर्दिष्टं ( दृश्यतां पत्र ९०६) तथाप्य प्रकृतम् ८९७ स्माभिरिदं प्रकृतं १२-१३ सूत्र-२२९७-९८- ५० आर्यक्षेत्रप्रकृतम् भाष्यगाथा-तयाख्याप्रामाण्यमधिकृत्य आपणगृह-रथ्यामुखादिप्रकृततयोल्लिखितम् ॥ १ भाष्यकृता एतत् प्रकृतं प्राभृतसूत्रलेन २ एतत्प्रकृताभिधानस्थानेऽस्माभिर्विस्मृल्या अपा निर्दिष्टम् ( दृश्यतां गाथा ३२४२), चूर्णिकृता पुनः वृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् इति मुद्रितं वर्तते प्राभृतसूत्रसमानार्थकेन अधिकरणसूत्रलेनो. तथापि तत्र आपणगृहरथ्याम ल्लिखितम् (दृश्यतां पत्र ९०६ टिप्पणी २)॥ इति वाचनीयम् ॥ २ यद्यप्यत्र वस्त्रप्रकृतम् इति मुद्रितं तथाप्यत्र ३ एतत्प्रकृतस्यारम्भः २३२५ भाष्यगाथावृत्तेरन रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतम् इति बोद्धव्यम् ॥ न्तरं सूत्रम् इत्यस्य प्राग् विज्ञेयः । अत्रान्तरे- ३ हरियाहडियाप्रकृतम् इत्यस्मिन् नामनि ॥ आपणगृह-रथ्यामुखादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ हताहतिकाप्रकृतम् हरिताहृतिकाप्रकृतम् अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् इति ज्ञेयम् ॥ इत्युभे अपि नानी अन्तर्भवतः ॥ ८८१ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ॥ अर्हम् ॥ वृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । प्रथम उद्देश। गाथा विषय पत्र ६११-५० ६११-४९ ६११ ६१२ ६१२ ६१२-१३ २१२५-२२९४ वगडाप्रकृत सूत्र १०-११ २१२५-२२८७ १० पहेलं वगडासूत्र एक परिक्षेप-किल्लावाळा अने नीकळवा-पेसवाना एक ज दरवाजावाळा गाम, नगर वगेरेमां निर्ग्रन्थ निर्घन्धीओए एक साथे न रहे, २१२५-२६ वगडासूत्रनो पूर्वना सूत्र साथे संबंध ___ पहेला वगडासूत्रनी व्याख्या २१२७ वगडा, द्वार अने निर्गम-प्रवेशपदनी व्याख्या २१२८-३१ द्वार अने निर्गम-प्रवेशपद समानार्थक छतां वेमाथी एक पदनुं ग्रहण न करता बन्नेय पदोनुं ग्रहण शा माट ? ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने तेनुं समाधान करवामाटे वगडा अने द्वारपदनी चतुभंगी २१३२-२२३१ वगडा अने द्वारपदनी चतुर्भङ्गी पैकी 'एकवगडा-एकद्वार'रूप पहेला भांगावाळा गाम, नगर आदिमां निग्रेन्थ-निग्रं न्थीओने समकाळे रहेवाथी लागता दोषोनुं विस्तृत वर्णन अने विविध प्रायश्चित्तो २१३२-३४ एकवगडा-एकद्वारवाळा क्षेत्रमा निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी पैकी कोई समुदाय रह्यो होय त्यां वीजो वर्ग आवीने रहे तेमांना आचार्य, प्रवर्तिनी वगेरेने लागता दोपो अने प्रायश्चित्तो २१३५-५३ गच्छने रहेवा लायक क्षेत्रनी पडिलेहणा-तपास करवामाटे मोकलेला श्रमणोनी उत्तेजनाथी-प्रेरणाथी साध्वीओए अवगृहीत करेला क्षेत्रने दबाववा माटे ६१३-१४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा ६१४-१८ २१५४-५६ ६१८ २१५७-६२ ६१८-१९ २१६३-७२ विषय विचार करनार, तेमज ए क्षेत्रमा जवानो निर्णय करनार आचार्य, उपाध्याय, वृषभ, भिक्षु वगेरेने लक्षीने प्रायश्चित्तो अने तेथी उत्पन्न थता वेदोदय आदि दोषोनुं अग्निना दृष्टान्त द्वारा समर्थन देहशोभाथी रहित, नीरसभोजी तेमज स्वाध्यायध्यान आदिमां रच्यापच्या साधुओने वेदोदय आदि दोषो लागे ज क्यांथी ? ए प्रकारनी शिष्यनी शङ्का अने तेनुं समाधान वेदोदयना अतिप्रबलपणानुं समर्थन अने ते विषे योद्धानुं अने गारुडिकनुं दृष्टान्त श्रमण अने श्रमणीओ जुदी जुदी वसतिमां वसता होई एक वीजाना सहवासने तजी शके परन्तु गाममा वसनार श्रमणोमाटे गृहस्थ स्त्रीओनो सहवास अनिवार्य होई, शिष्यद्वारा श्रमणोमाटे वनवासनुं समर्थन अने ते सामे आचार्यनो प्रतिवाद चूतफलदोषदर्शी राजानुं दृष्टान्त तेमज श्रमणीओना सहवासवाळा गाम आदिना त्यागनां कारणो एकवगडा-एकद्वार आदिवाळा गाम, नगरादिमां साथे वसता श्रमण-श्रमणीओने विचारभूमी, भिक्षाचो, विहारभूमी, यति-चैत्यवन्दन आदि निमित्ते लागता दोषो एक दरवाजा आदि वाळा ग्राम, नगर आदिमां साथे रहेता श्रमण-श्रमणीओने विचारभूमीए-स्थंडिलभूमीए जतां रस्तामां परस्पर भेगा थवाथी उत्पन्न थता विविध दोषो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो एकद्वारवाळा गाम-नगर आदिमां साथे वसता श्रमण-श्रमणीओने भिक्षाचर्यामाटे जतां सेरी देवळ वगेरेमा अणधारी रीते परस्पर भेगा थई जवाथी लागता दोषो अने सेरी देवळ वगेरेमां श्रमणश्रमणीओना पेसवा-नीकळवाने लगती चतुर्भङ्गी अने ए चतुर्भङ्गीने आश्री प्रायश्चित्तोना पांच आदेशो ६२०-२२ २१७३ ६२२ २१७४-८० ६२२-२४ २१८१-९३ ६२४-२७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । १७ गाथा पत्र ६२८-३० ६३०-३३ विषय २१९४-२२०४ एक दरवाजावाळा गाम-नगर आदिमां श्रमणीओ रहेली होय त्यां श्रमणोना रहेवाथी श्रमणीओने विचारभूमी-भिक्षाचर्या आदि निमित्ते पडती हरकतो अने ते विषे भोगिकनुं दृष्टान्त २२०५-१७ एकद्वार आदिवाळा गाम-नगरादिमां श्रमणीओ रहेली होय त्यां रहेला श्रमणोने कुलस्थविरो द्वारा रहेवाना कारणनो प्रश्न अने कारणसर एकक्षेत्रमा साथे वसता निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओनी विचारभूमी भिक्षाचर्या आदि विषयक व्यवस्था २२१८-३१ जुदा जुदा समुदायना श्रमण श्रमणीओ एक क्षेत्रमा एकी साथे रहेला होय त्यां एकवीजा समुदायनी श्रमणीओने परस्परमां लडी पडवानां कारणो अने तेनी शान्तिमाटे आचार्य, प्रवर्तिनी वगेरेए शुं कर तेनो विधि तेमज एथी उलटा वर्तनार आचार्यादिने प्राप्त थता कलंकादिदोषो अने प्रायश्चित्तो २२३२-७७ वगडा-द्वारपदनी चतुर्भङ्गी पैकी 'एक वगडा-अनेकद्वार'रूप वीजा भांगावाळा गाम-नगर आदिमां समकाळे साथे रहेवाथी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने लागता दोषो २२३२-३४ 'एकवगडा-अनेकद्वार'रूप वीजा भांगामां लागता दोषोना वर्णनमादे प्रतिज्ञा अने द्वारगाथा २२३५-४० १ एकशाखिकाद्वार वाडना आंतरावाळा एक ओळमां रहेला घरमां साथे वसता निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने परस्पर वार्ता लाप, कुशलप्रश्न आदि निमित्ते लागता दोपो २२४१-४४ २ सप्रतिमुखद्वारद्वार ३ 'पार्श्वतो मार्गतो वा' द्वार निम्रन्थीना उपाश्रयनी सामे, बाजुए अगर पाछळ दरवाजावाळा उपाश्रयमा निग्रंथोना वसवाथी संभवता दोषो ६३३-३६ ६३९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गाथा २२४५-६३ २२६४-७१ २२७२-७७ २२७८-८७ २२८८-९४ २२८८-८९ २२९०-९४ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय ४ उच्चनीचद्वार श्रमण श्रमणीओ एकबीजानी एकबीजा उपर के सामे नजर पडे तेवा उपाश्रयमां रह्या होय तेथी उद्भवता दोषो अने तेने लगतां विविध प्रायश्चित्तो [ गाथा २२५८- ६१- - दश कामावस्थानुं - विकारना आवेगोनुं स्वरूप ] ५ धर्मकथाद्वार -काम निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीओ ज्यां एक वीजानी नजीकमां वता होय त्यां रात्रिना वखते धर्मकथा स्वाध्याय वगेरे करवानो विधि निर्ग्रन्थ- निर्मन्थीओ अशिव दुर्भिक्ष आदि कारणोने लई एकाएक अणधारी रीते एकवगडा - अनेकद्वारवाळा गाम-नगरादिमां भेगा आवी पडे त्यां उपाश्रय मेळववाने लगती तेम ज योग्य उपाश्रय न मळतां एकबीजाना उपाश्रयनी नजीकमां वसवानो प्रसंग प्राप्त थतां एक बीजाए केम वर्त्ततुं तेने लगती जयणाओ वगडा-द्वारपदनी चतुर्भङ्गी पैकी 'अनेकवगडाएकद्वार ' रूप त्रीजा भांगावाळा गाम-नगरादिमां निर्ग्रन्थ-निर्मन्थीओने समकाळे रहेवाथी लागता दोषो अने ते विषे कसुंबलवखनी रक्षानिमित्ते नग्न थनार अगारी, अश्व, फुम्फुक अने पेशीनां दृष्टान्तो ११ बीजुं वगडासूत्र निर्मन्थ- निर्मन्थीओए 'अनेकवगडा - अनेकद्वार' वाळा गाम - नगरादिमां वसवुं जोइए जे गाम-नगरादिमां निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओनी भिक्षाभूमी, स्थंडिलभूमी, विहारभूमी वगेरे जुदां जुदां होय तेवा क्षेत्रमां तेओए रद्देवुं गाम-नगरादिमां वसता निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीओमाटे स्त्रीपुरुषनो सहवास अनिवार्य होई शिष्यद्वारा तेमना पत्र ६३९-४३ ६४३-४४ ६४५-४६ ६४७-४९ ६४९-५० ६४९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२९५-२३२५ २२९५-२३२४ २३०४-२४ २२९५-९६ aasiसूत्र साथ आपणगृहादिसूत्रनो संबंध प्रथम आपणगृहादिसूत्रनी व्याख्या २२९७ - २३०३ आपण गृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अंतरापण आदि पदोनी व्याख्या अने आ स्थानोमां रहेला उपाश्रयमां वसनार श्रमणीओने प्रायश्चित्तो आपणगृह, रध्यामुख आदि सार्वजनिक स्थानोमां आवेला उपाश्रयोमां वसती श्रमणीओने जुवान पुरुषो, वेश्यास्त्रीओ विवाह वगेरेना वरघोडाओ, राजा आदि अलङ्कृत-विभूषित पुरुषो वगेरेने जोवाथी उद्भवता दोषो तेम ज सरियाम रस्ता उपर रती साध्वीओने जोई लोकोमां थता अवर्णवादादि दोषोनुं विस्तृतवर्णन अने योग्य उपाश्रयना अभामां तेवा उपाश्रयोमां वसवुं पडे तेने लगती जयणाओ २३२५ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय अरण्यवासनुं समर्थन अने ते सामे प्रतिवाद करवामाटे मुरुण्डराजना दूतनुं उदाहरण आपणगृह- रथ्यामुखादिप्रकृत सूत्र १२-१३ १२ प्रथम आपणगृहादिसूत्र जे उपाश्रयनी चोमेर के पडखामां दुकानो होय त्यां अथवा जे उपाश्रय aण रस्ता, चार रस्ता के छ रस्ता जेवा धोरी रस्ता उंपर आव्यो होय त्यां निर्मथीओए रहेवुं नहि १३ बीजुं आपणगृहादिसूत्र निर्ग्रन्थो आपणगृह, रथ्यामुख आदि जाहेर स्थानोमां आवेला उपाश्रयोमां कारणसर यतनापूर्वक बसी शके १९ पत्र ६४९-५० ६५१-५९ ६५१-५९ ६५१ ६५१ ६५१-५३ १ पृष्ठ ६५१ ने मथाळे अमारी विस्मृतिने लीधे अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् एम छपायेल छे तेने बदले आपणगृह-रथ्यामुखादिप्रकृतम् एम समज ॥ ६५३-५८ ६५९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गाथा २३२६-६१ २३२६-५२ २३२६ २३२७ २३२८-३० बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय पत्र अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृत सूत्र १४-१५ ६५९-६९ १४ पहेलं अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्र ६५९-६६ निर्गन्धीओए दरवाजा विनाना खुल्ला उपाश्रयोमां न रहे. दरवाजावाळो उपाश्रय न मळे तो छेवटे तेवा उपाश्रयमा पडदो बांधीने रहेवू अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ६५९ पहेला अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रनी व्याख्या निम्रन्थीविषयक अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रने आचार्य प्रवर्तिनीने न समजावे, प्रवर्तिनी पोतानी श्रमणीओने न संभळावे तेम ज श्रमणीओ ए सूत्रने न सांभळे तेने लगतां प्रायश्चित्तो दरवाजा विनाना उपाश्रयमा रहेती प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका अने श्रमणीओने लगता प्रायश्चित्तो अने त्यां रहेवाथी संभवता दोषो ६६० अपवादपदे दरवाजा विनाना उपाश्रयमा श्रमणीओने रहेवानो विधि ६६१-६६ दरवाजा विनाना उपाश्रयमां कटना दरवाजाने बांधवानी युक्ति ६६१-६२ दरवाजानी रक्षा करनार प्रतिहारसाध्वी-द्वारपालिका श्रमणी अने तेना गुणो ६६२ दरवाजा विनाना उपाश्रयमां गणिनी, प्रतिहारसाध्वी अने बाकीनी साध्वीओने रहेवाना स्थाननो निर्देश ६६३ प्रस्रवणादिमाटे बहार जवा-आववामां विलम्ब करती निर्मन्धीओने ठपको आपवानो तेम ज निर्ग्रन्थीने बदले कोई बीजो मनुष्य उपाश्रयमां पेसी न जाय तेमाटे तेमनी परीक्षा करवानो विधि ६६३-६४ प्रतिहारसाध्वीद्वारा उपाश्रयना दरवाजानी रक्षा ६६४ २३३१-५२ २३३१-३३ २३३४-३५ २३३६ २३३७-४० २३४१ १ आ प्रकृतनी शरुआत पत्र ६५९ मां भाष्यगाथा २३२५ नी वृत्ति पछी सूत्रम् ना पहेलाथी थाय छ। आ ठेकाणे-॥ आपणगृह-रथ्यामुखादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतम् एटलं उमेरी लेवू॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३४२-४४ २३४५-४९ २३५०-५२ २३५३-६१ २३५३ - ६१ २३६२-७० २३६२-६४ २३६२ २३६३ २३६४ २३६५-१० बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय दरवाजा विनाना उपाश्रयमां रहेती निर्ग्रन्थीओनी मात्रक विषयक तेमज सुवाने लगती यतनाओ निर्ग्रन्थीओए, तेमना उपाश्रयमां रात्रिना समये कोई मनुष्य पेसी गयो होय तेने काढी मूकवानो विधि विहार आदि प्रसंगे मार्गमां आवतां गामोमां सुरक्षित द्वारवाळो उपाश्रय न मळे त्यारे तेम ज तेवा उपाश्रयमां अणधार्यो भयजनक प्रसंग आवी पडे त्यारे तरुण वृद्ध साध्वीओए केम वर्त्ततुं तेनो विधि १५ बीजुं अपावृतद्वारोपाश्रय सूत्र निर्मथने दरवाजा विनाना उपाश्रयमां रहेवुं कल्पे बीजा अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रनी व्याख्या उत्सर्गथी निर्मन्थो उपाश्रयनां द्वार बन्ध न करे. अपवादपदे जे कारणसर दरवाजा बंध करी शके ते कारणोनुं निरूपण अने ते कारणसर द्वार बंध न करे तेने लगतां प्रायश्चित्तो घटीमात्रक प्रकृत सूत्र १६ - १७ १६ पहेलुं घटीमात्रक सूत्र निर्ग्रन्थीओने घटीमात्रक राखवुं अने तेनो उपयोग करवो कल्पे घटीमात्रकप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध पहेला घटीमात्रक सूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थीविषयक घटीमात्र कसूत्रने आचार्य प्रवर्त्ति - नीने न समजावे, प्रवर्त्तिनी पोतानी शिष्याओने न संभळावे तेमज निर्मन्धीओ ए सूत्रने न सांभळे तेने लगतां प्रायश्चित्तो निर्मन्थीओना घटीमात्रकनुं स्वरूप १७ वीजुं घटीमात्रक सूत्र निर्मन्थोने घटीमात्रक राख के वापर कल्पे नहि पत्र २१ ६६४ ६६५-६६ ६६६ ६६७-६९ ६६७ ६६७-६९ ६६९-७२ ६६९ ६६९ ६६९ ६७० ६७० ६७०-७२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ गाथा पत्र बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय २३६५-६६ निम्रन्थो निष्कारण घटीमात्रक राखे तेने लगता प्रायश्चित्तो, तेनां कारणो अने तेने अंगे अपवाद 'धारयितुं परिहत्तुं' पदनी व्याख्या २३६८-७० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने घटीमात्रक राखवानां कारणो अने घटीमात्रकना अभावने लगती यतनाओ ६७०-७१ २३६७ ६७१-७२ २३७१-८२ चिलिमिलिकाप्रकृत सूत्र १८६७२-७६ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने कपडानी चिलिमिलिका पडदो राखवो अने तेनो उपयोग करवो कल्पी शके २३७१ चिलिमिलिकाप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध ६७२ चिलिमिलिकासूत्रनी व्याख्या ६७२ २३७२ 'धारयितुं परिहर्तुम्'पदनी व्याख्या अने सूत्रमा चेलचिलिमिलिकाने ग्रहण करवानुं कारण ६७३ २३७३ चिलिमिलिकानुं स्वरूप वर्णववामाटेनी द्वारगाथा ६७३ २३७४ १ भेदद्वार अने २ प्ररूपणाद्वार १ सूतरनी २ रजुनी-दोरीनी ३ वल्कनी-झाडनी छालनी ४ दंडनी अने ५ कटनी एम पांच प्रकारनी चिलिमिलिका अने तेनुं स्वरूप २३७५-७७ ३ द्विविधप्रमाणद्वार ६७३ निम्रन्थ-निम्रन्थीओए पांच प्रकारनी चिलिमिलिका पैकी कई केवडी अने केटली राखवी तेनुं प्रमाण २३७८-८२ ४ 'उपभोगो द्विपक्षे द्वार ६७४-७६ निफ्रंथ-निग्रंथीओ जे जे कारणसर चिलिमिलिकाओनो उपयोग करे ते कारणोनुं वर्णन ६७६-८९ २३८३-२४२५ दकतीरप्रकृत सूत्र १९ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने जलाशय, नदी आदि पाणीनां स्थानोनी नजीकमां अथवा किनारे ऊभा रहेवू, बेसबु, आडे पडखे थर्बु, उंची जवू, अशन-पान Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय पत्र ६७६ ६७७ ६७७-८५ ६७७ ६७८-८१ आदि आहार करवो, स्वाध्याय-ध्यान-काउसग वगेरे कशुं य करवू कल्पे नहि २३८३ दकतीरप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध १९ दकतीरसूत्रनी व्याख्या २३८४ दकतीरसूत्रनी विस्तृत व्याख्यामाटे द्वारगाथा २३८५-२४१२ १दकतीरद्वार २३८५-८६ 'दकतीर क्यां सुधी कहेवाय ?' तेने लगता सात आदेशो-मतो अने ते पैकीना प्रामाणिक मतोनो निर्णय २३८७ पाणीना किनारे ऊभा रहेQ, बेस, सुq, स्वाध्याय ध्यान वगैरे करवाथी लागता अधिकरणादि दोषो २३८८-९८ अधिकरणदोषनुं स्वरूप जलाशय वगेरेना नजीकमां श्रमण-श्रमणीओने ऊभेला, वेठेला, सुतेला, स्वाध्याय-ध्यान-काउसग वगैरे करता जोई स्त्री, पुरुष, पशु, जंगली माणसो, जंगली पशु वगेरे तरफथी उत्पन्न थता अधिक रणदोषनुं स्वरूप २३९९ पाणीनी नजीकमां ऊभा रहेg, बेस, वगेरे दश स्थानोने लगतुं सामान्य प्रायश्चित्त २४०० निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचलानुं स्वरूप २४०१-१२ संपातिम तथा असंपातिम एम वे प्रकारना पाणीना किनारे बेस, वगेरे दश स्थान सेवनार आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर, क्षुल्लक ए पांच निर्ग्रन्थ अने प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका ए पांच निर्ग्रन्थीओने लक्षीने प्रायश्चित्तना विविध आदेशो [गाथा २४०२-सम्पातिम असम्पातिम दकती रनुं स्वरूप] २४१३-१५ २ यूपकद्वार यूपकनुं स्वरूप अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ६८२ ६८२ ६८२-८५ ६८५-८६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय ___ गाथा २४१६-१९ पत्र ६८६-८७ ३ आतापनाद्वार पाणीना किनारे आतापना लेवाथी लागता दोषो दकतीरद्वार, यूपकद्वार अने आतापनाद्वारने लगतो अपवाद अने जयणाओ २४२०-२५ ६८७-८९ २४२६-३३ ६८९-९१ २४२६-२७ ६८९ ६९० २४२८ २४२९-३० २४३१ चित्रकर्मप्रकृत सूत्र २०-२१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने चित्रकर्मवाळा उपाश्रयमां रहेवू न कल्पे परंतु चित्रकर्म रहित उपाश्रयमां रहे, कल्पे चित्रकर्मप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध २०-२१ चित्रकर्मसूत्रनी व्याख्या चित्रकर्मसूत्रना व्याख्यानमाटे द्वारगाथा निर्दोष सदोष चित्रकर्मनुं स्वरूप आचार्य, उपाध्याय, वृषभ आदिने आश्री चित्रकर्मवाळा उपाश्रयमा रहेवाने लगतां प्रायश्चित्तो चित्रकर्मवाळा उपाश्रयमा रहेवाथी लागता विकथा, स्वाध्यायव्याघातादि दोषो अपवादपदे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने चित्रकर्मवाळा उपाश्रयमा रहेQ पडे तेने लगती जयणाओ ६९० ६९० २४३२ ६९१ २४३३ ६९१ २४३४-४८ २४३४-४५ सागारिकनिश्राप्रकृत सूत्र २२-२४ ६९१-९५ २२-२३ सागारिकनिश्रासूत्र ६९१-९४ निर्ग्रन्थीओने शय्यातरनी-वसतिना स्वामिनी निश्रातेमनी संभाळ राखवानी कबूलात सिवाय कोई पण ठेकाणे रहेवं कल्पे नहि किन्तु शय्यातरनी निश्राए ज रहेQ कल्पे सागारिकनिश्रासूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ६९१ २२-२३ सागारिकनिश्रासूत्रनी व्याख्या ६९३ सागारिकनिश्रासूत्रने आचार्य प्रवर्तिनीने न समजावे, २४३४ २४३५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६९२ २४३६ ६९२ २४३७-४२ ६९२-९३ २४४३-४५ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुजाचार्य विषय प्रवर्तिनी भिक्षुणीओने न समजावे, भिक्षुणी ते न सांभळे तेने लगतां प्रायश्चित्तो अने दोपो सागारिकनी-शय्यातरनी निश्राए न रहेनार निर्ग्रन्थीओने प्रायश्चित्तो सागारिकनी निश्रा सिवाय रहेनार निर्ग्रन्थीओने लागता दोषो अने तेना समर्थनमाटे गवादिपशुवर्ग, अजिका-बकरी, पक्वान्न, इक्षु, घी आदि दृष्टान्तो अपवादपदे सागारिकनी निश्रा सिवाय रहे, पडे त्यारे केवी वसतिमां-उपाश्रयमा रहेQ ? योग्य वसतिना अभावमां वृषभो केवी रीते निर्घन्धीओनी रक्षा करे अने ते वृषभो केवा सद्गुणोथी विभूपित होय ? तेनुं स्वरूप २४ सागारिकनिश्रासूत्र निर्ग्रन्थो सागारिकनी निश्राए के अनिश्राए रही शके ___२४ सागारिकनिश्रासूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थो उत्सर्गथी सागारिकनी निश्राए न रहे पण कारणसर तेओ सागारिकनी निश्राए रही शके विनाकारणे सागारिकनी निश्राए रहेनारने प्रायश्चित्त अने लागता दोषो अपवादपदे निर्ग्रन्थोने सागारिकनी निश्राए रहेवानां कारणो ६९३-९४ ३९४ २४४६-४८ ६९४ २४४६ ६९४ २४४७ ६९५ २४४८ ६९५ २४४९-२५८२ सागारिकोपाश्रयप्रकृत सूत्र २५-२९ ६९५-७२६ २४४९-२५५० २५ पहेलं सागारिकोपाश्रय सूत्र ६९५-७१८ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने सागारिकना सम्बन्धवाळा उपाश्रयमा रहेवं कल्पे नहि सागारिकोपाश्रयप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध २५ पहेला सागारिकोपाश्रयसूत्रनी व्याख्या २४५०-२५५० सागारिकनुं स्वरूप ६९६-७१८ सागारिकपदना निक्षेपो २४४९ २४५० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६९६-९९ ६९६-९७ ६९७-९९ ६९९-७१८ ६९९ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय २४५१-६४ सागारिकपदनो द्रव्यनिक्षेप २४५१-५४ सागारिकपदना द्रव्यनिक्षेपना रूप, आभरणविधि, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गन्ध, आतोद्य, नाट्य, नाटक, गीत आदि प्रकारो, तेनुं स्वरूप तथा तेने लगतां प्रायश्चित्तो २४५५-६४ द्रव्यसागारिकना सम्बन्धवाळा उपाश्रयमा निवास करवाथी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने लागता दोषोनुं वर्णन २४६५-२५५० सागारिकपदनो भावनिक्षेप २४६५-६६ भावसागारिकनुं स्वरूप २४६७ अब्रह्मचर्यना कारणरूप सामान्यप्रजा, कौटुंविक अने दंडिकनी मालकीवाळा भावसागारिकनु अर्थात् दिव्य मनुष्य अने तिर्यच संबंधी रूपy-प्रतिमा तथा रूपसहगतनुं स्वरूप अने तेना जघन्य मध्य मादि प्रकारो २४६८-२५१५ दिव्यप्रतिमानुं स्वरूप २४६८-६९ दिव्यप्रतिमाना प्रकारो २४७०-८६ निर्ग्रन्थोने अब्रह्मचर्यना कारणरूप दिव्यप्रतिमायुक्त उपाश्रयोमा वसवाथी स्थान अने प्रतिसेवना निमित्ते लागतां प्रायश्चित्तो अने तेने लगती शिष्याचार्यनी प्रश्नोत्तरी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने दिव्यप्रतिमायुक्त उपाश्रयमां वसवाथी लागता आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, विराधना, विकथा आदि दोपो अने तेनुं व्याख्यान [गाथा २४८९ मां-अविकोप्य आज्ञा विषे मौर्योतुं दृष्टान्त ] २४९४-२५०३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने देवादिकना सान्निध्यवाळी अब्रह्मचर्यना कारणरूप दिव्यप्रतिमायुक्त उपाश्रयमां वसवाथी तेमना तरफथी परीक्षा, प्रत्यनीकपणुं तेम ज भोगेच्छानिमित्ते थती हरकतो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ६९९-७०० ७००-११ ७००-४ २४८७-९३ ७०६-८ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । २७ गाथा पत्र ७०८ ७०८-९ ७०९-११ ७१२-१५ ७१२-१४ विषय २५०४ देवताना सान्निध्यवाळी प्रतिमाओना प्रकारो २५०५-८ प्रतिमानुं सान्निध्य करनार देवताना १ सुखविज्ञप्य सुखमोच्य २ सुखविज्ञप्य-दुःखमोच्य वगेरे चार प्रकारो अने तेने लगतां अकरनैगम, रत्नदेवता, विद्यादेवता अने मातंगविद्यादेवतानां दृष्टान्तो २५०९-१५ सामान्यजनता, कौटुंबिक अने दंडिकनी मालकी वाळी दिव्यस्त्रीप्रतिमानु, तेमनी स्त्रीओनुं तेम ज तेने लगतां प्रायश्चित्तोनुं उतरता-चढियातापणुं अने तेनां कारणो २५१६-३३ . मनुष्यप्रतिमानुं स्वरूप २५१६-२६ सामान्यजनता, कोटुम्बिक अने दंडिकना स्वामित्व वाळी मनुष्यप्रतिमाना जघन्य-मध्यमादि प्रकारो अने तेनो विभाग तेम ज आवी प्रतिमावाळा उपाश्रयमां वसवाथी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने लागतां स्थान अने प्रतिसेवनाविषयक प्रायश्चित्तो तथा दोषोनुं स्वरूप २५२७-३३ १ सुखविज्ञप्य-सुखमोच्य २ सुखविज्ञप्य-दुःखमोच्य वगेरे मनुष्य स्त्रीना चार प्रकारो अने तेनां उदाहरणो, तेने लगतां प्रायश्चित्तो अने दोषो तथा तेना उतरता-चढियातापणानो विभाग अने कारणो २५३४-४६ तिर्यचप्रतिमानुं स्वरूप २५३४-४३ सामान्यप्रजा, कौटुंबिक अने दंडिकना आधिपत्य वाळी तिथंचप्रतिमाना जघन्य मध्यमादि प्रकारो अने आ जातनी प्रतिमावाळा उपाश्रयमां वसवाथी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने लागतां स्थान अने प्रतिसेवना विषयक प्रायश्चित्तो अने दोपो २५४४-४६ सुखविज्ञप्य-सुखमोच्य आदि तिर्यंचलीना चार प्रकारो अने तेने लगतां उदाहरणो [गाथा २५४६-मनुष्य साथे मैथुनप्रसंग सेवनार सिंहण- दृष्टान्त ] निर्ग्रन्थीओने आश्री दिव्य, मनुष्य, तिर्यंच स्त्रीनी प्रतिमाने बदले पुरुषप्रतिमा समजवानी भलामण ७१४-१५ ७१५-१७ ७१५-१६ ७१६-१७ २५४७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ गाथा २५४८-५० २५५१-८२ २५५१ २५५२-५५ २५५६-७७ २५७८-८२ वृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय अने कुतरा साथे मैथुनप्रसंग सेवनार अगारीनुं दृष्टान्त सागारिकापाश्रयसूत्र लगतो अपवाद अने तेने अंगेनी जयणाओ २६ - २९ सागारिको पाश्रयसूत्रो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक विभागवार सूत्रो २६-२९ सागारिकोपाश्रयसूत्रोनो २५ मा सागारिको पाश्रय सूत्र साथै सम्बन्ध २६ - २९ सागारिकापाश्रयसूत्रोनी व्याख्या २५ मा सूत्रमां कहेली हकीकत ज २६ थी २९ सूत्रोमां कहेबानी होई आ सूत्रोनी रचना निरर्थक छे ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने तेनुं समाधान निर्ग्रथविषयक २६ - २७ सागारिकोपाश्रयसूत्रनी विस्तृत व्याख्या सविकार पुरुष अने पुरुषप्रकृति तेम ज स्त्रीप्रकृति नपुंसकनुं स्वरूप, तेमना १ मध्यस्थ २ आभरणप्रिय ३ कांदर्पिक अने ४ काथिक ए चार प्रकारोनुं स्वरूप, तेना भेद-प्रभेदो अने तेमना संबंधवाळा उपाश्रयोमां निष्कारण वसवाथी लागता संयमविराधनादि दोपो अने प्रायश्चित्तो तथा कारणसर सागारिका संबंधवाळा उपाश्रयोमां रहेवुं पडे तेने लगती जयणाओ अने अपवादो निर्ग्रन्थीविषयक २८-२९ सारिक सूत्रो व्याख्यानी निर्ग्रन्थसूत्रोनी व्याख्यानी जेम भलामण २५८३ - २६२८ प्रतिबद्धशय्याप्रकृत सूत्र ३०-३१ २५८३–२६१५ ३० पहेलुं प्रतिबद्धशय्यासूत्र जे उपाश्रयनी नजीकमां गृहस्थो रहेता होय त्यां निर्मन्थोने रहे कल्पे नहि पत्र ७१८ ७१८ ७१९-२६ ७१९ ७१९ ७१९-२० ७२०-२५ ७२५-२६ ७२७-३८ ७२७-३५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ७२७ ७२७ ७२७ ७२७-२९ ७२९-३४ विषय २५८३ प्रतिबद्धशय्याप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध पहेला प्रतिबद्धशय्यासूत्रनी व्याख्या २५८४-८६ 'प्रतिबद्ध' पदना निक्षेपो, भावप्रतिबद्धना प्रस्रवण स्थान रूप अने शब्द ए चार प्रकारो, द्रव्यप्रतिबद्धभावप्रतिबद्धपदनी चतुर्भंगी अने तेने लगतो विधि निषेध २५८६-९१ निम्रन्थोने 'द्रव्यतः प्रतिवद्ध-भावतः अप्रतिबद्ध'रूप पहेला भांगावाळा उपाश्रयमां वसवाथी लागता अधिकरणादिदोषो, तेनुं स्वरूप अने तेने लगती यतनाओ २५९२-२६१३ निग्रंथोने 'द्रव्यतः अप्रतिबद्ध-भावतः प्रस्रवण स्थान-रूप-शब्दप्रतिबद्ध रूप बीजा भांगावाळा उपाश्रयमां वसवाथी लागता दोषो, तेनुं स्वरूप अने तेने लगती विविध यतनाओ [गाथा २५९३–प्रस्रवण, स्थान, रूप अने शब्द प्रतिबद्धपदनी षोडशभंगी] २६१४-१५ निग्रंथोने 'द्रव्य-भावप्रतिवद्ध'रूप त्रीजा भांगावाळा उपाश्रयमां वसवाथी लागता दोषो वगेरेनी भलामण अने 'द्रव्य-भावअप्रतिबद्ध' भांगावाळा उपाश्रयोनी निर्दोषतार्नु कथन २६१६-२८ ३१ बीजुं प्रतिबद्धशय्यासूत्र जे उपाश्रयनी नजीकमां सागारिक रहेता होय त्यां निम्रन्थीओने रहेQ कल्पे २६१६ निर्ग्रन्थीविषयक प्रतिबद्धशय्यासूत्रनी व्याख्यामाटे निर्ग्रन्थसूत्रना व्याख्याननी भलामण २६१७-२० द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रयमां वसवाथी निर्घन्धीओने लागता दोषो यतना वगेरे २६२१-२८ भावप्रतिबद्ध उपाश्रयमां वसवाथी निर्ग्रन्थीओने लागता दोषो यतना वगेरे अने पूपलिकाखादकनुं उदाहरण ७३५-३८ ७३५-३६ ७३६-३८ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय गाथा २६२९-७५ गृहपतिकुलमध्यवासप्रकृत सूत्र ३२-३३ ७३८-५० २६२९-६७ ३२ पहेलं गृहपतिकुलमध्यवाससूत्र ७३८-४८ निर्ग्रन्थोने गृहपतिकुलना वच्चोवच रहेq कल्पे नहि २६२९ गृहपतिकुलमध्यवासप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ७३८ पहेला गृहपतिकुलमध्यवाससूत्रनी व्याख्या ७३८ २६३०-६७ मध्यपदनी विस्तृत व्याख्या ७३९-४८ २६३०-३२ मध्यपदना निर्वाहि-अनिर्वाहि सद्भावमध्य अने निर्वाहि-अनिर्वाहि असद्भावमध्य ए चार प्रकारो अने ते दरेकना शाला, मध्य, छिंडी ए त्रण प्रकारो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ७३९ २६३३-४४ १ शालाद्वार ७३९-४२ निग्रंथोने शालामां वसवाथी थती हरकतो अने लागता दोषोनुं १ प्रत्यपाय २ वैक्रिय ३ अपावृत ४ आदर्श ५ कल्पस्थ ६ भक्त ७ पृथ्वी ८ उदक ९ अग्नि १० वीज अने ११ अवहन्न ए अगीआर द्वारथी वर्णन २६४५-५२ २ मध्यद्वार ७४२-४४ निर्ग्रन्थोने शालाना मध्यमां आवेला ओरडा वगेरेमा वसवाथी थती हरकतो अने लागता दोषोनुं उपरोक्त प्रत्यपायादि अगीआर द्वार उपरांत १ अतिगमन २ अनाभोग ३ अवभाषण ४ मजन अने ५ हिरण्य ए पांच द्वारथी निरूपण २६५३-५८ ३ छिंडीद्वार ७४५-४६ निम्रन्थोने छिंडीमां वसवाथी लागता दोषो २६५९-६७ शाला, मध्य अने छिंडीद्वारने लगती यतनाओ ७४६-४८ २६६८-७५ ३३ बीजं गृहपतिकुलमध्यवाससूत्र ७४९-५० निर्घन्धीओने गृहपतिकुलना वञ्चोवच वसवू कल्पे नहि १ आ ठेकाणे मूळमां गाथापतिकुलमध्यवासप्रकृतम् एम छपायुं छे तेने बदले गृहपतिकुलमध्यवासप्रकृतम् ए रीते वाचवू ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ गाथा पत्र बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय निर्बन्धीओने शाला आदिमां वसवाथी लागता दोपोनुं वर्णन अने प्रस्तुत सूत्रनी सार्थकता २६६८-७५ ७४९-५० २६७६-२७३१ व्यवशमनप्रकृत सूत्र ३४ ७५१-६९ भिक्षु, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षुणी आदिए एकवीजा साथे केश थयो होय तो परस्पर उपशम धारण करीने क्लेशनी शान्ति करी लेवी जोइए. कोई भिक्षु, आचार्यादि पोते शान्त थाय पण सामी व्यक्ति शान्त न थाय तो जे शान्त थाय ते आराधक छे अने जे शान्त न थाय ते विराधक छे एम समजबुं २६७६ व्यवशमनप्रकृतनो पूर्वप्रकृत साथे सम्बन्ध ७५१ ३४ व्यवशमनसूत्रनी व्याख्या ७५१ २६७७ सूत्रमा मात्र भिक्षुशव्द होई चशब्दद्वारा आचार्य, उपाध्यादिनुं ग्रहण ७५२ २६७८-७९ व्यवशमित अने प्राभृतशब्दना एकार्थिको तथा इच्छा अने आढाशब्दनो अर्थ ७५२-५३ २६८०-९२ 'अधिकरण'पदना निक्षेपो ७५३-५८ २६८०-८१ द्रव्यअधिकरण- स्वरूप ७५३ द्रव्यअधिकरणना निर्वर्तना, निक्षेपणा, संयोजना अने निसर्जना ए चार प्रकारो अने तेनुं स्वरूप तेम ज प्रसंगोपात योनिप्राभृतादि ग्रंथ द्वारा अश्वोत्पादक सिद्धसेनाचार्य अने द्रव्ययोगनो उपदेश करनार इतर आचार्यनां दृष्टान्तो २६८२-९२ भावाधिकरणनुं स्वरूप ७५४-५८ २६८२-८४ भावाधिकरण-कषायद्वारा जीवो केवी रीते जुदी जुदी गतिमां जाय छे तेनुं स्वरूप ७५४-५५ १आ प्रकृतने भाष्यकारे गा. ३२४२ मां प्राभृतसूत्र तरीके अने चूर्णिकार-विशेषचूर्णिकारोए अधिकरणसूत्र तरीके जणावेल छे (जुओ मुद्रित पृष्ठ ९०६ टि. २) ते छतां प्रस्तुत सूत्रना वास्तविक आशयने ध्यानमा लई अमे आ प्रकृतनुं नाम व्यवशमनप्रकृतम् एवं आप्यु छ । प्रात अने अधिकरण शब्द एकार्थिक छ। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. गाथा पत्र ७५५-५६ ७५८-५९ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय २६८५-८८ निश्चय व्यवहारनयनी अपेक्षाए द्रव्योना गुरुत्व, लघुत्व, गुरुलघुत्व अने अगुरुलघुत्यनुं स्वरूप जीवो स्वाधीनपणे कर्मो करे छे छतां तेमनी उंचनीच गति स्वाधीनपणे न थतां कर्मोने आश्रीने ज थाय छे तेनुं | कारण ए शंकानुं समाधान २६९२ जीवो जे कर्मो खपावे छे ते उदीर्ण होय के अनु दीर्ण तेनुं स्वरूप २६९३-९७ १ सचित्त २ अचित्त ३ मिश्र ४ वचोगत ५ परिहार अने ६ देशकथा ए पांच द्वारो वडे भावा धिकरण उत्पन्न थवानां कारणोनुं निरूपण २६९८-२७०५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओमां परस्पर अधिकरण-क्लेश थतो होय त्यारे उपेक्षा, उपहास, उत्तेजना अने सहायपणुं करनारने प्रायश्चित्तो अने उपेक्षा उपहा सादि पदोनी व्याख्या २७०६-७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओ परस्पर अधिकरण करता होय तेनी उपेक्षा करनार अथवा तेने शान्त नहि करनार आचार्या दिने लागता दोपो अने तेने लगतुं सरोवरवासी जलचरो अने हस्तियूथनुं दृष्टान्त । २७०८-१२ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओ परस्पर केश करता होय तेनी उपेक्षा करवाथी आचार्यादिने व्यवहार अने निश्च यनयनी अपेक्षाए लागता दोषोनुं स्वरूप २७१३-१७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओमां परस्पर थता अधिकरण क्लेशने शान्त करवानी रीत अने तेने लगतो उपदेश २७१८-३० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओ परस्पर अधिकरण करता होय त्यारे आचार्यादिनी समजावटी एक जण शान्त थाय पण पर-वीजो शान्त न थाय त्यारे शुं करवू तेने लगतो विधि बताववाना प्रसंगमा 'पर'शब्दना नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल आदेश क्रम बहु प्रधान अने भावनिक्षेपो अने तेनुं रहस्यपूर्ण विवेचन २७३१ अधिकरण-केश करवाने लगतुं अपवादपद ७६०-६१ ७६२ ७६३ ७६४-६५ ७६६-६९ ७६९ % 3D Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विपयानुक्रम । माथा विषय पत्र ७७०-७४ ७७० ७७० २७३२-५८ चारप्रकृत सूत्र ३५-३६ २७३२-४७ ३५ पहेलं चारसूत्र निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने चोमासामां एक गामथी वीजे गाम जदूं कल्पे नहि २७३२-३३ चारप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध पहेला चारसूत्रनी व्याख्या २७३४ वर्षावासना प्रावृट् अने वर्षा ए वे प्रकारो अने तेमा विहार करवाथी तेमज वर्षाऋतु पूर्ण थया पछी विहार नहि करवाथी लागतां प्रायश्चित्तो २७३५-३७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वर्षावासमां विहार करवाथी - लागता आज्ञा-विराधनादि दोषो २७३८-४७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वर्षावासमां विहार करवाने लगतां आपवादिक कारणो अने तेने अंगेनी यतनाओ २७४८-५८ ३६ बीजं चारसूत्र निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने हेमंत अने प्रीष्मऋतुमा विहार करवो कल्पे २७४८ वीजा चारसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध बीजा चारसूत्रनी व्याख्या २७४९-५० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने हेमंत-ग्रीष्मऋतुमा विहार नहि करवाथी लागता दोषो अने विहार करवाथी थता लाभो २७५१-५८ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने हेमंत-ग्रीष्मऋतुमा विहार करतां मार्गमां आवतां मासकल्पने योग्य गामनगरादि क्षेत्रोने चैत्यवन्दनादि निमित्ते छोडी देवाथी लागता दोषो अने तेने लगतुं अपवादपद ७७२-७४ ७७४-७८ ७७५ २७५९-९१ वैराज्य-विरुद्धराज्यप्रकृत सूत्र ३७ ७७८-८७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वैराज्य-विरुद्धराज्यमां तुरतातुरत जq आवq कल्पे नहि वैराज्य-विरुद्धराज्यप्रकृतनो पूर्वसूत्रसाथे सम्बन्ध २७५९ ७७८ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गाथा २७६०-६१ २७६२ २७६३-६४ २७६५ २७६६-८३ २७८४ - ९१ २७९२-९३ २७९४-९५ २७९२-२८३५ २७९२-२८१३ २७९६ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय वैराज्यविरुद्ध राज्य सूत्रनी व्याख्या वैराज्य, विरुद्धराज्य, सद्योगमन, सद्योआगमनादि पदोनी व्याख्या 'वैर' पदना निक्षेप अने भाववैरने लगतुं महिपवृषभ - व्याघ्र - सिंहादिशब्दोथी सूचित चौरसेनाधिपति अने ग्राममहत्तरनुं दृष्टान्त वैराज्यपदना अराजक, यौवराज्य, वैराज्य अने द्वैराज्य ए चार प्रकारो अने तेनुं स्वरूप विरुद्ध राज्यपदनी व्याख्या वैराज्य - विरुद्धराज्यमां गमनागमनने लगता अत्राणदिवा-पथ-दृष्टपदवडे ६४ भांगाओ अने ते द्वारा थता संयम-आत्मविराधनादिदोषोनुं विस्तृत स्वरूप वैराज्य - विरुद्धराज्यमां जवा-आववा अंगेना अपवादो अने जयणाओ अवग्रहप्रकृत सूत्र ३८-४१ ३८ पहेलुं अवग्रहसूत्र गृहपतिने त्यां भिक्षाचर्यामाटे गएला निर्बंधने कोई वस्त्र, पात्र, कांबळ आदि माटे विज्ञप्ति करे तो ते निथने ते उपकरण आचार्य थकुं लइने आचार्य समक्ष हाजर करी तेमनी आज्ञा लीधा पछी ज राख के वापखुं कल्पे अवग्रहप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै संबंध पहेला अवग्रहसूत्रनी व्याख्या वस्त्रना याच्ञावस्त्र अने निमन्त्रणावस्त्र ए वे प्रकारो अने याच्यावना स्वरूपमाटे पीठिकामांनी ६०३४८ गाथानी भलामण अने निमंत्रणावस्त्रनुं स्वरूप निमंत्रणावस्त्रने लगती पृच्छादि सामाचारी अने तेथी विरुद्ध वर्त्तवाथी लागता प्रायश्चित्त अने आज्ञादि दोषो पत्र ७७८ ७७९ ७७९ ७८० ७८० ७८१-८५ ७८५-८७ ७८८-८०१ ७८८-९४ ७८८ ७८८ ७८९ ७९० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७९७-२८०२ पृच्छादिसामाचारीविरुद्ध निमंत्रणावरुखने ग्रहण करतां लागता दोपोनुं मिध्यात्व, शंका अने विराधना द्वारवडे वर्णन पृच्छादिसामाचारीविरुद्ध निमंत्रणावस्त्रने ग्रहण कर्या पछी लागता दोषो २८०३-७ २८०८-९ २८१० - १३ २८१४ २८१५-३५ २८१५ - १९ २८२० २८२१ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय निमंत्रणावरुनी शुद्धतानुं स्वरूप भिक्षाचर्यामाटे गएला निर्मन्थो पृच्छादिसामाचारीशुद्ध रीते जे निमंत्रणावस्त्रने ग्रहण करे ते वस्त्र ते निर्ग्रन्थो आचार्य पासे न पहोंचे त्यां सुधी कोनी सत्तामा रहे तेनुं निरूपण ३९ बीजुं अवग्रहसूत्र स्थंडिलभूमी आदिए जता निर्ग्रथने कोई वस्त्रादिनी विज्ञप्ति करे तो ते उपकरणादि ते निर्ग्रथने आचानी निश्राए लई तेमनी पासे हाजर करी तेमनी आज्ञा लीधा पछी ज राखवुं तेमज वापरवुं कल्पे ४०-४१ त्रीजुं चोधुं अवग्रहसूत्र गृहपतिने त्यां भिक्षाचर्यामाटे अथवा स्थंडिलभूमि आदिमाटे गएली निर्मन्थीने कोई गृहपति वस्त्रपात्रादि उपकरणनी विज्ञप्ति करे तो ते वस्त्र - पात्रादि ते निर्मन्थीने प्रवर्त्तिनी थकुं लई प्रवर्त्तिनी समक्ष हाजर करी प्रवर्त्तिनीनी आज्ञा लीधा पछी ज राख तेमज वापवुं कल्पे निर्बंधी पोते वस्त्र ग्रहण करे तेने लगतां प्रायश्चित्तो अने तेथी संभवता मिध्यात्व, शंका, अभियोग आदि दोषो अने पट्टकनुं दृष्टान्त निर्ग्रन्थीमाटेनां वस्त्रनी परीक्षानो अने तेमने वस्त्र आपवानो विधि निर्मन्थीए पोते वस्त्र लेवामाटे निषेध करातो होवाथी प्रस्तुत सूत्रनी सार्थकता शी ए शंकानुं समाधान ३५ पत्र ७९०-९१ ७९२-९३ ७९३ ७९४ ७९५ ७९५-८०१ ७९६-९७ ७९७ ७९७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ___ गाथा २८२२-२९ विषय निग्रंथीओए वस्त्रग्रहणमाटे वर्जनीय अवर्जनीय स्थानो अने तेमणे वस्त्र वापरवामाटेनो विधि लाभ-हानिसूचक वस्त्रोनी परीक्षा अने शुभाशुभ फळनो निर्देश ७९८-९९ २८३०-३५ ७९९-८०१ ८०१-३९ ८०१-२८ ८०१ ८०१ ८०२ ८०२ २८३६-२९६८ रात्रिभक्तप्रकृत सूत्र ४२-४३ २८३६-२९२३ ४२ पहेलुं रात्रिभक्तसूत्र निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने रात्रिमा के विकाळ वेळाए अशन-पानादि ग्रहण करवू कल्पे नहि २८३६-३७ रात्रिभक्तप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध पहेला रात्रिभक्तसूत्रनी व्याख्या २८३८ 'रात्रि' अने 'विकाल' पदनी व्याख्या अने तद्विष यक इतर आचार्योना मतो २८३९-४० पंचमहाव्रत के भिक्षाचर्याना बेंतालीस दोषोमां रात्रिभक्तग्रहणनो निषेध नहि होवा छतां अहीं तेनो निषेध केम करवामां आवे छे ए शंकानुं समाधान २८४१-४८ रात्रिमा भक्त ग्रहण करवाथी लागता आज्ञा, अन वस्था, मिथ्यात्व, संयमात्मविराधनादि दोषो तथा प्राणवध, महाव्रतादि विषयक शंकादि दोषो [गाथा २८४१–रात्रिभक्त ग्रहण करवाथी मिथ्यात्वगमनदोषविषये भिक्षुर्नु दृष्टान्त ] २८४९-७१ रात्रिभोजनविषयक 'दिवा गृहीतं दिवा भुक्तम् , दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तम्' इत्यादि चतुर्भगी, तेनुं विस्तृत स्वरूप अने तेने लगतां सामान्य प्रायश्चित्तो तथा नौसंस्थित प्रायश्चित्तो अर्थात् प्रायश्चित्तोनी चार चार नावाओ २८७२-२९२३ रात्रिभक्तग्रहणने लगतां आपवा दिक कारणो २८७२ रात्रिभक्तग्रहणने लगता अपवादपदवर्णनविषयक द्वारगाथा ८०२-५ ८०५-१४ ८१४-२८ ८१४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । ३७ गाथा पत्र ८१४ ८१ ८१५ ८१५-२८ ८१६-२८ विषय २८७३-७४ १ ग्लानद्वार ग्लानने आश्री रात्रिभक्तग्रहणविषयक चतुर्भगी अने तेने लगतुं अपवादपद २८७५ . २ प्रथम, ३ द्वितीय अने ४ असहिष्णुद्वार क्षुधित, पिपासित अने असहिष्णुने आश्री रात्रि भक्तग्रहणविषयक अपवादपद २८७६ ५ चन्द्रवेधद्वार चन्द्रवेधअनशनने आश्री रात्रिभक्तग्रहणविषयक अपवादपद २८७७-२९२३ ६ अध्वद्वार २८७७-८१ अध्वद्वारने लगती ऊर्द्धदर अने सुभिक्ष पदने आश्री चतुर्भगी अने ते पैकी प्रथम तृतीय भंगे ज्ञान दर्शन चारित्र निमित्ते अध्वगमननी अर्थात् देशा न्तरगमननी अनुज्ञा २८८२-२९२३ अध्वगमनोपयोगी उपकरणोनुं स्वरूप २८८२-८३ अध्वगमनोपयोगी अर्थात् विहारमार्गोपयोगी उप करण विषयक द्वारगाथा अने प्रतिद्वारगाथा २८८४-८७ १ चर्मद्वार तलिका, पुट, वर्ध, कोशक, कृत्ति, सिक्कक, कापोतिका आदि चर्मनां उपकरणो, तेनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग २८८८-८९ २ लोहग्रहणद्वार पिष्पलक, सूची, आरी, नखरदन आदि लोहोप करण अने शस्त्रकोशनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग २८९० ३ नन्दीभाजनद्वार अने ४ धर्मकरकद्वार नन्दीभाजन अने धर्मकरकनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग २८९१ ५ परतीर्थिकोपकरणद्वार परतीर्थिकोपकरणनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग २८९२ ६ गुलिकाद्वार अने ७ खोलद्वार गुलिका अने खोलनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग ८१७-१८ ८१८ ८१८ ८१९ ८१९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ८१९-२० ८२० ८२०-२१ ८२१ ८२२-२७ ८२२ ८२३ विषय २८९३-९५ अध्वगमनोपयोगी उपकरण नहि लेनारने प्रायश्चित्तो अने प्रयाण करतां शकुनावलोकन २८९६ सिंहपर्षदा, वृषभपर्षदा अने मृगपर्षदा ए त्रण पर्ष दानुं स्वरूप २८९७-२९०० जे सार्थनी साथे मार्गमां गया होय ते सार्थनो अधिपति साधुओने अधवच्चे रखडावी मूके तेने समजाववानो उपाय तेमज भिक्षा वगैरे न मळे तेने लगतो विधि आदि २९०१-५ विहार करतां मार्गमा सिंहादिपर्षदाओने आगळ पाछळ चालवानो क्रम आदि २९०६-२३ मार्गमां अन्न-पाणी न मळे तेने लगतो विधि मार्गमा अन्न पाणी वगेरे न मळे त्यारे तेने मेळ ववाने लगता विधिविषयक द्वारगाथा २९०७-८ १ प्रतिसार्थद्वार रस्तामां आवी मळेला वीजा सार्थमांथी गीतार्थ संविनोए भिक्षा लेवानो विधि २९०९-१० २ स्तेनपल्लीद्वार चोरपल्लीमां मळता आहारने ग्रहण करवानो विधि अने अविधिथी भिक्षा लेवा अंगेनां प्रायश्चित्तो २९११-१७ ३ शून्यग्रामद्वार खाली पडेला गाममांथी भिक्षा लेवानो विधि अने अविधिथी भिक्षा ग्रहणकरतां लागतां प्रायश्चित्तो [गाथा २९१२-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य द्रव्योनुं स्वरूप] २९१८-१९ ४ 'रुक्खाईण पलोयण' द्वार २९२० ५ नन्दिद्वार 'नन्दि' पदनी व्याख्या २९२१-२३ ६ द्विविधद्रव्यद्वार आहार-पानविषयक यतनाओ ८२३-२४ ८२४-२५ ८२५-२६ ८२६ ८२७-२८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागंनो विपयानुक्रम । गाथा २९२४-६८ ८२८ २९२४-२६ २९२७-३४ २९३५-४२ २९४३-५७ विषय ४३ बीजं रात्रिभक्तसूत्र पूर्वप्रतिलिखित वसति संस्तारकादि सिवाय रात्रिमा वीजुं कशु ज लेवु कल्पे नहि वीजा रात्रिभक्तसूत्रनी व्याख्या उत्सर्गी रात्रिमा संस्तारक, वसति आदि ग्रहण करनारने लागतां प्रायश्चित्तो अने दोपो रात्रिमा वसति आदि ग्रहणने लगता अपवादो रात्रिमा गीतार्थ निर्ग्रन्थोमाटे वसति ग्रहणनो विधि अगीतार्थमिश्रित गीतार्थ निर्ग्रन्थोए रात्रिमा वसति ग्रहण करवानो विधि तेम ज अंधारामां वसतिनी प्रतिलेखनामाटे प्रकाश मंगाववाने लगती यतनाओ ग्रामादिनी बहार वसति ग्रहणने लगती यतनाओ, कुल, गण, संघादिनी रक्षा निमित्ते लागता अपराधोनी निर्दोषता अने तेने लगतुं सिंहत्रिकघातक कृतकरण श्रमण- उदाहरण ८२८ ८२९-३१ ८३१-३३ ८३३-३६ २९५८-६८ ८३६-३९ २९६९-३००० रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृत सूत्र ४४ ८३९-४७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने रात्रिसमये अथवा विकाळ वेळाए वस्त्रादि लेवां कल्पे नहि २९६९ रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतनो पूर्व सूत्रसाथे सम्बन्ध ८३९ रात्रिवस्त्रादिग्रहणसूत्रनी व्याख्या २९७०-७३ रात्रिमा वस्त्रादि ग्रहण करवाथी लागतां प्रायश्चित्तो अने तेने लगतो अपवाद ८३९-४० २९७४-७५ चौरविषयक संयतभद्र गृहिभद्र अने संयतप्रान्त गृहिप्रान्त पदनी चतुर्भंगी २९७६-७८ संयतभद्र-गृहिप्रान्त चोरद्वारा गृहस्थो लुटाया होय त्यारे तेमने वस्त्रादि आपवाने लगतो विधि ८४०-४१ १ आ ठेकाणे मूळमां वस्त्रप्रकृतम् एम छपायुं छे तेने बदले रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतम् एम वांचq ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गाथा २९७९-८१ ३००१-३७ ३००१ २९८२ - ३००० श्रमण गृहस्थ, श्रमण श्रमणी, समनोज्ञ अमनोज्ञ के संविग्न असंविग्न ए उभय पक्ष लुंटाया होय त्यारे एक वीजाने वस्त्र आपवा- लेवाने लगतो विधि ३००२-४ ३००५-३७ ३००५-७ ३००८ ३००९-१३ ३०१४ - २२ ३०२३ - ३७ ३०३८-३१३८ ३०३८-३९ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय गृहिभद्र- संयतप्रान्त चोरद्वारा निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी पैकी कोई एक लुंटा होय तेमणे परस्पर वस्त्र लेवा-देवानो विधि हरियाहडियाप्रकृत सूत्र ४६ हरियाहडियाप्रकृतनो पूर्वसूत्रसाथ संबंध हरियाह डियासूत्रनी व्याख्या अध्वगमननां कारणो अध्वगमननो विधि मार्गमां आचार्यने गुप्त राखवानो विधि अने तेनां कारणो संयतप्रान्त गृहिभद्र आदि चार प्रकारना चोर चोरोए चोरेला श्रमण- श्रमणीओनां वस्त्रादिने तेमनो भद्रिक सेनाधिपति पाछां मोकलावे अने ते चोरो ते वस्त्रादिने ज्यां त्यां नाखी जाय तेने राखवा आदिने लगतो विधि पापी चोरो अथवा चोरसेनापति आचार्यने मारी नाखवा इच्छे त्यारे आचार्यने गुप्त राखवानो विधि चोरोए चोरेलां वस्त्रोने पाछां मेळववाने लगतो विस्तृत विधि अध्वगमनप्रकृत सूत्र ४६ निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीओने रात्रिमां अगर विकाळ वेळाए अध्वगमन कल्पे नहि अध्वगमनप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथ संबंध पत्र ८४१-४२ ८४२-४७ ८४८-५६ ८४८ ८४८ ८४८-४९ ८४९-५६ ८४९ ८४९ ८४९-५० ८५१-५२ ८५२-५६ ८५६-८० ८५६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ गाथा पत्र ३०४० ३०४१-४२ ८५७ ८५७-५९ ३०४३-५० ८५९-६१ ३०५१-६० ३०५१-५२ ८५९ ३०५३-६० बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय अध्वगमनसूत्रनी व्याख्या सामान्य रीते निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओमाटे अध्वगमननो निषेध होई रात्रिमा एमाटे सविशेष निषेध अध्वना पंथ अने मार्ग ए बे प्रकार अने 'रात्रि'विषयक मान्यताने अंगे बे आदेशो १ मार्गद्वार रात्रिमा मार्गरूप अध्वगमनथी लागता मिथ्यात्व, उड्डाह, मूलगुण-उत्तरगुणरूप संयमविराधना, आदि दोषोनुं वर्णन अने तेने लगतो अपवाद । २ पथिद्वार पन्थना छिन्नाध्वा अने अच्छिन्नाध्वा ए बे प्रकार रात्रिमा पंथरूप अध्वगमनथी लागता मिथ्यात्व, उड्डाह, संयमविराधना आदि दोषोनुं स्वरूप अने अध्वोपयोगी उपकरण नहि राखवाथी लागता दोषो अपवादपदे अध्वगमनने लगतां कारणो अने अध्योपयोगी उपकरणोनो संग्रह तेम ज योग्य सार्थनी तपास करवानो विधि १ भंडी २ बहिलक ३ भारवह ४ औदरिक अने ५ कार्पटिक ए पांच प्रकारना सार्थो अने कया सार्थ साथे निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थीओए जq तेनो विधि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए अध्वगमनने योग्य सार्थ केवो छे ? सार्थवाह केवो छे ? आतियात्रिक अर्थात् सार्थना व्यवस्थापको केवा छे ? सार्थ खाद्य पदार्थ वगेरे केवां करियाणां लइने जाय छे ? सार्थ रस्तामा रोजना केवडा पडाव करशे ? सार्थ कये वखते चाली कये वखते पडाव करशे ? इत्यादि बावतोनी तपास करवानो विधि आठ प्रकारना सार्थवाहो अने आठ प्रकारना आतियात्रिको सार्थव्यवस्थापको अध्वगमनविषयक ५१२० भांगाओ ८५९-६१ ३०६१-६५ ८६१-६२ ३०६६-६८ ८६२-६३ ३०६९-७९ ३०८० ३०८१-८५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ गाथा ३०८६-९१ निर्मन्थ-निर्मन्थीओए सार्थवाहनी अनुज्ञा लेवानो विधि अने भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थंडिल आदिने लगती यतनाओनुं स्वरूप अध्वगमनोपयोगी अध्यकल्पनुं स्वरूप ३०९२-९८ ३०९९-३१०३ अध्वकल्पनो उपयोग निर्दोष ? के आधाकर्मिक पिण्डादिनुं लेवं निर्दोष ? ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने तेनुं समाधान आदि ३१०४-३८ ३१३९-३२०६ ३१३९ ३१४०-४१ ३१४२-४८ ३१४९-५० ३१५१-५४ ३१५५-५७ ३१५८-६७ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय अध्वगमनने लगता अशिव, दुर्भिक्ष, राजद्रिष्ट आदि व्याघातो - अडचणो अने तेने लगती यतनाओ विस्तृत वर्णन संखडीप्रकृत सूत्र ४७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने रात्रिसमये संखडिमां अथवा संखडिने लक्ष्यमा राखी क्यांय जवं कल्पे नहि संखडिप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै संबंध संखडिसूत्रनी व्याख्या 'संखडि' पदनी व्याख्या अने तेमां जनार निर्मन्थनिर्ग्रन्थीओने प्रायश्चित्त दिवस अने पुरुषसंख्या द्वारा संखडिना प्रकारो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो संखडि - जमण ज्यां धतुं तेवां शैलपुरनुं ऋषितडाग, भरुचना कुण्डलमेण्ठ व्यन्तरनी यात्रा, प्रभास, अर्बुदाचल, प्राचीनवाह आदि पुरातन ऐतिहासिक स्थानोनुं वर्णन मायाकपट, लोलुपता आदि कारणोने लीधे संखडिमां जनारने लागतां प्रायश्चित्तो संखडिवाळा गाम आदिमां जतां रस्तामां लागता मिध्यात्व, उड्डाह, विराधना आदि दोषोनुं स्वरूप संखडिवाळा गाममां पहोंच्या पछी वसति, परतीथिंकतर्जना, बिलधर्म, वादित्रशब्द, गीतशब्द, पत्र ८६७-६९ ८६९-७० ८७१-७२ ८७३-८० ८८१-९७ ८८१ ८८१ ८८१ ८८१-८३ ८८३ ८८४ ८८४-८५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा ८८५-८७ विषय सविकारस्त्रीशब्द निमित्त लागता दोपोनुं तेम ज आवश्यक, स्वाध्याय, प्रतिलेखना, भोजन, भाषा, वीचार, ग्लान विषयक दोषोनुं वर्णन वसति, परतीर्थिकतर्जनादि तेम ज आवश्यक, स्वाध्याय आदि विषयक दोपोना बचाव खातर संग्वडिवाळा गाममा दाखल न थतां गामनी बहार रहेवाथी लागता दोषोनुं वर्णन अने तेने अंगे शिष्य-आचार्यनी प्रश्नोत्तरी ३१७७-८२ संखडिमां जवाथी कयां कारणसर दोपो लागे अने कयां कारणसर दोषो न लागे तेनुं निरूपण ३१८३-८९ यावन्तिका, प्रगणिता, सक्षेत्रा, अक्षेत्रा, बाह्या, आकीर्णा आदि अनाचीर्ण संखडिओना प्रकारो, तेनुं स्वरूप अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ३१९०-३२०६ संखडिमां जवा योग्य आपवादिक कारणो अने तेने लगती जयणाओ-दोषथी वचवाना प्रकारो ८८८-८९ ८९०-९१ ८९१-९२ ८९३-९७ ३२०७-३९ ८९७-९०५ ८९७-९०० ३२०७-२१ HTTAR विचारभूमी-विहारभूमीप्रकृत सूत्र ४८-४९ ४८ पहेलुं विचारभूमी-विहारभूमी सूत्र निम्रन्थोने रात्रिमा विचारभूमीए के विहारभूमीएस्वाध्यायभूमीए एकला जवू कल्पे नहि पण बीजाने साथे लईने जवू कल्पे विचारभूमी-विहारभूमीप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध पहेला विचारभूमी-विहारभूमी सूत्रनी व्याख्या विचारभूमीना कायिकीभूमी अने उच्चारभूमी ए बे प्रकारो अने तेने अंगे रात्रिमा एकला जनार निर्मन्थने लागता दोपोनुं वर्णन तथा तेने लगतो अपबाद अने यतनाओ विहारभूमीविषयक विधि अने यतनाओ ८९७ ८९७ ३२०८-१७ ८९८-९९ ३२१८-२१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ बृहत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा ३२२२-३९ ३२२२-२४ विषय ४९ बीजूं विचारभूमी-विहारभूमी सूत्र निर्ग्रन्थीने एकलीने रात्रे विचारभूमीए के स्वाध्यायभूमीए जQ कल्पे नहि पण वे त्रण चार आदि भेगा मळीने जर्बु कल्पे विचारभूमीए एकली जनार निर्ग्रन्थीने प्रायश्चित्त अने स्त्रीस्वभावनुं वर्णन निर्ग्रन्थीने योग्य उपाश्रयो अने तेने लगती यत. नाओ अने अपवाद निर्ग्रन्थीने योग्य विहारभूमीविषयक यतनाओ अने अपवाद ९०१ ३२२५-३४ ९०२-३ ३२३५-३९ ९०४-५ ३२४०-८९ ९०५-२१ ३२४०-४३ ३२४४-८९ ३२४४-५८ ९०७-२१ आर्यक्षेत्रप्रकृत सूत्र ५० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओना विहारयोग्य क्षेत्रनी मर्यादा आर्यक्षेत्रप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध प्रथम उद्देशानां ५० सूत्रो पैकी कयां कयां सूत्रो द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव साथे संबंध धरावे छे तेने लगतो विभाग आर्यक्षेत्रसूत्रनी व्याख्या आर्यक्षेत्रसूत्रनी विस्तृत व्याख्या आर्यक्षेत्रविषयक प्रस्तुत सूत्रने अथवा संपूर्ण कल्पाध्ययन छेदशास्त्रने नहि जाणनार अथवा जाणवा छतां तेने आचारमा नहि मूकनार आचार्यनुं अयो. ग्यपणुं अने ते विषे सापर्नु,-तेना माथाना अने तेनी पूंछडीना रमुजी संवादरूप,-दृष्टान्त अने तेनो उपनय-घटना [गाथा ३२५१-खसद्रुमशृगालनु आख्यानक गाथा ३२५२-वानर अने सुगृहिका (सुघरी) चकलीनुं संवादात्मक कथानक ] कल्पाध्ययनने नहि जाणनार आचार्य- अयोग्यपणुं दर्शाववा वैद्यपुत्रनुं उदाहरण अने तेनी घटना ५०७-११ ३२५९-६० ९१२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२६१-६२ ३२६३-६५ ३२६६–७० ३२७१-७४ ३२७५-८९ हत्कल्पसूत्र तृतीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय आर्यक्षेत्रसूत्रना आविष्कारनुं स्थान अने तेनो विषय आपनो नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए बार प्रकारे निक्षेप अने तेनुं स्वरूप [ गाथा ३२६३ – आर्यदेश अने तेनां मुख्य नगरनां नाम ] निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए आर्यक्षेत्रमां विचरवानां कारणो सूत्रोक्त आर्यक्षेत्रनी मर्यादा भगवान् महावीरना जमानाने आश्री होवानुं निरूपण अने आर्यक्षेत्रनी बहार विचरवाथी लागता दोषो अने तेने लगतुं स्कन्दकाचार्यनुं दृष्टान्त ज्ञान-दर्शन- चारित्रादिनी रक्षा अने वृद्धि माटे आर्यक्षेत्रनी बहार विचरवानी आज्ञा अने तेने लगतुं संप्रतिराजनुं दृष्टान्त ४५ पत्र ९१२-१३ ९१३-१४ ९१४-१५ ९१५-१६ ९१७-२१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्तयुपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽअर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकी.. चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । प्रथम उद्देशः। [प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतानन्तरवयंशः।] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो त्थु णं गोयमाइगणहराणं तस्सीस-पसीसाण य॥ स्थविर-आर्यभद्रवाहुखामिसन्दृब्धं खोपज्ञनियुक्तिसमेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । • श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । तपाश्रीक्षेमकीर्त्याचार्यविहितया वृत्त्या समलङ्कृतम् । -42 प्रथम उद्देशः। [प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतानन्तरवर्त्यशः ।] व ग डा प्रकृतम्१ व्याख्यातानि मासकल्पविषयाणि चत्वार्यपि सूत्राणि । सम्प्रत्यग्रेतनसूत्रमारभ्यते--- से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमण-प्पवेसाए नो कप्पइ निग्गं थाण य निग्गंथीण य एगतओ वत्थए १-१०॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह गाम-नगराइएसुं, तेसु उ खेत्तेसु कत्थ वसियन्वं । जत्थ न वसंति समणीमब्भासे निग्गपहे वा ॥ २१२५ ॥ ग्राम-नगरादिषु तेषु' पूर्वसूत्रोक्तेषु क्षेत्रेषु कुत्र वस्तव्यम् ? इति चिन्तायामनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते---यत्र ‘अभ्यासे' स्वप्रतिश्रयासन्ने 'निर्गमपथे वा' निर्गमद्वारे श्रमण्यो न वसन्ति तत्र वस्तव्यमिति ॥ २१२५ ॥ ॥ अथ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह अहवा निग्गंधीओ, दट्ट ठिया तेसु गाममाईसु । मा पिल्लेही कोई, तेणिम सुत्तं समुदियं तु ॥ २१२६ ॥ अथवा निर्ग्रन्थीस्तेषु प्रामादिषु स्थिता दृष्ट्वा मा 'कश्चिद्' आचार्यादिस्तत्रागत्य 'प्रेरयेत्' निष्काशयेदिति एतेन कारणेनेदं सूत्रं 'समुदितं' समायातम् ॥ २१२६ ॥~ ११ एतच्चिह्नान्तर्गतपाठस्थाने भा० पुस्तके सूत्रम् इत्येतावदेव वर्तते ॥ २°णी अम्मा ता० ॥ ३- एतचिह्नान्तर्गतमवतरणं गाथा तट्टीका च भा० पुस्तके न विद्यन्ते । चूर्णी विशेषचूर्णावपि च नेयं गाथा व्याख्याता वरीवृत्यत इति । गाथैषा बृहद्भाष्ये वर्तते । ४ पिल्लेजिहि को ता०॥ ५°ति । अत इदं सूत्रं ता० मो० ले० ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाते सूत्रम् १० अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा यावत्करणाद् नगरे वा खेटे वा इत्यादिपदपरिग्रहः । एकवगडाके एकद्वारके एकनिष्क्रमण - प्रवेशके च क्षेत्रे नो कल्पते निर्ग्रन्थानां च निर्ग्रन्थीनां च एकतो मिलितानां 'वस्तुम्' अवस्थातुमिति सूत्रे - सङ्क्षेपार्थः ॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकृदाह वगडा उ परिक्खेवो, पुव्वत्तो सो उदव्वमईओ । दारं गामस्त मुहं, सो चेव य निग्गम-पवेसो ॥ २१२७ ॥ 'वगडा नाम' ग्रामादेः सम्बन्धी परिक्षेपः । स तु' स पुनः परिक्षेपः 'द्रव्यादिकः ' द्रव्य-क्षेत्र -काल- भावभेदभिन्नः, यथा पूर्वम् - “पासाणिट्टग-मट्टिय-खोड - कडग कंटिगा भवे दवे ।" ( गा० ११२३ ) 10 इत्यादिना > मासकल्पप्रकृते उक्तस्तथैवात्रापि द्रष्टव्यः । 'द्वारं नाम' ग्रामस्य मुखम्, ग्रामप्रवेश इत्यर्थः । स एव च निर्गमेनोपलक्षितः प्रवेशो निर्गम-प्रवेशोऽभिधीयते ॥ २१२७ ॥ इत्थं सूत्रे व्याख्याते सति शिप्यः प्राह 5 दारस्स वा वि गहणं, कायव्वं अहव निग्गमपहस्स । जइ एगट्ठा दुन्नि वि, एगयरं बूहि मा दो वि ॥ २१२८ ।। 15 यदि तदेव द्वारं स एव च निर्गम-प्रवेशस्ततो हे आचार्य ! द्वारपदस्य वा ग्रहणं कर्त्तव्यम् अथवा निर्गम-प्रवेशपथपदस्य, यदि नाम द्वे अपि पदे अमू एकार्थे ततः 'एकतरम्' एकद्वारपदम् एकनिष्क्रमण-प्रवेशपदं वा सूत्रे 'ब्रूहि' भणेत्यर्थः, मा द्वे अपि ॥ २१२८ ॥ एवं शिष्येणोक्ते सूरिराह 20 चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ ॥ २१२९ ।। ह बगडा -द्वारयोश्चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा - एका वगडा एकं द्वारम्, यथा पर्वतादिपरिक्षिप्ते १ -1 * एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः भा० कां० नास्ति ॥ २ 'त्रसमुदायार्थः कां० ॥ ३ 'माईसु ता० ॥ ४ त० डे० कां० विनाऽन्यत्र - 'म' वृत्यादिकः परि° भा० । म परि° ता० मो० ० ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ५ ६ एकतरं ब्रूहि मा द्वे, तद्यथा-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि चा एगवगडाए एग दुबारा नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंधीण य एगयओ वत्थए; अथवा – से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगनिक्खमण-पवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंधीण य एगयओ वत्थए; एवं च कृते सूत्रं लघुतरमुपजायते, अर्थोऽपि स एव भवति ॥ २१२८ ॥ इत्थं शिष्ये भा० । एगवगडेगदारा, एगमणेगा अणेग एगा य । "दारस्स० गाधा । यदि तदेव द्वारं तदेव च निर्गम-प्रवेशः अतो द्वयोरप्येकार्थत्वादेकतरस्य ग्रहणं कर्तव्यम् न द्वयोरपि कथं पुनः ? - से गामंसि वा नगरंसि वा जावरायहाणिसिवा ] एगवगडाए एगदुवाराए नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंधीण; अहवा – एगवगडाए एगनिक्खमण-प्पवेसाए नो कप्पड़ निग्गंथाणं निग्गंथीणं; एवमुक्ते लघु च सूत्रं भवति स एवार्थः ॥ एवमुक्ते आचार्य आह - एगवगडे० गाहा ॥” इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ ७ अत्र चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा - एकवगडा एकद्वारा १ एकवगडा अनेकद्वारा २ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१२७-३३] प्रथम उद्देशः । ६१३ कचिद ग्रामादौ १ । एका वगडा अनेकानि द्वाराणि, यथा प्राकारादिपरिक्षिप्ते चतुारनग. रादौ २ । अनेका वगडा एकं द्वारम् , यथा पद्मसरःप्रभृतिपरिक्षिप्ते वहुपाटके ग्रामादौ ३ । अनेका दगडा अनेकानि द्वाराणि, यथा पुप्पावकीर्णगृहे ग्रामादौ ४, एषः 'चरमः' चतुर्थो भङ्गः ॥ २१२९ ॥ यदि नामवं चत्वारो भगान्ततः प्रस्तुते किमायातम् ? इत्याह तइयं पड़च्च भंगं, पउमसराईहिं संपरिक्खित्ते । अन्नोन्नदुवाराण वि, हवेज एगं तु निक्खमणं ।। २१३० ॥ अत्र भङ्गचतुष्टये तृतीयं भङ्गं प्रतीत्य एकद्वारग्रहणमेकनिष्क्रमण-प्रवेशग्रहणं च सूत्रे कृतम् । कुतः ? इत्याह-पद्मसरसा आदिशब्दाद् गर्तया पर्वतेन वा सम्परिक्षिप्ते ग्रामादौ अन्यान्यद्वारकाणामपि पाटकानामेकमेव निष्क्रमणं भवेत् , तिसृषु दिक्षु पद्मसरःप्रभृतिव्याघातसम्भवादेकस्यामेव दिशि निष्क्रमण-प्रवेशौ भवत इति भावः ॥ २१३० ॥ ततः किम् ? इत्याह- 10 तत्थ वि य होति दोसा, वीयारगयाण अहव पंथम्मि । संकादीए दोसे, एगवियाराण वोच्छिहिई ॥ २१३१ ॥ तत्रापि च' तृतीयभङ्गे सपृथक्पाटकेषु स्थितानामपि, किं पुनः प्रथमभङ्गे द्वितीयभङ्गे वा स्थितानामित्यपिशब्दार्थः, » 'विचारगतानां' संज्ञाभूमौ सम्प्राप्तानाम् अथवा तस्या एव 'पथि' मार्गे गच्छतां 'दोषाः' शङ्कादयो भवन्ति । ताँश्च शङ्कादीन् दोषान् 'एकविचाराणाम्' 15 एकसंज्ञाभूमीकानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च सूरिः स्वयमेव नियुक्तिगाथाभिर्यथावसरमुत्तरत्र (गाथा २१७४-७७) 'वक्ष्यति' भणिष्यति ॥ २१३१ ॥ तत्र प्रथमभङ्गे तावद् दोषानुपदिदर्शयिषुराह एगवगडं पडुच्चा, दोण्ह वि वग्गाण गरहितो वासो। जइ वसइ जाणओ ऊ, तत्थ उ दोसा इमे होंति ॥ २१३२॥ 20 एकवगडम् उपलक्षणत्वादेकद्वारं च क्षेत्रं प्रतीत्य 'द्वयोरपि वर्गयोः' साधु-साध्वीलक्षणयोरेकत्र वासः 'गर्हितः' निन्दितः, न कल्पत इत्यर्थः । यदि सः 'ज्ञायकः' 'संयत्योऽत्र सन्ति' इति जानानस्तत्रागत्य वसति ततः 'इमे' वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ॥ २१३२॥ इदमे सविशेषमाहएगवगडेगदारे, एगयर ठियम्मि जो तहिं ठाइ । 25 गुरुगा जइ वि य दोसा, न होज पुट्टो तह वि सो उ॥ २१३३॥ एकवगडे एकद्वारे च क्षेत्रे यत्र पूर्वमेकतरः-संयतवर्गः संयतीवर्गों वा स्थितो वर्तते तत्र अनेकवगडा एकद्वारा ३ अनेकवगडा अनेकद्वारा ४ । एषः 'चरमः' चतुर्थो भगः ॥२१२९ ॥ भा०॥ १ "तत्थ वि य० गाधा कंठा । अतोऽथं च 'एगदुवाराए एगनिक्खमण-पवेसाए' कतं सूत्रम् । यथा दोषा भवन्ति तथा नियुक्तिगाथाभिर्वक्ष्यत्याचार्यः ।" इति चूर्णी विशेषचूर्णां च ॥ २॥ एतच्चिनान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३°टकस्थि ता. मो० ले० ॥ ४ संयत-संयतील° भा० ॥ ५'तः, प्रतिकृष्ट इत्यर्थः भा०॥ ६ यदि तत्र 'झायकः' जानानः सन् वसति भा० ॥ ७°वस्फुटतरमाह भा० ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० 'यः' आचार्यादिः प्रवर्त्तिन्यादिर्वा पश्चादागत्य तिष्ठति तस्य चत्वारो गुरुकाः । यद्यपि च तत्र 'दोषाः ' वक्ष्यमाणा न भवेयुः तथाप्यसौ भावतस्तैः स्पृष्टो मन्तव्यः ॥ २१३३ ॥ तत्र पूर्वस्थितसंयतीवर्गं क्षेत्रमङ्गीकृत्य तावदाह— सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणि देउले ठाइ | ठायंतगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ।। २१३४ ।। श्रुत्वा चशब्दादवधार्य च 'समुदानं' भैक्षं सुलभप्रायोग्यद्रव्यम्, ततो गच्छमानीय देवकुले उपलक्षणत्वादपरस्मिन् वा सभा - शून्यगृहादौ तिष्ठति । तत्र च तिष्ठतामाचार्यादीनां चत्वारो गुरुकाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः || २१३४ ॥ नामेव निर्युक्तिगाथां व्याख्यानयतिफड्डगपइपेसविया, दुविहोव हि - कजनिग्गया वा वि । उवसंपजिउकामा, अतिच्छमाणा व ते साहू || २१३५ ॥ संजइभावियखेत्ते, समुदाणेऊण बहुगुणं नच्चा | संपुन्नमाकप्पं, विंति गणिं पुडुपुट्ठा वा ।। २१३६ ॥ केनापि स्पर्द्धकपतिना खसाधवः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं प्रेषिताः, यद्वा द्विविधः - औघिकौपग्रह - कभेदभिन्नो य उपधिस्तस्योत्पादनार्थं कार्येषु वा - कुल-गण- सङ्घसम्बन्धिषु निर्गताः 'उपसम्पत्तु15 कामा वा' उपसम्पदं जिघृक्षवः अध्वानं वा अतिक्रामन्तस्तत्र ते साधवः प्राप्ताः || २१३५ ॥ एते स्पर्द्धकपतिप्रेषितादयः संयती भाविते क्षेत्रे 'समुदानयित्वा ' भैक्षं पर्यट्य प्रचुरप्रायोग्यलाभेन बहुगुणं तत् क्षेत्रं ज्ञात्वा गुरूणां समीपमायाताः सम्पूर्णमासकल्पं 'गणिनम् ' आचार्य पृष्टा अपृष्टा वा ब्रुवते ॥ २१३६ ॥ किं तत् ? इत्याह तुम्भ वि पुण्णो कप्पो, न य खेत्तं पेहियं में जं जोग्गं । जं पिय रुइयं तुब्भं, न तं बहुगुणं जइ इमं तु ॥ २१३७ ॥ ‘क्षमाश्रमणाः !” युष्माकमपि मासकल्पः पूर्णो वर्तते, न च तत् क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं यद् भवतां ‘योग्यम्' अनुकूलम्, यदपि च क्षेत्रं युष्माकं 'रुचितम् ' अभिप्रेतं न तद् बहुगुणं यथेदमस्मत्प्रत्युपेक्षितं क्षेत्रम् ॥ २१३७ ॥ परम् एगोत्थ नवरि दोसो, मं पड़ सो वि य न बाहए किंचि । यसो भावो विजइ, अदोसवं जो अनिययस्स ।। २१३८ ।। नवरमेक एवात्र दोषो विद्यते परं सोऽपि 'मां प्रति' मदीयेनाभिप्रायेण न किञ्चिद् बाधते । न चासौ 'भावः' पदार्थो जगति विद्यते यः 'अनियतस्य' अनिश्चितस्यानुद्यमवतो वा पुरुषस्यादोषवान् भवति, किन्तु सर्वोऽपि सदोष इति भावः ॥ २९३८ ॥ अहवण किं सिट्टेणं, सिट्ठे काहिह न वा वि एयं ति । खुडमुहा संति इहं, जे कोविजा जिणवई पि ॥ २१३९ ।। अथवा किमस्माकमनेनार्थेन 'शिष्टेन' कथितेन कार्यम् ? न किञ्चिदित्यर्थः, यतो यूयं शिष्टे 5 10 20 25 30 १ एतदेव व्या० भा० ॥ २ केचन स्वसाधवः केनापि स्पर्धकपतिना क्षेत्र' त०डे० कां० ॥ ३ 'ग्यभक्त पानला भा० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१३४-४३] प्रथम उद्देशः । सति करिष्यथ वा न वा 'एनम्' अस्मदभिप्रेतमर्थमिति वयं न विद्मः । कुतः ? इत्याह'क्षौद्रमुखाः' मधुमुखा मधुरभाषिण इत्यर्थः 'सन्ति' विद्यन्ते 'इह' अस्मिन् गच्छे भवतां वल्लभेश्वराः ये जिनवाचमपि 'कोपयेयुः' अन्यथा कुर्युः, आस्तां तावदस्मदादिवचनमित्यपिशब्दार्थः ॥ २१३९ ॥ इइ सपरिहास निब्बंधपुच्छिओ वेइ तत्थ समणीओ। बलियपरिग्गहियाओ, होह दढा तत्थ वच्चामो ॥ २१४० ॥ 'इति' एवं सपरिहासं तेनोक्ते आचार्यैः स महता निर्बन्धेन पृष्टः-कथय भद्र ! कीदृशस्तत्र दोषो विद्यते ? ततः स ब्रवीति-तत्र श्रमण्यो बलिना-बलवता आचार्यादिना परिगृहीता विद्यन्ते, परं तथापि यूयं 'दृढा भवत' मा कामपि शङ्कां कुरुध्वम् , अत्रार्थे सर्वमप्यहं भलिप्यामि, अतस्तत्र बजामो वयम् ॥ २१४० ॥ एवं भणतः प्रायश्चित्तमाह 10 भिक्खू साहइ सोउं, व भणइ जइ वञ्चिमो तहिं मासो। __ लहुगा गुरुगा वसभे, गणिस्स एमेवुवेहाए ॥ २१४१॥ यदि भिक्षुरनन्तरोक्तं वचनं कथयति श्रुत्वा वा यदि भिक्षुरेव भणति 'बाढम् , जामस्तत्र वयम्' ततो मासलघु प्रायश्चित्तम् । अथ 'वृषभः' उपाध्याय एवं ब्रवीति प्रतिशृणोति वा ततस्तस्य चत्वारो लघवः । 'गणिनः' आचार्यस्येत्थं भणतः प्रतिशृण्वतो वा चत्वारो गुरवः । एवमेवोपे-15 क्षायामपि द्रष्टव्यम् । किमुक्तं भवति ?-इत्थं तेनोक्ते 'व्रजामो वयम्' इति वा प्रतिश्रुते यदि भिक्षुरुपेक्षां करोति तदा तस्य लघुमासिकम् , वृषभस्योपेक्षमाणस्य चतुर्लघु, आचार्यस्योपेक्षा कुर्वाणस्य चतुर्गुरु ॥ २१४१ ॥ अथवा सामत्थण परिवच्छे, गहणे पयभेद पंथ सीमाए । गामे वसहिपवेसे, मासादी भिक्खुणो मूलं ॥ २१४२॥ 20 भिक्षुः 'तत्र गन्तव्यम् ? न वा?' इति “सामत्थणं" देशीशब्दत्वात् पर्यालोचनं करोति मासलघु । “परिवच्छि” त्ति देशीशब्दोऽयं निर्णयार्थे वर्तते, ततो 'गन्तव्यमेव तत्र' इति निर्णय करोति मासगुरु । “गहणे" त्ति निणीय यापधिं गृह्णाति ततश्चतुर्लघु । पदभेदं कुर्वतश्चतुर्गुरुकम् । पथि व्रजतः षड्लघुकम् । ग्रामसीमायां प्राप्तस्य षड्गुरुकम् । (ग्रन्थाग्रम्-३५०० । सर्वग्रन्थाग्रम्-१५७२०) ग्रामं प्राप्तस्य च्छेदः । वसतौ प्रवेशं कुर्वतो मूलम् । एवं भिक्षोलघुमासादा-25 रभ्य मूलं यावत् प्रायश्चित्तमुक्तम् ॥ २१४२ ॥ गणि आयरिए सपदं, अहवा वि विसेसिया भवे गुरुगा। भिक्खूमाइचउण्हं, जइ पुच्छसि तो सुणसु दोसे ॥२१४३ ॥ 'गणिनः' उपाध्यायस्य मासगुरुकादारभ्य खपदमनवस्थाप्यं यावत् , आचार्यस्य तु चतुर्लघुकादारभ्य खपदं पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तं ज्ञेयम् । अथवा भिक्षु-वृषभो-पाध्याया-ऽऽचार्याणां 30 चतुर्णामपि तपः-कालविशेषिताश्चतुर्गुरुकाः । तद्यथा-भिक्षोभ्यामपि लघवः तपसा कालेन च, वृषभस्य कालेन गुरवस्तपसा लघवः, उपाध्यायस्य तपसा गुरवः कालेन लघवः, आचार्यस्य १°स्य चतु° भा० ता. मो. ले. ॥ २°त्तं मन्तव्यम् त. डे. कां ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै हत्कल्पसूत्र । वगडाप्रकृते सूत्रम् १० तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरवः । अथ के पुनस्तत्र तिष्टतां दोषाः ? इति यदि पृच्छसि ततः 'शृणु' निशमय दोषान् मयाऽभिधीयमानान् ॥ २१४३ ॥ तानेवाभिधित्सुराह अन्नतरस्स निओगा, सव्वेसि अणुप्पिएण वा ते तु । देउल सभ सुन्ने वा, निओयपमुहे ठिया गंतुं ॥ २१४४ ॥ 5 'अन्यतरस्य भिक्षु-वृषभादेर्नियोगात् 'सर्वेषां वा साधूनाम् 'अनुप्रियेण' अनुमत्या 'ते' आचा स्तित्र गत्वा देवकुले वा सभायां वा शून्यगृहे वा नियोगस्य- ग्रामस्य मुखे-प्रवेश एव स्थिताः ततो निर्ग्रन्थानां निर्घन्धीनां चोभयेषामपि परस्परदर्शनेन बहवो दोषा भवन्ति ।। २१४४ ॥ अत्र चामिदृष्टान्तं सूरयो वर्णयन्ति-- दुविहो य होइ अग्गी, दव्यग्गी चव तह य भावग्गी। 10 दव्यग्गिम्मि अगारी, पुरिसो व घरं पली-तो ॥ २१४५ ॥ द्विविधा भवत्यग्निः, तद्यथा--द्रव्यामिश्चैव तथा च भावाग्निः । द्रव्यानी चिन्त्यमाने अगारी' अविरतिका पुरुषो वा गृहं प्रदीपयन् यथा सर्वखं दहति, एवं साध्वी वा साधुर्वा खजीवगृहं मदनभावाग्निना प्रदीपथन् चारित्रसर्वस्वं दहतीति' नियुक्तिगाथासङ्केपार्थः ॥ २१३५ ! अथ विस्तरार्थमभिघिल्सुर्द्रव्यानिमाह--- तत्थ पुण होइ दब्बे, डहणादीणेगलक्षणो अग्गी। नामोदयपच्चइयं, दिप्पइ देहं समासज्ज ॥ २१४६ ।। ___ 'तत्र' तयोर्द्वव्याभि-भावाग्योर्मध्ये द्रव्यामिः पुनरयं भवति-यः खलु 'दहनाद्यनेकलक्षणोऽग्निः दहनं--भस्मीकरणं तल्लक्षणः, आदिशब्दाद पचन-प्रकाशनपरिग्रहः, 'देहम्' इन्धनं काष्ठादिकं समासाच' प्राप्य 'नामोदयप्रत्ययम्' उप्णम्पर्शादिनाभकर्मोदयाद् दीप्यते स द्रव्या20 ग्निरुच्यते ॥ २१४६ ॥ किमर्थं पुनरयं द्रव्यानिः ! इति चेद् अत आह दव्वाइसन्निकरिसा, उप्पन्नो ताणि चेव डहमाणो । दव्यग्गि त्ति पवुच्चइ, आदिमभावाइजुत्तो वि ।। २१४७॥ द्रव्यम्-ऊधिोव्यवस्थिते अरणिकाष्ठे तस्य आदिशब्दात् पुरुषप्रयत्नादेश्च यः सन्निकर्ष:समायोगस्तस्माद् उत्पन्नः 'तान्येव' काष्ठादीनि द्रव्याणि दहन् यद्यपि आदिमेन-औदयिक25 लक्षणेन भावेन अग्निनामकर्मोदयेनेत्यर्थः, आदिशब्दात् पारिणामिकादिभावेन च युक्तो वर्तते तथापि द्रव्यामिः प्रोच्यते, 'द्रव्यादुत्पन्नो द्रव्याणां वा दाहकोऽमिर्द्रव्यामिः' इति व्युत्पत्तिसमाश्रयणात् ।। २१४७ ॥ स पुनः कथं दीप्यते ? इत्याह सो पुण इंधणमासज्ज दिप्पती सीदती य तदभावा । नाणत्तं पि य लभए, इंधण-परिमाणतो चेव ॥ २१४८ ॥ १°नवह्निना भा० ॥२°ति सङ्के भा०॥ ३ ता. मो० ले. विनाऽन्यत्र-व्याग्निं तावद् विवृ. णोति त० दे० कां० । °व्याग्निं व्याख्यानयति भा० ॥ ४ नलक्षणश्च, 'दे त० डे० को० ॥ यप्योदयिकेन भावेन यक्तः स पुनरातपनामकर्मोदयाद द्रव्यादीनां दाहको भवति ।" इति चो विशेषचूर्णौ च ॥ ६ आदिमः-प्रथम औदयिकलक्षणो यो भावस्तेन अग्नि भा० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २१४४-५२] प्रथम उद्देशः । ६१७ 'स पुनः' द्रव्याग्निः 'इन्धन' तृण-काष्ठादिकमासाद्य दीप्यते 'सीदति च' विनश्यति 'तदभावाद्' इन्धनाभावात् । 'नानात्वं' विशेषस्तदपि च लभते इन्धनतः परिमाणतश्च । तत्रेन्धनतो यथा-तृणाग्निः तुषाग्निः काष्ठानिरित्यादि । परिमाणतो यथा-महति तृणादाविन्धने महान् भवति, अल्पे चेन्धने स्वल्प इति ॥ २१४८ ॥ उक्तो द्रव्याग्निः । अथ भावाग्नि व्याचष्टे भावम्मि होइ वेदो, इत्तो तिविहो नपुंसगादीओ। जइ तासि तयं अत्थी, किं पुण तासिं तयं नत्थी ।। २१४९ ॥ 'भावे' भावाग्निर्वेदाख्य इत ऊर्द्ध वक्तव्यो भवति । स च वेदस्त्रिविधो नपुंसकादिको ज्ञातव्यः । अत्र परः प्राह-यदि 'तासां' संयतीनां 'तकत्' स्त्रीवेदादिरूपं मोहनीयं स्यात् तर्हि युष्मदुक्तोऽग्निदृष्टान्तोऽपि सफल: स्यात् 'किं पुनः' परं तासां 'तकत्' मोहनीयं नास्ति, अतः कुतस्तासां भावानेः सम्भवो भवेत् ? इति भावः । एतदुत्तरत्र (गा० २१५४ ) भावयिप्यते 10 ।। २.१४९ ॥ अथानन्तरोक्तमेव भावाग्निखरूपं स्पष्टयति उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवओगेणं । भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी ॥ २१५० ॥ __'वेदः' स्त्रीवेदादिरुदयं प्राप्तः सन् तस्य-स्त्रीवेदादेः सम्बन्धी य उपयोगः-पुरुषाभिलाषादिलक्षणस्तेन हेतुभूतेन भावाग्निर्भवति । कुतः ? इत्याह-भावश्चारित्रादिकः परिणामः 'तं' भावं 15 येन कारणेन दहति तेन भावाग्निरुच्यते, 'भावस्य दाहकोऽग्निर्भावामिः' इति व्युत्पत्तेः ॥ २१५० ॥ कथं पुनर्दहति ? इति चेद् उच्यते जह वा सहीणरयणे, भवणे कासइ पमार्य-दप्पेणं । डझंति समादित्ते, अणिच्छमाणस्स वि वसूणि ॥ २१५१ ॥ इय संदसण-संभासणेहिँ संदीविओ मयणवण्ही । 20 बंभादीगुणरयणे, डहइ अणिच्छस्स वि पमाया ॥ २१५२ ॥ यथा वा 'खाधीनरत्ने' पद्मरागादिबहुरत्नकलिते भवने प्रमादेन दर्पण वा 'समादीप्ते' प्रज्वालिते सति 'कस्यचिद्' इभ्यादेरनिच्छतोऽपि 'वसूनि' रत्नानि दह्यन्ते, “इय' एवं सन्दर्शनम्अवलोकनं सम्भाषणं-मिथः कथा ताभ्यां 'सन्दीपितः' प्रज्वालितो मदनवहिरनिच्छतोऽपि साधुसाध्वीजनस्य 'ब्रह्मादिगुणरत्नानि' ब्रह्मचर्य-तपः-संयमप्रभृतयो ये गुणास्त एव दौर्गत्यदुःखाप-25 हारितया रत्नानि तानि प्रमादाद् 'दहति' भस्मसात् करोति ॥ २१५१ ॥ २१५२ ।। अमुमेवार्थ द्रढयति सुक्खिधण-चाउवलाऽभिदीवितो दिप्पतेऽहियं वण्ही । १°ग्निं नियुक्तिगाथया तावद् व्या त० डे० कां० ॥ २ °वाग्निरित ऊई वक्तव्यो भवति । स च भावाग्निस्त्रिविधो नपुंसकादिको वेदो ज्ञा' भा० ॥ ३ सन् तदुपयोगेन भावाग्निर्भवति, तस्य-स्त्रीवेदादेः सम्बन्धी य उपयोगः-पुरुषाभिलाषादिलक्षणः तेन हेतुभूतेनेत्यर्थः । कुतः पुनरयं भावाग्निव्यपदेशं लभते ? इत्याह-भावश्चारि° भा० ॥ ४°यदोसेणं भा० ॥ ५°स्याप्यनिच्छ भा० मो० ले.॥ ६ ब्रह्मादयः-ब्रह्म भा० ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० दिदिधण-रागानिलसमीरितो ईय भावग्गी ॥ २१५३ ॥ शुष्कन्धनेन वायुबलेन वाऽभिदीपितो यथा वहिरधिकं दीप्यते "ईय" एवं दृष्टिरूपं यदिन्धनं यश्च रागरूपोऽनिल:-वायुस्ताभ्यां समीरितः-उद्दीपितो भृशं भावामिरपि दीप्यते ॥ २१५३ ।। अथ “किं पुण तासिं तयं नत्थि" ( गा० २१४९) त्ति पदं भावयन् शिष्येण प्रश्नं कारयति लुक्खमरसुण्हमनिकामभोइणं देहभूसविरयाणं । सज्झाय-पेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो ॥ २१५४ ॥ रूक्षं-निःस्नेहम् “अरसोण्हं" इति नञ् प्रत्येकमभिसम्बध्यते अरसं-हिंग्वादिभिरसंस्कृतम् अनुष्णं-शीतलम् अनिकामं–परिमितं भक्तं भोक्तुं शीलमेषां ते रूक्षा-ऽरसा-ऽनुप्णा-ऽनिकामभो. जिनस्तेषाम् , मकारावलाक्षणिकौ, तथा देहभूषायाः-सानादिरूपाया विरतानां प्रतिनिवृत्तानाम् , 10 खाध्यायः-वाचनादिरूपः प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा तयोः आदिशब्दाद् वैयावृत्त्यादिषु च व्यापारेषु व्यापूतानां साधु-साध्वीजनानां कुतः 'मोहः' पुरुषवेदाधुदयरूपः सम्भवति ? ॥ २१५४ ॥ अत्र प्रतिवचनमाह नियणाइलुणणमद्दण, वावारे बहुविहे दिया काउं । सुक्ख सुढिया वि रत्ति, किसीवला किं न मोहंति ॥ २१५५ ॥ 15 "नियणं" ति निदानं निद्दिणणमित्यर्थः, आदिशब्द उत्तरत्र योक्ष्यते, लवनं मर्दनं च प्रती तम् , एवमादीन् बहुविधान् व्यापारान् दिवा कृत्वा 'शुष्काः' स्नानाद्यभावेन शीतोष्णादिभिश्च परिम्लानाः “सुढिआ" श्रान्ता एवंविधा अपि कृषीवलाः 'किम्' इति परिप्रश्ने भवानेवात्र पृच्छयते कथय किं ते रात्रौ 'न मुह्यन्ति' न मोहमुपगच्छन्ति ? मुह्यन्त्येवेति भावः ॥ २१५५ ।। जइ ताव तेसि मोहो, उप्पजइ पेसणेहिं सहियाणं । अव्वावारसुहीणं, न भविस्सइ किह णु विरयाणं ॥ २१५६ ॥ ___ यदि तावत् 'तेषां कृपीवलानां प्रेषणैः' व्यापारैः सहितानां मोह उत्पद्यते ततः 'विरतानां' संयतानाम् 'अव्यापारसुखिनां' तथाविधव्यापाररहिततया सुखिना सतां कथं नु नाम न मोहोदयो भविष्यति ॥ २१५६ ॥ २ अथात्रैव पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरति-~ कोई तत्थ भणिजा, उप्पन्ने रंभिउं समत्थो त्ति । सो उ पभू न वि होई, पुरिसो व घरं पलीवंतो ॥ २१५७ ॥ कश्चित् 'तत्र' अनन्तरोक्तेऽर्थे ब्रूयात्-यद्यपि मोह उत्पत्स्यते तथाप्यहमुत्पन्नेऽपि मोहे आत्मानं निरोद्धं समर्थ इति । गुरुराह–स पुनरेवं वक्ता तादृशेऽवंसरे निरोद्धं 'प्रभुः' समर्थों न भवति, पुरुष इव गृहं प्रदीपयन् ॥ २१५७ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयति कामं अखीणवेदाण होइ उदओ जहा वदह तुब्भे । तं पुण जिणामु उदयं, भावण-तव-नाणवावारा ॥ २१५८ ॥ उप्पत्तिकारणाणं, सब्भावम्मि वि जहा कसायाणं । १ प्यते 'इति' ए° भा० ॥ २ » एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ।। ३ °यनिति ॥ २१५७ ॥ अस्या एव पूर्वार्द्ध व्या भा० ॥ 30 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१५३-६३] प्रथम उद्देशः । नहु निग्गहो न सेओ, एमेव इमं पिपासामो ॥ २१५९ ॥ शिष्यः प्राह-'कामम्' अवधारितमस्माभिर्यथा यूयं वदथ अक्षीणवेदानां मोहस्योदयो भवति, परं 'तं पुनः' मोहोदयं जयामो वयं 'भावना-तपो-ज्ञानव्यापारात्' भावना-स्त्रीकडेवरसतत्त्वचिन्तनादिका तपः-चतुर्थादिकम् ज्ञानव्यापारः-सूत्रार्थचिन्तनात्मकः, अपि च-"चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती सिया, तंजहा—खेतं पडुच्च वत्थु पडुच्च सरीरं पडुच्च उवहिं पडुच्च" इत्या-5 दिना स्थानाङ्गादौ (४ स्थाने पत्र १९३-१ ) प्रज्ञप्तानां कपायोत्पत्तिकारणानां क्षेत्र-वास्त्वादीनां सद्भावेऽपि यथा कषायाणां निग्रहो न न श्रेयान् अपि तु श्रेयानेव, एवमेव 'इदमपि' प्रस्तुतं पश्यामः, मोहोदयकारणानां सद्भावेऽपि तन्निग्रहं करिप्याम इति भावः ॥ २१५८ ॥ २१५९ ॥ अत्र सूरिः परिहारमाहपहरण-जाणसमग्गो, सावरणो वि हु छलिजई जोहो। 10 वालेण य न छलिजइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो ॥ २१६० ॥ प्रहरणं-खड्गादि यानं-हस्त्यादि ताभ्यां समग्रः-सम्पूर्णः तथा 'सावरणः' सन्नाहसहितः अपिशब्दाद् युद्धकौशलादिगुणयुक्तोऽपि यथा योधः समरशिरसि प्रविष्टः प्रयत्नं कुर्वाणोऽपि योधान्तरेण 'छल्यते' छलं लब्ध्वा हन्यते इत्यर्थः, यद्वा 'ग्राहः' सर्पग्राहको गारुडिकादिः औषधहस्तोऽपि किं व्यालेन' दुष्टसर्पण न च्छल्यते ? छल्यत एवं, एवं यद्यपि भवान् 15 भावना-तपो-ज्ञानव्यापारयुक्तस्तथापि स्त्रीणां सन्दशनादि कुर्वन् मोहोदयेन च्छल्यत एवेति ॥ २१६० ॥ अपि च उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ । ___ अइइद्धो वि न सकइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं ॥ २१६१ ॥ उदकघटे 'करगतेऽपि' हस्तस्थितेऽपि किम् 'ओकः' गृहम् 'आदीपितं' प्रज्वालितं सद् 20 'नोज्वलति' न दीप्यते ?, अथासौ 'अर्ताद्धः' अतिदीप्तोऽग्निस्ततः कुटजलेन प्रक्षिप्तेनापि नासौ निर्वापयितुं शक्यते, एवं यद्यपि ज्ञानव्यापारादिकं जलघटकल्पं स्वाधीन तथापि मोहोदयामिना प्रज्वलितं चारित्रगृहं किं न प्रदीप्यते ?, अतिप्रवलो वा मोहो यादीयेत ततो घटजलकल्पेन बहुनाऽपि ज्ञानव्यापारादिना नाऽसौ विध्यापयितुं शक्य इति ॥ २१६१ ॥ किञ्च रीढासंपत्ती वि हु, न खमा संदेहियाम्म अत्थम्मि। नायकए पुण अत्थे, जा वि विवत्ती स निदोसा ।। २१६२ ।। संयतीक्षेत्रे गतानां मोहोदयनिरोधादिको यः सन्देहितः-संशयास्पदीभूतोऽर्थस्तस्मिन रीडयायदृच्छया घुणाक्षरन्यायेन सम्पत्तिरपि 'न क्षमा' न श्रेयसी । यः पुनः साध्वीरहितक्षेत्रगमनादिकोऽर्थः पूर्व ज्ञातः-निर्दोषत्वेन निर्णीतस्ततः कृतः कर्तुमारब्धः ज्ञातकृतस्तमिन् एवंविधेऽर्थे याऽपि कुतोऽपि वैगुण्यतो विपत्तिर्भवति सा अपि निर्दोषो मन्तव्या ॥ २१६२ ॥ अथ परः प्राह-30 दूरेण संजईओ, अस्संजइआहि उहिमाहारो। जइ मेलणाएँ दोसो, तम्हा रनम्मि बसिबव्वं ॥ २१६३ ॥ १ वेति भावः, एवं भा० ॥ २ °न् संशयास्पदीभूतेऽर्थे क्रियमाणे गढ भा० ॥ 25 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ बगडाप्रकृते सूत्रम् १० संयत्यः 'दूरेण' पृथग्बसत्यादौ वसन्त्यः परिहर्तुं शक्यन्ते, यास्तु 'असंयत्यः' अविरतिकास्ताः परिहर्तुमशक्याः, यतस्ताभ्य उपधिराहारश्च लभ्यते, अतो यदि ' मीलनायाः' संसर्गस्य दोषः संयतीक्षेत्रे तिष्ठतां भवति ततः साधुभिररण्ये गत्वा वस्तव्यम् ॥ २६३ ॥ सूरिराहरन्ने वितिरिक्खीतो, परिन्न दोसा असंतती यावि । लब्भीय कूलवालो, गुणमगुणं किं व सगडाली ।। २१६४ ॥ अरण्येऽपि वसतां तैरश्चस्त्रियो हरिणीप्रभृतयो दोपानुपजनयन्ति । तथा 'परिज्ञा' भक्तप्रत्याख्यानं तद्दोषाश्च भवन्ति । तथाहिं – तत्राहाराद्यभावाद् भक्तप्रत्याख्यानं कर्त्तव्यम्, तच्च प्रथमत एव कर्तुं न युज्यते, विरतिसहितस्य जीवितस्य दुष्प्रापत्वात् ; न च तदानीं तत् कर्तुं शक्यते, कुर्वतामप्यार्त्तध्यानसम्भवात् कुदेवत्वगमन- प्रेत्यवोधिदुर्लभत्वादयो दोषाः । 'असन्ततिश्च' 10 प्रवाजनाद्यभावान्न शिष्य-प्रशिष्यादिसन्तान उपजायते, यद्वा – “असंतईए" र्त्ति सर्वथैव स्त्रीणामसत्तायां वनवासमङ्गीकृत्य यत् किल ब्रह्मचर्यं धार्यते तन्न बहुफलं भवति, B ~< “थंभौ कोहा अणाभोगा, अणापुच्छा असंतई ।" ( आव० मू० भा० गा० २५७ ) इति वचनात् । न चात्रारण्यं जनाकुलं वा प्रमाणम्, यतः कूलवालकोsटव्यामपि वसन् कं गुणं लब्धवान् ? ' शाकटालि:' स्थूलभद्रखामी स जनमध्ये गणिकाया गृहेऽपि तिष्ठन् 15 कमगुणं लब्धवान् ? न कमपीति भावः ॥ २१६४ ॥ किञ्च – 25 कस्सर विवित्तवासे, विराहणा दुन्नए अभेदो वा । जह सगडालि मणो वा, तह विइओ किं न रुंभिंसु ।। २१६५ ।। कस्यचिद् ‘विविक्ते' स्त्री- पशु-पण्डकविरहितेऽपि वासे वसतः प्रबलवेदोदयाद् विराधना ब्रह्मचर्यस्य भवति, कस्यापि पुनः 'दुर्नये' रूयादिसंसक्तप्रतिश्रयवासेऽपि वेदमोहनीयक्षयोपशम20 प्रबलत्वेन 'अभेद: ' न ब्रह्मचर्यविलोपो भवति । वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः । आह यद्येवं तर्हि कर्मोदय-क्षय-क्षयोपशमादिरेव प्रमाणं न स्त्रीसंसर्गादि, नैवम्, कर्मणामुदेय-क्षय क्षयोपशमादयोऽपि प्रायस्तथाविधद्रव्य-क्षेत्रादिसहकारिकारणसाचिव्यादेव तथा तथा समुपजायन्ते नान्यथा । यथा वा 'शाकटालि:' स्थूलभद्रस्वामी स्वकीयं मनः स्त्रीसंसर्गेऽपि निरुद्धवान् तथा 'द्वितीय: ' सिंहगुहावासी किं न निरुद्धवान् ? येन स्त्रीसंसर्गादिकमप्रमाणं गीयते ॥ २१६५ ॥ यतश्चैवमतः होज नवा वि पभुक्तं, दोसाययणेसु वट्टमाणस्स । चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पिब || २१६६ ।। ॥ १ 'थक क्षेत्रादी भा० त० डे० कां० ॥ २ स्त्रियो भवन्ति । तथा तत्राहाराद्यभावात् 'परिशा' भक्तप्रत्याख्यानं कर्त्त मो० ले० ३न्ति, अरण्ये हि बलतामाहाराद्यभावाद् भक्तमेव प्रत्याख्यातव्यम्, तच्च भा० ॥ दत्त 'असा' सर्वथैव स्त्रीणामसद्भावे वन भा० ॥ ५ एतचिह्नगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ६नप्रामाण्येन सदोषत्वात् त०डे० कां० ॥ ७ इदमेवाह भा० ॥ ८ 'दय-क्षयोपशमावेव प्र० भा० ॥ ९ दय क्षयोप भा० ॥ १० कारिसाचि' त० डे० ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१६४-६९] प्रथम उद्देशः । ६२१ भवेद् वा न वा 'दोषायतनेषु' ब्रह्मविराधनादिदोषस्थानेषु वर्तमानस्य मनो निरोद्धं 'प्रभुत्वं' सामर्थ्य तथापि दोषायतनानि दूरतः परिहरणीयानि । दृष्टान्तश्चात्र चूतफलदोपदी चूतच्छायामपि वर्जयति जहा एगो रायपुत्तो अंबगपिओ । तस्स अंबगेहिं अइखइएहिं वाही उढिओ । सो वेजेहि याप्याकृतः अंबगा य पडिसिद्धा । सो अन्नया पारद्धिं गओ अंबच्छायाए वीसमइ । अमञ्चेण । पुण पडिसिद्धो तह वि न ठाइ । ताहे तेण वारिजंतेण वि तं फलं गहियं । भणेइ अ-~मए न खाइयत्वं, को दोसो गहिए ? त्ति । तेण. पसंगदोसेण खइयं विणट्ठो य । एस दिलुतो । ___ अयमत्थोवणओ---जहा तस्स रायपुत्तस्स वेज्जेहिं अंबगा अपत्थ ति काउं पडिसिद्धा तहा भगवया वि साहूणं अब्बभपडिसेवा इह परत्थ य अपत्थ त्ति काउं पडिसिद्धा, तप्परिहरणोवाओ अ 'इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताए वसहीए संजईखेत्ते य न ठायवं' इच्चाई उवइट्ठो । जो तेसु 10 ठाइ सो नियमा पसंगदोसेण विणस्सइ चरित्तरजस्स य अणाभागी भवइ, जहा सो रायपुत्तो । ___ अन्नो पसत्थो रायपुत्तो सो चूतफलदोसदरिसी चूयच्छायं पि परिहरंतो इहलोइयाण कामभोगाणं आभागी जातो, एवं जो साहू तित्थयरपडिसिद्धइत्थिपडिसेवादोसदरिसी इत्थिसंसत्ताओ वसहीओ संजईखेत्तं च परिहरइ सो नियमा इह परत्थ य सबसुक्खाणं आभागी भवइ त्ति ॥ २१६६ ॥ अथ "दूरेण संजईओ" (गा० २१६३) इत्यादि यत् परेणाक्षिप्तं तदेतत् 16 परिजिहीर्घराह इत्थीणं परिवाडी, कायव्वा होइ आणुपुवीए । परिवाडीए गमणं, दोसा य सपक्खमुप्पन्ना ॥ २१६७ ॥ 'स्त्रीणाम्' एकखुरादीनां परिपाटिः' पद्धतिरानुपूर्व्या कर्त्तव्या भवति, प्ररूपणीयेत्यर्थः । ततः 'परिपाट्यां' यथा तासु गमनं भवति तथा वाच्यम् । दोषाश्च स्वपक्षत उत्पन्ना भवन्तीति 20 वक्तव्यमिति नियुक्तिगाथा सङ्केपार्थः ॥ २१६७ ॥ अथैनामेव गाथां व्याख्यानयति एगखुर-दुखुर-गंडी-सणप्फइत्थीसु चेव परिवाडी। बद्धाण चरंतीणं, जत्थ भवे वग्गवग्गेसु ॥ २१६८ ॥ तत्थऽनतमो मुक्को, सजाइमेव परिधावई पुरिसो। पासगए वि विवक्खे, चरइ सपक्खं अवेक्खंतो ॥ २१६९ ॥ 25 एकखुरा वडवादयः, द्विखुरा गो-महिप्यादयः, गण्डीपदा हस्तिन्यादयः, सनखपदाः शुनीप्रभृतयः, एतासु षष्ठी-सप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् एतासां स्त्रीणां 'वर्गवर्गेषु' पृथक्पृथक्सजातीयसमूहरूपेषु बद्धानां वा चरन्तीनां वा यत्र वापि कुटी-वाटकादौ परिपाटीर्भवेत् तत्राऽश्व-गो-हस्तिशुनकादीनामन्यतमः पुरुषो मुक्तः सन् दूरस्थितामपि 'स्वजातिमेव' वडवादिकां परिधावति, 'विपक्षे तु' विजातीये गवादिपक्षे 'पार्श्वगतेऽपि' प्रत्यासन्नस्थितेऽपि खपक्षमपेक्षमाणश्चरति, न 30 पुनर्विपक्षमनुधावतीति भावः, एवं श्रमणोऽपि वपक्ष इति कृत्वा विश्वस्तः सन् संयतीभिः सह संसर्ग करोति, नै पुनरविरतिकासु ॥ २१६८ ॥ २१६९ ॥ यतः१ ताहे णेण वा भा० ॥ २. एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ नाविर° भा०॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ आगंतुयदव्वविभूसियं च ओरालियं सरीरं तु । असमंजसो उ तम्हाऽनारित्थिसमागमो जइणो ॥ २१७० ॥ आगन्तुकद्रव्यैःपैः-वस्त्रा -ऽऽभरणादिभिर्विभूषितम्- अलङ्कृतं चशब्दादुद्वर्तन-स्नानादिपरिकर्मयुक्तं च यस्मादगारस्त्रीणामौदारिकं शरीरं तत्माद् 'असमञ्जसः' विसदृशस्ताभिः सह 'यतेः ' 5 साधोर्मलमलीमसशरीरस्य समागमः- मीलकः ॥ २१७० ॥ अपि च सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ वगडाप्रकृते सूत्रम् १० अविभूसिओ तवस्सी, निकामोऽकिंचणो मयसमाणो । इयगारीसुं समणे, लज्जा भय संथवो न रहो || २१७१ ॥ 'अविभूषितः' विभूषारहित एषः, तथा ' तपखी' तपःक्षीणदेहः, 'निष्कामः' शुभरसगन्धाद्यपभोगरहितः, ‘अकिञ्चनः ' निष्परिग्रहः, ततः 'मृतसमानः' शबकल्प एषः, 'इति' एव10 मगारीणां श्रमणेऽवज्ञा भवति । श्रमणस्य पुनरगारीभिः सह विपक्षतया या लज्जा यच्चागारिभ्यो भयं तेन ताभिः सह न 'संस्तवः ' परिचयः न वा 'रहः ' एकान्त इति ॥ २१७१ ॥ 15 25 निब्भयया य सिणेहो, वीसत्थत्तं परोप्पर निरोहो । दाणकरणं पि जुजइ, लग्गइ तत्तं च तत्तं च ॥ २१७२ ॥ संयतस्य संयत्यां ‘निर्भयता' न भयमुत्पद्यते, स्नेहश्वोभयोरपि भवति स्वपक्षत्वात्, 'विश्वस्तत्वं' च विश्वासः परस्परगुगोपनविषयः प्रत्यय इत्यर्थः, 'परस्परम् ' उभयोरपि 'निरोधः' बस्ति निग्रहात्मकः, तथा 'दानकरणमपि' वस्त्र - पात्रादिदानलक्षणं संयतीं प्रति तस्य 'युज्यते' सम्भवतीत्यर्थः, ततो यथा तप्तं च तप्तं च लोहं 'लगति' सम्बध्यते तथा संयती - संयतौ द्वावपि निरोधसन्तप्तौ रहो लब्ध्वा लगत इति ॥ २१७२ ॥ आह दृष्टास्तावत् स्वपक्षसमुत्था दोषाः, 20 परमेते कुत्र सम्भवन्ति ? इति निरूप्यताम्, उच्यते स्वपक्षे तु कथम् ? इत्याह वीयार- भिक्खचरिया - विहार - जइ - चेइवंदणादीसुं । कज्जेसुं संपडिताण होंति दोसा इमे दिस्स ।। २१७३ ॥ एकवगडे एकद्वारे च ग्रामादौ विचारभूमि - भिक्षाचर्या - विहारभूमि - यति चैत्य वन्दनादिषु कार्येषु प्रतिश्रयान्निर्गतानां रथ्यादौ 'सम्पतितानां' मिलितानामन्योऽन्यं दृष्ट्वा एते दोषा भवन्ति ॥२१७३॥ दूरम्मि दिट्ठि लहुओ, अमुगो अमुगि त्ति चउलहू होंति । fasaम्मम्मिय गुरुगा, मिच्छत्त पसजणा सेसे ।। २१७४ ॥ यदि दूरेऽपि संयतः संयत्या दृष्टः संयती वा संयतेन तदा लघुको मासः । प्रत्यासन्नप्रदेशे १ आगन्तुकद्रव्याणि वस्त्राऽऽमरणादीनि तैर्विभूषितम्- अलङ्कृतम्, चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धत्वाद 'औदारिकं च' उदाररूपं ज्ञान धावनादिपरिकर्मणा सञ्जातरूपातिशयमित्यर्थः । एवंविधमगारस्त्रीणां यतः शरीरं तत्माद् 'असमञ्जयः' विसदृशस्ताभिः सह 'यतेः' साधोः समागमः || २१७० ॥ भा० ॥ २ शरीरमन्यादृशमित्र प्रतिभाति, तस्माद् त० डे० कां० ॥ ३ दूरे संयतः संयत्या संयती वा संयतन यदि दृष्टो दृष्टा वा तदा ल° भा० ॥ ४ न यदि दृष्टा तदा त० डे० कां० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१७० - ७८ ] प्रथम उद्देशः । ६२३ समायातं संयतं सम्यगुपलक्ष्य संयती यद्यमुकोऽयं ज्येष्ठार्य इति ब्रूते, संयतो वा संयतीमुपलक्ष्य अमुका संयतीति ब्रवीति तदा चत्वारो लववः । अथ सा 'कृतिकर्म' वन्दनं करोति तदा चत्वारो गुरुकाः । ये चाभिनवधर्माणस्ते तथा वन्दमानानुपलभ्य वक्ष्यमाणनीत्या मिथ्यात्वं गच्छेयुः । 'शेषे' भोजिका-घाटिकादौ शङ्कां कुर्वाणे सति 'प्रसजना' प्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्द्रष्टव्या ॥ २१७४ ॥ तामेवाह— 5 दिट्ठे संका भोइय, घाडिय नाई य गाम बहिया य । " चत्तारि छ च्च लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ २१७५ ॥ संयतस्य संयत्या कृतिकर्म क्रियमाणं केनचिद् दृष्टम् दृष्टे सति तस्य 'शङ्का' वक्ष्यमाणा सञ्जायते ततश्चत्वारो गुरवः । अथ 'भोजिकायाः ' भार्यायाः कथयति ततश्चतुर्लघुकाः । घाटिकःमित्रं तस्याग्रतः कथने चतुर्गुरवः । ' ज्ञातीनां' स्वजनानां कथने षड् लघवः | अज्ञातीनां कथ- 10 यति षड् गुरवः । ग्रामस्य कथयति च्छेदः । ग्रामवहिर्निर्गत्य कथयति मूलम् । ग्रामसीमायां कथनेऽनवस्थाप्यम् । सीमानमतिक्रम्य कथयति पाराञ्चिकम् ॥ २१७५ ॥ कीदृशी पुनः शङ्का भवति ? इत्याह ___________ कुवियं नु पसादेती, आओ सीसेण जायए विरहं । आओ तलपन्नविया, पडिच्छई उत्तिमंगेणं ॥ २१७६ ।। इइ संकाए गुरुगा, मूलं पुण होइ निव्विसंके तु । सोही वाऽसन्नतरे, लहुगतरी गुरुतरी इयरे ।। २१७७ ॥ 'नु:' इति वितर्के, किमेषा संयंती कुपितं सन्तमेनं संयतं प्रसादयति ? आहोश्चित् 'शीर्षेण' मस्तकेन ‘विरहः' एकौन्ते याचते ? उताहो अनेन साधुना तलेन - चप्पुटिकादिकरणेन प्रज्ञापिता सती प्रार्थनामुत्तमाङ्गेन प्रतीच्छति ? || २१७६ ॥ 'इति' एवं शङ्कायां चत्वारो गुरुकाः । अथ निर्विशङ्क-कुपित-प्रसादनाद्यर्थमेव करोतीति मन्यते ततो द्वयोरपि मूलम् । भोजिकादिश्च यो यस्तस्य सम्बन्धेनासन्नतरस्तत्र तत्र शोधिलघुकतरा । ‘इतरस्मिन्’ घाटिक - ज्ञात्यादौं दूरतरे गुरुकतरा ॥ २२७७ ॥ अथ किमिति ज्ञातीनां प्रथमं न कथयति : इत्याह विस्ससह भोइ-मित्ताइए तो नायओ भवे पच्छा । जह जह बहुजणनायं, करेइ तह वड्ढए सोही ॥ २१७८ ॥ भोजिका - मित्रादिषु शरीरमात्र भिन्नेषु न किमपि गोपनीयमस्तीति कृत्वा यतोऽसौ विश्वसिति ततः ‘ज्ञातीन्' खजनान् पश्चाद् ज्ञापयति । यथा यथा चासौ बहुजनज्ञातं करोति तथा तथा 'शोधिः" प्रायश्चित्तं वर्द्धते ॥ २१७८ ॥ - अथासौ ज्ञाप्यमानो जनः प्रतिषेधयति ततः प्रायश्चित्तमप्युपरमते । तथा चाह— 15 20 25 30 १ 'नां' भ्रात्रादीनां भा० ॥ २ ती एवं वन्दमाना कु त०डे० कां० ॥ ३ 'कान्तं या भा० ॥ ४°व वन्दनकं क° त० डे० कां० ॥ ५°दौ सम्वन्धेन दूर° त० डे० कां० ॥ ६ उच्यते भा० ॥ ७ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ६२४ पडिसेहो जम्मि पढे, पायच्छित्तं तु ठाइ पुरिमपए । निस्संकियम्मि मूलं, मिच्छत्त पसजणा सेसे ।। २१७९ ॥ तेन पुरुषेण भोजिकाया आख्यातम् — मया संयती संयतं शीर्षप्रणामेनावभाषमाणा दृष्टा, ततः सा प्रतिषेधयति—न भवत्येवम्, मैबमसमञ्जसं वोच इति; ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम् । अथासौ 5 तया न प्रतिषिद्धस्ततः प्रायश्चित्तं वर्द्धते । एवं घाटिकादिष्वपि वक्तव्यम् । ततो यस्मिन् भोजिकादो पदे प्रतिषेधस्ततः ‘पूर्वपदे' शङ्कादौ प्रायश्चित्तं तिष्ठति, नोर्द्ध वर्द्धते । तथा 'कुपित-प्रसादनाद्यर्थमेव करोति' इति निःशङ्कते मूलम् । एवं मिथ्यात्वं 'शेषस्य च ' भोजिकादिविषयप्रायश्चित्तस्य प्रसजना भवतीति ॥ २१७९ ॥ कथं पुनर्भोजिकादयः प्रतिषेधयन्ति ? इत्याहकिकम्मं तीऍ कथं, मा संक असंकणिजचित्ताइं । 15 सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ बगडाप्रकृते सूत्रम् १० न विभूयं न भविस्सइ, एरिसगं संजमधरेसुं ॥ २१८० ॥ 'कृतिकर्म' वन्दनकं ' तया' संयत्या कृतम्, मा अशङ्कनीयचित्ते अमू शङ्किष्ठाः, नापि भूतम् अपिशब्दाद् न भवति न च भविष्यति ईदृशं भवत्परिकल्पितं कुपित - प्रसादनादिकमसमञ्जसचेष्टितं 'संयमधरेषु' साधु-साध्वीजनेषु ॥ २१८० ॥ एवं विचारभूमौ गच्छतां दोषा उक्ताः । अथ भिक्षाचर्यायां तानेवाह— पढम- बिइयातुरो वा, सइकाल तवस्सि मुच्छ संतो वा । रच्छामुहाइ पविसं, नितो व जणेण दीसिखा ।। २१८१ ॥ " रच्छामुहाइ " त्ति तस्मिन् ग्रामे रथ्यामुखे आदिशब्दादन्यत्र वा तथाविधे स्थाने देवकुलं वा शून्यगृहं वा भवेत् तत्र प्रथमपरीषहातुरः प्रथमालिकार्थं द्वितीयपरीषहातुरश्च द्रवपानार्थं प्रविशेत्, यद्वा यावन्न 'सत्काल : ' भिक्षाया देशकालो भवति तावदत्रैवोपविष्टस्तिष्ठामि, अथवा १ दृष्टा, यद्वा संयतीवन्दने संयतेन यत् प्रतिवन्दनं कृतं तद् दृष्ट्रा ब्रूयात् - मया संयतः संयतीं शिरःप्रणामेन याचमानो दृष्ट इति । ततः सा प्रतिषेधयति न भवत्येवम्, मा शङ्कां कार्षीः । एवं घाटिकादयोऽपि यदि प्रतिषेधयन्ति ततः 'यस्मिन् पदे' घाटिकादौ प्रतिषेधस्ततः पूर्वे पदे' भोगिन्यादौ प्रायश्चित्तमपि तिष्ठति, नो वर्द्धते । निःशङ्कते सति मूलम् । एवं मिथ्यात्वं शेषस्य च प्रसजना भवति । २२७९ ॥ कथं पुनर्भोगिन्यादयः भा० । "पडिसेहो जम्मि० गाहा । तेण भोइयाए अक्खायं, जहा मे संजओ संजई सीसपणामकरणेणं ओभासंतो दिट्ठो ॥ ताहे सा भोइया से भइ-वंदणयं तीय कयं० गाहा कण्ठ्या ॥” इति विशेषचूर्णो । "पडिसेहो ० गाधा ॥ जाधे तेण भोइयाए कधितं, जधा - मए संजतं संजती सीसपणामेणं ओभासंती दिट्ठा ॥ ता सा भज्जा से भणेज्जा - कितिक्रम्मं० गाधा कंठा ।" इति चूर्णो । भा० प्रती टीका विशेषचूर्ण्यनुसारिणी, शेषप्रतिगतटीका पुनः चूर्ण्यनुसारिणीति ॥ २ विशेषचूर्णिकृता - वंदणयं तीय कथं इति पाठ आहतोऽस्ति । दृश्यतां टिप्पणी १ ॥ ३ 'मद्वितीयपरी पहातुरः प्रथमालिकाद्यर्थं प्रविशेत्, भा० । “पढम-बिति० गाहा । छुधाइतो पढमालियं करेमि त्ति वितियपरीसहेण वा आतुरः- तृषित इत्यर्थः, अधवा जाव ण ताव सतिकालो भवति ताव एत्थ अच्छा मि” इति चूर्णो । “पढमबिइया० गाहा । तम्मि गामे नगरे वा रच्छामुहे देवउले सुन्नधरं वा तत्थ 'पढम- बिइयातुरो' छुहातिओ पढमालियं करेमि त्ति तिसिओ वा पाणं पिबामि त्ति, अहवा जाव न ताव सइकालो भवइ ताव एत्थ उवविट्ठो अच्छामि ।” इति विशेषचूर्णो ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २१७९-८५] प्रथम उद्देशः । 'तपस्वी' क्षपकः स विश्रामग्रहणार्थम् , यद्वाऽत्युप्णेन कस्यापि मूच्छौं समुत्पन्नागरिकारक्षपायनार्थम् , यदि वा भिक्षाटनेन श्रान्तोऽहमतोऽत्र विश्रामं गृह्णामि एवमेभिः कारणैस्तत्र प्रविशेत् , स च प्रविशन् ततो निर्गच्छन् वा जनेन दृश्येत; संयत्यपि तत्रैतैरेव कारणैः प्रविशेत् साऽपि प्रविशन्ती जनेन दृष्टा स्यात् ॥ २१८१ ।। अत्र चतुर्भङ्गीमाह-- संजओं दिट्ठो तह संजई य दोण्णि वि तहेव संपत्ती। रच्छामुहे व होजा, सुनघरे देउले वा वि ॥ २१८२ ॥ संयतस्तत्र प्रविशन् दृष्टो न संयती ? संयती दृष्टा न संयतः २ संयतः संयती च द्वावपि दृष्टौ न दृष्टौ वा ३-४ । “तहेव संपत्ति" त्ति यैः कारणैः संयतः प्रविष्टस्तैरेव संयत्या अपि तत्र सम्प्राप्तिरभूत् , एवमनन्तरोक्तचतुर्भङ्गया रथ्यामुले वा शून्यगृहे वा देवकुले वा दर्शनं स्यात् ॥ २१८२ ॥ ततः किम् ? इत्याह वइणी पुव्वपविट्ठा, जेणायं पविसते जई इत्थ । एमेव भवति संका, वइणि दट्टण पविसंतिं ॥ २१८३ ॥ संयतं तत्र प्रविशन्तं दृष्ट्वा शङ्का भवेत्-नूनं व्रतिनी पूर्वप्रविष्टा वर्त्तते येनायं यतिरत्र प्रविशति । एवमेव व्रतिनीं प्रविशन्तीं दृष्ट्वा शङ्का भवति-नूनं संयतः प्रविष्टोऽस्ति येनेयं प्रविशति ॥ २१८३ ॥ 15 उभयं वा दुदुवारे, दटुं संगारउ त्ति मन्नति । ते पुण जइ अन्नोन्न, पासंता तत्थ न विसंता ॥२१८४॥ द्विद्वारे वा देवकुले 'उभयं' संयतः संयती च प्रविशेत् , तत्रैकेन द्वारेण संयतः प्रविष्टो द्वितीयेन तु संयती, तौ च दृष्ट्वा 'सङ्गारः' सङ्केतोऽत्रानयोरिति गृहस्था मन्यन्ते । 'तौ च' संयतीसंयतौ यद्यन्योन्यमद्रक्ष्यतां ततस्तत्र 'नावेक्ष्यतां' प्रवेशं नाकरिप्यताम् ॥ २१८४ ॥ 20 ईत्थं प्रवेशे चतुर्भङ्गी दर्शिता । अथ निर्गमनेऽपि तामतिदिशन्नाह-~ एमेव ततो णिते, भंगा चत्तारि होति नायव्वा । चरिमो तुल्लो दोसु वि, अदिट्ठभावेण तो सत्त ॥ २१८५॥ 'एवमेव' प्रवेशवत् 'ततः' शून्यगृहादेर्निर्गच्छतोरपि तयोश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति ज्ञातव्याः । तद्यथा-संयतो निर्गच्छन् दृष्टो न संयती १ संयती निर्गच्छन्ती दृष्टा न संयतः २ संयतः 25 संयती द्वावपि दृष्टौ ३ द्वावपि न दृष्टौ ४ । अत्र च 'द्वयोरपि' प्रवेश-निर्गमयोः 'चरमः' चतुर्थो भङ्गस्तुल्यः । कुतः ? इत्याह---'अदृष्टभावेन' द्वयोरपि संयत-संयत्योरदृष्टत्वेन, ततश्च द्वाभ्यामप्येक एव गण्यते, एवं सप्त भङ्गा भवन्ति ॥ २१८५ ॥ एतेषु दोषानाह १शन जनेन ६० त० डे० कां० ॥ २ मो० ले. विनाऽन्यत्र-दृष्टौ ३ तथा द्वावपिन दृष्टौ ४। "त त. डे. कां० । दृ ३ न संयतो न वा संयती दृष्टेति ४ । “त° भा० ॥ ३°रणैः प्रथम. द्वितीयादिपरीषहातुरतादिभिः संयतः डे० त० । “तहेव संपत्ति ति जेहिं कारणेहिं संजओ पविट्रो तेहिं कारणेहिं संजई वि" इति विशेषचूर्णी ॥ ४°ष्ट्वा शङ्कते-नूनं त० डे. कां. ॥ ५च तथा हत.०॥ ६॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा. नास्ति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० एक्किकम्मि य भंगे, ट्ठिाईया य गहणमादीया।। सत्तमभंगे मासो, आउभयाई अ सविसेसा ॥ २१८६ ॥ एकैकस्मिन् भङ्गे 'दृष्टादयः' दृष्टे सति शङ्का भोजिकादयो दोषा भवन्ति । तत्र शङ्का नाम किं विश्रामणार्थमत्र प्रविशति ? उत प्रतिसेवनार्थम् ? इति तत्र चतुर्गुरु । प्रतिसेवनार्थमेवेति 5 निःशङ्किते मूलम् । शेष भोजिकानिवेदनादि सप्रायश्चित्तं प्राग्वद् द्रष्टव्यम् । तथा उभयोरपि राजपुरुषैस्तत्र प्रवेशे दृष्टे सति ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयो दोषाः । सप्तमे भङ्गे मासलघु, तत्र चात्मोभयादिसमुत्थाः सविशेषा दोषाः । तथाहि-तत्रोभयोरप्यदृष्टत्वादन्योन्यदर्शने द्वयोरेकतरस्य वा चित्तभेदः सम्भवेत्-केनाप्यावां प्रविशन्तौ न दृष्टाविति कृत्वा तत्रैकान्ते घटनं भवेत् । आदि शब्दाच्चतुर्थव्रतं विराधितमावाभ्यामिति मत्वा वैहायसमरणा-ऽवधावनादीनि कुर्याताम् ॥२१८६॥ 10 अथ प्रवेशविषयेषु भङ्गकेषु पञ्चभिरादेशैः प्रायश्चित्तमभिधित्सुः प्रथमादेशतस्तावदाह-~ चरमे पढमे बिइए, तइए भंगे य होइमा सोही । __ मासो लहुओ गुरुओ, चउलहु-गुरुगा य भिक्खुस्स ॥ २१८७ ॥ चरमो नाम-यत्र द्वे अपि न दृष्टे १ प्रथमः-यत्र संयत एव दृष्टः २ द्वितीयः-यत्र संयती दृष्टा ३ तृतीयः-यत्र द्वे अपि दृष्टे ४, एतेषु भङ्गेषु यथाक्रमं भिक्षोरियं शोधिर्मन्तव्या । 15 तद्यथा-मासो लघुकः, मासो गुरुकः, चतुर्लघुकाः, चतुर्गुरुकाः ॥ २१८७ ॥ वसभे य उवज्झाए, आयरिए एगठाणपरिवुड्डी ।। मासगुरुं आरम्भा, नायव्या जाव छेदो उ ।। २१८८ ॥ वृषभस्योपाध्यायस्याचार्यस्य च यथाक्रममेकैकस्थानपरिवृद्धिः कर्तव्या, ततश्च मासगुरुकादारभ्य च्छेदं यावत् प्रायश्चित्तस्थानानि ज्ञातव्यानि । तद्यथा-वृपभस्य चतुर्थे भङ्गे मासगुरु, 20 प्रथमे चतुर्लघु, द्वितीये चतुर्गुरु, तृतीये षड्लघु; एवमुपाध्यायस्य चतुर्लघुकादारब्धं षड्गुरुके तिष्ठति, आचार्यस्य चतुर्गुरुकादारब्धं छेदान्तं द्रष्टव्यम् ॥ २१८८ ॥ एष एक आदेशः । अथ द्वितीय उच्यते __ अहवा चरिमे लहुओ, चउगुरुगं सेसएसु भंगेसु । भिक्खुस्स दोहि वि लहू, काल तवे दोहि वी गुरुगा ॥ २१८९ ॥ __ अथवा चरमे भङ्गे लघुको मासः, 'शेषेषु' त्रिष्वपि भङ्गेषु प्रत्येकं चतुर्गुरुकम् । एतानि प्रायश्चित्तानि भिक्षोः 'द्वाभ्यामपि' तपसा कालेन च लघुकानि, वृषभस्य कालगुरुकाणि, उपाध्यायस्य तपोगुरूणि, आचार्यस्योभयगुरूणि ॥ २१८२ ॥ एष द्वितीय आदेशः । अथ तृतीय उच्यते मासो विसेसिओ वा, तइयादेसम्मि होइ भिक्खुस्स । गुरुगो लहुगा गुरुगा, विसेसिया सेसगाणं तु ।। २१९० ॥ १तत्र चोभयोरप्यदृष्यत्वाद् आत्मोभयादिसमुत्थाः 'सविशेषाः' समधिका दोषाः। तत्रान्योन्यदर्शने द्वयोरेकतरस्य वा चित्तभेदः । भिन्नचित्तयोश्च तत्रैकान्ते भा० ॥ २a> एतच्चिह्नमध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३त० डे० का विनाऽन्यत्र ---°षु तावतप्रायश्चित्तमाह मो० ले.॥ 30 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २१८६-९३] प्रथम उद्देशः । ६२७ 'वा' इति अथवा तृतीयादेशे चतुर्ष्वपि भङ्गेषु लघुमासस्तपः - कालविशेषितो भिक्षोर्भवति । तद्यथा- - चतुर्थे भने द्वाभ्यामपि तपः- कालाभ्यां लघुकं लघुमासिकम् प्रथमे तदेव तपसा लघुकं कालेन गुरुकम्, द्वितीये कालेन लघुकं तपसा गुरुकम्, तृतीये द्वाभ्यामपि तप:कालाभ्यां गुरुकम् । ‘शेषाणां तु' वृषभोपाध्यायाचार्याणां यथाक्रमं गुरुको मासः चत्वारो लघुकाश्चत्वारो गुरुकाः चतुर्ष्वपि भङ्गेष्वेवमेव तपः- कालविशेषिताः प्रायश्चित्तम् ॥ २१९० ॥ - ऐष तृतीय आदेशः । अथ चतुर्थमाह- अहवा चउगुरुग च्चिय, विसेसिया हुंति भिक्खुमाईणं । मासाइ जाव गुरुगा, अविसेसा हुंति सव्वेसिं ॥ २१९१ ॥ अथवा चेतुर्गुरुका एव भिक्षुप्रभृतीनां चतुर्णामपि तपः - कालविशेषिता भवन्ति । तद्यथाभिक्षोर्द्वाभ्यामपि तपः- कालाभ्यां लघवः, वृषभस्य तपोलघवः कालगुरवः, उपाध्यायस्य तपो - 10 गुरुकाः काललघुकाः, आचार्यस्य द्वाभ्यामपि तपः- कालाभ्यां गुरवः । एष चतुर्थ आदेशैः । यद्वा मासादारभ्य चतुर्गुरुकं यावद् भिक्षु-वृषभादीनां प्रायश्चित्तानि । तद्यथा-1 - भिक्षोर्मासलघु, वृषभस्य मासगुरु, उपाध्यायस्य चतुर्लघुकम्, आचार्यस्य चतुर्गुरुकम् । एतानि च प्रायश्चित्तानि सर्वेषां भङ्गचतुष्टयेऽपि तपः - कालाभ्यामविशेषितानीति पञ्चम आदेशः ॥ २१९१ ॥ एवं तावत् प्रवेशप्रत्ययं शुद्धपदे प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ तत्र प्रविष्टानां ये दोषाः सम्भ- 15 वन्ति तत्प्रत्ययं प्रायश्चित्तमाह दिट्ठोभास पडिस्सुय, संथार तुअट्ट चलणउक्खेवे । फंसण पडिसेवणया, चउलहुगाई उ जा चरिमं ॥ २१९२ ॥ एवं प्रविष्टयोः संयत-संयत्योः परस्परं 'दृष्टे' दर्शने सजाते सति चतुर्लघवः । संयतः संयती वा यद्यवभाषते ततश्चत्वारो गुरवः । अवभाषिते सति यदि प्रतिशृणोति तदा षड् लघवः । 20 संस्तारके कृते षड् गुरवः । त्वग्वर्त्तने कृते च्छेदः । चलन :- पादस्तस्योत्क्षेपे मूलम् । स्पर्शनेऽनवस्थाप्यम् । प्रतिसेवने पाराञ्चिकम् ॥ २१९२ ॥ एवं प्रविष्टानां प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ निर्गमनविषयमाह पविते जा सोही, चउसु वि भंगेसु वन्निया एसा । निक्खमाणे सच्चिय, सविसेसा होइ भंगेसु ॥ २१९३ ॥ संयती-संयतयोः प्रविशतोर्या शोधिश्चतुर्ष्वपि भङ्गेषु 'एषा' अनन्तरमेव वर्णिता सैव शून्यगृहादेर्निष्क्रामतोरपि सविशेषा चतुर्ष्वपि भङ्गेषु भवति ॥ २१९३ ॥ एवं तावद् ग्रामादेरन्तर्विचारभूमौ गच्छन्तीनां भिक्षाचर्यायां च दोषाः प्रतिपादिताः । अधुना ग्रामादेर्बहिर्विचारभुवं 5 १ <> एतन्मध्यगतः पाठः भा० मो० ले० नास्ति ॥ २ चतुर्गुरवस्त एव मो० ० ॥ ३शः । अथ पञ्चममाह - "मासाइ जाव" इत्यादि । यद्वा मासादारभ्य चतुर्गुरुकं यावद् 'अविशेपितानि' तपः- कालविशेषरहितानि भिक्षु त० डे० कां० ॥ ४ पामपि अविशेषितानि, न तपः-कालाभ्यां विशेषयितव्यानीति भावः ॥ २१९१ ॥ भा० ॥ ५°षु पञ्चभिरादेशैः 'एषा' त० डे० ॥ ६°मादीनां बहि भा० ॥ 25 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० गच्छन्तीनां दोषानुपदर्शयितुमाह अंतो वियार असई, अचियत्त सगार दुजणवते वा। बाहिं तु वयंतीणं, अपत्त-पत्ताणिमे दोसा ॥ २१९४ ॥ 'अन्तः' ग्रामादेरभ्यन्तरे विचारभूमेरभावे, अप्रीतिकं वा 'सागारिकः' शय्यातरस्तत्र व्युत्स5जने कुर्यात् , 'दुर्जनवृतं वा' दुःशीलजनपरिवृतं तत् पुरोहडं ततो ग्रामादेवहिजन्तीनां स्थण्डिलमप्राप्तानां प्राप्तानां वा इमे दोषाः ॥ २१९४ ॥ वीयाराभिमुहीओ, साहुं दट्टण सनियत्ताओ। लहुओ लहुया गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं ॥ २१९५ ॥ विचारभूमेरभिमुखं गच्छन्त्यः साधुं तत्र यान्तं दृष्ट्वा यदि सन्निवर्तन्ते तदा लघुको मासः । 10 सन्निवृत्ताः सत्यः संज्ञां धारयन्त्यो यद्यनागाढं परिताप्यन्ते तदा चतुर्लघवः । आगाढपरितापनायां चतुर्गुरवः । महादुःखे षड् लघवः । मूर्छायां षड् गुरवः । कृच्छ्प्राणे च्छेदः । कृच्छ्रोच्छासे मूलम् । समुद्धातेऽनवस्थाप्यम् । कालगमने पाराञ्चिकम् ॥ २१९५ ॥ - एनामेवं नियुक्तिगाथां व्याख्यानयति __एसो वि तत्थ वच्चइ, नियत्तिमो आगयम्मि गच्छामो।। लहुओ य होइ मासो, परितावणमाइ जो चरिमं ॥ २१९६ ।। ___ 'एषोऽपि' संयतः 'तत्र' स्थण्डिले ब्रजति अतो निवर्तामहे वयम् 'आगते' प्रतिनिवृत्ते सति गमिष्याम इति कृत्वा यदि संयत्यो निवर्तन्ते तदा लघुमासः । अथ संज्ञानिरोधनादनागाढपरितापनादिकं भवति ततश्चतुर्लघुकादिकमनन्तरगाथोक्तं .'चरमं' पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तम् ।। २१९६ ॥ 20 गड्डा कुडंग गहणे, गिरिदरि उजाण अपरिभोगे वा।। पविसंते य पविटे, निते य इमा भवे सोही ॥ २१९७॥ अथ तान् साधून् दृष्ट्वा यदि ‘ग यां' प्रतीतायां 'कुडङ्गे वंशजालिकायां 'गहने' बहुवृक्षनिकुञ्जे 'गिरिदाँ' पर्वतकन्दरायां 'उद्याने वा' अपरिभोग्ये संयत्यः प्रविशेयुः ततः प्रविशन्तीषु प्रविष्टासु निर्गच्छन्तीषु चेयं शोधिः साधूनां भवति ॥ २१९७ ॥ दूरम्मि दिट्टे लहुओ, अमुई अमुओ त्ति चउगुरू होंति । ते चेव सत्त भंगा, वीयारगए कुडंगम्मि ॥ २१९८ ।। यदि दूरे संयत्या संयतः संयतेन वा संयती दृष्टा ततो लघुको मासः । अथामुका संयती अमुको वा अयं ज्येष्ठार्य इति ते तदा चतुर्मुरवः । तत्र च कुडङ्गे यदि कोऽपि संयतः विचारार्थ गतः-पूर्वप्रविष्टो वर्तते तदा त एव सप्त भङ्गाः, तद्यथा-संयतः प्रविशन् दृष्टो 30 न संयती १ संयती प्रविशन्ती दृष्टा न संयतः २ द्वावपि दृष्टौ ३ द्वावपि न दृष्टौ ४, एवं निर्गमनेऽपि चतुर्भङ्गी, नवरं चतुर्थो भङ्गः प्रवेश-निर्गमयोरुभयोरपि तुल्य इति कृत्वा द्वाभ्या मप्येक एव गण्यत इति सप्त भङ्गा भवन्ति । एतेषु च प्रायश्चित्तं प्रागिव द्रष्टव्यम् ॥२१९८॥ Jain Education inter °व गाथां भा० त० डे० ॥ २ जा सपदं ता० ॥ ३ °वो भवन्ति । तत्र त० के० कां० ॥ 25 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः २१९४-२२०३] प्रथम उद्देशः । ६२९ अथ तत्र ग्रामे द्वारे स्थितेषु तेषु यस्तासां संयतीनां निरोधो भवति तदुत्थदोषदर्शनाय दृष्टान्तमाह आभीराणं गामो, गामदारे य देउलं रम्म । आगमण भोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहियं ॥२१९९ ॥ आभीराणां कश्चिद् ग्रामः, तस्य च ग्रामस्य द्वारे देवकुलं रम्यम् , अन्यदा च 'भोगिकस्य । ग्रामस्वामिनस्तत्रागमनम् , ततः 'तत्र' देवकुले भोगिकस्तिष्ठति ॥ २१९९ ॥ महिलाजणो य दुहितो, निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं । सामत्थणा य तेसिं, गो-माहिससनिरोधो य ॥ २२०० ॥ ततः 'तेषाम्' आभीराणां महिलाजनो दुःखितोऽभूत् , निष्क्रमणं प्रवेशनं च "सिं" तासां विचारादौ गच्छन्तीनां 'दुःख' दुष्करमभवत् , ततस्तेषां "सामत्थण" ति पर्यालोचनमभूत् , 10 यथा—महिलाजनस्यातीवाबाधा वर्तते, अत एनं भोगिकमुपायेनान्यत्र स्थापयाम इति । ततस्तैर्गो-माहिषस्य-गो-महिषीसमूहस्य वववत्सवियोजनस्य ग्रामाद् बहिर्नीत्वा ग्रामद्वारबन्धनेन रात्रौ सन्निरोधः कृत इति ॥ २२०० ॥ इदमेव स्फुटतरमाह विगुरुवियबोंदीणं, खरकम्मीणं तु लज्जमाणीओ। भंजति अणितीओ, गोवाड-पुरोहडे महिला ॥ २२०१ ॥ इति ते गोणीहि समं, घिइमलभंता उ बंधिउं दारं । गामस्स विवच्छाओ, बाहिं ठाविंसु गावीओ ॥ २२०२ ॥ विकुर्विता-वस्त्रादिभिरलङ्कता बोन्दिः-शरीरं येषां ते विकुर्वितबोन्दयस्तेषामेवंविधानां भोगिकसम्बन्धिनां खरकर्मिकाणां लज्जमानाः सत्यो महेला बहिरनिर्गच्छन्त्यो गोवाटक-पुरोहडानि 'भञ्जन्ति' पुरीषव्युत्सर्गादिना विनाशयन्तीत्यर्थः ॥ २२०१ ॥ 20 'इति' एवं विचार्य 'ते' आभीरा धृतिमलभमाना गोभिरात्मना सार्द्ध सञ्चारिताभिः सह बहिनिर्गत्य ग्रामस्य द्वारं बद्धवा 'विवत्साः' वत्सरहिताः केवला एव गाः उपलक्षणत्वाद् महिषीश्च ग्रामस्य बहिः स्थापितवन्तः, ताश्च तत्र स्थिताः सवत्सवियोजिता महता शब्देन सकलामपि रात्रिं विखरमारटितवत्यः, वत्सका अपि नामान्तः स्थितास्तथैव शब्दायितवन्तः ॥ २२०२॥ ततः किमभूत् ? इत्याह वच्छग-गोणीसहेण असुवणं भोइए अहणि पुच्छा। सब्भावे परिकहिए, अन्नम्मि ठिओ निरुवरोहे ॥ २२०३ ॥ तेषां वत्सकानां गवां च यः शब्दः-विखरारटनलक्षणस्तेन भोगिकस्य 'अखपन' निद्रा न समायातेत्यर्थः । ततः 'अहनि' दिवसे उद्गते सति तेन पृच्छा कृता, यथा-किमेवं रात्रौ गो-माहिषं विखरमारटत् ? । तैराभीरस्ततः सर्वोऽपि सद्भावः परिकथितः । ततोऽसौ भोगिकोs-30 न्यस्मिन् देवकुले 'निरुपरोधे' निर्व्याघाते गत्वा स्थित इति ॥ २२०३ ॥ अत्रोपनयमाह एवं चिय निरविक्खा, वइणीण ठिया निओगपमुहम्मि । १त्वा तद्दार मो० ले० ॥ 25 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० जा तासि विराधणया, निरोधमादी तमावजे ॥ २२०४॥ 'एवमेव' भोगिकवत् केचिद् निरपेक्षाः संयता व्रतिनीनां सम्बन्धी यो नियोगः-ग्रामः क्षेत्रमित्यर्थः तस्य प्रमुखे-निर्गम-प्रवेशद्वारे स्थिताः तैर्या तासां निरोधादिका विराधना आदिशब्दादनागाढपरितापनादिका तामापद्यन्ते, तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तं भवतीति भावः ॥२२०४॥ अहवण थेरा पत्ता, दहें निकारणद्वियं तं तु । भोइयनायं काउं, आउट्टि विसोहि निच्छुमणा ॥ २२०५॥ 1 "अहवण" त्ति अखण्डमव्ययपदमथवेत्यस्यार्थे । - अथवा 'स्थविराः' कुलस्थविरादयतत्र क्षेत्रे प्राप्तास्तमाचार्यादिकं ग्रामद्वार एव स्थितं दृष्ट्वा पृच्छन्ति-आर्य ! किमत्र संयतीक्षेत्रे भवानीदृशे प्रदेशे स्थितः ? इति । यदि निष्कारणिकस्ततो भोगिकज्ञातमनन्तरोक्तं कुर्वन्ति, 10 यथा तेन महिलाजनेन महान् क्लेशराशिरनुबभूवे, एवमेताभिरपि संयतीभिर्भवता अत्र स्थितेन महद् दुःखमनुभवनीयम् । एवमुक्ते यदि 'आवृत्तः' प्रतिनिवृत्तस्ततो 'विशोधिं' प्रायश्चित्तं दत्त्वा ततः क्षेत्रानिष्काशना कर्त्तव्या ॥ २२०५॥ एवं ता दप्पेणं, पुट्ठो व भणिज कारण ठिओ मि । तहियं तु इमा जयणा, किं कजं का य जयणाओ ॥ २२०६ ॥ 15 एवं तावद् 'दर्पण' आकुट्टिकया स्थितानां दोषा उक्ताः । अथ कुलादिस्थविरैः पृष्टो भणेत्-कारणे स्थितोऽस्म्यहम् । ततः पुष्टकारणसद्भावे न प्रायश्चित्तं न वा निष्काशना । तत्र तु कारणे स्थितानाम् 'इयं' वक्ष्यमाणा यतना । शिष्यः प्राह–किं पुनः 'कार्य' कारणम् ? का वा यतनाः ? ॥ २२०६ ॥ उच्यते अद्धाणनिग्गयाई, अग्गुजाणे भवे पवेसो य । पुनो ऊणो व भवे, गमणं खमणं च सव्वासिं ॥ २२०७॥ ___ अध्वनो ये निर्गता वसिमं प्राप्तास्तेऽध्वनिर्गताः, आदिशब्दादशिवादिकारणेषु वर्तमानाः संयतीक्षेत्रे प्राप्ताः। तत्र चारोद्याने स्थित्वा गीतार्थाः संयतीप्रतिश्रये प्रहेयाः । तैश्च विधिना तत्र प्रवेशः कर्त्तव्यः । संयतीनां च मासकल्पः पूर्ण ऊनो वा भवेत् । यदि पूर्णस्ततो गमनं कर्त्तव्यम् । अथ न्यूनस्ततः सर्वासामपि क्षपणं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥२२०७॥ १ - एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥२°ति । ततो निर्वचने प्रदत्ते यदि नि त• डे० ॥ ३°त्वा संयतीप्रतिश्रये प्रवेशः भा० ॥ ४ भवतीति समासार्थः । अथ विस्तरार्थ उच्यते-ते साधवोऽध्वनिर्गतादयः तत्र क्षेत्र प्राप्ताः स्वयं संयतीभिः सहिता रहिता वा भवेयुः। तत्र संयतीविरहितानां विधिरभिधीयते-यदि न तावद भिक्षाया देशकालस्ततो न तत्र स्थातव्यम्, यः पुरोवर्ती ग्रामस्तत्र गत्वा भैक्षं ग्रहीतव्यम् ॥ २२०७॥[अथ] तत्रामूनि कारणानि भवेयुः-उब्वाया० गाथा २२०८ । ते साधवः 'उद्वाताः' अतीव परिश्रान्ताः, भा०। "अद्धाण. दारगाधा ॥ ते साधू अद्धाणणिग्गतादी तत्थ पत्ता जत्थ संजतीओ ठितेल्लियाओ। ते पुण संजतिसहिता वा संजतिरहिता वा। तत्थ संजतिविरहिताणं ताव विधि भण्णति-जति ण ताव भिक्खावेला तो वोलेतन्वं, अग्गतो जो गामो तत्थ भिक्खं घेत्तव्वं ॥ अह इमे कारणे ण वोलेजा-उवाया• गाहार्द्ध कंठं। 20 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२०४ - १० ] अथ विस्तरार्थमाह— एवं पृष्ट्र किं कुर्वन्ति ? इत्याह प्रथम उद्देशः । उच्या वेला वा, दूरुट्टियमाणों व परगामे । इय थेरऽञ्जासिजं, विसंतऽणावाहपुच्छा य ।। २२०८ ॥ अध्वनिर्गतादयः साधवः संयतीक्षेत्रे प्राप्ताः सन्तो यदि न तावद् मिक्षाया देशकालस्ततो यः पुरोवर्ती ग्रामस्तत्र गत्वा भैक्षं गृह्णन्तु । अथ ते 'उद्वाताः ' अतीव परिश्रान्ताः, वेला वा तदानीमतिक्रामति, परग्रामे वा दूरोत्थितादयो दोषाः: - तत्र द्वैरे स ग्रामो न तदानीं गन्तुं शक्यते, उत्थितो वा - उद्वसींभूतोऽसौ, आदिशब्दात् क्षुल्लको वा अभिनवावासितो वा भटाक्रान्तो वा इत्यादिपरिग्रहः । 'इति' एवं विचिन्त्याग्रोद्याने स्थित्वा यः स्थविरो गीतार्थः स आत्मद्वितीयः संयतीप्रतिश्रये प्रेप्यते । स च तत्र गत्वा बहिरेकपार्श्वे स्थित्वा नैषेधिकीं करोति । यदि ताभिः श्रुतं ततः सुन्दरम् अथ न श्रुतं ततः शय्यातरीणां निवेद्यते, ताभि- 10 रायकाणां निवेदिते यदि सर्वा अप्यायिका वृन्देन निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । ततः प्रवर्त्तिनी प्रौढाभ्यां वयः परिणताभ्यामायिकाभ्यां सहिता निर्गत्य 'अनुजानीत' इति भणति । ततस्तौ साधू 'आर्याशय्यां' साध्वीप्रतिश्रयं प्रविशतः । ततश्च ताभिः कृतिकर्मणि विहिते स गीतार्थसाधुरधोमुखमवलोकमान आचार्यवचनेन तासामनाबाधपृच्छां करोति — कच्चिदुत्सर्पन्ति संयमयोगा निराबाधं भैवतीनाम् ? ग्लाना वा न काचिद् वर्त्तते ? ॥ २२०८ ॥ २३१ अमुत्थ गमिस्सामो, पुट्ठाऽपुट्ठा व ईय वोत्तूर्णं । इह भिक्खं काहामो, ठवणाघरे परिकहेह ॥ २२०९ ॥ स्थविरा गीतार्था पृष्टा अपृष्टा वा 'अमुक वयं गमिष्यामः' इत्युक्त्वा इदं भणन्ति -- वयमिह ग्रामे भिक्षां करिष्यामः, ततः स्थापनादिगृहाणि परिकथयत, आदिशब्दो मामाकादि - 20 कुलसूचकः ॥ २२०९ ॥ ततस्तेषु कथितेषु यो विधिः कर्त्तव्यस्तमाहसामायारिकडा खलु, होइ अवड्डा (ड्ढे ) य एगसाहीय । 15 सीउन्हं पढमादी, पुरतो समगं व जयणाए ।। २२१० ॥ हे आर्याः ! कृतसामाचारीका यूयम् ? उत न ? इति तासां समीपे प्रष्टव्यम् । “अवढे" ति एकस्मिन् ग्रामार्द्ध संयताः पर्यटन्ति द्वितीयस्मिन् संयत्यः । " एगसाहीय" चि एकस्यां साहि - 25 कायां–गृहपतयां साधवः पर्यटन्ति द्वितीयस्यां साध्व्य इति । यद्वा शीतमुष्णं वा यथायोगं गृह्णन्ति । तथा "पढमाइ" त्ति प्रथमालिकाम् आदिशब्दात् पानकस्य वा पानं शून्यगृहादिस्थानानि वर्जयित्वा कुर्वन्ति । संयतीनां ' पुरतः ' प्रथमं समकं वा यतनया पर्यटन्ति । एष निर्यु - क्तिगाथासमासार्थः ॥ २२१० || अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमाह ताहे अग्गुज्जाणे ठातुं जो थेरो गीतो सो अप्पवितिओ संजतिउवस्तयं अतीति, विधिणा णिसीधियादि, एगपासे ठाति, अणावाहादि पुच्छति । एस पवेसो ।” इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च ॥ १ 'व्वाणा वे मो० ले० ॥ २ द्वानाः' अ° मो० ले० ॥ त०डे० कां० ॥ ४° ते, ता आर्यिकाणां निवेदयन्ति, निवे कां० ॥ ६°वा पुनरपि स गीतार्थो भणति - अमु भा० ॥ ३ दूरः- दूरवर्ती स ग्रा० भा० भा० त० डे० कां० ॥ ५ भगव Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० कडमकड त्ति य मेरा, कडमेरा मित्ति विति जइ पुट्ठा। ताहे भणंति थेरा, साहह कह गिहिमो भिक्खं ॥ २२११॥ स्थविरैस्ताः प्रष्टव्याः-आर्याः ! युष्माभिः 'मर्यादा' सामाचारी 'कृता' शिक्षिता ? उत अकृता ? इति पृष्टा यदि ब्रुवते-'कृतमर्यादा वयं' कृतसामाचारीकाः, विधिं जानीम इत्यर्थः । 5 ततः स्थविरा भणन्ति-कथयत कथं भिक्षां गृह्णीमो वयम् ? ॥ २२११ ॥ ता बेंति अम्ह पुण्णो, मासो वच्चामु अहव खमणं णे । संपत्थियाउ अम्हे, पविसह वा जा वयं नीमो ॥ २२१२ ॥ ता आर्यिका ब्रुवते—पूर्णोऽस्माकं मासकल्पः, अतः सूत्रार्थपौरुष्यौ कृत्वा ब्रजामो वयम् , साधवो यथासुखं पर्यटन्तु । अथवा न पूर्णस्तथापि क्षपणमद्य “णे" अस्माकं सर्वासामपि ततः 10 पर्यटत यूयम् । अथ न क्षपणं ततस्ता ब्रूयुः-सम्प्रस्थिता वयं भिक्षाटनार्थम् , यूयं पश्चात् पर्यटत । अथवा-'प्रविशत' भिक्षामवतरत यूयं यावद् वयं निर्गच्छाम इति ॥ २२१२ ॥ यदा च तासां क्षपणं भवति तदा बेयु: विच्छिन्नो य पुरोहडों, अंतो भूमी य णे वियारस्स । सागारिओ व सन्नी, कुणइ असारक्खणं अम्हं ॥ २२१३ ॥ 15 विस्तीर्ण पुरोहडं वर्तते, गाथायां प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः, “णे" अस्माकम् 'अन्तः' ग्राममध्ये विचारभूमिरस्तैि, यश्चास्माकं सागारिकः सः 'संज्ञी' श्रावकस्ततः संरक्षणमस्माकं करोति, बहिर्विचारभुवं गन्तुं न ददातीत्यर्थः । एवं संयतीभिरुक्ते साधवस्तत्र यथासुखं पर्यटन्ति । अथ ताभिः पूर्व क्षपणं न कृतं ततो यदि सुभिक्षं वर्तते प्रचुरं च प्राप्यते ततः संयत्यः क्षपणं कुर्वन्तु । अपि च यद्यपि तासां साधुभ्यो भक्त-पानं प्रदातुं न कल्पते तथा20 प्येवं कुर्वन्तीभिस्ताभिः प्राघुण्यं कृतं भवति । अथ न शक्नुवन्ति क्षपणं कर्तुं ततः संयत्यः प्रागेव पर्यटन्त्यो दोषान्नं गृह्णन्ति संयता भिक्षाया देशकाले उष्णं गृह्णन्ति । अथ संयतीनां दोषान्नमकारकं ततः संयता दोषान्नमितराः पुनरुणं गृह्णन्ति ॥ २२१३ ॥ उभयस्सऽकारगम्मी, दोसीणे अहव तस्स असईए। संथर भणंति तुम्हे, अडिएसु वयं अडीहामो ॥ २२१४ ॥ 25 'उभयस्य' संयती-संयतवर्गस्य दोषान्ने अकारके अथवा 'तस्य' दोषान्नस्य 'असति' अभावे संस्तरणे सति संयत्यो भणन्ति-यूयं तावदटत ततो युष्मासु अटितेषु वयमटिष्यामः ॥ २२१४ ॥ अथैक एव तत्र देश-कालस्ततः क्रमेण पर्यटने वेलाया अतिक्रमो भवति ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह तुब्भे गिण्हह भिक्खं, इमम्मि पउरन्न-पाण गामद्धे । 30 चाडग साहीए वा, अम्हे सेसेसु घेच्छामो ॥ २२१५॥ १ 'बजामो वयम्' ग्रामान्तरं वजिष्याम इति साधवो भा० ॥ २ स्ति, 'सामारिको वा' शय्यातरः 'संक्षी वा' श्रावकः स संरक्षणमस्माकं करोति अतो यथासुखमत्र पर्यटन्तु भवन्त इति । अथ ताभिः भा० ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२११-२०] प्रथम उद्देशः । ६३३ - संयत्यो त्रुबते-न्यूयं गृहीत भिक्षामस्मिन् प्रचुरान्नपानस्य ग्रामस्या?, अस्मिँस्तु मामाद्धे वयं ग्रहीष्यामः; यद्वा-अस्मिन् पाटकेऽस्यां वा साहिकायां यूयं गृहीत वयं शेषेषु गृहेषु ग्रहीप्याम इति ॥ २२१५ ॥ __ ओली निवेसणे वा, वजेत्तु अडंति जत्थ व पविद्वा । न य वंदणं न नमणं, न य संभासो न वि य दिट्ठी ।। २२१६॥ "ओलि" ति ग्रामगृहाणामेका पतिः, निवेशनं-एकनिष्क्रमण-प्रवेशानि यादीनि गृहाणि, ततो यस्यां पतौ निवेशने वा संयत्यः पर्यटन्ति तां वर्जयित्वा अन्यस्यां पङ्कावन्यस्मिन् वा निवेशने संयता मिक्षामटन्ति । अथ लघुतरोऽसौ ग्रामस्ततः पङ्क्तयादिविभागो न शक्यते कत्तुं ततो यत्र गृहादौ प्रविष्टा रथ्यायां वा गच्छन्त एकत्र मिलन्ति तत्र 'म च' नैव 'वन्दनं' कृतिकर्म न वा 'नमनं शिरःप्रणाममात्रं न च 'सम्भाषः' परस्परालापो नापि च 'दृष्टिः' सम्मुखम-10 वलोकनम् , मा प्रापत् पूर्वोक्तशङ्कादिदोषप्रसङ्ग इति ॥ २२१६ ॥ पुव्वभणिए य ठाणे, सुनोगादी चरंति वजेंता । पढम-विइयातुरा वा, जयणा आइन धुवकम्मी ॥ २२१७ ॥ 'पूर्वभणितानि च' शङ्काविषयभूतानि शून्यौकः-शून्यगृहं तदादीनि स्थानानि दूरेण वर्जयन्तश्चरन्ति, प्रथम-द्वितीयपरीपहातुरा वा यतनया जनाकीणे 'ध्रुवकर्मिका वा' काष्ठसूत्रधारादयो 15 यत्र पश्यन्ति तत्र प्रथमालिकां द्रवपानं वा कुर्वन्ति ॥ २२१७ ॥ एवं संयतीक्षेत्रे साधूनामागतानां विधिरुक्तः । अथोभयेषु पूर्वस्थितेषूभयेषामेवागमने विधिमाह दोन्नि वि ससंजईया, एगग्गामम्मि कारणेण ठिया। तासिं च तुच्छयाए, असंखडं तत्थिमा जयणा ॥ २२१८ ॥ 'द्वयेऽपि' वास्तव्या आगन्तुकाश्च साधवो यदि ससंयतीका एकस्मिन् ग्रामे कारणेन स्थिताः, 90 'तासां च' संयतीनां तुच्छतया यद्यसङ्खडमुपजायते तत्र 'इयं' वक्ष्यमाणा यतना ।। २२१८॥ -आह तिष्ठतु तावद् यतना, कथं पुनस्तासामसङ्खडमुत्पन्नम् ? इति सतावद् वयं जिज्ञासामहे,» उच्यते--ताभिर्वास्तव्यसंयतीभिरागन्तुकसंयत्यः पृष्टाः-आर्याः ! किं यूयं यदृच्छया भक्त-पानं लभध्वे न वा ? इति, ताः प्राहुः चुण्णाइ-विंटलकए, गरहियसंथवकए य तुन्भाहिं । ताइँ अजाणंतीओ, फव्वीहामो कहं अम्हे ॥ २२१९ ॥ - चूर्ण-वशीकरणादिफलं द्रव्यसंयोगरूपं तेन आदिशब्दाद ज्योतिष-निमित्तादिना च विण्टलेन कृते-भाविते, तथा गर्हितः-पूर्व-पश्चात्सम्बन्धरूपो यः संस्तवः-परिचयस्तेन वा कृते-भाविते युष्माभिः क्षेत्रे 'तानि' चूर्णादीनि कर्तुमजानानाः कथं वयमत्र “फन्वीहामो" ति ५ 'देशीपदत्वाद् । यदृच्छया भक्त-पानं लभामहे ? ॥ २२१९॥ वास्तव्यसंयत्यः प्रतिब्रुवते सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं, ठावेइ दोसेसु गुणेसु चेव ।। पावस्स लोगो पडिहाइ पावो, कल्लाणकारिस्स य साहुकारी ॥ २२२० ॥ १-२ एतन्मध्यगतः पाठः भा० मो. ले. नास्ति ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० ___ 'खेन' स्वकीयेनानुमानेन 'परम्' अन्यम् आत्मव्यतिरिक्तम् 'अयं' प्रत्यक्षोपलभ्यमानो जनो दोषेषु गुणेषु च स्थापयति, अविद्यमानानामपि तेषां तत्राध्यारोपं करोतीति भावः । एतदेव व्यक्तीकरोति–'पापस्य' पापकर्मकारिणो जनस्य लोकः सर्वोऽपि पापः प्रतिभाति, कल्याणकारिणः पुनः सर्वोऽपि साधुकारी ॥ २२२० ॥ ततश्च नूणं न तं वट्टइ जं पुरा भे, इमम्मि खेत्ते जइभावियम्मि । अवेयवच्चाण जतो करेहा, अम्हाववायं अइपंडियाओ ।। २२२१ ॥ 'नूनं' निश्चितं यत् कुण्टल-विण्टलं पुरा "भे" भवत्यः कृतवत्यस्तदत्र क्षेत्रे यतिभाविते न वर्त्तते कर्तुम् । कुत एतद् ज्ञायते यद् वयं कुण्टल-वेण्टलं कृतवत्यः ? इति चेद् अत आह—'अपेतवाच्यानां' वचनीयतारहितानां यत एवं यूयम् 'अतिपण्डिताः' अतीव दुर्विदग्धा 10 अस्माकम् 'अपवादम्' असदोषोद्धोषणं कुरुथ ॥ २२२१ ॥ इत्थमसङ्खडे उत्पन्ने किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह तत्थेव अणुवसंते, गणिणीइ कहिंति तह वि हु अठंते । गणहारीण कहेंती, सगाण गंतूण गणिणीओ ॥ २२२२॥ यदि तत्रैव परस्परमुपशान्तं तदसङ्खडं ततः सुन्दरमेव । अथ नोपशान्तं ततः 'गणिन्याः' 15 स्वस्याः खस्याः प्रवर्तिन्याः कथयन्ति । यदि न कथयन्ति ततश्चतुर्गुरवः । ततस्ते प्रवर्तिन्यौ मधुरया गिरा प्रज्ञाप्योपशमयतः । तथापि 'अतिष्ठति' अनुपरते 'द्वे अपि' गणिन्यौ गत्वा खेषां खेषां गणधारिणां कथयतः । यदि न कथयतस्ततश्चत्वारो गुरुकाः ॥ २२२२ ॥ ततः प्रवर्तिन्या कथिते गणधरेण किं विधेयम् ? इत्यत आह-~ उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारिनिवेदणं तु कायर्व । जइ अप्पणा भणेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ २२२३ ॥ ___ 'अधिकरणे' असङ्खडे उत्पन्ने सति प्रवर्तिनीमुखादाकर्ण्य तेन गणधरेण द्वितीयस्य गणधारिणो निवेदनं कर्त्तव्यम् । यदि स गणधर आत्मनैव गत्वा द्वितीयगणधरसत्कां व्रतिनीं 'भणेत्' उपालम्भेत ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः ॥ २२२३ ॥ ईदमेव सविशेषमाह-~ वतिणी वतिथि वतिणी, व परगुरुं परगुरू व जइ वइणिं । 25 जंपइ तीसु वि गुरुगा, तम्हा सगुरूण साहेजा ॥ २२२४ ॥ __ यदि वतिनी व्रतिनी जल्पति' उपालभते, व्रतिनी वा यदि 'परगुरुम्' अन्यसंयतीगणधरं जल्पति, परगुरुर्वा यदि व्रतिनी जल्पति तत एतेषु त्रिष्वपि चतुर्गुरुकाः, तस्मात् स्वगुरूणां कथयेत् , उपलक्षणत्वात् खतिनी चोपालम्भेत ॥ २२२४ ॥ ___अथ परव्रतिनीमुपालम्भमानस्य को दोषः स्यात् ? इत्यत्रोच्यते जाणामि दमियं भे, अंगं अरुयम्मि जत्थ अकंता । को वा एअंन मुणइ, वारेहिह कित्तिया वा वि ॥ २२२५ ॥ सा परव्रतिनी भण्यमाना ब्रूयात्-जानाम्यहं यद् दूनं भवतामङ्गम् , 'यत्र' यस्मिन 'अरुषि' १-२ • एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३°न् अङ्गे 'अ° भा० विना ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२२१-२९] प्रथम उद्देशः। बेणे युष्मदीयसंयती प्रतिब्रुवाणया मया यूयमाक्रान्ताः, को वा एनमर्थ न जानाति ? कियतो वा अवतो निवारयिप्यथ ? यद्यहं वारिता सती न जल्पिप्यामि तद्दन्येऽपि जल्पिप्यन्तीति ॥२२२५॥ अपि च निग्गंधं न वि वायइ, अलाहि किंवा वि तेण भणिएणं । छाएउं च पभायं, न वि सका पडसएणावि ॥ २२२६॥ नहि निर्गन्धं वायुर्वाति, किन्तु यादृशस्य वनखण्डादेमध्येन समायाति तादृग्गन्धसहित एव, एवं भवतामप्यस्या उपरि' य ईशः पक्षपातः स न निःसम्बन्ध इति भावः । अथवा "अलाहि" ति अलमनेन वचनेनाभिहितेन, मर्मानुवेधित्वात् । किं वा तेन भणितेन कार्यमें ? यतः प्रभातं सञ्जातं सद् न पटशतेनापि च्छादयितुं शक्यम् । इत्थं तन्मुखाद निर्गते असद्धृतार्थेऽपि दूषणे जले पतिते इव तैलबिन्दौ सर्वतः प्रसर्पति सूरीणां महान् छायाघातो जायते, स 10 च तत्त्वत आत्मकृत एवेति ॥ २२२६ । अत्र दृष्टान्तमाह ___ मज्झत्थं अच्छंतं, सीहं गंतूण जो विवोहेइ । - अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुजुत्तो ॥ २२२७॥ 'मध्यस्थम्' उदासीनं तिष्ठन्तं सिंहं गत्वा उपेत्य यः कश्चिद् 'विबोधयति' विशेपेण-पाणिप्रहारादिना बोधयति स विबोधितः सन् तस्यात्मवधाय भवति । बेताल इव वा दुप्पयुक्तो 15 यथा साधकमेवोपहन्ति, एवमियमप्याचार्येण प्रबोधिता सती तस्येव च्छायाघातमुपजनयति ॥ २२२७ ॥ यतश्चैवमतः-- उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारि पयत्तिणि निवारेइ । · अह तत्थ न वारेई, चाउम्भासा भवे गुरुगा ॥ २२२८ ॥ उत्पन्नेऽधिकरणे गणधारी प्रवर्तिनी निवारयति । अथ तत्र गणधारी न वारयति ततश्च- 20 तुर्मासा गुरुका भवेयुः । अंतो गणधरौ द्वावपि मिलित्वा संयतीप्रतिश्रयं गत्वा प्रवर्तिनी पुरतः कृत्वा वस्वसंयतीरुपशमयतः ॥ २२२८ ॥ तत्र वास्तव्यसंयत्य इत्थमुपशाम्यन्ते पाहुन्नं ताण कयं, असंखडं देह तो अलजाओ। पुव्याट्ठिय इय अज्जा, उबालभताऽणुसासंति ॥ २२२९ ॥ 'प्राघुण्यम्' आतिथेयं 'तासाम्' आगन्तुकसंयतीनां शोभनं कृतम् यदेवमलज्जाः सत्योऽसङ्खडं:5 'दत्थ' कुरुथ । पूर्वस्थिता आचार्याः स्वकीया आर्या उपालभमानाः 'इति' एवमनुशासते ॥२२२९।। १ व्रणे यूयमाक्रान्ताः, युष्मदीयसंयती प्रतित्रुवाणायां मयि यद् यूयमले व्रणप्रदेशे वा उपपीज्यमानेऽतीव दूना तदहं सवेसपि जानामीति भावः, को वा एन° भा० ॥ २°रि खरतरः पक्ष भा० ॥ ३ °म् ? न किञ्चिदित्यर्थः, यतः भा० ॥ ४°म्, किन्तु बलादेव तत् प्रकटीभवतीति । इत्थं महान् छाया भा० ॥ ५ कश्चिदात्मवैरिको वि° भा० ॥ ६ अतो गणधरेण द्वितीयगणधरं गृहीत्या संयतीप्रतिश्रयं गत्वा प्रवर्तिनी पुरतः कृत्वा खलसंयतीनामुपशमनं कर्त्तव्यम् ॥ २२२८ ॥ भा० ॥ ७°वमज्ञाः सत्यो भा० ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे वगडाप्रकृते सूत्रम् १० आगन्तुकसंयतीनामुपशमनोपायः पुनरयम् एगं तासिं खेत्तं, मलेह विइयं असंखडं देह । आगंतू इय दोसं, झवंति तिक्खाइ-महुरेहिं ।। २२३० ॥ एकं तावत् 'तासां' वास्तव्यसंयतीनां सत्कं क्षेत्रं 'मलयथ' विनाशयथ, द्वितीयं पुनरसङ्खडं 5 'दत्थ' कुरुथ । आगन्तुका आचार्याः 'इति' एवं 'दोषम्' अधिकरणलक्षणं तीक्ष्ण-मधुरादिभिर्वचनैः "झवंति" त्ति विध्यापयन्ति, उपशमयन्तीति यावत् ॥ २२३० ॥ ततश्च अवराह तुलेऊणं, पुव्ववरद्धं च गणधरा मिलिया। बोहित्तुमसागारिएँ, दिति विसोहिं खमावेउं ॥ २२३१ ॥ द्वावपि गणधरौ मिलितावपराधं 'तोलयित्वा' यस्या यावानपराधस्तं परस्परसंवादेन सम्यग् 10 निश्चित्य या पूर्वापराद्धा-पूर्वमपराद्धं यया सा तथा ताम् 'असागारिके' एकान्ते बोधयित्वा ततो द्वितीयां तस्याः पार्थात् क्षमापयतः । क्षमापयित्वा चोभयोरपि यथोचितां 'विशोधि' प्रायश्चित्तं प्रयच्छत इति ।। २२३१ ॥ गतः प्रथमो भङ्गः । अथ द्वितीयं भङ्गं विभावयिषुराह अभिनिदुवार[ऽभि] निक्खमणपवेसे एगवगडि ते चेव । जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ २२३२ ।। 15 द्वितीयभङ्गो नाम यद् ग्रामादिकम् अभिनिद्वारम्-अनेकद्वारम् अत एवाभिनिष्क्रमण-प्रवेशं परमेकवगडं तत्र त एव दोपा भवन्ति ये प्रथमभङ्गे प्रोक्ताः । यत् पुनः 'अत्र' द्वितीयभङ्गे नानात्वं तदहं वक्ष्ये समासेन ॥ २२३२ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति तह चेव अन्नहा वा, वि आगया ठंति संजईखेत्ते । भोइयनाए भयणा, सेसं तं चेविमं चऽन्नं ॥ २२३३ ॥ 20 'तथैव' “सोऊण य समुदाणं गच्छं आणित्तु देउले ठाइ ।” (गा० २१३४ ) इत्यादिना प्रथमभङ्गोक्तप्रकारेणैव अन्यथा वा संयतीक्षेत्रे आगताः सन्तस्तिष्ठन्ति । तत्र च स्थितानां तेषां भोगिकज्ञाते भजना कार्या, यदि संयतीनां विचारभूम्यादिमागें स्थितास्ततो भवति भोगिकज्ञातम् अन्यथा तु न भवतीति भावः । 'शेष' सर्वमपि प्रायश्चित्तादि 'तदेव' प्रथमभङ्गोक्तं ज्ञातव्यम् । इदं च 'अन्यद्' अभ्यर्धिकद्वारकदम्बकमभिधीयते ॥ २२३३ ॥ 25 एगा व होज साही, दाराणि व होज सपडिहुत्ताणि । पासे व मग्गओ वा, उच्चे नीए व धम्मकहा ।। २२३४ ।। तत्रानेकद्वारे एकवगडे ग्रामादौ साधु-साध्वीप्रतिश्रययोरेका वा 'साहिका' गृहपतिर्भवेत् । द्वाराणि वा परस्परं 'सप्रतिमुखानि' अभिमुखानि भवेयुः । अथवा साध्वीप्रतिश्रयस्य पार्श्वतो वा मार्गतो वा उच्चे वा नीचे वा स्थाने स्थिता भवेयुः । तत्र च स्थितानां धर्मकथां कोऽप्यशुभेन 30 भावेन कुर्यादिति नियुक्तिगाथासङ्केपार्थः ॥ २२३४ ॥ अथ विस्तरार्थमाह (ग्रन्थाग्रम्-४००० । सर्वग्रन्थाग्रम्-१६२२०) १०धिकमभि भा० त० डे. कां० ।। २°ति द्वारगा भा० त० डे० का० ॥ ३°समा. सार्थः ॥ २२३४ ॥ अथ विस्तरार्थमभिधित्सुराह भा० ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २२३०-३८] प्रथम उद्देशः । ६३७ वइअंतरियाणं खलु, दोण्ह वि वग्गाण गरहिओ वासो। आलावे संलावे, चरित्तसंभेइणी विकहा ॥ २२३५॥ एकस्यां साहिकायां वृत्या अन्तरितयोः संयत-संयतीरूपयोर्द्वयोरपि वर्गयोरेकत्र वासः 'गर्हितः' निन्दितः, तीर्थकरैः प्रतिक्रुष्ट इत्यर्थः' । यतस्तत्र संयत-संयत्योः कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ निर्गतयोः परस्परम् 'आलापे' सकृजल्पे 'संलापे' पुनः पुनः सम्भाषणे सञ्जाते सति चारित्रसम्भे-5 दिनी विकथा वक्ष्यमाणरीत्या भवेत् ॥ २२३५ ॥ अथैकसाहिकायामेव दोषानाह उभयेगयरट्ठाए, व निग्गया दट्ट एक्कमेकं तु ।। संका निरोहमादी, पबंध आतोभया वाऽऽसु ॥ २२३६॥ उभयं-संज्ञा-कायिकीरूपं तस्य एकतरस्य वा व्युत्सर्जनार्थं निर्गतयोः संयती-संयतयोरेकैकं दृष्ट्वा शङ्का भवति । तथाहि-संयतः कायिक्यादिव्युत्सर्जनाथ निर्गतः संयतीं दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्तः, 10 पुनरपि कायिकी-संज्ञाभ्यामुढाध्यमानो निर्गतः, ततः संयती तं दृष्ट्वा शङ्कां करोति-नूनमेष मां कामयते; एवं संयतस्यापि संयती प्रविशन्ती निर्गच्छन्ती च दृष्ट्वा शङ्का भवति; अथवा लोकस्य शङ्का भवति, यथा--एष एषा वा यदेवं पौनःपुन्येन प्रविशति निर्गच्छति च तनूनमेनामेनं वा अभिलपतीति । निरोधो वा कायिकी-संज्ञयोर्भवेत् । आदिशव्दादनागाढपरितापनादिपरिग्रहः । कथाप्रबन्धो वा वक्ष्यमाणलक्षणो भवेत् । ततश्चात्मसमुत्थेन उभयसमुत्थेन वा वाशब्दात् 15 परसमुत्थेन वा दोषेण 'आशु' क्षिप्रं संयमविराधना भवेत् ॥ २२३६ ॥ कुमारप्रव्रजितस्य वा इत्थं कौतुकमुपजायते पैस्सामि ताव छिदं, वन पमाणं व ताव से दच्छं । इति छिड्डेहि कुमारा, झायंती कोउहल्लेणं ॥ २२३७॥ पश्यामि तावत् किमपि च्छिद्रम् येन 'वर्ण' गौरत्वादिकं 'प्रमाणं वा' शरीरोच्छ्यरूपं "से" 20 तस्याः-विवक्षितसंयत्याः सत्कं तावदहं द्रक्ष्यामि इति कृत्वा च्छिद्रैः 'कुमाराः' अभुक्तभोगिनः कुतूहलेन 'ध्यायन्ति' अवलोकन्ते, ततस्तेषां प्रतिगमनादयो दोषाः ॥ २२३७ ।। कथाप्रबन्धं व्याख्यानयति दुबलपुच्छेगयरे, खमणं किं तं ति मोहभेसजं । तह वि य वारियवामो, बलियतरं बाहए मोहो ॥ २२३८॥ 25 'एकतरः' संयतः संयती वा दुर्वलो भवेत् । तत्र संयतं संयती पृच्छति-किमेवं दुर्बलोऽसि ? । स ब्रूते-क्षपणं करोमि । तत्र संयती प्राह—'किं' किमर्थं 'तत्' क्षपणं ज्येष्ठायेण क्रियते । संयतः प्राह-'मोहभैषज्यं' मोहचिकित्सनार्थमौषधमिदमासेव्यते तथाप्यसौ १र्थः । कुतः? इत्याह-तत्र संयतस्य कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ निर्गतस्य संयत्या सह 'आलापे' सकृजल्परूपे 'संलापे' पुनः पुनः सम्भाषणलक्षणे चारित्रसम्भेदिनी विकथा भवेत् । एतदुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २२३५ ॥ अथैकसाहिकाया दोषानुपदर्शयति भा० ॥ २°वति । कथम् ? इति चेद् उच्यते-सं° भा० ॥ ३ एतन्मध्यगतः पाठः भा० मो० ले० नास्ति ॥ ४ पेच्छामि ताव ता० चूर्णौ च ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलतिगिच्छं न कुणह, न हु तण्हा छिजए विणा तोयं । अम्हे वि वेयणाओ, खइया एआ न वि पसंतो ॥ २२३९ ॥ 5 मूल चिकित्सां यूयं न कुरुथ, नहि तृष्णा 'तोयम्' उदकं विना छिद्यते, अस्माभिरपि 'एताः ' एवंविधाः क्षपणप्रभृतिका वेदनाः 'खादिताः' असकृदासेविताः परं तथाप्यसौ मोहो न प्रशान्तः ॥ २२३९ ॥ ६३८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वगडाप्रकृते सूत्रम् १० मोहो वारितः सन् वामः-प्रतिकूलो वारितवामः ' बलिकतरम्' अतिशयेन मां बाधते ॥२२३८|| संयती प्रतिवक्ति - मोहग्गहुइनिभाहि ईय वायाहिँ अहियवायाहिं | 10 धंतं पि धिइसमत्था, चलति किमु दुब्बलथिईया || २२४० ॥ मोहाग्नेः ‘आहुतिनिभाभिः’ घृतादिप्रक्षेपकल्पाभिः 'इति' एतादृग्भिर्वाग्भिः अधिकम् - अत्यर्थम् अहिते वा–नरकादौ पातयन्तीति अधिकपाता अहितपाता वा ताभिः एवंविधाभिः "धंतं पि” त्ति अतिशयेनापि ये धृतिसमर्थास्तेऽपि 'चलन्ति' क्षुभ्यन्ति, किं पुनः 'धृतिदुर्बला:' तथाविधमानसावष्टम्भविकलाः ? । एवं संयतीमपि दुर्बलां प्रतीत्येदमेव वक्तव्यम् ॥ २२४० ॥ गतमेका साहिकेति द्वारम् । अथ सप्रतिमुखानि द्वाराणीति द्वारमाहसपडिदुवारें उवस्सएँ, निग्गंीणं न कप्पई वासो । दण एकमेकं चरितभासुंडणा सज्जो ।। २२४१ ॥ 15 20 'सप्रतिद्वारे' अभिमुखद्वारयुक्ते निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये विद्यमाने साधूनां न कल्पते वासः । यदि वसन्ति ततस्तत्राभिमुखद्वारयोरुपाश्रययोः 'एकैकम्' अन्योऽन्यं दृष्ट्वा चारित्रभ्रंशना संयतीसंयतयोः ‘सद्यः' तत्क्षणादेवोपजायते ॥ २२४१ ॥ किञ्च - धम्मम्मि पवाडा, निंता दहुं परोप्परं दो वि । लज्जा विसंति निति य, संका य निरिक्खणे अंहियं ॥ २२४२ ॥ ग्रीष्मकाले “धम्मम्मि" ति विभक्तिव्यत्ययाद् धर्मेणोद्वाध्यमानः संयतः प्रवातार्थं वहिनिर्गच्छति, संयत्यप्येवं निर्गच्छति । ततो द्वावपि परस्परं दृष्ट्वा लज्जया भूयः प्रविशतः, ततः संयतः प्रविष्ट इति कृत्वा संयती भूयोऽपि निर्गच्छति, एवं संयतोऽपि । तत एवं द्वितीयं ॐ तृतीयं वा वारं निर्गच्छतोः प्रविशतोश्च शङ्का भवति – नूनमेष एपा वा मामभिधारयति 1 एकाग्रया च दृष्ट्या निरीक्षणेऽधिकं शङ्का भवेत् ॥ २२४२ ॥ वीसत्थऽवाउडऽन्नोन्नदंसणे होइ लजवोच्छेदो । ते चैव तत्थ दोसा, आलाबुल्लाव मादीया || २२४३ ॥ अभिमुखद्वारप्रयुक्त यो रुपाश्रययोः विश्वस्तौ सन्तौ संयती-संयतौ कदाचिदपावृतौ भवतः । तत 30 एवमन्योन्यदर्शने लज्जाया व्यवच्छेदो भवति । ततश्च तत्राला पोल्ला पादयो दोषास्त एव मन्तव्याः ॥ १ “चरित्तभासुंडण त्ति चारित्रभ्रंशना सयो भवति ।" इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ २ “अहितं ति सततं” इति चूर्णे ॥ ३ न्यं परस्परं दर्श त० ० का ० ॥ ४ प चारित्रविरोधिकथादयो दो त० डे० कां० ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२३९-४७] प्रथम उद्देशः । गतं द्वाराणि वा सप्रतिमुखानीति द्वारम् । अथ पार्श्वतो वा मार्गतो वेति द्वारं भावयति एमेव य एकतरे, ठियाण पासम्मि मग्गओ वा वि । वइअंतर एगनिवेसणे य दोसा उ पुव्वुत्ता ॥ २२४४॥ एवमेव संयतीप्रतिश्रयस्यैकतरस्मिन् पार्थे 'मार्गतो वा' पृष्ठतो वृत्यन्तरे एकस्मिन् निवेशने वा स्थितानां दोषाः 'पूर्वोक्ताः एव' आलाप-संलापादयो मन्तव्याः ॥ २२४४ ॥ अथोच्च-नीचद्वारं भावयति उच्चे नीए व ठिआ, दगुण परोप्परं दुवग्गा वि । संका व सईकरणं, चरित्तभासुंडणा चयई ॥ २२४५॥ उच्चे नीचे वा स्थाने स्थितौ 'द्वावपि वर्गो' साधु-साध्वीलक्षणौ भवेताम् , तंत्र साधुः साध्वी वा परस्परं दृष्ट्वा 'किमेप [ एषा वा ] मामभिधारयति ?' इति शङ्कां वा कुर्यात् , स्मृतिकरणं 10 वा भुक्तभोगिनाम् , चारित्रस्य वा भ्रंशना ब्रह्मव्रतविराधनया भवेत् , “चयइ" त्ति सर्वथैव वा संयमं त्यजति, अवधावनं कुर्यादित्यर्थः ॥ २२४५ ॥ इदमेवोच्च-नीचपदद्वयं व्याचष्टे-- माले सभावओ वा, उच्चम्मि ठिओ निरिक्खई हेढें । वेट्ठो व निवन्नो वा, तत्थ इमं होइ पच्छित्तं ॥ २२४६ ॥ कदाचित् ते संयताः ‘माले' द्वितीय भूमिकादौ स्वभावतो वा उच्चे देवकुलादौ स्थिता भवेयुः, 15 संयत्यस्तु तद्विपरीते नीचे, ततोऽसौ तत्रोद्धस्थित उपविष्टो वा 'निपन्नो वा' वग्वर्तित इत्यर्थः यदि संयतीमधस्ताद् निरीक्षते तत्रेदं प्रायश्चित्तं भवति ॥ २२४६ ॥ संतर निरंतरं वा, निरिक्खमाणे सई पकामं वा। काल-तवेहिँ विसिट्टो, भिन्नो मासो तुयट्टम्मि ॥ २२४७॥ 'सान्तरं नाम' यद् विण्टिकया हस्तादिना वा उच्चो भूत्वा शिरः शरीरं वा उच्चैस्तरं कृत्वा 20 पश्यति । 'निरन्तरं नाम' विण्टिकादिकं विना खभावस्थ एव प्रेक्षते । तत्र त्ववर्तितः सन् निरन्तरं 'सकृद्' एकवारं संयती पश्यति भिन्नमासो द्वाभ्यामपि तपः-कालाभ्यां लघुः । त्वग्वर्तित एव निरन्तरं 'प्रक्रामम्' असकृत् प्रेक्षते भिन्नो मासः कालगुरुस्तपोलघुः । अथ स्वभावस्थः प्रेक्षमाणस्तां न पश्यति ततः 'सान्तरं' विण्टिकामन्यद्वा किञ्चिदुच्छीर्षके कृत्वा सकृत् पश्यति भिन्नो मासस्तपोगुरुः काललघुः । सान्तरमेव प्रक्रामं प्रेक्षते भिन्नो मासो द्वाभ्यामपि तपः- 25 कालाभ्यां गुरुकः । एवं त्वग्वर्त्तनं कुर्वाणस्य भणितम् ॥ २२४७ ॥ __एसेव गुरु निविटे, ट्ठियम्मि मासो लहू उ भिक्खुस्स । १°ष्ठतः स्थितानां वृत्यन्तरे एकस्मिन् वा 'निवेशने' पाटके स्थिता त. डे० का०॥ २ अत्र मो० ले० प्रयोः ग्रन्थानम् ५०० इति वर्तते ॥ ३ तत्र संयती-संयंती पर° भा०॥ ४ाताम् , स्मृ भा० ॥ ५ °ना भवति, "चयइ" ति संयम वा सर्वथैव परित्यजति, अवधावनं संयतः संयती वा कु° भा० ॥ ६ तत्र “ठिओ" [त्ति] ऊस्थितः "बेटोव"त्ति उपविष्टः "निवन्नो व” त्ति निपन्नः-त्वग्व त. डे. कां ॥ ७°यती निरीक्षते मिन्न त० डे० कां०॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० एकेक ठाण बुड्डी, चउगुरुअंतं च आयरिए || २२४८ ॥ निविष्टो नाम-निषण्णस्तस्यापि प्रेक्षमाणस्य एष एव निरन्तर - सान्तरादिकोऽभिलापो वक्तव्यः, नवरं प्रायश्चित्तं स एव भिन्नमासो गुरुकश्चतुर्ष्वपि स्थानेषु तपः- कालविशेषितस्तथैव कार्यः । स्थितो नाम - ऊर्द्धस्थस्तस्याप्येवमेवाभिलापः, नवरं प्रायश्चित्तं लघुमासस्तपः - कालविशेषितः । B एवं भिक्षोः प्रायश्चित्तमुक्तम्, वृषभोपाध्यायाचार्याणां यथाक्रममेकैकस्थानवृद्धिः कर्त्तव्या याव - दाचार्यस्य चतुर्गुरुकम् । तद्यथा - वृषभस्य गुरुभिन्नमासादारब्धं गुरुमासे, उपाध्यायस्य मासलघुकादारब्धं चतुर्लघुके, आचार्यस्य गुरुमासिकादारब्धं चतुर्गुरुके निष्ठामुपयातीति ॥ २२४८ ॥ एष प्रथम आदेशः । अथ द्वितीय माह 10 सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्ल्पसूत्रे [ वगडाप्रकृते सूत्रम् १० दोहि विरहि सकामं, पकाम दोहिं पि पेक्खई जो उ । चउरो य अणुग्घाया, दोहि वि चरिमस्स दोहि गुरु ॥ २२४९ ॥ “दोहि वि” त्ति द्वाभ्यार्मंपि नयनाभ्यां यन्निरीक्षते तदरहितम्, रहितं तु यदेकेन लोचनेन निरीक्षते । एतदुभयमपि प्रत्येकं द्विधा - सकामं प्रकामं च । तत्र सकाममेकशः प्रकाममनेकशः । “दोहिं पि पेक्खई जो उ" त्ति द्वाभ्यामपि रहिता - रहिताभ्यां सकाम - प्रकामाभ्यां वा यः प्रेक्षते तस्य चत्वारो मासा अनुद्धाताः 'द्वाभ्यामपि ' तपः - कालाभ्यां विशेषिताः 15 प्रायश्चित्तम् । 'चरमस्य' चतुर्थभङ्गवर्तिनः 'द्वाभ्यामपि ' तपः- कालाभ्यां गुरुकाः कर्त्तव्याः । एवं निर्युक्तिगाथासमासार्थः || २२४९ || अथास्या एव भाप्यकृद् व्याख्यानमाह ――――― पायठिओं दोहिँ नयणेहि पिच्छई रहिय मोतु एक्केणं । तं पुण सई सकामं, निरंतरं होइ उ पकामं ॥ २२५० ॥ पादाभ्यां भुवि स्थितो द्वाभ्यां नयनाभ्यां यत् प्रेक्षते तदरहितम्, यत् पुनरेकेन नयनेन 20 'मुक्तत्वा' परित्यज्य निरीक्षते तद् रहितम् । 'तत् पुनः' उभयमपि 'सकृद्' एकवारं निरीक्षणं सकामम्, 'निरन्तरम्' अनेकशस्तदेव प्रकामं भवति ॥ २२५० ॥ अवण समतलपादो, दोहिं वि रहिअं तु अग्गपाएहिं । डालादी विरहं, एकेक सकामग पकामं ।। २२५१ ।। "अहवण" त्ति अथवा समतलपादो यद् निरीक्षते तद् अरहितम्, यत् पुनरग्रपादाभ्यां 25 द्वाभ्यामपि स्थितो निरीक्षते तद् रहितम् । अथवा यदिट्टाल - लेष्टुकाथारूढः पश्यति तद् अरहितम्, तदपरं रहितम् । एतदरहितं रहितं च एकैकं सकामं प्रकामं च मन्तव्यम् || २२५१ ॥ - १ स्थितस्तस्याप्येष एवाभि मो० ले० विना ॥ २° तं मासलघु तपः- कालविशेषितम् भां० ॥ ३ अभिषेकोपा भा० ॥ ४ अभिषेकस्य गुरु भा० ॥ ५ °य उच्यते भा० ॥ ६ मपि पद्भ्यां स्थितो नयनद्वयेन यन्नि' भा० । “दोहि विति पादेहिं ठितो गयणदुगेणं निरिक्खति” इति चूर्णौ । “दोहि वित्ति पद्भ्यां स्थितः नयनद्वयेनापि निरीक्षते” इति विशेषचूर्णौ ॥ ७° पुरातनगा भा० त०डे० कां० । “दोहि वि० गाधा पुरातना" इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च ॥ ८ " अहवण समतल ० 'गाथा २२५१ "अहवण उच्चावेउं " गाथा २२५२ इति गाथाद्वयं विशेषचू ण पूर्वापरक्रमविपर्ययेण व्याख्याताऽस्ति ॥ " Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२४८-५५ ] प्रथम उद्देशः । अहवण उच्चावे, कर-विटय - पीढगादिसुं काउं । ताई वा वि मोतुं, रहियं विट्ठो पुण निसिजं ॥ २२५२ ॥ अथवा यदि संयता नीचैः प्रदेशे स्थिताः संयत्यस्तूचे ततः शिरः शरीरं वा 'उच्चयित्वा ' उच्चैःकृत्य यन्निरीक्षते, यद्वा करे - हस्ते विण्टिकायां पीठकादिषु वा शीर्षं कृत्वा यन्निरीक्षते तद् रहितम् ; अथवा यतयः उच्चे स्थिता यतिन्यस्तु नीचे ततः करादिषु पूर्वन्यस्ते शिरसि अत्यु- 5 चत्वादनवलोकमानो यत् 'तानि' कर - विण्टिकादीनि ' प्रमुच्य' उत्सार्य पश्यति तद् रहितम् । एतत् त्वग्वर्त्तनं कुर्वतो रहितमुक्तम् । “बिट्टो पुण निसिज्जं" ति - उपविष्टः पुनर्निषद्यां मुक्त्वा यत् पश्यति तद् रहितम् । द्विपरीतं त्रिष्वपि स्थानेष्वरहितं द्रष्टव्यम् ॥२२५२॥ दिसंबंधो वा, दोह वि रहियं तु अन्नतरगत्ते । अप्पो दोसो रहिए, गुरुकतरो उभयसंबंधे ।। २२५३ ॥ अथवा 'द्वयोरपि' संयत- संयत्योयों दृष्टेः दृष्टेश्च सम्बन्धस्तदरहितम् । रहितं पुनरन्यतरगात्रे निरीक्षणम् । अत्र चाल्पतरो दोषः 'रहिते' एकतरदृष्टिसम्बन्धे, अरहिते तूभयदृष्टि सम्बन्धे गुरुतरो दोषः || २२५३ ।। अत्र प्रायश्चित्तमाह ६४१ दोहिं वि अरहिय रहिए, एक्केक सकामए पकामे य । गुरुगा दोहि विलहुगा, लहु गुरुग तवेण दोहिं पि ।। २२५४ ॥ द्वाभ्यार्मेपि नयनाभ्यां निरीक्षणमित्यादिकं यदनेकविधमरहितं भणितं ( गा० २२४९ आदि) तत्र सकामे चत्वारो गुरवः 'द्वाभ्यामपि' तपः - कालाभ्यां लघवः, तत्रैव प्रकामे चत्वारो गुरवः तपोलघुकाः । रहिते तु सकामे चतुर्गुरुकाः तपसा गुरवः, तत्रैव प्रकामे चतुर्गुरवो द्वाभ्यामपि गुरवः । यत्तु दृष्टिसम्बन्धरूपमरहितम् अन्यतरगात्रनिरीक्षणरूपं तु रहितं व्याख्यातं तत्रैवं प्रायश्चित्तयोजना–रहिते सकामे चतुर्गुरु उभयलघुकम्, प्रकामे चतुर्गुरु कालगुरुकम्, 20 अरहिते सकामे चतुर्गुरु तपोगुरुकम्, अरहिते प्रकामे चतुर्गुरु उभयगुरुकम् || २२५४ ॥ एकेका पयाओ, साहीमाईसु ठायमाणाणं । निकारणद्वियाणं, सव्वत्थ वि अविहिए दोसा ।। २२५५ ॥ १-२ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ एतस्या गाथायाः प्राग् विशेषचूर्णो - "दोहि वि अरहिय रहिए." इति २२५४ गाथासमाना गाथा अधिका वर्त्तते । अत्र विशेषचूर्णिरेवम् — “ दोहि वि अरहिय० गाहा । दोहिं पादेहिं भूमीए ठिएहिं सकामं णिरिक्खइ : दोहि वि लहुयं, अह पकामं निरिक्खइ :: कालगुरू तवलहु । दोहिं पाएहिं भूमीरहिओ अग्गपादेहिं टाइऊण वेंटियादी वा विलग्गिऊण सकामं णिरिक्खइ :: तवगुरू काललडु, पकामं णिरिक्खs :: दोहि वि गुरुं ।” इति ॥ ४ मपि यदरहितं तत्र भा० ॥ ५णे स्थितानां कार° भा० ॥ 10 अरहित-रहित-सकाम-प्रकामनिरीक्षणानामेकैकस्मात् पदात् साहिकायाम् आदिशब्दात् सप्रतिमुखद्वारेषु पुरतो वा मार्गतो वा उच्च वा नीचे वा सर्वत्रापि निष्कारणे" तिष्ठतां कारणे वा 25 'अविधिना' अयतनया स्थितानाममी दोषा भवेयुः ।। २२५५ ॥ 15 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० दिट्ठा अवाउडा हं, भयलज्जा थद्ध होज खित्ता वा । पडिगमणादी व करे, निच्छक्काओ व आउभया ।। २२५६ ॥ काचित् संयती विचारभूमौ प्राप्ता संयतमागच्छन्तं दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अहो ! अहं ज्येष्ठायेणापावृता दृष्टा, ततः सा भयेन लज्जया वा स्तब्धा क्षिप्तचित्ता वा भवेत् । यद्वा काश्चिदपावृता दृष्टाः सत्यः 'कथममीषां मुरतः स्थास्यामः ?' इति कृत्वा प्रतिगमनादीनि कुर्युः । अथया 'दृष्टं यद् द्रष्टव्यम्' इत्यभिसन्धाय 'निच्छकाः' निर्लज्जाः काश्चिद् भवेयुः । ततश्चात्मसमुस्थास्तदुभयसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति ॥ २२५६ ॥ यदि वा तासिं कक्खंतर-गुज्झदेस-कुच-उद-ऊरुमादीए । निग्गहियइंदियस्स वि, द8 मोहो समुज्जलति ॥ २२५७ ॥ 10 तासां' संयतीनां कक्षान्तर-गुह्यदेश-कुचोदरोरुप्रभृतीन् अवयवान् दृष्ट्वा निगृहीतेन्द्रियस्यापि मोहः समुज्ज्वलति "किं पुनरितरस्य ? इति ॥ २२५७ ॥ ततश्वामी दश कामवेगा उत्पद्यन्ते चिंता य १ दडुमिच्छइ २, दीहं नीससइ ३ तह जरो ४ दाहो ५ । भत्तअरोयग ६ मुच्छा ७, उम्मत्ता ८ न याणई ९ मरणं १०॥२२५८॥ 18 'चिन्ता नाम' शोचन्नास्ते १ द्रष्टुमिच्छति २ दीर्घ निःश्वसिति ३ तथा ज्वरो ४ दाहः ५ भक्तस्यारोचकः-अरुचिः ६ मूर्छा ७ उन्मत्तः सञ्जायते ८ न जानाति किश्चिदपि ९ मरणमुपजायते १० ॥ २२५८ ॥ एनामे नियुक्तिगाथां विवृणोति पढमे सोयइ वेगे, दटुं तं इच्छई विइयवेगे। नीससइ तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि ॥ २२५९॥ डज्झइ पंचमवेगे, छटे भत्तं न रोयए वेगे । सत्तमगम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो ॥ २२६० ।। नवमें न याणइ किंची, दसमे पाणेहिँ मुच्चई मणूसो । एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥ २२६१ ॥ प्रथमे शोचति वेगे-हा ! कथं तया सह सम्पत्तिर्भविष्यति ? इति विचिन्तयतीत्यर्थः १। 25 द्रष्टुं तां पूर्वदृष्टां पुनरपीच्छति द्वितीयवेगे २ । निःश्वसिति तृतीयवेगे दीर्घान्निःश्वासान् मुञ्चति ३ । आरोहति ज्वरश्चतुर्थे ४ । दह्यतेऽङ्ग पञ्चमवेगे ५ । षष्ठे भक्तं न रोचते वेगे ६ । सप्तमे वेगे मूर्छा ७ । अष्टमे उन्मत्तो भवति ८ । नवमे न जानाति किञ्चिदपि, निश्चेष्टो १°द्वा 'दृष्टा तावदहमेतैरपावृता, अतः कथममीषां पुरतः स्थास्यामि ?' इति विचिन्त्य प्रतिगमनादीनि कुर्यात् । अथ° भा० । “अहवा एएहिं अहं अपाउडा दिट्टा किध एतेसिं पुरओ ठाइस्सामि? पडिगमणाईणि करेजा" इति विशेषचूर्णी ॥ २ का' निर्लजा भवेत । ततभा०॥३०पवमा कां०॥ ४ एतदन्तर्गतः पाटः भा० मो० ले० नास्ति ॥५चिंताइ १द त. डे. कां. ता. चौँ विशेषचूर्णौ च । चिंतेइ १ द° भा०॥ ६ चिन्तया शोच कां । चिन्तयति १ द्रष्ट भा०॥ ७°व गा° मो० ले० विना ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथार २२५६-६६] प्रथम उद्देशः। ६४३ भवतीत्यर्थः ९ । दशमे वेगे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः १० । एतेषां दशानामपि वेगानां प्रायश्चित्तं यथाऽऽनुपू. 'वक्ष्ये' अभिधास्ये ॥ २२५९ ॥ २२६० ॥ २२६१ ॥ तदेवाह मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ २२६२॥ प्रथमे वेगे लघुको मासः । द्वितीये गुरुको मासः । तृतीये चत्वारो मासा लघुकाः । । चतुर्थे चत्वारो मासा गुरुकाः । पञ्चमे षण्मासा लघवः । षष्ठे षण्मासा गुरवः । सप्तमे च्छेदः । अष्टमे मूलम् । नवमेऽनवस्थाप्यम् । दशमे पाराञ्चिकम् ॥ २२६२ ॥ एकम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं ॥ २२६३ ॥ अथ मोहोदयेनैकः 'अवधावति' उत्प्रव्रजति तत आचार्यो मूलं प्राप्नोति, द्वयोरवधावतोरन-10 वस्थाप्यो भवति, त्रिष्ववधावमानेषु पाराञ्चिकं स्थानं प्राप्नोति ॥ २२६३ ॥ गतमुच्चनीचद्वारम् । अथ धर्मकथाद्वारमाह धम्मकहासुणणाए, अणुरागो भिक्खसंपयाणे य । संगारे पडिसुणणा, मोक्ख रहे चेव खंडीए ॥ २२६४ ॥ धर्मकथायाः श्रवणेन संयत्या अनुरागः सञ्जायते। ततः स्निग्ध-मधुरभैक्षस्य सम्प्रदानं संयताय 15. कारयति । ततः 'सङ्गारस्य' सङ्केतस्य प्रतिश्रवणं करोति । कः पुनः सङ्केतः ? इत्याह"मोक्ख रहे चेव" ति अमुष्मिन् दिवसे रेथो हिण्डिष्यते तत्रास्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति । “खंडीए" त्ति खण्डी-छिण्डिका तस्या वा द्वारमुद्घाटं रात्रौ भविता, यद्वा दीर्घस्यालाक्षणिकत्वात् खण्डितं-श्रामण्यस्य खण्डना तयोः प्रतिसेवमानयोर्जायते । एष नियुक्तिगाथासमासार्थः ।। २२६४ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह असुमेण अहाभावेण वा वि रत्तिं निसंतपडिसंते । वत्तेइ किन्नरो इव, कोई पुच्छा पभायम्मि ॥ २२६५ ॥ कोऽपि साधुरशुभेन वा भावेन यथामावेन वा रात्रौ 'निशान्तप्रतिश्रान्ते' अत्यन्तभ्रमणादुपरते यद्धा निशान्तेपु-स्वेषु स्वेषु गृहेषु प्रतिश्रान्ते विश्रान्ते जने किन्नर इव मधुरया गिरा धर्मकथां काञ्चित् परिवर्तयति तद् आकर्ण्य संयत्यः प्रभाते पृच्छन्ति ॥ २२६५ ॥ यथा- 25 कतरो सो जेण निर्सि, कन्नाणे पूरिया व अमयस्स । सो मि अहं अजाओ!, आसि पुरा सुस्सरो किं वा ॥ २२६६ ॥ १°वणमनुदिनं करो° भा० ॥ २ 'रहः' एकान्तं भविष्यति तत्रास्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षणं भविष्यति । ततश्च श्रामण्यस्य 'खण्डितं' खण्डनं जायते । गाथायां दीर्घत्वं प्राकृ. तत्वात् । एष संग्रहगाथासमासार्थः ॥२२६४॥ भा० ॥ ३°प सङ्ग्रहगा भा० त० डे० का । "इदाणि धम्मकहि त्ति-तत्र पोरातना गाहा-धम्मकहा सुणणाए० गाहा।" इति विशेषचौँ । ४ प्रतिशान्ते जने किन्नर इव धर्मकथां कुर्वन् मधुरया गिरा परिवर्त्तयति तद आकर्ण्य संयत्या प्रभाते पृच्छा कृता ॥ २२६५ ॥ भा० ॥ 20 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् १० ___ कतरोऽसौ साधुर्येन 'निशि' रात्री कर्णाः “णे” अस्माकममृतस्य पूरिता इव कृताः ? । स प्राह-सोऽहमस्मि आर्याः ! 'पुरा' पूर्वमहं सुखर आसं तदपेक्षया किं वा सौखर्यमिदानीं मम विद्यते ? ॥ २२६६ ॥ यतः रुक्खासणेण भग्गो, कंठो मे उच्चसद्दपढओ य । संथुय कुलम्मि नेह, दावेमि कए पुणो पुच्छा ॥ २२६७ ॥ रूक्षार्शनेनोच्चशब्देन पठतश्च मे कण्ठो भग्नस्ततो नेदानी तथा सुत्खर इति । ततस्तदीयसौखयेणातीवानुरञ्जिता काऽपि संयती प्राह—'संस्तुते' भाविते कुले 'सेहं' घृतादिकमहं दापयिष्यामि येन भवतां स्वरपाटवमुपजायते । ततस्तथाकृते सति 'पुनः' भूयोऽपि तं दुर्बलं दृष्ट्वा पृच्छा कृता, यथा-ज्येष्ठार्य ! किमेवं दुर्बलो दृश्यसे ? ॥ २२६७ ॥ 10 एवं च कुर्वतोस्तयोः किं भवति ? इत्याह संदंसणेण पीई, पीईउ रई रईउ वीसंभो। वीसंभाओ पणओ, पंचविहं ववए पिम्मं ॥ २२६८॥ सन्दर्शनेनोभयोरपि प्रथमतः प्रीतिरुपजायते । ततः प्रीत्या रतिः चित्तविश्रान्तिः । रतेश्च 'विश्रम्भः' विश्वासः । विश्वासाच्च मिथः कथादि कुर्वतोः 'प्रणयः' अशुभो रागो जायते । एवं 15 'पञ्चविधं' पञ्चभिः प्रकारैः प्रेम वर्द्धते ॥ २२६८।। ततश्च स तया दुर्वल इति पृष्टो ब्रूयात् जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो में वड्डइ तुमम्मि । तेण नडिओ मि बलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरो त्ति ॥ २२६९ ॥ यथा यथा 'करोषि' सम्पादयसि 'स्नेह' घृतं तथा तथा मम त्वयि स्नेहो वर्द्धते । 'तेन च' नेहेन 'नटितः' विडम्बितोऽस्म्यहम् । यत् त्वं पृच्छसि दुर्बलतर इति तदेतेन हेतुना 20 दुर्बलोऽहम् ॥ २२६९ ॥ एवमुक्ते सा ब्रूयात् अमुगदिणे मुक्ख रहो, होहिइ दारं व वोज्झिहिइ रत्तिं । तइया णे पूरिस्सइ, उभयस्स वि इच्छियं एयं ॥ २२७० ॥ अमुष्मिन् दिने 'रथैः' रथयात्रा भविता तस्यां साधु-साध्वीजनेषु गतेष्वस्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति, द्वारं वा छिण्डिकाया अमुकस्यां रात्रौ 'वक्ष्यते' वहमानकं भविष्यति तदा 25"णे" आवयोरुभयस्यापि यथेप्सितमेतत् पूरिष्यते ॥ २२७०॥ एवं सङ्केतं प्रतिश्रुत्य प्रतिसेवनां कुर्वतोस्तयोः श्रामण्यस्य खण्डनं भवति, ततश्च 'भमत्रतोऽहम्' इति कृत्वा यद्यवधावति ततः एगम्मि दोसु तीसुव, ओहावंतेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवट्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं ॥ २२७१ ॥ १°सम् , इदानीं तु न तथेति भावः ॥ २२६६ ॥ संयती ब्रूते-किं वा कारणं येनेदानीं न तथा सुस्वरोऽसि ? संयतः माह-रुक्खा भा० ॥ २°शनेन' स्नेहरहितभोजनेन उच्च त. डे. कां०॥ ३°ता सती संय भा० ॥ ४ तिः' आस्थाबन्धनरूपा । रते. भा० ॥ ५रथो (रहो) रथं वा भविष्यति तदा अस्माकं भा० ॥ ६ द्वारं च रात्रौ भा० ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ भाष्यगाथाः २२६७-७४] प्रथम उद्देशः । एकस्मिन्नवधावति मूलम् , द्वयोरनवस्थाप्यम् , त्रिष्ववधावमानेषु पाराञ्चिकमाचार्यः प्राप्नोति, कस्मात् तादृशे क्षेत्रे स्थितः ? इति कृत्वा । द्वितीयपदे एतेष्वपि स्थानेषु तिष्ठेत् ॥ २२७१ ॥ कथम् ? इत्याह--- ___ अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण पडिलोमं । गीयत्था जयणाए, वसंति तो अभिदुवाराए ॥ २२७२ ॥ अध्वनो निर्गताः आदिशब्दादशिवादिषु वर्तमानाः सहसैवैकवगडाकमैनेकद्वारं संयतीक्षेत्रं प्राप्ताः । ततस्तत्र 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् निरुपहतां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति ततः 'प्रतिलोमं' प्रतीपक्रमेण गीतार्था यतनया 'अभिद्वारे' अनेकद्वारे संयतीक्षेत्रे वसन्ति । कः पुनः प्रतीपक्रमः ? इति चेद् उच्यते-यानि पूर्वमेकसाहिकादीनि धर्मकथापर्यन्तानि द्वाराण्युक्तानि तेषु प्रथमतो यस्यां धर्मकथाशब्दः साध्वीभिः श्रूयते तस्यां वसतौ वस्तव्यम् ॥ २२७२ ॥ 10 तंत्र चेयं यतना सिंगारवज बोले, अह एगो विजपाढऽणुच्चं च ।। __ सड्ढादीनिबंधे, कहिए वि न ते परिकहिंति ॥ २२७३ ॥ धर्मकथां परिवर्तयन्तः शृङ्गाररसर्ज 'बोलेन च' वृन्दशब्देन परिवर्त्तयन्ति यथैकस्य कस्यापि व्यक्तः स्वरो नोपलक्ष्यते । अथान्येन सह गुणयतस्तस्य न सञ्चरति तत एकोऽपि वैद्यपाठेन 15 गुणयति, खरवर्जितमिति भावः, तदपि 'अनुच्चं' नोचैस्तरेण शब्देन । अथ 'सुखरोऽयम्' इति ज्ञात्वा श्राद्धा आदिशब्दाद् यथाभद्रकादयो वा निर्बन्धं कुर्युः ततो यथावरेण धर्म कथयति । ततः कथितेऽपि मधुरखरेण धर्मे प्रभाते संयतीनां पृच्छन्तीनां न 'ते' साधवः परिकथयन्ति, यथा-अमुँकेनेत्थं धर्मः कथित इति । ईदृश्या वसतेरलामे उच्चे वा नीचे वा स्थातव्यम् ॥ २२७३ ॥ तत्रेयं यतना कडओ व चिलिमिली वा, तत्तो थेरा य उच्च-नीए वा । पासे ततो न उभयं, मत्तग जयणाऽऽउल ससदा ॥ २२७४ ॥ विशन्तो निर्गच्छन्तो वा यस्मिन् पार्श्वे परस्परं पश्यन्ति ततः कटकः वंशादिमयो घनो १ त्रिषु पारा मो० ले० विना ॥ २°ध्वा-मार्गः ततो नि भा० ॥ ३°मभिदा भा० ॥ ४ तत्र तिष्ठतामियं यतना भा० ॥ ५°वर्ज परिवर्तयन्ति । तदपि 'बोलेन' वृन्देन, न एकैकः परावर्त्तयतीत्यर्थः । अथैक एव कारणविशेषादसौ भवेत् ततो वैद्यपाठेन परिवर्त्तयति, स्वरवर्जित° भा० ॥ ६ ततो धर्मकथामपि मधुरया गिरा कुर्वीत, परं कथिते सति धर्मे भा० ॥ ७°मुकेन धर्मकथां कुर्वता इत्थं मधुरखरेण परिवर्तितमिति ॥ २२७३ ॥ ईदृश्या वसतेरलामे यत्रोच्चे वा नीचे वा स्थातव्यं भवति तत्रेयं यतना भा०॥ ८ नो उ° भा० ता. विना ॥ ९ कटको वंशादिमयस्ततो धनो दीयते यथा प्रविशन्तो निर्गच्छन्तो वा परस्परं न पश्यन्ति । अथ कटको भा० । “कडतो ततो घणो दिज्जति जधा अतित-णिता परोप्पर ण पेचंति" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ 20 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वगडाप्रकृते सूत्रम् १० दीयते । अथ कटकोन प्राप्यते तदा चिलिमिली वस्त्रमयी दातव्या, स्थविराश्च ततस्तस्मिन् पार्श्व तिष्ठन्ति, संयतीनां तु क्षुल्लिकाः । एवमुच्च - नीचे यतना । अथोच्च - नीचमपि न लभ्यते ततो यंत्र पार्श्वतो वा मार्गतो वा प्रतिश्रयस्तत्रं तिष्ठतां यतना - कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थं निर्गच्छन्तो यत्र परस्परं पश्येयुः 'ततः' तस्यां दिशि 'नोभयं' न संज्ञां न वा कायिकीं व्युत्सृजन्ति । 6 तादृशस्य स्थण्डिलस्याप्राप्तौ मात्रकेषु यतैन्ते, अथवा आकुलाः सशब्दा वा तत्र व्रजन्ति, तदभावे सप्रतिमुखद्वारे तिष्ठन्ति ॥ २२७४ ॥ तत्र चेयं यतना पिदारकरण अभिमुह, चिलिमिलि वेला ससद्द बहु निंति । साहीए अन्नदिसिं, निंती न य काइयं तत्तो ॥ २२७५ ॥ यत्र द्वाराणि परस्परमभिमुखानि तत्रान्यस्यां दिशि पृथग् द्वारं कुर्वन्ति । अथ न लभ्यते10 ऽन्यस्यां दिशि द्वारं कर्तुं ततो द्वारे चिलिमिली नित्यबद्धा स्थापनीया कटको वा अपान्तराले दातव्यः, कायिक्याः संज्ञायाश्च वेलां परस्परं स्थापयित्वा असदृशवेलायां निर्गच्छन्ति, 'सशब्दाश्च' काशितादिशब्दं खागमनसूचकं कुर्वन्तो बहवः 'निर्यन्ति' निर्गच्छन्ति । यत्रैका साहिका तत्रान्यस्यां दिशि यस्य द्वारं तत्र प्रतिश्रये तिष्ठन्ति । यतश्च संगतीनां प्रतिश्रयस्ततः कायिक्या न निर्गच्छन्ति, तासां वा कायिकीभूमिं न व्रजन्ति । एवं संज्ञाभूम्यामपि द्रष्टव्यम् ॥२२७५॥ कियद्वाऽत्र भणिष्यते :-- 15 जत्थsप्पतरा दोसा, जथं य जयणं तरंति काउं जे । तत्थ वसंति जयंता, अणुलोमं किं पि पडिलोमं ॥ २२७६ ॥ यत्रोपाश्रयेऽल्पतराः पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति, यत्र च ' यतनां' यथोक्तां कर्तुं 'तरन्ति' शक्नु वन्ति, “जे” इति पादपूरणे, तत्रानुलोमं वा प्रतिलोमं वा किर्मप्येकसाहिकादिकं स्थानं त्य 30 यथोक्तनीत्या यतमाना वसन्ति, नात्र कोऽपि प्रतिनियमः किन्तु गीतार्थेनाल्पबहुत्ववेदिना भवितव्यमिति भावः ॥ २२७६ ॥ कथं पुनरल्पतरा दोषा भवन्ति ? इति उच्यते आय- समणीण नाउं, किटि कप्पट्टी समाणयं वजे । बहुपाडिवेसियजणं, च खमयरं एरिसे होइ ।। २२७७ ॥ आत्मनः श्रमणीनां च स्वभावं दृढधर्मत्वादिकं ज्ञात्वा तथा यतितव्यम् । "किढि कप्पट्ठि" 25 त्ति स्थविरश्रमण्यः क्षुल्लकाश्चोभयपार्श्वतः कर्त्तव्याः, वयसा समानां च संयतीं सन्दर्शनादौ १ यत्र संयतीवसतेः पा° त० डे० कां० ॥ २° त्र स्थातव्यम् । तत्र च तिष्ठतां यतना"पासे ततो न उभयं" ति कायि त० डे० कां० ॥ ३ ° तनया व्युत्सृजन्ति । अथ त० डे० कां० । “असति मत्तएषु जतंति, अधवा आला ससद्दा य” इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ ४ ब्दाश्च कायिक्यादिभुवं व्रज' त० डे० कां• ॥ ५ कायिकी भूमिं न नि° मो० ले० विना ॥ ६ 'त्थ व ज° ता० ॥ ७ यत्रैकाहि कादावल्पतरा दोषा भा० ॥ ८ 'किञ्चिद्' अनिर्धारितं क्रमं प्रतीत्य 'यतमानाः' यथोक्तां यतनां कुर्वाणा व भा० ॥ ९ व्याः । समानवयसां च संयतीनां सन्दर्शन- सम्भाषणादि दूरतः परिहरणीयम् । यच्च बहुप्रातिवेशिकजनं च ईडशे भा० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथा: २२७५-८१] प्रथम उद्देशः । ६४७ दूरतो वर्जयेत् । यच्च गृहं बहुप्रातिवेशिकजनमीदृशे प्रतिश्रयेऽवस्थानं 'क्षमतरम्' अतिशयेन युक्तं भवति, विजने तु विश्वस्ततया बहवो दोपा भवेयुरिति ॥ २२७७ ॥ गतो द्वितीयभङ्गः । अथ तृतीयभङ्गमाह पउमसर वियरगो वा, वाघातो तम्मि अभिनिवगडाए । तम्मि वि सो चेव गमो, नवरं पुण देउले मेलो ।। २२७८ ॥ तृतीयभको नाम अनेकवगडाकमेकनिष्क्रमणप्रवेशं च ग्रामादि, तत्र च 'अभिनिवगडाके' अनेकवगडे एकद्वारे च क्षेत्रे पद्मसरो वा 'विदरको वा' गर्ता 'व्याघातः' व्याघातकारणं भवेद् येनानेके निष्क्रमण-प्रवेशा न भवन्ति तस्मिन्नपि स एव 'गमः' प्रकारः सर्वोऽपि ज्ञातव्यः । 'नवरं' केवलं पुनर्देवकुले 'मीलंकः' दृश्यादिभिः कारणैः साधु-साध्वीनां सङ्गमो भवेत् ॥२२७८॥ कथम् ? इत्यत आह अंतो वियार असई, अजाण हविज तइयभंगम्मि। संकिट्ठगवीयारे, व होज दोसा इमं नायं ॥ २२७९ ॥ अनेकवगमके प्रकनिष्क्रमण-प्रवेशे च ग्रामादौ स्थितेषु साधु-साध्वीजनेषु आर्यिकाणामन्तः 'तृतीयभङ्गे' आपातासंलोकाख्ये विचारभूमेरसत्ता भवेत् ततो बहिर्निर्गच्छन्तीनां संक्लिष्टविचारभूमेर्दोषा भवेयुः । संक्लिष्टविचारभूमी नाम एकद्वारतया अन्या संज्ञाभूमिर्न विद्यते. अतः 15 संयता अपि तत्रैवायान्ति, आसन्ने वा परस्परं संज्ञाभूमी, स ततश्च निर्गमने प्रवेशे वा देवकुले मेलको भवेत् । - इदं चात्र 'ज्ञातं' दृष्टान्त उच्यते ॥ २२७९ ॥ वासस्स य आगमणं, महिला कुड णंतगे व रत्तट्ठी । देउलकोणे व तहासंपत्ती मेलणं होजा ॥ २२८० ॥ कस्याश्चिद् महेलायाः कुसुम्भरक्तवस्त्रयुगलनिवसनायाः प्रथमप्रावृषि घटं गृहीत्वा जलाहरणार्थ 20 निर्गतायाः 'वर्षस्य' वृष्टेरागमनम् । ततोऽसौ महेला 'रक्तार्थिनी' रञ्जनं रक्तं कुसुम्भराग इत्यर्थः तदर्थिनी 'मा वर्षोंदकेन पतता कुसुम्भरागो विलीयताम्' इति कृत्वा 'कुटे' घटे ‘णंतके' वस्त्रे द्वे अपि प्रक्षिप्य खयमपावृतीभूय क्वापि देवकुले प्रविष्टा । तस्य च कोणके यावदसौ प्रविशति तावत् तत्र कश्चिदगारः पूर्वप्रविष्ट आसीत् तेन सा अपावृता दृष्टा, जातश्च तस्य मोहोदयः, ततस्तेन सा युक्ता, दृष्टं च तदन्यैः पुरुषैः । एवं तथासम्पत्त्या तथाविधवर्षपतनादिसमायोगेनै-25 कस्या एव विचारभूमेः प्रतिनिवृत्तयोः संयती-संयतयोरेकत्र देवकुलादौ वर्षावस्त्राणि परित्यक्तवतोर्मीलनं भवेदिति ॥ २२८० ॥ अथ तस्यागारस्य किं संवृत्तम् ? इत्याह गहिओ असो वराओ, बद्धो अवओडओ दवदवस्स। संपाविओं रायकुलं, उप्पत्ती चेव कज्जस्स ॥ २२८१॥ १°सरो विरगो वा ता०॥ २ भवेत, तेन च व्याघातेनानेके भा० ॥ ३ मो० ले० विनाऽन्यत्र-लको भवति ॥ २२७८ ॥ कथ° त• डे. का० । °लको भवति । एतदुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २२७८ ॥ अंतो भा० ।। ४°धुषु आ° मो० ले० विना ॥५। एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ६ सा भुक्ता भा०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् ११ - गृहीतश्च स वराको राजपुरुषैः, बद्धश्च 'अवकोटकः' अधोनीतकृकाटिकः पश्चान्मुखीकृतबाहुयुगलः, “दवदवस्स" ति शीघ्रं सम्प्रापितश्च राजकुलमयम् , तत्र च प्रस्तुतकार्यस्योत्पत्तिः कारणिकैः पृष्टा, तेन चागारेण यथावस्थितं सर्वमपि तत्पुरतो विज्ञप्तम् ।। २२८१॥ ततश्च जाणंता वि य इत्थि, दोसवई तीऍ नाइवग्गस्स । पञ्चयहेउं सचिवा, करेंति आसेण दिद्वंतं ॥ २२८२ ॥ 'नहि महत्यपि वृष्ट्याधुपद्रवे स्त्रिया निरावरणत्वं शिष्टानामनुमतम्' इति कृत्वा स्त्रियं दोषवती जानन्तोऽपि तस्याः सम्बन्धी यो ज्ञातिवर्गः-खजनसमुदायस्तस्य प्रत्ययहेतोः 'सचिवाः' कारणिका अश्वेन दृष्टान्तं कुर्वन्ति ॥ २२८२ ॥ तमेवाह . वम्मिय कवइय वलवा, अंगणमज्झे तहेव आसो य । __ वलवाएँ अवंगुणणं, कजस्स य छेदणं भणियं ॥ २२८३ ॥ वर्म-लघुस्तनुत्राणविशेषः, तदस्याः सञ्जातमिति वर्मिता, एवं कवचिताऽपि, नवरं कवचंमहाँस्तनुत्राणविशेषः, एवंविधा यथा काचिद् वडवा कस्यचिद् नृपत्यादेरङ्गणमध्ये तिष्ठति, अश्वश्च तथैव, ततस्तां दृष्ट्वा प्रधावितोऽपि वर्मित-कवचितां तां न प्रतिसेवितुं शक्नोति । यदा तु तस्या वडवाया अपावरणं-वर्मादेरपनयनं क्रियते तदा सुखेनैव प्रतिसेवितुमीष्टे । एवमियमपि 15 यद्यपावृता नाभविष्यत् ततो नासौ प्रत्यसेविष्यत इति । अत इयमेवापराधिनीति तैः कारणिकैः 'कार्यस्य' व्यवहारस्य 'छेदनं' परिच्छेदकारि वचो भणितमिति ॥ २२८३ ॥ एवं खु लोइयाणं, महिला अवराहि न पुण सो पुरिसो। __ इह पुण दोण्ह वि दोसो, सविसेसो संजए होइ ॥ २२८४ ॥ 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'खुः' अवधारणे लौकिकानां महिला अपराधिनी संवृत्ता न पुन20 रसौ पुरुषः । 'इह पुनः' अस्माकं लोकोत्तरे व्यवस्थितानां 'द्वयोरपि' संयती-संयतयोर्दोषः, अपि च 'सविशेषः समधिको दोषः संयते भवति ॥ २२८४ ॥ कुतः? इति चेद् उच्यते पुरिसुत्तरिओ धम्मो, पुरिसे य धिई ससत्तया चेव । पेलव परज्झ इत्थी, फुफुग-पेसीऍ दिटुंतो॥ २२८५ ॥ 'पुरुषोत्तरः' पुरुषप्रधानो यतः पारमेश्वरो धर्मः, पुरुषे च 'धृतिः' मानसखास्थ्यलक्षणा 'स25 सत्त्वता च' सत्त्वसम्पन्नता भवति, अतस्तस्य प्रतिसेवमानस्य सविशेषो दोषः । स्त्री तु पेलवा' निःसत्त्वा "परज्झ' त्ति परवशा च । अत्र च फम्फुकेन पेश्या च दृष्टान्तः– यथा फुस्फुकःकरीषाग्निश्चालितः सनुद्दीप्यते एवं स्त्रीवेदोऽपि, यथा च पेशी सर्वस्याप्यभिलषणीया एवमियमपि । अतो न तस्याः समधिको दोष इति ॥ २२८५ ॥ आह यदि संयतीनामन्तस्तृती. यभङ्गे विचारभूमिर्भवेत् ततः किं न वर्त्तते स्थातुम् ? उच्यते जइ वि य होज वियारो, अंतो अजाण तइयभंगम्मि । तत्थ वि विकिंचणादीविनिग्गयाणं तु ते दोसा ॥ २२८६ ॥ यद्यप्यार्याणामन्तः 'तृतीयभङ्गे' आपातासंलोकलक्षणे विचारो भवेत् तथापि विवेचना१°फुम-पे° ता० ॥ 30 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथाः २२८२-९०] प्रथम उद्देशः । उद्धरितभक्त-पानादिपरिष्ठापनिका तत्प्रभृतिषु कार्येषु विनिर्गतानां साधु-साध्वीनां परस्परमिलितानामेकद्वारे क्षेत्रे ~ त एव' पूर्वोक्ता दोषा भवेयुः, अतस्तत्रापि न वर्तते स्थातुम् ॥ २२८६ ॥ उपसंहरन्नाह एते तिन्नि वि भंगा, पढमे सुत्तम्मि जे समक्खाया। जो पुण चरिमो भंगो, सो बिइए होइ सुत्तम्मि ॥ २२८७ ॥ एका वगडा एकं द्वारम् १ एका वगडा अनेकानि द्वाराणि २ अनेका वगडा एकं द्वारम् ३ एते त्रयोऽपि भङ्गा ये समाख्यातास्ते प्रथमे वगडासूत्रे प्रत्येतव्याः । तच्च प्रागेव व्याख्यातम् । यः पुनः 'चरमो भङ्गः' अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणीति लक्षणः स द्वितीये वगडासूत्रे द्रष्टव्यः ॥ २२८७ ॥ तच्चेदम् से गामंसिवाजाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए 10 अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमण-प्पवेसाए कप्पड़ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए २-११॥ अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा 'अभिनिवगडाके' निपातानामनेकार्थत्वाद अभि इतिअनेका नि इति-नियता वगडाः-परिक्षेपाः [यत्र, यद्वा ] 4 'अभि-निशब्दौ पृथगर्थद्योतको द्रष्टव्यौ, ततश्च पृथग्-अनेका वगडा - यत्र तदभिनिवगडाकं तत्र । एवमभिनिद्वारके-15 ऽभिनिष्क्रमण-प्रवेशके च कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च एकतो वस्तुमिति सूत्रार्थः ।। । अथ भाष्यम् एयद्दोसविमुक्के, विच्छिन्न वियारथंडिलविसुद्धे । ___ अभिनिव्वगड-दुवारे, वसंति जयणाएँ गीयत्था ॥ २२८८ ॥ एतैः-प्रथमसूत्रोक्तैर्दोषैर्विमुक्ते विस्तीर्णे महाक्षेत्रे 'विचार-स्थण्डिलविशुद्ध' यत्र भिक्षाचर्या 20 संज्ञाभूमिश्च परस्परमपश्यतां भवति तत्रैवंविधेऽभिनिवगडाकेऽभिनिद्वारे च संयतीक्षेत्रे यतनया गीतार्थी वसन्ति ॥ २२८८ ॥ कथम् ? इत्याह-~ पिहगोअर-उच्चारा, जे अन्भासे वि होंति उ निओया । वीसुं वीसु वुत्तो, वासो तत्थोभयस्सावि ॥ २२८९ ॥ ये 'अभ्यासे' मूलक्षेत्रप्रत्यासत्तौ 'नियोगाः' ग्रामा भवन्ति तेऽपि साधु-साध्वीनां पृथग्गोचर-25 चर्याकाः पृथगुच्चारभूमिकाश्च परस्परं भवन्ति, आस्तां मूलग्राम इत्यपिशब्दार्थः । 'उभयस्यापि च' संयतानां संयतीनां च तत्र 'विष्वग् विष्वग्' पृथक्पृथगुपाश्रये वासः प्रोक्त इति ॥ २२८९ ॥ - अत्र नोदकः प्रेरयन्नाह तं नत्थि गाम-नगरं, जत्थियरीओ न संति इयरे वा । पुणरवि भणामु रन्ने, वस्सउ जइ मेलणे दोसा ॥ २२९०॥ ११ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ २°द् 'अभिनि'शब्दः पृथगर्थे, ततश्च भा० ॥ ३सएतचिह्नगतः पाठः मो० ले. नास्ति ॥४ - एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ६५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वगडाप्रकृते सूत्रम् ११ प्रामाश्च नगराणि चेति ग्राम-नगरम् , तद् नास्ति ग्राम-नगरं यत्र 'इतराः' पार्श्वस्थादिसंयत्यः 'इतरे वा' पार्श्वस्थादयो न सन्ति, ततः पुनरपि वयं भणामः, यथा-अरण्ये 'उप्यतां' वासः क्रियतां यदि मीलनायामेवंविधा दोषाः ॥ २२९० ॥ सूरिसह दिटुंतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतेण होइ कायव्यो । जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयव्या ॥ २२९१ ॥ दृष्टान्तोऽत्र पुरुषपुरे रक्तपटदर्शनाकीर्णे मुरुण्डदूतेन भवति कर्त्तव्यः । यथा 'तस्य मुरुण्डदूतस्य 'ते' रक्तपटा अशकुना न भवन्ति, तथा 'तस्य' साधोः 'इतराः' पार्श्वस्थ्यादयो मुणितव्याः, ता दोषकारिण्यो न भवन्तीत्यर्थः ॥ २२९१ ॥ इदमेव भावयति पाडलि मुरुडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणाऽऽचासो। भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रन्नो सचिवपुच्छा ॥ २२९२ ॥ पाटलिपुत्रे नगरे मुरुण्डो नाम राजा । तदीयदूतस्य पुरुषपुरे नगरे गमनम् । तत्र सचिवेन सह मीलनम् । तेन च तस्य आवासो दापितः । ततो राजानं द्रष्टुमागच्छतः 'भिक्षवः' रक्तपटा अशकुना भवन्ति इति कृत्वा स दूतो न राजभवनं प्रविशति । ततस्तृतीये दिने राज्ञः सचिवपाधैं पृच्छा-किमिति दूतो नाद्यापि प्रविशति ? ॥ २२९२ ॥ ततश्च निग्गमणं च अमच्चे, सब्भावाऽऽइक्खिए भणइ दूयं । अंतो बहिं च रच्छा, नऽरहिंति इहं पवेसणया ॥ २२९३ ॥ अमात्यस्य राजभवनान्निर्गमनम् । ततो दूतस्यावासे गत्वा सचिवो मिलितः । पृष्टश्च तेन दूतः -किं न प्रविशसि राजभवनम् ? । स प्राह-अहं प्रथमे दिवसे प्रस्थितः परं तच्चनि कान् दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्तः 'अपशकुना एते' इति कृत्वा, ततो द्वितीये तृतीयेऽपि दिवसे प्रस्थितः 20 तत्रापि तथैव प्रतिनिवृत्तः । एवं सद्भावे 'आख्याते' कथिते सति दूतममात्यो भणति-एते इह रथ्याया अन्तर्बहिर्वा नापशकुनत्वमर्हन्ति । ततः प्रवेशना दूतस्य राजभवने कृता । एवमसाकमपि पार्श्वस्थादयस्तदीयसयत्यश्च रथ्यादौ दृश्यमाना न दोषकारिण्यो भवन्ति ।। २२९३ ।। अपि च जह चेव अंगारीणं, विवक्खबुद्धी जईसु पुव्वुत्ता। तह चेव य इयरीणं, विवक्खबुद्धी सुविहिएसु ॥ २२९४ ॥ यथैव 'अगारीणाम' अविरतिकानां पूर्वम् “आगंतुगदव्वविभूसियं” (गा० २१७०) इत्यादिना यतिषु विपक्षबुद्धिरुक्ता तथैव 'इतरासां' पार्श्वस्थादिसंयतीनां हस्त-पादधावनादिना विभूषितविग्रहाणां सुविहितेषु स्नानादिविभूषारहितेषु विपक्षबुद्धिर्भवतीति द्रष्टव्यम् ॥२२९४॥ ॥ व ग डा प्र कृ तं स मा प्तम् ॥ 16 25 - १°जवचना मो० ले. ॥ २ °कुना गृह्यन्ते । ततः भा० ॥ ३°म्' पत्रा-ऽऽभरणादि विभूषितानामविर त० डे० कां० ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२९१-९८] प्रथम उद्देशः । र थ्या मु खा प ण गृ हा दि प्र कृ तमना. सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगिहंसि वा रच्छामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा चउकंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए १-१२ ॥ अथास्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह एयारिसखेत्तेसुं, निग्गंथीणं तु संवसंतीणं । केरिसयम्मि न कप्पइ, वसिऊण उवस्सए जोगो ॥ २२९५ ॥ एतादृशेषु-पृथग्वगडाकेषु पृथग्द्वारेषु च क्षेत्रेषु निर्ग्रन्थीनां संवसन्तीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते ? इति अनेन सूत्रेण चिन्त्यते, एषः 'योगः' सम्बन्धः ॥ २२९५ ॥ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह 10 दिट्ठमुवस्सयगहणं, तत्थजाणं न कप्पइ इमेहिं । वुत्ता सपक्खओ वा, दोसा परपक्खिया इणमो ॥ २२९६ ॥ दृष्टमनन्तरसूत्रे उपाश्रयग्रहणम् , तत्राऽऽर्याणाममीषु प्रतिश्रयेषु वस्तुं न कल्पते इत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । उक्ता वा 'वपक्षतः' खपक्षमाश्रित्य संयतानां संयतीनां च परस्परं दोषाः, इदानीं तु 'परपाक्षिकाः' गृहस्थाख्यपरपक्षप्रभवा दोषा व्यावर्ण्यन्ते इति ॥ २२९६ ॥ 15 . [एवम् ] अनेकैः सम्बन्धैरायातस्यास्य सूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते 'निर्ग्रन्थीनां' साध्वीनामापणगृहे वा रथ्यामुखे वा शृङ्गाटके वा चतुष्के वा चत्वरे वा अन्तरापणे वा वस्तुमिति सूत्रस पार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमभिधित्सुः प्रायश्चित्तमाह आवणगिह रच्छाए, तिए चउकंतरावणे तिविहे। .. ठायंतिगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ २२९७॥ 20 आपणगृहे रथ्यामुखे त्रिके चतुष्केऽन्तरापणे वा 'त्रिविधे' त्रिप्रकारे वक्ष्यमाणखरूपे 1 उपलक्षणत्वात् चत्वरे च » तिष्ठन्तीनां संयतीनां प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः ॥ २२९७ ॥ आपणगृहादीनां व्याख्यानमाह जं आवणमज्झम्मी, जं च गिहं आवणा य दुहओ वि । तं होइ आवणगिह, रच्छामुह रच्छपासम्मि ॥ २२९८ ॥ १ गाथेयं चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता च नास्ति व्याख्याता ॥ २ ख्या-न क° मो० ले.॥ ३ » एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० का० नास्ति ॥ ४ एतदनन्तरं चूर्णिकृता "आवण रच्छगिहे वा." इति २३०२ गाथा व्याख्याताऽस्ति ॥ ५ जस्स व दुहओ चि आवणा होति । तं भा० । एतदनुसारेण भा० टीका। दृश्यतां पत्र ६५२ टिप्पणी १॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ 10 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू० १२ यद् गृहम् 'आपणमध्ये' समन्तादापणे : परिक्षिप्तम् अथवा मध्यभागे यद गृहं द्वाभ्यामपि च पार्श्वभ्यां यस्यापणा भवन्ति तद् आपण गृहं भवति । रथ्यामुखं रथ्यायाः पार्थे भवति ॥२२९८॥ तच त्रिविधम् तं पुण रच्छमुहं वा, बाहिमुहं वा वि उभयतोंमुहं वा । अहवा जत्तो पवहइ, रच्छा रच्छामुहं तं तु ॥ २२९९ ॥ __ 'तत् पुनः' गृहं रथ्यायाः पार्थे वर्तमान रथ्याया अभिमुखं वा भवेद् 'बहिर्मुखं वा' रथ्या तस्य पृष्ठतो वर्तते इत्यर्थः, 'उभयतोमुखं वा' यस्यैकं द्वारं रथ्यायाः पराङ्मुखमेकं तु रथ्याया अभिमुखमित्यर्थः, अथवा यतो गृहाद् रथ्या प्रवहति तद् रथ्यामुखमुच्यते ॥ २२९९॥ सिंघाडगं तियं खलु, चउरच्छसमागमो चउक्कं तु । छह रच्छाण जहि, पवहो तं चच्चरं विती ॥२३००॥ शृङ्गाटकं नाम यत् 'त्रिकं' रथ्यात्रवमीलनस्थानम् । क्वचित् तु सूत्रादर्शे “तियंसि वा" इत्यपि पदं दृश्यते, तत्रैवं व्याख्या—'शृङ्गाटकं' सिङ्घाटकाकारं त्रिकोणं स्थानम् , 'त्रिकं' रथ्यात्रयमीलकः । चतुष्कं तु चतसृणां रथ्यानां समागमः । तथा यत्र षण्णां रथ्यानां 'प्रवहः' निर्गमस्तत् चत्वरं ब्रुवते तीर्थकरमाणधराः ॥ २३००॥ 15 अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगओ व दुहओ वा । तत्थ गिह अंतरावण, गिहं तु सयमावणो चेव ।। २३०१ ॥ _ 'अर्थ' इत्यानन्तर्ये । अन्तरापणो नाम 'वीथी' हट्टमार्ग इत्यर्थः, सा 'एकतो वा' एकपार्श्वन "दुहओ व" ति द्वाभ्यां वा पार्श्वभ्यां भवेत् तत्र यद् गृहं तद् अन्तरापणगृहम् । यद् वा गृहं खयमेवापणस्तदन्तरापणः । किमुक्तं भवति ?—यत्रैकेन द्वारेण व्यवह्रियते द्वितीयेन 20तु गृहं तदन्तरापणगृहम् । एतेषु प्रतिश्रयेषु संयतीनां न कल्पते स्थातुम् ॥ २३०१ ॥ अथैतेष्वेव तिष्ठन्तीनी प्रायश्चित्तमाह आवण रच्छगिहे वा, तिगाइ सुन्नंतरावणुजाणे । चउगुरुगा छल्लहुगा, छग्गुरुगा छेय मूलं च ।। २३०२ ॥ आपणगृहे तिष्ठन्ति चतुर्गुरुकाः । रथ्यागृहे तिष्ठन्ति षड्लघवः । “तिगाइ" ति त्रिक-च१ मो० ले. विनाऽन्यत्र-क्षिप्तं तदापणगृहम् , यद् वा मध्ये गृहं "दुहतो यि" त्ति द्वाभ्यामपि च त• डे० । क्षिप्तं यद्वा यस्य गृहस्य द्वाभ्यामपि पार्वाभ्यामापणा भवन्ति तद् आप° भा०॥ २°म्, तद्यथा-तं पुण त• डे० ॥ ३ यस्य द्वारद्वयं रथ्यायाः पराङ्मुखमभिमुखं चेत्यर्थः भा० ॥ ४ तु “तियंसि वा" इत्यपि पदं पठ्यते भा० ॥ ५°णो जो तु भा० । वृत्तिस्तु णो जो य इति पाठानुसारेण वर्तते, दृश्यतां टिप्पणी ६ । चूर्णिकृताऽपि-°णो जो य इति पाठ आदतोऽस्ति ॥ ६ यद्वा "सयमावणो जो य" त्ति यद् गृहं स्वयमेवापणः । किमु भा० ॥ ७°तुम् । अथ तिष्ठन्ति तदा प्रागुक्तमेव चतुर्गुरुकाख्यं प्रायश्चित्तं प्रामुवन्ति ॥२३०१॥ अथात्रैव प्रकारान्तरेण प्राय° त० डे० कां० ॥ ८°नां प्रकारान्तरेण प्रा भा० ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २२९९-२३०५] प्रथम उद्देशः । ६५३ तुष्क-चत्वरेषु तिष्ठन्तीनां षड् गुरवः । “सुन्न" त्ति अपरिगृहीते शून्यगृहे अन्तरापणे वा च्छेदः । उद्याने तिष्टन्तीनां मूलम् । एवं भिक्षुणीविषयमुक्तम् । गणावच्छेदिन्याः षड्लघुकादारब्धं नवमे तिष्ठति । प्रवर्त्तिन्याः पड्गुरुकादारब्धं प्रायश्चित्तं दशमे पर्यवस्यति । एतच्चापत्तिमङ्गीकृत्योक्तम् , अन्यथा सर्वासामपि मूलमेव भवति, परतः संयतीनां प्रायश्चित्तस्यैवाभावात् ॥ २३०२ ॥ सव्वेसु वि चउगुरुगा, भिक्खुणिमाईण वा इमा सोही। चउगुरुविसेसिया खलु, गुरुगादि व छेदनिट्ठवणा ॥ २३०३ ॥ अथवा 'सर्वेष्वपि' आपणगृहादिषु » स्थानेषु चतुर्गुरुका अविशेषितं प्रायश्चित्तम् । स अयं च प्रकारः प्रागुक्तोऽपि सङ्ग्रहार्थमिह भूयोऽप्युक्त इति न पुनरुक्तता । » यदि वा भिक्षुणीप्रभृतीनामियं शोधिर्द्रष्टव्या, तद्यथा---चतुर्गुरुकास्तपः-कालाभ्यां विशेषिताः । तत्र - भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकमुभयलघु, अभिषेकायास्तदेव तपसा लघु कालेन गुरुकम् , गणावच्छेदिन्याः 10 कालेन लघु तपसा गुरु, प्रवर्त्तिन्यास्तपसा कालेन च गुरुकम् । यदि वा चतुर्गुरुकादारभ्य च्छेदे निष्ठापना कर्तव्या, तद्यथा--भिक्षुण्याः सर्वेप्वपि स्थानेषु चतुर्गुरुकम् , अभिषेकायाः षड्लघुकम् , गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम् , प्रवर्त्तिन्याश्छेदः ॥ २३०३ ॥ अथात्रैव दोषानुपदर्शयितुं द्वारगाथामाहतरुणे वेसित्थि विवाह रायमादीसु होइ सइकरणं । 15 इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा ॥ २३०४ ॥ A आपणगृहादिपु स्थितानां साध्वीनां » तरुणान् वेश्यास्त्रीः विवाहं च दृष्ट्वा राजादीनां च दर्शने भुक्तभोगानां स्मृतिकरणं भवति, इतरासां कौतुकम् । तरुणांश्च प्रार्थयमानान् यदीच्छन्ति ततः संयमविराधना, अथ नेच्छन्ति तत उड्डाहादिकं कुर्युः । स्तेनाश्च तत्रोपधिं वा 'ता वा' आर्यिका अपहरेयुरिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ २३०४ ॥ अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमाह- 20 चउहालंकारविउविए तहिं दिस्स सललिए तरुणे । लडहपयंपिय-पहसिय-विलासगइ-णेगविहकिड्डे ॥ २३०५ ॥ चतुर्दा-वस्त्र-पुष्प-गन्धा-ऽऽभरणभेदात् चतुर्विधो योऽलङ्कारस्तेन विकुर्वितान्-अलङ्कतान् तरुणान् 'तत्र' आपणगृहादिषु दृष्ट्वा मोहोदयो भवतीति वाक्यशेषः । कथम्भूतान् ? 'सललितान्' ललितं नाम-हस्त-पादाङ्गविन्यासविशेषः, उक्तञ्च हस्त-पादाङ्गविन्यासो, भ्रू-नेत्रौष्ठप्रयोजितः । सुकुमारो विधानेन, ललितं तत् प्रकीर्तितम् ॥ (नाट्य० अ० २२ श्लो० २२) तेन सहितान् । तथा लडभं–मनोज्ञं प्रजल्पितं-प्रकृष्टवचनं प्रहसितं-हास्यं विलासश्च स्थाना-ऽऽसन-गमनानां, हस्त-भ्रू-नेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो, यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ।। (नाट्य० अ० २२ श्लो०१५)30 इत्येवंलक्षणः गतिश्च-सुललितपदन्यासरूपा अनेकविधाश्च-छूता-ऽऽन्दोलनादिकाः क्रीडा येषां १.२.३ २» एतचिह्नमध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४ यद्वा भा० ॥ ५० एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । 25 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ते तथाविधास्तान् ॥ २३०५ || अथ वेश्यास्त्रीद्वारमाह दडुं विउब्वियाओ, कुलडा धुत्तेहिँ संपरिवुडाओ । विब्बोय-पहसियाओ, आलिंगणमाइया मोहो || २३०६ ॥ 'विकुर्विताः' अलङ्कृताः 'कुलटा ः ' खैरिण्यः वेश्यास्त्रिय इत्यर्थः 'धूर्ते : ' षिङ्गैः 'सम्परिवृताः' 5 समन्ततो वेष्टिताः 'बिब्बोक - प्रहसिताः' बिब्बोको नामइष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानगर्वसम्भूतः । ܘܪ 15 सनिर्युक्ति-लघुभाय-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू० १२ स्त्रीणामनादरकृतो, बिब्बोको नाम विज्ञेयः ॥ (नाट्य० अ० २२ श्लो० २१) प्रहसितं नाम - हास्याभिधानो रसविशेषः, अस्य च लक्षणमिदम् हास्यो हासप्रकृतिः, हासो विकृताङ्ग-वेष - चेष्टाभ्यः । भवति परस्थाभ्यः स च, भूम्ना स्त्री-नीच बालगतः ॥ (रु० का ० लं० अ० १५ श्लो० ११) -प्रहसिते विद्येते यासां ता बिब्बोक - प्रहसितवत्यः । गाथायां प्राकृतत्वाद् मतुप्रत्ययलोपः । एवंविधाः मणाङ्गना दृष्ट्वा तासां चालिङ्गनादिकाश्चेष्टाः क्रियमाणा निरीक्ष्य मोहः समुद्दीप्यते ॥ २३०६ ॥ अथ विवाहद्वारमाह— तत्थ चउरंतमादी, इब्भविवाहेसु वित्थरा रहया । भूसियस यणसमागम, रह- आसादीय निव्वहणा || २३०७ ॥ 'तत्र' आपणगृहादौ स्थितानां संयतीनामिभ्यविवाहेषु ये चतुरन्तादयों विस्तरा रचिताः, चतुरन्तं नाम चतुरिका, आदिशब्दाद् वेन्दन- कलश - तोरणादिविवाहविस्तर परिग्रहः, तथा यस्त भूषितानां–वस्त्रादिभिरलङ्कृतानां खजनानां समागमः, यच्च रथेन वाऽश्वेन वा आदिशब्दात् शिबिकया वा 'निर्वहणं' वध्वाः सर्व श्वशुरगृहे नयनं तद्दर्शने भुक्तभोगिनीनां स्मृतिकरणमभु20 क्तभोगिनीनां तु कौतुकमुपजायते, ततः प्रतिगमनादयो दोषाः ॥ २३०७ ॥ अथ राजद्वारमाहबलसमुदयेण महया, छत्तसिया वियणि- मंगलपुरोगा । दीसंति रायमादी, तत्थ अतिंता य निंता य ॥ २३०८ ॥ महता बलसमुदयेन 'अतियन्तः' प्रविशन्तः 'निर्यन्तो वा' निर्गच्छन्तः 'राजादयः' राजेश्वर - तलवरप्रभृतयस्तत्र दृश्यन्ते । कथम्भूताः ? “ छत्तसिय" ति प्राकृते पूर्वापरनिपातस्य तत्रत्वात् 25 सितं-श्वेतं छत्रं येषां ते सितच्छत्राः, तथा "वियणि" त्ति वालवीजनिका मङ्गलानि -दर्पण - पताकादीनि एतानि पुरोगाणि - पुरतोगामीनि येषां राजादीनां ते तथा ॥ २३०८॥ द्वारगाथायां “रायमादीसु” ( गा० २३०४ ) त्ति यद् आदिग्रहणं कृतं तल्लब्धमर्थमाहते नक्खि-वालि-मुहवासि जंघिणो दिस्स अट्ठियाऽणट्ठी । हो णे एरिसगा, न य पत्ता एरिसा इतरी ॥ २३०९ ॥ 30 तान् पुरुषान् नैखि-वालि-मुखवासि - जङ्घिनो दृष्ट्वा भुक्तभोगिन्योऽभूवन् “णे” अस्माकमपीदृशाः पतय इति स्मृतिम् ‘इतरास्तु' अभुक्तभोगिन्यो नास्माभिरीदृशाः पूर्वं प्राप्ता इत्येवं कौतुकं १ “चउरंतओ पेढं चउक्कोणं कीरइ, तस्सुवरिं पोतेहिं सोभा कीरह" इति विशेषचूर्णो ॥ २ वञ्जन मो० ले० ॥ ३ नखिप्रभृतिविशेषणविशिष्टान् दृष्ट्वा भा० ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ भाष्यगाथाः २३०६-१२] प्रथम उद्देशः । कुर्युः । तत्र नखाः-करजाः स्निग्धा-ऽऽताम्रोत्तुङ्गतादिगुणोपेता येषां ते नखिनः, प्रशंसायामत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवती कन्येत्यादिषु । एवं वाला:-केशान्ते श्यामल-निचित-कुञ्चितादिगुणोपेता येषां ते वालिनः । मुखवासः-कर्पूरादिभिर्मुखस्य सौरभ्यापादनं तदस्ति येषां ते मुखवासिनः । जविनः-वर्तुल स्थूलजङ्घायुगलकलिताः । एते 'अर्थिनः' मैथुनाभिलाषिणः 'अनर्थिनो वा' यथाभावेन समागच्छेयुः, ताँश्च दृष्ट्वा भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोषा भवन्ति ॥ २३०९ ॥ - तानेवं दर्शयति एयारिसए मोत्तुं, एरिसयविवाहिता य सइ भुत्ते । इयरीण कोउहल्लं, निदाण-गमणादयो सजं ॥ २३१० ॥ एतादृशान् मुक्त्वाऽस्माभिर्दीक्षा गृहीता ईदृशैर्वा सह विवाहिता वयमपि पूर्वमिति स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनीनाम् , 'इतरासाम्' अभुक्तभोगिनीनां पुनः 'कौतूहलं' कौतुकं भवेत् , ततश्चो-10 भयोषामपि सद्यो निदान-गमनादयो दोषाः । निदानम्-'अस्य तपो-नियमादेः प्रभावाद् भवान्तरे ईदृशमेव पुरुषं लभेय' इति लक्षणम् , गमनं-खगृहं प्रति भूयः प्रत्यावर्तनम् ॥ २३१० ॥ अपि च आयाणनिरुद्धाओ, अकम्मसुकुमालविग्गहधरीओ। तेसि पि होइ दर्दू, वइणीओं समुब्भवो मोहे ॥ २३११॥ .. आदानानि-इन्द्रियाणि निरुद्धानि यासां ता निरुद्धादानाः, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः प्राकृतत्वात् । अकर्मणा-कर्मकरणाभावेन सुकुमारं--कोमलं विग्रहं-शरीरं धारयन्तीत्यकमसुकुमारविग्रहधराः । एवम्भूता प्रतिनीदृष्ट्वा 'तेषामपि' नखि-वालिप्रभृतीनां मोहस्य समुद्भवो भवति ॥ २३११ ॥ अथ "इच्छमणिच्छे तरुण" ( गा० २३०४ ) त्ति पदं विवृणोति संजमविराहणा खलु, इच्छाएँ अणिच्छयं व बहि गिण्हे। 20 तेणोवहिनिप्फना, सोही मूलाइ जा चरिमं ॥ २३१२ ॥ ___ यदि तत्रापणगृहादौ तरुणान् अवभाषमाणान् इच्छति ततः संयमविराधना । अथ नेच्छति ततोऽनिच्छती बलादपि संयती बहिर्गृहीयुः । “तेणा उवहिं व ताओ वा" (गा० २३०४) इति पदं व्याख्यायते-"तेणोवहिनिप्फन्ना" इत्यादि । शून्यगृहादिषु स्थितानां साध्वीनां स्तेना यापधिमपहरेयुः तत उपधिनिष्पन्ना शोधिः । तद्यथा-जघन्यमुपधिमपहरन्ति पञ्चकम् , 25 मध्यममपहरन्ति मासिकम् , उत्कृष्टमपहरन्ति चतुर्लघु । संयतीहरणे मूलादिकं चरमं यावत् प्रायश्चित्तमाचार्यस्य मन्तव्यम् , तद्यथा--एकां संयतीमपहरन्ति मूलम् , द्वे अपहरन्त्यनवस्थाप्यम् , तिस्रोऽपहरन्ति पाराञ्चिकम् ॥ २३१२ ॥ अथात्रैव प्रकारान्तरेण दोषान् दिदर्शयिषुराह नियुक्तिकारः१जा विद्यन्ते येषां ते नखिनः, सर्वेषामपि च नखाः सन्तीति विशेषणान्यथानुपपत्त्या स्निग्धाताम्रोत्तुङ्गतादिगुणोपेता विशिष्टा एव नखा येषां ते त. डे० कां० ॥ २°सः-पञ्चसौगन्धिकताम्बूलादिना मुखस्य भा० ॥ ३ °व भावयति भा० त० डे० ॥ ४ °म् ॥ २३१२ ॥ अपि च-ओभावणा भा० त० डे० ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू० १२ ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि - खंडरवाणं । उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सजो || २३१३ ॥ तत्र स्थितानामपभ्राजना 'कुलगृहे' कुलगृहस्व भवति । वेश्यास्त्रीणां खण्डरक्षाणां चआरक्षिकाणां स्थानं तदापणगृहादि भवेत् । उद्धर्षणा च प्रवचने । तथा सवश्चारित्रात् परित्र5 शना चोपजायते ' ॥ २३१३ ॥ तत्र कुलगृहस्थापभ्राजना भाव्यते - आपणगृहादौ स्थितास्ता दृष्ट्वा कश्चित् तदीयज्ञातीनामन्तिके गत्वा ब्रूयात् ससिपाया वि ससंका, जासिं गायाणि सन्निसेविंसु । कुलफुंसीर ता भे, दोन्नि वि पक्से विधसिति ॥ २३१४ ।। यासां युष्मदीयसुता-स्नुपादीनां प्रयत्नेन संरक्ष्यमाणानां गात्राणि ' शशिपादा अपि' चन्द्रमरी10 चयोऽपि ‘सशङ्काः' चकिता इव सन्निषेवितवन्तः, ताश्चेदानीमेवमापणगृहादो वसन्त्यः “भे" भवतां ‘कुलस्पृशिन्यः’ कुलमालिन्यकारिण्यः 'द्वावपि पक्षी' पैतृक श्वशुरपक्षलक्षणो 'विघयन्ति' विनाशयन्तीत्यर्थः । एवं कुलगृहस्यापभ्राजना भवति ॥ २३१४ ॥ अथ "स्थानं वेश्यास्त्री - खण्डरक्षाणाम् " ( गा० २३१३ ) इति पदं विवृणोतिछिन्नाइबाहिराणं, तं ठाणं जत्थ ता परिवति । इय सोउं दणव, सयं तु ता गेहमाणिति ।। २३१५ ।। 15 ६५६ 20 यत्र 'ताः' श्रमण्यः परिवसन्ति तत् छिन्नादिवाद्यानां स्थानम्, छिन्नी :- छिनालः, आदिशब्दाद् वेश्या-खण्डरक्ष-विट - द्यूतकारादयो ये बाह्याः - विशिष्टजनवहिर्वर्तिनः तेषां स्थाने यदि तिष्ठन्ति ततस्तदीयाः संज्ञातकाः 'इति' एवं वृत्तान्तं श्रुत्वा दृष्ट्वा वा 'ता' सम्बन्धिसंगतीः खकं गृहमानयन्ति, अलमनया प्रत्रज्यया यत्रैवंविधे स्थाने वासो विधीयते ॥ २३१५ | अथ " उद्धर्षणा प्रवचने" ( गा० २३१३ ) इति पदं व्याख्याति - ---- १ मो० ले० विनाऽन्यत्र – 'नां 'कुलगृहे' षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् कुलगृहस्थापभ्राजना भवति । वेश्या' त० डे० ॥ २ णां यत्र स्थानं तत्रोपाश्रये बहवो दोषाः । उद्धर्षणा प्रवचनस्य । तथा भा० ॥ ३ मो० ले० विनाऽन्यत्र - ° ते । एष द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः ॥ २३१३ ॥ अथैनामेव विवृणोति - ससिपा° भा० । 'ते । एषा द्वारगाथा || २३१३ ॥ अथेयमेव व्याख्यायते – तत्र कुल°त०डे० ॥ ४ 'त् । किम् ? इति अत आह-ससि त०डे० ॥ ५२ सेवेडं ता० ॥ ६ शशिपादा अपि 'सशङ्काः ' चकिता यासां गात्राणि 'संज्ञायवन्तः' सेवां कृतवन्त इत्यर्थः । इयमत्र भावना - ईदृशेन महता प्रयत्नेन पूर्वमगारवाले संरक्ष्यमाणा आसन् यथा चन्द्रमरीचयोऽपि तदङ्गेषु न निःशङ्कं लगन्ति स्म । ताश्चेदानीमेवमापणगृहादा संवसन्त्यः 'कुलस्पृशिन्यः' कुलमालिन्यकारिण्यः 'द्वावपि पक्षी' पैतृक श्वशुरपक्षलक्षणी 'विधर्षयन्ति' विनाशयन्तीत्यर्थः ॥ २३१४ ॥ गतम् 'अपभ्राजना कुलगृहत्य' इति द्वारम् । अथ 'स्थानं वेश्यास्त्री - खण्डरक्षाणाम्' इति द्वारमाह- भा० ॥ ७ °ति द्वारमाह भा० त० डे० ॥ ८ना नाम - येऽगम्यगमनाद्यपराधकारित्वेन च्छिन्न हस्त-पाद-नासादयः कृताः, आदिशब्दाद् द्यूतकारादयो भा० ॥ ९ °ति द्वारमाह-भा० त०डे० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ भाष्यगाथाः २३१३-२०] प्रथम उद्देशः । पेच्छह गरहियवासा, वइणीउ तवोवणं किर सियाओ । किं मन्ने एरिसओ, धम्मोऽयं सत्थगरिहा य ॥ २३१६ ॥ साहूणं पि य गरिहा, तप्पक्खीणं च दुञ्जणो हसइ । अभिमुहपुणरावत्ती, वच्चंति कुलप्पसूयाओ ॥ २३१७ ॥ तास्तत्रापणगृहे दृष्ट्वा कश्चिद् ब्रूयात्-पश्यत भो लोकाः! यदेवं 'गर्हितवासाः' शिष्टजन-5 जुगुप्सिते स्थाने स्थिता वतिन्यस्तपोवनं किल 'श्रिताः' आश्रितवत्यः, किं मन्ये एतत्तीर्थकृता ईदृशोऽयं धर्मो दृष्टः ? इत्येवं शास्तुः-तीर्थकरस्य गहीं भवति ॥ २३१६ ॥ साधूनामपि च गर्दा जायते--अहो ! सदाचारबहिर्मुखा अमी ये स्वकीयाः संयतीरित्थमस्थाने स्थापयन्ति । तथा तत्पाक्षिकाः-साधुपक्षबहुमानिनो ये श्रावकास्तेषां च पुरतः 'दुर्जनः' मिथ्यादृष्टिलोकः 'हसति' उपहासं करोति । याश्च प्रव्रज्यायामभिमुखास्तासां पुनरावृत्तिर्भवति, 10 प्रव्रज्यापरिणामान्निवर्तनमित्यर्थः । तथा कुलप्रसूताश्च याः प्रबजितास्ताः तादृशस्थानावस्थानेनाभाविताः सत्यो भूयः खगृहाणि व्रजन्ति ॥ २३१७ ॥ अथ चारित्रभ्रंशनापदं विवृणोति तरुणादीए दटुं, सइकरणसमुन्भवेहिँ दोसेहिं ।। पडिगमणादी व सिया, चरित्तभासुंडणा वा वि ॥ २३१८ ॥ आपणे तरुणादीन् दृष्ट्वा स्मृतिकरणसमुद्भवैः उपलक्षणत्वात् कौतुकसमुद्भवैश्च दोषैः 'प्रतिग-15 मैनं' गृहवासगमनं तदादीनि वा पदानि 'स्युः' भवेयुः, आदिशब्दादन्यतीर्थिकगमनादिपरिग्रहः, स्वलिङ्गे वा स्थितानां तरुणादिभिः प्रतिसेवनायां चारित्रभ्रंशना भवेत् ॥ २३१८ ॥ एते आपणगृहे तिष्ठन्तीनां दोषा द्रष्टव्याः । अथ रथ्यामुखादिषु तानतिदिशन्नाह एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति सेसेसु । [पि.नि. ३२०] रच्छामुहमादीसुं, थिरा-थिरेहिं थिरे अहिया ॥ २३१९ ॥ 20 'एत एवं' अनन्तरोक्ता दोषाः 'शेपेषु' रथ्यामुख-शृङ्गाटक-त्रिकादिष्वपि भवन्ति । नवरं सविशेषतरा उत्तरोत्तरेषु द्रष्टव्याः यावदुद्यानम् । ते च तरुणादयो द्विधा-स्थिरा अस्थिराश्च । स्थिरा नाम-येषां तत्रैव गृहाणि, अस्थिराः येषामन्यत्र गृहाणि । अत्र च स्थिरेष्वधिकतरा दोषाः प्रतिपत्तव्याः । द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपि ।। २३१९ ॥ कथम् ? इत्याह अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । रच्छामुहे चउक्के, आवण अंतो दुहिं बाहिं ॥ २३२० ॥ अध्वनिर्गतादयः ‘त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् निर्दोषां वसतिं मार्गयित्वा 'असत्याम्' अलभ्यमानायां विविक्तवसतौ वृपभाः प्रथमतो रथ्यामुखे संयतीः स्थापयन्ति, तत्रापि प्रथमम् 'अन्त १ 'पुनरावृत्तिः' विपरिणामो भवति । तथा कु° त० डे० ॥ २ता अपि च प्रवजिता अभावितत्वात् पुनरपि स्वगृ° भा० ॥ ३°नाद्वारमाह-भा० त० डे० ॥ ४°द्भवैर्दोषैः प्रतिगमादीनि वा 'स्युः' भा० ॥ ५°मनादीनि वा पदानि तासां 'स्युः' त० डे० ॥ ६ °व' तरुणादयो दो भा० त० डे० ॥ 25 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ६५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू० १३-१४ मुंखे' यस्य पृष्ठतो रथ्या वर्तते इत्यर्थः, तस्याप्राप्तौ "दुहिं" ति 'द्विधामुखे" उभयद्वारे इत्यर्थः, तस्याप्यभावे "बाहिं" ति 'बहिर्मुखे' रथ्याभिमुखद्वारे इत्यर्थः । “चउक्के आवण" त्ति उपलक्षणत्वात् शृङ्गाटकादीनामपि ग्रहणम् , ततोऽयमर्थः-रथ्यामुखस्याभावे आपणगृहेऽपि संयतीभिः स्थातव्यम् , तदप्राप्तौ शृङ्गार्टके त्रिके वा, तस्याप्यसत्त्वे चतुष्के, तस्यालाभे चत्वरे, तदप्राप्तौ अन्तरापणेऽपि स्थातव्यमिति ॥ २३२०॥ अथ “अंतो दुहिं बाहिं" ति पदत्रयं व्याचष्टे अंतोमुहस्स असई, उभयमुहे तस्स बाहिरं पिहए । तस्सऽसइ बाहिरमुहे, सइ ठइए थेरिया बाहिं ॥ २३२१ ॥ पूर्वम् 'अन्तर्मुखे' रथ्यामुखगृहे स्थातव्यम् । अन्तर्मुखस्यासत्युभयमुखे । तस्य च यद् बहि10रं रथ्याभिमुखं तत् 'पिदधति' कटादिना स्थगयन्ति द्वितीयेन द्वारेण निर्गम-प्रवेशौ कुर्वन्ति । » 'तस्य' उभयमुखस्याभावे 'बहिर्मुखे' रथ्याभिमुखद्वारे तिष्ठन्ति, तत्र च द्वारं सदा स्थगितमेव कुर्वन्ति, स्थविरसाध्व्यश्च तत्र “बाहिं" ति 'बहिः' द्वारप्रत्यासत्तौ तिष्ठन्ति ॥२३२१॥ अथात्रैव विधिमाह जत्थऽप्पयरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउंजे। निच्चमवि जंतियाणं, जंतियवासो तहिं वुत्तो ॥ २३२२ ॥ __ यत्राल्पतराः पूर्वोक्ता दोषाः, तेषां च दोषाणां परिहरणे यत्र यतनां कर्तुं शक्नुवन्ति 'तत्र' आपणगृहाँदौ नित्यं यन्त्रितानामपि यन्त्रितवासः प्रोक्त इति । किमुक्तं भवति?—यद्यपि संयतीप्रायोग्योपकरण-प्रावरणादिना ताः सर्वदैव सुयन्त्रितास्तथापि तत्रापणगृहादौ विशेषतो यथोक्तयतनया यन्त्रणा कर्त्तव्या ॥ २३२२ ॥ का पुनर्यतना ? इति चेद् उच्यते बोलेण झायकरणं, ठाणं चत्धुं व पप्प भइयं तु । वंदेण इंति निति व, अविणीयनिहोडणा चेव ॥ २३२३ ॥ 'बोलेन' समुदायशब्देन खाध्यायकरणं येन पूर्वोक्ताः (गा० २२६४) दोषा न भवन्ति । स्थानं वा वस्तु वा प्राप्य 'भाज्यं' स्वाध्यायकरणं न कर्त्तव्यमपीत्यर्थः । वृन्देन च कायिकीसंज्ञाव्युत्सर्जनार्थमतियन्ति निर्यन्ति वा । अविनीतानां च-दुःशीलानां तरुणादीनां निहेठना 25 कर्त्तव्या, न तत्र प्रवेष्टुं दातव्यमिति भावः ॥ २३२३ ॥ एएसिं असईए, सुन्ने बहि रक्खियाउ वसहेहिं । तेसऽसती गिहिनीसा, वइमाइसु भोइए नायं ॥ २३२४ ॥ १°खे, यस्यां च दिशि रथ्या तां कटकादिना स्थगयन्ति, तस्या भा० । “असइ दुहओमुहे, तस्स जओ रच्छा तं ठएति" इति विशेषचूर्णौ ॥ २ °त्यर्थः । तदलाभे "च° त• डे० ॥ ३त्ति सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा शृङ्गा भा० ॥ ४°टके, तस्याभावे त्रिके, तस्या भा० ॥ ५ » एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ६ मो० ले० विनाऽन्यत्र-अथ सामान्यत आपणगृहादिविधिमाह त० डे० । अथ आपणगृहादिषु तिष्ठन्तीनां विधिमाह भा० ॥ ७°हादौ तिष्ठन्तीत्याशयः। तत्र च स्थितानां तासां नित्यं त० डे.॥ 20 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः २३२१-२६] प्रथम उद्देशः । 'एतेषाम्' आपणगृहादीनामसति अवप्रतिपन्नादयो व्रतिन्यः 'वृषभैः' समर्थसाधुभिः 'बहिः' समन्ततो रक्षिताः सत्यः शून्येऽप्युपाश्रये वसेयुः । अथ वृषभा न भवन्ति ततस्तेषामभावे गृहिणाम्-अगारिणां निश्रया वृत्यादिभिः सुगुप्ते शून्येऽपि प्रतिश्रये वसन्ति । कथम् ? इत्याह'भोजिकस्य' ग्रामवामिनः 'ज्ञात' विदिनं कृत्वा, यथा-वयमत्र भवदीयबाहुच्छायापरिगृहीताः स्थिताः स्मः, अतो भवता अस्माकं सारा करणीयेति ।। २३२४ ॥ सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंत रावणंसि वा वत्थए १३ ॥ १ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाष्यम् एसेव कमो नियमा, निग्गंथाणं पि नवरि चउलहुगा । सुत्तनिवातो अंतोमुहम्मि तह चेव जयणाए ॥ २३२५ ॥ ऐष एव क्रमो नियमाद् निर्ग्रन्थानामपि भवति, तेषामप्यापणगृहादिषु वसतां पूर्वोक्ता दीपा भवन्तीति भावः । नवरं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । आह ययेवं तर्हि सूत्रं निरर्थकम्, तत्र साधूनामापणगृहादिषु वस्तुमनुज्ञातत्वात्, नैवम्, कारणिक सूत्रम्, यद्यन्य उपाश्रयो न प्राप्यते । ततोऽन्तर्मुखे रथ्यागृहे स्थातव्यम्, अत्र 'सूत्रनिपातः प्रकृतसूत्रमवतरतीति भावः । तस्याभावे शेषेष्वपि तिष्ठतां तथैव यतना द्रष्टव्या ॥ २३२५॥ ॥ रथ्यामुखापणगृहादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ अपा वृ त द्वा रो पा श्र य प्र कृ त म् सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए । एग पत्थारं अंतो किच्चा एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडियचिलिमिलियागंसि एवं णं कप्पड़ वत्थए १४ ॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह-. पडिसिद्धविवक्खेसुं, उवस्सएहिँ उ संवसंतीणं । बंभवयगुत्ति पगए, वारिंतऽनेसु वि अगुत्तिं ॥ २३२६ ॥ पूर्वसूत्रे प्रतिषिद्धानाम्-आपणगृहादीनां विपक्षा ये उपाश्रयाः कल्पनीया इत्यर्थः, तेषु संवसन्तीनां 25 व्रतिनीनां ब्रह्मचर्यगप्तिः प्रकृता, तदर्थं तेषु ताभिर्वस्तव्यमिति भावः । अतस्तस्याः प्रकृते प्रक्रमे 'अन्येष्वपि अप्रतिषिद्धेषु प्रतिश्रयेष्वपावृतद्वारतारूपामगुप्तिं वारयन्ति भगवन्तो भद्रबाहुस्वामिन इति ॥ २३२६ ॥ १२ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० ३० नास्ति ॥ २ अत्र भा॰ भा० त० डे० ॥ ३ 'एष एव क्रमः' पूर्वोक्तदोपवक्तव्यतापरिपाटिरूपो निर्ग्रन्थानामप्यापणगृहादिषु वसतां भवति । नवरं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । अथान्यो निर्दोषः प्रतिश्रयो न प्राप्यते ततः कारणे स्थातव्यम् । तत्र च सूत्रनिपातः 'अन्तर्मुखे' रथ्यामुखगृहे । तस्याभावे भा० ॥ ४°तः' सूत्रमवतरति । तस्याभावे आपणगृहादिपु शेषेवपि तिष्ठद्भिः 'तथैव' तेनैव विधिना यतनया स्थातव्यम् ॥ २३२५ ॥ सूत्रम्-त. डे० ॥ ५ °नां साध्वीनां ब्रह्म भा० ॥ 20 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू० १४ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या नो कल्पते 'निर्ग्रन्थीनी' तिनीनाम् 'अपावृतद्वारके' उद्घाटद्वारे उपाश्रये वस्तुम् । सकपाटोपाश्रयालाभेतु तत्रापि वसन्तीभिरित्थं विधिविधेयः-एक 'प्रस्तारं' कटम् 'अन्तः' प्रति श्रयाभ्यन्तरे कृत्वा एकं प्रस्तारं बहिः कृत्वा ततः 'अवघाटितचिलिमिलिकाके' अवघाटिताउबद्धा चिलिमिलिका यत्र स तथा ईदृशे उपाश्रये 'एवम्' अनन्तरोक्तेन विधिना "गं" इति वाक्यालङ्कारे कल्पते वस्तुमिति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकृदाह दारे अवंगुयम्मी, निग्गंथीणं न कप्पए वासो । चउगुरु आयरियाई, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥२३२७ ॥ 'अपावृते' उद्घाटिते द्वारे, र उद्घाटद्वारे उपाश्रये इत्यर्थः । निर्ग्रन्थीनां न कल्पते वासः । 10 अत्र चैतत् सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिन्या न कथयति चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी संयतीनां न कथयति चतुर्गुरु, आर्यिका यदि न प्रतिशृण्वन्ति ( ग्रन्थाग्रम्-४५०० । सर्वग्रन्थानम्-१६७२० ।) तदा तासां मासलघु । 'तत्रापि' अकथनेऽश्रवणे चाज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः ॥ २३२७ ॥ दारे अवंगुयम्मी, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं । गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगादी व छेदंता ॥ २३२८ ॥ 15 राउंपाश्रयसम्बन्धिनि » द्वारेऽपावृते सँति » भिक्षुण्यादीनां संवसन्तीनां 'द्वाभ्यां' तपः-कालाभ्यां विशिष्टाश्चतुर्गुरुकाः । प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेन च लघु, अभिषेकायास्तदेव कालगुरु तपोलघु, गणावच्छेदिन्यास्तपोगुरु काललघु, प्रवतिन्या द्वाभ्यामपि गुरुकम् । चतुर्गुरुकादयो वा छेदान्ताः १ प्रायश्चित्तविशेषा » भवन्ति, तद्यथा- भिक्षुण्या अपावृतद्वारे वसन्त्याश्चतुर्गुरुकम् , अभिषेकायाः षड्लघुकम् , गणावच्छे20 दिन्याः षड्गुरुकम् , प्रवर्तिन्याश्छेद इति ॥ २३२८ ।। अत्र दोपानाह तरुणे वेसित्थीओ, विवाहमादीसु होइ सइकारण । इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा ॥ २३२९ ॥ अस्या व्याख्या अनन्तरसूत्रवद् (गा० २३०४ ) द्रष्टव्या ॥ २३२९ ॥ १°नां' साध्वीनाम् त• डे० ॥ २°भे च त° त० डे० ॥ ३ °यः, तद्यथा-एकं त• डे० ॥ ४ मो० ले० विनाऽन्यत्र-कृत्वा ततश्चिलिमिलिकया अवघाटिते-पिहिने सति द्वारे, सूत्रे च अवघाटितशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राकृतत्वात् , 'एवम् अनन्त भा० त० डे० ॥ ५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ ६ त्राप्याज्ञा भा० ॥ ७-८-९-१० एतचिह्नमध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ ११ °व्या । तत्र गमनिकामात्रं तूच्यते-तत्रापावृतद्वारे उपाश्रये तिष्ठन्तीनां संयतीनां तरुणान् वेश्यास्त्रियो वा दृष्ट्वा विवाह-नृपति प्रवेशादिषु वा दृष्टेषु स्मृतिकरणम् उपलक्षणत्वात् कौतुकं निदानगमनं वा भवेत् । तरुणान् वाऽवभापमाणान् यदि सा प्रतिसेवितुमिच्छति ततो वतविराधना, अथ नेच्छति ततो बलादपि ते संयतीगुण्हीयुः। तथा स्तेना वा संयतीरपहरेयुः उपधि वा तासामपहरेयुरिति ॥ २३२९ । किञ्च-त. डे० ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३२७-३२ ] प्रथम उद्देशः । अने वि होंति दोसा, सावय तेणे य मेहुणट्ठी य । वणी अगारीसु य, दोचं संछोभणादीया || २३३० ॥ अन्येऽप्यभ्यधिका अत्र दोषा भवन्ति । तत्रापावृतद्वारे उपाश्रये श्वापदो वा स्तेनो वा चशब्दात् श्वानो वा प्रविशेयुः, तैश्च यद्विराधनां प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । 'मैथुनार्थी वा' उद्भामकः प्रविशेत् स बलादप्युदारशरीरां संयतीं गृह्णीयात् । व्रतिनीषु वा मध्ये 5 काचिद् व्रतिनी मोहोद्भवेन कस्यापि गृहिणी गृही वा तस्याः संयत्याः प्रसुप्तासु शेषसाध्वीषु रात्रौ काञ्चिदगारीं प्रेष्य दौत्यं कारापयेत् । अगारीषु वा मध्ये काचित् संछोभणं - परावर्त्तं कुर्यात्, संयतीसंस्तारके सा अगारी संयती सत्कानि वस्त्राणि प्रावृत्य शयीत संयती तु तदीयानि वस्त्राणि प्रावृत्यागारस्य सकाशं गच्छेदित्यर्थः । यस्मादेवमादयो दोषास्तस्मादपावृतद्वारे प्रतिश्रये साध्वीभिर्न स्थातव्यम् ॥ २३३० ॥ द्वितीयपदे तिष्ठेतां ( तिष्ठन्तीनां ) विधिमाह - ६६१ पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिं चिलिमिलि उवरिं । पडिहारि दारमूले, मत्तग सुवणं च जयणाए ।। २३३१ ॥ प्रस्तीर्यत इति प्रस्तारः, स च द्विधा - अन्तर्बहिश्च । 'अन्तः' अभ्यन्तरप्रस्तारे "बंधाहि "न्ति 'बधान' नियन्त्रय चिलिमिलीमुपैरिष्टात् । ततः प्रतिहारी द्वारमूले तिष्ठति । 'मात्रकं' मोकव्यु - त्सर्जनं वपनं च यतनया कर्त्तव्यमिति" निर्युक्तिगाथासमासार्थः ॥ २३३१ ॥ 15 अथ विस्तरार्थमाह असई य कवाडस्सा, बिदलकडादी अ दो कडा उभओ । फरमुट्ठियस्स सरिसो, बाहिरकडयम्मि बंधो उ ॥ २३३२ ॥ यदि द्वारं कपाटसहितं भवति ततः सुन्दरमेव । अथ कपाटं नास्ति ततः कपाटस्यासति १ मो० ले० विनाऽन्यत्र – गृहिणः पार्श्वे दूत प्रक्षेपयेत्, गृही वा कश्चित् तस्याः त० डे० । गृहिण दूतप्रेषयेत्, 'अगारिषु वा' गृहस्थेषु कश्चित् प्रसुप्तासु शेषसाध्वीषु रात्रौ कस्याश्चिद् व्रतिन्या दौत्यं कारापयेत्, दूतीं प्रेषयेदित्यर्थः । "संछोभण" ति परावर्त्तः, स चायम् - संयती संस्तारके अन्या काचिदविरतिका संयतीसत्कानि वस्त्राणि प्रावृत्य शयेत् ( शयीत ) संयती तु तदीयानि वस्त्राणि प्रावृत्यागारिणः समीपं गच्छेत्, अगारो वा संयती सकाशमागच्छेत् ॥ २३३० ॥ यस्मादेवमादयो दोषास्तस्मात् किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह- पत्थारो गाथा भा० । " संजती काइ मोहुब्भवेण गिहिणो दूतीं पेसेज्जा, अगारो वा रतिं पासुत्तासु दूतीं पेसेज्जा । 'संछोम' त्ति संजति संथारए अन्ना गिहत्थी संजतिश्चियाणि वत्थाणि पाउणित्ता तत्थ निवजेज्जा संजती गच्छेजा, अगारो वा संजेतिसगास एज्जा | जम्हा एते दोसा तम्हा " एयं पत्थारं अन्तो कृत्वा ” सूत्रमुच्चारयितव्यम् ॥ पत्थारो अंतो ० गाद्वा" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ २ष्ठतां किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह- त० डे० ॥ ३ भा० विनाऽन्यत्र - 'प्रस्तारः' कटः । स च द्वयोः स्थानयोर्विधातव्यः, तद्यथा--अन्त त० डे० ॥ ४ मो० ले० विनाऽन्यत्र - परि । प्रति° मा० । परि । विधिना कायिकी व्युत्सर्जनीया । प्रति त० डे० ॥ ५°ति द्वारगाथा' भा० ॥ 10 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू०१४ प्रस्तारः क्रियते । प्रस्तारः-कटः, स च 'द्विदलकटादिः' द्विदलं-वंशदलं तन्मयः कटो द्विदलकटः, आदिशब्दात् शरकटः परिगृह्यते । ईदृशौ द्वौ कटौ द्वारस्योभयतः क्रियेते, एकोऽभ्यन्तरे द्वितीयो बहिरित्यर्थः । ततः स्फरकस्य या मुष्टि:-ग्रहणस्थानं तस्य सदृशो बन्धो बाह्यकटेऽभ्यन्तरतो दातव्यः ॥ २३३२ ॥ स च बन्धः किम्मयः कर्तव्यः ? इत्याह सुत्ताइरञ्जुबंधो, दुछिड्ड अभितरिल्लकडयम्मि । हेट्ठा मज्झे उवरिं, तिनि व दो वा भवे बंधा ॥ २३३३ ॥ ___ सूत्रस्य आदिशब्दाद् वल्कस्य वा ऊर्णाया वा या रज्जुः-दवरकः परिस्थूरो दृढश्च तस्य बन्धो बाहकटे स्फरमुष्टिकसदृशो दातव्यः, अभ्यन्तरकटे च द्वे छिद्रे कर्तव्ये । कथम् ? इति अत आह-"हेट्ठा मज्झे उवरिं" ति मध्ये स्फरकमुष्टेरनुश्रेण्यामेवाधस्तादुपरि च च्छिद्रद्वयं 10 कर्त्तव्यम्, ततो बाह्यकटस्य स्फरकमुष्टौ दवरको दृढं प्रवेश्य पश्चादभ्यन्तरकटस्य द्वयोरपि च्छिद्रयोः प्रक्षिप्य ततोऽभ्यन्तरेण निष्काश्य निबिडं बन्धनीयः, ईशा द्वौ वा त्रयो वा बन्धा बध्यन्ते । अभ्यन्तरप्रस्तारस्य चोपरि चिलिमिली बध्यते, सा च तान् बन्धान् गोपयति । तथा च ते बन्धा बध्यन्ते यथा प्रतिहारी मुक्त्वा अन्या काचिन्न जानाति ॥ २३३३ ॥ आह सा प्रतिहारी कीडग्गुणान्विता स्थापनीया ? इति उच्यते कारण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था । परिणय भुत्त कुलीणा, अभीरु वायामियसरीरा ॥ २३३४ ॥ कायेनोपचिता न कृशशरीरा, 'गीतार्था' सम्यगधिगतसूत्रार्था, परिणता वयसा बुद्ध्या च, "भुत्त" त्ति भुक्तभोगिनी, 'कुलीना' विशुद्धकुलोत्पन्ना, 'अभीरुः' न कुतश्चिदपि स्तेनोद्भामका देर्विविधां बिभीषिकां दर्शयतोऽपि बिभेति, "वायामियसरीर" ति व्यायामः-खेदस्तत्सहशरीरा 20 समर्थदेहा इत्यर्थः, ईदृशी खलु संयतीनां प्रतिहारी स्थापयितव्या ॥ २३३४ ॥ सा च किं करोति ? इत्याह आवासगं करित्ता, पडिहारी दंडहत्थ दारम्मि। तिनि उ अप्पडिचरिउं, कालं घेत्तूण य पवेए ॥ २३३५ ॥ 'आवश्यक' प्रतिक्रमणं कृत्वा प्रतिहारी दण्डकहस्ता अग्रद्वारे तिष्ठति । ततश्च "तिन्नि उ" 25 ति तिस्रः संयत्यः कालप्रत्युपेक्षणार्थ निर्गच्छन्ति । "अप्पडिचरियं" ति प्रादोषिकं कालं यथा साधवः प्रतिजागरितं गृहन्ति तास्तथा न इति गृहीत्वा च कालं ततः प्रवर्तिन्या निवेदयन्ति । निवेद्य च खाध्याये प्रस्थापिते सर्वा अपि खाध्यायं कुर्वन्ति ॥ २३३५ ॥ कथम् ? इत्याह 15 १°स्तारो नाम 'द्विदलकटादिकः कटः' द्विदलं भा० ॥ २°न्धोऽभ्यन्तरकटे दात भा० ॥ ३ °यः कथं वा कर्त्तव्यः? इत्युच्यते भा० ॥ .४ सौत्रः-सूत्रमयः परिस्थूरो द्रढीयांश्च या रजुः-दवरक आदिशब्दाद् वल्कलमय और्णिको वा तस्य बन्धः स्फर भा० ॥ ५°धा दातव्या भवन्ति । अभ्य भा०॥ ६'ति । सा च प्रतिहारी द्वारमूले संस्तारयति ॥ २३३३ ॥ आह मा० । “सां य पडिहारी दारमूले सुवतीति वाक्यशेषः" इति चूर्णौ । “पडिहारी दारमूले ठाह" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ भाष्यगाथाः २३३३-४०] प्रथम उद्देशः । ओहाडि यदाराओ, पोरिसि काऊण पढमए जामे । पडिहारि अग्गदारे, गणिणी उ उवस्सयमुहम्मि ॥ २३३६ ॥ अवघाटित-चिलिमिलिकया पिहितं द्वारम्-अग्रद्वारं यासां ता अवघाटितद्वाराः सर्वा अपि प्रथमे यामे सूत्रपौरुषीं कृत्वा ततो मध्ये प्रविशन्तीति वाक्यशेषः । पौरुषी कुर्वाणानां च प्रतिहारी अग्रद्वारे तिष्ठति, 'गणिनी तु' प्रवर्तिनी उपाश्रयस्य मुखे-मूलद्वारे स्थिता खाध्यायं 5 करोति ॥ २३३६ ॥ उभयविसुद्धा इयरी, पविसंतीओ पवत्तिणी छिवइ । सीसे गंडे वच्छे, पुच्छइ नामं च का सि त्ति ॥ २३३७॥ उभयं-संज्ञा कायिकी च तद् विशुद्धं व्युत्सृष्टं याभिस्ता उभयविशुद्धाः, आहितान्यादेराकृतिगणत्वात् पूर्वापरनिपातव्यत्ययः, 'इतराः' संयत्यो यदा प्रविशन्ति तदा प्रविशन्तीरेव ताः 10 प्रवर्तिनी 'किमेषा संयती ? उत न ?' इति परिज्ञानार्थं 'शीर्षे' शिरसि ‘गण्डे' कपोले 'वक्षसि' हृदये एवं त्रिषु स्थानेषु परिस्पृशति नाम च पृच्छति-'का?' किं नामासि त्वम् ? इति ॥२३३७॥ स या' च तत्र प्रवेशसमये विलम्बते या वा सुप्तानामप्रस्तावे निर्गच्छति सा वक्तव्या किं तुज्झ इक्कियाए, धम्मो दारं न होइ इत्तो उ। न य निढरं पि भन्नइ, मा जियगद्दत्तणं हुजा ॥ २३३८॥ 15 किं तवैकस्या एव घों येनैवं निर्गच्छसि विलम्बसे वा! द्वारमितो न भवति, एवमन्यव्यपदेशेन मधुरवचनैः सा वक्तव्या । न च "निहुरं" कठोरं स्फुटमेव भण्यते, "मा जियगदत्तणं" ति 'जितलज्जत्वं' निर्लज्जता मा भूदिति हेतोः ॥ २३३८ ॥ ततश्च-» सव्वासु पविट्ठासुं, पडिहारि पविस्स बंधए दारं । _ मज्झे य ठाइ गणिणी, सेसाओ चक्कवालेणं ॥ २३३९ ॥ . सर्वासु संयतीषु प्रविष्टासु प्रतिहारी प्रविश्य द्वार पूर्वोक्तविधिना बध्नाति । 'मध्ये च' मध्यभागे 'गणिनी' प्रवर्तिनी ‘तिष्ठति' संस्तारकं प्रस्तृणातीत्यर्थः, शेषास्तु संयत्यः 'चक्रवालेन' मण्डलिकया प्रवर्तिनी परिवार्य संस्तृणन्ति यथा परस्परं सुप्तानां न सङ्घट्टो भवति ॥ २३३९॥ आह किमर्थं न सङ्घट्टः क्रियते ? उच्यते सइकरण कोउहल्ला, फासे कलहो य तेण तं मुत्तुं । किढि तरुणी किढि तरुणी, अभिक्ख छिवणा य जयणाए॥२३४०॥ 'स्पर्शे' अन्योऽन्यं सङ्घट्टने भुक्ता-ऽभुक्तानां स्मृतिकरण-कौतूहले भवतः । 'कलहश्च' अससडं च परस्परं भवति, यथा-अहं त्वया हस्तेन वा पादेन वा सङ्घट्टिता । तेन हेतुना 'त' स्पर्श मुक्त्वा 'किढी' स्थविरा सा प्रथमतः संस्तारकं करोति, ततस्तदन्तरिता तरुणी, पुनः स्थविरा, पुनस्तरुणी इत्येवं संस्तारकप्रस्तरणविधिः । 'यतनया च' यथा तासां स्मृतिकरणादि so १-प्रदत्तचिलिमिलीकं द्वारं यासां भा० ॥ २०भा० प्रतावेतचिह्नगतमवतरणं गाथा तट्टीका च "सइकरण." २३४० गाथानन्तरं वर्तन्ते। दृश्यतां पत्र ६६४ टिप्पणी १ । चूर्णिकृताऽपीयं गाथा “सइकरण." गाथानन्तरं व्याख्याताऽस्ति । 23 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू०१४ नोपजायते तथा 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः स्पर्शना प्रवर्त्तिन्या कर्तव्या । प्रतिहारी च द्वारमूले संस्तारयति ॥ २३४०॥ कथम् ? इति अत आह् तणुनिदा पडिहारी, गोविय घेत्तुं च सुबइ तं दारं । जग्गंति वारएण व, नाउं आमोस-दुस्सीले ॥ २३४१॥ 5 तन्वी-स्तोका निद्रा यस्याः सा तथा एवंविधा प्रतिहारी तद् द्वारं बद्ध्वा तथा प्रन्थि गोपयित्वा स्वपिति यथा अन्याः संयत्यो न जानन्त्युद्धाटयितुम् । हस्तेन वा तद् दवरकप्रान्तं गृहीत्वा खपिति । अथ तत्र आमोषाः-स्तेना दुःशीला वा अभिपतन्ति ततस्तान् ज्ञात्वा वारकेण रात्री जाग्रति ॥ २३४१ ।। अथ मात्रकयतनामाह __कुडमुह डगलेसु व काउ मत्तगं इट्टगाइदुरुढाओ । 10 लाल सराव पलालं, व छोटु मोयं तु मा सद्दो ॥ २३४२ ॥ 'कुटमुखे' घटकण्ठके डगलेषु वा मात्रकं 'कृत्वा' स्थापयित्वा तस्य मात्रकस्योपरि 'शरावं' मल्लकं स्थाप्यते, तस्य च बुध्ने च्छिद्रं क्रियते, तत्र च्छिद्रे वस्त्रमयी 'लाला' लम्बमाना चीरिका पलालं वा प्रक्षिप्यते, 'मा मोकं व्युत्सृजन्तीनां शब्दो भवतु' इति कृत्वा । तत उभयपार्श्वत इष्टकाः क्रियन्ते, आदिशब्दात् पीठकादिपरिग्रहः, तत्रारूढाः सत्यो रात्रौ मात्रके मोकं 16 व्युत्सृजन्ति ॥ २३४२ ॥ अथ स्वपनयतनामाह सोऊण दोनि जामे, चरिमे उज्झेत्तु मोयमत्तं तु । कालपडिलेह झातो, ओहाडियचिलिमिली तम्मि ॥ २३४३ ॥ सुप्त्वा द्वौ 'यामौ' प्रहरौ चरमे यामे उत्थाय मोकमात्रकम् 'उज्झित्वा' परिष्ठाप्य ततः कालं-वैरात्रिकं प्राभातिकं च प्रत्युपेक्ष्य स्वाध्यायो यतनया क्रियते । 'तस्मॅिश्च' चरमे यामे 20 'अवघाटितचिलिमिलीक' चिलिमिलिकॉपिहितं द्वारं भवति, शेषं तु कटद्वयमपनीयत इति भावः ॥ २३४३ ॥ ताश्च कालं गृहीत्वा न प्रतिजाग्रति, कुतः ? इत्याह संकापदं तह भयं, दुविहा तेणा य मेहुणट्टी य । देह-धिइदुब्बलाओ, कालमओ ता न जग्गंति ॥ २३४४ ॥ यदि ताः प्रतिश्रयद्वारे स्थित्वा कालं प्रतिजागृयुः ततः सागारिकस्यान्यस्य वा शङ्कापदं 25 भवति--किं मन्ये एषा कञ्चिदुद्रामकं प्रतीक्षते यदेवमत्रोपविष्टा जागर्ति? इति । 'तथा' 1 ईति कारणान्तरसमुच्चये, » भयं च तासामल्पसत्त्वतयोपजायते । 'द्विविधाश्च स्तेनाः' शरीर १ कर्तव्या ॥२३४०॥ या च तत्राप्रस्तांवे निर्गच्छति या वा प्रथमतः प्रवेशसमये विलबते सा वक्तव्या भा० । एनदनन्तरं "किं तुज्य एक्याए." २३३८ इति गाथा तट्टीका च वर्तते। टीकासमनन्तरं च "तणुनिद्दा." गाथा वर्तते ॥ २ ~ एतन्मध्यगतः पाठः भा० पुस्तके २३३३ गाथान्तः वर्तते । दृश्यता पत्र ६६२ टिप्पणी ६ ॥ ३ एतदनन्तरं मो० ले प्रत्योः ग्रन्थानम्-१००० इति वर्तते ॥ ४ तस्मिंश्च यामे चिलि मिलिका अवघाटिता-प्रदत्ता भवति भा० ॥ .५ °कया अवघाटितं-पिहि° त• डे० ॥ ६॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २३४१-४८] प्रथम उद्देशः । ६६५ स्तेनोपधिस्तनभेदास्तत्रागच्छेयुः, ते संयतीमुपधिं वा अपहरेयुः, मैथुनार्थिनो वा संयतीमुपसर्गयेयुः । देहेन-शरीरेण धृत्या च-मानसावष्टम्भेन दुर्बलास्ता अतः संयत्यः कालं 'न जाग्रति' न प्रतिचरन्तीति ॥ २३४४ ॥ किच कम्मेहि मोहियाणं, अभिवंताण को ति जा भणइ । संकापदं व होजा, सागारिअ तेणए वा वि ॥ २३४५॥ 5 यदि रात्रौ 'कर्मभिर्मोहिताः' घनकर्मकर्कशतया समुदीर्णमोहाः केचन पापीयांसः संयतीः शीलात् च्यावयितुमभिद्रवेयुस्ततः को विधिः ? इति अत आह-तेषामभिद्रवतां या संयती 'कोऽयम् ?' इति ब्रूते तस्याश्चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम्, आज्ञादयश्च दोषाः, शङ्कापदं वा सागारिकस्य स्तेनकस्य वा, अपिशब्दाद् मैथुनार्थिनो वा भवेत् ।। २३४५ ॥ इदमेव भावयति अन्नो वि नूणमभिपडइ इत्थ वीसत्थया तदट्ठीणं । सागारि सेज्झगा वा, सइत्थिगाओ व संकेजा ।। २३४६ ॥ तदर्थिनो नाम तद्-विवक्षितं स्तन्यं मैथुनं वा सेवितुं ये समायातास्तेषां संयतीमुखात् 'कः ?' इति वचनं श्रुत्वा शङ्कापदमुपजायते-नूनमन्योऽपि कश्चिदत्रोद्भामकः स्तेनो वाऽभिपतति येनैवमेषा 'कः ?' इति प्रश्नयति । ततश्च तेषां तत्र प्रविशतां विश्वस्तता भवति-न भयमुत्पद्यते । यस्तु 'सागारिकः' शय्यातरः "सेज्झगा वा" प्रतिवेश्मिकास्ते एकका वा 15 सस्त्रीका वा शङ्कां कुर्युः-किं मन्ये एतासां संयतीनां दत्तसङ्केतः कोऽप्युद्धामकोऽत्रायाति ॥ २३४६ ॥ तेणियरं व सगारो, गिण्हे मारेज सो व सागरियं । पडिसेहे छोभ झामण, काहिंति पदोसतो जं च ।। २३४७॥ अथवा 'कः ?' इति वचनं श्रुत्वा सागारिक उत्थाय स्तेनम् ‘इतरं वा' मैथुनार्थिनं गृह्णी-20 याद् मारयेद्वा, 'स वा' म्तेनो मैथुनार्थी वा सागारिकं मारयेत् । सागारिके च मारिते सति तदीयाः संज्ञातकाः 'प्रतिषेधं तद्रव्या-ऽन्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुयुः । स्तेनादयः शय्यातरेण गृहीताः सन्तः संयतीनां "छोभं" ति अभ्याख्यानं दद्युः--अस्माकं भाटिरेताभिर्गृहीता आसीत् । "झामण" त्ति प्रद्विष्टा वा सन्तः शय्यातरगृहं संयतीनां वा प्रतिश्रयं प्रदीपयेयुः । प्रद्वेषतो वा यदन्यदपि ते करिष्यन्ति तन्निप्पन्नमापद्यते । तस्मात् 'कः ?' इति न वक्तव्यम् ॥२३४७।। 25 कथं पुनस्तर्हि वक्तव्यम् ? इत्याह-- संकियमसंकियं वा, उभयट्टि नच बेंति अहिलिंतं । छु त्ति हडि त्ति अणाहा!, नत्थि ते माया पिया वा वि ॥ २३४८॥ उभयं-स्तैन्यं मैथुनं च तदर्थिनं शङ्कितमशङ्कितं वा 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'अभिलीयमानम्' आयान्तमेवं ब्रुवते-"छु त्ति हडि ति" अनुकरणशब्दावेतौ, छुछुरिति वा हडिरिति वा 30 १ केचिदभिवेयुः तेषामभिद्र भा० ॥२°ह खेत्त झा ता० ॥ ३ ते तदीयसंज्ञा त० डे० ॥ ४ र्युः । “छोभ"त्ति इतरे शय्यातरेण गृहीताः संयतीनामभ्याख्यानं भा०॥ ५सय एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अपावृतद्वारोपाश्रयप्र० सू०१४ वक्तव्यमित्यर्थः । यद्वा 'हे अनाथ!' निःखामिक! किं ते नास्ति माता वा पिता वा यदेवमस्यां वेलायां पर्यटसि ! इति ॥ २३४८॥ भंजंतुवस्सयं णे, छिन्नाल जरग्गगा सगोरहगा। नत्थि इहं तुह चारी, नस्ससु किं खाहिसि अहन्ना! ॥ २३४९ ॥ । 'भञ्जन्ति' विध्वंसन्ते “णे" 'अस्माकमुपाश्रयं 'छिन्नालाः' तथाविधा दुष्टजातीयाः 'जरद्वाः' जीर्णबलीवर्दाः 'सगोरथकाः' कल्होडकयुक्ताः, अतो नास्त्यत्र त्वद्योग्या चारिः, 'नश्य' पलायख, किमत्र खादिष्यसि 'अधन्य!' हे निर्भाग्य ! त्वम् ? । प्राकृतत्वाद् गाथायां दीर्घत्वम् । एतेनान्यव्यपदेशभजया तस्य प्रविशतः प्रतिषेधः कृतो भवति ॥ २३४९ ॥ द्वितीयपदमाह अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। दव्वस्स व असईए, ताओ व अपच्छिमा पिंडी ॥ २३५० ॥ ___ अध्वनिर्गतादयः संयत्यः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् वसतिं मार्गयित्वा 'असति' अलभ्यमाने गुप्तद्वारे उपाश्रयेऽपावृतद्वारेऽपि वसन्ति । तत्र यदि कपाटमवाप्यते ततः सुन्दरमेव, अथ न प्राप्यते ततः 'द्रव्यस्य' कपाटस्यासति कण्टिकादिकमप्यानीय द्वारं पिधातव्यम् । यावद् 'अपश्चिमा' सर्वान्तिमा यतना "ताओ व पिंडि" ति ताः सर्वा अपि पिण्डीभूय परस्परं करबन्धं 11 कृत्वा दण्डकव्यग्रहस्तास्तिष्ठन्तीति ॥ २३५० ।। एनामेव नियुक्तिगाथां व्याचष्टे अनत्तो व कवाडं, कंटिय दंड चिलिमिलि बहिं किढिया । पिंडीभवंति सभए, काऊणऽन्नोन्नकरबंधं ॥ २३५१ ॥ कपाटयुक्तस्य द्वारस्याभावेऽन्यतोऽपि कपाटं याचित्वा द्वारं पिधातव्यम् । अथ याच्यमानमपि तन्न लब्धं ततो वंशकटो याचितव्यः । तस्यालामे 'कण्टिकाः' कण्टकशाखाः । तासा20 मप्राप्तौ दण्डकैस्तिरश्चीनैश्चिलिमिलिका क्रियते । तावतां दण्डकानामभावे वस्त्रचिलिमिलिका बध्यते । बहिरमूले 'किढिकाः' स्थविराः क्रियन्ते । अथ कोऽपि तत्र तासामभिद्रवणं करोति ततस्तादृशे सभये' सोपसर्गे सत्यन्योन्यं करबन्धं कृत्वा पिण्डीभवन्ति ॥ २३५१ ॥ कथं पुनः ? इत्यत आह अंतो हवंति तरुणी, सदं दंडेहि ते पतालिंति । अह तत्थ होंति वसभा, वारिंति गिही व ते होउं ॥ २३५२ ॥ 'अन्तः' मध्ये तरुण्यो गृहीतदण्डकहस्तास्तिष्ठन्ति, बहिस्तु स्थविराः, ताश्चोभय्योऽपि 'शब्द' बृहद्भनिना बोलं कुर्वन्ति येन भूयाँल्लोको मिलति, ताँश्च स्तेन-मैथुनार्थिन उपद्रवतो दण्डकैः प्रताडयन्ति । अथ तत्र वृषभाः सन्निहिता भवन्ति ततस्ते गृहिणो भूत्वा तान् वारयन्ति ॥ २३५२ ॥ १ किं काहिसि ता० विना ॥ २ “दव्वं ति कवाडं" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ ३°ना ताः सर्वा अपि "पिंडि"त्ति पिण्डीभूय तिष्ठन्ति येन ताः कोऽप्यभिद्रोतुं न शकुयादिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २३५० ॥ अथैनामेव व्याचले कां० । °ना ताः सर्य अपि "पिंडि" त्ति सूचकत्वात् सूत्रस्य पिण्डीभवन्ति ॥ २३५० ॥ एतदेव व्याचष्टे भा० ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३४९-५६] प्रथम उद्देशः । ६६७ सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए १५ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानामपावृतद्वारे उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः निग्गंथदारपिहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी। __ अइगमणे निग्गमणे, संघट्टणमाइ पलिमंथो ॥ २३५३ ।। निर्ग्रन्था यदि द्वारपिधानं कुर्वन्ति ततो लघुको मासः प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च दोषाः । विराधना त्वियमू-कोऽपि साधुः 'अतिगमनं' प्रवेशं करोति, अन्येन च साधुना द्वारपिधानाय कपाटं प्रेरितम् , तेन च तस्य शिरसोऽभिघाते परितापादिका ग्लानारोपणा । एवं निर्गमनेऽपि केनचिद् बहिःस्थितेन पश्चान्मुखं कपाटे प्रेरिते शीर्ष भिधेत । तथा सजन्तूनां सट्टनम्, आदिशब्दात् परितापनमपद्रावणं वा द्वारे पिधीयमानेऽपात्रियमाणे वा भवेत् । 10 'परिमन्थश्च' सूत्रार्थव्याघातो भूयोभूयः पिदधतामपावृण्वतां च भवति ॥ २३५३ ॥ ऐनामेव नियुक्तिमाथां व्याख्यानयति घरकोइलिया सप्पे, संचाराई य होति हिदुवरि । ढकित वंगुरिते, अमिघातो नित-इंताणं ॥ २३५४ ॥ द्वारस्साधस्तादुपरि वा गृहकोकिला वा सो वा 'सञ्चारिमा वा' कीटिका-कुन्यु कंसारि-15 कादयो जीवा भवेयुः, आदिशब्दात कोकिलादयो वा सम्पातिमसत्त्वाः, ततो द्वारं ढकयताम् 'अपावृण्वतां च' उद्घाटयतां "नित-इंताणं" ति निर्गच्छतां प्रविशतां वा गृहकोकिलादिवाण्यमिघातो भवेत् , सर्प-वृश्चिकादिमिर्वा साधूनामेवामिघातो भवेत् । द्वितीयपदे दारं पिदध्यादपि ॥ २३५४ ॥ कथम् ? इत्याह सिय कारणे पिहिजा, जिण जाणग गच्छि इच्छिमो नाउं। 20 आमाढकारणम्मि उ, कप्पइ जयणाइ उठएउं ॥ २३५५ ॥ 'स्यात्' कदाचित् 'कारणे' पुष्टालम्बने पिदध्यादपि द्वारम् । "किं पुनस्तत् कारणम् ! इत्याह-» 'जिनाः' जिनकल्पिकाः 'ज्ञायकाः' तस्य कारणस्य सम्यग वेत्तारः परं द्वारं न पिदधति । शिष्यः प्राह-'गच्छे' गच्छवासिनामिच्छामो वयं विधि ज्ञातुम् । सूरिराहआगाढं-प्रत्यनीक-स्तेनादिरूपं यत् कारणं तत्र 'यतनया' वक्ष्यमाणलक्षणया गच्छवासिनां द्वारं 25 स्थगयितुं कल्पते । एष नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २३५५ ॥ अथैनामेव विवृणोति जाणंति जिणा कजं, पत्ते विउ तं न ते निसेवंति। थेरा विउ जाणंती, अणागयं केइ पत्तं तु ॥ २३५६ ॥ १ मनं कुर्वतोऽपि केन का०॥ २ एतदेव व्याख्या भा० को० ॥ ३ °न्थुमकोटकाद भा० ॥ ४ एतचिह्नमध्यवर्ती पाठ का पुस्तक एवं वर्तते । ५ सम्यग् वेदिनः परं ते द्वारपिधानं नासेवन्ते । “गच्छ"त्ति यो गच्छवासी स कारणे यतनया द्वारं पिदधाति । शिष्यः प्राह-इच्छामो वयं कारणं हातुम् । सूरिराहआगाढं-प्रत्यनीक-स्तेनादिरूपं यत् कारणं तत्र यतनया स्थगयितुं कल्पते । एष संप्रहगाथासमासार्थः भा०॥ ६ पत्तं पिउ ता.॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [घटीमात्रकप्रकृते सू०१६ 'जिनाः' जिनकल्पिकास्तत् कार्यमनागतमेव जानन्ति येन द्वारं पिधीयते, तच्च प्रत्यनीकस्तेनादिकं वक्ष्यमाणलक्षणम् , तस्मिंश्च प्राप्तेऽपि 'तद्' द्वारपिधानं ते भगवन्तो न निषेवन्ते, निरपवादानुष्ठानपरत्वात् । 'स्थविरा अपि च' स्थविरकल्पिकाः सातिशयश्रुतज्ञानाधुपयोगबलेन केचिदनागतमेव जानन्ति, 'केचित् तु' निरतिशयाः प्राप्तमेव तत् कायें जानते, ज्ञात्वा च 6 यतनया तत् परिहरन्ति ॥ २३५६ ॥ अहवा जिणप्पमाणा, कारणसेवी अदोसवं होइ। थेरा वि जाणग च्चिय, कारण जयणाए सेवंता ।। २३५७ ॥ अथवा "जिण जाणम" ति (गा० २३५५) नियुक्तिगाथापदमन्यथा व्याख्यायतेजिनः-तीर्थकरस्तस्य प्रामाण्यात् कारणे द्वारपिधानसेवी अदोषवान् भवति । जिनानां हि भग10वतामियमाज्ञा-कारणे यतनया द्वारपिधानं सेवमानाः स्थविरकल्पिका अपि 'ज्ञायका ऐव' सम्यग्विधिज्ञा एव ॥ २३५७ ॥ आह किं तत् कारणं येन द्वारं पिधीयते ? उच्यते पडिणीय तेण सावय, उब्भामग गोण साणऽणप्पज्झे । सीयं च दुरधियासं, दीहा पक्खी व सागरिए ॥ २३५८ ॥ उद्घाटिते द्वारे प्रत्यनीकः प्रविश्याहननमपद्रावणं वा कुर्यात् । 'स्तेनाः' शरीरस्तेना उप16 घिस्तेना वा प्रविशेयुः । एवं 'श्वापदाः' सिंह-व्याघ्रादयः 'उद्भामकाः' पारदारिकाः 'गौः' बलीवर्दः 'श्वानः' प्रतीताः, एते वा प्रविशेयुः । “अणप्पज्झे" त्ति 'अनात्मवशः' क्षिप्तचित्तादिः स द्वारेऽपिहिते सति निर्गच्छेत् । शीतं वा दुरधिसहं हिमकणानुषक्तं निपतेत् । 'दीर्घा वा' सर्पाः 'पक्षिणो वा' काक-कपोतप्रभृतयः प्रविशेयुः । सागारिको वा कश्चित् प्रतिश्रयमुद्धाटद्वारं दृष्ट्वा तत्र प्रविश्य शयीत वा विश्रामं वा गृहीयात् ॥ २३५८ ॥ 20 एक्ककम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए ॥ २३५९ ॥ द्वारमस्थगयतामनन्तरोक्ते 'एकैकस्मिन्' प्रत्यनीकप्रवेशादौ स्थाने चत्वारो मासाः 'उद्धाताः' लघवः प्रायश्चित्तं भवति, आज्ञादयश्चात्र दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया भावनीया ॥ २३५९ ॥ यदुक्तम् "चत्वारो मासा उद्धाताः" इति तदेतद् बाहुल्यमङ्गीकृत्य द्रष्टव्यम् , 25 अतोऽपवदन्नाह अहि-सावय-पञ्चत्थिसु, गुरुगा सेसेसु हाँति चउलहुगा । तेणे गुरुगा लहुगा, आणाइ विराहणा दुविहा ॥ २३६०॥ १°का अधीतसातिशयश्रुतास्तत् का० ॥ २ त• डे. का. विनाऽन्यत्र-'ते' जिनकल्पिका न निषेवन्ते, निरपवादानुष्ठानपरत्वात् तेषां भगवताम् । 'स्थविरा भा०॥ ३त्ति पद मो. ले० विना ॥ ४°ति । कुतः? इत्याह-"थेरा वि" इत्यादि । जिनानां कां ॥ ५एव ॥२३५७ ॥ अत्र शिष्यः पृच्छति-इच्छामो वयं तत् कारणं शातुं येन द्वारपिधानमासेव्यते, उच्यते भा०॥ ६ अनन्तरोक्ते एकैकस्मिन् स्थानेऽकारणे यदि द्वारं न स्थगयन्ति तदा चत्वारो कां० ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३५७-६२ ] प्रथम उद्देशः । ६६९ अहिषु श्वापदेषु प्रत्यर्थिषु च - प्रत्यनीकेषु द्वारेऽपिहिते सत्युपाश्रयं प्रविशत्सु प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । ' शेषेषु' उमकादिषु सागारिकान्तेषु चतुर्लघुकाः । स्तेनेषु गुरुका लघुकाश्च भवन्ति । तत्र शरीरस्तेनेषु चतुर्गुरुकाः, उपधिस्तेनेषु चतुर्लघुकाः । आज्ञादयश्च दोषाः । विराधना च द्विविधा – संयमविराधना आत्मविराधना च । तत्र संयमविराधना स्तेनैरुपधावपहृते तृणग्रहणमग्निसेवनं वा कुर्वन्ति, सागारिकादयो वा तप्तायोगोलकल्पाः प्रविष्टाः सन्तो निषदन शयनादि कुर्वाणा बहूनां प्राणजातीयानामुपमर्दं कुर्युः । आत्मविराधना तु प्रत्यनी कादिषु परिस्फुटैवेति ॥ २३६० ॥ आह ज्ञातमस्माभिर्द्वारपिधानकारणं परं काऽत्र यतना ? इति • नद्यापि वयं जानीमः, D. उच्यते उवओगं हेडुवरिं, काऊण ठर्वित वंगुरं अ । 10 पेहा जत्थ न सुज्झइ, पमजिउं तत्थ सारिंति ॥ २३६१ ॥ श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरधस्तादुपरि चोपयोगं कृत्वा द्वारं स्थगयन्ति वा अपावृण्वन्ति वा । यत्र चान्धकारे 'प्रेक्षा' चक्षुषा निरीक्षणं न शुध्यति तत्र रजोहरणेन दारुदण्डकेन वा रजन्यां प्रमृज्य 'सारयन्ति' द्वारं स्थगयन्तीत्यर्थः, उपलक्षणत्वादुद्घाटयन्तीत्यपि द्रष्टव्यम् ॥ २३६१ ॥ ॥ अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतं समाप्तम् ॥ घटी मात्र क कृ त म् सूत्रम् - sues निग्गंथीणं अंतो लित्तं घडिमत्तयं धारित वा परिहरितए वा १६ ॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह ओहाडियचिलिमिलिए, दुक्खं बहुसो अहंति निंति विय । आरंभो घडिमत्ते, निसिं व वृत्तं इमं तु दिवा ॥। २३६२ ।। १ द्वारमस्थगयतां प्रत्ये° कां० ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ क्षणमप्रकाशत्वान्न शुध्यति तत्र रजोहरणेन दारुदण्डकेन वा प्रमृज्य भा० ॥ ४ अवघाटिता-बद्धा चिलिमिली यत्र तद् अवघाटितचिलिमिलीकं तत्र मात्र भा० ॥ ५ पिहिते सति कां० ॥ ६ 'प्रवेशाः कर्त्तव्याः, ततो दुःखमार्थिका अतियान्ति निर्ग° कां० ॥ 15 चिलिमिलिकया उपलक्षणत्वात् कटद्वयेन च 'अवघाटिते' पिनद्धे सति द्वारे रजन्यां मात्रकमन्तरेण बहिः कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थं बहुशो निर्गम-प्रवेशेषु दुःखमार्थिका निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च, अतोऽयं घटीमात्रकसूत्रस्यारम्भः । यद्वा 'निशायां' रात्रौ मात्रके यथा कायिकी व्युत्सृज्यते तथा अनन्तरसूत्रेऽर्थतः प्रोक्तम् इदं तु सूत्रं दिवा मात्रक विधिमधिकृत्यो- 25 च्यत इति ॥ २३६२ ॥ 20 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ घटीमात्रकप्रकृते सू० १७ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या – कल्पते 'निर्ग्रन्थीनां ' त्रतिनीनामन्तर्लिप्तं 'घटीमात्रकं' घटीसंस्थानं मृन्मयभाजनविशेषं धारयितुं वा परिहर्त्तु वा । 'धारयितुं नाम' स्वसत्तायां स्थापयितुम् । 'परिहर्तुं' परिभोक्तम् । एष सूत्रार्थः ॥ अंथ निर्युक्तिः घडिमचंतो लित्तं, निग्गंथीणं अगिण्हमाणीणं । चउगुरुगाऽऽयरियादि, तत्थ वि आणाइणो दोसा ।। २३६३ ॥ 'अन्तः' मध्ये 'लिप्तं' लेपेनोपदिग्धं घटीमात्रकं निर्मन्थीनामगृह्णतीनां चतुर्गुरुकाः । " आयरियाइ" ति आचार्य एतत् सूत्रं प्रवर्त्तिन्या न कथयति चतुर्गुरु, प्रवर्त्तिनी आर्यिकाणां न कथयति चतुर्गुरु, आर्यिका न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु । ' तत्रापि' घटीमात्रकस्याग्रहणे द्विविप्रतिपादकस्य च प्रस्तुतसूत्रस्य अकथनेऽप्रतिश्रवणे चाज्ञादयो दोषाः ॥ २३६३ ॥ 5 10 20 आह स घटीमात्रकः कीदृशो भवति ? इत्याह 'सः' इति घटीमात्रकः पानकेनात्यन्तभावितत्वादवश्यं न परिश्रवतीत्यपरिश्रावी, 'मसृणः' सुकुमारः, प्रकाशं प्रकटं वदनं मुखमस्येति प्रकाशवदनः, 'मृन्मयः' मृत्तिकानिष्पन्नः, 'लघुकः' 15 खल्पभारः, शुचि-पवित्रं चोक्षमित्यर्थः सितं श्वेतं न कृष्णवर्णाद्युपेतं दर्दरपिधानं - वस्त्रमयं बन्धनं यस्य स शुचि - सित-दर्दरपिधानः । एवंविधः 'अरहसि' प्रकाशप्रदेशे वसत्यां तिष्ठति ॥ २३६४ ॥ अपरिस्साई मसिणो, पगासवदणो स मिम्मओ लहुओ । सुइ- सिय- दद्दरपिहणो, चिट्ठह अरहम्मि वसहीए ॥ २३६४ ॥ सूत्रम् — नो at aaus निग्गंथाणं अंतो लित्तं घडिमत्तयं धारितए वा परिहरितए वा १७ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अत्र निर्युक्तिः साहू गिण्हइ लहुगा, आणाइ विराहणा अणुवहिति । विइयं गिलाणकारण, साहूण वि सोअवादीसु ॥ २३६५ ।। यदि साधुर्घटीमात्रकं गृह्णाति तदा चत्वारो लघुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया । तत्र " अणुवहि" त्ति साधूनामयमुपधिर्न भवति । किमुक्तं भवति : - 25 यत् किल साधूनामुपकारे न व्याप्रियते तद् नोपकरणं किन्त्वधिकरणम्, जं जुज्जइ उवयारे, उवगरणं तं सि होइ उवगरणं । अइरेगं अहिगरणं, (ओघनिर्युक्ति गा० ७४१ ) इति वचनाद्, यच्चाधिकरणं तत्र परिस्फुटैव संयमविराधना । आत्मविराधना त्वतिरिक्तो - पघिभारवहनादनागाढपरितापनादिकी । “बिइयं" ति द्वितीयपदमत्र भवति । किं पुनः तत् ? १ अथ माष्यम् मा० कां० ॥ २ 44 एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० कां० नास्ति ॥ ३ अत्र भाष्यम् भा० कां० ॥ ४ का । अत्र द्वितीयपदं भवति - ग्लानकारणे साधूनां शौचदादिषु वा सागारिकेषु घटीमात्रकग्रहणं भवति । एतदुत्तरत्र कां० भा० ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३६३-६८] प्रथम उद्देशः । ६७१ इत्याह-ग्लानकारणे समुत्पन्ने साधूनामपि घटीमात्रकग्रहणं भवेत् , अथवा शौचवादिषु शिष्येषु देशविशेषेषु वा । एतदुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २३६५॥ अथ किमर्थमत्र चतुर्लघु प्रायश्चित्तमुक्तम् ? अत्रोच्यते दुविहपमाणतिरेगे, सुत्तादेसेण तेण लहुगा उ । मज्झिमगं पुण उवहि, पडुच्च मासो भवे लहुओ ॥ २३६६ ॥ द्विविधं-द्विप्रकारं गणना-प्रमाणभेदाद् यत् प्रमाणं ततोऽतिरिक्ते उपघौ सूत्रादेशेन चतुर्लघुका भवन्ति । यत उक्तं निशीथसूत्रे जे भिक्खू गणणाइरित्तं वा पमामाइरित्तं वा उवहिं धरेइ से आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्याइयं ( उ० १६ सू० ३९) इति । ' अतः सूत्रादेशेन चतुर्लघुकम् । यदा तूपधिनिष्पन्नं चिन्त्यते तदा अयं घटीमात्रको मध्य-10 मोपधिभेदेष्ववतरतीति कृत्वा मध्यमं पुनरुपछि प्रतीत्य लघुको मासो भवति ।। २३६६ ॥ अथ "धारयितुं वा परिहतुं वा" इति पदद्वयव्याख्यानमाह धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगो।। दुविहेण वि सो कप्पइ, परिहारेणं तु परिभोत्तुं ॥ २३६७ ॥ इह द्विधा परिहारः, तद्यथा-धारणा परिहरणा च । तत्र धारणा 'अभोगः' अव्यापारणम् , 15 संयमोपबृंहणार्थ खसत्तायां स्थापनमित्यर्थः । परिहरणा नाम 'तस्य' घटीमात्रकादेरुपकरणस्य 'परिभोगः' व्यापारणम् । एतेन द्विविधेनापि परिहारेण स घटीमात्रको निर्ग्रन्थीनां परिभोक्तुं कल्पते । १ स च दिवसं यावत् पानकपूर्णस्तिष्ठति ॥ २३६७ ॥ अथ किमर्थमयं गृह्यते ? इत्याह-- उहाहो वोसिरणे, गिलाणआरोवणा य धरणम्मि । बिइयपयं असईए, भिन्नोऽवह अद्धलित्तो वा ।। २३६८ ॥ संयतीमिरुत्सर्गतो द्रव्यप्रतिबद्धायां वसतौ स्थातव्यम् । तत्र घटीमात्रैकाग्रहणे सागारिकाणां पश्यतां बहिः कायिकीव्युत्सर्जने 'उड्डाहः' प्रवचनलाघवमुपजायते । अथ कायिक्या वेगं धारयन्ति ततो धरणे 'ग्लानारोपणा' परिताप-महादुःखादिका भवति । » यत एवमतो ग्रहीतव्यो घटीमात्रकः संयतीभिः । द्वितीयपदमत्र- 'असति' अविद्यमाने घटीमात्रके यदि वा 25 विद्यते घटीमात्रकः परं 'भिन्नः' भन्नः अर्द्धलिप्तो वा अत एव 'अवहः' अव्याप्रियमाणः ततो बहिर्गत्वा कायिकी यतनया व्युत्सर्जनीया । निम्रन्थाः पुनरप्रतिबद्धोपाश्रये तिष्ठन्ति अतस्ते घटीमात्रकं न गृहन्ति, कारणे तु गृहन्त्यपि ॥ २३६८ ॥ यत आह१ भवेदपि, शौच त० डे० ॥ २ डे० विनाऽन्यत्र-षु शैक्षेषु मो० ॥ ३ एतन्मभ्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४°त्रकं न गृहन्ति तदा सागा भा० ॥ ५ एतदन्तर्गतः पाठः को० पुस्तक एव वर्तते ॥ ६ अलभ्यमाने भा०॥ ७°नः 'अवहो वा' अव्याप्रियमाणः 'अर्द्धलिसो वा' नाद्यापि परिपूणों लिप्तस्ततो बहिर्गत्वा कायिकी यतनया व्युत्सर्जनीयां ॥ २३६८ ॥ अथ साधूनां द्वितीयपदमाह भा० ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ सनियुक्ति-लघुमाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ चिलिमिलिकाप्र० सू० १८ लाउय असइ सिणेहो, ठाइ तहिं पुव्वभाविय कडाहो । सेहे व सोयवायी, धरंति देसि व ते पप्प ॥ २३६९ ॥ 'अलाबुपात्रकस्याभावे ग्लानार्थं च स्नेहे ग्रहीतव्ये पूर्वभावितं कटाहकं घटीमात्रकं वा ग्रहीतव्यम् । यतस्तत्र गृहीतः 'स्नेहः' घृतं 'तिष्ठति' न परिश्रवति । शैक्षो वा कश्चित् साधूनां 5मध्येऽत्यन्तं शौचवादी स शौचार्थ घटीमात्रकं गृह्णीयात् । 'देशी वा' देशविशेषं शौचवादिबहुलं प्राप्य घटीमात्रकं धारयन्ति, यथा गोल्लविषये ।। २३६९॥ अथास्यैव ग्रहणे विधिमाह गहणं तु अहागडए, तस्सऽसई होइ अप्पपरिकम्मे । तस्सऽसइ कुंडिगादी, घेत्तुं नाला विउजंति ॥ २३७० ॥ प्रथमतो यथाकृतस्य घटीमात्रकस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् । तस्यासत्यल्पपरिकर्मणि ग्रहणं भवति । 10 अथाल्पपरिकर्मापि न प्राप्यते ततः 'कुण्डिका' कमण्डलुम् आदिशब्दादपरमपि तथाविधं बहुपरिकर्मयोग्यं गृहीत्वा नालानि वियोज्यन्ते ॥ २३७० ॥ ॥ घटीमात्रकप्रकृतं समाप्तम् ॥ चि लि मि लि का प्रकृतम् सूत्रम्15 कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चेलचिलिमि लियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा १८॥ अस्य सम्बन्धमाह सागारिपच्चयट्ठा, जह घडिमत्तो तहा चिलिमिली वि। रत्तिं व हेट्टऽणंतर, इमा उ जयणा उभयकाले ॥ २३७१ ॥ 20. सागारिकः-गृहस्थस्तस्य प्रत्ययार्थ यथा घटीमात्रकस्तथा चिलिमिलिकाऽपि धारयितव्या । यद्वा यदधस्तात् सूत्रं ततः 'अनन्तरैस्मिन्' अपावृतद्वारोपाश्रयसूत्रे रात्रौ चिलिमिलिकादिप्रदानलक्षणा यतना भणिता, 'इयं तु' प्रस्तुतसूत्रोपात्ता यतना अस्मिन् 'उभयकाले' रात्रौ दिवा च कर्त्तव्या इति ॥ २३७१ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या कल्पते निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा चेलचिलिमिलिकां धारयितुं वा परिहतुं वा । एष सूत्रा25 क्षरार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः १ देसं व भा० ता० ॥ २ अलाबुमात्रकमन्यदतिरिक्तं नास्ति ग्लाननिमित्तं च स्नेहो ग्रहीतव्यस्ततोऽलाबुकस्याभावे यत् पूर्वभावितं कटाहकं तत्र घृतं ग्रहीतव्यम् । यतस्तत्र गृहीतं सत् तद् घृतं तिष्ठति न परिश्रवति । शैक्षो वा कश्चित् साधूनां मध्येऽत्यन्तं शौचवादी घटीमात्रकं धारयेत् देशं वा शौचवादिनं प्राप्य घटीमात्रकं धारयति यथा गोल्लविषये ॥२३६९॥ गहणं भा० ॥ ३ रसूत्रे यतना भणि भा० ॥ ४ धारयितुं' स्वसत्तायां स्थापयितुं परिहत्तुं' परिभोक्तुं वा । एष कां० ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३६९-७५ ] प्रथम उद्देशः । धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगो । चेलं तु पहाणारं, तो गहणं तस्स नऽन्नासि ।। २३७२ ।। धारणता नाम 'अभोगः' अव्यापारणम्, परिहरणा तु 'तस्य' चिलिमिलिका ख्यस्योपकरणस्य 'परिभोगः' व्यापारणमुच्यते । आह वस्त्र - रज्जु -कट वल्क- दण्डभेदात् पञ्चविधा चिलिमिलि का वक्ष्यते तत् कथं सूत्रे चेलचिलिमिलिकाया एव ग्रहणम् ? इत्याह- 'चेलं तु' वस्त्रं रज्वादीनां 5 मध्ये बहुतरोपयोगित्वात् प्रधानतरं ततस्तस्यैव सूत्रे ग्रहणं कृतम्, न 'अन्यासां' रज्जु चिलिमिलि - कादीनाम् || २३७२ || अथ चिलिमिलिकाया एव भेदादिस्वरूपनिरूपणाय द्वारगाथामाह - भेदो य परूवणया, दुविहपमाणं च चिलिमिलीणं तु । ---- उपभोगो उ दुपक्खे, अगहणऽधरणे य लहु दोसा ।। २३७३ ॥ प्रथमतश्चिलिमिलीनां भेदो वक्तव्यः । ततस्तासामेव प्ररूपणा कर्त्तव्या । ततो द्विविधप्र - 10 माणं गणना- प्रमाणभेदात् चिलिमिलिकानामभिधातव्यम् । ततश्चिलिमिलिकाविषय उपभोगः 'द्विपक्षे' संयत-संयतीपक्षद्वयस्य वक्तव्यः । चिलिमिलिकाया अग्रहणेऽधारणे च चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम्, दोषाश्चाज्ञादयो भवन्ति । एष द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः || २३७३ ॥ अथैनामेव प्रतिद्वारं विवरीषुराह - सुत्तमई रजुमई, बागमई दंड - कडगमयई य । [ नि. ६५१-५८] पंचविह चिलिमिली पुण, उवग्गहकरी भवे गच्छे ॥ २३७४ ॥ सूत्रमयी रज्जुमयी वल्कमयी दण्डकमयी कटकमयी चेति पञ्चविधा चिलिमिली । एषा पुनः 'गच्छे' गच्छ्वासिनामुपग्रहकरी भवति ।। २३७४ ॥ ६७३ उक्त भेदः । अथ प्ररूपणा क्रियते - सूत्रस्य विकारः सूत्रमयी, सा च वस्त्रमयी वा कम्बलमयी वा प्रतिपत्तव्या । रज्जोर्विकारो रज्जुमयी, ऊर्णादिमयो दवरक इत्यर्थः । वल्कं नाम - 20 शणादिवृक्षत्वग्रूपम्, तेन निर्वृत्ता वल्कमयी । दण्डकः - वंश - वेत्रादिमयी यष्टिस्तैर्निर्वृता दण्डकमयी । कटः - वंशकटादि:, तन्निष्पन्ना कटकमयी ॥ गता प्ररूपणा । अथस्याः पञ्चविधाया अपि चिलिमिलिकाया यथाक्रमं गाथात्रयेण द्विविधप्रमाणमाह- हत्थपणगं तु दीहा, तिहत्थ रुंदोनिया असइ खोमा । एत पमाण गणणेकमेक गच्छं व जा वेढे ।। २३७५ ।। प्रमाण - गणनाभेदाद् द्विविधं प्रमाणम् । तत्र प्रमाणप्रमाणमाश्रित्य सूत्रमयी चिलिमिलिका हस्तपञ्चकं दीर्घा त्रीन् हस्तान् 'रुन्दा' विस्तीर्णा भवति । एषा चोत्सर्गतस्तावदौर्णिकी । और्णिक्याः ‘असति' अलाभे क्षौमिकी ग्रहीतव्या । वल्कचिलिमिलिकाया अप्येतदेव प्रमाणम् । गणनाप्रमाणं पुनरधिकृत्यैकैकस्य साधोरेकैका यावत्यो वा गच्छं वेष्टयन्ति तावत्यो भवन्ति । " १ 'यस्योपग्रहकोपक भा० ॥ २. कडगमई वाग- दंडगमई य ता० ॥ ३ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४ थासामेव पञ्चानामपि यथाक्रमं कां ॥ ५ का भवति । अथवा यावत्यो गच्छं सकलमपि वेष्टयन्ति तावत्यो गृह्यन्ते, न प्रत्येकमेकैकस्या ग्रहणनियम इति । यद्वा "गच्छं व जा वेढे" त्ति या प्रातिहारिकी भा० ॥ 15 25 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चिलिमिलिकाप्र० सू० १८ यद्वा या प्रातिहारिकी गच्छं सकलमपि वेष्टयति सा गणनयैका, प्रमाणेन त्वनियता ॥२३७५॥ असतोण्णि खोमिरजू, एकपमाणेण जाउ वेढेइ । कडहूवागादीहिं, पोत्तऽसइ भए व वागमई ॥ २३७६ ॥ रज्जुचिलिमिलिका पूर्वमौर्णिकदवरकरूपा । तस्या अभावे क्षौमिकदवरकात्मकाऽपि कर्तव्या । 5 सा च सेर्वेषामपि साधूनां प्रत्येकं » गणनयैकैका, प्रमाणेन तु हस्तपञ्चकदीर्घा भवति; गणाबच्छेदिकहस्ते वा एक एव दवरको भवति यः सकलमपि गच्छं । शीतादिरक्षायै - वेष्टयति । कडहूर्नाम-वृक्षविशेषः, तस्य यद् वल्कम् आदिशब्दात् पलाश-शणादिसम्बन्धीनि वल्कानि, तैर्निर्वृत्ता वल्कमयी, सा च "पोत्तऽसई" त्ति वस्त्र चिलिमिलिकाया अभावे 'भये वा' स्तेनादिसमुत्थे गृह्यते ॥ २३७६ ॥ देहाहिओ गणणेको, दुवारगुत्ती भये व दंडमई । संचारिमा य चउरो, भय माणे कडमसंचारी ।। २३७७॥ देहं-शरीरं तस्य प्रमाणादधिको यो दण्डकः स देहाधिकः, स च समयपरिभाषया देहात् चतुरङ्गुलाधिकप्रमाणा नालिका भण्यते, एतावता प्रमाणप्रमाणमुक्तं द्रष्टव्यम् । स च देहाधिको दण्डको गणनयैकैकस्य साधोरेकैको भवति । तैश्च दण्डकैः श्वापदादिभये 'द्वारगुप्तिः' द्वारस्य 16 स्थगनं क्रियते । एषा दडमयी द्रष्टव्या । एताश्चादिमाश्चतस्रश्चिलिमिलिका वसतेर्वसर्ति क्षेत्रात् क्षेत्रं सचरन्तीति सञ्चारिमा उच्यन्ते । कटकमयी तु असञ्चारिमा । 'माने च' प्रमाणे द्विविधेऽपि तो कटकमयीं चिलिमिलीं 'भज' विकल्पय, अनियतप्रमाणेत्यर्थः । तत्र प्रमाणमङ्गीकृत्य यावता वक्ष्यमाणं कार्य पूर्यते तावत्प्रमाणा कटकचिलिमिली, गणनया तु योकः कटः कार्य न प्रतिपूरयति ततो द्विन्यादयोऽपि तावत्सङ्ख्याकाः कटा ग्रहीतव्या यावद्भिस्तत् कार्य पूर्यते 20॥ २३७७ ॥ गतं द्विविधप्रमाणम् । अथ 'उपभोगो द्विपक्षे' इति पदं विवृणोति सागारिय सज्झाए, पाणदय गिलाण सावयभए वा । अद्धाण-मरण-चासासु चेव सा कप्पए गच्छे ॥ २३७८ ॥ सांगारिके पश्यति खाध्याये विधातव्ये प्राणदयायां विधेयायां ग्लानार्थ श्वापदभये वा उत्पनेऽध्वनि मरणे वर्षासु चैव 'सा' चिलिमिलिका कल्पते 'गच्छे' गच्छवासिनां साधूनां परिभो3B तुम् । एष नियुक्तिमाथासमासार्थः ॥ २३७८ ॥ अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति पडिलेहोभयमंडलि, इत्थी-सागारियट्ठ सागरिए । घाणा-ऽऽलोग ज्झाए, मच्छिय-डोलाइपाणेसु ॥ २३७९ ॥ १°गादीहि व, पो. भा. कां० ता० ॥ २-३ एतन्मध्यगतः पाठः भा० का० नास्ति ॥ ४°या नालिका भण्यते । एतत् प्रमाणप्रमाणमुक्तम् । गणनाप्रमाणेन त्वेकैकस्य साधोरेकैको नालिकादण्डको भवति । तैश्च दण्डकैः श्वापदादिभये वाशब्दाद् अन्यस्मिन् वा तथाविधे कार्ये 'द्वार' कां•॥ ५ तावान् कटो ग्रहीतव्यः, गण° कां ॥ ६ सागारिके स्वाध्याये प्राणदयायां ग्लानार्थ श्वापदभये वाऽध्वनि भा० ॥ ७च सहगाथा भा० कां ॥ ८°य-टोला ता० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३७६-८१] प्रथम उद्देशः । प्रतिलेखनां कुर्वन्तो द्वारे चिलिमिलिकां कुर्वते, मा सागारिका उत्कृष्टोपधि द्राक्षुः मा वा उड्डञ्चकान् कार्युरिति कृत्वा, "उभयमंडलि" त्ति समुद्देशनमण्डल्यां खाध्यायमण्डल्यां चोड्डाहरक्षणार्थम्, "इत्थीसागारिय?" त्ति स्त्रीरूपप्रतिबद्धायां च वसतौ 'स्त्रीसागारिकाणामालोको मा भूत्' इत्येतदर्थ चिलिमिली दीयते, "सागारिए" ति सागारिकद्वारे चिन्त्यमाने एतत् कारणजातं चिलिमिलिकाग्रहणे द्रष्टव्यम् । “घाणाऽऽलोग ज्झाए" ति स्वाध्यायद्वारे यत्र मूत्र-5 पुरीषादेरशुभा घ्राणिरागच्छति, शोणित-चर्बिकाणां वा यत्रालोकः, चेटरूपाणि वा यत्र कुतूहलेनालोकन्ते तत्र चिलिमिलीं दत्त्वा स्वाध्यायः क्रियते । मक्षिका-डोलादयो वा प्राणिनो यत्र बहवः प्रविशन्ति, डोलाः-तिड्डका उच्यन्ते, तत्र प्राणदयार्थमेतासामेव चिलिमिलिकानामुपभोगः कर्त्तव्य इति ॥ २३७९ ॥ उभओसहकज्जे वा, देसी वीसत्थमाइ गेलन्ने । 10 __ अद्धाणे छन्नासइ, भओवही सावए तेणे ॥ २३८० ॥ उभयं-संज्ञा-कायिकीलक्षणं चिलिमिलिकया आवृतो ग्लानः सुखं व्युत्सृजति, 'औषधकार्ये वा' औषधं वा तस्य प्रच्छन्ने दातव्यम् , ‘मा मृगो अवलोकन्ताम्' इति कृत्वा, अतश्चिलिमिलिका दातव्या । एवं "देसि" ति यत्र देशे शाकिन्या उपद्रवः सम्भवति तत्र ग्लानः प्रच्छन्ने धारयितव्यः । विश्वस्तो वा ग्लानः प्रच्छन्ने सुखमपावृतस्तिष्ठति । आदिशब्दाद् दुग्धा- 15 दिकं ग्लानार्थमेव गीतार्थेन स्थापितम् , तच दृष्ट्वा ग्लानो यदा तदा वा अभ्यवहरेदिति कृत्वा तत्रान्तरे चिलिमिलिका दीयते यथाऽसौ तन्न पश्यति । एवमादिको ग्लानत्वे चिलिमिलिकानामुपभोगः । अध्वनि प्रच्छन्नस्थानस्याभावे चिलिमिलिकां दत्त्वा समुद्दिशन्ति वा सारोपधिं वा प्रत्युपेक्षन्ते । श्वापदेभ्यो वा यत्र भयं स्तेनेभ्यो वा यत्रोपधेरपहरणशङ्का तत्र दण्डकचिलिमिलिकया कटकचिलिमिलिकया वा दृढं द्वारं पिधाय स्थीयते ॥ २३८० ॥ छन्न-वहणट्ठ मरणे, वासे उज्झक्खणी य कडओ य । उल्लुबहि विरल्लिंति क, अंतो बहि कसिण इतरं वा ॥ २३८१ ॥ 'मरणे' मरणद्वारे यावद् मृतकं न परिष्ठाप्यते तावत् प्रच्छन्ने चिलिमिलिकया आवृतं ध्रियते । तथा दण्डकचिलिमिलिकया मृतकमुत्क्षिप्य वहनं कर्त्तव्यम् । तथा वर्षासु जीमूते वर्षति यस्या दिशः सकाशात् "उज्झक्खणीय" ति पवनप्रेरिता उदककणिकाः समागच्छेयुः 25 तस्यां कटकचिलिमिली कर्तव्या, वर्षासु वा भिक्षाचर्यादौ गतानां वृष्टिकायेनार्दीकृतमुपधिं रज्जुचिलिमिलिकायां 'विरल्लयन्ति' विस्तारयन्तीत्यर्थः । तत्र यः कृत्स्नः-सारोपधिस्तम् 'अन्तः' मध्ये विस्तारयन्ति, इतरः-अकृत्लः स्वल्पमूल्य उपधिस्तं बहिर्विस्तारयन्ति । एनां पञ्चविधां चिलिमिलिकामगृहृतोऽधारयतश्चतुर्लघुकाः, या च ताभिर्विना संयमा-ऽऽत्मविराधना तन्निष्पनमपि प्रायश्चित्तम् ॥ २३८१ ॥ तथा ___30 १ "टोला तिड्डया" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ २ गाः पश्येयुः' इति भा० का० ॥ ३ "देसि त्ति जधा गोल्लविसए डाइणिभएण गिलाणो ण पायडिजई" इति विशेषचूर्णी ।। ४°वाः सम्भवन्ति तत्र डे० ॥ ५ अथ साध्वीरधिकत्यात्रैव विशेषमाह का० ॥ 20 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ वंभव्ययस्म गुत्ती, दुहत्थसंघाडिए मुहं भोगो। वीसत्थचिट्ठणादी, दुरहिगमा दुविह रक्खा य ॥ २३८२ ॥ उपाश्रये वर्तमाना आर्यिकाश्चिलिमिलिकया नित्यकृतया तिष्ठन्ति, यतो ब्रह्मव्रतस्य गुप्तिरेवं कृता भवति । द्विहस्तविस्तराया अपि सङ्घाटिकायाः सुग्वं भोगो भवति । किमुक्तं भवति ?---- 5 प्रतिश्रये हि तिष्ठन्त्यस्ता द्विहस्तविस्तरामेव सङ्घाटिकां प्रावृण्वते न निहस्तां न वा चतुर्हस्ताम् । ततश्चिलिमिलिकायां वहिर्बद्धायां तयाऽपि प्रावृतया विश्वस्ताः-निःशङ्काः सत्यः सुखं स्थाननिपदन-त्वग्वर्तनादिकाः क्रियाः कुर्वन्ति । 'दुरधिगमाश्च' दुःशीलानामगम्या भवन्ति । द्विविधा च रक्षा कृता भवति, संयम आत्मा च रक्षितो भवतीति भावः ॥ २३८२ ॥ ॥ चिलिमिलिकाप्रकृतं समाप्तम् ॥ MEANIma द क ती र प्र कृतम् सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइ. त्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए, वा उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्रवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए १९ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह__ मा में कोई दच्छिइ, दच्छं व अहं ति चिलिमिली तेणें । दगतीरे वि न चिट्टइ, तदालया मा हु संकेजा ॥ २३८३ ॥ मा मां 'कोऽपि' सागारिको द्रक्ष्यति, अहं वा तं सागारिकं मा द्राक्षमिति. कृत्वा चिलिमिली क्रियते । अत्रापि दकतीरेऽनेनैव कारणेन न तिष्ठति यत् 'तदालयाः' दकतीराश्रिता जन्तवो मा शङ्कन्तामिति ॥ २३८३ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या25 नो कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'दकतीरे' उदकोपकण्ठे 'स्थातुं वा' ऊर्द्धस्थित स्यासितुं 'निषत्तुं वा' उपविष्टस्य स्थातुं 'त्वग्वर्त्तयितुं वा' दीर्घ कायं प्रसारयितुं 'निद्रायितुं वा' सुखप्रतिबोधावस्थया निद्रया शयितुं 'प्रचलायितुं वा' स्थितस्य खप्तुम् , अशनं वा पानं वा खादिमं १ वा निपन्नस्य स्थातुं 'नि भा० । वा तिर्यक्पतितस्य वा स्थातुं 'नि कां० ॥ २ वा' उत्थितस्य निद्रायितुम् , अशनं भा० ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३८२-८६] प्रथम उद्देशः । ६७७ वा स्वादिमं वाऽऽहारयितुम् , उच्चारं वा प्रश्रवणं वा खेलं वा सिङ्घानं वा परिष्ठापयितुम् , 'स्वाध्यायं वा' वाचनादिकं कर्तुम् , 'धर्मजागरिकां वा' « धर्मध्यानलक्षणां » 'जागरितुं' र कर्तुम् धातूनामनेकार्थत्वात् , अत्र पाठान्तरम् --"झाणं वा झाइत्तए" धर्मध्यानमनुस्मर्तुमिति, I» 'कायोत्सर्ग वा' ५ चेष्टा-ऽभिभवभेदाद् द्विविधकायोत्सर्गलक्षणं » स्थानं 'स्थातुं' कर्तुमित्यर्थः । एष सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः दगतीर चिट्ठणादी, जूयग आयावणा य बोधव्या । लहुओ लहुया लहुया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ २३८४ ॥ दकतीरे स्थानादीनि कुर्वतः प्रत्येकं लघुको मासः । 'यूपके' वक्ष्यमाणलक्षणे वसतिं गृह्णाति चतुर्लघुकाः । 'आतापनों' प्रतीतामपि दकतीरे कुर्वतश्चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं बोद्धव्याः । तत्रापि प्रत्येकमाज्ञादयो दोषाः ॥ २३८४ ॥ अत्र दकतीरस्य प्रमाणे बहव आदेशाः सन्ति तानेव दर्शयति नयणे पूरे दितु, तडि सिंचण वीइमेव पुढे य । अच्छंते आरण्णा, गाम पसु-मणुस्स-इत्थीओ ॥ २३८५ ॥ नोदकः प्राह-'नयणि" त्ति उदकाकराद् यत्रोदकं नीयते तद् दकतीरम् , यदि वा यावन्मानं नदीपूरेणाक्रम्यते तद् दकतीरम् , यद्वा यत्र स्थितैर्जलं दृश्यते तद् दकतीरम् , 15 अथवा यावन्नद्यास्तटी भवति, यदि वा यत्र स्थितो जलस्थितेन शृङ्गकादिना सिच्यते, अथवा यावन्तं भूभागं वीचयः स्पृशन्ति, यदि वा यावान् प्रदेशो जलेन स्पृष्ट एतद् दकतीरम् । सूरिराह-यानि त्वया दकतीरलक्षणानि प्रतिपादितानि तानि न भवन्ति, किन्त्वारण्यका ग्रामेयका वा पशवो मनुप्याः स्त्रियो वा जलार्थिन आगच्छन्तः साधुं यत्र स्थितं दृष्ट्वा तिष्ठन्ति निवर्तन्ते वा तद् दकतीरमुच्यते ।। २३८५ ॥ एतदेव सविशेषमाह 20 सिंचण-वीई-पुट्ठा, दगतीरं होइ न पुण तम्मत्तं । ओतरिउत्तरिउमणा, जहि दट्ट तसंति तं तीरं ॥ २३८६ ॥ नयन-पूरप्रभृतीनां सप्तानीमादेशानां मध्याच्चरमाणि त्रीणि सिञ्चन-वी चि-स्पृष्टलक्षणानि दकतीरं भवन्ति, न पुनस्तावन्मात्रमेव, किन्त्वारण्यका ग्रामेयका वा तिर्यङ्-मनुष्या जलपानाद्यर्थमवतरीतुमनसः पीत्वा वा उत्तरीतुमनसो जलचरा वा यत्र स्थितं साधुं दृष्ट्वा 'त्रस्यन्ति' बिभ्यति 5 चलन्ति वा तदव्यभिचारि दकतीरमुच्यते ॥ २३८६ ॥ तत्र च स्थान-निषदनादिकरणे दोषान् दर्शयति अहिगरणमंतराए, छेदण ऊसास अणहियासे अ । १-२ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥३ एतचिह्नगतः पाठः भा० नास्ति । “धम्मजागरियं णाम झाणं । काउस्सग्गो दुविधो-चेट्ठाए अभिभवे य ॥ एष सूत्रार्थः, अधुना नियुक्तिविस्तरः" इति चूर्णौ ॥ ४°नां करोति चतुर्लघु । तत्रा भा० ॥ ५ °षाः, आज्ञादिदोषनिष्पन्न पृथक् प्रायश्चित्तमिति भावः॥२३८४ ॥ कां० ॥ ६°नां पदानां मध्यात् तावदाद्यानि चत्वारि दकतीरमेव न भवन्ति, चरमाणि तु त्रीणि का० ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ __ आहणण सिंच जलचर-खह-थलपाणाण विनासो ॥ २३८७ ॥ दकतीरे तिष्ठतः साधोः 'अधिकरणं' वक्ष्यमाणलक्षणं वहूनां च प्राणिनामन्तरायं भवति । तथा साधोः सम्बन्धिनीनां पादरेणूनां 'छेदनकाः सूक्ष्मावयवरूपा उड्डीय पानीये निपतेयुः, यद्वा 'छेदनं नाम' ते प्राणिनः साधुं दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्ताः सन्तो हरितादिच्छेदनं कुर्वन्तो व्रजन्ति । 5 "उस्सासे"ति उच्छ्वासविमुक्ताः पुद्गला जले निपतन्ति ततो अप्कायविराधना, यदि वा तेषां प्राणिनां तृषार्तानाम् 'उच्छासः' च्यवनं भवेत् मरणमित्यर्थः । “अणहियासे य" ति 'अनधिसहाः' तृषामसहिष्णवस्तेऽतीर्थेन जलमवतरेयुः, साधुर्वा कश्चिद् 'अनधिसहः' तृषार्तः पानीयं पिवेत् । दुष्टगवा-ऽश्वादिना वा तस्याहननं भवेत् । दकतीरस्थितं वा अनुकम्पया प्रत्यनीकतया वा कश्चिद् दृष्ट्वा सिञ्चनं कुर्यात् । जलचर-खचर-स्थलचरप्राणिनां च वित्रासो भवेत् ॥२३८७।। 10 तत्राधिकरणं व्याचित्यासुराह-- दट्ठण वा नियत्तण, अभिहणणं वा वि अन्नतूहेणं । गामा-ऽऽरन्नपसूणं, जा जहि आरोवणा भणिया ॥ २३८८ ॥ साधुं दृष्ट्वाऽऽरण्यकादिप्राणिनां निवर्तनं भवति, अभिहननं वा परस्परं तेषां भवेत् , “अन्ननूहेणं" ति अन्यतीर्थेन वा ते जलमवतरेयुः, तेषां च ग्रामा-ऽऽरण्यपशूनां निवर्तनादौ १ पटका. 15 योपमर्दसम्भवात् “छक्काय चउसु लहुगा" (गा० ४६१ गा० ८७९ च ) इत्यादिना - या यत्रारोपणा भणिता सा तत्र द्रष्टव्या । एवं नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २३८८ ।। अथैनानेव विवृणोति-- पडिपहनियनमाणम्मि अंतरायं च तिमरणे चरिमं । सिग्घगइतनिमित्तं, अभिघातो काय-आयाए । २३८९ ॥ 30 आरण्यकाः तिर्यञ्चः तिर्यस्त्रियो वा 'पानीयं पिबामः' इत्याशया तीर्थाभिमुखमावान्तः साधु दकतीरस्थितं दृष्ट्वा प्रतिपथेनं निवर्तन्ते, निवर्तमाने च तत्रारण्यकप्राणिगणे साधोरधिकरणं भवति । तेषां च तृषार्तानामन्तरायं चशब्दात् परितापना च कृता भवति । तत्रैकस्मिन् परितापिते च्छेदः, द्वयोस्तु मूलम् , त्रिवनवस्थाप्यम् , चतुर्यु परितापितेषु पाराञ्चिकम् , » एतेनान्त रायपदं व्याख्यातम् । “तिमरणे चरिमं" ति यद्येकस्तृषातों म्रियते ततो मूलम् , द्वयोर्पियमा25 णयोरनवस्थाप्यम् , त्रिषु म्रियमाणेषु साधोः पाराञ्चिकम् , एतेनोच्छासपदं विवृतम् । तथा तं १ 'खहवरपाणाण ता. विना ॥२ °न्धिना चलितोत्क्षेपेण यदुद्धतं रजस्तस्य 'छेद भा० । ३ यद्वा "ऊसासे"ति सूचकत्वात् सूत्रस्य 'उच्चास' च्यवनं प्राणव्यपगमस्पा प्राणिनां तृषार्तानां भवतीत्यर्थः । “अणहियासे य" ति कश्चिदसहिष्णुस्तृषितो धृतिदुलः पानीयं भा० ॥ ४ °सात् व्य° भा० विना ॥ ५॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का . नास्ति । ६° सङ्ग्रहगा भा० का० ॥ ७°न-यतः पथा आगताः तेनैव पथा निव' कां०॥ ८°न्ते ततो तेषामन्तरायं भा०॥ ९त्रिषु परितापिनेषु अनवस्थाप्यम् । एतेनान्तरायद्वारं व्या भा० ॥ १०चूर्णों विशेषचूर्णा च एतचिह्नमध्यवयसूचकः पाठो न वर्तते । ११ सद्वारं वि भा० ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाय्यगाथाः २३८७--९१] प्रथम उद्देशः । ६७९ साधुं दृष्ट्वा ते तिर्यञ्च भीताः शीघ्रगत्या पलायमाना अन्योऽन्यं वा अभिघातयेयुः, पटकायानां वा तन्निमित्तं शीघ्रं धावमाना अभिघातं वियुः, तत्र “छक्काय चउलु लहुगा" ( गा० ४६१ गा० ८७९ च ) इत्यादिकं कायविराधनानिष्पन्नं प्रायश्चितम् । दृप्ता वा तिर्यञ्चस्तस्यैव साधोराहचनादिनाऽऽत्मविराधनां कुर्युः । अनेनाहननपदं व्याख्यातम् ॥ २३८९ ॥ " अणहिया से ( गा० २३८७ ) अन्नतुहेणं ( गा० २३८८ ) " ति पदद्वयं भावयति--- अत-पवातो सो चैव य मग्गो अपरिभुक्त्त हरियादी । ओवग कूडे मगरा, जई घुटे तसे य दुहतो वि ।। २३९० ॥ अर्थं तृषामसहिष्णवस्ते गवादयो अतटेन वा अतीर्थेन अन्यतीर्थेन वाऽवतरेयुः छिन्नटके वा प्रपातं दद्युः ततः परितापनाद्युत्था सेवारोपणा । अथवा 'स एव' अभिनवो मार्गः प्रवर्तते तत्र चापरिभुक्तेनावकाशेन गच्छन्तो हरितादीनां छेदनं कुर्युः तत्र तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् 110 एतेन च्छेदनपदं व्याख्यातम् । " ओवग" त्ति गर्त्ता तस्यां वा अतीर्थेनावतीर्णाः सन्तः - ते पतेयुः, अतीर्थे वा केनचिलुब्धकेन कूटं स्थापितं भवेत् तेन कूटेन बद्धा विनाशमभुवते, अतीर्थेन वा जलमवतीर्णा मर्करादिभिः कवलीकियन्ते, तथा “जइ घुटे" चि अन्यतीर्थेनातीर्थेन वा साधुनिमित्तमवतीर्णास्त्रसविरहितेऽकाये यावतो घुण्टान् कुर्वन्ति तावन्ति चतुर्लधूनि । “तसे य” त्ति अचित्तेऽकाये यदि द्वीन्द्रियमश्नाति ततः पड्लघुकम्, त्रीन्द्रिये प- 15 चतुरिन्द्रिये च्छेदः, पञ्चेन्द्रिये एकस्मिन् मूलं द्वयोरनवस्थाप्यं त्रिषु पञ्चेन्द्रियेषु पाराचिकम् । “दुहओ वि" ति यत्राप्कायोऽपि सचित्तः द्वीन्द्रियादयश्च तत्र सास्तत्र द्वाभ्याम्अष्काय-त्रसविराधनाभ्यां निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । सर्वत्रापि च द्वीन्द्रियेषु षट्सु त्रीन्द्रियेषु पञ्चसु चतुरिन्द्रियेषु चतुर्षु वेन्द्रियेषु त्रिषु पाराञ्चिकम् || २३९० ॥ एते तावदारण्यकतिर्यक्मुत्था दोषा उक्ताः । अथ ग्रामेयकतिर्यक्समुत्थान् दोषानुपदर्शयति रुकम्, गामेय कुच्छ्रियाऽकुच्छिया य एकेक दुडुदुड्डा य । दुट्ठा जह आरण्णा, दुगुंछियऽदुगुछिया नेया ।। २३९१ ॥ कास्तिर्यञ्च द्विविधाः - 'कुत्सिताः ' जुगुप्सिताः 'अकुत्सिताः' अजुगुप्सिताः । जुगुप्सिता गर्दभादयः, अजुगुप्सिता गवादयः । पुनरेकैके द्विविधाः – दुष्टा अदुष्टाश्च । तत्र १ कुर्युः तत्र परिताप महादुःखादिका ग्लानारोपणा || २३८९ ॥ अथ “अन्नतूहेणं” ति पदं भाव भा० । " दित्ता तिरिया अभिहणेज्जा साधु, तत्थ आतविराधणा " परियाव महादुक्खे" ( गा० १८९९ ) । काय. विराधणाए “छक्काय चउसु लहुया" । " अणहियासे य अन्नतूहेणं" ति - अत• गाधा ॥” इति चूर्णो ॥ २ ज घोडे भा० ता० ॥ ३ तं तत्र स्थितमवलोक्य ते ग° भा० ॥ ४] एतन्मध्यगतः पाठः भा० त०डे० कां नास्ति ॥ ५ 'कर-सुंसुमारादि भा० ॥ ६ ण्यकानां दोषा उक्ताः । अथ ग्रामेयकाणां दोषा भा० । “ एते ताव आरण्यमाणं दोवा भणिता । इयागिं गामेयगाणं दोसा भण्णंति - गामेय० गाधा" इति चूर्णौ विशेषचूर्णो ॥ ७ °च्छिकुच्छिए य भा० त० दे० ता० ॥ 20 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ ये जुगुप्सिता अजुगुप्सिता वा दुष्टास्ते द्वयेऽपि यथा आरण्यकास्तथैव दोषानाश्रित्य ज्ञेयाः । ये अजुगुप्सिता अदुष्टास्तेष्वपि यथासम्भवं दोषा उपयुज्य वक्तव्याः ॥ २३९१ ॥ _ये पुनर्जुगुप्सिता अदुष्टास्तेषु दोषानाह- . भुत्तियरदोस कुच्छिय, पडिणीय च्छोभ गिण्हणादीया । आरण्णमणुय-थीसु वि, ते चेव नियत्तणाईया ॥ २३९२ ॥ येन साधुना महाशब्दिकाद्या जुगुप्सिता तिरश्ची गृहस्थकाले भुक्ता तस्य तां तत्र दृष्ट्वा स्मृतिः, इतरस्य कौतुकम् , एवं भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोपा भवन्ति । अथवा तासु जुगुप्सितासु तिरश्चीषु पार्श्ववर्तिनीषु प्रत्यनीकः कोऽपि “छोभ" त्ति अभ्याख्यानं दद्यात्-मयैष श्रमणको महाशब्दिको प्रतिसेवमानो दृष्ट इति, तत्र ग्रहणा-ऽऽकर्षणप्रभृतयो दोषाः । एवं ग्रामेयका10ऽऽरण्यकेषु तिर्यक्षु दोषा उपदर्शिताः । अथ मनुष्येष्वभिधीयन्ते--"आरण्ण" इत्यादि, मनुष्या द्विविधाः-आरण्यका ग्रामेयकाश्च । तत्रारण्यकेषु पुरुषेषु त एव दोषाः, स्त्रीप्वप्यारण्यकासु त एव निवर्जना-ऽन्तरायादयो दोषा ये तिर्यक्षु भणिताः ॥ २३९२ ॥ एते चान्येऽभ्यधिकाः पायं अवाउडाओ, सबराईओ तहेव नित्थक्का । 16 आरियपुरिस कुतूहल, आउभयपुलिंद आसुवहो ।। २३९३ ॥ ___ 'प्रायः' बाहुल्येन शबरीप्रभृतय आरण्यको अनार्यस्त्रियः ‘अपावृताः' वस्त्रविरहिताः "नित्थक्का" इति निर्लज्जाश्च भवन्ति, ततः साधुं दृष्ट्वा आयोऽयं पुरुष इति कृत्वा कौतूहलेन तत्रागच्छेयुः, ताश्च दृष्ट्वा साधोरात्मोभयसमुत्था दोषा भवेयुः, तदीयपुलिन्दश्च तां साधुसमीपायातां विलोक्य ईर्ष्याभरेण प्रेरितः साधोः पुलिन्द्या उभयस्य वा आशु-शीघ्रं वधं कुर्यात् ॥२३९३॥ 20 थी-परिसअणायारे, खोभो सागारियं ति वा पहणे।। गामित्थी-पुरिसेहि वि, ते चिय दोसा इमे अन्ने ॥ २३९४ ॥ अथवास पुलिन्द्रः पुलिन्द्या सहानाचारमाचरेत् ततः स्त्रीपुरुषानाचारे दृष्टे चित्तक्षोभो भवेत् , क्षुभिते च चित्ते प्रतिगमनादयो दोषाः । यद्वा स पुलिन्द्रस्तां प्रतिसेवितुकामः ‘सागारिकं' वक्ष्यमाणलक्षणमिति कृत्वा तं साधुं प्रहण्यात् । एते आरण्यकेषु स्त्री-पुरुषेषु दोषा उक्ताः । 25 ग्रामेयकस्त्री-पुरुषेप्वपि त एव दोषाः । एते चान्येऽधिका भवन्ति ॥ २३९४ ॥ चंकमणं निल्लेवण, चिट्ठित्ता तम्मि चेवे तूहम्मि । अच्छंते संकापद, मजण दटुं सतीकरणं ॥ २३९५ ॥ चक्रमणं निर्लेपनं वा तत्र गृहस्र्थः कर्तुकामोऽपि साधुं दृष्ट्वा कश्चिदन्यत्र गत्वा करोति, कश्चिच्च तत्रैव तीर्थे साधुसमीपे गत्वा करोति । तथा “चिट्ठित्त" त्ति कश्चिद् गृहस्थः साधुना 30 सह गोष्ठीनिमित्तं स्थित्वा पश्चादन्यत्र गच्छति । एवमधिकरणं भवेत् । तथा दकतीरे तिष्ठति १°सु कुत्सिता मो० ले० ॥ २ °ण्यकानां पुरुषाणां स्त्रीणां च त एव भा० ॥ ३ °कमनुष्यस्त्रि भा० ॥ ४°ण्यकानां दो भा० ॥ ५ °व कुहरम्मि ता० ॥ ६ °स्थः कृत्वा गन्तुकामोऽपि साधुं दृष्ट्वा तत्रैव तीर्थे साधुसमीपे स्थित्वा पश्चा भा० का० ॥ ७°ति । तत्र च Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथाः २३९२- ९८१ प्रथम उद्देशः । ६८१ साधो 'शाप' वक्ष्यमाणलक्षणमगारिणां जायते । मज्जनं च विधीयमानं दृष्ट्वा स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनाम्, उपलक्षणत्वादभुक्तभोगिनां च कौतुकमुपजायते || २३९५ ॥ अथैनामेवं निर्युक्तिगाधां विवृणोति अन्नत्थ व चंक्रमती, आयमणऽण्णत्थ वा वि वोसिरइ । कोनाली चकमणे, परकूलाओ वि तत्थेइ ।। २३९६ ॥ कश्चिद् 'दकतीरे चङ्क्रमणं करिष्यामि इत्यभिप्रायेणायातः साधुं दृष्ट्वा ततः स्थानादन्यत्र चङ्क्रम्यते, वाशब्दात् कश्चिदन्यत्र चङ्क्रम्यमाणः साधुं विलोक्य तत्रागत्य चङ्गम्येत । एवम् 'आचमनं ' निर्लेपनं तत् कर्तुकामः संज्ञां वा व्युत्त्रष्टुकामः साधुं दृष्ट्वा अन्यत्र गत्वा अन्यतो वा तत्रागत्य निर्लेपयति व्युत्सुजति वा । तथा कश्चिदगारो गन्तुकामः परकूले चम्यमाणं साधुं निरीक्ष्य “कोनालि" त्ति गोष्ठी तां साधुना सह करिष्यामीति मत्वा तदर्थं चङ्क्रमणं कर्तु परकू - 10 लौदपि तत्रागच्छति । सर्वत्र साधुनिमित्तमागच्छन्नागतस्तिष्ठश्च षट् कायान् विराधयेत् ॥२३९६॥ "अच्छंते संकापय" त्ति पदं व्याख्यानयति--- 1 ग- मेहुणकाए, लहुगा गुरुगा उ मूल निस्संके । दगतूर कोंचवीरग, पवंस केसादलंकारे ।। २३९७ ।। साधुं दकतीरे तिष्ठन्तं दृष्ट्वा कश्चिदगारः शङ्कां कुर्यात् — किमेष उदकपानार्थं तिष्ठति । 15 उत मैथुने दत्तसङ्केतां काञ्चिदागच्छन्तीं प्रतीक्षते । तत्रोदकपानशङ्कायां चतुर्लघु, निःशङ्कते चतुर्गुरु; मैथुनशङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम् । “मज्जण दहुं सईकरणं" ति ( गा० २३९५) पदं व्याख्यायते कोऽपि मज्जनं कुर्वन् तथा कथञ्चिद् जलमास्फालयति यथा 'दकतूर्यम्' उदके मुखादितूर्याणां शब्दो भवति । यद्वा कोऽपि क्रोञ्चवीरकेण जलमाहिण्डते । क्रोञ्चवीरको नाम पेटासदृशो जलयानविशेषः । “पघंस” त्ति स्रात्वा पटवासादिभिः खशरीरं कोऽपि 20 प्रधर्षयति । यद्वा "केसादलंकारे" त्ति केश-वस्त्र-माल्या ऽऽभरणा - ऽलङ्कारैरात्मानमलङ्करोति । एतद् मज्जनादिकं दृष्ट्वा भुक्ता-भुक्तसमुत्थाः स्मृत्यादयो दोषाः ॥ २३९७ ॥ एवं पुरुषेषु भणितम् । अथ स्त्रीषु दोषान् दर्शयति — मञ्जणवहणास अच्छते इत्थि ति गहणादी | एमेव कुच्छितेतर, इत्थि सविसेस मिहुणेसु ।। २३९८ ।। सपरिग्रहस्त्रीणां वसन्तादिपर्वण्यन्यत्र वा या जलक्रीडा यद्वा सामान्यतो मल-दाहोपशमनार्थं स्नानं तद् मज्जनमुच्यते, तस्य जलवहनस्थानेषु स्त्रीणां सम्बन्धिषु तिष्ठन्तं साधुं दृष्ट्वा तदीयो तिष्ठति साधौ शङ्कापद्मगारिणां जायते । मज्जनं च विधीयमानं दृष्ट्वा स्मृतिकरणमुपजायते ।। २३९५ ॥ अथैनामेव गाथा भा० ॥ १ 'व द्वारगाथां कां० ॥ २ लात् तत्रागच्छति, तन्निमित्तं च पट् कायानुपगृहाति ॥ २३९६ ॥ “ अच्छंत्रे संकापय" ति पदं व्याचष्टे -- दग° भा० ॥ ३त्ति चन्दनादिभिः स्वश° भा० ॥ 5 ४ ° तच्च दृष्ट्वा भा० ॥ 25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ ज्ञातिवर्गश्चिन्तयति---अस्मदीयस्त्रीणां मज्जनादिस्थाने एष श्रमणः परिभवेन कामयमानो वा तिष्ठति, ततो दुष्टशील इति कृत्वा ग्रहणा - ऽऽकर्षणादीनि कुर्यात् । याः पुनर परिग्रह स्त्रियस्ताः ‘कुत्सिताः’ रजक्यादयः ‘इतराः ' अकुत्सिता ब्राह्मण्यादयः तावप्येवमेवात्मपरोभयसमुत्थादयो दोषाः । ‘मिथुनेषु' स्त्री-पुरुषयुग्मेषु मैथुनक्रीडया रममाणेषु सविशेषतरा दोषा भवन्ति, ये च ऽ चङ्क्रमणादयो दोषाः पूर्वमुक्तास्तेऽप्यत्र तथैव द्रष्टव्याः । यत एते दोषा अतो दकतीरेऽमूनि सूत्रोक्तानि पदानि न कुर्यात् ॥ २३९८ ॥ चिट्ठण निसीयणे या, तुयट्ट निद्दा य पयल सज्झाए । झाणाऽऽहार वियारे, काउस्सग्गे य मासलहू || २३९९ ॥ स्थाने १ निषदने २ त्वग्वर्त्तने ३ निद्रायां ४ प्रचलायां ५ स्वाध्याये ६ ध्याने ७ आहारे ८ 10 विचारे ९ कायोत्सर्गे १० चेति दशसु पदेषु दकतीरे विधीयमानेषु प्रत्येकं मासलघु, असामाचारीनिष्पन्नमिति भावः || २३९९ ॥ अथ निद्रा प्रचलयोः स्वरूपमाह - ६८२ सुहपडिबोहो निद्दा, दुहपडिबोहो उ निद्दनिद्दा य । पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला य चंकमओ ॥। २४०० ॥ सुखेन-नखच्छोटिकामात्रेणापि प्रतिबोधो यस्मिन् स सुखप्रतिबोधः, एवंविधः खापविशेषो to निद्रेत्युच्यते । यत्र तु दुःखेन महता प्रयत्नेन प्रतिबोधः स निद्रानिद्रा । तथा स्थितो नामउपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा तस्य या खापावस्था सा प्रचला । या तु 'चङ्क्रमतः ' गतिपरिणतस्य निद्रा सा प्रचलाप्रचला । अत्र च निद्रा प्रचलयोरधिकारे यन्निद्रानिद्रा - प्रचलाप्रचलयोर्व्याख्यानं तदनयोरप्यत्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्य इति ज्ञापनार्थम् || २४०० ॥ अर्थं विस्तरतः प्रायश्चित्तं वर्णयितुकाम आह 20 संपामे असंपामे व दिट्ठे तहेव अट्ठेि । I पण लहु गुरु लहुगा, गुरुग अहालंद पोरुसी अहिया ।। २४०१ ॥ दकतीरे 'सम्पातिमेऽसम्पातिमे' वा' उभयस्मिन्नपि वक्ष्यमाणलक्षणे दृष्टोऽदृष्टो वा तिष्ठति । कियन्तं पुनः कालम् ? इत्याह--- यथालन्दं पौरुषीमधिकं वा पौरुषीम् । तत्र यथालन्दं त्रिधा— जधन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । तत्र स्त्रिया आर्द्रः करो यावता कालेन शुष्यति तद् जघन्यम्, उत्कृष्टं 25 पूर्वकोटिप्रमाणम्, तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्यमम् । अत्र जघन्येन यथालन्देनाधिकारः । एवं यथालन्दादिभेदात् त्रिविधं कालं दकतीरे तिष्ठतः पञ्चकं लघुको गुरुको मासः लघुका गुरुकाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तम् । एतदुपरिष्टाद् ( गा० २४०३ ) व्यक्तीकरिष्यते ॥ २४०१ ॥ १ °ति - यत्रास्माकं स्त्रियो मज्जनादि कुर्वन्ति तत्रैष श्र° भा० ॥ २ पाः । " इत्थी सविसेस मिहुणेसु” त्ति ये सस्त्रीकाः पुरुषास्तेषु मैथु' भा० ॥ ३ चिट्ठित्तु निसीइत्ता तुयह ता० ॥ ४ थ विभागतः प्रा भा० ॥ ५ मे वा दृष्टोऽ° भा० ॥ ६ मो० ले० विनाऽन्यत्र — लन्दमिति काल उच्यते । स च त्रिधा - जघन्यो मध्यम उत्कृष्टश्च । तरुणस्त्रिया उदकाईः करो यावता कालेन शुष्यति स जघन्यः, उत्कृष्टः पूर्वकोटिप्रमाणः, तयोरपान्तराले सर्वोऽपि मध्यमः । भा० ॥ ७° तरुणस्त्रिया उदकाईः क त डे० कां ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३९९-२४०५] प्रथम उद्देशः । अथ सम्पातिमा-ऽसम्पातिमपदे व्याख्याति जलजा उ असंपाती, संपातिम सेसगा उ पंचिंदी। अहवा मुत्तु विहंगे, होति असंपातिमा सेसा ॥ २४०२ ॥ ये 'जलजाः' मत्स्य-मण्डूकादयस्तेऽसम्पातिमाः, तैर्युक्तं दकतीरमप्यसम्पातिमम् । शेषाः 'पञ्चेन्द्रियाः' स्थलचराः खेचरा वा ये स्थानान्तरादागत्य सम्पतन्ति ते सम्पातिमास्तैयद युक्तं तत् । सम्पातिमम् । अथवा 'विहङ्गाः' पक्षिणस्ते यत्रागत्य सम्पतन्ति तत् सम्पातिमम् । तान् मुक्त्वा 'शेषाः' स्थलचरा जलचरा वा सर्वेऽप्यसम्पातिमाः, तद्युक्तं दकतीरमसम्पातिमम् ॥२४०२॥ अथ पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं व्यक्तीकुर्वन्नाह असंपाइ अहालंदे, अद्दिढे पंच दिट्ठि मासो उ । पोरिसि अदिहि दिटे, लहु गुरु अहि गुरुओं लहुआ उ ॥ २४०३ ॥ 10 असम्पातिमे दकतीरे जघन्यं यथालन्दमदृष्टस्तिष्ठति पञ्च रात्रिन्दिवानि, दृष्टस्तिष्ठति मासलघु, असम्पातिमे पौरुषीमदृष्टस्तिष्ठति मासलघु, दृष्टस्तिष्ठति मासगुरु, अधिकां पौरुषीमदृष्टस्तिष्ठति मासगुरु, दृष्टम्तिष्ठति चतुर्लघु । एवमसम्पातिमे दकतीरे भणितम् ॥ २४०३ ॥ संपाइमे वि एवं, मासादी नवरि ठाइ चउगुरुए। भिक्खू-वसभा-ऽऽयरिए, तब-कालविसेसिया अहवा ॥ २४०४॥ 15 सम्पातिमेऽप्येवमेवार्धपक्रान्त्या प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम् । नवरं लघुमासादारब्धं चतुर्गुरुके तिष्ठति, एतदोघतः प्रायश्चित्तम् । अथवैतान्येव भिक्षु-वृषभा-ऽभिषेका-ऽऽचार्याणां तपः-कालविशेषितानि भवन्ति । तथाहि-पूर्वोक्तं सर्वमपि प्रायश्चित्तं भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकम् , वृषभस्य कालगुरु तपोलघु, अभिषेकस्य तपोगुरु काललघु, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम्। अत्र चाभिषेकपदं गाथायामनुक्तमपि "तन्मध्यपतितस्तद्रहणेन गृह्यते" इति न्यायात् प्रतिपत्त- 20 व्यम् । एष द्वितीय आदेशः ॥ २४०४ ॥ ___ अहवा भिक्खुस्सेयं, वसभे लहुगाइ ठाइ छल्लहुए। अभिसेगे गुरुगादी, छग्गुरु लहु छेदों आयरिए ॥ २४०५ ॥ अथवा यदेतत् प्रायश्चित्तमुक्तं तद् भिक्षोर्द्रष्टव्यम् । वृषभस्य तु मासलघुकादारब्धं षड्लघुके तिष्ठति, तत्रासम्पातिमे यथालन्द-पौरुषी-समधिकपौरुषीषु दृष्टा-दृष्टयोर्मासलघुकादारब्धं चतुर्गु- 25 रुके तिष्ठति । सम्पातिमे एतेष्वेव स्थानेषु मासगुरुकादारब्धं षड्लघुके पर्यवस्यति । 'अभिषेकस्य' उपाध्यायस्यासम्पातिमे मासगुरुकादारब्धं षड्लघुके तिष्ठति, सम्पातिमे चतुर्लघुकादारब्धं षड्गुरुके तिष्ठति । आचार्यस्य चतुर्लघुकादारब्धमसम्पातिमे पगुरुके सम्पातिमे चतुर्गुरुकादारब्धं (ग्रन्थाअम्-५००० । सर्वग्रन्थानम्-१७२२०) छेदे निष्ठामुपैगच्छति । एष तृतीय आदेशः ॥ २४०५ ॥ अथ चतुर्थमादेशमाह १°माः, तत्रैव वास्तव्यत्वात्, ते का० ॥ २ 'ति । अथवा एतदेव भिक्षु-वृषभा. ऽभिषेका-ऽऽचार्याणां तपःकालविशेषितं तद् दातव्यम् । तत्र भिक्षोस्त° भा० ॥ ३°त्तमुक्तम् । त० डे. कां. ॥ ४°पयाति त० डे, ॥ 30 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ यनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहन्कल्पसूत्रे [दक्रतीरप्रकृते सूत्रम् १९ अहया पंचण्हं संजईण समणाण चेव पंचण्हं । पणगादी आरद्धं, णेयव्यं जाव चरिमपदं ॥ २४०६ ॥ अथवा क्षुल्लिकादिभेदात् पञ्चानां संयतीनां श्रमणाना क्षेत्र पञ्चानां पञ्चकादरारब्ध प्रायश्चित्तं तावद नेतव्यं यावत 'चरमपदं' पाराञ्चिकम् ।। २४०६ ॥ एतदेव सविशेषमाह संजइ संजय तह संपऽसंप अहलंद पोरिसी अहिया । चिट्ठाई अद्दिट्टे, दिट्टे पणगाइ जा चरिमं ।। २४०७ ॥ संवत्यः क्षुलिका स्थविरा भिक्षुणी अभिपेका प्रवर्तिनी चेति पञ्चविधाः, संयता अपि क्षुल्लक-स्थविर-भिक्षुको-पाध्याया-ऽऽचार्य भेदात् पञ्चधा, “संपऽसंप' त्ति सूचकत्वात् सूत्रस्य सम्पाति भमसम्पातिमं वा दकतारम् , यथालन्द-पोपी-अधिकपारुपलक्षणं कालत्रयम् , स्थान-निषदनादीनि 10 च दश पदानि, अदृष्टे दृष्टे चेति पदद्वयम् । एतेषु पदेषु पञ्चकादिकं चरमं प्रायश्चित्तं यावद् नेतन्यम् ॥ २४०७ ॥ कियन्ति पुनः प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्ति ? इति दर्शयति पण दस पनरस वीसा, पणवीसा मास चउर छ च्चेव । लहु गुरुगा सम्वेते, छेदो मृलं दुगं देव ।। २४०८।। पञ्चरात्रिन्दिवानि दशरात्रिन्दिवानि पञ्चदशरात्रिन्दिवानि विंशतिरात्रिन्दिवानि पञ्चविंश16 तिरात्रिन्दिवानि मासिकं चत्वारो भासाः पण्मासाश्च, एतानि सर्वाणि लधुकानि गुरुकाणि च, तद्यथा---लघुपञ्चरात्रिन्दिवानि गुरुपञ्चरात्रिन्दिवानि इत्यादि, एतानि षोडश सञ्जातानि, छेदो मूल 'द्विकं चैव' अनवस्थाप्य-पाराञ्चिकयुगम् , एवं विंशतिः प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्ति ॥२४०८॥ अथामीषामेव पदानां चारणिकां कुर्वन्नाह---. पणगाइ असंपाइम, संपाइमऽदिट्टमेव दिट्ट य । चउगुरुऍ ठाइ खुड्डी, सेसाणं वुटि एकेकं ॥ २४०९ ॥ असम्पातिमे यथालन्दमदृष्टा अल्लिका तिष्ठति लघुपञ्चकम् , दृष्टा तिष्ठति गुरुपञ्चकम् , पौरुषीमदृष्टा तिष्टति गुरुपञ्चकम् , दृष्टा तिष्ठति लघुदशकम् , अधिक पौरुपीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकम् , दृष्टायां गुरुदशकम् । सम्पातिमे यथालन्दमदृष्टा तिष्ठति गुरुपञ्चकम् , दृष्टा तिष्ठति लघुदशकम् , पौरुपीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकम् , दृष्टायां गुरुदशकम् , समधिकां 25 पौरुपीमदृष्टायां तिष्ठन्त्यां गुरुदशकम् , दृष्टायां लघुपञ्चदशकम् । एवमूर्द्धम्यानमाश्रित्योक्तम् । निर्यादन्त्यास्तु गुरुपञ्चरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं गुरुपञ्चदशरात्रिन्दिवेषु, त्वग्वर्त्तनं कुर्वत्या लघुदशरात्रिन्दिवादारब्धं लघुविंशतिरात्रिन्दिवेषु, एवं निद्रायमाणा गुरुविंशतिरात्रिन्दिवेषु, प्रचलायमानाया लघुपञ्चविंशतिरात्रिन्दिवेषु, अशनाद्याहारमाहरन्त्या गुरुपञ्चविंशतिरात्रिन्दिवेषु, उच्चारप्रश्रवणे आचरन्त्या लघुमासे, स्वाध्यायं विदधानाया मासगुरुके, धर्मजागरिकया जाग्रत्याश्चतुले3. धुके, कायोत्सँग कुर्वत्याश्चतुर्गुरुके तिष्ठति । एवं भुल्लिकायाः प्रायश्चित्तनुत्तम् । शेषाणां तु स्थविरादीनामेकैकं स्थानमुपरि वर्द्धते अधन्नाचनकं स्थानं हीयते । तद्यथा--स्थविराया गुरु१ वढते केक भा० का० ता० ॥ २'गरिकायां चतु भा० ॥ ३ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र-त्सर्गे चतु भा० । 'त्सर्गेण तिष्ठन्त्याश्चतु कां० ॥ चर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २४०६-१३] प्रथम उद्देशः । पञ्चकादारब्धं षड्लघुकं यावद् , भिक्षुण्या लघुदशकादारब्धं षड्गुरुकान्तम् , अभिषेकाया गुरुदशकादारब्धं छेदपर्यन्तम् , प्रवर्तिन्या लघुपञ्चदशकादारब्धं मूलान्तमवसातव्यम् ॥ २४०९ ॥ एतदेवाह छल्लहुएँ ठाइ थेरी, भिक्खुणि छग्गुरुऍ छेद गणिणी उ । मूले पवत्तिणी पुण, जह भिक्खुणि खुड्डए एवं ॥ २४१० ॥ स्थविरा षड्लघुके, भिक्षुणी षड्गुरुके, गणिनी' अभिषेका सा छेदे, प्रवर्तिनी पुनर्मूले तिष्ठतीति । यथा च भिक्षुण्यां एवं क्षुल्लकेऽपि द्रष्टव्यम् , दशभ्यो लघुरात्रिन्दिवेभ्यः षड्गुरुकान्तमसम्पातिम-सम्पातिमादिषु प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः ॥ २४१० ॥ गणिणिसरिसो उ थेरो, पवत्तिणिविभागसरिसओ भिक्खू । अड्डोकंती एवं, सपदं सपदं गणि-गुरूणं ।। २४११॥ गणिनी-अभिषेका तस्याः सदृशः स्थविरः, यथा अभिषेकाया गुरुदशकमादौ कृत्वा च्छेदान्तं भणितं तथा स्थविरस्यापि भणनीयमिति भावः । प्रवर्तिन्याः प्रायश्चित्तविभागेन सदृशो भिक्षुभवति, लघुपञ्चदशकात् प्रभृति मूलान्तं प्रायश्चित्तं तस्यापि ज्ञेयमिति हृदयम् । एवम् 'अर्द्धापक्रान्त्या' अधस्तनैकपदहासोपरितनपदैकवृद्ध्यात्मिकया गणी-उपाध्यायो गुरुः-आचार्यस्तयोरपि वपदं स्वपदं यावत् प्रायश्चित्तं नेतव्यम् । तत्रोपाध्यायस्य गुरुपञ्चदशकमादौ 15 कृत्वा खपदमनवस्थाप्यम् , आचार्यस्य लघुविंशतिरात्रिन्दिवादारभ्य स्वपदं पाराञ्चिकं यावद् द्रष्टव्यम् ॥ २४११ ॥ एवं तु चिट्ठणादिसु, सव्वेसु पदेसु जाव उस्सग्गो । पच्छित्ते आदेसा, इक्विकपयम्मि चत्तारि ॥ २४१२ ॥ 'एवम्' अमुना प्रकारेण स्थान-निषदनादिपु सर्वेष्वपि पदेषु कायोत्सर्ग यावदेकैकस्मिन् पदे 20 प्रायश्चित्तविषयाश्चत्वार आदेशा भवन्ति । तद्यथा--एकं तावदौधिकं प्रायश्चित्तम् , द्वितीयं तदेव तपः-कालविशेषितम् , तृतीयं छेदान्तम् , चतुर्थं चारणिकाप्रायश्चित्तम् ॥ २४१२ ॥ गतं दकतीरद्वारम् । अथ यूपकस्यावसरः, तमेवाभिधित्सुराह संकम जूवे अचले, चले य लहुगो य हुंति लहुगा य । तम्मि वि सो चेव गमो, नवरि गिलाणे इमं होइ ।। २४१३ ॥ 25 यूपकं नाम-बेटकाख्यं जलमध्यवर्ति तटम् , तत्र देवकुलिका वा गृहं वा भवेत् तत्र वसतिं गृह्णतश्चतुर्लघुकाः । तच्च यूपर्क सङ्क्रमेण वा गम्येत जलेन वा । सङ्क्रमो द्विविधःचलोऽचलश्च । अचलेन गच्छतो मासलघु । चलो द्विविधः---सप्रत्यपायो निष्प्रत्यपायश्च । सप्रत्यपायेन गच्छतश्चतुर्गुरुकम् , निष्प्रत्यपायेन व्रजतश्चत्वारो लघुकाः । तस्मिन्नपि यूपके 'स एव गमः' सैव वक्तव्यता या दकतीरे भणिता "अधिकरणमन्तरायः” ( गा० २३८७) 30 इत्यारभ्य यावद् “एकैकस्मिन् पदे चत्वार आदेशाः” (गा० २४१२) इति । नवरं ग्लानं प्रतीत्य इदमभ्यधिकं दोषजालं भवति ॥ २४१३ ॥ १ एतदग्रे तदेवाह इत्यवतरणं कां० ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ दतॄण व सइकरणं, ओभासण विरहिए य आइयणं । परितावण चउगुरुगा, अकप्प पडिसेव मूल दुगं ॥ २४१४ ॥ ग्लानस्य तदुदकं दृष्ट्वा 'स्मृतिकरणम्' ईदृशी स्मृतिरुत्पद्यते---पिबाम्यहमुदकम् । ततोऽसाववभाषणं करोति, यदि दीयते ततः संयमविराधना, अथ न दीयते ततो ग्लानः परित्यक्तः । 5 विरहिते च कारणतः साधुभिः प्रतिश्रये उदकस्य “आइयणं" ति पानं कुर्यात् , यदि खलिङ्गेनापिबति ततश्चतुर्लघुकम् । अथ "दुर्ग" ति गृहिलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं च तेन 'अकल्पम्' अप्कायं प्रतिसेवते ततो मूलम् , तेन चापथ्येनानागाढपरितापनादयो दोषाः, तन्निष्पन्नमाचार्यस्य प्रायश्चित्तम् । अथवा "अकप्प पडिसेव मूल दुगं" ति अकल्पं प्रतिसेव्य भगवतोऽहमिति कृत्वा यद्येको ग्लानोऽवधावते तत आचार्यस्य मूलम् , द्वयोरनवस्थाप्यम् , त्रिषु पारा10ञ्चिकम् ॥ २४१४॥ आउक्काए लहुगा, पूयरगादीतसेसु जा चरिमं । जे गेलने दोसा, धिइदुब्बलें सेहें ते चेव ॥ २४१५॥ अप्काये प्रतिसेविते चतुर्लघुकाः । पूतरकादित्रसेषु 'चरमं' पाराञ्चिकं यावन्नेतव्यम् । तत्र पूतरकादिषु द्वीन्द्रियेषु षड्लघुकम् , त्रीन्द्रियेषु षड्गुरुकम् , चतुरिन्द्रियेषु च्छेदः, पञ्चे15न्द्रिये मत्स्यादौ २ उँदकेन सह गिलिते» एकस्मिन् मूलम् , द्वयोरनवस्थाप्यम् , त्रिषु पाराश्चिकम् । ये च ग्लान्ये ग्लानस्य स्मृतिकरणा-प्कायपानादयो दोषा उक्ताः 'धृतिदुर्बले' मन्दश्रद्धे शैक्षे त एव द्रष्टव्याः ॥ २४१५ ॥ ___ गतं यूपकद्वारम् । अथातापनाद्वारमाह नियुक्तिकारः-- आयावण तह चे उ, नवरि इमं तत्थ होइ नाणत्तं । __ मन्जण सिंचण परिणाम वित्ति तह देवया पंता ॥ २४१६ ॥ ये दकतीरेऽधिकरणा-ऽन्तरायादयो दोषा उक्तास्ते यथासम्भवं दकतीरे यूपके वा आतापनां कुर्वतस्तथैव भणितव्याः, नवरमिदं 'नानात्वं' विशेषो भवति-तत्रातापयतो मज्जनं वा सिञ्चनं वा कश्चित् कुर्यात् , परिणामो वा तस्य स्नानादिविषयो भवेत् , 'वृत्तिर्वा' आजीविका मरुकाणां व्यवच्छिद्येत, प्रान्ता वा देवता लोकेनापूज्यमाना साधोरुपसर्ग कुर्यात् ॥ २४१६ ॥ 28 तत्र मज्जन-सिञ्चन-परिणामद्वाराणि व्याख्यानयति मजंति व सिंचंति व, पडिणीयऽणुकंपया व णं केई । तण्हुण्हपरिगयस्स व, परिणामो ण्हाण-पियणेसु ॥ २४१७ ॥ “ण” इति तमातापकं प्रत्यनीकतया अनुकम्पया वा केचिद् 'मजयन्ति वा' स्वपयन्ति 'सिञ्चन्ति वा' शृङ्गच्छटादिभिरञ्जलीभिर्वा निर्वापयन्ति । यद्वा तस्यातापकस्य 'तृषितोऽहम्' १ अथ "अकप्प पडिसेव मूल दुर्ग" ति गृहिलिङ्गमन्यतीर्थिक लिङ्गं च तद्विकं तेन कां०॥ २°थ्येन सेवितेन ग्लानस्यानागाढपरितापनादयो दोषाः, तनिष्पन्नं चतुर्गुरुकादिकं प्रायं कां० ॥ ३ एतदने कां० पुस्तके उदकपान एव सविशेषं प्रायश्चित्तमाह इत्यवतरणं वर्तते ॥ ४-५ एतचिह्नगतः पाठः भा० कां० नास्ति,॥ ६चेवं, न ता॥ 20 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २४१४-२०] प्रथम उद्देशः । ६८७ इत्येवं तृष्णापरिगतस्य 'धर्माभिभूतगात्रोऽहम्' इत्येवमुप्णपरिगतस्य वा स्नान-पानयोः परिणामः सञ्जायते ॥ २४१७ ॥ वृत्तिद्वारं प्रान्तदेवताद्वारं चाह आउट्ट जणे मरुगाण अदाणे खरि-तिरिक्खिछोभादी । पञ्चक्खदेवपूयण, खरियाऽऽवरणं व खित्ताई ॥ २४१८ ॥. तस्यातापनया आवृत्तः-आवर्जितो जनो मरुकाणां दानं न ददाति, ततस्तेषामदाने खरी-5 यक्षरिका तिरश्ची-महाशब्दिकाप्रभृतिका तद्विपयं छोभम्-अभ्याख्यानं तदादयो दोषा भवेयुः । तथा 'प्रत्यक्षदेवताऽयम्' इति कृत्वा तस्य साधोः पूजनं देवतायाश्चापूजनम् , ततः "खरियाऽऽवरणं" ति संयतवेपमावृत्य तत्प्रतिरूपं कृत्वा यक्षरिकां प्रतिसेवमानं देवता दर्शयेत् , क्षिप्तचित्तादिकं वा तं श्रमणं सा देवता कुर्यादिति ॥ २४१८ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां स्पष्टयति आयावण साहुस्सा, अणुकंपं तस्स कुणइ गामो उ । मरुयाणं च पओसो, पडिणीयाणं च संका ये ॥ २४१९ ॥ तस्य साधोर्दकतीरे आतापनां कुर्वतो ग्रामजनः सर्वोऽप्यावृत्तः, ततश्चानुकम्पां तस्य करोति, पारणकदिवसे भक्तादिकं सविशेषं ददातीत्यर्थः, 'अयं प्रत्यक्षदेवः, किमस्माकमन्येषां मरुकादीनां दत्तेन ? एतस्य दत्तं बहुफलं भवति' इति कृत्वा । ततो मरुकाणामदीयमाने प्रद्वेषः 15 सञ्जातः, ततस्ते व्यक्षरिका-महाशब्दिकादिविषयमयशः प्रदद्युः, यथा--एष संयंतोऽस्माभिद्यक्षरिकां महाशब्दिकां वा प्रतिसेवमानो दृष्ट इति । तत्र ये प्रत्यनीकास्तेषां शङ्का भवति तत्र चतुर्गुरु, निःशङ्कित मूलम् ; अथवा ये प्रत्यनीकास्ते शङ्कन्ते-कस्मादेष तीर्थस्थाने आतापयति ? किं स्तैन्यार्थी ? उत मैथुनार्थी ? इति ॥ २४१९ ॥ गतं वृत्तिद्वारम् । अथ "पञ्चक्खदेव" इत्यादि पश्चाई भाव्यते-यत्रासावातापयति तत्र 20 प्रत्यासन्ना देवता वर्त्तते तस्या लोकः सर्वोऽपि पूर्वं पूजापर आसीत् । तं च साधु तत्रातापयन्तं दृष्ट्वा अयं प्रत्यक्षदैवतमिति कृत्वा लोकस्तं पूजयितुं लग्नः । ततः सा देवता अपूज्यमाना प्रद्विष्टा सती घ्यक्षरिकाद्यभ्याख्यानं दद्यात् । अथवा साधुरूपमावृत्य तत्प्रतिरूपं व्यक्षरिकां तिरश्ची वा प्रतिसेवमानं दर्शयेत् , क्षिप्तचित्तं वा कुर्यात् , अपरां वा अकल्पप्रतिसेवनादिकामक्रियां दर्शयेत् । यस्मादियन्तो दोषास्तस्माद् दकतीरे यूपके वा न स्थानादीनि पदानि 25 कुर्यात् , द्वितीयपदे कुर्यादपि । कथम् ? इत्याह पढमे गिलाणकारण, बीए वसहीऍ असइए वसइ । रायणियकजकारण, तइए विड्यपय जयणाए ॥ २४२०॥ प्रथम-दकतीरं तत्र ग्लानकारणात् तिष्ठेत् । द्वितीयं-यूपकं तत्र निर्दोषाया वसतेः 'असति' अभावे 'वसति' तिष्ठति । 'तृतीयम्' आतापनापदं तत्र रानिकः-राजा तदायत्तं यत् 30 १°त्तो यो जनस्तस्माद् मरुकाणामदाने 'ख' भा० ॥२°कायाः परिभोगं देव भा० कां० ॥ ३ अथैतदेव स्प° भा० कां ॥ ४उ ता० ॥ ५°तः, तेन च व्य° भा०॥ ६ यतो मया द्वय भा. ॥ ७ व्याख्यायते भा०॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ६८८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ दकतीरप्रकृते सूत्रम् १९ कुल-गण-सङ्घकार्य तत्कारणे तिष्ठेत् । एवं निष्वपि इकतीरादिषु 'यतनया' वक्ष्यमाणलक्षणया 'द्वितीयपदं' तत्रावस्थानलक्षणं सेवेत ।। २४२० ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयति विज-दवियट्ठयाए, निजंतों गिलाणों असति वसहीए। जोग्गाए वा असती, चिट्ठ दगतीरऽणोयारे ॥ २४२१ ॥ 5 ग्लानो वैद्यस्य समीपं नीयमानो द्रव्यम्-औषधं तदर्थ वाऽन्यत्र नीयमानोऽन्यत्र वसतेरभावे दकतीरेऽपि तिष्ठेत् । अथवा विद्यते वसतिः परं न ग्लानयोग्या ततो योग्याया वसतेरसति तत्र वसेत् । अथवा विश्रामणार्थ दकतीरे मुहूर्तमानं ग्लानस्तिष्ठेत् । तमपि मनुप्य-तिरश्चाम् 'अनवतारे' अप्रवेशमार्गेऽवतारयेत् ॥ २४२१ ॥ तत्र च स्थितानामियं यतना उदगंतेण चिलिमिणी, पडियरए मोत्तु सेस अन्नत्थ । 10 पडियर पडिसंलीणा, करिज सव्याणि वि पयाणि ॥ २४२२ ॥ उदकं येनान्तेन-पार्श्वेन भवति ततश्चिलि मिली कटको वा दीयते, ये च ग्लानस्य प्रतिचरकास्तान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽप्यन्यत्र तिष्ठन्ति । प्रतिचरका अपि प्रतिसंलीनास्तथा तिष्ठन्ति यथा सम्पातिमा-ऽसम्पातिमसत्त्वानां सन्त्रासो न भवति । एवं सर्वाण्यपि स्थान-निषदनादीनि पदानि कुर्यात् ॥ २४२२ ॥ गता दकतीरयतना । अथ यूपकयतनामाह अद्धाणनिग्गयादी, संकम अप्पाबहं असुन्नं च । गेलन्न-सेहभावो, संसट्टसिणं व निव्वविउं ।। २४२३ ॥ अध्वनिर्गतादयः साधवोऽन्यस्या वसतेरभावे यूपके तिष्ठन्ति । तत्राल्पबहुत्वं ज्ञात्वा य. एकाङ्गिकोऽचलो अपरिशाटी निष्प्रत्यपायश्च सङ्क्रमम्तेन गन्तव्यम् । दिवा च रात्रौ च वसतिमशून्यां कुर्वन्ति । तत्र स्थितानां ग्लानस्य वा शैक्षम्य वा यदि 'पानीयं पिबामः' इत्यशुभो 20 भाव उत्पद्यते ततस्तौ प्रज्ञाप्येते । तथाप्यस्थिते भाचे तयोः संसृष्टपानकमुप्णोदकं वा 'निर्वाप्य' सुशीतलं कृत्वा दातव्यम् ॥ २४२३ ॥ अथातापनायतनामाह - ओलोयण निग्गमणे, ससहाओ दगसमी आयावे । उभयदढो भोगजढे, जे आउट्ट पुच्छणया ।। २४२४ ॥ चैत्यविनाश-तद्रव्यविनाशादिविपयं किमपि कार्य राजाधीनं ततो राज्ञ आवर्जनार्थ दकस25 मीपे आतापयेत् । तच्च दकतीरं राज्ञोऽवलोकनपथे निर्गमनपथे वा भवेत् । तत्र चातापयन् 'ससहायः' नैकाकी 'उभय दृढः' धृत्या संहननेन च बलवान् “भोगजढे" ति ग्रामेयका-ऽऽरण्यकानां तिर्यङ्-मनुष्याणामवतरणमार्ग मनुजानां च स्नानादिभोगस्थानं वर्जयित्वा अपरिभोग्ये प्रदेशे आतापयति । ततः स राजा तं महातपोयुक्तमातापयन्तं दृष्ट्वा आवृत्तः सन् कार्य पृच्छेत्-भगवन् ! किमेवमातापयसि ? आज्ञापय, करोम्यहं युप्मदभिप्रेतं कार्यम् , भोगान् ३८ वा भगवतां प्रयच्छामि । मुनिराह–महाराज ! न मे कार्य भोगादिभिवरे :, इदं सङ्घकार्य १ रणेन यतनया द्वितीयपद सेवेत ॥ २४२० ।। अथैतदेव भा॰ भा० कां ॥ - २ चैत्यविनाशस्तद्रव्यविनाशो वा संयतीचतुर्थ[बत भङ्गो वा अन्यद्वा किमपि टङ्ग नादितं कार्य राजाधीनं तस्यावर्तनार्थ दक° भा० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४२१-२७] प्रथम उद्देशः । ६८९ चैत्यविनाशनिव-नादिकं विदधातु महाराज इति ॥ २४२४ ॥ अथ तस्य कीदृशः सहायो दीयते ? इत्याह भाविय करणो तरुणो, उत्तर-सिंचणपहे य मुत्तणं । मजणमाइनिवारण, न य हिंडइ पुप्फ वारेइ ॥ २४२५ ॥ __'भावितो नाम' परिणतजिनवचनः तस्य ह्यप्कायपाने परिणामो न भवति, “करणु" ति इषुशास्त्रे संयमे वा कृतकरणः, 'तरुणः' समर्थः, ईदृशः सहायस्तस्य नातिदूरे वृक्षच्छायायामुपविष्टम्तिष्ठति । स चातापकस्तिर्यङ्-मनुष्याणामुत्तरणपथं सिञ्चनपथं च मुक्त्वा आतापयति । तथाप्यातापयन्तं यदि कोऽपि मजयति वा सिञ्चयति वा ततस्तं सहायो निवारयति । स चातापकस्तस्मिन् ग्रामे नगरे वा भिक्षां न हिण्डते, 'मा मरुकादयः प्रद्विष्टा अभ्याख्यानं विष-गरादि वा दद्युः' इति कृत्वा । यश्चातापकस्य पुष्पादीन्यालगयति तमप्यसौ सहायो वारयति ॥२४२५|| 10 ॥ दकतीरप्रकृतं समाप्तम् ॥ चित्र क म प्र कृ तम् 15 सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए २० ॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए २१ ॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह पढम-चउत्थवयाणं, अतिचारो होज दगसमीवम्मि । इह वि य हुन्ज चउत्थे, सचित्तकम्मेस संबंधो ॥ २४२६ ॥ प्रथम-चतुर्थव्रतयोरप्कायपान-स्त्रीपशुसंसर्गादिभिरतिचारो दकसमीपे तिष्ठतां भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्युक्तम् । इहापि च सचित्रकर्मणि प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्थव्रतस्यातिचारो भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्यनेन प्रतिपाद्यते । एष सम्बन्धः ॥ २४२६ ॥ प्रकारान्तरेण तमेवाह नो कप्पइ जागरिया, चिट्ठणमाई पया य दगतीरे । चित्तगयमाणसाणं, जागरि-झाया कुतो अहवा ॥ २४२७ ॥ अनन्तरसूत्रे नो कल्पते 'जागरिका' धर्मध्यानं स्थानादीनि च पदानि दकतीरे कर्तुमित्यु१र्थः स्वसमय-परसमयगृहीतार्थतया वोत्तरप्रदाने प्रगल्भः । आत्मनाऽपि च आतापक ईदृशो भवति । स च सिञ्चनपथं मुक्त्या आ° भा० ॥ 25 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ चित्रकर्मप्रकृते सू०२०-२१ क्तम् । इह तु चित्रगतमानसानां कुतो जागरिका-स्वाध्यायौ सम्भवतः ? इत्ययम् 'अथवा' द्वितीयः सम्बन्धः ॥ २४२७ ॥ अनेन सम्बन्धद्वयेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'सचित्रकर्मणि' चित्रकर्मणा संयुक्त उपाश्रये वस्तुम् ॥ 5 कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अचित्रकर्मणि उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः निदोस सदोसे वा, सचित्तकम्मे उ दोस आणादी । सइकरणं विकहा वा, विइयं असतीऍ वसहीए ॥ २४२८ ॥ निर्दोषे वा सदोषे वा सचित्रकर्मणि प्रतिश्रये तिष्ठतामाज्ञादयो दोषाः । ये च तादृशे 10 चित्रकर्मखचिते वेश्मनि पूर्वं भोगान् बुभुजिरे तेषां स्मृतिकरणम् , उपलक्षणत्वादितरेषां कौतु कमुपजायते, विकथा वा तत्र वक्ष्यमाणलक्षणा भवेत् । द्वितीयपदं चात्र-वसतावसत्यां तत्रापि वसेत् ॥ २४२८ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्याति तरु गिरि नदी समुद्दो, भवणा वल्ली लयावियाणा य । निदोस चित्तकम्म, पुनकलस-सोत्थियाई य ॥ २४२९ ॥ 15 तरवः-सहकारादयः, गिरयः-हिमवदादयः, नद्यः-गङ्गा-सिन्धुप्रभृतयः, समुद्रः-लवणो दादिकः, भवनानि-चतुःशालादीनि गृहाणि, वल्लयः-नागवल्यादयः, लताः-माधवी-चम्पकल. तादयः तासां वितानं-निकुरुम्बम् , तथा पूर्णकलश-स्वस्तिकादयश्च ये. माङ्गलिकाः पदार्थाः, एतेषां रूपाणि यत्रालिखितानि तच्चित्रकर्म निर्दोषं ज्ञातव्यम् ॥ २४२९ ॥ अथ सदोषमाह तिरिय-मणुय-देवीणं, जत्थ उ देहा भवंति भित्तिकया। सविकार निविकारा, सदोस चित्तं हवइ एयं ॥ २४३०॥ ___तिर्यङ्-मनुज-देवीनाम्' इति तिरश्चीनां मानुषीणां देवीनां चेत्यर्थः, एतासां देहाः सविकारा निर्विकारा वा यत्र भित्तौ कृताः-आलिखिता भवन्ति एतत् चित्रकर्म सदोषं भवति ॥ २४३० ॥ अथात्रैव तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाह लहु गुरु चउण्ह मासो, विसेसितो गुरुगों आदि छल्लहुगा।। चउलहुगादी छग्गुरु, उभयस्स वि दुविहचित्तम्मि ॥ २४३१ ॥ निर्दोषे चित्रकर्मणि तिष्ठतां चतुर्णामपि तपः-कालविशेषितो लघुमासः । तद्यथा-आचायस्य द्वाभ्यामपि तपः-कालाभ्यां गुरुकः, उपाध्यायस्य तपोगुरुकः काललघुकः, वृषभस्य कालगुरुकस्तपोलघुकः, भिक्षोभ्यामपि लघुकः । निम्रन्थीनामपि निर्दोषचित्रकर्मणि तिष्ठन्तीनां प्रवर्तिनी-गणावच्छेदिनी-अभिषेका-भिक्षुणीनामेवमेव तपः-कालविशेषितो गुरुको मासः । 30 निर्ग्रन्थाः सदोषचित्रकर्मणि यदि तिष्ठन्ति तदा गुरुको मास आदौ क्रियते, पड्लघुकाश्च १°रमाह त० डे० ॥ २ तत्र निदोषं चित्रकर्म तावदाह भा०॥ ३ °यादीया ता० ॥ ४°तं मासगुरुकम् । निर्ग्रन्थाः सदोषचित्रकर्मणि यदि तिष्ठन्ति तदा चतुर्णामपि मासगुरुकमादौ कृत्वा षइलघुकान्तं द्रष्टव्यम् । तत्र भिक्षो° भा० ॥ 20 25 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्क्गायाः २४२८-३४) प्रथम उद्देशः। पर्यन्ते । तद्यथा-भिक्षोर्मासगुरुकम् , वृषभस्य चतुर्लघुकम् , उपाध्यायस्य चतुर्गुरुकम्, आचायस्य षड्लघुकम् । निर्ग्रन्थीनां तु सदोघे चित्रकर्मणि तिष्ठन्तीनां चतुर्लघुकमादौ कृत्वा षड्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्लघुकम् , अभिषेकायाश्चतुर्गुरुकम् , गणाक्च्छेदिन्याः षड्लघुकम् , प्रवर्तिन्याः षड्गुरुकम् । एवम् 'उभयस्यापि' निर्ग्रन्ध-निम्न्यीवर्मस द्विविधे चित्रकर्मणि प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् ।। २४३१ ॥ अथ विकथापदं व्याख्यानयति- । दिटुं अन्नत्थ मए, चित्तं तं सोमणं न एअंति। इति विकहा पलिमंथो, सज्झायादीण कलहो य ॥ २४३२ ॥ तत्र चित्रकर्म दृष्ट्वा कश्चित् साधुर्च्यात्-मया पूर्वमन्यत्र चित्रकर्म दृष्टं तच्च 'शोभनं' वर्णक-रेखादिशुद्ध्या रमणीयं न पुनः एतत् प्रत्यक्षोपलभ्यमानम् । तदाकर्ण्य द्वितीयः साधु—यात्-मुग्धबुद्धे ! किं जानी त्वम् ? इदमेव रमणीयमिति । एवं विकथा सजायते । ततश्च 10 खाध्यायादीनां परिमन्थः कलहश्चोभयोरप्युत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतोरुत्पद्यते । यत एते दोषास्तस्मान्न स्थातव्यम् ।। २४३२ ॥ द्वितीयपदं वसतावसत्यामिति द्वारं भाक्यति अद्धाणनिग्गयाई, तिपरिरया असइ अन्नवसहीए। तरुणा करिति दूरे, निच्चावरिए य ते रूवे ।। २४३३ ।। अध्वनिर्गतादयस्त्रीन् परिरयान्-परिभ्रमणानि कृत्वा यद्यन्या निरुपहता वसतिर्न प्राप्यते ततः ।। सचित्रकर्मकेऽप्युपाश्रये तिष्ठन्ति । तत्र च प्रथमं निर्दोषे पश्चात् सदोषेऽपि । ये च तरुणास्तान् चित्रकर्मणो दूरतः कुर्वन्ति । तानि च रूपाणि 'नित्यावृतानि' सदैव चिलिमिलिकया प्रच्छादितानि कुर्वन्ति, नापावृतानि स्थापयन्तीत्यर्थः ॥ २४३३ ॥ ॥चित्रकर्मप्रकृतं समाप्तम् ॥ 20 सा गा रि क नि श्राप कृतम् ---- - सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंधीणं सागारियअनिस्साए वत्थए २२ ॥ कप्पइ निग्गंथीणं सागारियनिस्साए वत्थए २३ ॥ अस्स स्क्स्स सम्बन्धमाह एरिसदोसविमुक्कम्मि आलए संजईण नीसाए । कप्पइ जईण भइओ, वासो अह सुत्तसंबंधो ॥ २४३४॥ ईदृशैः-अनन्तरोक्तैर्दोषैर्विमुक्तो य आलयः-उपाश्रयस्तस्मिन् संयतीनां सागारिकनिश्रया V परिगृहीतानां वासः कल्पते । यतीनां तु 'भक्तः' विकल्पितः, निश्रया वा अनिश्रया वा १°ति नियुक्तिगाथापदं भाव कां० ॥ २ °यः त्रयः परिरयाः-परिभ्रमणानि समाहृता. स्त्रिपरिरयम् , त्रीन् वारान् पर्यटनं कृत्वा य° भा० ॥ ३ ॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ 25 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सा० नि० प्र० सू० २२-२३ तेषां वासः कल्पत इत्यर्थः । एतेन द्वितीयसूत्रस्यापि वक्ष्यमाणस्य सम्बन्धः प्रतिपादितः । 'अथ' एष सूत्रसम्बन्ध इति ॥ २४३४ ॥ ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानो कल्पते निर्ग्रन्थीनां 'सागारिकानिश्रया' शय्या तरेणापरिगृहीतानां वस्तुम् ।। 5 कल्पते निर्ग्रन्थीनां 'सागारिकनिश्रया' शय्यातरेण परिगृहीतानां वस्तुम् । एष सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ भाष्यकारो विस्तरार्थं बिभणिषुराह सागारियं अनीसा, निग्गंथीणं न कप्पए वासो । चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव तरुणादी ॥ २४३५॥ सागारिकः-शय्यातरस्तम् 'अनिश्राय' निश्रामकृत्वा । किमुक्तं भवति ?-शय्यातरस्य या 10 निश्रा-'मया युष्माकं चिन्ता करणीया, न भवतीभिः कुतोऽपि भेतव्यम्' इत्यभ्युपगमः, तामन्तरेण निर्ग्रन्थीनां न कल्पते वासः । अत एवैतत् सूत्रमाचार्यों यदि प्रवर्त्तिन्या न कथयति ततश्चत्वारो गुरुकाः । सा न प्रतिशृणोति चत्वारो गुरुकाः । आचार्यमुखादाकर्ण्य सा संयतीनां न कथयति तदापि चतुर्गुरुकाः । यदि ता न प्रतिशृण्वन्ति तदा तासां लघुको मासः । तत्र चापरिगृहीते उपाश्रये वसन्तीनां त एव 'तरुणादयः' "तरुणा वेसित्थि विवाह" (गा०२३०४) 15 इत्यादयो दोषाः ये आपणगृहादौ तिष्ठन्तीनामुक्ताः ॥ २४३५ ॥ सागारियं अनिस्सा, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं । गुरुगा दोहिं विसिट्ठा, चउगुरुगाई व छेदंता ॥ २४३६ ॥ सागारिकम् 'अनिश्राय' निश्रामकृत्वा भिक्षुण्यादीनां संवसन्तीनां 'द्वाभ्यां' तपः-कालाभ्यां विशिष्टाश्चतुर्गुरुकाः । तत्र भिक्षुण्यास्तपसा कालेन च लघुकाः, अभिषेकायाः कालेन गुरुकाः, 20 गणावच्छेदिन्यास्तपसा गुरुकाः, प्रवर्त्तिन्यास्तपसा कालेन च गुरुकाः । अथवा चतुर्गुरुकादीनि च्छेदान्तानि प्रायश्चित्तानि । तद्यथा—भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकम् , अभिषेकायाः षड्लघुकम्, गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम् , प्रवर्तिन्याश्छेद इति । आज्ञादयश्च दोषाः ॥ २४३६ ॥ अपि च कंपइ वाएण लया, अणिस्सिया निस्सिया उ अक्खोभा। ___ इय समणी अक्खोभा, सगारिनिस्सेयरा भइया ॥ २४३७ ॥ 25 'लता' वल्ली 'अनिश्रिता' वृक्षाद्यालम्बनरहिता वातेन प्रेर्यमाणा सती कम्पते, 'निश्रिता तु' सालम्बना 'अक्षोभ्या' वातेन चालयितुमशक्या । "इय" एवं श्रमणी सागारिकनिश्रिता सती अक्षोभ्या, 'इतरा' अनिश्रिता ‘भक्ता' विकल्पिता, यदि सा खयं धृति-बलयुक्ता तदा -तरुणादीनामक्षोभ्या धृतिदुर्बला तु क्षोभणीयेति भावः ॥ २४३७ ॥ __ आह श्रमणी न खल्वाचार्य-प्रवर्तिनीनिश्राविरहिता कदापि भवति, अतः किं कार्यं तस्याः 30 सागारिकनिश्रया ? इत्युच्यते दोहि वि पक्खेहिं सुसंवुयाण तह वि गिहिनीसमिच्छति । बहुसंगहिया अज्जा, होइ थिरा इंदलट्ठी वा ॥ २४३८॥ १ सुसंगहाण ता० ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाप्यगाथाः २४३५-४२] प्रथम उद्देशः । ६९३ ___ 'द्वाभ्यामपि' आचार्य-प्रवर्तिनीलक्षणाभ्यां पक्षाभ्यां यद्यप्यार्याः सुसंवृता वर्तन्ते तथापि तासां गृहिणः-सागारिकस्य निश्रामिच्छन्ति भगवन्तः । कुतः ? इत्याह—'बहुसङ्गृहीताः' बहुभिःआचार्यादिभिश्चिन्तकैः परिगृहीता आर्या स्थिरा भवति इन्द्रयष्टिरिव । यथा खल्विन्द्रयष्टिर्बहीभिः इन्द्रकुमारिकाभिर्वद्धा सती निष्कम्पा भवति एवमियमपि ॥ २४३८ ॥ किञ्च पत्थितो वि य संकइ, पत्थिजंतो वि संकती बलिणो । सेणा वह य सोभइ, बलवइगुत्ता तहऽजा वि ॥ २४३९ ॥ प्रार्थयन्नप्या- समर्थसागारिकनिश्रितां तरुणादिजनः 'शङ्कते' बिभेतीत्यर्थः । तथा प्रार्थ्यमानोऽपि संयतीजनः 'बलिनः' समर्थस्य शय्यातरस्य शङ्कते । अपि च यथा सेना बलपतिनासेनानायकेन यथा वा वधूर्बलवता श्वशुरपक्षेण पितृपक्षेण च गुप्ता-रक्षिता शोभते तथा आर्याऽपि बलवता शय्यातरेण परिगृहीता सती विराजते ॥ २४३९ ॥ अमुमेवार्थं व्यतिरेकभन्या व दृष्टान्तेन - द्रढयति सुन्ना पसुसंघाया, दुब्बलगोवा य कस्स न वितका । इय दुब्बलनिस्साऽनिस्सिया व अजा वितकाओ॥ २४४०॥ 'शून्याः' रक्षपालविरहिताः 'दुर्बलगोपा वा' असमर्थरक्षपालपरिगृहीताः 'पशुसङ्घाताः' गवादिपशुवर्गाः कस्य न 'विताः ' अभिलषणीया भवन्ति ? । 'इति' अमुना प्रकारेण दुर्बल-1b शय्यातरनिश्रिताः सर्वथैवानिश्रिता वा आर्याः सर्वस्यापि 'विताः ' प्रार्थनीया भवन्ति ॥ २४४० ॥ अत्रैवार्थे दृष्टान्तान्तराणि दर्शयति अइया कुलपुत्तगभोइया उ पक्कनमेव सुन्नम्मि । इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा ॥ २४४१ ॥ 'अजिका' छगलिका, कुलपुत्रकाणां च भोजिका-महिला, 'पक्वान्नं' मोदका-ऽशोकवादि, 20 यथैतानि शून्ये वर्तमानानि सर्वस्यापि स्पृहणीयानि भवन्ति एवं श्रमण्योऽपि । तथा "इच्छमणिच्छे तरुण" त्ति तरुणान् प्रार्थयमानान् यदि ता इच्छन्ति ततो ब्रह्मव्रतभङ्गः, अथ नेच्छन्ति ततस्ते बलादपि तासां ग्रहणं कुयुः । स्तेना उपधिं वा 'ता वा' संयतीरपहरेगुः ॥ २४४१ ॥ उच्छुय-धय-गुल-गोरस-एलालुग-माउलिंगफलमादी। पुप्फविही गंधविही, आभरणविही य वत्थविही ॥ २४४२ ॥ इक्षु-घृत-गुड-गोरसाः प्रतीताः, 'एलालुकानि' चिर्भटानि, 'मातुलिङ्गफलानि' बीजपूराणि, आदिशब्दादाम्रादिपरिग्रहः, तथा 'पुष्पविधिः' चम्पकादिका पुष्पजातिः, गन्धाः-कोष्ठपुटपाकादयस्तेषां विधिः-प्रकारो गन्धविधिः, एवमाभरणविधिर्वस्त्रविधिश्च । एते इक्षुप्रभृतयः शून्या दुर्बलपरिगृहीता वा यथा सर्वस्यापि स्पृहणीयास्तथा संयत्योऽप्यनिश्रिता दुर्बलसागारिकनिश्रिता वा तरुणादीनां स्पृहणीयाः । अतोऽनिश्रया दुर्बलनिश्रया वा न स्थातव्यम् । भवेत् कारणं 30 येनानिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः ॥ २४४२ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते ___ अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । १°जंता वि ता० ॥ २-३ एतचिह्नगतः पाठः भा० तडे. नास्ति ॥ HHHHHHHHHHHHI Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सा० नि० प्र० सू० २४ संचरणं वसभा वा, ताओ व अपच्छिमा पिंडी ॥ २४४३ ॥ अध्क्नो निर्गता आदिशब्दादध्वनि वहमानका अध्वशीर्षे प्राप्ता वा त्रिकृत्वः परिगृहीतां बसर्ति मार्गयित्वा यदि न प्राप्यते ततः सागारिकस्यानिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः । तत्र च 'संवर' कपाटं तदन्यतोऽपि मार्गयित्वा दातव्यम् । अथ कपाटं न प्राप्यते ततो वृषभा गृहीभूय यः 5 कश्चित् तरुणादिः संयतीरुपद्रवति तं प्रहरणादिभिर्निवारयन्ति । अथ वृषभा न सन्ति ततस्ता एव संयत्यो दण्डकव्यग्रहस्ताः पिण्डीभूय तिष्ठन्ति, यस्तत्रोपद्रवं चिकीर्षति तं दण्डकमुद्यम्य निवारयन्ति, बोलं च महता शब्देन कुर्वन्ति । एषा अपश्चिमा यतनेति ॥२४४३॥ अथवा मोइय-महतरमाई, समागयं वा भयंति गामं तु । निवगुत्ताणं वसही, दिजउ दोसा उ मे उवरिं ॥ २४४४॥ 10 तत्र ग्रामादौ यो भोगिको महत्तरो वा आदिशब्दादन्यो वा प्रमाणभूतस्तम् अथवा ग्राममेकत्र सभादौ 'समागतं' मिलितं दृष्ट्वा साधवो भणन्ति-नृपः-राजा तेन गुप्ताः-रक्षिताः सन्तो वयं वव्रताचारं परिपालयामः, अतो नृपगुप्तानामस्माकं वसतिर्दीयताम्, अन्यथा ये शून्ये प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां संयतीनां तरुण-स्तेनाद्युपद्रवदोषा भवेयुः ते सर्वेऽपि “भे" युष्माकमुपरि भविष्यन्ति । एवमुक्ते ते भोगिकादयः संयतीप्रायोग्यां परिगृहीतां वसतिं दापयन्ति 15 स्वयं वा प्रयच्छन्ति ॥ २४४४ ॥ अथ ये वृषभा बहिः प्रहरणादिव्यग्रहस्तास्तिष्ठन्ति ते ईदृशाः कर्तव्या इति दर्शयति कयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधिणो थिरसरीरा । जियनिर्देिदिय दक्खा, तब्भूमा परिणयवया य ॥ २४४५ ॥ 'कृतकरणाः धनुर्वेद कृताभ्यासाः, 'स्थिरसत्त्वाः' निश्चलमानसावष्टम्भाः, 'गीताः' सूत्रार्थ20 वेदिनः, 'सम्बन्धिनः' तासामेव संयतीनां नालबद्धा भ्रात्रादिसम्बन्धयुक्ता इत्यर्थः, 'स्थिरशरीराः' शारीरबलोपेताः, जिताः-वशीकृता निद्रा इन्द्रियाणि च यैस्ते जितनिद्रेन्द्रियाः, 'दक्षाः' कुशलाः, 'तद्भौमाः' तस्यामेव भूमौ भवास्तद्भूमिवास्तव्यलोकपरिचिता इत्यर्थः, 'परिणतवयसश्च' अतिक्रान्त्यौवना मध्यमवयःप्राप्ताः, एवंविधा वृषभास्तत्र स्थापयितन्या इति ॥ २४४५॥ सूत्रम्25 कप्पइ निग्गंथाणं सागारियनिस्साए वा अनिस्साए वा वस्थए २४ ॥ कल्पते निर्बन्थानां सागारिक निश्राय वा अनिश्राय वा वस्तुमिति ॥ अत्र भाष्यम् साहू निस्समनिस्सा, कारणि निस्सा अकारणि अनिस्सा । निकारणम्मि लहुगा, कारणे गुरुगा अनिस्साए ॥ २४४६ ॥ 30 साधवः सागारिकस्य निश्रया अनिश्रया वा वसन्ति । तत्र कारणे निश्रया अकारणे १°भा बहिःस्थिताः सन्तो यः भा.॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४४३-४९] प्रथम उद्देशः । त्वनिश्रया वस्तव्यम् । यदि निष्कारणे सागारिकनिश्रया बसन्ति ततश्चल्लासे लघुकाः । अथ कारणेऽनिश्रया वसन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः ॥ २४४६ ॥ अर्थ निष्कारणे सागारिकनिश्रया तिष्ठतां दोषानाह उद्धेत निवेसिंते, भोजण-पेहासु सारि मोए अ। सज्झाय वंभगुची, असंगता तित्थऽवण्यो य ॥ २४४७॥ कोऽपि साधुरुत्तिष्ठन् वा निविशमानो वा अपावृतीभवेत् तं दृष्ट्य पुरुषाः स्त्रियो वा हसन्ति उड्डञ्चकान् वा कुर्वन्ति । भोजन-समुद्देशनं तत्र मण्डल्यां तुम्बकेषु वा समुद्दिशतो दृष्ट्वा ब्रवीरन्-अहो! अमी अशुचय इति । प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा तस्यां विधीयमानायां "सारि" ति ते सागारिका उड्डश्चकान् कुर्युः । “मोए" त्ति निशि मोकेनाचमने कायिकीव्युत्सर्जने वोड्डाहं कुर्युः । 'खाध्यायम्' अधीयमानं परावर्त्यमानं वा श्रुत्वा कर्णाहृतेनागममन्ति । स्त्रीणां चाङ्गप्रत्यनादौ 10 विलोक्यमाने ब्रह्मचर्यस्यागुप्तिः । तथा लोकोऽपि ब्रूयात्---"असंगय" ति यैः किलासङ्गता प्रतिपन्ना तैः स्त्रीरहिते प्रतिश्रये स्थातव्यमित्येतदप्येते न जानन्ति । तीर्थस्य चाव! भवति, सर्वेऽप्येते एतादृशा इति । यत एते दोषा अत उत्सर्गतः सागारिकस्यानिश्रया बस्तव्यम् । कारणे तु निश्रयाऽपि कल्पते वस्तुम् ॥ २४४७ ॥ तच्चेदम् तेणा सावय मसगा, कारण निकारणे य अहिगरणं । एएहिं कारणेहि, वसंति नीसा अनीसा वा ॥ २४४८॥ स्तेनाः श्वापदा वा यत्रोपद्रवन्ति तत्र ये गृहस्थाः परित्राणं कुर्वते तत्र तन्निश्रया वस्तव्यम् । मशका बाऽन्यत्राभिद्रवन्ति ततो निश्रयाऽपि वस्तव्यम् । निष्कारणे तु निश्रया वसतामप्काययन्त्रवाहनादिकमधिकरणं भवेत् । एतैः कारणैर्निश्रया वा अनिश्रया वा यथायोगं चसन्तीति ॥२४४८३ ॥ सागारिकनिश्रामकृतं समाप्तम् ॥ 15 20 सा गा रि को पा श्र य प्रकृ त म् सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए २५॥ अस्य सम्बन्धमाह निस्स त्ति अइपसंगेण मा हु सागारियम्मि उ वसिजा । ते चेव निस्सदोसा, सागारिएँ निवसतो मा हु॥२४४९॥ 'निर्ग्रन्थीनां सागारिकनिश्रयैव निर्ग्रन्थानामपि कारणे निश्रया वस्तुं कल्पते' इत्युक्तेऽतिप्रसङ्ग१ भुंज त• डे० ता०॥ . 25 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ सनियुक्ति-लघुभप्यवृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ दोषेण मा सागांरिकेऽपि प्रतिश्रये वसेयुः । कुतः ? इत्याह- सागारिकापाश्रये निवसतोमा 'त एव' उत्थान-निवेशनादिविषया निश्रादोषा भवेयुः, अतः सागारिकसूत्रं प्रारभ्यत इति ॥२४४९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - नो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्मन्थीनां वा 'सागारिके' सीगारिकं-द्रव्यतो भावतश्च वक्ष्यमाणलक्षणं तदत्रास्ति इति व्युत्पत्तेः अभ्रादित्वाद् b अप्रत्यये सागारिकः, ईदृशे उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रसङ्क्षेपार्थः ॥ अथ निर्युक्तिविस्तरःसागारियनिक्खेवो, चउव्विहो होइ आणुपुव्वीए । नामं ठवणा दविए, भावे य चउन्विहो भेदो ॥ २४५० ॥ सागारिकपदस्य निक्षेपश्चतुर्विध आनुपूर्व्या भवति, तद्यथा - नाम्नि स्थापनायां द्रव्ये भावे चेति । एष चतुर्विघो मेदः || २४५० ॥ तत्र नाम - स्थापने गतार्थे, द्रव्यतो नोआगमतो 10 ज्ञशरीर - भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसागारिकमाह रूवं आभरणविही, वत्थालंकार भोयणे गंधे । आउज नट्ट नाडग, गीए सयणे य दव्वम्मि ।। २४५१ ॥ रूपमाभरणविधिर्वस्त्रालङ्कारो भोजनं गन्धा आतोद्यं नृत्तं नाटकं गीतं शयनीयं च एतद् द्रव्यसागारिकेम् || २४५१ ॥ तत्र रूपपदं व्याख्याति — जं कटुकम्ममाइसु, रूवं सट्टाणें तं भवे दव्वं । जं वा जीवविमुकं, विसरिसरूवं तु भावम्मि ॥ २४५२ ॥ यत् 'काष्ठकर्मादिषु' काष्ठकर्मणि दा चित्रकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा पुरुषरूपं स्त्रीरूपं वा निर्मितं तत् खस्थाने द्रव्यसागारिकं भवेत् । स्वस्थानं नाम - निर्ग्रन्थानां पुरुषरूपं निर्ग्रन्थीनां तुरूपम् । यत्तु विसदृशरूपं तद् भावसागा रिकम्, निर्ग्रन्थानां स्त्रीरूपं निर्ग्रन्थीनां तु पुरुष20 रूपं भावसागारिकमित्यर्थः । यद् वा जीवविप्रमुक्तं पुरुषशरीरं स्त्रीशरीरं वा तदपि स्वस्थाने द्रव्यसागारिकं परस्थाने तु भावसागारिकमिति ॥ २४५२ ॥ 15 अथ "आभरणविही" इत्यादि व्याख्यायते - आभरणं - कटकादि तस्य विधिः - भेदा आभरणविधिः । वस्त्रमेवालङ्कारो वस्त्रालङ्कारः; यद्वा वस्त्राणि चीनांशुकादीनि, अलङ्कारो द्विधा केशालङ्कार-माल्यालङ्कारभेदात् । भोजनमशन-पान - खाद्य - स्वाद्यभेदाच्चतुर्विधम् । गन्धः-व :-कोष्ठ25 पुट्पाकादिः । आतोद्यं चतुर्विधम् — ततं विततं धनं शुषिरं च । तत्र — तसं वीणाप्रभृतिकं, विततं मुरजादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥ नृत्तमपि चतुर्विधम् तद्यथा— अञ्चितं रिभितम् आरभडं भसोलम्, एते चत्वारोऽपि भेदा नाट्यशास्त्रप्रसिद्धाः । नाटकम् - अभिनयविशेषः । अथवा नहं होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु नायव्वं । आभरणादी पुरिसोवभोग दव्वं तु सट्टाणे ।। २४५३ ॥ 30 १ सागारिकयुक्ते उपाश्रये वस्तु' भा० कां० ॥ २ 'कमिति निर्युक्तिगाथासमासार्थः ॥२४५१ ॥ अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतो रूप कां० ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४५०-५७ ] प्रथम उद्देशः । ६९७ इह 'अगीतं' गीतविरहितं नृत्तं भवति । यत् पुनर्गीतयुक्तं तद् नाटकं ज्ञातव्यम् । गीतं पुनश्चतुर्की-तन्त्रीसमं १ तालसमं २ ग्रहसमं ३ लयसमं ४ चेति । 'शयनं' पल्यङ्कादि । एतदाभरणादिकं यत् पुरुषोपभोगयोग्यं तत् स्वस्थाने 'द्रव्यं' द्रव्यसागारिकं निर्ग्रन्थानामिति भावः । अत्र च भोजन-गन्धा-ऽऽतोद्य-शयनानि द्वयोरपि स्त्री-पुरुषपक्षयोः साधारणत्वाद् द्रव्यसागारिकमेव, शेषाणि तु साधु-साध्वीनां स्वस्थानयोग्यानि द्रव्यसागारिकं परस्थानयोग्यानि तु भावसागा-5 रिकम् ॥ २४५३ ॥ एतेषु प्रायश्चित्तमाह एकिकम्मि य ठाणे, भोअणवजे य चउलहू इंति । चउगुरुग भोअणम्मि, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ २४५४॥ 'एकैकस्मिन्' रूपा-ऽऽभरणादौ 'स्थाने' द्रव्यसागारिके भोजनवर्जे तिष्ठतां चतुर्लघवः, भोजनसागारिके चतुर्गुरवः । केषाञ्चिन्मतेनाभरण-वस्त्रयोरपि चतुर्गुरवः । तत्राप्याज्ञादयो दोषाः, 10 तन्निष्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तमिति भावः ॥ २४५४ ॥ तथा को जाणइ को किरिसो, कस्स व माहप्पया समत्थत्ते । धिइदुब्बला उ केई, डेविति तओ अगारिजणं ॥ २४५५ ॥ को जानाति नानादेशीयानां साधूनां मध्ये कः कीदृशः कीदृक्परिणामः ?, कस्य वा कीदृशी 'महात्मता' महाप्रभावता 'समर्थत्वे' सामर्थ्य लोभनिग्रहं ब्रह्मव्रतपरिपालनं वा प्रतीत्य 16 विद्यते ?, परचेतोवृत्तीनां निरतिशयैरनुपलक्ष्यत्वात् । ततो ये केचिद् धृतिदुर्बलास्ते तत्र रूपाऽऽभरणादिभिराक्षिप्तचित्ताः परित्यक्तसंयमधुरा अगारीजनं 'डेविंति' गच्छन्ति, परिभुञ्जते इत्यर्थः ॥ २४५५ ॥ तथा केइत्थ भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता । रमणिज लोइयं ति य, अम्हं पेतारिसा आसी ॥ २४५६ ॥ 20 केचिद् अत्र' गच्छमध्ये भुक्तभोगिनो निष्क्रान्ताः केचित्त्वभुक्तभोगिनः, तेषां चोभयेषामप्येवं भावः समुत्पद्यते-रमणीयमिदं लौकिकं चरितं यत्रैवं वस्त्रा-ऽऽभरणानि परिधीयन्ते, विविधखाद्यकादीनि यथेच्छं भुज्यन्ते, अस्माकमपि गृहाश्रमे स्थितानामेतादृशा भोगा आसीरन् ॥ २४५६ ॥ इदमेव व्यनक्ति एरिसओ उवभोगो अम्ह वि आसि ण्ह इण्हि उजल्ला । दुक्कर करेमु भुत्ते, कोउगमियरस्स दट्टणं ॥ २४५७ ॥ ईदृगेव गन्ध-माल्य-ताम्बूलाद्युपभोगः पूर्वमस्माकमप्यासीत् , "ह" इति निपातः पादपूरणे, इदानीं तु वयं 'उज्जल्लाः' उत्-प्राबल्येन मलिनशरीरा अलब्धसुखाखादाश्च 'दुष्करं' केशश्मशुलुश्चन-भूमिशयनादि कुर्महे । इत्यं भुक्तभोगी चिन्तयति । इतरः-अभुक्तभोगी तस्य रूपा-ऽऽभरणादिकं दृष्ट्वा कौतुकं भवेत् ॥ २४५७ ॥ १ ततः को दोषः ? इत्यत आह-0-30 सति-कोउगेण दुण्णि वि, परिहिज लइज वा वि आभरणं । १एतचिहस्थः पाठः कां• पुस्तक एव ॥२°नामीदृशं खादन-पानादिकमासीत् ॥२४५६॥ किञ्च भा०॥ ३एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४°तः किम् ? इत्याह का.॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ अनेसि उवभोगं, करिज वाएज वुड्डाहो ॥ २४५८ ॥ स्मृतिश्च कौतुकं चेति द्वन्द्वैकवद्भावः, तेन स्मृति-कौतुकेन द्वावपि भुक्ता-ऽभुक्तभोगिनौ वस्त्राणि वा परिदधीयाताम् , आभरणं वा स्वशरीरे लगयेताम् , 'अन्येषां वा' गन्व-शयनीया ऽऽसनादीनामुपभोगं कुर्याताम् , आतोद्यं वा वादयेताम् । असंयतो का संयतमलङ्कृतविभूषितं दृष्ट्वा 5 लोकमध्ये उड्डाहं कुर्यात् ॥ २४५८ ॥ किञ्च तच्चित्ता तल्लेसा, भिक्खा-सज्झायमुक्कतत्तीया। विकहा-विसुत्तियमणा, गमणुस्सुय उस्मुयम्भूया ॥ २४५९ ॥ तदेव-स्त्रीरूपादिचिन्तनात्मकं चित्तं येषां ते तचित्ताः । लेश्या नाम-तदङ्गपरिभोगाध्यवसायः, सैव लेश्या वेषां ते तल्लेश्याः । भिक्षा-खाध्याययोर्मुक्ता तप्तिः-व्यापारो यैस्ते भिक्षा-स्वाध्याय10 मुत्ततप्तिकाः। तथा संयमाराधनीया वाम्योगप्रवृत्तिः सा कथा, तद्विपक्षभूता विकथा, विश्रोत. सिका नाम-स्त्रीरूपादिस्मरणजनिता चित्तविप्लुतिः, तयोर्मनो येषां ते विकथा-विश्रोतसिकामनसः । एवंविधास्ते केचिद् गमने-अवधावने उत्सुकीभवन्ति, केचिच 'उत्सुकीभूताः' उत्प्रव्रजिता इत्यर्थः ॥ २४५९ ॥ तत्र विकथा कथं भवति ? इत्याह सुट्ट कयं आभरणं, विणासियं न वि य जाणसि तुम पि । 16 मुच्छुड्डाहो गंधे, विसुत्तिया गीयसदेसु ॥ २४६०॥ एकः साधुर्ब्रवीति-'सुष्टु' शोभनं कृतमिदमामरणम् ; द्वितीयः प्राह -विनाशितमेतत् , त्वमप्यविशेषज्ञो न जानासि । एवमुत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतोस्तयोरसङ्खडमुपजायते, मूच्छी वा तत्र रूपादौ कोऽपि कुर्यात् , तया चासौ सपरिग्रहो भवति । “उड्डाहो गंधे" त्ति चन्दनादिना गन्धेनात्मानं यदि कोऽपि विलिम्पति पटवासादिभिर्वा वासयति तत उड्डाहो भवति, नूनं 20 कामिनोऽमी अन्यथा कथमित्थमात्मानं मण्डयन्ति ? इति । » आतोच-गीतशब्देषु च श्रूयमागेषु विश्रोतसिका जायते। अनेन विश्रोतसिकापदमपि व्याख्यातम् ॥२४६०॥ अपि च निचं पि दव्वकरणं, अवहियहिययस्स गीयसद्देहि । पडिलेहण सज्झाए, आवासग भुंज वेरत्ती ॥ २४६१॥ 'नित्यमपि' सर्वकालं गीतादिशब्दैरपहृतहृदयस्य प्रत्युपेक्षणायां खाध्याये आवश्यके भोजने वैरात्रिके उपलक्षणत्वात् प्रामातिकादिकालेषु च द्रव्यकरणमेव भवति न भावकरणम् , मणसहिएण उ कारण कुणइ वायाएँ भासई जं च। एअंतु भाक्करणं, मणरहितं दबकरणं तु॥ (आव० नि० गा० १४८६) इति वचनात् ॥ २४६१ ॥ ते सीदितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं । गलइ जतुं तप्पंत, एव चरित्तं मुणेवव्वं ॥ २४६२ ॥ १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां• नास्ति ॥ २ » एतन्मध्यमः पाठः कां• पुस्तक एवं वर्तते ॥ ३°णम् । द्रव्यकरणं नाम चेतःशून्या वाकाययोः प्रवृत्तिः। तदुक्तमावश्यकेमणसहिएण० माथा इति ॥ २४६१ ॥ ततः किम् ? इत्याह-ते सीदितु कां० ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४५८-६७] प्रथम उद्देशः। ६९९ 'ते' साधव एवं विधेन वसतिदोषेण 'संयमयोगेषु' आवश्यकव्यापारेषु सीदितुमारब्धाः । ततश्च 'जतु' लाक्षा यथा तदमिना तप्यमानं गलति एवं रागामिना तप्यमानं चारित्रमपि परिगलतीति ज्ञातव्यम् ॥ २४६२ ॥ __ उनिक्खंता केई, पुणो वि सम्मेलणाएँ दोसेणं । वचंति संभरंता, भंतूण चरित्तपागारं ॥ २४६३ ॥ तस्यां वसतौ स्त्रीरूपादिसम्मेलनाया दोषेण 'केचिद्' मन्दभाग्याः 'उन्निष्क्रान्ताः' उत्पत्रजिताः, ततश्चारित्रमेव प्राकारः-जीवनगररक्षाक्षमत्वाचारित्रप्राकारस्तं भक्त्वा तान्येवस्त्रीरूपादीनि संस्मरन्तः पुनरपि गृहवासं व्रजन्ति ॥ २४६३ ॥ ततः किमभूत् ? इत्याह एगम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवटुप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं.॥ २४६४ ॥ 10 यद्येक उन्निष्कामति ततो मूलम् , द्वयोरवधावतोरनवस्थाप्यम् , त्रिप्ववधावमानेषु तत्राचार्यः पाराश्चिकं स्थान प्राप्नोति, यस्य वा वशेन तत्र स्थितास्तस्येदं प्रायश्चित्तमिति ॥ २४६४ ॥ गतं द्रव्यसागारिकम् । अथ भावसागारिकमाह अट्ठारसविहऽभं, भावउ ओरालियं च दिव्वं च ।। मण-वयस-कायगच्छण, भावम्मि य रूव संजुत्तं ॥ २४६५॥ 15 अष्टादशविधमब्रह्म भवति । तस्य चौदारिक-दिव्यलक्षणौ द्वौ मूलभेदौ । तत्रौदारिकं नवविधम्-औदारिकान् कामभोगान् मनसा गच्छति मनसा गमयति गच्छन्तमन्यं मनसैवानुजानीते, एवं वाचाऽपि त्रयो भेदाः प्राप्यन्ते, कायेनापि त्रयः, एतैस्त्रिभिस्त्रिकैनव भेदा भवन्ति । एवं दिव्येऽप्यब्रह्मणि नव भेदा लभ्यन्ते । एवमेतदष्टादशविधमब्रह्म भावसागारिक भवति । अथवा रूपंवा 'संयुक्तं वा' रूपसहगतं यदब्रह्मभावोत्पत्तिकारणं तदपि भावसागारिकम् ॥२४६५। 30 एतदेव स्पष्टयति अहव अभं जत्तो, भावो रूवाउ सहगयाओ वा। भूसण-जीवजुयं वा, सहगय तव्यजिय रूवं ॥ २४६६ ।। अथवा यतो रूपाद्वा रूपसहगताद्वा अब्रह्मरूपो भाव उत्पद्यते तदपि कारणे कार्योपचाराद् भावसागारिकम् , यथा “नडलोदकं पादरोगः" इति । तत्र यत् स्त्रीशरीरं भूषणसंयुक्तमभूषितं 23 वा यद् जीवयुक्तं तद् रूपसहगतं मन्तव्यम् । यत् पुनः स्त्रीशरीरमेव 'तद्वर्जितं' भूषणविरहितं जीववियुक्तं वा तद् रूपमुच्यते ॥ २४६६ ॥ तं पुण रूवं तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च। पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव ॥ २४६७ ॥ 'तत् पुनः' अनन्तरोक्तं रूपं त्रिविधम् -दिव्यं मानुष्यं तैरश्चं च । पुनरेकैकं विधा- 30 प्राजापत्यपरिगृहीतं कौटुम्बिकपरिगृहीतं दण्डिकपरिगृहीतं चेति । प्राजापत्याः प्राकृतलोका १°ति । अथ किमिदं रूपं रूपसहगतं वा? इत्यत आह-"भूसण" इत्यादि, तत्र कां०॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ उच्यन्ते । एतत् त्रिविधमपि प्रत्येकं त्रिधा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् ॥ २४६७ ॥ तत्र दिव्यस्य जघन्यादिभेदत्रयमाह वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं च मज्झिमगं । वेमाणिय उक्कोसं, पगयं पुण ताण पडिमासु ॥ २४६८॥ 6 दिव्येषु यद् वानमन्तरिकं रूपं तद् जघन्यम् , भवनपति-ज्योतिष्कयोर्मध्यमम् , वैमानिकरूपमुत्कृष्टम् । अत्र च तेषां' वानमन्तरादीनां याः प्रतिमास्ताभिः 'प्रकृतम्' अधिकारः, सागारिकोपाश्रयस्य प्रस्तुतत्वात् , तत्र च प्रतिमानामेव सद्भावात् ॥ २४६८ ।। प्रकारान्तरेण दिव्यप्रतिमानां जघन्यादिभेदानाह ___ कढे पुत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि । [आव.नि. १३५] 10 सेलम्मि य उक्कोसं, जं वा रूवाउ निप्फनं ॥ २४६९ ॥ ____ या दिव्यप्रतिमा काष्ठकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा क्रियते तद् जघन्यं दिव्यरूपम् । या तु हस्तिदन्ते क्रियते तद् मध्यमम् । या पुनः शैले चशब्दाद् मणिप्रभृतिषु च क्रियते तदुत्कृष्टम् । यद्वा रूपाद् निष्पन्नं जघन्यादिकं द्रष्टव्यम्-या दिव्यप्रतिमा विरूपा तद जघन्यं दिव्यरूपम् , या तु मध्यमरूपा तन्मध्यमम् , या पुनः सुरूपा तदुत्कृष्टम् । अत्र 16 चौघतः प्रतिमायुते उपाश्रये तिष्ठतश्चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् ॥ २४६९ ॥ अथौघविभागतः प्रायश्चित्तमाह ठाण-पडिसेवणाए, तिविहे वी दुविहमेव पच्छित्तं । लहुगा तिन्नि विसिट्ठा, अपरिगहे ठायमाणस्स ॥ २४७० ॥ 'त्रिविधेऽपि' जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्ने दिव्ये प्रतिमायुते तिष्ठतो द्विविधं प्रायश्चित्तम्20 स्थाननिष्पन्नं प्रतिसेवनानिष्पन्नं च । तत्र स्थाननिष्पन्नमिदम्-दिव्ये प्रतिमायुतेऽपरिगृहीते तिष्ठतस्त्रयश्चतुर्लघुकास्तपः-कालविशिष्टाः, तद्यथा-जघन्ये चत्वारो लघुकास्तपसा कालेन च लघुकाः, मध्यमे त एव कालगुरुकाः, उत्कृष्ट त एव तपोगुरुकाः ॥ २४७० ॥ अथ परिगृहीते प्रायश्चित्तमाह चत्तारि य उग्धाया, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्धाया । छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स ॥ २४७१॥ पायावच्चपरिग्गहें, दोहि वि लहु होंति एते पच्छित्ता । कालगुरू कोडंबे, दंडियपारिग्गहे तवसा ॥ २४७२ ।। प्रथम-जघन्यं तत्र तिष्ठतश्चत्वारः 'उद्धातिमाः' लघवो मासाः । द्वितीयं-मध्यमं तत्र 'त एव' चत्वारो मासाः 'अनुद्धाता' गुरुका इत्यर्थः । उत्कृष्ट तु तिष्ठतः षण्मासा उद्धाताः, षड्३८ लघव इत्यर्थः ॥ २४७१ ।। एतानि च प्रायश्चित्तानि प्राजापत्यपरिगृहीते 'द्वाभ्यामपि' तपः-कालाभ्यां मधुकानि द्रष्ट१त् । गाथायां "पडिमासु" त्ति तृतीयार्थे सप्तमी ॥ २४६८ ॥ कां० २ अथात्रैव विभा° भा० का• विना ॥ ३°हे दुविहं तु होति पच्छित्तं ता० ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४६८-७७ ] प्रथम उद्देशः । ७०१ व्यानि । कौटुम्बिकपरिगृहीते एतान्येव कालगुरुकाणि । दण्डिकपरिगृहीते एतान्येव तपसा गुरुकाणि ॥ २४७२ ॥ __इदं च यसाजघन्यादिविभागेन निर्दिष्टं सन्निहिता-ऽसन्निहितभेदेन न विशेषितं तस्मादेतदोपविभागप्रायश्चित्तमभिधीयते । अथ विभागप्रायश्चित्तं निरूपयितव्यम् , तत्र चैतान्येव जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि सन्निहिता-सन्निहितभेदाभ्यां विशेष्यमाणानि षट् स्थानानि भवन्ति, 5 एतेषु प्रायश्चित्तमाह चत्तारि य उग्धाता, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। तइयम्मि अणुग्घाया, चउत्थ छम्मास उग्धाता ॥ २४७३ ॥ पंचमगम्मि वि एवं, छटे छम्मास होतऽणुग्घाया। असनिहिए सन्निहिए, एस विही ठायमाणस्स ॥ २४७४ ॥ 10 प्रथमं नाम-जघन्यमसन्निहितं द्वितीयं-जघन्यं सन्निहितं तृतीयं-मध्यममसन्निहितं चतुर्थमध्यमं सन्निहितं पञ्चमम्-उत्कृष्टमसन्निहितं षष्ठम्-उत्कृष्टं सन्निहितम् । अत्रायमुच्चारणविधिःजघन्यकेऽसन्निहिते प्राजापत्यपरिगृहीते तिष्ठति चत्वार उद्धाता मासाः, सन्निहिते तिष्ठति 'त एवं चत्वारो मासा अनुद्धाताः, मध्यमकेऽसन्निहिते चत्वारो मासा अनुद्धाताः, सन्निहिते षण्मासा उद्धाताः, उत्कृष्टेऽसन्निहिते षण्मासा उद्धाताः, सन्निहिते षण्मासा अनुद्धाताः ।। ॥ २४७३ ॥ २४७४ ॥ एषोऽसन्निहिते सन्निहिते च तिष्ठतः प्रायश्चित्तविधिरुक्तः । अथ प्राजापत्यादिविशेषत एनमेव विशेषयति पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं । बिइयम्मि अ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि ॥ २४७५ ॥ 'प्रथमे स्थाने' प्राजापत्यपरिगृहीते एतानि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामपि लघुकानि, तद्यथा-20 तपसा कालेन च । 'द्वितीये' कौटुम्बिकपरिगृहीते तान्येव कालगुरुकाणि । 'तृतीये' दण्डिकपरिगृहीते एतान्येव तपोगुरुकाणि ॥ २४७५ ॥ स्थानप्रायश्चित्तमेव प्रकारान्तरेणाह __ अहवा भिक्खुस्सेयं, जहन्नगाइम्मि ठाणपच्छित्तं । गणिणो उवरिं छेदो, मूलायरिए पदं हसति ॥ २४७६ ।। अथवा यदेतद् जघन्यादौ चतुर्लघुकादारभ्य षड्गुरुकावसानं स्थानप्रायश्चित्तमुक्तं तद् भिक्षो-25 रेव द्रष्टव्यम् । गणी-उपाध्यायस्तस्य षगुरुकादुपरि च्छेदाख्यं प्रायश्चित्तपदं वर्द्धते, एकं पदं चतुर्लघुकाख्यमधो इसति, चतुर्गुरुकादारभ्य च्छेदे तिष्ठतीत्यर्थः । आचार्यस्य षड्लघुकादारब्धं मूलं यावत् प्रायश्चित्तम् , अत्राप्येकं पदमुपरि वर्द्धते अधस्तादेकं पदं हसतीति ॥ २४७६ ॥ गतं स्थानप्रायश्चित्तम् । अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाह चत्तारि छ च लहु गुरु, छम्मासितों छेदों लहुग गुरुगो य। 30 मूलं जहन्नगम्मि, सेवंति पसजणं मोत्तुं ॥ २४७७ ॥ प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्येऽसन्निहितेऽदृष्टे प्रतिसेवमाने चत्वारो लघवः, दृष्टे चत्वारो १ अथामून्येव प्रायश्चित्तानि तप कालाभ्यां विशेषयन्नाह का० ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ गुरवः, सन्निहितेऽदृष्टे चतुर्गुरवः, दृष्टे षड्लघवः । कौटुम्बिकपरिगृहीते जघन्येऽसन्निहितेऽदृष्टे प्रतिसेविते षड्लघवः, दृष्टे षड्गुरवः, सन्निहितेऽदृष्टे षड्गुरवः, दृष्ट लघुवाण्मासिकच्छेदः । दण्डिकपरिगृहीतं जघन्यकमसन्निहितमदृष्टं प्रतिसेवितं लघुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्टे मुरुषाण्मासिकच्छेदः, सन्निहितेऽदृष्टे गुरुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्टे मूलम् । एतद् जघन्यं दिव्यप्रतिमारूपं सेवमानस्य प्रायश्चित्तं भणितम् । प्रसजना नाम-दृष्टे सति शङ्का-भोजिका-घाटिकादीनां ग्रहणा-ऽऽकर्षणप्रभृतीनां वा दोषाणां परम्परया प्रसङ्गः, तां मुक्त्वा एतद् प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्, तन्निष्पन्नं तु पृथगापद्यत इत्यर्थः ॥ २४७७ ॥ अथ मध्यमे प्रायश्चित्तमाह चउगुरुग छ च लहु गुरु, छम्मासिओं छेदों लहुओं गुरुगो य । मूलं अणवटुप्पो, मज्झिम' पसजणं मोत्तुं ॥ २४७८ ।।। 1. मध्यमे प्राजापत्यपरिगृहीतेऽसन्निहितेऽदृष्टे प्रतिसेविते चतुर्गुरवः, दृष्टे षड्लघवः, सन्निहितेऽदृष्टे षड्लघवः, दृष्टे षड्गुरवः । कौटुम्बिकपरिगृहीतेऽसन्निहितेऽदृष्टे षड्गुरवः, दृष्टे लघुपाण्मासिकच्छेदः, सन्निहितेऽदृष्टे लघुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्टे गुरुषाण्मासिकच्छेदः । दण्डिक परिमृहीतेऽसन्निहितेऽदृष्टे मुरुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्टे मूलम् , सन्निहितेऽदृष्टे मूलम् , दृष्टेऽनवस्थाप्यम् । एतद् मध्यमके प्रसजनां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम् ॥ २४७८॥ उत्कृष्टविषयमाह16 तक छेदो लहु गुरुगो, छम्मासितों मूल सेवमाणस्स । अणवठ्ठप्पो पारंचि, उक्कोसे पसज्जणं मोत्तुं ।। २४७९ ॥ उत्कृष्ट प्राकृतपरिगृहीतेऽसन्निहितेऽदृष्टे प्रतिसेविते लघुपाण्मासिकं तपः, दृष्टे मुरुषाण्मासिक तपः, सन्निहितेऽदृष्टे गुरुषाण्मासिकं तपः, दृष्टे लघुषाण्मासिकच्छेदः । कौटुम्बिकपरिगृहीतेऽसनिहितेऽदृष्टे लघुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्टे गुरुषाण्मासिकच्छेदः, सन्निहितेऽदृष्टे गुरुषाण्मासिक2८च्छेदः, दृष्टे मूलम् । दण्डिकपरिगृहीतेऽसन्निहितेऽदृष्टे मूलम् , दृष्टेऽजवस्थाप्यम् , सनिहितेऽ. हटेऽनवस्थाप्यम्, दृष्टे पाराश्चिकम् । एवमुत्कृष्टे दिव्यप्रतिमारूपे प्रसजनां मुत्य प्रायश्चित्तमवसातव्यम् ॥२४७९॥ अथ यथा चारणिकाया अभिलापः कर्त्तव्यस्तों भाष्यकृदुपदर्शयति पायावच्चपरिग्गहें, जहन सनिहियए असनिहिए । दिवादिद्वे सेवइ, एसाऽऽलावो उ सव्वत्थ ॥ २४८० ॥ 28 प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्येऽसन्निहिते सन्निहितेऽदृष्टे दृष्टे च सेवते, गाथायामसन्निहिताऽदृष्टपदयोर्बन्धानुलोम्यात् पश्चान्निर्देशः, 'एषः' ईदृशः 'आलापः' उच्चारणविधिः 'सर्वत्र' कौटुम्बिकपरिगृहीतादौ मध्यमादौ च कर्तव्यः ॥ २४८० ॥ अत्र नोदकः प्राह जम्हा पढमे मूलं, विइए अणवट्ठों तइऍ पारंची। तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची ॥ २४८१ ॥ 30 यस्मात् 'प्रथमे' जघन्ये प्रतिसेवमानस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलं यावत् प्रायश्चित्तं भवति, _ 'द्वितीये' मध्यमे चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा अनवस्थाप्यम् , 'तृतीये' उत्कृष्टे षड्लघुकादारब्धं पाराश्विकं यावद् भवति, तस्मात् तिष्ठत एव स्थाननिष्पन्नानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टेषु यथाक्रम १°वट्ठा पारंची, उ° ता० ॥ २ °था दर्श° भा० ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 माष्यगाथाः २४७८-८५] प्रथम उद्देशः । ७०३ मूला-ऽनवस्थाप्य-पाराञ्चिकानि भवन्तु ॥ २४८१ ॥ सूरिराह पडिसेवणाएँ एवं, पसजणा तत्थ होइ एकेके । चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं ॥ २४८२ ॥ जघन्यादिप्रतिसेवनायाम् ‘एवं' मूला-ऽनवस्थाप्य-पाराञ्चिकानि दीयन्ते । यदि पुनः स्थितः सन् नैव प्रतिसेवते ततः कथं तानि भवन्तु ? । अथ प्रसङ्गमिच्छति तत एकैकस्मिन् प्राय- 5 श्चित्तस्थाने 'तत्र' अनन्तरोक्ते प्रसजना भवति' । तथाहि-तं साधुं तत्र स्थितं दृष्ट्वा कश्चिदविरतिकः शङ्कां कुर्यात् , नूनं प्रतिसेवनानिमित्तमत्रैष स्थित इति, ततो भोजिका-घाटिकादिदोषप्रसङ्ग इति । तथा चरमपेदं नाम-अदृष्टपदाद् दृष्टपदं तत्र 'चरमपदं' पाराश्चिकं यावद् भवति । यच्चाज्ञादिदोषनिष्पन्नं चतुर्गुरुकादि तदपि द्रष्टव्यमिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ २४८२ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह जइ पुण सव्यो वि ठितो, सेविजा होज चरिमपच्छित्तं । तम्हा पसंगरहियं, जं सेवइ तं न सेसाई ॥ २४८३ ॥ पुनःशब्दो विशेषणे । किं विशिनष्टि ? यद्येष नियमो भवेद् यस्तिष्ठति स सर्वोऽपि स्थितः सन् प्रतिसेवते ततो नोदक ! भवेत् तिष्ठत एव त्वदुक्तं चरमप्रायश्चित्तम् , तच्च नास्ति, सर्वस्यापि स्थितस्त्र प्रतिसेवकत्वाभावात् । तस्मात् प्रसङ्गरहितं यत् स्थानं सेवते तनिष्पन्नमेक प्रायश्चि । भवति, न 'शेषाणि' मूलादीनि ॥२४८३॥ अथ "चरमपदे चरमपद"मिति पदं भाक्यति अद्दिट्ठाओ दिटुं, चरिमं तहि संकमाइ जा चरिमं । अहवण चरिमाऽऽरोवण, ततो वि पुण पावए चरिमं ॥ २४८४ ॥ अदृष्टपदाद् दृष्टपदं चरमम् , तत्र चरमपदे शङ्का-भोजिका-घाटिकादिक्रमेण चरमपदं पाराञ्चिकं याक्त् प्रामोति । आह यदि दृष्टं ततः कथं शङ्का ननु निःशङ्कितमेव ? उच्यते-दूरेण " गच्छतो दृष्टेऽपि पदार्थे सम्यगविभाविते शङ्का भवति । अथवा या यत्र 'चरमाऽऽरोपणा' यया जघन्ये चरमं मूलं मध्यमे चरममनवस्थाप्यं उत्कृष्टे चरमं पाराश्चिकं तत् तत्र चरमपदम् । 'ततोऽपि' चरमपदात् शङ्कादिभिः पदैः 'चरम' पाराञ्चिकं पुनः प्राप्नोति ॥ २४८४ ॥ अहवा आणाइविराहणाउ एक्किकियाउ चरिमपदं । पावइ तेण उ नियमो, पच्छित्तिहरा अइपसंगो ॥ २४८५॥ 25 अथवा आज्ञा-ऽनवस्था-मिथ्यात्व-विराधनापदानां मध्ये यद् विराधनापदं तच्चरमम् । सा च विराधना द्विधा-आत्मनि संयमे च । तस्या एकैकस्याः सकाशात् 'चरमपदं' पाराश्चिक प्रामोति । तत्र प्रतिमाया यः खामी तेन दृष्ट्वा प्रतापितस्यात्मविराधनायां परितापनादिक्रमेण पाराञ्चिकम् । संयमविराधनायां तु तस्याः प्रतिमाया हस्ताद्यवयवे भने भूयः संस्थाप्यमाने सति "छक्काय चउसु लहुगा" (गा० ४६१) इत्यादिक्रमेण पाराञ्चिकम् । यत एवं प्रसङ्गतो 30 १ति । कथम् ? इति चेत् उच्यते-तं साधु भा० ॥ २°पद-दृष्टं तत्र 'चरमपदं पाराञ्चिकं यावद् भवति । तत्रापि च प्रायश्चित्तमाशादिदोपनिष्पन्नं पृथग् द्रष्टव्यमिति सङ्ग भा० ॥ ३°ति नियुक्ति गाथा कां० ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ सनियुक्ति-लघुभाग्य-वृनिके बृहत्कल्पसूत्रे [सागारिकोपा० मू० २५ बहुविधं प्रायश्चित्तं तेनायं नियमः-तिष्ठतः स्थानप्रायश्चित्तमेव न प्रतिसेवनाप्रायश्चितम् , इतरथा अतिप्रसङ्गो भवति ॥ २४८५ ।। कथम् ? इति चेद् उच्यते नत्थि खलु अपच्छित्ती, एवं न य दाणि कोइ मुच्चिजा । कारि-अकारीसमया, एवं सइ राग-दोसा य ॥ २४८६ ॥ 5 यद्यपतिसेवमानस्यापि मूलादीनि भवन्ति तत एवं नास्ति कोऽप्यप्रायश्चित्ती, न चेदानीं कश्चित् कर्मबन्धान्मुच्येत, यः प्रतिसेवते तस्य कारिणोऽकारिणश्च समता भवति, एवं च प्रायश्चित्तदाने सति राग-द्वेषौ प्रामुत इति ।। २४८६ ॥ तदपि चाज्ञादिनिष्पन्नमिति (ग्रन्थाअम्-५५२० । सर्वग्रन्थानम्-१७७२०) पदं व्याख्यानयति मुरियादी आणाए, अणवत्थ परंपराएँ थिरिकरणं । मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं ॥ २४८७ ।। अपराधपदे वर्तमानस्तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गं करोति तत्र चतुर्गुरु । अत्र च मौर्यः-मयूरपोषकवंशोद्भवैः आदिशब्दादपरैश्चाज्ञासारै राजभिदृष्टान्तः । तस्मिँश्च कालेऽसावनवस्थायां वर्तते तत्र चतुर्लधु । अनवस्थातश्च परम्परया 'स्थिरीकरणं' तदेवापराधपदमन्योऽपि करोतीत्यर्थः, तदा चासौ देशतो मिथ्यात्वमासेवते तत्र चतुर्लघु । अपराधपदे वर्तमानो विराधनायां साक्षादेव 15 वर्चते, परस्य च शङ्कादिकं जनयति यथैतद् मृषा तथाऽन्यदपि सर्वममीषां मृषैव । प्रसजना चात्र भोजिका-घाटिकादिरूपा । तत्र चरमं-पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तं भवति ॥ २४८७ ॥ अथ नोदकः प्राह अवराहे लहुगयरो, किं णु हु आणाएँ गुरुतरो दंडो। _आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥२४८८॥ 20 परः प्राह-जघन्यकेऽपरिगृहीते परिगृहीते वा तिष्ठति प्राजापत्यपरिगृहीतं वा जघन्यम सन्निहितमदृष्टं प्रतिसेवते उभयत्रापि चतुर्लघु, एवं स्थानतः प्रतिसेवनतश्चापराधे लघुतरो दण्ड उक्तः, आज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकमिति, अतः 'किम्' इति परिप्रश्ने, 'नुः' इति वितकें, 'हुः' इति गुर्वामन्त्रणे, किमेवं भगवन् ! आज्ञायां भमायां गुरुतरो दण्डो दीयते ? । सूरिराह-आज्ञयैव चरणं व्यवस्थितम् , तस्या भङ्गे कृते सति किं न भग्नं चरणस्य ? सर्वमपि भग्नमेवेति भावः, 25 अपि च लौकिका अप्याज्ञाया भङ्गे गुरुतरं दण्डं प्रवर्तयन्ति ॥ २४८८ ॥ तथा चात्र पूर्वोद्दिष्टं मौर्यदृष्टान्तमाह--- भत्तमदाणमडते, आणढवणंच छेत्तु वंसवती। गविसण पत्त दरिसए, पुरिसवइ सबालडहणं च ॥ २४८९ ॥ पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तो राया । सो य मोरपोसगपुत्तो त्ति जे खत्तिया अभिजाणंति 30 ते तस्स आणं परिभवंति । चाणकस्स चिंता जाया-आणाहीणो केरिसो राया ? तम्हा जहा एयस्स आणा तिक्खा भवइ तहा करेमि त्ति । तस्स य चाणक्कस्स कप्पडियत्ते भिक्खं अडं १वते यश्च न प्रतिसेवते तस्य कां० ॥ २ गाथेयं चूर्णिकृता“अवराहे” २४८८ गाथाऽनन्तरं व्याख्याताऽस्ति ॥ ३°स्थाप्ये व भा. कां. विना ॥ ४परप्र° भा० त० डे० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्टगाथाः २४८६-२२] प्रथम उद्देशः । तस्स एगम्मि गामे भत्तं न लद्धं । तत्थ य गामे बहू अंबा वंसा य अत्थि । तओ तस्स गामम्स पडिनिविटेणं आणाटवणनिमित्तं इमेरिसो लेहो पेसिओ-आम्रान् छित्त्वा वंशानां दृति शीघ्र कार्येति । तेहि अगामेअगेहिं 'दुल्लिहियं' ति काउं वंसे छेत्तुं अंबाण वई कया । गवेसावियं चाणकेण-किं कयं ति ? । तओ तत्थागंतूण उवालद्धा ते गामेयगा-एते वंसगा रोहगादिसु उवरत्नंति, कीस भे छिन्न ? त्ति । दंसियं लेहचीरियं-अन्नं संदिहें अन्नं । चेव करेह त्ति । तओ पुरिसेहिं अधोसिरेहिं वई काउं सो गामो सबो दड्डो॥ अथ गाथाक्षरगमनिका-चाणक्यस्य भिक्षामटतः कापि ग्रामे भक्तस्य 'अदानं' भिक्षा न लब्धेत्यर्थः । तत आज्ञास्थापनानिमित्तमयं लेखः प्रेषितः -"अंब छेत्तुं वंसवई" ति आम्रान् छित्त्वा वंशानां वृतिः कर्त्तव्या । ततो गवेषणे कृते प्रामेण च पत्रे दर्शिते 'अन्यदादिष्टं मया अन्यदेव च भवद्भिः कृतम्' इत्युपालभ्य ते पुरुषैर्वृतिं . कारयित्वा सबाल-वृद्धस्य ग्रामस्य दहनं 10 कृतम् ॥ २४८९ ॥ एष दृष्टान्तः । अर्थोपनयस्त्वेवम् __ एगमरणं तु लोए, आणऽइआरुत्तरे अणंताई । अवराहरक्खणट्ठा, तेणाणा उत्तरे बलिया ॥ २४९० ॥ लोके आज्ञाया अतिचारे-अतिक्रमे एकमेव मरणमवाप्यते, लोकोत्तरे पुनराज्ञाया अतिचारेऽनन्तानि जन्म-मरणानि प्राप्यन्ते । तेन कारणेनापराधरक्षणार्थं लोकोत्तरे आज्ञा बलीयसी 15 ॥२४९० ॥ अथानवस्था-मिथ्यात्व-विराधनापदानि व्याचष्टे अणवत्थाऍ पसंगो, मिच्छने संकमाइया दोसा । दुविहा विराहणा पुण, तहियं पुण संजमे इणमो ।। २४९१ ॥ 'यद्येष बहुश्रुतोऽप्येवं सागारिके प्रतिश्रये स्थितस्ततः किमहमपि न तिष्ठामि ?' इत्येवमनवस्थायामन्यस्यापि प्रसङ्गो भवति । मिथ्यात्वे शङ्कादयो दोषाः, शङ्का नाम-किं मन्ये यथा वादिन- 20 स्तथा कारिणोऽमी न भवन्ति ?, आदिशाद विरत्यादिधर्म प्रतिपद्यमानानां विपरिणाम इत्यादिदोपपरिग्रहः । विराधना पुनर्द्विविधा-संयमे आत्मनि च । तत्र संयमविषया तावदियम् ॥२४९१॥ अणहादंडो विकहा, वक्खेवों विसोत्तियाएँ सइकरणं ।। आलिंगणाइदोसा, असन्निहिए ठायमाणस्स ॥ २४९२ ॥ अर्थः-प्रयोजनं तदभावोऽनर्थः तेन दण्डोऽनर्थदण्डः, स च द्रव्यतो यदकारणे राजकुले २० दण्ड्यते, भावतस्तु निष्कारणं ज्ञानादीनां हानिः सागारिके प्रतिश्रये स्थितानां भवति । 'विकथा' वक्ष्यमाणरूपा । 'व्याक्षेपो नाम' तां प्रतिमा प्रेक्षमाणस्य द्वितीयसाधुना सहोल्लापं कुर्वतः सूत्रार्थपरिमन्थः । विश्रोतसिका द्रव्य-भावभेदाद् द्विधा । द्रव्यतः सारणीपानीयं वहमानं तृणादिकचवरेण पुरःस्थितेन निरुद्धं यदन्यतः कुशारादिषु गच्छति ततश्च सस्यहानिरुपजायते । भावतस्तु ज्ञानादिजले जीवकुल्यायां वहमानतृणादिकचवरस्थानीयया चित्तविप्लुत्या निरुद्धे 30 सति चारित्रसस्यविनाशो जायते सा विश्रोतसिकेत्युच्यते । तया स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनाम , ..१ तओ तस्सेव गामस्स सवालवुडेहिं पुरि° कां० ॥ २ या समुत्पन्नया स्मृ कां० ॥ ३°म् , उपलक्षणत्वादभु को० ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ अभुक्तभोगिनां तु कौतुकमालिङ्गनादयश्च दोषा भवन्ति । एतेऽसन्निहिते प्रतिमारूपे तिष्ठतो दोषाः ॥ २४९२ ॥ अथ विकथापदमालिङ्गनादिपदं च विवृणोति---- सुट्ट कया अह पडिमा, विणासिया न वि य जाणसि तुमं पि । __ इय विकहा अहिगरणं, आलिंगणे भंगें भहितरा ॥ २४९३ ।। 6 एकः साधुर्ब्रवीति- सुष्ठ कृतेयं प्रतिमा, द्वितीयः प्राह–विनाशितेयं नापि च जानासि त्वमपि इत्येवं विकथा । ततश्चोत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतस्तयोरधिकरणं भवति । अथ कोऽप्युदीर्णमोहस्तां प्रतिमामालिङ्गेत् तत आलिङ्गने प्रतिमाया हस्त-पादादिभङ्गो भवेत् । सपरिग्रहायां च प्रतिमायां भद्रकेतरदोषाः-भद्रको हस्त-पादादिभङ्गे सञ्जाते सति पुनः संस्थापनं विदध्यात्, प्रान्तस्तु ग्रहणा-ऽऽकर्षणादीनि कुर्यात् ॥ २४९३ ॥ 10 एतेऽसन्निहिते दोषा उक्ताः । सन्निहितेऽपि त एव वक्तव्याः, एते चाभ्यधिकाः वीमंसा पडिणीयट्ठया व भोगत्थिणी व सन्निहिया ।। काणच्छी उकंपण, आलाव निमंतण पलोभे ॥ २४९४ ॥ या तत्र सन्निहिता देवता सा त्रिभिः कारणैः साधुं प्रलोभयेत्-विमर्शाद्वा प्रत्यनीकार्थतया वा भोगार्थितया वा । विमर्शो नाम-'किमेघ साधुः शक्यः क्षोभयितुं न वा?' इति जिज्ञासा 1B तया प्रतिमायामनुप्रविश्य काणाक्षिकं वा उत्कम्पनं वा स्तनादीनां विदधीत, आलापं वा कुर्यात् अमुकनामधेय ! कुशलं तव ? इत्यादि, निमन्त्रणं वा विदध्यात्-मया सह खामिन् ! भोगानुप क्ष्व, प्रलोभनं वा कक्षान्तरोरुदर्शनेन कुर्वीत ॥ २४९४ ॥ काणच्छिमाइएहिं, खोभिय उद्धाइयस्स भद्दा उ। नासह इयरो मोह, सुवण्णकारेण दिटुंतो ॥ २४९५ ॥ 20 यदा काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभितस्तदा 'गृह्णाम्येनाम्' इत्यभिप्रायेणोद्धावितस्ततस्तस्य सा देवता यदि भद्रा ततो नश्यति । 'इतरः' साधुस्तस्यामदर्शनीभूतायां मोहं गच्छति, सम्मूढश्च तां द्रष्टुमिच्छति, हा कुत्र गताऽसि ? देहि सकृदात्मीयं दर्शनम्' इत्यादिप्रलापाँश्च करोति । अत्र च 'सुवर्णकारेण' चम्पानगरीवास्तव्येन अनङ्गसेनाख्येनं दृष्टान्तः, स च आवश्यकादिग्रन्थेषु सुप्रसिद्धः (आव० हारि० टीका पत्र २९६) ॥ २४९५ ॥ 25 अथ प्रत्यनीकार्थतयेति व्याचष्टे वीमंसा पडिणीया, विद्दरिसण-ऽक्खित्तमादिणो दोसा। असंपत्ती संपत्ती, लग्गस्स य कढणादीणि ॥ २४९६ ॥ प्रत्यनीकाऽपि 'विमर्शात्' काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभयित्वा यदाऽसौ उद्घावितस्तदा "असंपत्ति" ति यावदसौ हस्तादिना नैव गृह्णाति तावद् 'विदर्शनं' विकृतं रूपं दर्शयति, अथवा 30'विदर्शनं नाम' अलममेव लोको लग्नं पश्यति । यद्वा सा तस्य साधोः क्षिप्तचित्तादिदोषान् १°न हासा-प्रहासाव्यन्तरीलुब्धेन दृष्टा का० ॥ २ °सौ क्षुभित उद्धावितश्च तदा भा०॥ ३ सा देवता तं साधुं क्षिप्तचित्तादिकं कुर्यात् । यावद्वा न गृह्णाति तावद् मारयेत् । अथवा भा०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २४५३--२५०१ प्रथम उद्देशः । ७०७ कुर्यात् । अथवा परिभोगसम्पत्तिं कृत्वा तत्रैव तस्य सागारिकं लापयेत् श्वानादिवत् । लग्नस्य च तस्य लेप्यकस्वामी अन्यो वा दृष्ट्वा ग्रहणा-ऽऽकर्षणादीनि कुर्यात् ।।२४९६॥ एतदेव व्याचष्टे पंता उ असंपत्तीइ चेव मारिज खेत्तमादी वा। संपत्तीइ वि लाएतु कड्डणादीणि कारेजा ।। २४९७ ॥ प्रान्ता पुनः 'असम्पत्त्यामेव' यावदद्याप्यसौ हस्तादिना न गृह्णाति तावन्मारयेत् , 'वा' अथवा । क्षिप्तचित्तम् आदिशब्दाद् यक्षाविष्टं वा कुर्यात् । सम्पत्त्यामपि सागारिकं लापयित्वा ग्रहणाऽऽकर्षणादीनि कारयेत् ॥ २४९७ ॥ अथ भोगार्थिनीपदं विवृणोति भोगत्थिणी विगए कोउगम्मि खित्ताइ दित्तचित्तं वा । दट्टण व सेवंतं, देउलसामी करेज इमं ॥ २४९८ ॥ भोगार्थिनी देवता काणाक्षिकादिभिराकारैरुपप्रलोभ्य क्षुभितेन सह भोगान् भुत्त्वा विगते 10 भोगविषये कौतुके 'मा अपरया सह भोगान् भुताम्' इति कृत्वा तं 'क्षिप्तचित्तं वा' यक्षा. विष्टं वा दृप्तचित्तं वा कुर्यात् । अथवा तां देवतां सेवमानं तं साधुं दृष्ट्वा देवकुलखामी यथाभावेनेदं कुर्यात् ।। २४९८ ॥ __ तं चेव निवेई, बंधण निच्छुभण कडगमद्दे अ। आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य पत्थारो ॥ २४९९ ॥ 15 तमेव साधु क्रुद्धः सन् देवकुलखामी 'निष्ठापयति' मारयतीत्यर्थः । यदि वा प्रभुरसौ ततः खयमेव तं साधु बध्नीयात् , अप्रभुरपि प्रभुणा बन्धापयेत् । अथवा वसतेामाद् नगराद् देशाद् राज्याद्वा निष्काशयेत् । कटकं-स्कन्धावारः स यथा परविषयमवतीर्णः कस्याप्येकस्य राज्ञः प्रद्वेषेण निरपराधान्यपि ग्राम-नगरादीनि सर्वाणि मृदाति, एवमेकेन साधुनाऽकार्यं कृतं दृष्ट्वा यो यत्र दृश्यते स तत्र बाल-वृद्धादिरपि सर्वो मार्यते एवंविधं कटकमदं कुर्यात् । यद्वा यस्त- 20 स्याचार्यो गच्छः कुलं गणः सङ्घो वा तस्य 'प्रस्तारः' विनाशः क्रियेत ॥ २४९९ ॥ तथा गिण्हणे गुरुगा छम्मास कडणे छेदों होइ ववहारे । पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण-विरुंगणे नवमं ॥ २५०० ॥ उद्दावण निधिसए, एगमणेगे पदोस पारंची। अणवठ्ठप्पो दोसु उ, दोसु उ पारंचिओ होइ ।। २५०१॥ 5 स साधुः प्रतिसेवमानो यदि देवकुलस्वामिना गृहीतः ततो ग्रहणे चत्वारो गुरुकाः । अथ हस्ते वा वस्त्रे वा गृहीत्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्टस्तत आकर्षणे षड्लघवः । तेन साधुना स प्रत्याकर्षितस्ततः षण्मासा गुरवः । व्यवहारे प्रारब्धे च्छेदः । 'पश्चात्कृते' पराजिते मूलम् । 'उड्डहने' रासभारोपणादिके 'विरूपणे वा' नासिकादिकर्त्तनेन विरूपणाकरणे 'नवमम्' अनवस्थाप्यम् । एकस्मिन्ननेकेषु वा साधुषु प्रद्वेषतोऽपद्रावणे कृते निर्विषये वाऽऽज्ञप्ते प्रतिसेवक 30 आचार्यो वा पाराश्चिकः । एवं च 'द्वयोः' उड्डहन-विरूपणयोरनवस्थाप्यः, 'द्वयोस्तु' अपद्रावण१ च प्रत्यनीकदेवताप्रयोगत एव लेप्य° भा० ॥ २ कां० प्रती किं तत् ? इत्याह इत्यवतरणं वर्तते ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० ० २५ निविषयाज्ञपनयोः पाराञ्चिको भवतीति ॥ २५०० ॥ २५०१ ॥ अथवा प्रद्विष्टः सन्निदं कुर्यात् - एयस्स नत्थि दोसो, अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो । इति पंतो निव्विसए, उद्दवण विरुचणं व करे ॥ २५०२॥ 5 'एतस्य' प्रतिसेवकसाधो स्ति दोषः किन्त्वेनमपरीक्षितं यो दीक्षितवान् तस्यैवोपरीक्षितदी क्षकस्याचार्यस्य 'अथ' अयं दोष इति विचिन्त्य प्रान्त आचार्य निर्विषयं कुर्यात् अपद्रावयेद्वा, कर्ण-नासा-नयनाद्युत्पाटनेन विरुम्पनं वा कुर्यात् ॥ २५०२ ॥ अथासन्निहिते एते दोषाः तत्थेव य पडिबंधो, अदिगमणाइ वा अणितीए । . एए अन्ने य तहिं, दोसा पुण होंति सन्निहिए ॥ २५०३ ॥ 10 'तत्रैव' तस्यामेव देवतायां संयतस्य प्रतिबन्धो भवेत् , अथवा सा व्यन्तरी विगतकौतुका सती नागच्छति ततस्तस्यामनायान्त्यां स प्रतिगमनादीनि कुर्यात् । एतेऽन्ये चैवमादयो दोषा लेप्यकखामिनाऽदृष्टेऽपि सन्निहिते प्रतिमारूपे भवन्ति ॥ २५०३ ॥ ___ताश्च सन्निहितप्रतिमा ईदृश्यो भवेयुः कट्टे पुत्थे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य । दिटिप्पत्ते रूवे, वि खित्तचित्तस्स भंसणया ॥ २५०४ ॥ काष्ठमयी पुस्तमयी चित्रमयी दन्तकर्ममयी शैलकर्ममयी प्रतिमा भवेत् । एतासां रूपेऽपि दृष्ट्या प्राप्ते आक्षिप्तचित्तस्य प्रमत्ततया संयमजीविताद् भवजीविताद्वा परिभ्रंशना भवेत् , किं पुनस्तासामाश्रयस्थाने प्रतिसेवने वा ? ॥ २५०४ ॥ तासां पुनः सन्निहितदेवतानामिमे प्रकाराः सुहविनवणा सुहमोयगा य सुहविनवणा य होति दुहमोया । दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया ॥ २५०५ ॥ विज्ञपना नाम-प्रार्थना प्रतिसेवना वा सा सुखेन यासां ताः सुखविज्ञपनाः सुखविज्ञप्या वा, तथा सुखेन मोच्यन्त इति सुखमोचाः सुपरित्यजा इत्यर्थः, एष प्रथमो भङ्गः । सुखविज्ञपना दुःखमोचा इति द्वितीयः । दुःखविज्ञप्या सुखमोचा इति तृतीयः । दुःखविज्ञप्या दुःखमोचा इति चतुर्थः ॥ २५०५॥ तत्र प्रथमभङ्गे दृष्टान्तमाह25 सोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो। अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो ॥ २५०६ ।। पंच सय भोइ अगणी, अपरिग्गहि सालिभंजि सिंदूरे । तुह मज्झ धुत्त पुत्तादि अवन्ने विजखीलणया ॥ २५०७॥ सोपारयं नगरं । तत्थ नेगमा अकरा परिवसन्ति । ताण य पंच कुटुंबसयाणि । तत्थ य 30 राया मंतिणा वुग्गाहितो । तेण ते नेगमा करं मग्गिता । ते 'पुत्ताणुपुत्तिओ करो एस भविस्सइ' त्ति काउं न दिति । रण्णा भणिया-जइ न देह तो इमम्मि गेहे अग्गिपवेसं करेह । ततो ते सबे अग्गिं पविट्ठा । तेसिं नेगमाणं पंच महिलासयाई ताणि वि अग्गिं पविटाणि । १ विस्वणं कां० ॥ २ °वैष दोष इति वि॰ भा० त० डे० ॥ ३ विरूपणं वा त० डे० कां० ॥ 20 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५०२-९) प्रथम उद्देशः । ताओ अ तीए अकामनिज्जराए पंच वि सया अपरिग्गहियाओ वाणमंतरियाओ जायाओ । तेहि य निगमेहिं तम्मि चेव नगरे देवउलं कारियं । अत्थि तत्थ पंच सालिभंजियासया । ते ताहिं देवताहिं परिग्गहिया । ताओ अ देवताओ न कोइ अप्पिड्डिओ वि देवो इच्छइ ताहे धुत्तेहिं समं संपलग्गाओ । ते धुत्ता तस्संबंधेण भंडणं काउमाढत्ता---एसा मज्झं न तुज्झं । इतरो वि भणइ-मझं न तुझं । जा य जेण धुत्तेण सह अच्छइ सा तस्स सबं । पुत्वभवं साहइ । ततो ते भणंति–हरे अमुकनामधेया ! एसा तुझं माया भगिणी वा इयाणिं अमुगेण समं संपलग्गा । ता य एगम्मि पीइं न बंधति, जो जो पडिहाइ तेण सह अच्छंति । तं च सोउं तासिं पुखभविएहिं पुत्ताईहिं 'अम्हं एस अयसो' ति काउं वेज्जावाइएण खीलावियाउ ति ॥ __ अथ गाथाद्वयस्याप्यक्षरयोजना-सोपारके नगरे राज्ञा किल मार्गितः 'निगमानां' वणि-10 विशेषाणां समीपे करः । तैश्च ‘अकर इति' अपूर्वः करो मा भूदिति कृत्वा मरणधर्मो व्यवसितः । तासां (तेषां) च 'भोजिकाः' महेलाः पञ्चापि शतान्यमिप्रवेशलक्षणेन बालतपसा देवता अपरिगृहीताः सञ्जाताः । धूर्तेश्च सह संयोगः । कथम् ? इत्याह-'सिन्दूर' सिन्दूरारुणं यद् देवकुलं तत्र शालभञ्जिकानां पश्च शतानि ताभिर्देवताभिः परिगृहीतानि । तत्र स्थिताश्च धूर्तेः समं सम्प्रलमाः । "तुह मज्झे"ति 'नेयं तव, ममेयम्' इत्येवं ते धूर्ताः कलहायितवन्तः । 15 ततस्तासां पूर्वभववृत्तान्तं श्रुत्वा 'अवर्णोऽयमस्माकम्' इति कृत्वा पुत्रादिभिर्विद्याप्रयोगेण तासां कीलना कारितेति ॥२५०६॥ २५०७ । उक्तः प्रथमो भङ्गः । अथ शेषभङ्गत्रयं भावयति बिइयम्मि रयणदेवय, तइए भंगम्मि सुइगविजाओ। गोरी-गंधाराइ, दुहविण्णप्पा य दुहमोया ॥ २५०८ ॥ द्वितीयभङ्गे रत्नदेवता निदर्शनम् , सा ह्यल्पर्द्धिकत्वात् कामातुरत्वाच्च सुखविज्ञपना सर्व-20 सुखसम्पादकतया च दुःखमोचा । तृतीये भङ्गे शुचयो विद्यादेव्यो निदर्शनम् , ता हि शुचितया महर्द्धिकतया च दुःखविज्ञपना उग्रतया नित्यमत्यन्ताप्रमतैराराधनीयत्वात् पर्यन्ते सापायत्वाच सुखमोचाः। चतुर्थे भने गौरी-गान्धारीप्रभृतयो मातङ्गविद्यादेवता द्रष्टव्याः, तथाहिताः साधनकाले लोकगर्हिततया दुःखविज्ञप्या यथेष्टकामसम्प्रापकतया च दुःखमोचा इति ॥२५०८ ॥ भाविताश्चत्वारो भङ्गाः । अथ प्राजापत्यादित्रिविधपरिगृहीते गुरुलाघवमाह- 25 तिण्ह वि कतरो गुरुतो, पागइ कोडुबि दंडिए चेव । साहस अपरिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया ॥ २५०९ ॥ शिष्यः पृच्छति-'त्रयाणां' प्राजापत्य-कौटुम्बिक-दण्डिकपरिगृहीतानां मध्यात् कर्तरद गुरुतरम् ! । गाथायां प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः । शिष्य एवाह-अहं तावद् भणामि १ "सभा वा देवकुलो ति वा सेंदूरो त्ति” इति विशेषचूर्णौ ॥ २ भङ्गे रत्नद्वीपवास्तव्या हाताधर्मकथाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धान्तर्गतमाकन्दीदारकशाताभिहितखरूपा [रत देवता का ॥ ३ दकारानन्तरं भा. प्रति विहाय सर्वाखपि प्रतिषु ग्रन्थानम्-२००० इति वर्तते ॥ ४°तरो गुरुतरो दोषः। शि° भा० ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ प्राजापत्यपरिगृहीतं. गुरुकम्, कौटुम्बिक-दण्डिकपरिगृहीतं लघुतरम् , यतः “साहस" ति प्राकृतजनो मूर्खतया साहसिकोऽपरीक्षितकारी च भवति, अनीश्वरतया च तस्य तथाविधं भयं न भवति, अतोऽसौ मरणमप्यध्यवस्य तं साधुं मारयेत् , तेनास्य गुरुतरो दोषः । 'ईतरौ नाम' कौटुम्बिक-दण्डिको तौ प्राकृतिकस्य प्रतिपक्षभूतौ । किमुक्तं भवति ?-तौ न साहसिकौ, नाप्यपरीक्षितकारिणौ, भयं च तयोर्भवति । अत्राचार्यः प्राह-दण्डिक-कौटुम्बिको गुरुतरौ, प्राकृतो लघुतरः, यतो राजा उपलक्षणत्वात् कौटुम्बिकश्च प्रभुः, प्रभुत्वाच स एकस्य रुष्टः सङ्घस्य प्रस्तारं कुर्यादिति ॥ २५०९॥ ... अथ कौटुम्बिक-दण्डिकानां यद् भयमुत्पद्यते तद् दर्शयन् परः खपक्षं द्रढयन्नाह ईसरियत्ता रजा व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ। 10 ते य समिक्खियकारी, अण्णा वि य सिं बहू अत्थि ॥ २५१० ॥ __एते ऋषयः 'मन्युप्रहरणाः' शापायुधा अतः कोपिताः सन्तो मा मैश्वर्याद् भ्रंशयेयुरिति कौटुम्बिकश्चिन्तयेत् , राजा तु माममी राज्याद् भ्रंशयेयुरिति चिन्तयति । ते च' राजादयः 'समीक्षितकारिणः' नाविमृश्य कार्य कुर्वन्ति । अन्यच्च तेषामन्या अपि बहवः प्रतिमाः सन्ति अतस्तस्यामेकस्यामेव तेषां नादरः ॥ २५१० ॥ एवं परेण स्वपक्षे भाविते सति सुंरिराह पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ । पागइओ पुण तस्स व, निवस्स व भया न पडिकुजा ॥ २५११ ॥ प्रस्तारः-कटकमदः, एकस्य रुष्टः सर्वमपि यत्र व्यापादयतीत्यर्थः, तद्दोषकारी राजा, नृपापराधश्च 'बहुजनान् स्पृशति' बहुजनमध्ये प्रकटीभवतीति भावः । एवं कौटुम्बिकस्यापि द्रष्ट__व्यम् । अत एतौ द्वावपि गुरुतरौ । प्राकृतकापराधस्तु बहुजनं न स्पृशति । अपि च प्राकृतकः 20 'तस्य वा' संयतस्य नृपस्य वा भयाद् 'न प्रतिकुर्याद्' न प्रत्यपकारं करोति ॥ २५११ ॥ अवि य हु कम्मद्दण्णो, न य गुत्ती ओ सि नेव दारट्ठा। तेण कयं पि न नजइ, इतरत्थ पुणो धुवा दोसा ।। २५१२ ॥ 'अपि च' इत्यभ्युच्चये, प्राकृतकः क्षेत्र-खलादिकर्मभिः अद्दन्नः-अक्षणिकः ततस्तासां प्रतिमानामुदन्तं न वहति, न च तत्सम्बन्धिनीषु देवद्रोणीषु 'गुप्तिः' आत्यन्तिकी रक्षा, न वा 25 'द्वारस्थाः' द्वारपालाः ततः कृतमपि प्रतिमाप्रतिसेवनं न ज्ञायते । 'इतरत्र तु' दण्डिक-कौटुम्बि १ 'इतरे नाम' कौटुम्बिक दण्डिकाः ते प्राकृतिकस्य प्रतिपक्षभूताः। किमुक्तं भवति?तेन साहसिकाः, नाप्यपरीक्षितकारिणः, भयं च तेषां भवति । अत्राचार्यः प्राह-दण्डिककौटुम्बिका गुरुतराः, प्राकृतो लघुतरः । कुतः ? इत्याह-राजा प्रभुः, प्रभुत्वा भा०॥ २ तदेवाह भा०॥ ३°न्यु:-कोपः स एव प्रहरणम्-आयुधं येषां ते तथा एवंविधा मा मामैश्वर्या राज्याद्वा भ्रंशयेयुः । अपि च 'ते' राजादयः समीक्षितं कार्य कर्तुं शीलं येषां ते तथा, नाविमृश्य कार्य कुर्वन्तीत्यर्थः । अन्य भा० ॥ ४सूरिः खाभिप्रेतमर्थ समर्थयन्नाह भा० ॥ ५ च "से" तस्य सम्ब° कां ॥ ६ 'गुप्तयः' रक्षाप्रकाराः, न वा कां० । “गुप्तिः-अत्यर्थं रक्षणं" इति चूर्णौ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५१०-१५ ] प्रथम उद्देशः । ७११ केषु पुनः 'भ्रुवाः' अवश्यम्भाविनः प्रस्तारादयो दोषाः, द्वारपालादिरक्षासद्भावात् ॥ २५१२ ॥ - अतएव तेषां प्रतिमासु पूर्वं प्रभूततरं प्रायश्चित्तमुक्तम्, न केवलं प्रतिमासु किन्तु स्त्रीवपि तदीयासु गुरुतरं प्रायश्चित्तं भवतीति प्रसङ्गतो दर्शयितुमाह नो य इथियार, संपत्तीकारणम्मि पारंची । अमच्ची अणवठप्पो, मूलं पुण पागयजणम्मि ।। २५१३ ॥ ‘राज्ञः स्त्रियाम्' अग्रमहिष्यां यद् मैथुनसंपत्तिलक्षणं कारणं तत्र पाराञ्चिको भवति । अमात्यायामनवस्थाप्यः । प्राकृतजनस्त्रियां पुनर्मूलम् || २५१३ ॥ शिष्यः प्राहतुले मेहुणभावे, नाणत्ताssरोवणाय कीस कया । जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज ।। २५१४ ॥ दैण्डिकादिपरिगृहीतासु प्रतिमासु स्त्रीषु वा तुल्ये मैथुनभावे कस्माद् 'आरोपणायाः प्राय- 10 श्चित्तस्य 'नानाता' विसदृशता कृता ? । सूरिराह - येन कारणेन 'नृपे ' राज्ञि 'प्रस्तारः ' कटकमर्दो भवति, अतस्तत्राधिकतरं प्रायश्चित्तम् । तदपेक्षया कौटुम्बिके प्राकृते च यथाक्रमं खल्पाः स्वल्पतरा दोषास्ततस्तयोः प्रायश्चित्तमपि हीनं हीनतरम् । रागोऽपि च वस्तु आसाद्य भवति, यादृशं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा वस्तु रागोऽपि तत्र तादृशो भवतीति भावः ।। २५१४ ॥ इदमेव भावयति जइभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चओ कम्मे । रागाइविहुरा वि हु, पायं वत्थूण विहुरत्ता || २५१५ ॥ रागादीनां ‘मात्री' जघन्यादिरूपा यतिषु - यावत्सङ्ख्याकेषु भागेषु गता - स्थिता 'कर्मण्यपि ' ज्ञानावरणादौ 'चयः' बन्धस्तथैव द्रष्टव्यः । अथ रागादीनां मात्रानानात्वं कथं भवति ? 20 इत्याह—रागादीनां ‘विधुरताऽपि' मात्रावैषम्यमपि प्रायः 'वस्तूनां' स्त्रीप्रभृतीनां 'विधुरत्वात्' सुन्दर-सुन्दरतर-सुन्दरतमविभागाद् भवति । प्रायोग्रहणं कस्यापि कदाचिद् वस्तुवैसदृश्यम १ √ एतच्चिह्नगतमवतरणं गाथा तट्टीका च भा० प्रतावत्र न वर्तते किन्तु विशेषचूर्णाविव "जभागगया मत्ता०” २५१५ गाथानन्तरं किञ्चिद्रूपान्तरेण वर्तते, दृश्यतां पत्रं ७१२ टिप्पणी १ । चूर्णौ पुनः "रणो य इत्थियाए० " इत्यादि २५१३-१४-१५ गाथात्रिकं “तेरिच्छं पिय० २५३४ गाथायाः प्राग्व्याख्यातं दृश्यते ॥ २ या खलु, सं° ता० ॥ ३णा की ता० भा० प्रतावेतदनुसारेणैव टीका, दृश्यतां टिप्पणी ४ ॥ ४ प्राकृत-कौटुम्बिक दण्डिकपरिगृहीतेषु तुल्ये मैथुनभावे कस्माद् 'नानात्वारोपणा' तपः- कालविशेषोपलक्षितप्रायश्चित्तरूपा कृता ? | सूरि० भा० ॥ ५ म्बकपरिगृहीते खल्पदोषं ततस्तत्र प्रायश्चित्तमपि हीनम् । प्राजापत्यपरिगृहीतं तु ततोऽप्यल्पदोषतरम्, तेन तत्र हीनतरं प्रायश्चित्तम् । रागोऽपि च भा० ॥ ६° त्रा' परिमाणं यति भा० ॥ ७ 'कर्मणामपि' ज्ञानावरणादीनां 'चय:' भा० ॥ ८ स्त्रीरूपादीनां 'वि' भा० ॥ 16 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ न्तरेणापि रागादिवसदृश्यं भवतीति ज्ञापनार्थम् । यतश्चैवमतो युक्तियुक्तं दण्डिकादिपरिगृहीतासु स्त्रीषु प्रतिमासु वा प्रायश्चित्तनानात्वम् ॥ २५१५ ॥ तदेवमुक्तं दिव्यं प्रतिमायुतम् । अथ दिव्यस्यैव देहयुतस्यावसरः-तच्चाचित्तं न सम्भवति, जीवच्युतस्य दिव्यशरीरस्य तत्क्षणादेव विध्वंसनात् । यत्तु सचित्तदेवीशरीररूपं देहयुतं 5 तत्र स्थानप्रायश्चित्तं यथा प्रतिमायुते, प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं तु यथा मनुष्यस्त्रीषु भणिष्यते । गतं दिव्यरूपम् । अथ मानुष्यरूपमाह--- माणुस्सं पि य तिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं । पायावच्च-कुटुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव ॥ २५१६ ॥ मानुष्यमपि रूपं त्रिविधम् -'जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । पुनरेकैकं त्रिविधम्-प्राजापत्य10 परिगृहीतं कौटुम्बिकपरिगृहीतं दण्डिकपरिगृहीतं चेति ॥२५१६॥ तंत्रोत्कृष्टादिविभागमाह उक्कोस माउ-भजा, ममं पुण भगिणि-धूतमादीयं ।। खरियादी य जहन्नं, पगयं सजितेतरे देहे ॥ २५१७ ॥ इह गृहिणो मातरं भायाँ वा नान्यस्य कस्यापि प्रयच्छन्ति, अतो माता भार्या चोत्कृष्टं मानुष्यरूपम् । यास्तु भगिनी-दुहितृ-पौत्र्यादयोऽन्यस्मै खाभिरुचिताय दीयन्ते ताः पुनर्मध्य16 मम् । खरिका-दासी तदादय इतराः स्त्रियो जघन्यम् । एतत् त्रयमपि प्रत्येकं द्विधा-प्रतिमायुतं देहयुतं च । प्रतिमायुतं दिव्यवद् वक्तव्यम् । देहयुतेन तु सजीवेन इतरेण वा-अजीवेन 'प्रकृतम्' अधिकारः, तद्विषयं प्रायश्चित्तमभिधास्यत इत्यर्थः ।। २५१७ ॥ तत्र खानप्रायश्चित्तं तावदाह पढमिल्लगम्मि ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया। 20. छम्मासाऽणुग्घाया, बिइए तइए भवे छेदो ॥ २५१८॥ १°युक्तं प्राकृत-कौटुम्बिक-दण्डिकेषु प्रायश्चित्तनानात्वम् ॥२५१५॥ अथ प्रकारान्तरेण वस्तुनानात्वनिष्पन्नं प्रायश्चित्तनानात्वमाह रणो य इत्थियाए, संपत्तीकारणम्मि पारंची। ___ अमच्ची अणवठप्पो, मूलं पुण पागयजणम्मि ॥ राक्षः स्त्रियां या मैथुनसंपत्तिस्तल्लक्षणं यत् कारणं तत्र पाराश्चिकः । अमात्यायां मैथुनसम्पत्तावनवस्थाप्यः । प्राकृतजनस्त्रियां पुनर्मूलम् । यथैतत् प्रायश्चित्तनानात्वं तथा पूर्वोक्तमपि मन्तव्यम् ॥ गतं दिव्यसागारिकम् । अथ मानुष्यसागारिकमाह-भा०। "अयमन्यः प्रकार:--रण्णो य० गाहा ॥” इति विशेषचूर्णौ ॥ २°स्सयं पिति ता० ॥ ३ तत्र यत् प्रतिमायुतं तद् दिव्यवदभिधातव्यम् । अथ देहयुते उत्कृ° भा० ॥ ४ इह गृहिणां या 'माता' जननी या च तेषामेव भार्या तद्विषयं यदब्रह्म तद् उत्कृष्टम् । तदीयभगिनी-दुहित-पौत्र्यादिविषयं मध्यमम् । खरिका-दासी तदादिखीविषयं जघन्यम् । इह च सजीवेन इतरेण वा-अजीवेन देहयुतेन 'प्रकृ भा० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथाः २५१६-२३ ] प्रथम उद्देशः । प्रथमं नाम- जघन्यं मानुष्यरूपं तत्र प्राजापत्यपरिगृहीतादौ भेदत्रयेऽपि तिष्ठतश्चत्वारोऽनुछाता मासा, गुरव इत्यर्थः । द्वितीयं - मध्यमं तत्रापि त्रिष्वपि भेदेषु षण्मासा अनुद्धाताः । तृतीयम् - उत्कृष्टं तत्र भेदत्रयेऽपि तिष्ठतश्छेदो भवेत् ॥ २५१८ ॥ अथ कीदृशश्छेदः ? इति ज्ञापनार्थमाह पढमस्स तइयठाणे, छम्मासुग्घाइओ भवे छेदो । उमासो छम्मासो, बिइए तइए अणुग्धाओ ।। २५१९ ।। प्रथमं-प्राजापत्यपरिगृहीतं तस्य यत् तृतीयं स्थानम् - उत्कृष्टमित्यर्थः तत्र षाण्मासिक उद्घातिकश्छेदः । द्वितीयं–कौटुम्बिकपरिगृहीतं तस्य तृतीयस्थाने चतुर्गुरुकश्छेदः । तृतीयं - दण्डकपरिगृहीतं तत्रापि यत् तृतीयं स्थानं तत्र षाण्मासिकोऽनुद्धात छेदः ॥ २५१९ ॥ तथापढगिम्मितवsरिह, दोहि वि लहु होंति एतें पच्छित्ता । बिइयम्मिय कालगुरू, तवगुरुगा होंति तइयम्मि ।। २५२० ।। प्रथमिल्लुकं - प्राजापत्यपरिगृहीतं तत्र जघन्य - मध्यमयोर्ये तपोऽहें प्रायश्चित्ते चतुर्गुरु- षङ्गुरुरूपे एते ‘द्वाभ्यामपि’ तपः-कालाभ्यां लघुके कर्त्तव्ये । 'द्वितीये' कौटुम्बिकपरिगृहीते ते एव कालगुरुके । 'तृतीये' दण्डिकपरिगृहीते ते एव तपसा गुरुके कालेन लघुके || २५२० ॥ उक्तं स्थानप्रायश्चित्तं । अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाह चउगुरुका छग्गुरुका, छेदो मूलं जहण्णए होइ । छग्गुरुक छेअ मूलं, अणवट्टप्पो अ मज्झिमए ॥ २५२१ ॥ छेदो मूलं च तहा, अणवट्टप्पो य होइ पारंची । एवं दिट्ठमदिट्ठे, सेवंतें पसजणं मोत्तुं ।। २५२२ ॥ जम्हा पढमे मूलं, बिइ अणवट्ठों तहऍ पारंची । तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची || २५२३ ॥ अत्राचार्यः परिहारमाह ७१३ १ प्रथमं नाम - जघन्यं तत्र तिष्ठति चत्वारो गुरुमासाः । द्वितीयं मध्यमं तत्र तिष्ठति षण्मासा गुरवः । तृतीयम् उत्कृष्टं तत्र तिष्ठति च्छेदः ॥ २५१८ ॥ अथ भा० ॥ २ 'तुर्मास कां० ॥ प्राजापत्यपरिगृहीतं जघन्यमदृष्टं प्रतिसेवते चत्वारो गुरवः, दृष्टे षण्मासा गुरवः । कौटु - 20 म्बिकपरिगृहीतं जघन्यमदृष्टं प्रतिसेवते षण्मासा गुरवः, दृष्टे छेदः । दण्डिकपरिगृहीतं जघन्यमदृष्टं प्रतिसेवते छेदः, दृष्टे मूलम् । प्राजापत्यपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे षण्मासा गुरवः, दृष्टे छेदः । कौटुम्बिकपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे छेदः, दृष्टे मूलम् । दण्डिकपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे मूलम्, दृष्टेऽनवस्थाप्यम् । प्राजापत्यपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टे छेदः, दृष्टे मूलम् । कौटुम्बिकपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टे मूलम् दृष्टेऽनवस्थाप्यम् । दण्डिकपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टेऽनवस्थाप्यम्, 25 दृष्टे पाराञ्चिकम् । एवं दृष्टादृष्ट प्रतिसेवमानस्य 'प्रसजना' शङ्का - भोजिकादिलक्षणां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् || २५२१ || २५२२ ॥ अत्र नोदकः प्राह 3 5 10 15 30 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ७१४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० स० २५ पडिसेवणाएँ एवं, पसज्जणा तत्थ होइ इकिक्के । चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं ।। २५२४ ॥ अनयोर्व्याख्या प्राग्वत् ( गा० २४८१-८२ ) ॥ २५२३ ॥ २५२४ ॥ ते चैव तत्थ दोसा, मोरियआणाएँ जे भणिय पुधि । आलिंगणाइ मोत्तुं, माणुस्से सेवमाणस्स ॥ २५२५ ॥ 'त एव' अनवस्था-मिथ्यात्वादयः 'तत्र' मानुष्यकस्त्रीरूपे दोषा ये पूर्व "मुरियाई आणाए" (गा० २४४७) इत्यादिगाथायां भणिताः । नवरं दिव्यप्रतिमाया आलिङ्गने ये प्रतिमाभङ्गदोषा भद्रक-प्रान्तकृता उक्तास्तान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि मानुष्यकं देहयुतं सेवमानस्य भणितव्याः ॥ २५२५ ॥ इदमेव स्फुटतरमाह आलिंगते हत्थाइभंजणे जे उ पच्छकम्मादी । ते इह नत्थि इमे पुण, नक्खादिविछेअणे सूया ॥ २५२६ ॥ लेप्यप्रतिमामालिङ्गमानस्य तस्याः प्रतिमाया हस्त-पादाद्यवयवभङ्गे सति ये पश्चात्कर्मादयो दोषा उक्तास्ते 'इह' मानुष्यके देहयुते न भवन्ति । इमे पुनर्दोषा अत्र भवन्ति--सा स्त्री कामातुरतया तं साधु नखैर्विच्छिन्द्यात् , आदिशब्दाद् दन्तक्षतानि वा कुर्वीत । तैश्च तस्य 15 श्रमणकस्य खपक्षेण वा परपक्षेण वा सूचा क्रियेत—यदेवमस्य वपुषि नख-दन्तक्षतानि दृश्यन्ते तदेष निश्चितं प्रतिसेवक इति ॥ २५२६ ॥ अथ मानुषीषु चतुरो विकल्पान् दर्शयति सुहविनप्पा सुहमोइगा य सुहविन्नप्पा य होंति दुहमोया । दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया ॥ २५२७ ॥ १ मनुष्यस्त्रियश्चतुर्विधाः, तद्यथा-» सुखविज्ञप्याः सुखमोच्याः १ सुखविज्ञप्या दुःख - 20 मोच्याः २ दुःखविज्ञप्याः सुखमोच्याः ३ दुःखविज्ञप्या दुःखमोच्याः ४ चेति ॥ २५२७ ॥ चतुर्ध्वपि भङ्गेषु यथाक्रमममूनि निदर्शनानि. खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायमाया य । उभयं सुहविनवणा, सुमोय दोहिं पि य दुमोया ॥ २५२८ ॥ 'खरिका' यक्षरिका सा सर्वजनसाम्यतया सुखविज्ञप्या, परिफल्गुसुखलवास्वादनहेतुत्वाच्च 25 सुखमोच्या १। या तु महर्द्धिका गणिका साऽपि साधारणस्त्रीत्वेनैव सुखविज्ञप्या, यौवन-रूपविक्रमादिभावयुक्तत्वेन तु दुःखमोच्या २ । या पुनरन्तःपुरिका सा वर्षधरादिरक्षपालकैर्दुःप्रा. पतया दुःखविज्ञप्या, प्रत्यपायबहुलतया च सुखमोच्या ३ । या तु राज्ञः सम्बन्धिनी माता सा सुरक्षिततया सर्वस्यापि च गुरुस्थाने पूजनीयतया च दुःखविज्ञप्या, प्राप्ता च सती सर्व. सौख्यसम्पत्तिकारिणी प्रमाणभूतत्वाच्च राज्ञा विधीयमानान् प्रत्यपायान् रक्षितुं शक्नोतीति दुःख30 मोच्या ४ । “उभय"मिति प्रथमा सुखविज्ञप्या सुखमोच्या १ "सुहविन्नवण'' त्ति द्वितीया सुखविज्ञपना परं दुःखमोच्या २ "सुमोय" त्ति तृतीया सुमोचा परं दुःखविज्ञपना ३ चतुर्थी ११ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ २°का दासीत्यर्थः सा कां० ॥ ३ कां० मो. ले. विनाऽन्यत्र-साध्यतया त. डे० । सामान्यतया भा० ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५२४-३६] प्रथम उद्देशः । ७१५ द्वाभ्यामपि 'दुःखा' दुःखविज्ञपना दुःखमोच्या चेति ॥२५२८ ॥ अथाक्षेप-परिहारौ प्राह तिण्ह वि कयरो गुरुओ, पागंय कोडुंचि दंडिए चेव । साहस असमिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया ॥ २५२९ ॥ ईसरियत्ता रजा, व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ। ते य समिक्खियकारी, अन्ना वि य सिं बहू अत्थि ॥ २५३०॥ 5 पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ । पागइओ पुण तस्स व, निवस्स व भया न पडिकुजा ॥ २५३१ ॥ अवि य हु कम्मद्दण्णा, न य गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा । तेण कयं पि न नजइ, इतरत्थ पुणो धुवो दोसो ॥ २५३२ ॥ तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणा उ कीस कया। 10 जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्जा ॥ २५३३॥ इदं गाथापञ्चकमपि दिव्यद्वारवद् द्रष्टव्यम् (गा० २५०९-१४)॥२५२९॥ २५३०॥ २५३१ ॥ २५३२ ॥ २५३३ ॥ गतं मानुष्यकम् । अथ तैरश्चमाह तेरिच्छं पि य तिविहं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । पायावच्च-कुटुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव ॥ २५३४ ॥ 15 तैरश्चमपि रूपं त्रिविधम्-जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । पुनरेकैकं त्रिधा-प्राजापत्यपरिगृ. हीतं कौटुम्बिकपरिगृहीतं दण्डिकपरिगृहीतं चेति ॥ २५३४ ॥ तत्र अइय अमिला जहन्ना, खरि महिसी मज्झिमा वलवमादी। गोणि करेणुक्कोसा, पगयं सजितेतरे देहे ॥ २५३५ ॥ 'अजिकाः' छगलिकाः 'अमिलाः' एडकाः एताः 'जघन्याः' जघन्यं तैरश्वरूपमित्यर्थः । 20 एवं खरी-महिषी-वडवादयो मध्यमम् । गावः-प्रतीताः करेणवः-हस्तिन्यस्ताः 'उत्कृष्टाः' उत्कृष्टं तिर्यग्रूपॅन् । एतत् त्रयमपि द्विधा–प्रतिमायुतं देहयुतं च । इह सजीवेन 'इतरेण' अजीवेन देहयुतेन प्रकृतम् , तद्विषयं प्रायश्चित्तमभिधास्यत इत्यर्थः ॥ २५३५ ॥ तत्र स्थानप्रायश्चित्तमाह-- चत्तारि य उग्धाया, जहन्नए मज्झिमे अणुग्धाया। 5 छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स ॥ २५३६ ॥ प्राजापत्यपरिगृहीतादौ जघन्यके तिरश्चीदेहयुते तिष्ठति चत्वार उद्धाताः, मध्यमे तिष्ठति चत्वारोऽनुद्धाताः, उत्कृष्टे तिष्ठतः षण्मासा उद्घाताः ॥ २५३६ ॥ A अथैतदेव प्रायश्चित्तं तपः-कालाभ्यां विशेषयति-~ पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं । 30 १गतिय कु९ ता० ॥ २ °च्छगं पि ति ता०॥ ३°पम् । अत्र च सजीवेनाजीवेन च देहयुतेन भा० ॥ ४ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ५॥ एतचिह्नमध्यगतमवतरणं भा० त० डे० नास्ति ।। HTHHHHHH Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २५ विइयम्मि उ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि ॥ २५३७ ॥ 'प्रथमिल्लुके स्थाने' प्राजापत्यपरिगृहीते यानि प्रायश्चित्तानि तानि 'द्वाभ्यामपि' तपसा कालेन च लघुकानि । 'द्वितीये' कौटुम्बिकपरिगृहीते तान्येव कालगुरुकाणि । 'तृतीये' दण्डिकपरिगृहीते तपोगुरुकाणि ॥ २५३७ ॥ गतं स्थानप्रायश्चित्तम् । अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाह चउरो लहुगा गुरुगा, छेदो मूलं जहन्नए होइ । चउगुरुग छेद मूलं, अणवठ्ठप्पो य मज्झिमए ॥ २५३८ ॥ छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य होइ पारंची। एवं दिट्ठमदिटे, सेवंतें पसज्जणं मोत्तुं ॥ २५३९ ॥ प्राजापत्यपरिगृहीतं जघन्यमदृष्टं प्रतिसेवते चत्वारो लघवः, दृष्टे चत्वारो गुरवः । कौटुम्बि10 कपरिगृहीते जघन्येऽदृष्टे चत्वारो गुरवः, दृष्टे च्छेदः । दण्डिकपरिगृहीते जघन्येऽदृष्टे च्छेदः, दृष्टे मूलम् । प्राजापत्यपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे चत्वारो गुरवः, दृष्टे च्छेदः । कौटुम्बिकपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे च्छेदः, दृष्टे मूलम् । दण्डिकपरिगृहीते मध्यमेऽदृष्टे मूलम् , दृष्टेऽनवस्थाप्यम् । प्राजापत्यपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टे च्छेदः, दृष्टे मूलम् । कौटुम्बिकपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टे मूलम् , दृष्टेऽनवस्थाप्यम् । दण्डिकपरिगृहीते उत्कृष्टेऽदृष्टेऽनवस्थाप्यम् , दृष्टे पाराञ्चिकम् । एवं 16 दृष्टा-ऽदृष्टयोः 'प्रसजनां' शङ्का-भोजिकादिरूपां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् ॥ २५३८ ॥ २५३९ ॥ अत्र प्रागुक्तमेवाक्षेप-परिहारबद्धं गाथाद्वयमाह जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठों तइऍ पारंची। तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची ॥ २५४०॥ पडिसेवणाएँ एवं, पसजणा तत्थ होइ इक्केके । चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं ॥ २५४१ ॥ गतार्थम् ( गा० २४८१-८२ ) ॥ २५४० ॥ २५४१ ॥ ते चैव तत्थ दोसा, मोरियआणाएँ जे भणिय पुचि । आलावणाइ मोतुं, तेरिच्छे सेवमाणस्स ॥ २५४२॥ मौर्यदृष्टान्तद्वारेण या भगवतामाज्ञा बलीयसी प्रसाधिता तस्या भङ्गे ये दोषाः 'पूर्व' दिव्य25 द्वारे (गा० २४८७) मनुष्यद्वारे च (गा० २५२५-२६) भणिताः तेऽपि तथैवात्र द्रष्टव्याः । परमालापनादीन् मुक्त्वा शेषा अत्र तैरश्चे देहयुते सेवमानस्य भवन्ति ॥ २५४२ ॥ एतदेवालापनादिंपदं व्याचष्टे जह हास-खेड्ड-आगार-विन्भमा होति मणुयइत्थीसु । आलावा य बहुविधा, तह नत्थि तिरिक्खइत्थीसु ॥ २५४३ ॥ 30 यथा मनुष्यस्त्रीषु हास्य-क्रीडा-आकार-विभ्रमा आलापाश्च बहुविधा भवन्ति न तथा तिर्यस्त्रीषु । एतावान् मनुष्यस्त्रीभ्यस्तिर्यक्स्त्रीणां विशेषः ॥ २५४३ ॥ अथ चतुर्भङ्गीमाह सुहविण्णप्पा सुहमोइगा य, सुहविण्णप्पा य होंति दुहमोया । १र्भङ्गरचनामा भा०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५३७-४६ ] प्रथम उद्देशः । दुहविष्णप्पा य सुहा, दुहविण्णप्पा य दुहमोया ।। २५४४ ॥ तार्था ( गा० २५२७ ) || २५४४ ॥ अत्रोदाहरणानि - अमिलाई उभयसुहा, अरहण्णग माइमक्कडि दुमोया । गोणाई तहयभंगे, उभयदुहा सीहि-वग्घीओ ।। २५४५ ।। अमिलाः - एडकाः ता आदिशब्दाद् अजा-खरिकादयश्च तिर्यक्स्त्रिय उभयसुखाः, तत्र 5 निष्प्रत्यपायतया सुखविज्ञप्याः, लोकगर्हिततया तुच्छसुखाखादमात्र हेतुत्वाच्च सुखमोच्याः १ । “अरहन्नगमाइमक्कडि” त्ति अरहन्त्रकस्य भ्रातृजाया तदनुरागाद् मृत्वा या मर्कटी जाता तदादयस्तिरच्यो दुःखमोच्याः परं सुखविज्ञप्याः, अरहन्नकदृष्टान्तश्चावश्यका दवसातव्यः (पत्र ) २ । तृतीयभङ्गे तु गो - महिष्यादयः, ताः स्वपक्षेऽपि दुःखेन सङ्गमं कार्यन्ते किं पुनः परपक्षे मनुजेषु ? अतो दुःखविज्ञपनाः, लोकजुगुप्सितश्च तासु सङ्गम इति कृत्वा सुख - 10 मोच्याः ३ । यास्तु सिंही व्याघ्रीप्रभृतयस्ता उभयदुःखाः, तत्र जीवितान्तकारिणीत्वाद् दुःखविज्ञपनाः, अनुरक्ताश्च सत्यः प्रतिबन्धबन्धुरतया दुःखमोच्याः || २५४५ ॥ अत्र नोदकः प्रश्नयति — को नाम प्राकृतोऽप्येतास्तिर्य स्त्रियो लोकजुगुप्सिताः प्रतिसेवेत ? विशेषतो जिनवचनपरिमलितमतिः ? इंति, अत्रोच्यते ७१७ जइ ता सण फई, मेहुणभावं तु पावए पुरिसो । जीवियदोच्चा जहियं, किं पुण सेसासु जाई || २५४६ ॥ यदि तावत् 'सनखपदीषु' सिंहीषु पुरुषो मैथुनभावं प्राप्नोति यत्र "जीवितदोच्च" ति जीवितभयं प्राणसन्देहो यासु भवतीत्यर्थः, किं पुनः शेषासु खरिकादिजातिषु ? | . तथा चात्र दृष्टान्तः - एक्का सीही रिउकाले मेहुणत्थी सजाइपुरिसं अलभमाणी सत्थे वहंते इक्कं पुरिसं घित्तुं गुहं पविट्ठा चाहुं काउमादत्ता । सा य तेण पडिसेविता । तत्थ तेसिं 20 दोह व संसाराणुभावतो अणुरागो जातो । गुह।पडियस्स तस्स सा दिणे दिणे पोग्गलं आउं देइ । सो वि तं पडिसेवइ । जइ एवं जीवितंतकरीसु वि सणप्फईसु पुरिसो मेहुणधम्मं पडि सेवइ किमंग पुण जासु जीवियभयं नत्थि तासु न पडिसेविस्सइ ? त्ति ॥ यच्चोक्तम् "विशेषतो जिनवचनपरिमलितबुद्धिः" इति तदप्ययुक्तम्, यतः किमेषोऽपि लोको भवतो न कर्णकोटरमध्यमध्यासिष्ट :-- मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुद्यति ॥ ॥। २५४६ ॥ 4 उक्तं तैरश्चं रूपम्, तदुक्तौ च समर्थितं भावसागारिकम् । एवं निर्ग्रन्थानामुक्तम् । अथ निर्ग्रन्थीनामेतदेवातिदिशन्नाह २ इत्याशङ्कावकाशमवलोक्य इदमाहं का० ॥ ३ 'हाए ठियस्स त०डे० कां० ॥ ४ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ १ च्याः ? । द्वितीयभङ्गे मर्कटीप्रभृतयः, ताश्च ऋतुकाले कामातुरतया सुखविज्ञप्याः, अनुरक्ताश्च सत्यो दुःखमोच्याः । अरहनकदृष्टान्तश्च भा० ॥ 15 25 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २६-२९ एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्यो । पुरिसपडिमाउ तासिं, साणम्मि य जं च अणुरागो ॥ २५४७॥ 'एष एव' द्रव्य-भावसागारिकविषयः क्रमो नियमाद् निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः । नवरं दिव्यद्वारे तासां पुरुषप्रतिमा द्रष्टव्याः, मानुष्यद्वारे मनुजपुरुषाः, तैरश्चद्वारे तिर्यक्पुरुषा इति । • तैरश्चे च श्वान विषयो यदनुरागो बभूव तदृष्टान्तो भवति । जहा--एगा अविरइया अवाउडा काइयं वोसिरंती विरहे साणेण दिट्ठा । सो य साणो पुच्छं लोलितो चाडूणि करेंतो अल्लीणो । सा अगारी चिंतेइ-पेच्छामि तावइ एस किं करेइ ? त्ति । तस्स पुरतो सागारियं अभिमुहं काउं जाणुएहिं हत्थेहि य अहोमुही ठिया । तेण सा पडिसेविया । तीए अगारीए तत्थेव साणे अणुरागो जातो । एवं मिग-छगल-वानरादी वि 10 अगारिं अभिलसंति ॥ यत एते दोषास्ततः सागारिके प्रतिश्रये न वस्तव्यम् ॥२५४७॥ अथ द्वितीयपदमाह अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो दवसागरिए ॥ २५४८॥ अध्वनिर्गतादयः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारानन्यां निर्दोषां वसतिं मार्गयित्वा यदि न लभन्ते 15 ततोऽन्यस्यां वसतावसत्यां गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिकेऽप्युपाश्रये वसन्ति ॥ २५४८ ॥ यतनामेवाह जहिँ अप्पतरा दोसा, आभरणादीण दूरतो य मिगा। चिलिमिलि निसि जागरणं, गीए सज्झाय-झाणादी ॥ २५४९॥ 'यत्र' रूपा-ऽऽभरणादावल्पतरा दोषाः तत्र तिष्ठन्ति । मृगा इव मृगाः-अज्ञत्वादगीतार्था20स्तानाभरणादीनां दूरतः कुर्वन्ति । चिलिमिलिकां च रूपादीनामपान्तराले बध्नन्ति । 'निशि' रात्रौ तत्र जागरणं कर्त्तव्यम् , मा स्तेनादिराभरणादिकमपहरेदिति कृत्वा । गीतशब्दे च श्रूयमाणे महता शब्देन खाध्यायं कुर्वन्ति, ध्यानलब्धिसम्पन्नो वा ध्यानं ध्यायति, आदिशब्दाद् नृत्ते नाटके वा विधीयमाने तदभिमुखं नावलोकन्ते ॥२५४२॥ भावसागारिके द्वितीयपदमाह अद्धाणनिग्गयादी, वासे सावयभए व तेणभए । आवरिया तिविहे वी, वसंति जयणाएँ गीयत्था ॥ २५५० ॥ __ अध्वनिर्गतादयो ग्रामादीनामन्तः शुद्धां वसतिमलभमाना बहिरप्युद्यानादौ वसन्ति । अथ बहिर्वसतामिमे दोषाः- “वास" त्ति वर्षे निपतति, सिंह-व्याघ्रादीनां वा श्वापदानां भयम् , स्तेनानां वा शरीरोपधिहराणां भयम् । ततो ग्रामादेरन्तर्भावसागारिके जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदाद् प्राजापत्यादिपरिगृहीतभेदाद्वा त्रिविधेऽपि वसन्ति । तत्र च प्रतिमा वस्त्रादिभिरावृताः क्रियन्ते। 30 मनुष्य-तिर्यस्त्रियश्च कटकचिलिमिलिकामपान्तराले दत्त्वा यथा न विलोक्यन्ते तथाऽऽवृताः 'सन्तो गीतार्था यतनया वसन्ति ॥ २५५० ॥ सूत्रम् १ नेयव्यो ता० ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५४७-५३] प्रथम उद्देशः । - ७१९ नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारिए उवस्सए वत्थए २६ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए २७॥ तथा नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए उबस्सए वत्थए २८॥ कप्पइ निग्गंथीणं इत्थिसागारिए उवस्सए वत्थए २९ ॥ अस्य सूत्रचतुष्टयस्य सम्बन्धमाह अविसिढे सागरियं, वुत्तं तं पुण विभागतो इणमो । मज्झे पुरिससगारं, आदी अंते य इत्थीसु ॥ २५५१ ॥ पूर्वसूत्रे 'अविशिष्टं' स्त्री-पुरुषविशेषरहितं सागारिकमुक्तम् । अधुना पुनः तदेव सागारिक 'विभागतः' स्त्री-पुरुषविशेषादस्मिन् सूत्रचतुष्टयेऽभिधीयते । अत्र च मध्यवर्तिसूत्रद्वये पुरुषसागारिकमादिसूत्रे अन्त्यसूत्रे च स्त्रीसागारिकमाश्रित्य विधिरभिधीयत इति ॥ २५५१ ॥ 15 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सूत्रचतुष्टयस्य व्याख्या-नो कल्पते निम्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् । कल्पते निर्ग्रन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् । कल्पते निर्ग्रन्थीनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रचतुष्टयाक्षरार्थः ॥ अथ भाप्यकारो विस्तरार्थं बिभणिषुराहइत्थीसागरिऍ उवस्सयम्मि स च्चेव इत्थिया होइ।. 20 देवी मणुय तिरिच्छी, स चैव पसजणा तत्थ ॥ २५५२ ॥ स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुं न कल्पते, सा चानन्तरसूत्रे या देवी मानुपी तिरश्ची च प्रतिपादिता सैवात्रापि द्रष्टव्या । सैव च 'प्रसजना' मिथ्यात्व-शङ्का-भोजिकादिरूपा । तत्र च प्रायश्चित्तमपि तदेव मन्तव्यम् ॥ २५५२ ॥ अत्र परः प्राह जइ स चेव य इत्थी, सोही य पसज्जणा य स चेव । सुत्तं तु किमारद्धं, चोदग! सुण कारणं इत्थं ॥ २५५३ ॥ यदि सैव स्त्री सैव 'शोधिः' प्रायश्चित्तं सैव च प्रसजना तर्हि किमर्थमिदं स्त्रीसागारिकसूत्रमारब्धम् ? पुनरुक्तदोपदुष्टत्वान्नेदमारब्धं युज्यत इति भावः । सूरिराह-नोदक ! कारणमत्रास्ति येनेदं सूत्रमारब्धम् , तच्चावहितः 'शृणु' निशमय ॥ २५५३ ॥ १ ओहेण तु सागरियं ता० ॥ २' सूत्रतः साक्षादविशिष्टं-साक्षात् स्त्री-पु° का० ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २६-२९ पुव्वभणियं तुं पुणरवि, जं भण्णइ तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहोऽणुन्ना कारणं विसेसोवलंभो वा ॥ २५५४ ॥ तुशब्दोऽपिशब्दार्थे । पूर्वभणितमपि पुनरपि यद् भण्यते तत्र कारणमस्ति । किम् ? इत्याह—“पडिसेहो" त्ति ये पूर्वमनुज्ञां कुर्वता अर्था उक्तास्त एव भूयः प्रतिषेधद्वारेण भण्यन्ते । 5 "अणुन्न' त्ति येऽर्थाः पूर्वं प्रतिषेधं कुर्वता भणितास्तानेवानुज्ञां कुर्वन् भूयोऽपि दर्शयति । तथा 'कारणं' निमित्तं तद्दर्शनार्थ भूयोऽपि स एवार्थो भणनीयः । अथवा पूर्व सामान्येन यः प्रतिपादितोऽर्थस्तस्यैव विशेषोपलम्भार्थ प्राग् भणितमपि भूयः प्रतिपादनीयम् । एवं प्रागुक्तभणने चत्वारि कारणानि सन्तीति ॥२५५४ ॥ आह यद्येवं ततः प्रस्तुते किमायातम् ? इत्याह. ओहे सव्वनिसेहो, सरिसाणुना विभागसुत्तेसु। . जयणाहेउं भेदो, तह मज्झत्थादओ वा वि ॥२५५५ ॥ "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए" (सू० २५) इत्यस्मिन् - ओघसूत्रे सर्वस्यापि सागारिकस्य निषेधः कृतः, इह तु विभागसूत्रेषु सदृशानुज्ञा क्रियते, यथा-पुरुषाणां पुरुषसागारिके स्त्रीणां स्त्रीसागारिके वस्तुं कल्पते । तथा यतना यथा पुरुषेषु स्त्रीषु वा कर्तव्या तदर्शनहेतोर्विभागसूत्राणां भेदः । मध्यस्थादयो वा स्त्री-पुरुषाणां 15 भेदा अर्थतो दर्शयिष्यन्ते (गा० २५६२) इति विभागसूत्राणां पृथगारम्भः क्रियते ॥ २५५५ ॥ अथ द्वितीयसूत्रे विशेषोपलम्भं दर्शयन्नाह पुरिससागारिए उवस्सयम्मि, चउरो लहुगा य दोस आणादी । ते वि य पुरिसा दुविहा, सविकारा निविकारा य ॥ २५५६ ॥ "कल्पते निम्रन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम्" (सू० २७) इत्येवं यद्यपि सूत्रेऽनु20 ज्ञातं तथाप्युत्सर्गतो न कल्पते । यदि वसन्ति ततश्चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् » आज्ञादयश्च दोषाः । तेऽपि च पुरुषा द्विविधाः-सविकारा निर्विकाराश्च ॥ २५५६ ॥ तत्र सविकारान् व्याख्यानयति रूवं आभरणविहिं, वत्था-ऽलंकार-भोयणे गंधे । आउज्ज नट्ट नाडग, गीए अ मणोहरे सुणिया ॥ २५५७ ॥ 25 A इह ये पुरुषाः । रूपं उद्वर्तन-स्नान-नखदन्तकेशसंस्थापनादिना खशरीरे जनयन्ति, 'आभरणविधि' मणि-कनकादिमयानाभरणभेदान् 'वस्त्राणि वा' चीनांशुकादीनि परिदधते, 'अलङ्कारेण वा' केश-माल्यादिनाऽऽत्मानमलङ्कुर्वन्ति, भोजनं वा महता विस्तरेण भुञ्जते, चन्दन-कर्पूरादिभिः कोष्ठपुटपाकादिभिर्वा गन्धैरात्मानमालिम्पन्ति वासयन्ति वा, तत-विततादिकं वा चतुर्विधमातोद्यं वादयन्ति, नृतं वा कुर्वन्ति, नाटकं वा नाटयन्ति, मधुरध्वनिना वा गीत30 मुच्चरन्ति, एते सविकारा उच्यन्ते । एतेषां रूपादीनि मनोहराणि दृष्ट्वा गीतादिशब्दाँश्च श्रुत्वा' १ तु जं एत्थ भण्णते तत्थ ता० ॥ २ > एतच्चिह्नगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति । ३ सूत्रानु भा० त० डे० ॥ ४-५ एतचिह्नान्तस्थः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ६°न्ति, श्रव्यकाकलीध्वनि भा०॥ ७°नि दृष्टा गन्धांश्च मनोहरानाघ्राय गीता भा० ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५५४-६१] प्रश्रम उद्देशः । ७२१ निशम्य भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोषाः ॥ २५५७ ॥ एतेषु तिष्ठतः प्रायश्चित्तमाह एकेक्कम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्धाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ २५५८ ॥ एतेषु रूपा-ऽऽभरणादिषु एकैकस्मिन् स्थाने तिष्ठतश्चत्वारो मासा उद्धाता भवन्ति, लघव इत्यर्थः । आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमे आत्मनि च द्रष्टव्या ॥ २५५८ ॥ एवं ता सविकारे, निव्वीकारे इमे भवे दोसा । संसद्देण विबुद्धे, अहिगरणं सुत्तपरिहाणी ॥ २५५९ ॥ एवं तावत् सविकारपुरुषेषु दोषा उक्ताः । निर्विकारपुरुषेषु त्वमी दोषा भवेयुः--साधूनां खाध्यायसत्केनावश्यिकी-नषेधिकीसम्बन्धिना वा संशब्देन विबुद्धास्ते पुरुषाः साधुभिः सह 'अधिकरणम्' असङ्खडं कुर्युः । तत्रात्मविराधना सूत्रपरिहाणिश्च भवति ॥ २५५९ ॥ 10 संयमविराधना त्वियम् आउ जोवण वणिए, अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए । तेणे मालागारे, उन्भामग पंथिए जंते ॥ २५६० ॥ सोधूनां गृहस्थानां च सम्बन्धिना असङ्खडशब्देन विबुद्धाः स्त्रियः “आउ" ति अप्कायाहरणार्थ व्रजन्ति । “जोवणं" ति रथकारादयः शकटे गवादीन् योजयित्वा काष्ठादिहेतोरटवीं 1 गच्छेयुः । वणिजो घृतकुतुपादिकं गृहीत्वा प्रामान्तरं व्रजन्ति । "अगणि' त्ति लोहकारादय उत्थायाग्निप्रज्वालनादिकर्मणि लगन्ति । कुटुम्बिनो हलादीनि गृहीत्वा क्षेत्राणि गच्छन्ति । 'कुकर्माणः' मत्स्यबन्ध-वागुरिकादयो मत्स्याद्यर्थ गच्छन्ति। कुत्सितः-मारणीयसत्त्वस्यातीववेदनोत्पादकत्वान्निन्द्यो यो मारः-मारणं स विद्यते येषां ते कुमारिकाः-सौकरिका इत्यर्थः तेऽपि खकमणि लगन्ति । स्तेनः प्रभातमिति कृत्वा पन्थानं बन्झुं गच्छेत् । मालाकारः करण्डं गृहीत्वाऽऽ- 20 रामं गच्छति । 'उद्धामकः' पारदारिकः स दत्तसङ्केत उन्द्रामिकां गृहीत्वा पलायेत । पथिको बिबुद्धः पथि प्रवर्त्तते । यत्रिका विबुद्धाः सन्तो यन्त्राणि वाहयन्ति । यस्मादेते दोषास्तस्मात् पुरुषेष्वपि न स्थातव्यम् ॥ २५६० ॥ नोदकः प्राह एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवाओ उ असइ वसहीए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए ॥ २५६१॥ 25 यदि 'एवं' पुरुषेष्वपि निम्रन्थानां वस्तुं न कल्पते तर्हि सूत्रं "कल्पते पुरुषसागारिके वस्तुम्" (सू० २७) इत्येवंलक्षणमफलं प्राप्नोति । गुरुराह-'सूत्रनिपातः' सूत्रस्यावसरो विशु १°न रात्रौ सुप्ताः सन्तस्ते पुरुषावुध्येरन् , विवुद्धाश्च सन्तः षट्कायविराधनां कुर्वन्ति ततोऽधिकरणम । अथाधिकरणमयात सूत्रार्थपौरुष्यौ न कुर्वन्ति ततः सत्रार्थपरि. हाणिः ॥ २५५९ ॥ अथाधिकरणपदं व्याचष्टे भा० ॥ २ साधूनां शब्देनागारिणो विबुद्धा अकाययत्राणि योजयन्ति, अथवा “आउ"त्ति अकायाहरणार्थ योषितो व्रजन्ति । "जोवणं" भा०॥ ३ एतन्मध्यमतः पाठः भा० त० हे. नास्ति ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २६-२९ द्धायां वसतावसत्यां मन्तव्यः, तथा च यद्यसागारिका वसतिर्न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिके वसन्ति, पुरुषसागारिके इत्यर्थः ॥ २५६१ ॥ ते वि य पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्या। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव ॥ २५६२ ॥ 5 तेऽपि च पुरुषा द्विविधाः-संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च । संज्ञा नाम-देव-गुरु-धर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, श्रावका इत्यर्थः । तद्विपरीता असंज्ञिनः । एते प्रत्येकं चतुर्विधाः-मध्यस्था आभरणप्रिया कान्दर्पिकाः काथिकाश्च ॥ २५६२ ॥ एतानेव व्याचष्टे आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि । सइरहसिय-प्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा ॥ २५६३ ॥ 10 अक्खाइयाउ अक्खाणगाइँ गीया छलियकव्वाई। कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होति ॥ २५६४ ॥ एएसिं तिहं पी, जे उ विगाराण बाहिरा पुरिसा । वेरग्गरुई निहुया, निसग्गहिरिमं तु मज्झत्था ॥ २५६५ ॥ केशादीनि माल्यादिभिरलङ्कारैरलङ्कुर्वतः पुरुषानाभरणप्रियान् जानीहि । ये तु खैरहसित15 प्रललिताः' खेच्छयो परस्परमट्टहासादिना हसन्ति, द्यूतान्दोलनादिना च क्रीडन्ति, ये च 'शरीरकुचयः' विविधषिगचेष्टाकारिणः ते कान्दर्पिकाः २५६३ ॥ तथा 'आख्यायिकाः' तरङ्गवती-मलयवतीप्रभृतयः, 'आख्यानकानि' धूख्यिानकादीनि, 'गीतानि' ध्रुवकादिच्छन्दोनिवद्धानि गीतपदानि, तथा 'छलितकाव्यानि' शृङ्गारकाव्यानि, 'कथाः' वसुदेवचरित-चेटककथादयः, 'त्रिसमुत्थाः' धर्म-कामा-ऽर्थलक्षणपुरुषार्थत्रयवक्तव्य20 ताप्रभवाः सङ्कीर्णकथा इत्यर्थः । एतान्याख्यायिकादीनि कथयन्तः काथिका उच्यन्ते, कथया चरन्तीति व्युत्पत्तेः ॥ २५६४ ॥ . 'एतेषाम्' आभरणप्रियादीनां त्रयाणामपि सम्बन्धिनो ये विकारास्तेभ्यः 'बाह्याः' वहिर्वतिनो ये पुरुषाः 'वैराग्यरुचयः' केवलवैराग्यश्रद्धालवो न शृङ्गारादिरसप्रियाः 'निभृताः' करचरणेन्द्रियेषु संलीनाः निसर्गेण-खभावेनैव हीमन्तः-सलज्जाः ईदृशा मध्यस्था ज्ञातव्याः 25॥ २५६५ ॥ पुनरप्यमीषां प्रत्येकं भेदानाह- . एकेका ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य । एवं सन्नी बारस, बारस अस्सन्निणो होंति ॥ २५६६ ॥ एकैके मध्यस्थादयस्त्रिविधाः-स्थविगस्तथा मध्यमाश्च तरुणाश्च । ततो मध्यस्थादयश्चत्वारः स्थविरादिभेदत्रयेण गुण्यन्ते जाता द्वादश भेदाः । एवं 'संज्ञिनः' श्रावकास्ते द्वादशविधाः । १ यदि विशुद्धा वस' भा० ॥ २ °या-मातापित्रादिगुरुजनेनानिवार्यमाणा अट्टहासादिना हसनशीला द्यूतान्दोलनादिक्रीडनशीलाच, ये च 'शरीर° भा० ॥ ३ दिक्रीडया च प्रकर्षेण ललयन्ति, ये कां० ॥ ४ °वती-वासवदत्तादयः, 'आ° भा० ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५६२-७०] प्रथम उद्देशः । ७२३ असंज्ञिनोऽपि द्वादशविधा भवन्ति ।। २५६६ ॥ एतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह काहीयातरुणेसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणस्स । सेसेसुं चउलहुगा, समणाणं पुरिसवग्गम्मि ॥ २५६७ ॥ संज्ञिनामसंज्ञिनां च यः काथिकस्तरुणः एतौ द्वौ भेदौ, ये च वक्ष्यमाणा नपुंसकाः पुरुषनेपथ्यास्तेषामपि संज्ञिनामसंज्ञिनां चैकैकः काथिकस्तरुणः, एते चत्वारो भेदाः, एतेषु चतुषु । तिष्ठतः प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । शेषेषु भेदेषु तिष्ठतः प्रत्येकं चतुर्लघु । एतत् प्रायश्चित्तं श्रमणानां पुरुषवर्गे भणितम् ॥ २५६७॥ कारणे पुनस्तिष्ठतां विधिमाह सन्नीसु पढमवग्गे, असती अस्सन्निपढमवग्गम्मि । तेण परं सन्नीसुं, कमेण अस्सन्निसुं चेव ॥ २५६८ ॥ वसतौ निर्दोषायामसत्यां संज्ञिषु यः प्रथमवर्ग:-मध्यस्थाः पुरुषास्तत्र तिष्ठन्ति । तत्रापि 10 प्रथम स्थविरेषु, तेषामभावे मध्यमेषु, तदलामे तरुणेष्वपि । अथ संज्ञिनां प्रथमवर्गों न प्राप्यते ततोऽसंज्ञिनामपि प्रथमवर्गे स्थविर-मध्यम-तरुणेषु यथाक्रमं तिष्ठन्ति । 'ततः परं' तेषामभावे द्वितीयादिवर्गेषु क्रमेण तिष्ठन्ति । द्वितीयवर्गो नाम आभरणप्रियाः । तेषु प्रथमं संज्ञिषु स्थविरमध्यम-तरुणेषु, तत एतेष्वेवासंज्ञिषु । तदभावे संज्ञिनां तृतीयवर्गे कान्दर्पिकपुरुषेषु, तेषामलाभेऽसंज्ञिनां तृतीयवर्गे स्थविरादिषु यथाक्रमं स्थातव्यम् ॥ २५६८ ॥ 15 एवं एकेक तिगं, वोचत्थकमेण होइ नायव्यं । मोत्तूण चरिम सन्नी, एमेव नपुंसएहिं पि ॥ २५६९॥ एवं मध्यस्थादिषु एकैकस्मिन् पदे त्रिकं 'विपर्यस्तक्रमेण' प्रथमं स्थविरेषु ततो मध्यमेषु ततस्तरुणेषु इत्येवंलक्षणेन स वैरीत्यविधिना भवति । ज्ञातव्यम् , परं मुक्त्वा चरमं संज्ञिनम् । किमुक्तं भवति ?--चरमो भेदः काथिकः, तत्र संज्ञिनि प्रथमतस्त्रिकं न चारयितव्यं 20 किन्तु द्विकम् , तद्यथा-यदा तृतीयवर्गो न प्राप्यते तदा चतुर्थवर्गे प्रथमं संज्ञिषु काथिकस्थविरेषु, तदलाभे काथिकमध्यमेषु, तदप्राप्तावसंज्ञिषु काथिकस्थविरेषु, तदभावे काथिकमध्यमेषु तिष्ठन्ति; अथ तेऽपि न प्राप्यन्ते ततः संज्ञिपु काथिकतरुणेपु, तदभावेऽसंशिष्वपि काथिकतरुणेषु तिष्ठन्ति, ते चोभयेऽपि प्रज्ञापनीया यथा कथां न कथयन्ति । एवं पुरुषेषु स्थातव्ये विधिरुक्तः । एवमेव च नपुंसकेष्वपि वक्तव्यः ॥ २५६९ ॥ इदमेव भावयति एमेव होंति दुविहा, पुरिसनपुंसा वि सन्नि अस्सन्नी । मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव ॥ २५७० ॥ पुरुषसागारिकालाभे कदाचिन्नपुंसकसागारिकः प्रतिश्रयो लभ्यते तत्राप्येवमेव भेदाः कर्तव्याः । तत्र नपुंसका द्विधा-स्त्रीनेपथ्यिकाः पुरुषनेपथ्यिकाश्च । ये पुरुषनेपथ्यिकास्ते द्विधा–प्रतिसेविनोऽप्रतिसेविनश्च । ये तु स्त्रीनेपथ्यिकास्ते नियमात् प्रतिसेविनः । तत्र 30 १°म् । एतदप्राप्तौ चतुर्थवर्गे काथिकपुरुषलक्षणे अनेनैव क्रमेण स्थेयम् ॥ २५६८ ॥ तथा चामुमेव किश्चिद्विशेषयुक्तमतिदेशमाह-एवं कां० ॥ २१ एतदन्तर्गतः पाठः कां० पुस्तक एव वर्तते ॥ 25 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [सागारिकोपा० सू० २६-२९ पुरुषनपुंसका अपि न केवलं पुरुषा इत्यपिशव्दार्थः संजिनोऽसंज्ञिनश्चेति द्विविधा भवन्ति । उभयेऽपि प्रत्येकं चतुर्विधाः-मध्यस्था आभरणप्रियाः कान्दर्पिकाः काथिकाश्चेति ॥२५७०॥ एकेका ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य । एवं सन्नी वारस, वारस अस्सन्निणो होति ॥ २५७१ ॥ 5 एकैकाः 'ते' मध्यस्थादयस्त्रिविधाः-स्थविरा मध्यमास्तरुणाश्च । एवं संज्ञिनो द्वादश असंज्ञिनोऽपि द्वादश भवन्ति ॥ २५७१ ॥ एतेषु प्रायश्चित्तमाह जह चेव य पुरिसेसुं, सोही तह चेव पुरिसवेसेसु । तेरासिएसु सुविहिय !, पडिसेवग-अपडिसेवीसु ॥ २५७२ ।। यथैव पुरुषेषु शोधिरुपवर्णिता तथैव पुरुषवेषेष्वपि त्रैराशिकेषु' नपुंसकेषु हे सुविहित ! 10प्रतिसेवकेषु अप्रतिसेवकेषु वा शोधि जानीहीत्युपस्कारः । सा चेयम्-पुरुषनपुंसकानां ये काथिकास्तरुणास्तेषु चत्वारो गुरवः, शेषेषु भेदेषु चतुर्लघुकाः । कारणे पुनरध्वनिर्गतादीनां वसतेरलाभे तिष्ठतां तथैव पुरुषनपुंसकेप्वपि यतनाक्रमो यथा पुरुषेषु प्रतिपादितः ॥२५७२॥ जह कारणे पुरिसेसुं, तह कारणे इत्थियासु वि वसेजा। अद्धाण-चास-सावय-तेणेसु व कारणे वसती ॥ २५७३ ॥ 15 यथा कारणे पुरुषेषु पुरुषवेषनपुंसकेषु वा वसन्ति तथा स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषु वा नपुंसकेषु कारणे वसेयुः । किं पुनस्तत् कारणम् ? इत्याह-अध्वानं प्रतिपन्नास्ततो निर्गता वा शुद्धामल्पतरदोषदुष्टां वा वसतिं न लभन्ते तत उद्यानादौ तिष्ठन्ति । अथ वर्षे पतति बहिवा श्वापदभयं शरीरोपधिस्तेनभयं वा तत ईदृशे कारणे स्त्रीसागारिके तदभावे स्त्रीवेषधारिषु वा नपुंसकेषु पूर्वोक्तक्रमेण वसन्ति ॥ २५७३ ॥ निष्कारणे तु तत्र तिष्ठतामिदं प्रायश्चित्तम् १°षु स्थीयते तथा 'स्त्रीष्वपि' स्त्रीसागारिकेऽपि कारणे वसेत् । यद्वा यथैव 'पुरुषेषु' पुरुषवेषेषु नपुंसकेषु कारणे वसन्ति तथा स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषु नपुं॰ भा० ॥ २ध्वा-मार्गः तं प्रति° भा० ॥ ३ नपुंसकेषु स्थातव्यम् ।। २५७३ ॥ भावितं निर्ग्रन्थसूत्रद्वयम् । अथ निर्ग्रन्थीसूत्रद्वयं विभावयिषुराह एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ विन्नेओ । जह तेसि इत्थियाओ, तह तासि पुमो मुणेयव्वो ॥ एष एव क्रमो नियमाद् निर्ग्रन्थीनामपि भवति, परं यथा तेषां निर्ग्रन्थानां स्त्रियो गुरुतरदोषस्थानं तथा तासां पुरुषो ज्ञातव्यः ॥ इह श्रमणानां स्त्रीसागारिके तिष्ठतां प्राक प्रायश्चित्तं मोक्तम् अतः सम्प्रति तदाह-काहीयातरुणीसुं० गाथा भा०। गाथैषा तट्टीका च भा• प्रतावत्राधिका वर्तते । नेयं गाथा चूर्णी विशेषचूर्जी बृहद्भाष्ये वा वर्त्तते किन्तु ता. संज्ञके लघुभाष्यप्रत्यादर्शे वर्तत इयं गाथा। एतद्गाथानन्तरं लघुभाष्यसत्के ता० संज्ञके आदर्श "इति ओहविभागेणं." इति २५८३ गाथापर्यवसाना गाथाः क्रममेदेन वर्तन्ते । तथाहि-एसेव कमो नियमा० ( अधिका गाथा)। काहीयातरुणीसुं० २५७४ । थेरादितिए अहवा० २५८१ । सन्नी-अस्सनीणं० २५८२ । काहीयातरुणेसु वि० २५८० । जह चेव य इत्थीसु. २५७५ । एमेव होंति इत्थी० २५७६ । एवं एकेक विगं० २५७७। एसेव कमो नियमा० २५७८ । काहीयातरुणीसुं० २५७९ । इति ओहविभागेणं० २५८३ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ 10 भाष्यगाथाः २५७१-७८ ] प्रथम उद्देशः । काहीयातरुणीसुं, चउसु वि मूलं तु ठायमाणाणं । सेसासु वि चउगुरुगा, समणाणं इत्थिवग्गम्मि ॥ २५७४ ॥ स्त्रीपु स्त्रीवेषधारिपु वा नपुंसकेषु याश्चतस्रः काथिकतरुण्यस्तासु तिष्ठतां निम्रन्थानां मूलम् । शेषासु संज्ञिनीषु असंज्ञिनीषु वा स्त्रीषु चतुर्गुरुकाः । एवं श्रमणानां स्त्रीवर्गे तिष्ठतां प्रायश्चित्तमुक्तम् ॥ २५७४ ॥ जह चेरौं य इत्थीसुं, सोही तह चेव इत्थिवेसेसु । तेरासिएसु सुविहिय !, ते पुंण नियमा उ पडिसेवी ।। २५७५ ॥ यथैव श्रमणानां स्त्रीषु तिष्ठतां शोधिरभिहिता तथैव स्त्रीवेषेषु त्रैराशिकेषु हे सुविहित ! शोधिमवबुध्यखेत्युपस्कारः । 'ते पुनः' स्त्रीनपुंसका नियमात् 'प्रतिसे विनः' प्रतिसेवनाकारापणशीला इति ॥ २५७५ ॥ अथ कारणे तिष्ठतां यतनामाह एमेव होंति इत्थी, बारस सन्नी तहेव अस्सनी । सन्नीण पढमवग्गे, असइ असन्नीण पढमम्मि ।। २५७६ ॥ 'एवमेव' पुरुषवत् स्त्रियः स्त्रीवेषधारिणश्च नपुंसका मध्यस्थादिभिः स्थविरादिभिश्च भेदैदश संज्ञिन्यो द्वादश चाऽसंज्ञिन्यः प्रत्येकं भवन्ति । तत्र प्रथमं संज्ञिनीनां 'प्रथमवर्गे' मध्यस्थस्त्रीलक्षणे तदभावे असंज्ञिनीनां प्रथमवर्गे स्थविरादिक्रमेण स्थातव्यम् ॥ २५७६ ॥ 15 एवं एकेक तिगं, वोचत्थकमेण होइ नेयव्वं । मोत्तूण चरिम सन्नि, एमेव नपुंसएहिं पि ॥२५७७॥ एवम् 'एकैकस्मिन्' आभरणप्रियादौ वर्गे 'त्रिकं' तरुण्यादिभेदत्रयं विपर्यस्तक्रमेण नेतव्यम्-प्रथम स्थविरासु, ततो मध्यमासु, ततस्तरुणीषु, परं मुक्त्वा 'चरमां' काथिकाख्या संज्ञिनीम् । तत्र हि प्रथमं संज्ञिनीषु स्थविरासु, ततो मध्यमासु, तदलाभेऽसंज्ञिनीषु स्थविरा-20 मध्यमासु, ततः संज्ञिनीषु तरुणीषु, तदप्राप्तावसंज्ञिनीषु तरुणीषु तिष्ठन्ति । एवमेव स्त्रीवे. षधारीषु, नपुंसकेष्वपि द्रष्टव्यम् ॥ २५७७ ॥ 4 भावितं निम्रन्थसूत्रद्वयम् । सम्प्रति निर्ग्रन्थीसूत्रद्वयं भावयति-~ एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्यो । (ग्रन्थानम्-६००० । सर्वग्रन्थाग्रम्-१८२२० ।) जह तेसि इत्थियाओ, तह तासि पुमा मुणेयव्वा ॥ २५७८ ॥ १°सु चतसृष्वपि ति का०॥ २ शेषास्वपि' मध्यस्था-ऽऽभरणप्रियाप्रभृतिषु संक्षि भा० ॥ ३°व इत्थियासुं कां० ॥ ४ °ठतामनन्तरोक्तगाथायां मूलचतुर्गुरुकाख्या शो' का ॥ ५ स्त्रियोऽपि द्वादश संशिन्यो द्वादश चासंहिन्यो भवन्ति । प्रथम संझिनीनां प्रथमवर्ग मध्यस्थस्त्रीषु, तद° भा० ॥ ६°म् । विपर्यस्तकमो नाम प्रथ का.॥ ७ एतचिह्नगतमवतरणं भा० प्रतावत्र न वर्तते, किन्तु किञ्चिद् रूपान्तरेण २५७३ गाथाटीकानन्तर वर्तते । दृश्यता पत्र ७२४ टिप्पणी ३॥ ८नेयम्वो ता० ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिकोपा० सू० २६-२९ एष एव क्रमो नियमान्निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः । परं यथा 'तेषां' निर्ग्रन्थानां स्त्रियो गुरुकतरास्तथा निर्ग्रन्थीनामपि पुमांसो गुरुकतरा ज्ञातव्याः || २५७८ ॥ काही या तरुणीसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणीणं । सासु विचउलगा, समणीणं इत्थवग्गमि ॥ २५७९ ॥ 5 स्त्रीणां स्त्रीवेषनपुंसकानां च मध्ये काथिकतरुणीषु चतसृष्वपि तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकाः । ‘शेषास्वपि’ मध्यस्थादिषु द्वाविंशतिसङ्ख्याकासु स्त्रीषु द्वाविंशतौ च स्त्रीनपुंसकेषु चतुर्लघुकाः । एवं श्रमणीनां स्त्रीवर्गे प्रायश्चितं ज्ञातव्यम् || २५७९ ॥ काही तरुणेवि, चउसु वि मूलं तु ठायमाणीणं । सेसेसु उ चउगुरुगा, समणीणं पुरिसवग्गम्मि ।। २५८० ॥ पुरुषाणां पुरुषनपुंसकानां च संज्ञ्यसंज्ञिनां ये प्रत्येकं चत्वारः काथिकास्तरुणास्तेषु तिष्ठन्तीनां निर्ग्रन्थीनां मूलम् । 'शेषेषु' पुरुषेषु पुरुषनपुंसकेषु च प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । एवं श्रमणीनां पुरुषवर्गे प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् || २५८० ॥ अथापरं प्रायश्चित्तादेशमाह - 10 थेइएस अहवा, पंचग पनरस मासलहुओ य । छेदो मज्झत्थादिसु, काहियतरुणेसु. चउलहुओ ॥ २५८१ ॥ सन्नी - अस्सनीणं, पुरिस - नपुंसेस एस साहूणं । एएसुं चि थीसुं, गुरुओ समणीण विवरीओ ॥ २५८२ ॥ अथवा स्थविरादिषु त्रिषु पदेषु पञ्चकः पञ्चदशको मासलघुकश्च छेदो दातव्यः । तद्यथामध्यस्थेषु स्थविरेषु तिष्ठन्ति लघुपञ्चकश्छेदः, मध्यस्थेषु मध्यमेषु लघुपञ्चदशकः, मध्यस्थेषु तरुणेषु लघुमासिकच्छेदः । एवमाभरणप्रियेषु कान्दर्पिकेषु च त्रिविधेष्वपि ' मन्तव्यम् । काका 20 अपि ये स्थविरा मध्यमाश्च तेष्वप्येवमेवावसातव्यम् । विशेषचूर्णिकृत् पुनराह - काहीए सण्णिथेरे पन्नरस राइदियाणि लहुओ छेदो, मज्झिमे मासलहुओ छेदो ति । ये तु काकास्तरुणास्तेषु चतुर्लघुमासिकच्छेदः ॥ २५८१ ॥ एवं पुरुषाः पुरुषनपुंसका वा ये: संज्ञिनो ये चासंज्ञिनस्तेषां समुदितानां येऽष्टचत्वारिंशत्स छ्याका भेदास्तेषु यथोक्तक्रमेण 'एषः ' पञ्चकादिकच्छेदः साधूनां भवति । स्त्रीषु स्त्रीनपुंसकेषु च 25 ‘एतेष्वेव' मध्यस्थस्थविरादिभेदेषु साधूनामेष एव च्छेदो गुरुकः कर्त्तव्यः, तद्यथा —— गुरुपञ्चको गुरुपञ्चदशको गुरुमासिको गुरुचतुर्मासिकश्चेति । श्रमणीनां पुनरेष एव च्छेदो विपरीतो दातव्यः, किमुक्तं भवति ? — श्रमणीनां स्त्रीवर्गे तिष्ठन्तीनां लघुपञ्चकादिकच्छेदः, पुरुषवर्गे तु गुरुपञ्चकादिकः । शेषं सर्वमपि प्राग्वद् द्रष्टव्यम् || २५८२ ॥ ॥ सागारिकापाश्रयप्रकृतं समाप्तम् ॥ 15 १ अथ निर्ग्रन्थीनामेव स्त्रीषु तिष्ठन्तीनां प्रायश्चित्तमाह इत्यवतरणं कां० ॥ २ अथ श्रमणीनामेव च पुरुषेषु तिष्ठन्तीनां प्रायश्चित्तमाह इत्यवतरणं कां० ॥ ३ “अहवा धम्मगणिखमासमणादेसेणं सव्वेसु वि पदेसु इमा सोही -- थेराईसुं अहवा० गाह्राद्वयम् ।” इति विशेषचूर्णौ ॥ ४ थेरादितिए अहवा ता० ॥ ५°पि प्रायश्चित्तं म° कां० ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५७९-८६] . प्रथम उद्देशः । प्रतिवद्ध श व्या प्रकृतम् 10 सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए ३० ॥ अस्य सम्बन्धमाह इति ओह-विभागेणं, सेजा सागारिका समक्खाया। __ तं चेव य सागरियं, जस्स अदूरे स पडिबद्धो । २५८३ ॥ 'इति' एवमोघेन विभागेन च 'सागारिका' सागारिकयुक्ता 'शय्या' प्रतिश्रयापरपर्याया समाख्याता । तदेव च सागारिकं यस्योपाश्रयस्य 'अदूरे' आसन्ने स प्रतिबद्ध उच्यते । तत्र निर्ग्रन्थानामवस्थानमनेन प्रतिषिध्यते ॥ २५८३ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां 'प्रतिवद्धशय्यायां' द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्धे उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः नाम ठवणा दविए, भावम्मि चउविहो उ पडिबद्धो । दव्वम्मि पट्ठिवंसो, भावम्मि चउव्विहो भेदो ॥ २५८४ ॥ नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदाच्चतुर्विधः प्रतिबद्धः । तत्र नाम-स्थापने गतार्थे । द्रव्यतः पुनर-15 यम्---'पृष्ठवंशः' बलहरणं स यत्रोपाश्रये गृहस्थगृहेण सह सम्बद्धः स द्रव्यप्रतिबद्ध उच्यते । 'भावे तु' भावप्रतिबद्धे चिन्त्यमाने चतुर्विधो भेदो भवति ॥ २५८४ ॥ तद्यथा पासवण ठाण रूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि । [नि.भा. ५२०-४९] दव्वेण य भावेण य, संजोगो होइ चउभंगो ॥ २५८५ ॥ प्रश्रवणे स्थाने रूपे शब्दे चेति चत्वारो भेदा भावप्रतिबद्धे भवन्ति । तत्र यस्मिन् साधूनां 20 स्त्रीणां च कायिकीभूमिरेका स प्रश्रवणप्रतिबद्धः । यत्र पुनरेकमेवोपवेशनस्थानं स स्थानप्रतिबद्धः । यत्र तु स्त्रीणां रूपमवलोक्यते स रूपप्रतिबद्धः । यत्र स्थितैर्भाषा-भूषण-रहस्यशब्दाः श्रूयन्ते स शब्दप्रतिबद्धः । अत्र च द्रव्येण च भावेन च संयोगे चतुर्भङ्गी भवति । तद्यथा--- द्रव्यतो नामैकः प्रतिबद्धो न भावतः, भावतो नामैकः प्रतिबद्धो न द्रव्यतः, एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, एको न द्रव्यतो न भावतः ॥२५८५॥ एवं चतुर्भङ्गयां विरचितायां विधिमाह-25 चउत्थपदं तु विदिन्नं, दव्वे लहुगा य दोस आणादी। संसद्देण विबुद्धे, अहिकरणं सुत्तपरिहाणी ॥ २५८६ ॥ चतुर्थपदमत्र ‘वितीर्णम्' अनुज्ञातम् , चतुर्थभङ्गवर्तिनि प्रतिश्रये स्थातव्यमित्यर्थः । द्रव्यप्रतिबद्धे तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः । साधूनां सम्बन्धिना आवश्यिकी-नैषे. १°न-ओघसूत्रेण विभागेन च-विभागसूत्रैः 'सागा का० ॥ २°द्धे वक्ष्यमाणलक्षणे उ° कां० ॥ ३ °ति । गाथायां पुंस्त्वनिर्देशःप्राकृतत्वात्।त° कां०॥ ४ °ये उभयतोऽप्रतिबद्धे स्था' कां० ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रतिबद्धशय्याप्र० सू० ३० धिकीप्रभृतिना संशब्देन विबुद्धेषु गृहस्थेष्वधिकरणं भवति । अथाधिकरणभयान्निस्सञ्चारास्तृष्णीकाश्चासते ततः सूत्रार्थपरिहाणिः ॥ २५८६ ॥ अथाधिकरणपदं व्याख्यानयति आउ जोवण वणिए, अगणि कुडुंबी कुकम्म कुम्मरिए । तेणे मालागारे, उब्भामग पंथिए जंते ॥ २५८७ ॥ अस्या व्याख्या प्राग्वत् (गा० २५६०)॥ २५८७ ॥ अथाधिकरणभयात् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति तत एते दोषाः आसज्ज निसीही वा, सज्झाय न करिति मा हु बुझिजा । तेणासंका लग्गण, संजम आयाएँ भाणादी ॥ २५८८ ॥ मा गृहस्था विबुध्यन्तामिति कृत्वा “आसज" इति शब्दं नोच्चरन्ति मासलघु । नैषेधिकी. 10 मावश्यिकी वा न कुर्वन्ति पञ्च रात्रिन्दिवानि । खाध्याये सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु । अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु । सूत्रं नाशयन्ति चतुर्लघु । अर्थ नाशयन्ति चतुर्गुरु । एतेन सूत्रपरिहाणिरिति पदं व्याख्यातम् । तथा साधूनामावश्यिकीशब्दं पदनिपातशब्दं वा श्रुत्वा ते गृहस्थाः स्तेनोऽयमित्याशङ्कया साधुना समं युद्धाय लगेयुः । ततश्च युध्यमानयोः संयमात्मभाजनानां विराधनादयो दोषाः । यत एवमतो द्रव्यप्रतिबद्धायां वसतौ न स्थातव्यं । द्वितीयपदे 15 तिष्ठेयुरपि ॥ २५८८ ॥ । कथम् ? इत्यत आह-~ अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । गीयस्था जयणाए, वसंति तो दव्वपडिबद्धे ॥ २५८९ ॥ __ अध्वनिर्गतादयः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् द्रव्यतो भावतोऽपि चाप्रतिबद्धमुपाश्रयं मार्गयित्वा यदि न लभन्ते ततो गीतार्था यतनया द्रव्यप्रतिबद्धे उपाश्रये वसन्ति ॥२५८९॥ यतनामेवाह20 आपुच्छण आवासिय, असिज्ज निसीहिया य जयणाए । वेरत्ती आवासग, जो जाहे. चिंधण दुगम्मि ॥ २५९० ॥ यदा कोऽपि साधुः कायिकीभूमौ गन्तुमिच्छति तदा द्वितीयं साधुमापृच्छय निर्गच्छति, स च द्वितीयः पृष्टमात्र एवोत्थाय दण्डकहस्तो द्वारे तिष्ठति यावदसौ प्रत्यागच्छति, एषा आप्रच्छनयतना । आवश्यिकीमासाद्यशब्द नैषेधिकी च यतनया यथा गृहस्था न शृण्वन्ति तथा 25 कुर्वन्ति । वैरात्रिकवेलायामपि यः पूर्वमुत्थितस्तेन द्वितीयः साधुर्यतनया हस्तेन स्पृष्ट्वा प्रतिबोधयितव्यः, स च स्पृष्टमात्र एव तृष्णीम्भावेनोत्तिष्ठति, ततो द्वावपि कालभूमौ गत्वा वैरात्रिकं कालं यतनया गृहीतः यथा पार्श्वस्थितोऽपि न शृणोति । आवश्यकं यो यदा यत्र स्थितो विबुध्यते स तदा तत्र स्थित एव करोति, वन्दनकं स्तुतीश्च हृदयेनैव प्रयच्छन्ति, यद्वा यदा ते गृहस्थाः प्रभाते खयमेवोत्थिताः तदाऽऽवश्यकं कुर्वन्ति । "चिंधण दुगम्मि" ति परावर्त्तयतां यत्र १त. डे० मो० ले. विनाऽन्यत्र-श्व संय भा० । °श्व तैः समं युद्यमानस्य संय कां० ॥ २ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र-धना । यत एते दोषा अतोद्र भा०। धना, आदिशब्दात् प्रवचनोड्डाहादयोऽनेके दोषाः। यत एवमतो का.॥ ३°छेदपि भा०॥ ४ एतन्मध्यगतः पाठः कां० प्रतावेव वर्तते ॥ ५ ततोऽसत्यां वसतीगी का० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ भाष्यगाथाः २५८७-९४] प्रथम उद्देशः । सूत्रेऽर्थे वा रात्रौ शङ्कितं भवति तस्य चिह्नम्-अभिज्ञानकरणम् , यथा अमुकस्मिन्नों श्रुतस्कन्धेऽध्ययने उद्देशके वा इदं शङ्कितमस्तीति, तत् सर्वं दिवा प्रश्नयित्वा निःशङ्कितं कुर्वन्ति ॥ २५९० ॥ तथा जंणरहिए वुजाणे, जयणा भासाएँ किमुय पडिबद्धे । ढड्डरसरऽणुप्पेहा, न य संघाडेण वेरत्ती ॥ २५९१ ॥ यदि तावज्जनरहितेऽप्युद्याने वसतां रात्रौ भाषायां यतना ‘मा चतुष्पद-पक्षि-सरीसृपादयो जन्तवो विबुध्यन्ताम्' इति कृत्वा, ततः किं पुनः द्रव्यप्रतिबद्ध प्रतिश्रये !, तत्र सुतरां यतना कर्त्तव्येति भावः । यस्तु 'ढड्डरवरः' बृहता शब्देन भाषणशीलः स वैरात्रिकं खाध्यायमनुप्रेक्षया करोति, मनसेवेत्यर्थः । येऽपि च साधवो न ढड्डरखरास्तेऽपि सङ्घाटकेन न परिवर्तयन्ति किन्तु पृथक् पृथगिति ॥ २५९१ ॥ 10 गतः प्रथमो भङ्गः । अथ द्वितीयभङ्गं भावतः प्रतिबद्धो न द्रव्यत इत्येवंलक्षणं निरूपयति भावम्मि उ पडिबद्धे, चउरो गुरुगा य दोस आणादी। ते वि य पुरिसा दुविहा, भुत्तभोगी अभुत्ता य ॥ २५९२॥ 'भावे' भावतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्गुरुकाः आज्ञादयश्च दोषाः । ये पुनस्ते भावप्रतिबद्धे वसन्ति ते पुरुषाः' साधवो द्विविधाः-केचिद् 'भुक्तभोगिमः' ये स्त्रीभोमाम् 15 भुक्त्वा प्रव्रजिताः, केचित्तु 'अभुक्तभोगिनः' कुमारप्रव्रजिताः । एषा पुरातना माथा ॥२५९२॥ अथास्या एव व्याख्यानमाह भावम्मि उ पडिबद्धे, पनरससु पदेसु चउगुरू होति । ___ एक्केकाउ पयाओ, हवंति आणाइणो दोसा ॥ २५९३ ॥ भावप्रतिबद्धे चतुर्भिः प्रश्रवणादिभिः पदैः षोडश भङ्गाः कर्तव्याः । तद्यथा---प्रश्रवणपति- 20 बद्धः स्थानप्रतिबद्धो रूपप्रतिबद्धः शब्दप्रतिबद्धश्च १ प्रश्रवणप्रतिबद्धः स्थानप्रतिबद्धो रूपप्रतिबद्धो न शब्दप्रतिबद्धः २ इत्यादि । अत्र प्रथमभङ्गादारभ्य पञ्चदशसु 'पदेषु' भङ्गेषु चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् । आदेशान्तरेण वा प्रथमे भने चत्वारश्चतुर्गुरवः, चतुर्णामपि पदानां तबाशुद्धत्वात्। द्वितीये भङ्गे त्रयश्चतुर्गुरवः, त्रयाणां पदानां तत्राशुद्धत्वात् । एवमनया दिशा यत्र भने यान्ति पदान्यविशुद्धानि तत्र तावन्तश्चतुर्गुरवः । एकैकस्साच ‘पदाद्' भङ्गकादाज्ञादयो दोषा 2 भवन्ति, यस्तु षोडशो भङ्गः स चतुर्वपि पदेषु शुद्ध इति न तत्र प्रायश्चित्तम् ॥ २५९३ ॥ प्रश्रवणादीनामेवान्योऽन्यं सम्भवमाह ठाणे नियमा रूवं, भासासद्दो य भूसणे भइओ। काइय ठाणं नत्थी, सद्दे रूवे य भय सेसे ॥ २५९४ ॥ यत्र साधूनां स्त्रीणां चैकमेवोपवेशनस्थानं तत्र नियमात् परस्परं रूपमवलोक्यते भाषाशब्दच 30 १ विजणम्मि वि उज्जाणे इति विशेषचूर्णौ पाठः ॥ २°क्षयैव करोति । येऽपि भा०॥ ३°बद्ध उपाश्रये भा०॥ ४ "भावम्मि उ० गाहा पुरातना। अस्या व्याख्या-भावम्मि उ० गाहा ।" इति विशेषानो । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रतिबद्धशय्याप्र० सू० ३० श्रूयते भूषणशब्दस्तु भाज्यः, साभरणानां स्त्रीणां भवति इतरासां न भवतीत्यर्थः । 'कायिकी' प्रश्रवणं तत्र स्थानं नास्ति, लोकजुगुप्सिततया कायिकीभूमावुपवेशनाभावात् ; भाषा-भूषणशब्दरूपाणि तु भवन्त्यपीति भावः । शब्द रूपे च 'शेषाणि प्रश्रवणादीनि 'भज' विकल्पय । किमुक्तं भवति ?-शब्दे प्रश्रवण-स्थान-रूपाणि भवन्ति वा न वा, रूपेऽपि प्रश्रवण-स्थान-शब्दा भवन्ति 5 वा न वेति ॥ २५९४ ॥ ऐतेष्वेव दोषानुपदर्शयति आयपरोभयदोसा, काइयभूमी य इच्छऽणिच्छंते । संका एगमणेगे, वोच्छेद पदोसतो जं च ॥ २५९५ ॥ .. यत्र संयतानामविरतिकानां चैका कायिकीभूमिस्तत्रात्मपरोभयसमुत्था दोषाः । तत्र संयत एवाविरतिकां रहसि दृष्ट्वा यदात्मना क्षुभ्यति एष आत्मसमुत्थो दोषः, यस्तु सा स्त्री तस्मिन् 10 संयते क्षुभ्यति स परसमुत्थः, यस्तु साधुरविरतिकायामविरतिकाऽपि साधौ क्षोभमुपगच्छति स उभयसमुत्थो दोषः । "इच्छऽणिच्छंते" त्ति यदि स्त्रिया प्रार्थितः साधुस्तां प्रतिसेवितुमिच्छति ततो व्रतभङ्गः, अथ नेच्छति ततः सा उड्डाहं कुर्यात् । “संक" त्ति अविरतिका कायिकीभूमौ प्रविष्टा पश्चात् संयतमपि तत्र गच्छन्तं दृष्ट्वा कोऽपि शङ्कां कुर्यात्-यदेवममू द्वे अप्यत्र त्वरितं प्रविष्टे तन्नूनं मैथुनार्थमिति । तत एकस्यानेकेषां वा साधूनां व्यवच्छेदं कुर्यात् । “पदो15 सतो जं च" ति तदीयाः पति-देवरादयः प्रद्वेषतो यद् ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिकं करिष्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ २५९५॥ यत्राविरतिकानां साधूनां चैकमेवोपवेशनस्थानं तत्र दोषानाह-- दुग्गूढाणं छन्नंगदंसणे भुत्तभोगि सइकरणं । वेउव्वियमाईसु य, पडिबंधुडुंचयाऽऽसंका ॥ २५९६ ॥ 'दुर्गुढानां' दुष्प्रावृतानां स्त्रीणां यानि च्छन्नाङ्गानि ऊरुकुचोरःप्रभृतीनि तेषां दर्शने भुक्त20 भोगिनां - स्मृतिकरणं अभुक्तभोगिनां » तु कौतुकमुत्पद्यते । तथा वैक्रियं-वातादिविक्रियाविशेषाद् महाप्रमाणं सागारिकम् , अथवा विकुर्वितं नाम-महाराष्ट्रविषये सागारिकं विद्धवा तत्र विण्टकः प्रक्षिप्यते, सा चाविरतिका तादृशेनाङ्गादानेन प्रतिसेवितपूर्वा, ततः वैक्रियं विकुर्वितं वा आदिग्रहणात् पैत्तिकं वा सागारिकं दृष्ट्वा सा स्त्री तत्र साधौ प्रतिबन्धं कुर्यात् , उड्डञ्चकं वा कश्चिदगारः कुर्यात् , आशङ्का वा लोकस्य भवति–एते श्रमणका न सुन्दरा येनैवं महेलाभिः 25 सममासते ॥ २५९६ ॥ सर्वेष्वपि प्रश्रवणादिस्थानेषु सामान्यत इमे दोषाः बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइपरिवुड्डी ।। साहु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी ॥ २५९७ ॥ स्त्रीभिः सहैकत्र तिष्ठतां साधूनां ब्रह्मचर्यस्य 'अगुप्तिः' भङ्गो जायते, लज्जानाशश्च परस्परं भवति, अभीक्ष्णं सन्दर्शनादिना प्रीतिपरिवृद्धिरुपजायते, लोकश्योपहासोक्तिभङ्गया ब्रवीति30 अहो! अमी साधवस्तपोवने वसन्ति, निवारणं च राजादयः कुर्वन्ति-मा एतेषां मध्ये कोऽपि १°यते 'भूषणे' भूषणविषयस्तु शब्दो भा' कां० ॥ २ तु भाज्यानीति भा भा० ॥ ३ एतन्मध्यगतः पाठः भा० प्रतावेव ॥ ४ एतचिह्नगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ५ अगुत्ती य बंभचेरे, लजा भा० ॥ ६ स्यागुप्तिः, लज्जा भा० त० डे० ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २५९५-२६०१ ] प्रथम उद्देशः । प्रव्रज्यां गृह्णातु, ततश्च ‘तीर्थपरिहाणिः' तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति || २५९७ ॥ रूपप्रतिबद्धे दोषानाह- ७३१ चकम्मियं ठियं मोडियं च विप्पेक्खियं च सविलासं । आगारे य बहुविहे, दहुं भुत्तेयरे दोसा ।। २५९८ ॥ 'चङ्क्रमितं' राजहंसीवत् सलीलं पदन्यासः, 'स्थितं' कटीस्तम्भे नोर्द्धस्थानम्, 'मोटितं ' गात्र 5 मोटनम् विविधम्- अर्द्धाक्षि- कटाक्षादिभिर्भेदैः प्रेक्षितं विप्रेक्षितम्, तच्च 'सविलासं ' भ्रूविक्षेपसहितं विस्मितमुखं वा, एवमादीनाकारान् बहुविधान् दृष्ट्वा भुक्तानाम् 'इतरेषां च' अभुक्तानां स्मृतिकरण कौतुकादयो दोषाः । २५९८ ॥ अविरतिकानां पुनर्नानादेशीयान् साधून् दृष्ट्वेत्थमध्युपपातो भवेत् - जल्ल-मलपंकियाण वि, लायन्नसिरी जहेसि देहाणं । , सामन्नम्म सुरुवा, सयगुणिया आसि गिहवासे ।। २५९९ ।। जल्लः - कठिनीभूतः, मल:- पुनरुद्वर्तितः सन्नपगच्छति, जल्लेन मलेन च पङ्कितानामप्येषां साधूनां देहेषु अभ्यङ्गोद्वर्त्तन - खानविरहितेष्वपि यथा 'लावण्यश्रीः' कमनीयतालक्ष्मीः श्रामयेsपि सुरूपा उपलभ्यते तथा ज्ञायते नूनममीषां गृहवासे शतगुणिता लावण्यलक्ष्मीरासीत् ॥ २५९९ ॥ शब्दप्रतिबद्धे दोषानाह- 10 १ यं जंपियं च वि° ता० ॥ २ साधुसम्बन्धिनां देहानामभ्य° कां० ॥ ३र:- हृदयङ्गमः, स्फु' भा० ॥ ४ विशब्दः स्फुटाभिवचः ग्राहकोऽर्थग्रहणसमर्थः, सुखेन - अनायासेन स्वर्यते-उच्चार्यत इति सुस्वरः एवंवि० भा० ॥ 15 गीयाणि य पढियाणि य, हसियाणि य मंजुला य उल्लावा । भूसणस राहस्सिए अ सोऊण जे दोसा ।। २६०० ॥ स्त्रीणां सम्वन्धीनि भाषा-शब्द-रूपाणि, यानि गीतानि च पठितानि च हसितानि च, 'मञ्जुलाश्च' माधुर्यादिगुणोपेता उल्लापाः, ये च वलय- नूपुरादीनां भूषणानां शब्दाः, ये च रहसि भवा राहसिकाः- पुरुषेण परिभुज्यमानायाः स्त्रियाः स्तनितादयः शब्दा इत्यर्थः, तान् श्रुत्वा ये 20 भुक्ता-भुक्तसमुत्था दोषास्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तमाचार्यस्तत्र भावप्रतिबद्धे तिष्ठन् प्राप्नोति ॥ २६०० ॥ अथ स्त्रियः साधूनां स्वाध्यायशब्दं श्रुत्वा यच्चिन्तयेयुस्तद् दर्शयति गंभीर - महुर - फुड - विसयगाहओ सुस्सरो सरो जह सिं । सज्झायस्स मणहरो, गीयस्स णु केरिसो आसी ॥ २६०१ ॥ गम्भीरो नाम-यतः प्रतिशब्द उत्तिष्ठते, मधुरैः - कोमलः, स्फुट: - व्यक्ताक्षरः, विषैयग्राहकः - 25 अर्थपरिच्छेदपटुः, सुखरः - मालव कौशिक्यादिखरानुरञ्जितः, एवंविधः स्वरो यथा 'एषां' साधूनां सम्बन्धी स्वाध्यायस्यापि मनोहरः श्रूयते तथा ज्ञायते यदा गृहवासे विश्वस्ताः सन्तो गीतमेते विहितवन्तस्तदा गीतस्य कीदृशो नाम शब्द आसीत् ? किन्नरध्वनयस्तदानीमभूवन्निति भावः ॥ २६०१ ॥ उक्ताश्चतुर्ष्वपि प्रश्रवणादिप्रतिबद्धेषु दोषाः । अथ " ते पुण पुरिसा दुविहा" ( गा० २५९२ ) इत्यादि पश्चार्द्ध व्याख्यानयति 30 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ७३२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रतिबद्भशय्याप्र० सू० ३० पुरिसा य भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता । कोऊहल-सइकरणुब्भवेहिँ दोसेहिमं कुजा ॥ २६०२ ॥ ते पुनः संयतपुरुषा द्विविधाः---केचिद् भुक्तभोगिनः केचित्त्वभुक्तभोगिनो निष्क्रान्ताः । ते च तत्रोपाश्रये स्मृतिकरण-कौतूहलोद्भवा दोषा ये उत्पद्यन्ते तैरिदं कुर्युः ॥ २६०२ ॥ पडिगमणमन्नतिथिग, सिद्धी संजइ सलिंग हत्थे य । अद्धाण-वास-सावय-तेणेसु व भावपडिबद्धे ।। २६०३॥ प्रतिगमनं नाम-ते साधवो भूयोऽपि गृहवासं गच्छेयुः, यद्वा कश्चित् पार्श्वस्थादिभ्यः समागतः स तेप्वेव व्रजेत् , अन्यतीर्थिकेपु वा गच्छेत् , सिद्धपुत्रिकां वा संयती वा स्खलिङ्गस्थितः प्रतिसेवेत, हस्तकर्म वा कुर्यात् । यत एते दोषा अतो न भावप्रतिबद्धे स्थातव्यम् । भवेद्वा 10 कारणं येन तत्रापि स्थातव्यं भवति । किं पुनस्तत् ? इत्याह-"अद्धाण" इत्यादि । अध्वप्रति पन्नास्ते साधवः, न चान्यां वसतिं लभन्ते, वर्ष वा निरन्तरं पतति, श्वापदाः स्तेनी वा ग्रामादेर्वहिरुपद्रवन्ति । एतैः कारणभावप्रतिबद्धेऽप्युपाश्रये तिष्ठन्ति ॥ २६०३ ॥ __ एतदेव व्याचष्टे विहनिग्गया उ जइउं, रुक्खे जोइ पडिबद्ध उस्सा वा । ठायति अह उवासं, सावय-तेणादओ भावे ॥ २६०४॥ विहम्-अध्वा, ततो निर्गतास्तं प्रतिपन्ना वा त्रिकृत्वः शुद्धाया वसतेरन्वेषणे यतित्वा यदि न लभन्ते ततो वृक्षस्याधस्ताद्वा ज्योतिर्युतायां वा द्रव्यप्रतिबद्धायां वा वसतौ तिष्ठन्ति । "अह उ" त्ति अथ पुनर्वृक्षस्याधस्तादवश्यायो वा वर्ष वा निपतति श्वापद-स्तेनादयो वा तत्रोपद्रवन्ति ततो भावप्रतिबद्धायां वसतौ वसन्ति ॥ २६०४ ॥ तत्र चेयं यतना __ भावम्मि ठायमाणा, पढमं ठायंति रूवपडिबद्धे । तहियं कडग चिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे ॥ २६०५॥ भावप्रतिबद्धे उपाश्रये तिष्ठन्तः प्रथमं रूपप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । तत्र चापान्तराले कटकं चिलिमिलिकां वा प्रयच्छन्ति । 'तस्य' रूपप्रतिबद्धस्याभावे प्रश्रवणप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति । तत्रापि कायिकी मात्रके व्युत्सृज्यान्यत्र परिष्ठापयन्ति ॥ २६०५॥ असई य मत्तगस्सा, निसिरणभूमीइ वा वि असईए । वंदेण बोलकरणं, तासिं वेलं च वर्जिति ॥ २६०६ ॥ मात्रकस्य 'असति' अभावेऽन्यस्या वा कायिकीनिसर्जनभूमेरभावे 'वृन्देन' त्रिचतुःप्रभृतिसाधुसमूहेन महता शब्देन बोलं कुर्वन्तस्तस्यामेव कायिकीभूमौ प्रविशन्ति । 'तासां च' अगा रीणां कायिकीव्युत्सर्जनवेलां वर्जयन्ति ॥ २६०६ ॥ 30 प्रश्रवणप्रतिबद्धस्याभावे शब्दप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति, तत्र १°नादयो ग्रा भा० विना ॥ २ ततो वृक्षप्रतिवद्धायां ज्योति प्रतिवद्धायां वा वसतौ तिष्ठन्ति । तस्याभावे ग्रामादेवहिवृक्षस्याधस्तात् “उस्सा बत्ति अभावकाशे वा तिष्ठन्ति। अथ तत्र वर्षोदकं निपतति भा० ॥ ३°सर्गभू भा० ॥ 20 25 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्यगाथाः २६०२-८] प्रथम उद्देशः । भूसण-भासासदे, सज्झाय ज्झाण निच्चमुवओगो। उबगरणेण सयं वा, पेल्लण अन्नत्थ वा ठाणे ॥ २६०७ ।। प्रथमं भूषणशब्दप्रतिवद्धे तदभावे भाषाशब्दप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति । तत्र चोभयत्रापि महता शब्देन समुदिताः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्ति, ध्यानलब्धिमन्तो वा 'ध्यान' धर्म-शुक्लभेदभिन्नं ध्यायन्ति, एतयोरेव स्वाध्याय-ध्यानयोर्नित्यमुपयोगः कर्त्तव्यः । भूषण-भाषाशब्दप्रतिबद्धा- 5 भावे स्थानप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । तत्रोपकरणेन स्वयं वा विप्रकीर्णाः सन्तस्तथा मालयन्ति यथा तासां प्रेरणं भवति, अवकाशो न भवतीति भावः । अन्यत्र वा स्थाने गत्वा दिवसे तिष्ठन्ति ॥ २६०७ ॥ स्थानप्रतिवद्धस्याभावे रहस्यशब्दप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । व तंत्र तिष्ठतां यतनां क्रम च दर्शयति परियारसद्दजयणा, सद्द वए चेव तिविह तिविहा य । 10 उद्दाण-पउत्थ-सहीणभोइया जा जस्स वा गुरुगी ॥२६०८ ॥ पुरुषेण स्त्री परिभुज्यमाना यं शब्दं करोति स परिचारशब्द उच्यते, तत्र 'यतना' स्वाध्यायगुणनादिका कर्त्तव्या। 'सद्द वए चेव तिविह" त्ति शव्दतो वयसा च सा स्त्री त्रिविधा, तद्यथामन्दशब्दा मध्यमशब्दा तीनशब्दा च, वयसा तु स्थविरा मध्यमा तरुणी चेति त्रिविधा । "तिविहा य" ति पुनरेकैका त्रिविधा-अपद्राणभर्तृका प्रोषितभर्तृका स्वाधीनभोक्तका चेति। 15 एवं भेदेपु विरचितेषु यतनाक्रम उच्यते-तत्र पूर्वमपद्राणभर्तृकायां स्थंविरायां मन्दशब्दायां स्थातव्यम् , ततः प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां मन्दशब्दायाम् , तदभावेऽपद्राणभर्तृकायां स्थविरायां मध्यशब्दायाम् , तदसम्भवे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां मध्यमशब्दायाम् , तदलाभेऽपद्राणभर्तृकायां स्थविरायां तीव्रशब्दायाम् , तदप्राप्तौ प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां तीव्रशब्दायां स्थातव्यम् । एवमेव मध्यमासु तरुणीषु च अपद्राण-प्रोषितभर्तृकासु क्रमो द्रष्टव्यः । ततः स्वाधीनभ- 20 र्तृकायामपि प्रथम स्थविरायां ततो मध्यमायां ततस्तरुण्यां यथाक्रमं मन्द-मध्यम-तीव्रशब्दायां स्थातव्यम् । अथवा "जा जम्स गुरुगि" ति यस्य साधोर्यो मन्दादिकः शब्दो रोचते तेन या युक्ता सा तस्य गुरुरागहेतुत्वाद् गुरुका, तेन च सर्वप्रयत्नेन तया गुरुकस्त्रिया प्रतिबद्धः प्रतिश्रयः परिहर्तव्यः ।। २६०८ ॥ अथवाऽयमपरः क्रम उच्यते११ एतदन्तर्गतः पाठः का० पुस्तक एव ॥ २ “परियार० गाहा पोराणा" इति विशेषचूर्णौ ॥ ३ भा० विनाऽन्यत्र-ति । अथैतासु तिष्ठतामयं क्रमः-पूर्व कां० । ति । तत्र पूर्व त. डे० मो. ले०॥ ४ स्थविरायां स्थातव्यम्, तदसम्भवे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायाम्, तदप्रातावप. द्राण-प्रोषितभर्तृकयोरेव प्रथममध्यमयोः, ततस्तरुण्योरपि क्रमेण स्थातव्यम् । ततः स्वाधीनभर्तृकायां स्थविरायां मन्दशब्दायाम्, ततस्तस्यामेव मध्यमशब्दायाम्, ततस्तीव. शब्दायाम् , तदभावे मध्यम-तरुण्योरपि यथाक्रमं मन्द-मध्यम-तीव्रशब्दयोः स्थातव्यम् । अथवा "जा जस्स भा० विना ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ उद्दाण परिविया, पउत्थ कन्ना सभोइया चैव । थेरी मज्झिम तरुणी, तिव्वकरी मंदसद्दा य ॥ २६०९ ॥ कन्याशब्दो बन्धानुलोम्याद् मध्येऽभिहितोऽप्यादौ कर्त्तव्यः, ततः पूर्वं 'कन्यायाम्' अपरिणीतस्त्रियाम्, तदभावेऽपद्राणभर्तृकायाम्, ततः 'भर्तृपरिष्ठापितायां' दौर्भाग्यात् पतिना परित्य - 5 क्तायाम्, तदलाभे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां स्थातव्यम् । तदप्राप्ता वेताखेव प्रथमं मध्यमासु, ततस्तरुणीषु, ततः सभोक्तृका - खाधीनभर्तृका तस्यामपि स्थविरादिक्रमेण स्थेयम् । नवरं सा तीव्रशब्दकरी मन्दशब्दा चशब्दाद् मध्यमशब्दा चेति त्रिविधा । तत्र पूर्वं मन्दशब्दायां ततो मध्यमशब्दायां ततस्तीत्रशब्दायामपि स्थातव्यम् ॥ २६०९ ॥ "सद्द वए चेव तिविह" ( गा० २६०८ ) त्ति व्याख्यानयति 10 थे मज्झिम तरुणी, वरण तिविहित्थि तत्थ एक्केका । तिव्वकरी मज्झकरी, मंदकरी चैव सद्देण ।। २६१० ॥ स्थविरा मध्यमा तरुणी चेति वयसा त्रिविधा स्त्री । तत्रैकैका त्रिविधा— तीत्रशब्दकरी मध्यमशब्दकरी मन्दशब्दकरी चेति शब्देन त्रिविधा || २६१० ॥ अथ प्रश्रवणप्रतिबद्धादिषु चतुर्ष्वपि या भाष्यकृता सविस्तरं यतना प्रोक्ता तामेव निर्मुक्तिकृदेकगाथया सङ्गृह्याहपासवण मत्तणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिली रूवे । सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा ।। २६११ ॥ कायिकी प्रतिबद्धे प्रतिश्रये प्रश्रवणं मात्रकेण परिष्ठापयितव्यम् । स्थानप्रतिबद्धेऽन्यत्र गत्वा स्थातव्यम् । रूपप्रतिबद्धे चिलिमिली दातव्या । शब्दप्रतिबद्धे खाध्यायो ध्यानं वा 'आवरणं वा' कर्णयोः स्थगनं विधेयम् । तथापि शब्दे श्रूयमाणे ' शब्दकरणं' तथा शब्दः कर्त्तव्यो यथा 20 तयोर्लज्जितयोर्मोह उपशाम्यति ॥ २६११ ॥ अथास्या एव पश्चार्द्ध व्याचष्टे 4 वेगकरंजं वा विपरिजियं बाहिरं व इअरं वा । सो तं गुणेइ साहू, झाणसलद्धी उझाएजा ।। २६१२ ॥ ‘वैराग्यकरम्' उत्तराध्ययनादि, यद् वाऽपि 'परिजितं ' स्वभ्यस्तं परावर्त्त्यमानमस्खलितमागच्छतीति भावः, तच्च ‘अङ्गबाह्यं वा' प्रज्ञापनादि 'इतरद्वा' अङ्गप्रविष्टमाचारादि यद् यस्य 25 साधोरागच्छति स तत् सूत्रं तथा गुणयति यथा परिचारणाशब्दो न श्रूयते । यस्तु ध्यानसलब्धिः ' ध्यानलब्धिसम्पन्नः स ध्यानं ध्यायति ॥ २६१२ ॥ दो वि अलद्धि कण्णे, ठएइ तह वि सवणे करे सदं । जह लज्जियाण मोहो, नास जणनायकरणं वा ।। २६१३ ॥ 'द्वयोरपि' स्वाध्याय-ध्यानयोर्यः साधुरलब्धिकः स कर्णौ स्थगयति । तथापि शब्दश्रवणे 30 शब्द तथा कुर्यात् यथा तयोर्लज्जितयोमोंहो नश्यति, यथा - किमेवं भोः ! न पश्यसि त्वमसमानत्र स्थितान् यदेवं लज्जनीयानि चेष्टितानि कुरुषे । यद्येवमप्युक्तो न तिष्ठति ततो जनज्ञातं कुर्वन्ति, यथा— पश्यत पश्यत भो इन्द्रदत्त ! यज्ञदत्त ! सोमशर्मन् ! अयं विगुप्त इत्थमस्माकं पुरतोऽनाचारं सेवते ॥ २६१३ ॥ गतो द्वितीयभङ्गः । अथ तृतीयभङ्गमाह - 15 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रतिबद्धशय्याप्र० सू० ३० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६०९-१७] प्रथम उद्देशः । उभओ पडिबद्धाए, भयणा पन्नरसिया उ कायव्या ।। दव्वे पासवणम्मि य, ठाणे रूवे य सद्दे य ॥ २६१४ ॥ 'उभयतः' द्रव्यतो भावतश्च या प्रतिबद्धा वसतिः तस्यां पञ्चदशका 'भजना' भङ्गकरचना कर्त्तव्या । तद्यथा-द्रव्यतः प्रतिबद्धा भावे च प्रश्रवण-स्थान-रूप-शब्दैः प्रतिबद्धा १ द्रव्यतः प्रतिबद्धा भावतश्च प्रश्रवण-स्थान-रूपैः प्रतिबद्धा न शब्देन २ द्रव्यतः प्रतिबद्धा भावतः प्रश्र-5 वण-स्थान-शब्दैः प्रतिबद्धा न रूपेण ३ द्रव्यतः प्रतिबद्धा भावे च प्रश्रवण-स्थानाभ्यां प्रतिबद्धा न रूप-शब्दाभ्याम् ४ एते चत्वारो भङ्गाः स्थानप्रतिबद्धपदेन लब्धाः । एवं स्थानाप्रतिबद्धपदेनापि चत्वारो लभ्यन्ते जाता अष्टौ भङ्गाः । एते प्रश्रवणप्रतिबद्धपदेन लब्धाः, एवं प्रश्रवणाप्रतिबद्धपदेनाप्यष्टौ लभ्यन्ते, जाताः षोडश भङ्गाः ॥ २६१४ ॥ अत्र च पोडशो भङ्गः 'द्रव्यतः प्रतिबद्धा न पुनः प्रश्रवणादिभिः' इत्येवंलक्षणो नाधिक्रियते, 10 उभयतः प्रतिबद्धाया अधिकारात्, अत्र च भङ्गे भावतः प्रतिबद्धाया अभावात् । ततो ये आद्याः पञ्चदश भङ्गकास्तेषु तिष्ठतो दोषानाह उभओ पडिबद्धाए, ठायंते आणमाइणो दोसा। ते चेव पुव्वभणिया, तं चेव य होइ बिइयपयं ॥ २६१५॥ उभयतः प्रतिबद्धायां वसतौ तिष्ठत आज्ञादयो दोषाः । ये च प्रथमद्वितीयभङ्गयोः पूर्वम-15 धिकरणादय आत्मपरोभयसमुत्थादयश्च दोषा भणितास्त एवात्रापि समुदिता वक्तव्याः । यच्च प्रथम द्वितीयभङ्गयोद्वितीयपदमुक्तं तदेवात्रापि ज्ञातव्यम् । गतस्तृतीयो भङ्गः । चतुर्थस्तु भङ्गो न द्रव्यतः प्रतिबद्धा नापि भावत इत्येवंलक्षणः स चोभयथाऽपि निर्दोष इति न काचित् तदीया विचारणा ॥ २६१५ ॥ सूत्रम् - कप्पइ निग्गंथीणं पडिवद्धसिज्जाए वत्थए ३१॥ 20 अत्र भाष्यम् एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा । सुत्तनिवाओ निदोसे, पडिबद्धे असइ उ सदोसे ॥ २६१६ ॥ 'एष एव क्रमः' द्रव्यभावोभयतःप्रतिबद्धव्याख्यापरिपाटिरूपो नियमाद् निर्ग्रन्थीनामपि वक्तव्यः । नवरं प्रतिबद्धे तिष्ठन्तीनां तासां चतुर्लघुकाः । नोदकः प्राह—यद्येवं तर्हि सूत्रं 25 निरर्थकम् , 1 तंत्र निर्ग्रन्थीनामवस्थानस्यानुज्ञातत्वात् । » आचार्यः प्राह-सूत्रनिपातो निर्दोषप्रतिबद्धे प्रतिश्रये भवति, प्रायश्चित्तं तु सदोषप्रतिबद्धे द्रष्टव्यम् । अथ निर्दोषप्रतिबद्धो न प्राप्यते ततस्तस्य 'असति' अभावे सदोषप्रतिबद्धे स्थातव्यम् ॥ २६१६ ॥ आउज्जोवणमादी, दवम्मि तहेव संजईणं पि। नाणत्तं पुण इत्थी, नऽचासन्न न दूरे य ॥ २६१७॥ द्रव्यप्रतिबद्धे संयतीनामप्यप्काय-शकटयोजनादयो दोषास्तथैव भवन्ति, परं तासां सागा१ND एतन्मध्यगतः पाठः कां० प्रतावेव वर्तते ॥ 30 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 ७३६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रतिवद्धशय्याप्र० सू० ३१ रिकनिश्रया तिष्ठन्तीनां न दोषः । “नाणत्तं पुण इथि" ति स पुनः प्रतिबद्धः स्त्रीभिरेव वसन्तीभितिव्यो न पुरुपैः । एतद् निर्ग्रन्थेभ्यो निर्ग्रन्थीनां नानात्वम् । स च संयतीनां प्रतिश्रयः सागारिकगृहस्य नात्यासन्ने न चातिदूरे भवति ॥ २६१७ ॥ तद्यथा-- अजियमादी भगिणी, जा यऽन्न सगारअन्भरहियाओ। 6 विहवा वसंति सागारियस्स पासे अदूरम्मि ॥ २६१८ ॥ _ आर्यिका-पितामही मातामही वा, आदिशब्दाद् जनन्यादिपरिग्रहः, भगिनी प्रतीता, याश्चान्या अपि भ्रातृजायाप्रभृतयः सागारिकस्य-शय्यातरस्याभ्यर्हिताः-पूज्या विधवाः सागारिकगृहस्य पार्श्वेऽदूरे वसन्ति, ताभिर्द्रव्यतः प्रतिवद्ध प्रतिश्रये वन्तव्यमिति ॥ २६१८ ॥ आह च . एयारिस गेहम्मी, वसंति वइणीउ दव्वपडिबद्धे । पासवणादी य पया, ताहि समं होंति जयणाए ॥ २६१९ ॥ ___ एतादृशे गेहे स्त्रीभिर्द्रव्यतः प्रतिबद्धे वतिन्यो वसन्ति । तत्र च स्थिताः प्रश्रवणादीनि पदानि 'यतनया' वारकग्रहणादिरूपया ताभिः समं कुर्वन्ति । एतद् निर्दोषं द्रव्यप्रतिबद्धमुच्यते ॥ २६१९ ॥ नोदकः प्राह-यद्यत्राप्यप्काय-शकटयोजनादीन्यधिकरणानि भवन्ति ततः कथं निर्दोष भवति ? इत्युच्यते कामं अहिगरणादी, दोसा वाणीण इत्थियासु पि । ते पुण हवंति सज्झा, अणिस्सियाणं असज्झा उ॥२६२०॥ 'कामम्' अनुमतमस्माकं यदधिकरणादयो दोषा व्रतिनीनां 'स्त्रीप्वपि' स्त्रीप्रतिबद्धे भवन्ति परं ते पुनर्दोषाः साध्याः, "आपुच्छण आवासिय, आसज्ज निसीहिया य जयणाए" (गा० २५९०) इत्यादिगाथोक्तया यतनया तेषां परिहत्तुं शक्यत्वात् । ये तु तासामनिश्रितानां तरु20 णादिसमुत्था दोषा भवन्ति तेऽसाध्याः, असाध्यदोषपरिहारेण च साध्यदोषानाद्रियमाणानां यतनया च तत्परिहारं कुर्वन्तीनां न कश्चिद्दोष इति ॥ २६२० ॥ उक्तो द्रव्यप्रतिवद्धे विधिः । अथ भावप्रतिबद्धे विधिमाह--- पासवण-ठाण-रूवा, सद्दो य पुमंसमस्सिया जे उ । भावनिबंधो तासिं, दोसा ते तं च विइयपदं ॥ २६२१ ॥ 25 ये च प्रश्रवण-स्थान-रूप-शब्दाः 'पुमांसं' पुरुषमाश्रितास्तैः प्रतिबद्धा या शय्या तस्यां 'तासां' साध्वीनां 'भावनिबन्धः' सा भावप्रतिबद्धेति भावः । अत्र च दोपास्त एव पूर्वोक्ताः, द्वितीयपदमपि तदेव मन्तव्यम् ॥ २६२१ ॥ यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति विइयपय कारणम्मी, भावे सम्मि पूवलियखाओ। तत्तो ठाणे रूवे, काइय सविकारसदे य ॥ २६२२ ॥ 30 द्वितीयपदे 'कारणे' अध्यनिर्गमनादौ निर्दोषोपाश्रयस्याप्राप्तौ भावप्रतिबद्धे तिष्ठन्त्यः प्रथम पूपलिकाखादस्य-वक्ष्यमाणलक्षणस्य शब्दप्रतिवद्धे तिष्ठन्ति, ततस्तस्यैव स्थानप्रतिबद्धे, ततो १°र्दोषाया वसतेरप्राप्ती भा० ॥ २ मं "पूवलियखाउ" त्ति पूपलिकां खादतीति पूपलिकाखादः तस्य पूप का० ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ 10 भाप्यगाथाः २६१८-२६] प्रश्रम उद्देशः । रूपप्रतिबद्धे, ततः कायिक्या वायुकायस्य वा यो व्युत्सृजतः शब्दो भवति तेन 'सविकारे' सदोपे तस्यैव प्रश्रवणप्रतिवद्धे तिष्ठन्ति ॥ २६२२ ॥ पूपलिकाखादकस्य स्वरूपमाह नउई-सयाउगो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो। अनेण उद्यविजइ, भोइजइ सो य अन्नेणं ॥ २६२३ ॥ यः स्थविरो नवतिवार्षिको वा शतायुष्को वा-सम्पन्नशतवर्ष इत्यर्थः, 'खट्रामल्लो नाम' 3 प्रबलजराजर्जरितदेहतया यः खटाया उत्थातुं न शक्नोति, अत एवासौ 'अजङ्गमः' गमनक्रियासामर्थ्य विकलः, खवाया अपि चान्येन परिचारकादिनोत्थाप्यते अन्येन चासौ 'भोज्यते' भोजनं कार्यते एप पूपलिकाखादकः ॥ २६२३ ॥ अस्यैव व्युत्पत्तिमाह पूवलियं खायंतो, चब्बच्चबसद्द सो परं कुणइ। एरिसओ वा सद्दो, जारिसओ पूवभक्खिस्स ॥ २६२४॥ पूँपलिका 'खादन्' भक्षयन् दन्तानामभावाद् यस्मादसौ ‘परं' केवलं चब्बच्चवाशब्दं करोति सेन पूपलिकाखादकः । यादृशो वा पूपभक्षिणः शब्दो भवति ईदृशो यस्य भाषमाणस्य शब्दः स पूपलिकाखादकः ॥ २६२४ ॥ सो वि य कुटुंतरितो, खाहुत्थूभाउ कुणइ जत्तेणं । परिदेवइ किच्छाहि य, अवितकंतो विगयभावो ॥ २६२५ ॥ 15 'सोऽपि च' पूपलिकाखादकः स्थविरः संयतीप्रतिश्रयस्य कुड्यान्तरितो वर्तमानः “खाहुदृभाउ' ति काशित-निष्ठीवने ते द्वे अपि 'यत्नेन' कष्टेन करोति, कृच्छ्राच्चासौ परिदेवते' करणतीति भावः, 'अवितर्कमानः' वितर्कमकुर्वन् 'विगतभावः' निरभिसन्धिहृदयः सुप्त-मत्त. मूच्छितादिरिवाव्यक्तचेतनाक इत्यर्थः, ईदृशेन पूपलिकाखादकशब्देन प्रतिबद्धे निर्ग्रन्थीभिः प्रथमं स्थातव्यम् । तदभावे तस्यैव स्थानप्रतिबद्धे, ततो रूपप्रतिबद्धे, ततः प्रश्रवणप्रतिबद्धेऽपि 20 ॥ २६२५ ॥ आह किमत्र पूपलिकाखादकप्रतिबद्धे रागोद्भवो न भवति ? उच्यते अवि होज विरागकरो, सदो रूवं च तस्स तदवत्थं । ठाणं च कुच्छणिजं, किं पुण रागोभवो तम्मि ॥ २६२६ ॥ 'अपि' इत्यभ्युच्चये, 'तस्य' पूपलिकाखादकस्य स्थविरस्य सम्बन्धी यः काशित-परिदेवनादिकः शब्दः, यच्च 'तदवस्थं' तस्यामवस्थायां वर्तमानं वली-पलित-खलत्यादिकं रूपम् , यच्च तस्य 25 १ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र-ततः कायिकीप्रतिवद्धे, ततस्तस्यैव व्युत्सृजतो यः सविकारो वायुकायशब्दो भवति तत्रापि तिष्ठन्ति भा० । ततः कायिकी व्युत्सृजतः तस्या एवं कायिक्या का० । “असति तस्सेव रूवपडिबद्धे, असति तस्सेव पासवणपडिबद्धे, सविकारे त्ति बोसिरतो वाउकायसदं करेति ॥"इ २ पूपलिकां 'खादन्' भक्षयन् शेषभाषणे शक्तिविकलत्वाद् यस्मादसौ'परं' केवलं चबच्चयाशब्दं करोति तेन च शब्देन पूपलिकां खादन् शायते अतः पूपलिकाखादक उच्यते । अथवा यादृशः पूपभक्षिणः शब्दो भवति ईदृशो यस्य स्थविरस्याव्यक्तवर्णविभागः शब्दः स पूपलिकाखादकः ॥२६२४ ॥ कां० ॥ ३ “परिदेववि त्ति कणति" इति चूर्णौ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० सू० ३२ विण्मूत्र-श्लेष्माद्यशुचिपङ्किलं 'कुत्सनीयं' जुगुप्सास्पदं स्थानं तानि प्रत्युत स्त्रीणां विरागकराण्येव, कुतः पुनस्तत्र रागोद्भवो भविष्यति ? । अथ पूपलिकाखादकप्रतिबद्धं नावाप्यते ततो यथा निर्ग्रन्थानां कटकचिलिमिलिकादिका यतना भणिता ( गा० २६०५) तथा निर्ग्रन्थीनामपि द्रष्टव्या ॥ २६२६ ॥ अत्र परः प्राह __ एयारिसम्मि रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा।। समणाण किंनिमित्तं, पडिसेहो एरिसे भणिओ ॥ २६२७ ॥ यदि 'एतादृशे' पूपलिकाखादकसम्बन्धिनि रूपे शब्दे वा संयतीनामनुज्ञा क्रियते तर्हि श्रमणानां किंनिमित्तम् 'ईदृशे' स्थविरस्त्रीसंश्रिते रूपादिप्रतिबद्धे प्रतिषेधो' भणितः ? तेषामपि तत्र वस्तुं युक्तमिति भावः ॥ २६२५ ॥ सूरिराह मोहोदएण जइ ता, जीवविउत्ते वि इत्थिदेहम्मि । दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजिए भवे देहे ॥ २६२८ ॥ यदि तावद् मोहोदयेन जीववियुक्तेऽपि स्त्रीदेहे पुरुषाणां प्रतिसेवनादोषप्रवृत्तिर्दृष्टा तर्हि किं पुनः सजीवे देहे स्थविरायाः सम्बन्धिनि ? तत्र सुतरां भविष्यतीति भावः, अतस्तेषां तत्रापि प्रतिषेधः कृतः । निर्ग्रन्थीनां तु पूपलिकाखादकप्रतिबद्धे खल्प एव दोषः अनिश्रितानां तु महा15 निति तासां तत्र वस्तुमनुज्ञायते ॥ २६२८ ॥ ॥ प्रतिबद्धशय्याप्रकृतं समाप्तम् ॥ 10 गृ ह प ति कु ल म ध्य वा स प्रकृतम् सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्त मज्झंमज्झेणं 20 गंतुं वत्थए ॥ ३२ ॥ अत्र सम्बन्धगाथामाह जह चेव य पडिबंधो, निवारिओ सुविहियाण गिहिएसु । तेसिं चिय मज्झेणं, गंतूण न कप्पए जोगो ॥ २६२९ ॥ यथैव पूर्वसूत्रे 'गृहिषु' गृहस्थविषयो द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबन्धः 'सुविहितानां' साधूनां 25 निवारितस्तथैवात्रापि 'तेषामेव' गृहिणां मध्येन गत्वा यत्र निर्गम-प्रवेशौ क्रियेते तत्र वस्तुं न कल्पत इति निवार्यते । एषः 'योगः' सम्बन्धः ॥ २६२९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानो कल्पते निर्ग्रन्थानां गृहपतिकुलस्य मध्यम्मध्येन गत्वा यत्र निर्गम-प्रवेशौ क्रियेते तत्रोपाश्रये वस्तुम् । उपलक्षणमिदम् तेन गृहस्था यत्र संयतोपाश्रयस्य मध्यम्मध्येन निर्गच्छन्ति वा प्रविशन्ति वा तत्रापि न कल्पते वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ १°धो निर्ग्रन्थमूत्रे भणि का० ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६२७-३३] प्रथम उद्देशः । ७३९ अथ विस्तरार्थ भाष्यकृत् प्रतिपादयति मज्झेण तेसि गंतुं, गिही व गच्छंति तेसि मज्झेणं । पविसंत निंत दोसा, तहियं वसहीऍ भयणा उ ॥ २६३० ॥ 'तेषाम्' अगारिणां मध्येन गत्वा यत्र प्रविश्यते निर्गम्यते वा, गृहिणो वा 'तेषां' संयतानां मध्येन यत्र गच्छन्ति तत्र न कल्पते वस्तुम् । कुतः ? इत्याह -'तत्र' तादृशे उपाश्रये । संयतानां गृहिणां वा प्रविशतां निर्गच्छतां च दोषा भवन्ति, ते चोपरिष्टादभिधास्यन्ते ( गा० २६४०)। तथा वसतिं प्रविष्टानां संयतानां वसतिविषयाः पूर्वोक्ता दोषास्तत्र भवेयुर्वा न वेत्येवं भजना कार्या- यदि प्रतिबद्धा वसतिस्तदा प्रतिवद्धशय्यासूत्रोक्ता दोषा भवन्ति, अथ न प्रतिबद्धा ततस्ते न भवन्ति ॥ २६३० ॥ अथ मध्यपदं व्याख्यातिसब्भावमसब्भावं, मज्झमसम्भावतो उ पासेणं । 10 निव्याहिमनिव्वाहि, ओकमइंतेसु सब्भावं ।। २६३१ ॥ मध्यं द्विधा-सद्भावमध्यमसद्भावमध्यं च । तत्र सद्भावमध्यं नाम-यत्र गृहपतिगृहस्य पार्थेन गम्यते आगम्यते वा छिण्डिकयेत्यर्थः, "ओकमइंतेसु" ति गृहस्थानाम् ओकः-गृहं संयताः संयतानां च गृहस्था मध्येन यत्र 'अतियन्ति' प्रविशन्ति उपलक्षणत्वाद् निर्गच्छन्ति वा तदेतदुभयमपि सद्भावतः-परमार्थतो मध्यं सद्भावमध्यम् । तच्च प्रत्येकं द्विधा-निर्वाहि अनिर्वाहि 15 च । तत्र गृहपतिगृहस्य संयतोपाश्रयस्य च यत्र पृथक् फलिहकं तद् निर्वाहि । यत्र पुनस्तयोरेकमेव फलिहकं तदनिर्वाहि ॥२६३१॥ अस्य चतुर्विधस्यापि त्रयः प्रकारा भवन्ति, तद्यथा साला य मज्झ छिंडी, निग्गंथाणं न कप्पए वासो। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ २६३२॥ शाला १ मध्यं २ छिण्डिका ३ चेति त्रयो भेदाः । एतेषु त्रिष्वपि निम्रन्थानां न कल्पते 20 वासः । अथ वसन्ति ततश्चत्वारोऽनुद्धाता मासा भवन्ति । तत्राप्याज्ञादयो दोषाः ॥ २६३२॥ तत्र शालापदं व्याचिख्यासुः प्रथमतो द्वारगाथामाह सालाएँ पच्चवाया, वेउब्धियऽवाउडे य अदाए । कप्पट्ठ भत्त पुढवी, उदगगणी बीय अवहन्ने ॥ २६३३ ॥ शालायां तिष्ठतां 'प्रत्यपायाः' दोषा वक्तव्याः । तथा वैक्रियेऽपावृते चाङ्गादाने उड्डञ्चकादयो 25 दोषाः । “अदाए" ति साधुमपावृतं दृष्ट्वा गृहस्था आदर्शो दृष्ट इत्यमङ्गलं मन्यन्ते । कल्पस्थानि वा तत्र निर्गम-प्रवेशपथे भवेयुः तेषां हस्त-पादाग्रुपघातो भवेत् । तथा भक्तं-भोजनं तत्रावष्व. कणादयो दोषाः । तथा पृथिव्युदकाग्निबीजानां विराधना । “अवहन्ने" ति उदूखलं तत्र बीजकार्य कण्डयन्त्यः स्त्रियः शृङ्गारगीतानि गायेयुः तदाकर्णने विश्रोतसिका समुत्पद्यते इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ २६३३ ॥ अथ विस्तरार्थे प्रतिद्वारमभिधित्सुराह१°तस्तद्विषया दोषा न भ° भा० कां० ॥ २ "अधुना नियुक्तिविस्तर:-सब्भाव० गाधा" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ ३ साला मज्झे छिंडी ता० ॥ 30 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० सू० ३२ सालाए कम्मकरा, घोडा पेसा य दास गोवाला । पेह पवंचुटुंचय, अमहण कलहो य निच्छुमणं ॥ २६३४ ॥ गृहपतेः शालायां ये 'कर्मकराः' भृतकाः, ये च 'घोटाः' चट्टाः, 'प्रेप्याः' प्रेषणयोग्या आज्ञप्तिकरा इत्यर्थः, 'दासाः' गृहजातकाः क्रीता वा, गोपालाः' प्रतीताः । एते शालायां तिष्ठन्तः । 5 शयाना वा 'प्रेक्षा' प्रत्युपेक्षणां कुर्वाणानां साधूनां प्रपञ्चं कुर्वन्ति, तथैव प्रत्युपेक्षन्ते इत्यर्थः । यद्वा प्रपञ्चो नाम-उपहासवचनम् ---अहो! बह्वः प्राणजातीया एतेषु चीवरेषु पतिता इत्यादि । सूत्रार्थपरावर्तनादौ वा 'उड्डञ्चकाः' उद्वेटकास्तान् कुर्वन्ति, आलापकान् कर्णाघाटकेन पठित्वा तथैवोच्चरन्तीत्यर्थः । तत्र कश्चिदसहनः साधुस्तैः कर्मकरादिभिः सह कलहं करोति तत्रास्थिभङ्गादयो दोषाः । स च गृहपतिस्तैः कर्मकरादिभिरुत्तेजितः साधून निष्काशयेत् । 10 निष्काशितानां च वसत्यर्थं पर्यटतां लोको ब्रूयात्-यादृशममीषां चेष्टितं तादृगेवामीषां फलमुपनतमित्यादि ॥ २६३४ ॥ किञ्च आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासा य । उच्चारे पासवणे, गेलन्ने जे भवे दोसा ।। २६३५ ॥ आवश्यकं खाध्यायं प्रतिलेखनां च यदि सागारिकाः पश्यन्तीति कृत्वा न कुर्वन्ति अवि15 धिना वा कुर्वन्ति तदा तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । भोजन-समुद्देशनं तच्च मण्डल्यां तुम्बकेषु वा क्रियमाणं दृष्ट्वा सागारिका जुगुप्सां कुर्युः । “भास" ति संयतभाषाः श्रुत्वा सागारिका गृह्णीयुः । उच्चारं प्रश्रवणं वा क्रियमाणं दृष्ट्वा प्रपञ्चादिकं कुर्वन्ति । अथ तयोनिरोधः क्रियते तत आत्मविराधना । ग्लानो वा कश्चिद् भवेत् स सागारिकेषु पश्यत्सु महत्या दुःखासिकया तिष्ठति, ततस्तस्य या परितापना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । एवमावश्यकादिषु ये यत्र दोषाः 20 सम्भवन्ति ते तत्र वक्तव्या इति शेषः ॥ २६३५ ॥ तथा--- आहारे नीहारे, भासादोसे य चोदणमचोदे । किड्डासु य विकहासु य, वाउलियाणं कओ झाओ ॥ २६३६ ॥ आहारे नीहारे च दोषविभाषा यथाऽनन्तरगाथायाम् । “भासादोसे य" ति ढड्वरभाषाभिर्भाष्यमाणाभिरप्काय-योजन-वणिजादयो दोषाः । “चोदणं" ति यदि साधूनां सामाचारीषु सीदतां 25 नोदना क्रियते तदा सागारिकास्तथैव प्रपञ्चं कुर्युः । “अचोए" ति अनोदयतां तु सामाचारीभङ्गो भवेत् , आज्ञा-ऽनवस्थादयश्च दोषाः । तथा ते कर्मकरादयस्तत्र नानाविधाभिः क्रीडाभिः क्रीडन्ति, स्त्रीकथाप्रभृतिकाश्च विविधाः कथाः कथयन्ति, तासु च यथाक्रमं विलोक्यमानासु श्रूयमाणासु च व्याकुलितानां साधूनां कुतः खाध्यायो भविष्यति ॥ २६३६ ॥ गतं प्रत्यपायद्वारम् । अथ वैक्रियद्वारमपावृतद्वारं चाह30 वंदामि उप्पलजं, अकालपरिसडियपेहुणकलावं । धम्मं किह णु न काहिइ, कन्ना जस्सेत्तिया विद्धा ॥ २६३७ ॥ कस्यापि साधोः स्वभावतो विक्रियातो वा सागारिकं त्वचाविरहितं भवेत् , ततस्तदपावृतं दृष्ट्वा कर्मकरादयः प्रपञ्चेन ब्रुवते-वन्देऽहममुमुत्पलार्य साधुम् , अकाले-अनवसरे परिशटितः Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७४१ भाष्यगाथाः २६३४-४१] प्रथम उद्देशः । पेहुणं-पिच्छं तदेव कलापो यस्य स तथा तम् । यद्वा कस्यापि महाराष्ट्रादिविषयोत्पन्नस्य साधोरङ्गादानं वेण्टकविद्धम् , ततस्तद् दृष्ट्वा ब्रुवते-कथं नु नामासौ साधुर्धर्मं न करिष्यति यस्येयन्तः कर्णा विद्धाः ? ॥ २६३७ ॥ एवं च तैः प्रपञ्चेनोक्ते सति किं भवति ? अहिगरणं तेहि समं, अज्झोवायो य होइ महिलाणं ।। तकम्मभाविताणं, कुतूहलं चेव इतरीणं ॥ २६३८ ॥ ___ यः कोपनः साधुः स तैः सममधिकरणं करोति, ततश्चास्थिभङ्गादयो दोषाः । तथा या महेलास्तादृशेन विकुर्विताङ्गादानेन यत् कर्म-प्रतिसेवनं तेन भावितास्तासां तस्मिन् साधावध्युपपातो भवति । इतरासां कुतूहलमुपजायते ॥ २६३८ ॥ अथादर्शद्वारं व्याख्यायते । तान् साधूनपावृतान् प्रतिमास्थितान् दृष्ट्वा कर्मकरादयः प्रपञ्चेन ब्रवीरन्अदाइय ने वयणं, बच्चामो राउलं सभं वा वि । 10 गोसे चिय अदाए, पेच्छंताणं सुहं कत्तो ॥ २६३९ ॥ 'आदर्शितम्' आदर्शदर्शनेन पवित्रीभूतं तावदस्माकं वदनम् , अतो बजामो राजकुलं वा सभां वा । यद्वा ते प्रभात एव साधूनां पुतावपावृतौ दृष्ट्वा प्रकुपिताः सन्तो ब्रुवते-अहो ! "गोसे" प्रभात एवादी पश्यतामस्माकमद्य कुतः सुखं भविष्यति ? । एवं तैरुक्ते त एवाधिकरणादयो दोषाः ॥ २६३९ ॥ अथ कल्पस्थद्वारं व्याचष्टे 15 हत्थाईअकमणं, उप्फुसणादी व ओहुए कुजा। गेलन मरण आसिय, विणास गरिहं दिय निसि वा ॥ २६४०॥ तत्रागमन-निर्गमनपथे चेटरूपाणि भवेयुः तेषां साधुभिरागच्छद्भिर्निर्गच्छद्भिश्च हस्त-पादाद्याक्रमणं भवेत् । अथासौ कल्पस्थः साधुना केनापि 'अवधुतः' उल्लवित इत्यर्थः, ततस्तदीया माता तस्याप्कायेनोत्स्पर्शनम् आदिग्रहणाद् लवणोत्तारणं वा कुर्यात् । यदि वा स कल्पस्थो 20 ग्लानीभवेद्वा म्रियेत वा तदा तदीया माता-पित्रादयः खजना ब्रवीरन् मन्येस्न् वा-तेन श्रमणकेनास्मदीय एष दारकस्तदानीमुल्लवितः तत इत्थं ग्लानत्वं पञ्चत्वं वा प्राप्तवान् । ततः प्रद्विष्टास्ते "आसिय" त्ति शालायाः साधूनां निर्धाटनं कुर्युः । “विणास" ति येन साधुना स कल्पस्थ उल्लवितस्तस्य 'विनाशं' मारणं कुर्युः, यद्वा ते साधवस्तेन शय्यातरेण निष्काशिताः स्तेनश्वापदादिभिर्विनाशमामुयुः । “गरिहं" ति लोकतो गर्हामासादयेयुः-किमेते [5] शोभनैः कर्म-25 भिर्निष्काशिताः ? इति । सर्वमप्येतद् निर्धाटनादिकं दिवा वा निशायां वा कुर्युः । यदि दिवा निष्काशयन्ति तदा चतुर्लघु, रात्रौ निष्काशयन्ति चतुर्गुरु ॥ २६४० ॥ अथ भक्तद्वारमाह--- भोत्तव्वदेसकाले, ओसक्काहिसक्कणं व ते कुजा । दरभुत्ते वाचियत्तं, आगय णिते य वाघाओ॥ २६४१ ॥ भोक्तव्यं-भोजनम् , । अविवक्षितकर्मकत्वेन भावे तव्यप्रत्ययस्य समानीतत्वात् , - तस्य 30 देशकाले 'ते' गृहस्था अवष्वष्कणमभिष्वष्कणं वा कुर्युः । तत्रावष्वष्कणं नाम-यावनिर्गच्छन्ति साधवस्तावद् वयं भोजनं कुर्महे, अभिष्वष्कणं-निर्गच्छन्तु तावद् भिक्षार्थ साधवस्ततो ११ एतचिह्नमध्यगतः पाठः कां० प्रतावेव दृश्यते ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० सू० ३२ भोक्ष्यामहे । अथ ते 'दरभुक्ताः' अर्द्धसमुद्दिष्टास्ततः साधुषु गमनाऽऽगमनं कुर्वाणेषु महदप्रीतिकं कुर्वन्ति । अथाप्रीतिकभयाद भिक्षाया आगता भिक्षां निर्गच्छन्तो वा गृहस्थान् समुद्दिशतः प्रतीक्षन्ते ततः समुद्देश-खाध्यायादीनां भिक्षायाश्च व्याघातो भवति ॥ २६४१ ॥ अथ पृथिव्युदका-ऽमि-बीजा-ऽवहन्नद्वाराणि व्याख्याति कुड्डाइलिंपणट्ठा, पुढवी दगवारगो य उद्दित्ता। कयविक्कयसंवहणे, धन्नं तह उक्खल तडे य ॥ २६४२ ॥ कुड्यस्य भूम्या वा लिम्पनार्थं तत्र 'पृथ्वी' मृत्तिका 'दकवारकश्च' पानीयघटः स्थापितो भवेत् तत्र गच्छतामागच्छतां वा पृथिव्यप्कायविराधना । "उद्दित्त" त्ति अमिकायः शीतकाले उद्दीपितो भवेत् तत्रापरिणतादयः प्रतापयेयुः । “धन्नं" ति विभक्तिव्यत्ययाद् । धान्यस्य वा 10 क्रयविक्रयाथ तत्र संवहनं भवेत् तस्य सङ्घट्टनादिनिप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । तथा तत्रोदूखलं 'तटे' प्रत्यासन्नप्रदेशे स्थापितं भवेत् , तत्र चाविरतिका बीजकार्य कण्डयन्त्यः शृङ्गारगीतानि गायन्ति, तेषु च श्रूयमाणेषु विश्रोतसिका समुपजायते ॥ २६४२ ॥ _एवं ता पमुहम्मी, जा साला कोद्वतो अलिंदो वा । भूमीइ व मालम्मि व, ठियाण मालम्मि सविसेसा ॥ २६४३ ॥ 15 एवं तावत् 'प्रमुखे' गृहद्वारे या शाला वा कोष्ठको वा अलिन्दको वा तत्र दोषा उक्ताः । एते च शाला-कोष्ठका-ऽलिन्दका भूमौ वा माले वा भवेयुः । तत्र भूमौ तिष्ठतां दोषा भणिताः । अथ मालोपरिवर्तिषु शालादिषु तिष्ठन्ति तत एत एव दोषाः सविशेषा द्रष्टव्याः ॥ २६४३ ॥ तथा च तमेव विशेषं दर्शयति-- __ दुरुहंत ओरुभंते, हिट्ठठियाण अचियत्त रेणू य । संकाय संकुडंते, पडणा भत्ते य पाणे य ॥ २६४४ ॥ तस्मिन् माले यदा साधुरारोहति वा अवरोहति वा तदा तस्य ये पादरेणवस्तैरधःस्थितानां गृहस्थानामुपरि प्रपतद्भिस्तेषां महदप्रीतिकमुत्पद्यते । तथा स साधुरारोहन्नवरोहन् वा अधःस्थितानां गृहस्थानाम् 'अपावृतो दर्शनपथं मा गमम्' इति शङ्कया द्वावप्यूरू सङ्कोचयन् वस्त्रं च 25 संयमयन् प्रपतेत् । पतितस्य च पादादिविराधना, भक्तस्य च पानस्य च भूमौ परिगलना भवति ॥ २६४४ ॥ गतं शालाद्वारम् । अथ मध्यद्वारमाह उधरए वलभीइ व, अंतो अन्नत्थ वा वसंताणं ।। ते चेव तत्थ दोसा, सविसेसतरा इमे अन्ने ॥ २६४५॥ चतुःशालादिगृहस्य यद् 'अन्तः' मध्यं तत्रापवरके वा वलभिकायां वा 'अन्यत्र वा' अवि30 शेषिते गृहमध्ये वसतां ये शालायां प्रत्यपायादयो दोषा उक्ताः (गा० २६३३ ) त एवात्रापि द्रष्टव्याः, परं सविशेषतराः । ते च विशेषदोषाः 'इमे' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणाः ॥२६४५॥ तानेवाह१ एतचिह्नमध्यगतः पाठः का. प्रतावेव दृश्यते ॥ 20 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६४२-४८ ] प्रथम उद्देशः । अंगमण मणाभोगे, ओभासण मजणे हिरने य । ते चैव तत्थ दोसा, सालाए छिंडिमज्झे य || २६४६ ॥ गृहमध्ये तिष्ठतामनाभोगेनान्यस्मिन्नपवर के 'अतिगमनं ' प्रवेशो भवेत् । तत्र प्रविष्टस्य चाविरतिका अवभाषणं कुर्यात् । मज्जनं च शय्यातरादिना क्रियमाणं दृष्ट्वा स्मृति - कौतुके जायेते । हिरण्यं - रूप्यं चशब्दाद् भोजनादि च तत्र विप्रकीर्णं भवेत् तत्र मन्दधर्मणः कस्या - 5 प्याकाङ्क्षा भवति । एते विशेषदोषाः । शेषास्तु प्रस्तुते मध्यद्वारे वक्ष्यमाणे च छिण्डिकाद्वारे त एव मन्तव्या ये शालाद्वारे पूर्वमुक्ताः || २६४६ ॥ अथतिगमनमनाभोगे इति द्वारं व्याचष्टे - उभयद्वाय विणिग्गऍ, अहंति सं पई ति मन्नएज्गारी । अणुचियधरtपवेसे, पडणा-ऽऽवडणे य कुइयादी || २६४७ ॥ कोऽपि संयत उभयं–कायिकी - संज्ञे तद्युत्सर्जनार्थं रात्रौ निर्गतः, स च प्रत्यागच्छन् 'आत्मी- 10 योऽयमपवरकः' इति मन्यमानोऽपरमपवरकम् 'अतियात्' प्रविशेत्, तत्र चागारी कायिकाद्यर्थनिर्गतभर्तृका तं संयतमन्धकारनिकरनिरुद्धलोचना खं पतिं मन्येत ततश्च परिप्वजेत्, सच भर्त्ता प्रविष्टस्तं संयतं तत्र स्थितं मत्वा ग्रहणा -ऽऽकर्षणादीनि कारयेत्, यद्वा तत्क्षणादेव तं तत्रैवापद्रावयेत्, सर्वेषां वा साधूनां निष्काशनं कुर्यात् । ' अनुचिते वा' अज्ञाते गृहे प्रवेशं कुर्वतो रात्रौ स्तम्भादिष्वापतन - प्रपतनादयो दोषाः । यद्वा तस्या अगार्याः पतिस्तत्र न स्वाधीनः, 15 स च संयतः प्रविष्टस्तस्याः शयनीयं स्पृष्टवान् तया च 'कूजितं ' महता शब्देन पूत्कृतमित्यर्थः, ततस्तत्र भूयान् लोको मिलितः, तया च वृत्तान्ते निवेदिते भवति महानुड्डाहः प्रवचनस्य, आदिशब्दाद् ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयो दोषाः || २६४७ ॥ अथावभाषणद्वारमाहअट्ठगमणट्टिगी वा, उड्डाहं कुणइ सव्वनिच्छुभणं । dyoभामे मन्न, गिहिआवडिओ व छिक्को वा ॥ २६४८ ॥ यस्या अविरतिकायाः पतिर्न स्वाधीनः सा यदि स्वयम् 'अर्थिका' मैथुनार्थिनी ततस्तं साधुमवभाषेत - - मया सममुपभुङ्क्ष्व भोगानिति । यदीच्छति ततः संयमविराधना, अथ नेच्छति ततः सा उड्डाहं कुर्यात् । अथासौ स्वयं नार्थिका परं संयतः क्षुभितचित्तस्तामवभाषते ततोऽप्येषा प्रवचनोड्डाहं करोति, सर्वेषां वा साधूनां निष्काशनं कुर्यात् । यद्वा अविरतिकस्तदानीमविरतिकया सह तिष्ठति, संयतश्च प्रविश्य तस्य गृहिण उपरिष्टादापतितो वा हस्तादिना वा तं "छिक्को” त्ति स्पृष्टवान् ततोऽसौ ' स्तेनोऽयम्, उद्घामको वाऽयम्' इति मन्येते, ततश्च तं साधु परितापयेद्वा विनाशयेद्वा । अथासौ ज्ञातो यथा 'संयतोऽयम्' ततः शङ्कां कुर्यात् – 'किं मन्ये प्रतिसेवनार्थमायातः ? उत खोपाश्रयद्वारमजानानः ?' इत्येवं शङ्कायां चतुर्गुरु, प्रतिसेवनार्थमेवेति > निःशङ्किते मूलम् || २६४८ ॥ अथ मज्जनद्वारमाह 25 --- - १ अभिगम° ता० ॥ २ एषा द्वारगाथा । अथैनां विवरीपुर तिग° कां० ॥ ३ च उभयमपि व्युत्सृज्य प्रत्या भा० ॥ ४ चाविरतिकाया भर्त्ता पूर्वमेव कायिकयाद्यर्थ निर्गतो विद्यते सा चाविरतिका तं संयतमन्ध भा० ॥ ५ न्यमानस्तं साधुं भा० ॥ ६ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ७४३ 20 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्र [ गाथापतिकुल० सू० ३२ मजणविहिमजंतं , दमु सगारं सईकरणमादी । सिजायरीउ अम्ह वि, एरिसया आसि गेहेसु ॥ २६४९ ॥ तासिं कुचोरु-जघणाइदंसणे खिप्पऽइक्कमो कीवे । इत्थीनाइ-सुहीण य, अचियत्तं छेदमाईया ॥ २६५० ॥ 5 मंजन विधिर्नाम-स्नानयोग्या महती प्रक्रिया तया मज्जन्तं सागारिकं तत्र चतुःशालादिगृहमध्ये दृष्ट्या भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणमभुक्तभोगिनां तु कौतुकमुपजायते । शय्यातरीरपि तथैव मजन्तीदृष्ट्वा भुक्तभोमिनामीदृश्योऽस्माकमपि गेहेषु गृहवासे वसतामासन्निति स्मृतिरुत्पद्यते ॥२६४९॥ ___ तथा 'तासां' शय्यातरस्त्रीणां मज्जन्तीनां कुचोरुजघनादिदर्शने 'क्लीवस्य' दृष्टिक्लीवाख्यस्य 'क्षिप्रं' शीघ्रम् 'अतिक्रमः' ब्रह्मव्रतविराधना भवति । ततश्च ये स्त्रीणां ज्ञातयः-मातापितृप्रभृतयः 1 खजना ये च सुहृदः-मित्राणि ते महदप्रीतिकं तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं वा कुर्युः, आदिशबदाद् ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिप्रत्यपायनिकुरम्बं राजपुरुषैः कारापयेयुः ॥ २६५० ॥ अपि च आसंकितो व वासो, दुक्खं तरुणा य सनियत्तेउं । धंतं पि दुब्बलासो, खुब्भइ वलवाण मज्झम्मि ॥ २६५१॥ तंत्र स्त्रीप्रभृतिप्रत्यपायाशङ्कया सदैवाशङ्कितो वासो भवति । ये च तरुणास्ते शय्यातरीणां 15 मजन्तीनामङ्ग-प्रत्यङ्गनिरीक्षणादेर्दुःखेन 'सन्निवर्तयितुम्' उपरमयितुं शक्यन्ते । तथा "घेतं मिति अत्यन्तमपि दुर्बल:-क्षीणवपुरश्वो वडवानां मध्ये वर्तमानः क्षुभ्यति, एवं तरुणा अत्यन्ततपोनिष्टप्तवपुषोऽपि स्त्रीणां मध्ये तिष्ठन्तः क्षोभमुपगच्छन्तीति ॥ २६५१ ॥ गतं मज्जनद्वारम् । अथ हिरण्यद्वारमाह तत्थ उ हिरण्णमाई, समंतओ दट्ट विप्पकिमाई। लोभा हरेज कोई, अन्नेण हिए व संकेजा ॥ २६५२ ॥ 'तत्र' चतुःशालादिगृहमध्ये 'हिरण्यं' रूप्यम् आदिशब्दात् सुवर्ण-मणि-मौक्तिकादि समतत्तो विप्रकीर्णम्-इतस्ततो विक्षिप्तम् आदिशब्दादन्यथा वा मुत्कलं शून्यं च दृष्ट्वा कश्चिद् निर्धर्मा लोभादपहरेत् , अपहृत्य चोत्प्रव्रजेदिति भावः । अन्येन वा केनचिदपहृते स शय्या१यरीसु अम्ह भा० । एतदनुसारेणैव भा० प्रतो टीका, दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ २ मजनं-स्नानं तस्य विधिः-प्रकारः वर्णखचितस्नानपीठोपवेशनादिरूपा महती स्नानयोग्या प्रक्रियेति भावः, तेन मजनविधिना मजन्तं भा० ॥ ३ तरीष्कलङ्कत विभूषितासु दृष्टासु भुक्त° भा० ॥ ४°दर्शने “कीबे" ति षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् 'क्ली का० ॥ ५ तत्र आशङ्कित एव वासो भवति, स्त्रीप्रभृतिप्रत्यपायाशङ्कया सदैव तत्र भयाकुलितहृदयैः स्थातव्यमिति भावः। ये च तरुणास्ते यद्यपि तपसा क्षीणवपुषस्तथापि तत्र स्त्रीणां मध्ये दुःखेन 'सन्निवर्तयितुं' तदङ्ग-प्रत्यङ्ग निरीक्षणादेरुपरमयितुं शक्यन्ते । अमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-"धंतं पि" इत्यादि । अत्य° भा० ॥ ६ गतं सप्रसङ्गं मज° भा० ॥ ७°र्णादि दृष्ट्वा कश्चि° भा० त० डे० ॥ 00 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४५ भाष्यगाथाः २६४९-५५] प्रथम उद्देशः । तरः संयतान् शङ्केत ॥ २६५२ ॥ गतं मध्यद्वारम् । अथ छिण्डिकाद्वारमाह छिंडीइ पञ्चवातो, तणपुंज-पलाल-गुम्म-उक्कुरुडे । . मिच्छत्ते संकादी, पसजणा जाव चरिमपदं ॥ २६५३ ॥ इह यस्याश्छिण्डिकाया मध्येन गत्वा पुरोहडे प्रविश्यते तस्या द्वारमूले यः प्रतिश्रयः, यद्वा छिण्डिका-पुरोहडं तत्र यस्या वसतेारं तत्र तिष्ठतां प्रत्यपाय उच्यते । तत्र पुरोहडे तृणपुञ्जो वा पलालपुञ्जो वा 'गुल्मा वा' नवमालिका-कोरण्टकप्रभृतयः 'उत्कुरुटा वा' इष्टका-काष्ठादिराशिरूपा भवेयुः तत्र वक्ष्यमाणा दोषाः । तत्र चोपाश्रये स्थितान् साधून् दृष्ट्वा केचिदभिनषधर्माणो मिथ्यात्वमुपगच्छेयुः । अथवा 'किं मन्ये मैथुनार्थिन एतेऽत्र स्थिताः ?' एवं शङ्कायाम् आदिशब्दाद् भोजिका-घाटिकादिपरम्परया निवेदने च 'चरमपदं' पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तस्य प्रसजना प्राग्वद् द्रष्टव्या ॥ २६५३ ॥ तृणपुञ्जादिषु दोषानाह 10 एक्कतरे पुग्वगते, आउभएँ गभीर गुम्ममादीसु। अह तत्थेव उवस्सओ, निरोहऽसज्झाय उड्डाहो ॥ २६५४ ॥ 1 "गुम्ममाईसु" ति विभक्तिव्यत्ययाद । गुल्म-तृणपुञ्जादिभिः 'गभीरे' गुपिले तत्र पुरोहडे संयता-ऽविरतिकयोरेकतरस्मिन् 'पूर्वगते' पूर्वमेव प्रविष्टे पश्चादितरत् प्रविशेत् सत्रात्मोभयसमुत्था उपलक्षणत्वात् परसमुत्था वा दोषा भवेयुः । अथ 'तत्रैव' पुरोहडे उपाश्रयस्ततोऽवि-18 रतिकानां निरोधो भवति, साधूनां लज्जया तत्र ताः कायिक्यादिकं कर्तुं न शक्नुवन्तीति भावः । तस्यां च छिण्डिकायामागच्छन्तीषु निर्गच्छन्तीषु वा अविरतिकासु तरुणा दृष्टीः पातयन्ति, ततश्च तेषां ताभिरपहृतहृदयानां खाध्यायहानिर्भवति । यदि 'कर्णाघाटकेन प्रहीष्यन्त्यमा' इति कृत्वा न पठन्ति ततस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथ पठन्ति ततो लोकस्तेषां खाध्यायशब्द श्रुत्वा ब्रूयात्-अहो! स्त्री-पशु-पण्डकविवर्जितं विविक्तवासमासेवन्ते साधवः । एवमसूवया 20 ब्रुवाणेषु तेषु प्रवचनस्योड्डाहो भवति ॥ २६५४ ॥ अथवा तत्रेमे दोषा भवेयुः छिंडीऍ अवंगुयाए, उब्भामग-तेणगाण अइगमणं । वसहीए वोच्छेदो, उवगरणं राउले दोसा ॥ २६५५॥ संयतै रात्रौ कायिकीव्युत्सर्जनार्थं 'अपावृतायाम्' उद्घाटितायां छिण्डिकायां कस्याप्युड्रामकस्य स्तेनस्य वा 'अतिगमनं' प्रवेशो भवेत् । स स च प्रविश्य किञ्चिदपहरेत् अगारी वा प्रतिसेवेत तन्निप्पन्नं साधूनां प्रायश्चित्तम् । - शय्यातरश्चिन्तयेत्---कुतो फ्ननिरिछद्रे स्तेनका प्रविष्टः ? नूनं संयतेंश्चिण्डिका रात्रावुद्घाटिता । ततोऽसौ प्रद्विष्टो वसतेर्व्यवच्छेदं कुर्यात् । यद्वा स स्तेनकः संयतानां गृहस्थानां वा 'उपकरणं' वस्त्रादिकमपहरेत् ततः सागारिको राजकुले निवेदयेत् , यथा-संयतैरुद्धाटितायां छिण्डिकायां स्तेनकः प्रविष्टः । ततश्च ग्रहणाऽऽकर्षणादयस्त एव दोषाः ।।२६१५॥ अथवा शय्यातरभ्रूणिका केनचिदुन्द्रामकेण सह सम्प्र- 30 १ » एतन्मध्यगतः पाठः कां० प्रतावेव ॥ २ गुल्मादिभिः 'गभी भा० ॥ _ - एतचिह्नगतः पाठः त० डे० मो० ले. नास्ति ॥ ४'गारिणी वा तगोडामवेत् तधि ष्पन्नं भा० । “पविसितुं किंचि हरेज्जा उभामेज वा तगिप्पण" इति चूमौ विशेषणे व Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ ___ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० स० ३२ लग्ना, तया च 'रात्रौ भवता समागन्तव्यम्' इति तस्य सङ्केतः कृतः, स चोद्धामक आयातः, संयतैश्च छिण्डिका स्थगिता, ततः सा द्वितीयदिने तं प्रश्नयति किं नागओ सि समणेहि ढक्कियं दोस कूयरा जंतु। एतेहऽवंगुएण व, अज पइट्ठो सइरचारी ॥ २६५६ ॥ 5 कल्ये किं नागतोऽसि ? । स प्राह-आगतोऽहं परं किं करोमि ? श्रमणैः स्थगित छिण्डिकाद्वारम् । ततः "दोस कूयरा जं तु" त्ति कुत्सितं शिष्टजनजुगुप्सितं चरन्तीति कुचराःउद्रामका उद्भामिका वा, ते यद् 'द्वेषात्' प्रद्वेषतः साधूनां प्रान्तापना-ऽभ्याख्यानदानादि करिप्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथवा 'एतैः' श्रमणेः 'अपावृतेन' उद्घाटितेन छिण्डिकाद्वारेण 'खैरचारी' स्तेन उद्धामको वा अद्यास्माकं गृहे प्रविष्ट इति कृत्वा सागारिको यद् वसत्यादि10 व्यवच्छेदं कुर्यात् तन्निष्पन्नम् ॥ २६५६ ॥ अथवा स्तेनः प्रविष्टः सन्निदं कुर्यात् अवहारे चउभंगो, पसंग एएहि संपदिन्नं तु । संजयलक्खेण परे, हरिज तेणा दिय निसिं वा ॥ २६५७ ॥ अपहारे चतुर्भङ्गी । तद्यथा-एके स्तेनाः प्रविष्टाः सन्तः संयतानां हरन्ति न गृहस्थानाम् १ अपरे गृहस्थानां न संयतानाम् २ केचिद् गृहस्थानामपि संयतानामपि ३ केचिन्न गृहस्थानां न 15 संयतानामित्येष चतुर्थो भङ्गः शून्यः । तत्र यत्र संयतानामपहरन्ति तत्रोत्कृष्ट-मध्यम-जघन्योपधिनिष्पन्नम् । यत्र तु गृहस्थानामपहरन्ति तत्र 'एतैरेव साधुभिश्चिण्डिकामुद्घाटयद्भिरस्मदीयं सुव र्णादि स्तेनेभ्यः सम्प्रदत्तम्' इति विचिन्त्य ते गृहस्था राजकुले ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिप्रसङ्गं कारापयेयुः । तथा 'अपरे' केचिद् मायाविनः स्तेनाः 'संयतलक्ष्येण' साधुवेषव्याजेन दिवा वा निशायां वा तत्र प्रविश्य कथञ्चित् प्रमत्तानामगारिणां सुवर्णादिकमपहरेयुः । । तृतीयभङ्गे तु 20 प्रथमद्वितीयभोक्ता दोषा द्रष्टव्याः । » यत एते दोषा अतः (ग्रन्थानम्-६५०० । सर्व ग्रन्थानम्-१८७२०) शालायां वा मध्ये वा छिण्डिकायां वा न स्थातव्यम् । भवेत् कारणं येन तत्रापि तिष्ठेयुः ॥ २६५७ ॥ किं पुनस्तत् ? इत्याह अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । सालाएँ मझें छिंडी, वसंति जयणाएँ गीयत्था ॥ २६५८॥ 25 अध्वनिर्गतादयः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् शुद्धां वसतिं मार्गयित्वा यदि न लभन्ते ततः प्रथमं शालायां तस्या अलाभे चतुःशालादिगृहमध्ये तस्याप्यभावे छिण्डिकायां यतनया गीतार्था वसन्तिः ॥ २६५८ ॥ तत्र शालाविषयां यतनां तावदाह बोलेण झायकरगं, तहा वि गहिएऽणुसट्ठिमाईणि । वेउव्यि खद्धवाउडि, छिड्डा चोले य पडले य ॥ २६५९ ॥ 30 यत्र खाध्यायं कुर्वतामालापकान् कर्णाघाटयन्ति तत्र 'बोलेन' सर्वेऽपि समुदिताः स्वाध्यायं कुर्वन्ति येन ते व्यक्तं किमप्यालापकपदं न शृणुयुः । अथ तथापि ते तदेकाग्रचित्ततया शृण्वन्तो दक्षत्वादालापकपदानि गृह्णीयुः ततस्तेषामनुशिष्टिः कर्त्तव्या-भो भद्राः! न वर्तते युप्मा१ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २६५६-६३] प्रथम उद्देशः । ७४७ कमित्थं कर्णाघाटकेनालापकान् ग्रहीतुम् , इत्थं गृह्यतामिहैवोन्मादादयो बहवोऽनर्था भवन्तीति। आदिग्रहणाद् विद्यया मन्त्रेण वा ते तथा वशीक्रियन्ते यथा कर्णाघाटकेन ग्रहणादुपरमन्ते । तथा 'विकुर्विते' विण्टकविद्ध 'खद्धे' महाप्रमाणे 'अपावृते' व्यपगतत्वचि सागारिके सति इयं यतना—पटलकानां चोलपट्टकस्य वा चतुरस्रीकृतस्यैकस्मिन् पुटे छिद्रं कृत्वा सागारिकं गोपायितव्यम् ॥ २६५९॥ यत्रादर्शदोषा भवन्ति तत्रेयं यतना अदागदोससंकी, जा पढमा ताव पाउया णिति । उट्ठण-निवेसणेसु य, तत्तो पढि न कुव्वंति ॥ २६६० ॥ __ आदर्शदोषशकिनः सन्तो यावत् प्रथमा पौरुषी तावत् प्रावृता एव निर्गच्छन्ति । उत्थानोपवेशनयोश्च 'ततः' गृहस्थाभिमुखं पृष्ठं न कुर्वन्ति, मा पुतौ दृष्ट्वा तेऽमङ्गलं मन्यन्तामिति कृत्वा ॥ २६६०॥ यत्र कल्पस्थकदोषाः समुद्देशदोषाश्च भवन्ति तत्रेयं यतना अवणाविंतिऽवणिति व, कप्पटे परिरयस्स असईए । अप्पत्ते सइकाले, बाहि वियटृति निग्गंतुं ॥२६६१॥ परिरयो नाम-मार्गान्तरेण गमनम् , ततश्च यद्यन्यस्य मार्गस्य सम्भवस्ततः कल्पस्थाधिष्ठितं मार्ग विहाय तेन गन्तव्यम् । अथ नास्त्यपरो मार्गस्ततः कल्पस्थानि शय्यातरादिभिस्ततो मार्गादपनाययन्ति, 'वयं भिक्षादौ गमिष्यामस्तत एतदपत्यभाण्डं नि-बाधमन्यत्र नयत' इत्येवं भण-15 न्तीति भावः । अथ न तत्र कोऽपि सन्निहितः ततः स्वयमेव यतनया ततो मार्गात् तान्यपनयन्ति । तेषां च गृहस्थानां यदा समुद्देशनवेला तदा साधवोऽप्राप्ते एव भिक्षासत्काले पात्रका. ण्युद्राह्य निर्गत्य च बहिर्गत्वा 'व्यावर्त्तयन्ति' भिक्षावेलां प्रतीक्षन्ते, येनावष्वष्कणादयो दोषाः परिहृता भवन्ति ॥ २६६१ ॥ यत्र संयतानां भुञ्जानानां सागारिकं तत्रेयं यतनानीउच्चा उच्चतरी, चिलिमिलि भुजंत सेसए भयणा। 20 पुढवी-दगाइएसुं, सारण जयणाएँ कायव्वा ।। २६६२ ॥ यदि सर्वेऽपि साधवः 'भुञ्जानाः' भक्तार्थिनस्तदा तिस्रश्चिलिमिलिका दातव्याः, तद्यथाप्रथमा नीचा, द्वितीया तस्याः सकाशादुच्चा, तृतीया तु ततोऽप्युच्चतरा । शेषा नाम-यदि केचिदभक्तार्थिनस्तदा तिसृणां चिलिमिलिकानां भजना, कदाचिदेका कदाचिद् द्वे कदाचित् तिस्रोऽपि दातव्या इति भावः । यत्र च पृथिवी-दका-ऽग्नि-बीजानां सम्भवस्तत्र गृहस्थानां यतनया 25 'सारणा' अनुशिष्टिः कर्त्तव्या, यथा साधूनां पृथिव्युदकामिबीजानां विराधना न भवति तथा यतितव्यमिति ॥ २६६२ ॥ यत्र बीजकार्य कण्डयन्त्यो गायन्ति तत्रेयं यतना जइ कुट्टणीउ गायंति विस्सरं साइयाउ मुसलेहि। विलवंतीसु सकलुणं, हयहियय! किमालीभवसि ॥ २६६३ ॥ बीजकायं कुट्टयन्तीति कुट्टन्यः-कण्डनकारिण्य इत्यर्थः, तासु गायन्तीषु साधुभिः खचे-30 तसि चिन्तनीयम्-यदि नामैताः कुट्टन्यो मुशलैरनवरतमुत्क्षिप्यमाण-निक्षिप्यमाणैः 'सादिताः' १°तस्य यः सर्वाभ्यन्तरवर्ती पुटस्तत्रच्छिदं भा० ॥ २'तः परिरयस्थासति क° का ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० पुस्तकयोरेव ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० सू० ३२ खेदिताः सत्यस्तदुःखापनोदार्थमित्थं विखरं रुदन्त्य इव गायन्ति तर्हि परमार्थतो विलपितमेवैताः कुर्वन्ति, "सर्व गीतं विलपितम्" इति वचनात् ; ततः सकरुणं विलपन्तीप्वेतासु हे हतहृदय ! किमेवम् 'आकुलीभवसि' विश्रोतसिकामुपगच्छसि ? नैवं भवतो युज्यत इति भावः ॥२६६३ ॥ गता शालाविषया यतना । अथ मध्यविषयां यतनामाह मज्झे जग्गंति सया, निंति ससदा य आउला रत्तिं । फिडिए य जयण सारण, एहेहि इओ इमं दारं ॥ २६६४ ॥ यत्र चतुःशालादिगृहमध्ये वसन्ति तत्र वृषभा रात्रौ 'सदैव' चतुर्वपि यामेष्वित्यर्थः वारकेण जाग्रति । कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थं च रात्रौ 'सशब्दाः' काशितादिशब्दं कुर्वन्तः 'आकुलाश्च' स्वरमाणाः 'निर्यन्ति' निर्गच्छन्ति यथा पूर्वोक्ताः शङ्कादयो दोषा न स्युः । यश्च रात्रौ 10 'स्फिटितः' मार्गात् परिभ्रष्टो » भवति तस्य यतनया यथा गृहस्था न विबुध्यन्ते तथा सारणा कर्तव्या, यथा- एहि एहि इत इदं द्वारं वर्त्तते ॥ २६६४ ॥ अविजाणंतों पविट्ठो, भणइ पविट्ठो अजाणमाणो मि । एहामि वए ठविउं, न पवत्तइ अत्थि मे इच्छा ॥ २६६५॥ यस्तत्रान्यमपवरकमविजानन् प्रविष्टः स पृष्टोऽपृष्टो वा शङ्कापनोदार्थ भणति-'अजानानः' 15 मार्गमनवबुध्यमानोऽहमत्र प्रविष्टः । यदि अविरतिका तमवभाषते-मया सममुपभुक्ष्व भोगान् अन्यथोड्डाहं करिष्यामीति, ततो वक्तव्यम्-येषां गुरूणां समीपे मया व्रतानि गृहीतानि सन्ति तेषामेव सन्निधौ स्थापयित्वा एष्यामि, ममापि त्वद्विषया इच्छाऽस्ति परं किं करोमि ? 'न प्रवर्तते' न बुध्यते (युज्यते) गुरूणां समीपे व्रतान्यस्थापयित्वा एवं कर्तुम् इत्यभिधाय ततो निर्गन्तव्यम् ॥ २६६५ ॥ यत्र मज्जन-हिरण्ये भवतस्तत्रेयं यतना20 कडओ व चिलिमिली वा, मजतिसु थेरगा य तत्तो उ । आइनहिरनेसु य, थेर चिय सिक्खगा दूरे ॥ २६६६ ॥ शय्यातरस्त्रीषु मज्जन्तीषु उपलक्षणत्वात् शय्यातरे वा मज्जति अपान्तराले कटको वा चिलिमिलिका वा दातव्या, ततश्च तेन पार्थेन स्थविराः स्थापयितव्याः । येन च पार्श्वेन हिर ण्यादीन्याकीर्णानि भवन्ति ततः स्थविरा एव कर्तव्याः । शिक्षकास्तु ततो दूरे स्थापनीयाः 25 ॥ २६६६ ॥ गता मध्यविषया यतना । अथ छिण्डिकाविषयामाह दारमसुन्नं काउं, निति अइंती ठिया उ छिंडीए । काइयजयणा स चिय, वगडासुत्तम्मि जा भणिया ॥ २६६७॥ छिण्डिकायां स्थिताः सन्तो द्वारमशून्यं कृत्वा निर्गच्छन्ति वा प्रविशन्ति वा येन स्तेनादयो दोषा न भवन्ति । 'कायिकीयतना तु' मात्रकव्युत्सर्जनादिका सैव द्रष्टव्या या पूर्व वगडासूत्रे 30 भणिता (गा० २२७२-२२७७) ॥ २६६७॥ , “सवं विलवियं गीयं" उत्तराध्ययने अ० १३ गा० १६ ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः को. एव वर्तते ॥ ३ वतं ठ° ता० ॥ ४°त्वा आगमिष्यामि भा० ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६६४-७२ ] सूत्रम् कप्पड़ निग्गंधीणं गाहावइकुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतुं वत्थए ॥ ३३ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाष्यम् – एसेवं कमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा । नवरं पुण नाणत्तं, सालाए छिंडि मज्झे य ।। २६६८ ॥ ‘एष एव' निर्ग्रन्थसूत्रोक्तः क्रमो निर्मन्थीनामपि ज्ञातव्यः | नवरं तासां तत्र तिष्ठन्तीनां चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम्, वैक्रिया - प्रावृता ऽऽदर्शविषयाश्च दोषा न भवन्ति । शेषं सर्वमपि प्राग्वद् द्रष्टव्यम् । नवरं पुनः 'नानात्वं' विशेषः शालायां छिण्डिकायां मध्ये च त्रिष्वपि स्थानेषु वक्तव्यम् || २६६८ ॥ तत्र शालायां तावदाह प्रथम उद्देशः । सालाए कम्मकरा, उहुंचय गीयए य ओहसणा । घर खामणं च दाणं, बहुसो गमणं च संबंधो || २६६९ ॥ शालायां स्थितानामार्यिकाणां कर्मकरा उड्डञ्चकान् कुर्युः, यथा - यादृशी इयमार्यिका तादृशी मम श्यालिका वा मातुलदुहिता वा विद्यते । गीतेन वा ते कर्मकरादयः प्रपञ्चन्ते, यथावंदामु खंति ! पडपंडुरसुद्धदंति !, रच्छाए जंति ! तरुणाण मणं हरंति ! | इत्यादि । उपहसनं वौ कश्चित् करोति । ततश्च भिक्षार्थं गृहं गतायास्तस्याः क्षामणम्, दानं च वस्त्र-पात्रादेः, गमनं च बहुशस्तस्याः समीपे करोति । ततश्चैवं 'सम्बन्धः ' तयोः परस्परं घटनं भवति ॥ २६६९ ॥ अथामून्येवोपहसनादीनि पदानि गाथात्रयेण भावयति - ७४९ १ 'व गमो ता० विना ॥ २ त सागारिकविष कां० ॥ ३ वा काञ्चिदर्थिकामुद्दिश्य मित्रेण समं कश्चित् कां० ॥ 5 पाणसमा तुज्झ मया, इमा य सरिसी सरिव्वया तीसे । संखे खीरनिसेओ, जुजइ तत्तेण तत्तं च ।। २६७० ॥ सो तत्थ ती अन्नाहि वा वि निब्भत्थिओ गओ गेहं । खामितो किल सुडिओ, अक्खुन्नइ अग्गहत्थेहिं ॥ २६७१ ॥ पासु चेडरूवे, पाडेत भइ एस मे माता । जं इच्छ तं दिजह, तुमं पि साइज जायाई ॥ २६७२ ॥ तत्र शालादौ काञ्चिदुदाररूपां संयतीं दृष्ट्रा कश्चित् पुरुषः खसुहृदं विपन्नपत्नीकं सोपहास - 25 मित्थं ब्रवीति – वयस्य ! या किल तव प्राणसमा पत्नी सा तावन्मृता, अपरा च तथाविधा न विलोक्यते, 'इयं तु' संयती 'तस्याः' त्वत्पत्ल्याः 'सदृशी' सदृग्रूपा सदृग्वयाश्च, अतस्तवानया सह सम्बन्ध विधीयमानः शङ्खे क्षीरनिषेक इव, तप्तं च लोहमपरेणापि तप्तेन सह संयोज्यमानमिव 'युज्यते' सुश्लिष्टीभवति । एवं ब्रुवाणोऽसौ तया संयत्या अन्याभिर्वा संयतीभिर्गाढं निर्भसितः सन् सवयस्योऽपि स्वगेहं गतः । अन्यदा च स तदीयवयस्यः संयतीं भिक्षार्थं 30 ४ पाडेंतो भण° ता० ॥ 10 15 20 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ गाथापतिकुल० सू० ३३ खगृहमागतां शठतया “सुढितो" ति सुष्टु-अतीवाहतः-प्रयत्नपरैः किल क्षामयन्निव अग्रहस्तैः 'आक्षुणति' तस्याः पादौ विलिखतीत्यर्थः, चेटरूपाणि च प्राक्तनपल्याः सम्बन्धीनि तस्याः संयत्याः पादयोः पातयित्वा भणति- एषा “भे" भवतां माता, यत्किमपीयमिच्छति तत् सर्वमाहारादिजातमस्यै दातव्यम् । संयतीमपि भणति-एतत् त्वदीयं गृहम् , अमूनि च भवत्याः 5 सम्बन्धीनि 'जातानि' अपत्यानि, अतस्त्वमेतानि 'सौतयेः' सङ्गोपायेः। एवमुक्त्वा वस्त्रा-ऽन्न-पानादीनि बहुशस्तस्याः प्रयच्छति । सा च स्त्रीस्वभावतया तुच्छेनाप्याहारादिना वशी क्रियत इत्यतो भूयो भूयस्तदीयगृहे गमनागमनं कुर्वत्यास्तस्यास्तेन सह सम्बन्धो भवति । यत एते दोषा अतो न तत्र स्थातव्यम् ॥ २६७० ॥ २६७१ ॥ २६७२ ॥ आह यद्येवं ततः सूत्रमपार्थकम् ?, - तंत्र साध्वीनां वस्तुमनुज्ञातत्वात् । सूरिराह-» नैवम्--- 10 सुत्तनिवाओ पासेण गंतु विइयपय कारणजाए । सालाएँ मझें छिंडी, सागारिय निग्गहसमत्थो ॥ २६७३ ॥ यत्र पार्श्वेन गत्वा निर्गमन-प्रवेशौ क्रियेते तत्र निर्ग्रन्थीभिर्द्वितीयपदेऽध्वनिर्गमनादौ कारणजाते वस्तव्यमित्येवमत्र सूत्रनिपातः । तत्र च शालायां वा मध्ये वा छिण्डिकायां वा यदि सागारिकः 'निग्रहसमर्थः' जितेन्द्रियस्तरुणादीनां वा संयतीरुपसर्गयतां खरण्टनादिना शिक्षा15 करणदक्षो भवति ततस्तत्र स्थातव्यम् ॥ २६७३ ॥ एतदेव व्याख्यातुमाह पासेण गंतु पासे, व जंतु तहियं न होइ पच्छित्तं । मज्झेण व जं गंतुं, पिह उच्चारं घरं गुत्तं ॥ २६७४ ॥ दुजणवजा साला, सागारअवत्तभूणगजुया वा । एमेव मज्झ छिडी, निय-सावग-सज्जणगिहे वा ॥ २६७५ ॥ 20 यत्र पार्श्वन गत्वा निर्गम्यते प्रविश्यते वा, यद् वा गृहं गृहपतिकुलस्य पार्थे भवति तत्र तिष्ठतां प्रायश्चित्तं न भवति । » यद् वा गृहं गृहपतिकुलस्य मध्येन गत्वा प्रविश्यते तद् यदि पृथगुच्चार-कायिकीभूमिकं 'गुप्तं च' कुड्य-कपाटादिभिः सुसंवृतं ततस्तत्रापि प्रायश्चित्तं न भवति । तत्र यदि शालायां स्थातव्यं स्यात् तदा सा 'दुर्जनवर्जा' दुःशीलरहिता यद्वा सागारिकस्य सम्बन्धिनो ये अव्यक्ताः-अद्याप्यपरिणतवयसो भ्रूणकाः-बालकास्तैर्युता या शाला तस्यां 25 स्थातव्यम् । एवमेव चतुःशालकादिगृहमध्ये छिण्डिकायां वा यत्र निजकाः-तासामेव संयतीनां नालबद्धाः पितृ-भात्रादयः श्रावका वा-माता-पितृसमाना जिनवचनभाविता भवन्ति यानि वा सज्जनानां-खभावत एव सुशीलानां यथाभद्रकाणां गृहाणि तत्र स्थातव्यम् ॥२६७४॥२६७५॥ गृहपतिकुलमध्यवासप्रकृतं समाप्तम् ॥ १°रः क्षितितलन्यस्तमस्तकः क्षामयति, क्षामणाव्याजेन च अग्र भा० ॥ २ 'सादयेः' खेदयेः, शिक्षाप्रदानादिना क्षुण्णतां प्रापयेरित्यर्थः । एव का०॥ ३१- एतचिह्नगतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ ४ एतचिह्नगतः पाठः भा० कां• पुस्तकयोरेव ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६७३-७६ ] प्रथम उद्देशः । व्य व श म न प्र कृ त म् सूत्रम् - भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे, इच्छाए परो आढाइजा इच्छाए परो नो आढाइजा, इच्छाए परो अब्भुट्ठेजा इच्छाए परो नो अब्भुट्टेजा, इच्छाए परो वंदिजा इच्छाए परो नो वंदिजा, इच्छाए परो संभुंजेज्जा इच्छाए परो नो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा इच्छाए परो नो संवसिज्जा, इच्छाए परो उवसमिज्जा इच्छाए परो नो उवसमिजा । जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं । से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं सामन्नं ३४ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याशङ्काव्युदासायाह एगत्थ कहमकप्पं, कप्पं एत्थ सहतो | पडिसिद्धे व वसंते, निवारण वइकमे कलहो ।। २६७६ ॥ ७५१ 5 १ 'एकत्र' निर्ग्रन्थपक्षे गृहपतिकुलस्य मध्ये कथमवस्थानमकल्स्यम् ? 'एकत्र तु' निर्भ न्थीपक्षे कथं तत्रैवावस्थानं कल्प्यम् ? 'इति' कां० ॥ 10 'ऐकत्र' गृहपतिकुलस्य मध्ये कथं निर्मन्थानामकल्प्यम् ? निर्ग्रन्थीनां तु कथम् 'एकत्र ' तत्रैव कल्प्यम् ? 'इति' एवम श्रद्दधतः कलह उपजायते । यद्वा प्रतिषिद्धे प्रतिश्रये वसतः केनचिन्निवारणं कृतम्, ततः प्रतिषिद्धोपाश्रयस्थाता तदीयवचनस्य व्यतिक्रमं - विकुट्टनं करोति एवं कलहो भवेत् । उत्पन्ने च कलहे झगित्येव व्यवशमनं कर्त्तव्यमित्यत्र सूत्रे प्रतिपाद्यत 20 इति ॥ २६७६ ॥ 15 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या -- 'भिक्षुः ' सामान्यः साधुः, चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादाचार्योपाध्यायावपि गृह्येते, अधिक्रियते नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा अनेनेत्यधिकरणं कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थः, तत् 'कृत्वा' तथाविधद्रव्य-क्षेत्रादिसाचिव्योपबृंहितात् कषायमोहनीयोदयाद् द्वितीयसाधुना सह विधाय ततः खयमन्योपदेशेन वा परिभाव्य तस्यैहिका - 25 मुष्मिकापायबहुलतां तद् अधिकरणं विविधम्- अनेकैः प्रकारैः खापराधप्रतिपत्तिपुरःसरं मिथ्या Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [न्यवशमनप्रकृते सू० ३४ दुष्कृतप्रदानेने 'अवशमथ्य' उपशमं नीत्वा ततो विशेषेणावसायितम्-अवसानं नीतं प्राभृतकलहो येन स व्यवसायितप्राभृतः-व्युत्सृष्टकलहो भवेत् । किमुक्तं भवति?—गुरुसकाशे खदुश्चरितमालोच्य तत्प्रदत्तप्रायश्चित्तं च यथावत् प्रतिपद्य भूयस्तदकरणायाभ्युत्तिष्ठेत् । आह येन सह तदधिकरणमुत्पन्नं स यद्युपशम्यमानोऽपि नोपशाम्यति ततः को विधिः ? इत्याह"इच्छाए परो आढाएज्जा" इत्यादि सूत्रम् । 'इच्छया' यथास्वरुच्या 'परः' अन्यो द्वितीयः .साघुराद्रियेत इच्छया परो नाद्रियेत, प्रागिव सम्भाषणादिभिरादरं कुर्याद्वा न वेति भावः । एवमिच्छया परस्तमभ्युत्तिष्ठेत् , इच्छया परो नाऽभ्युत्तिष्ठेत् । - इच्छया परस्तं साधुं वन्देत, » इच्छया परो न वन्देत । इच्छया परस्तेन साधुना सह 'सम्भुञ्जीत' एकमण्डल्यां भोजनं दान. ग्रहणसम्भोग वा कुर्यात् , इच्छया परो न सम्भुञ्जीत । इच्छया परस्तेन साधुना सह 'संवसेत्' 10 सम्-एकीभूयैकत्रोपाश्रये वसेत् , इच्छया परो न संवसेत् । इच्छया पर उपशाम्येत, इच्छया परो नोपशाम्येत । परं यः 'उपशाम्यति' कषायतापापगमेन निर्वृतो भवति तस्यास्ति सम्यग्दर्शनादीनामाराधना, यस्तु नोपशाम्यति तस्य नास्ति तेषामाराधना । 'तस्मात्' एवं विचिन्त्य आत्मनैव 'उपशान्तव्यम्' उपशमः कर्त्तव्यः । शिष्यः प्राह—“से किमाहुँ भंते !” अथ किमत्र कारणमाहुँः 'भदन्त!' परमकल्याणयोगिन् ! तीर्थकरादयः ? । सूरिराह-उपशमसारं श्राम15 ण्यम् , तद्विहीनस्य तस्य निष्फलतयाऽभिधानात् । उक्तञ्च व देशवैकालिकनियुक्ती --- सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुपुप्फं, व निप्फलं तस्स सामन्नं ॥ (गा० ३०१) इति सूत्रार्थः ॥ अर्थ विषमपदानि भाष्यकृद विवृणोति घेप्पंति चसद्देणं, गणि आयरिया य भिक्खुणीओ य । 20 अहवा भिक्खुग्गहणा, गहणं खलु होइ सव्वेसि ॥ २६७७ ॥ इह सूत्रे भिक्षुश्चेति यश्चशब्दस्तेन 'गणी' उपाध्यायस्तथा आचार्यो भिक्षुण्यश्च गृह्यन्ते । अथवा 'भिक्षुग्रहणात्' भिक्षुपदोपादानात् सर्वेषामप्याचार्यादीनां ग्रहणं द्रष्टव्यम् , “एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणम्" इति वचनात् ॥ २६७७ ॥ खामिय वितोसिय विणासियं च झवियं च होंति एगट्ठा । 25 पाहुड पहेण पणयण, एगट्ठा ते उ निरयस्स ॥ २६७८ ॥ आमितं व्यवशमितं विनाशितं क्षपितमिति चैकार्थानि पदानि भवन्ति । तथा प्रार्भूतं प्रहे१°न उपशमय्य व्युपशमितप्राभृतो भवेदिति क्रियाध्याहारः । किमुक्तं भा० ॥ २ एतच्चिह्नमध्यगतः पाठः भा० पुस्तकान्तरेव वर्तते ॥ ३°हु भंते !" सेशब्दो अथशब्दार्थे, किमिति परिप्रश्ने, अथ कां० ॥. ४°हुः भगवन्तः यदेवमुपशम एव मोक्षमार्गाराधनानिबन्धनमुपवर्ण्यते ?। सूरि भा०॥ ५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ६°थ विस्तरार्थ भाष्यकृत् प्रतिपादयति भा० ॥ ७ क्षामितमिति वा व्यवशमितमिति वा विनाशित मिति वा क्षपितमिति वैका भा०॥ ८°भृतमिति वा प्रहेणकमिति वा प्रण° भा० ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६७७-८१] प्रथम उद्देशः । ७५३ णकं प्रणयनमिति वा त्रीण्यप्येकार्थानि । तानि तु प्राभृतादीनि 'निरयस्य' नरकस्य मन्तव्यानि, यत एतदधिकरणं नरकस्य-सीमन्तकादेः प्राभृतमिव प्राभृतमुच्यते, एवं प्रहेणक-प्रणयनपदे अपि भावनीये ॥ २६७८ ॥ इच्छा न जिणादेसो, आढा उण आदरो जहा प्रवि ।। भुंजण वास मणुन्ने, सेस मणुन्ने व इतरे वा ॥ २६७९ ॥ । इच्छा नाम न 'जिनादेशः' तीर्थकृतामुपदेशोऽयमिति कृत्वा नादरादीनि पदानि करोति किन्तु स्वच्छन्देन । तथा आढा नाम-आदरस्तं यथा पूर्वमुचितालापादिभिः कृतवाँस्तथा कुर्याद्वा न वा । शेषाणि त्वभ्युत्थानादीनि सुगमानीति कृत्वा भाष्यकृता न व्याख्यातानि । अत्र च सम्भोजन-संवासनपदे 'मनोज्ञेषु' साम्भोगिकेषु भवतः । शेषाणि तु' आदरा-ऽभ्युत्थान-वन्दनोपशमनपदानि 'मनोज्ञेषु वा' साम्भोगिकेषु 'इतरेषु वा' असाम्भोगिकेषु भवेयुः ॥ २६७९ ।। 10 कृता भाष्यकृता विषमपदव्याख्या । अथ नियुक्तिविस्तरः नाम ठवणा दविए, भावे य चउन्विहं तु अहिगरणं । [सू.निः१६७] दव्वम्मि जंतमादी, भावे उदओ कसायाणं ।। २६८० ॥ नामाधिकरणं स्थापनाधिकरणं द्रव्याधिकरणं भावाधिकरणं चेति चतुर्विधमधिकरणम् । तत्र नाम-स्थापने गतार्थे । द्रव्याधिकरणमागमतोऽधिकरणशब्दार्थ प्ररूपयन्ननुपयुक्तो वक्ता.। नोआ-15 गमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याधिकरणं यन्त्रादिकं द्रष्टव्यम् । यत्रं नाम दलनयत्रादि । 'भावे' भावाधिकरणं 'कषायाणां' क्रोधादीनामुदयो विज्ञेयः ॥ २६८० ॥ .. . तत्र द्रव्याधिकरणं व्याख्यानयति दव्वम्मि उ अहिगरणं, चउन्विहं होइ आणुपुवीए । निव्वत्तण निक्खिवणे, संजोयण निसिरणे य तहा ॥ २६८१॥ 20 'द्रव्ये' द्रव्यविषयमधिकरणं चतुर्विधं भवति 'आनुपूर्व्या' परिपाट्या, तद्यथा-निर्वर्तनाधिकरणं निक्षेपणाधिकरणं संयोजनाधिकरणं निसर्जनाधिकरणं चेति । तत्र योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निर्वर्त्तयति, यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः। ___ जहा वा एगेणायरिएण सीसस्स जोगो उवदिट्ठो जहा महिसो भवति । तं च सुतं आयरियाणं भाइणिजेण । सो निद्धम्मो उन्निक्खंतो महिसं उप्पाएउं सोयरियाण हत्थे विक्किणइ । 25 आयरिएण सुतं । तत्थ गतो भणेइ-किं एतेणं? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि, दवे आह१ानि' अधिकरणपर्यायनामानि, यत भा० ॥ २°च्छन्दसा। तथा भा०॥ ३ युः ॥२६७९॥ अथाधिकरणपदं व्याचिख्यासुः प्रथमतः तन्निक्षेपमाह-नाम भा० । . "एष सूत्रार्थः, अधुना नियुक्तिविस्तर:-णामं ठवणा• गाधा" इति चूर्णौ। . - "एष सूत्रार्थः । अधुना सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिविस्तर उच्यते-णाम ठवणा० गाहा" इति विशेषचूर्णौ ॥ ४ "णिन्नसणाधिकरणं जोणिपाहुडेणं एगिदियादीणं सरीराणि णिवत्तेति" चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ व्यवशमनप्रकृते सू० ३४ राहि । ते अ आहरिया । आयरिएण संजोइया एगते निक्खित्ता भणितो-एत्तिएण कालेण उक्खणिज्जासि, अहं गच्छामि । तेण उक्खत्तो । दिट्ठीविसो सप्पो जातो । सो तेण मारितो। एवं अहिगरणच्छेदो' । सो वि सप्पो अंतोमुहुत्तेण मओ त्ति ॥ ___ यद्वा वैक्रिया-ऽऽहारकशरीरे अपि यन्निष्कारणे निवर्तयति, परशु-कुन्तादीनि वा करोति 5 तन्निवनाधिकरणमुच्यते । निक्षेपणाधिकरणं द्विधा-लौकिकं लोकोत्तरिकं च । तत्र यद मत्स्यग्रहणार्थ गलनामा लोहकण्टकः कूटं वा मृगादीनां ग्रहणाय जालं वा लावकादी नामर्थाय निक्षिप्यते, शतन्यादीनि घरट्टा-ऽरघट्टादीनि वा यत्राणि स्थाप्यन्ते तदेतद् लौकिकं निक्षेपणाधिकरणम् । यत्तु लोकोत्तरिकं तत् षड्विधम्-यत्र पात्राद्युपकरणं निक्षिपति तत्र न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति १ न प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति २ प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति ३; यत्तु प्रत्युपेक्षते 10 प्रमार्जयति च तद् दुष्प्रत्युपेक्षितं दुःप्रमार्जितं ४ दुःप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं ५ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ६ करोति; एवमेते षड्नङ्गा निक्षेपणाधिकरणम् । यस्तु सप्तमो भङ्गः सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं करोतीति लक्षणः स नाधिकरणम् , शुद्धत्वात् । यद्वा यद् भक्तं पानकं वाऽपावृतं स्थापयति तन्निक्षेपणाधिकरणम् । संयोजनाधिकरणमपि द्विधा लौकिक-लोकोत्तरिकभेदात् । तत्र लौकिकं रोगाद्युत्पत्तिकारणं विष-गरादिनिष्पत्तिनिबन्धनं वा द्रव्यसंयोजनम् । लोकोत्तरिकं तु 15 भक्तोपधिशय्याविषयसंयोजनम् । निसर्जनाधिकरणमपि लौकिकं शर-शक्ति-चक्र-पाषाणादीनां निसर्जनम् । लोकोतरिकं तु सहसाकारादिना यत् कण्टक-कर्करादीनां भक्तपानान्तःपतितानां निसर्जनम् ॥ २६८१ ॥ गतं द्रव्याधिकरणम् । अथ भावाधिकरणमाह अह-तिरिय-उद्दकरणे, बंधण निव्वत्तणा य निक्खिवणं । उवसम-खएण उड्डे, उदएण भवे अहेगरणं ॥ २६८२ ॥ 20 इह क्रोधादीनां कषायाणामुदयो भावाधिकरणमित्युक्तम् (गा० २६८०), अतस्तेषामेव 'अपस्तिर्यगू करणे' अधोगतिनयने तिर्यग्गतिनयने ऊर्द्धगतिनयने च स्वरूपं वक्तव्यम् । तथा 'बन्धनं नाम' संयोजनं १ निर्वर्तना २ निक्षेपणं ३ चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धस्यात्र योजनाद् निसर्जना ४ चेति चतुर्विधं द्रव्याधिकरणम् । आह अनन्तरप्रतिपादितमिदं किमर्थमिदा १°दो आयरिपहिं कओ । सो कां ॥ २ तद् चतुर्विधम्-यत्र पात्राद्युपकरणं निक्षिपति तत्र न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति १न प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति २ प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति ३; यत्तत् प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति च तद् दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं १ दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं २ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितम् ३, एते त्रयो भङ्गा एक एव चतुर्थो विकल्पः । यस्तु सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं कृत्वा निक्षिपति स नाधिकरणम्, शुद्धत्वात् । संयोजना भा० ॥ ३ इतः प्रभृति “कम्मं विणंति सवसा.” २६८९ गाथान्ता गाथा विशेषचूर्णिकृता क्रमभेदेन व्याख्याताः सन्ति । तथा च तत्क्रमः-अह-तिरिय-उपकरणे. २६८२ । गुरुयं लहुयं मीसं० २६८५ । जा तेयगं सरीरं० २६८६ । अहवा बायरबोंदी. २६८७ । ववहारणयं पप्प उ० २६८८ । तिव्वकसायसमुदया. २६८३ । सीहि उ निम्बाणं० २६८४ । कम्मं चिणंति सवसा. २६८९ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६८२-८५] प्रथम उद्देशः । ७५५ नीमभिधीयते ? उच्यते- यत् प्राग् गाथायां चतुर्विधं द्रव्याधिकरणमुक्तं तद् "दबम्मि जंतमादी" (गा० २६८०) इति पदं व्याख्यानयता भाष्यकृता दर्शितम् , इदं तु नियुक्तिकारः सङ्ग्रहगाथया द्वयोरपि द्रव्यभावाधिकरणयोः खरूपं सूचयतीति । ___ अथास्या एव प्रथमपादं पश्चान व्याचष्टे-"उवसम' इत्यादि । कपायाणामुपशमेन क्षयेण चोर्द्धगतिः-स्वर्गा-ऽपवर्गलक्षणाऽवाप्यते । तेषामेव च तीव्रपरिणामानामुदयेन 'अधःकरणं 5 भवति' नरकगतिगमनं भवतीति भावः । उपलक्षणमिदम् , तेन नातितीत्रैः कषायैस्तिर्यग्गतिर्मध्यमैस्तु मनुष्यगतिरवाप्यत इति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ २६८२ ॥' अथास्या एव भाप्यकारो व्याख्यानं करोति--- तिव्वकसायसमुदया, गुरुकम्मुदया गती भवे हिट्ठा। नाइकिलिट्ठ-मिऊहि य, उपवज्जइ तिरिय-मणुएसु ॥ २६८३॥ 10 तीव्राः-सकिष्टपरिणामा ये कषायाः-क्रोधादयस्तेषां सम्बन्धी यः सम्-एकीभावेनोदयस्तेन जीवा गुरूणां-ज्ञानावरणीयादिकर्मणामुपचयं कुर्वन्ति । गुरुकर्मोदयाच्च तेषाम् 'अधः' सप्तमनरकपृथिव्यादिनरकेषु गतिर्भवति । ये तु कषाया नातिक्लिष्टाः-नातीवाशुभपरिणामास्तै तिक्लिष्टः कर्मोपचयो भवति ततश्च तिर्यसूत्पद्यन्ते । ये तु मृदवः-प्रतनुपरिणामास्तैम॒दुः कर्मोपचयो भवति ततो मनुप्येषूत्पद्यन्ते ॥ २६८३ ॥ खीणेहि उ निव्वाणं, उवसंतेहि उ अणुत्तरसुरेसु । जह निग्गहो तह लहू, समुवचओ तेण सेसेसु ॥ २६८४ ॥ 'क्षीणैः' अभावतां गतैः कषायैर्निर्वाणमासादयति । 'उपशान्तैः' विकम्भितोदयैः तुशब्दात् क्षीणोपशान्तैश्वानुत्तरविमानवासिषु सुरेपूत्पद्यते । एवं यथा प्रकृष्टः प्रकृष्टतरः कषायाणां निग्रहः तथाऽयं जीवः 'लघुः' लघुभूतो भवति । अथ न तथाविधः कषायाणां निग्रहः कृतस्ततः कर्मणां 20 समुपचयो भवति, तेन शेषेषु' अनुत्तरविमानवासिवर्जेषु देवेषूत्पद्यते । आह गुरुलघुकमगुरुलघुकं वा द्रव्यं भवति नैकान्तगुरुकं न वा एकान्तलघुकमित्यागमेऽभिधीयते ततः कर्मणां गुरुतया जीवा अधो गच्छन्ति लघुतया तूर्द्धमिति कथं न विरुध्यते ? उच्यते-इह हि यद् आगमे गुरुलघुकमगुरुलघुकं वा द्रव्यमुक्तं तन्निश्चयनयमता तश्रेयणेन, इदं तु कर्मणां गुरुत्वं लघुत्वं च व्यवहारनयमता श्रयणाद् उच्यते ॥ २६८४ ॥ तथा चामुमेवार्थ ज्ञापयितुमिदमाह- 25 गुरुयं लहुयं मीसं, पडिसेहो चेव उभयपक्खे वि । तत्थ पुण पढमविइया, पया उ सव्वत्थ पडिसिद्धा ॥ २६८५ ॥ गुरुकं १ लघुकं २ 'मिथ' A गुरुलघुकमिति ३ 'प्रतिषेधश्चैवोभयपक्षेऽपि' न गुरुकं नापि » लघुकमित्यर्थः ४, एवं व्यवहारतश्चतुद्धी द्रव्यम् । 'तत्र पुनः' एतेषां मध्ये ये प्रथम १ एतदग्रे त. डे. मो० ले. ग्रन्थाग्रम-३००० इति वत्तते ॥ २०» एतचिह्नमध्यगतः पाठः भा० कां० पुस्तकयोरेव विद्यते ॥ ३ इह व्यवहारनयाभिप्रायतश्चतुर्विधं द्रव्यं भवति, तद्यथा-गुरुकं कां० ॥ ४ एतन्मध्यगतः पाठः भा.कां. पुस्तकयोरेव वर्तते ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [व्यवशमनप्रकृते सू० ३४ द्वितीये पदे ते 'सर्वत्रापि निश्चयनयमताश्रितेषु सूत्रेषु प्रतिषिद्धे । तथाहि स निश्चयनयो ब्रवीति-नास्त्येकान्तेन गुरुखभावं किमपि वस्तु, पराभिप्रायेण गुरुत्वेनाभ्युपगतस्यापि लेट्वादेः परप्रयोगादृ दिगमनदर्शनात् ; एवमेकान्तेन लघुस्वभावमपि नास्ति, अतिलघोरपि बाप्पादेः करताडनादिना अधोगमनादिदर्शनात् ; तस्मादियं वस्तुनः परिभाषा----यत्किमप्यत्र 5 जगति वादरं वस्तु तत् सर्वं गुरुलघु, शेषं तु सर्वमप्यगुरुलघुकमिति ॥ २६८५ ॥ इदमेवं व्यक्तीकुर्वन्नाह जा तेयगं सरीरं, गुरुलहु दव्याणि कायजोगो य। मण-भासा अगुरुलहू, अरूविदव्या य सव्वे वि ॥ २६८६ ॥ औदारिकशरीरादारभ्य तैजसशरीरं यावद् यानि द्रव्याणि, यश्च तेषामेव सम्बन्धी 'काय10 योगः' शरीरव्यापारः एतत् सर्व गुरुलघुकमिति निर्देश्यम् । यानि तु मनो-भाषाप्रायोग्याणि, उपलक्षणत्वाद् आनपान-कार्मणप्रायोग्याणि तदपान्तरालवतीनि च द्रव्याणि, यानि च सर्वाण्यपि धर्मा-ऽधर्मा-ऽऽकाश-जीवास्तिकायलक्षणान्यरूपिद्रव्याणि तदेतत् सर्वमगुरुलघुकमिति परिभाष्यम् ॥ २६८६ ॥ अहवा वायरबोंदी, कलेवरा गुरुलहू भवे सव्वे । सुहुमाणंतपदेसा, अगुरुलहू जाव परमाणू ॥ २६८७ ॥ 'अथवा' इति प्रकारान्तरद्योतने । बादरा बोन्दिः-शरीरं येषां ते 'बादरबोन्दयः' बादरनामकर्मोदयवर्तिनो जीवा इत्यर्थः, तेषां सम्बन्धीनि यानि कडेवराणि, यानि चापराण्यपि बादरपरिणामपरिणतानि भू-भूधरादीनि शक्रचाप-गन्धर्वपुरप्रभृतीनि वा वस्तूनि तानि सर्वा ण्यपि गुरुलघून्युच्यन्ते । यानि तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनां जन्तूनां शरीराणि, यानि च 20 सूक्ष्मपरिणामपरिणतानि अनन्तप्रादेशिकादीनि परमाणुपुद्गलं यावद् द्रव्याणि तानि सर्वाण्यप्यगुरुलघूनि ॥ २६८७ ॥ १ देशितं निश्चयनयमतम् । अथ व्यवहारनयमतमाह--- ववहारनयं पप्प उ, गुरुया लहुया य मीसगा चेव । लट्टग पदीय मारुय, एवं जीवाण कम्माई ॥२६८८ ॥ व्यवहारनयं पुनः प्राप्य' अङ्गीकृत्य त्रिविधानि द्रव्याणि भवन्ति, तद्यथा-गुरुकाणि 25 लघुकानि 'मिश्रकाणि च' गुरुलघूनीत्यर्थः । तत्र यानि तिर्यगू? वा प्रक्षिप्तान्यपि स्वभावादेवाधो निपतन्ति तानि गुरुकाणि, यथा-लेष्टुप्रभृतीनि । यानि तूर्द्धगतिखभावानि तानि लघुकानि, यथा-प्रदीपकलिकादीनि । यानि तु नाधोगतिखभावानि न वा ऊर्द्धगतिखभावानि, किं तर्हि ? खभावादेव तिर्यग्गतिधर्मका णि तानि गुरुलघूनि, यथा—'मारुतः' वायुस्तत्प्रभृतीनि । एवं जीवानां कर्माण्यपि त्रिधा भवन्ति-गुरूणि लघूनि गुरुलघूनि च । तत्र यैरमी १°व निश्चयनयमतं व्य° कां० ॥ २ » एतचिह्नगतः पाठः कां० पुस्तक एव वर्तते ॥ ___३ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र-नि । एवं जीवानां कर्माण्यपि द्रष्टव्यानि, किमुक्तं भवति ?-यैः कर्मभिरमी जीवाः स्वभावादूगतिगमनशीला अपि वलादेवाधोगति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६८६-९१] प्रथम उद्देशः । ७५७ जीवा अधोगतिं नीयन्ते तानि गुरुकाणि, यैस्तु त एबोर्द्धगतिं प्राप्यन्ते तानि लघुकानि, यैः पुनस्तिर्यग्योनिकेपु वा मनुप्येषु वा गतिं कार्यन्ते तानि गुरुलघुकानीति ॥ २६८८ ॥ तदेवं व्यवहारनयाभिप्रायेण समर्थितः कर्मणां गुरुत्व-लघुत्त्रपरिणामः । अथ परः प्राहननु जीवास्तावत् स्ववशा एव ज्ञानावरणादिकं कर्मोपचिन्वन्ति ततो गतिरपि तेषां स्ववशतया किं न प्रवर्तते ? यदेवं कर्मोदयवलादूर्द्धमधस्तिर्यग् वा नीयन्ते ? उच्यते कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्यसा होति । रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्यसो तत्तो ।। २६८९ ॥ जीवाः 'खवशाः' स्वतन्त्रा एव मिथ्यात्वा-ऽविरत्यादिभिः कर्म 'चिन्वन्ति' वध्नन्तीत्यर्थः, परं 'तस्य' कर्मण उदये ते जीवाः परवशा भवन्ति । दृष्टान्तमाह-यथा कश्चित् पुरुषो वृक्षमारोहन् 'स्ववशः' स्वाभिप्रायानुकूल्येनारोहति, स च कुतश्चिद् दुःप्रमादात् ततो विगलन् 10 'परवशः' खकाममन्तरेणैव विगलति ॥ २६८९ ॥ आह यद्येवं ततः किं संसारिणो जीवाः सर्वथैव कर्मपरवशा एव ? उच्यते-नायमेकान्तः, यत आह कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ वलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥ २६९० ॥ कर्मवशाः खलु प्रायेणामी संसारिणो जीवाः, परं 'कुत्रचित्' प्रबलधृति-बलादिसद्भावे कर्मा-18 ण्यपि जीववशानि । अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयति-यथा 'कुत्रचिद्' जनपदादौ 'धनिकः' व्यवहारिको बलवान् , 'कुत्रचित् पुनः' प्रत्यन्तप्रामादौ 'धारणिकः' ऋणधारकोऽपि बलवान् । इयमत्र भावना-यदि जनपदमध्यवर्ती विद्यमानविभवो वा धारणिकस्तदा धनिको वलीयान् , अथ धारणिकः प्रत्यन्तग्रामे वा पल्ल्यां वा गत्वा स्थितः न वा तस्य तथाविधं किमपि द्रव्यमस्ति ततो धारणिको बलवान् भवति ॥ २६९० ॥ एष दृष्टान्तः । अथार्थोपनयमाह- 20 धणियसरिसं तु कम्म, धारणिगसमा उ कम्मिणो होति । संताऽसंतधणा जह, धारणग धिई तणू एवं ॥ २६९१॥ इह धनिकसदृशं कर्म, धारणिकसमानाः 'कर्मिणः' सकर्मका जीवा भवन्ति, सुख-दुःखोपभोगादिऋणधारकत्वात् तेषामिति भावः । यथा च 'सद्धनाः' विद्यमानविभवाः 'असद्धनाश्च' अविद्यमानविभवा धारणिका भवन्ति । तत्र च विद्यमानविभवे धारणिके धनिको यदि कार्य 25 भवति तदा राजकुलबलेन तं धारणिकं धृत्वा खल्पं द्रव्यं वलादेपि गृह्णाति, स च धारणिकस्तस्मिन् द्रव्ये दत्ते संति अनृणीभवति । अथासावविद्यमानविभवस्ततस्तेन धनिकेन स वशी. क्रियते, वशीकृतश्च तत्पारतन्त्र्येण वर्तमानो दुस्सहं दासत्वादिमहादुःखोपनिपातमनुभवति । नीयन्ते भा० । नि । व्योमादिरूपमगुरुलघुनामकं तु चतुर्थ द्रव्यं प्रस्तुतेऽनुपयोगित्वादत्र म विवक्षितमिति । एवं' लेष्टादिदृष्टान्तेन जीवानां कर्माण्यपि कां० ॥ १ वलिओ ता० ॥ २°लादिसम्पन्ने दृढप्रहारिप्रभृतिके पुरुषे कर्मा' कां ॥ ३°मास्तु 'क' कां० ॥ ४°न्ति, कर्मणः प्रति सुख° कां० ॥ ५ 'दपि दापयति; स ब भाः ॥ ६ काति आनयें प्रतिपद्यते । अथासा' भा० ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [व्यवशमनप्रकृते स० ३४ एक्मत्रापि “धिइ" त्ति धृतिबलं "तणु" त्ति शारीरं च बलं विद्यमानविभवताकल्पमवसेयम् । इदमुक्तं भवति-यस्य जीवस्य वज्रकुड्यसमानं विशिष्टं मनःप्रणिधानबलं वज्रर्षभनाराचसंहननलक्षणं च शारीरं बलं भवति स धनिकसदृशं कर्म क्षपयित्वा सुखेनैवानृणीभवति; यस्य तु धृतिबलं शारीरबलं वा न भवति स तेन कर्मणा वशीक्रियते, वशीकृतश्च तत्परतन्त्रतया वर्तमानो विविधशारीर-मानसदुःखोपनिपातमनुभवति ॥ २६९१ ॥ आह धृति-संहननबलोपेतो यत् कर्म क्षपयति तत् किमुदीर्णमनुदीर्ण वा क्षपयति ? इति उच्यते सहणोऽसहणो कालं, जह धणिओ एवमेव कम्मं तु । उदिया-ऽणुदिए खवणा, होज सिया आउवजेसु ॥ २६९२ ॥ धनिको द्विधा-सहिष्णुरसहिष्णुश्च । यः सहिष्णुः स विवक्षितं कालं प्रतीक्षते, इतरस्तु oन प्रतीक्षते । एवमेव कर्मापि' किञ्चित् स्वकालपूर्ती किञ्चित् पुनस्तामन्तरेणापि खविपाकं दर्शयतीति । एवमुदीर्णस्यानुदीर्णस्य वा कर्मणः क्षपणा धृति-संहननबलोपेतस्य भवेत् , “सिय" त्ति 'स्यात्' कदाचित् कस्याप्येवं भवति न सर्वस्य । यस्तु संहनन-बलविहीनः स नवरमनुदीर्ण कर्म देशतः क्षपयेत् न सर्वतः । “आउवजेसु" ति आयुःकर्मवर्जानां शेषकर्मणामनुदीर्णा नामपि क्षपणं भवति, आयुषः पुनरुदीर्णस्यैव क्षपणमिति भावः । तदेवं धनिक-धारणिक1 दृष्टान्तेन जीव-कर्मणोरुभयोरपि तुल्यमेव यथायोगं बलीयस्त्वं द्रष्टव्यम् । उक्तञ्च हेमाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे नीचेर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतेर्मल्लिनाथेऽबलात्वम् । निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि इत्थं कर्मा-ऽऽत्मवीर्ये स्फुटमिह जयतां स्पर्द्धया तुल्यरूपे ॥ ॥२६९३ ।। 20 . उक्तं सप्रपञ्च भावाधिकरणम् । अथ कथं तदुत्पद्यते ? इत्याशङ्कावकाशमवलोक्य तदुत्थानकारणानि दर्शयति सच्चित्ते अञ्चित्ते, मीस वओगय परिहार देसकहा । सम्ममणाउट्टते, अहिगरणमओ समुप्पज्जे ॥ २६९३ ॥ 'सचित्ते' शैक्षादौ 'अचित्ते' वस्त्र पात्रादौ ‘मिश्रके' सभाण्ड-मात्रकोपकरणे शैक्षादावना25 माव्येऽपरेण गृह्यमाणे, तथा 'वचोगतं' व्यत्यानेडितादि तत्र वा विधीयमाने, परिहारः-स्थापना तदुपलक्षितानि यानि कुलानि तेपु वा प्रवेशे क्रियमाणे, देशकथायां वा विधीयमानायाम्, एतेषु स्थानेषु प्रतिनोदितो यदि सम्यग् नावर्त्तते-न प्रतिपद्यते अतोऽधिकरणमुत्पद्यते इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २६९३ ॥ अथैनामेव विवृणोति आभव्यमदेमाणे, गिण्हंत तहेव मग्गमाणे य । सच्चित्तेतरमीसे, वितहापडिबत्तिओ कलहो ॥ २६९४ ।। १°पि तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वात् किञ्चित् कां ॥ २ आन्ध्यं यद् व्र° भा० कां० ॥ ३णतः स्याच्चिलातीसुतोऽपि त० डे० ॥ ४°नि श्राद्धादीनि तेषु कां० ॥ ५ इति गाथा भा० ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६९२-९७] प्रथम उद्देशः । ७५९ 'आभाव्यं नाम' शैक्षः शैक्षिका वा कस्याप्याचार्यस्योपतस्थे । 'युष्मदन्तिके - प्रव्रज्यां गृह्णामि' इति । तमुपस्थितं मत्वा विपरिणमय्य परः कश्चिदाचार्यों गृह्णाति ततो मौलाचार्यों ब्रवीति-किमेवं मदीयमाभाव्यं गृह्णासि ?, पूर्वगृहीतं वा शैक्षादिकं याचितः-मदीयमाभाव्यं किं न प्रयच्छसि ? इति । एवमाभाव्यं सचित्तम् ‘इतरद्' अचित्तं मिश्रं वा तत्कालं गृह्यमाणं पूर्वगृहीतं वा मार्यमाणमपि यदा वितथप्रतिपत्तितो न ददाति तदा कलहो भवति । वितथ-5 प्रतिपत्तिर्नाम-परस्याभाव्यमपि शैक्षादिकमनाभाव्यतया प्रतिपद्यते ॥ २६९४ ॥ वचोगतद्वारमाह विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव । अन्नम्मि य वत्तव्वे, हीणाहिय अक्षरे चेव ॥ २६९५ ॥ 'सूत्रे' सूत्रविषया या 'व्यत्यानेडना' अपरापरोद्देशका-ऽध्ययन-श्रुतस्कन्धेषु घटमानका-10 नामालापक-श्लोकादीनां योजना, यथा--"सव्वजीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिजिउं" (दशवै० अ० ६ गा० १०) इत्यत्र इदमप्यालापकपदं घटते "सचे पाणा पियाउया" (आचा० अ० २ उ० ३) इत्यादि । तथाभूतं सूत्रं परावर्तयन् 'किमेवं सूत्रं व्यत्यानेडयसि ?' इति प्रतिनोदितो यदि न प्रतिपद्यते तदाऽधिकरणं भवति । देशीभाषा नाम-मरुमालव-महाराष्ट्रादिदेशानां भाषा सामन्यत्र देशान्तरे भाषमाण उपहस्यते, उपहस्यमानश्चासङ्खडं करोति । यद्वा प्रपञ्चनं 15 वचनानुकारेण वा चेष्टानुकारेण वा कोऽपि करोति ततः प्रपञ्चयमानसाधुना सहाधिकरणमुत्पद्यते । अन्यस्मिन् वा वक्तव्ये कोऽप्यन्यद् वक्ति । यद्वा हीनाक्षरमधिकाक्षरं वा पदं वक्ति । तत्र हीनाक्षरम्-भास्कर इति वक्तव्ये भाकर इति वक्ति, अधिकाक्षरम्-सुवर्णमिति वक्तव्ये सुसुवर्णमिति ब्रवीति ॥ २६९५ ॥ परिहारिकद्वारमाह परिहारियमठवेंते, ठवियमणट्ठाए निविसंते वा। कुच्छियकुले व पविसइ, चोईयऽणाउट्टणे कलहो ॥ २६९६ ॥ गुरु-ग्लान-बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि कुलानि परिहारिकाण्युच्यन्ते, एकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा शेषसङ्घाटकानां परिहारमहन्तीति व्युत्पत्तेः । तानि यदि न स्थापयति, स्थापितानि वा 'अनर्थ' निष्कारणं 'निर्विशति' प्रविशतीत्यर्थः, यद्वा 'परिहारिकाणि नाम' कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानीति भावः, तेषु कुलेषु प्रविशति । एतेषु स्थानेषु नोदितो यदि नावर्तते 25 न वा तेषु प्रवेशादुपरमते ततः कलहो भवति ॥ २६९६ ॥ १ देशेकथाद्वारमाह देसकहापरिकहणे, एके एक्के व देसरागम्मि । मा कर देसकहं ति य, चोईंय अठियम्मि अहिगरणं ॥ २६९७॥ देशकथाया उपलक्षणत्वाद् भक्त-स्त्री-राजकथानां च परिकथनं कुर्वाणो द्वितीयेन साधुना १। एतदन्तर्गतः पाठः कां० विना नास्ति ॥ २ पदमाचाराङ्गान्तर्गतं घ° कां ॥ ३°ति । ततोऽन्यैरुपहस्यमानः सोऽप्यसङ्खडं कुर्यादिति ॥ २६९५॥ परि° का० ॥ ४ चोयणऽणाउ° ता०॥ ५» एतदन्तर्गतः पाठः त० डे. मो० ले. नास्ति ॥ ६ चोदिणो अठि° ता० ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ व्यवशमनप्रकृते सू० ३४. नोदितः-मा देशादिकथां कार्षीः, न वर्त्तते साधूनामीदृशी कथा कथयितुम् । स प्राहकोऽसि लं येनैवं मां वारयसि ? । तथापि 'अस्थिते' अनुपरते सत्यधिकरणं भवति । यद्वा "एक्के एक्के व देसरागम्मि" त्ति एकः साधुः सुराष्ट्रां वर्णयति, यथा-रमणीयः सुराष्ट्राविषयः; द्वितीयः प्राह-कूपमण्डूकस्त्वम् , किं जानासि ? दक्षिणापथ एव प्रधानो देशः; एवमेकैक5 देशरागेणोत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वाणयोस्तयोरधिकरणं भवति ।। २६९७ ॥ एवमुत्पन्नेऽधिकरणे किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह जो जस्स उ उवसमई, विज्झवणं तस्स तेण कायव्यं । जो उ उवेहं कुजा, आवजइ मासियं लहुगं ॥ २६९८ ॥ यः साधुर्यस्य साधोः प्रज्ञापनयोपशाम्यति तस्य तेन साधुना 'विध्यापनं' क्रोधाग्निनिर्वापणं 10 कर्त्तव्यम् । यः पुनः साधुरुपेक्षां कुर्यात् स आपद्यते मासिकं लघुकम् ॥ २६९८ ॥ स इदमेवानुवदन् शेषानपि विशेषान् सप्रायश्चित्तान् दर्शयति-» लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स । उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो ॥ २६९९ ॥ उपेक्षां कुर्वाणस्य लघुको मासः प्रायश्चित्तम् । उपहसतः स एव मासो गुरुकः । अथ उत्15 प्राबल्येन तुदति उत्तुदति-अधिकरणं कुर्वन्तं विशेषत उत्तेजयतीत्यर्थः ततश्चत्वारो लघुकाः। अथ कलहं कुर्वतः 'सहायकत्वं' साहाय्यं करोति ततोऽसावधिकरणकृता सह सदृशदोष इति कृत्वा सदृशं प्रायश्चित्तमापद्यते, चतुगुरुकमित्यर्थः ॥ २६९९ ॥ तथा चाह चउरो चउगुरु अहवा, विसेसिया होति भिक्खुमाईणं । अहवा चउगुरुगादी, हवंति ऊ छेद निट्ठवणा ॥ २७०० ॥ 20 भिक्षु-वृषभोपाध्याया-ऽऽचार्याणामधिकरणं कुर्वतां प्रत्येकं चतुर्गुरुकम् , ततश्चत्वारश्चतुर्गुरुका भवन्ति । अथवा त एव चतुर्गुरुकास्तपः-कालविशेषिता भवन्ति, तद्यथा-भिक्षोश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेन च लघुकम् , वृषभस्य तदेव कालगुरुकम् , उपाध्यायस्य तपोगुरुकम् , आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम् । अथवा चतुर्गुरुकादारभ्य च्छेदे निष्ठापना कर्तव्या, तद्यथाभिक्षुरधिकरणं करोति चतुर्गुरुकम् , वृषभस्य षड्लघुकम् , उपाध्यायस्य पङ्गुरुकम् , आचार्यस्या25 धिकरणं कुर्वाणस्य च्छेद इति । यथा चाधिकरणकरणे आदेशत्रयेण प्रायश्चित्तमुक्तं तथा साहाय्यकरणेऽपि द्रष्टव्यम् , समानदोषत्वात् ॥ २७०० ॥ अथोपेक्षाव्याख्यानमाह परपत्तिया न किरिया, मोतु परहूं च जयसु आयटे। अवि य उवेहा वुत्ता, गुणो वि दोसो हवइ एवं ।। २७०१ ॥ इहाधिकरणं कुर्वतो दृष्ट्वा माध्यस्थ्यभावेन तिष्ठन् अन्येषामप्युपदेशं प्रयच्छति-परप्र30 त्यया या 'क्रिया' कर्मबन्धः सा अस्माकं न भवति, परकृतस्य कर्मण आत्मनि सङ्कमाभावात् । तथा यद्येतावधिकरणकरणादुपशाम्येते ततः परार्थः कृतो भवति । तं च परार्थ मुक्त्वा १ एतचिह्नमध्यगतः पाठः कां० प्रतावेव वर्तते ॥ २ अधिकरणकारिणि उपेक्षां कां ॥ ३ तत्राधिकरणकारिणत्तावत प्रायश्चित्तमाकां०॥४कर्मसम्बन्ध: भा० विना ॥ ' Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २६९८-२७०५] प्रथम उद्देशः । ७६१ यदि मोक्षार्थिनस्तदा 'आत्मार्थ एव' स्वाध्याय-ध्यानादिके 'यतध्वं' प्रयत्नं कुरुत । अपि चेत्यभ्युच्चये । ओपनियुक्तिशास्त्रेऽप्युपेक्षा संयमाङ्गतया प्रोक्ता, "उवेहित्ता संजमो वुत्तो" ( पेहेत्ता संजमो वुत्तो, उवेहित्ता वि संजमो । भा० गा० १७०) इति वचनात् । यहा "मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमाना-ऽविनेयेषु' (तत्त्वा० अ० ७ सू० ६) इति वचनाद् अविनेयेषु » माध्यस्थ्यापरपर्याया उपेक्षैव प्रोक्ता, ततः सैव 5 साधूनां कर्तुमुचितेति भावः । अत्र सूरिराह--"गुणो वि दोसो हवइ एवं" ति यदिदमविनेयेषु माध्यस्थ्यमुपदिष्टं तदसंयतापेक्षया न पुनः संयतानङ्गीकृत्य; यस्मादसंयतेष्वियमुपेक्षा क्रियमाणा गुणः, संयतेषु तु क्रियमाणा महान् दोषो भवति । उक्तश्चौधनियुक्तावपि संजयगिहिचोयणऽचोयणे य वावारओवेहा । (भा० गा० १७१) ॥२७०१॥ अथ "परपत्तिया न किरिय' त्ति पदं भावयति जइ परो पडिसेविजा, पावियं पडिसेवणं । मज्झ मोणं चरंतस्स, के अट्ठे परिहायई ॥ २७०२ ॥ यदि 'परः' आत्मव्यतिरिक्तः 'पापिकाम्' अकुशलकर्मरूपामधिकरणादिकां प्रतिसेवनां प्रतिसेवेत ततो मम मौनमाचरतः को नाम ज्ञानादीनां मध्यादर्थः परिहीयते ? न कोऽपीत्यर्थः ॥ २७०२ ॥ अथ "मोत्तु परटुं व जयसु आय?" इति पदं व्याचष्टे 13 आयढे उवउत्ता, मा य परहम्मि वावडा होह । हंदि परहाउत्ता, आयट्टविणासगा होति ॥ २७०३ ॥ आत्माओं नाम-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपं पारमार्थिकं स्वकार्य तत्रोपयुक्ता भवत, मा च 'परार्थे' परकार्येऽधिकरणोपशमनादौ व्यापृता भवत । हन्दीति हेतूपदर्शने । यस्मात् परार्थायुक्ताः 'आत्मार्थविनाशकाः' स्वाध्याय-ध्यानाद्यात्मकार्यपरिमन्थकारिणो भवन्ति ॥ २७०३ ॥ 20 गतमुपेक्षाद्वारम् । अथोपहसनोत्तेजनाद्वारे युगपद् व्याचष्टे एसो वि तार दम्मउ, हसइ व तस्सोमयाए ओहसणा । उत्तरदाणं मा ओसराहि अह होइ उत्तुअणा ॥ २७०४ ॥ द्वयोरधिकरणं कुर्वतोरेकस्मिन् सीदति आचार्योऽन्यो वा ब्रवीति-एषोऽपि तावददान्तपूर्वो दम्यतामिदानीमनेन; यदि वा-तस्य 'अवमतायां' पश्चात्करणे इत्यर्थः खयमट्टट्टहासैरुपहसति, 25 एतदुपहसनमुच्यते । तथा तयोर्मध्याद् यः सीदति तस्य 'उत्तरदानं' अमुकममुकं च ब्रूहि इत्येवं शिक्षापणम् ; यद्वा-माऽमुष्मादपसरस्त्वम् , दृढीभूय तथा लग यथा नैतेन पराजीयसे, अथैषोत्तेजनाऽभिधीयते ॥ २७०४ ॥ अथ सहायकत्वं व्याख्यानयति वायाए हत्थेहि व, पाएहि व दंत-लउडमादीहिं । जो कुणइ सहायत्तं, समाणदोसं तयं वेति ॥ २७०५ ॥ १ - एतचिह्नान्तर्गतः पाठः त. डे. मो. ले. नास्ति ॥ २ गुणो मन्तव्यः, संयतेषु तु क्रियमाणा एषा 'गुणोऽपि गुणरूपाऽपि महान् कां० ॥ ३ उपेक्षां कुर्वन्नन्येभ्य उपदेशमित्थं प्रयच्छति-आत्मार्थो नाम का ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [व्यवशमनप्रकृते सु० ३४ द्वयोः कलहायमानयोर्मध्यादेकस्य पक्षे भूत्वा यः कोऽपि वाचा हस्ताभ्यां वा पद्भ्यां वा दन्तैर्वा लगुडादिभिर्वा 'सहायत्वं' साहाय्यं करोति तं तेनाधिकरणकारिणा सह समानदोषं तीर्थकरादयो ब्रुवते ॥ २७०५ ॥ अथाचार्याणामुपेक्षां कुर्वाणानां सामान्येन वाऽधिकरणेऽनु पशाम्यमाने दोषदर्शनार्थमिदमुदाहरणमुच्यते5 अरन्नमज्झे एगं अगाहजलं सबतो वणसंडमंडियं महंतं सरं अस्थि । तत्थ य बहूणि जलचर-थलचर-खहचरसत्ताणि अच्छंति । तत्थ एग महल्लं हथिजूहं परिवसइ । अन्नया य गिम्हकाले तं हत्थिजूहं पाणियं पाउं हाउत्तिन्नं मज्झण्हदेसकाले सीयलरुक्खच्छायाए सुहंसुहेणं चिट्ठइ । तत्थ य अदूरदेसे दो सरडा भंडिउमारद्धा । वणदेवयाए अ ते 8 सवेसिं सभासाए आघोसियं । 'किं तत् ? इत्याह-~ 10 नागा ! जलवासीया!, सुणेह तस-थावरा!। सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तई ॥ २७०६ ॥ 'भो नागाः !' हस्तिनः ! तथा 'जलवासिनः !' मत्स्य-कच्छपादयः ! अपरे च ये त्रसाः!मृग-पशु-पक्षिप्रभृतयः! स्थावराश्च-सहकारादयो वृक्षाः! एते सर्वेऽपि यूयं शृणुत मदीयं वचनम्-यत्र सरसि सरटौ 'भण्डतः' कलहं कुरुतः तस्य 'अभावः परिवर्तते' विनाशः 15 सम्भाव्यत इति भावः ॥ २७०६ ॥ __ ता मा एते सरडे भंडते उवेक्खह, वारेह तुब्भे । एवं भणिया वि ते जलचराइणो चिंतंति-किं अम्हं एते सरडा भंडता काहिंति ? । तत्थ य एगो सरडो भंडतो पिल्लितो । सो धाडिजंतो सुहपसुत्तस्स एगस्स जूहाहिवस्स हत्थिस्स 'बिलं' ति काउं नासापुडं पविट्ठो । बिइओ वि तस्स पिट्ठओ चेव पविट्ठो । ते सिरकवाले जुद्धं संपलग्गा । तस्स हथिस्स 20 महंती अरई जाया । तओ वेयणट्टो महईए असमाहीए वट्टमाणो उतॄत्ता तं वणसंडं चूरेइ, बहवे तत्थ विस्संता सत्ता घाइया, जलं च आडोहिंतेण जलचरा घाइया, तलागपाली य भेइया, तलागं विणटुं, ताहे जलचरा वि सत्वे विणट्टा ॥ अमुमेवार्थमाह वणसंड सरे जल-थल-खहचर वीसमण देवया कहणं । वारेह सरडुवेक्षण, धाडण गयनास चूरणया ॥ २७०७ ॥ 25 वनखण्डमण्डिते सरसि जलचर-स्थलचर-खचराणां विश्रमणम् । तत्र च सरडभण्डनं दृष्ट्वा वनदेवतया "नागा ! जलवासीया !” इत्यादि (२७०६) श्लोककथनं कृत्वा "वारयत सरटौ कलहायमानौ" इत्युपदिष्टम् । ततश्च तैर्नागादिभिः सरटयोरुपेक्षणं कृतम् । एकस्य च सरटस्य द्वितीयेन धाटनम् । ततोऽसौ धाट्यमानो गजनासापुटं प्रविष्टवान् । तत्पृष्ठतो द्वितीयेऽपि प्रविष्टे तयोश्च युद्धे लग्ने महावेदनार्तेन हस्तिना वनखण्डस्य चूरणं कृतमिति । एष दृष्टान्तः, अयमों30 पनयः-यथा तेषामुपेक्षमाणानां तत् पद्मसरः सर्वेषामप्याश्रयभूतं विनष्टम् , तस्मिँश्च विनश्यमाने तेऽपि विनष्टाः, एवमत्राप्याचार्यादीनामुपेक्षमाणानां महान् दोष उपजायते । कथम् ? इति चेद् उच्यते-इह तावधिकरणकारिणावुपेक्षितौ परस्परं मुष्टामुष्टि वा दण्डादण्डि वा १ एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्तते ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साप्यगाथाः २७०६-११.] प्रथम उद्देशः । ૬૨ युध्येताम्, ततश्च परम्परया राजकुलज्ञाते सञ्जाते सति स राजादिस्तेषां साधूनां बन्धनं वा आम-नगरादेर्निष्काशनं वा कटकमर्दं वा कुर्यात् ॥ २७०७॥ किञ्चान्यत्– ताम्रो भेदो असो, हाणी दंसण- चरित्त नाणाणं । साहुपदोसो संसारवणो साहिकरणस्स ।। २७०८ ॥ तापो भेदोऽयशो हानिर्दर्शने - ज्ञान- चारित्राणां तथा साधुप्रद्वेषः संसारवर्द्धनो भवति । एते साधिकरणस्य दोषा भवन्तीति नियुक्तिगाथा - समासार्थः ॥ २७३८ ॥ ८. अथैनामेव गाथां विवृणोति - अइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीव चरणे वा । रूवसरिसं न सीलं, जिम्हं व मणे अयस एवं ॥ २७०९ ॥ तापो. द्विधा - प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । तत्रातिभणिते सति चिन्तयति - धिग् मां येन तदानीं 10 स साधुर्बहुविधैरसदभ्याख्यानैरभ्याख्यातः इत्थमित्थं चाक्रुष्टः, एष प्रशस्तस्ताप उच्यते । अथ अभणितं-न तथाविधं किमपि तस्य सम्मुखं भणितं ततश्चिन्तयति - हा ! मन्दभाग्यो विस्मर शोsहं यद् मया तदीयं जात्यादिमर्मनिकुरुम्बं न प्रकाशितम्, एष अप्रशस्तस्तापो मन्तव्यः । तथा 'भेदो नाम ' कलहं कृत्वा जीवितभेदं चरणभेदं वा कुर्युः, पश्चात्तापतप्तचेतसो वैहायसादिमरणमभ्युपगच्छेयुः उन्निष्क्रमणं वा कुर्युरिति भावः । तथा लोको ब्रूयात् – अहो ! अमीषां 15 श्रमणानां 'रूपसदृशं' यादृशं बहिः प्रशान्ताकारं रूपमवलोक्यते तादृशं 'शीलं ' मनःप्रणिधानं नास्ति । यद्वा - किं मन्ये 'जि' लज्जनीयं किमप्यनेन कृतं येनैवं प्रम्लानवदनो दृश्यते ! | एवमादिकमयशः समुच्छलति ॥ २७०२ ॥ * अक्कुट्ट तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो । एयर सूयएहिं व, रायादीसिडें गहणादी || २७१० ॥ 20 जकार-मकारादिभिर्वचैनैराकुष्टे 'ताडिते वा' चपेटा-दण्डादिभिराहते सति' ' पक्षापक्षि' पर - स्परपक्षपरिग्रहेण साधूनां कलहे जाते सति गणभेदो भवति । तथा तयोः पक्षयोर्मध्यादेकतरपक्षेण राजकुलं गत्वा 'शिष्टे' कथिते सति 'सूचकैर्वा' राजपुरुषविशेषै राजादीनां ज्ञापिते ग्रहणा - ssकर्षणादयो दोषा भवन्ति ॥ २७१० ॥ वत्तकलहो वि न पढइ, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहाइविवडी, तह हाणी होइ चरणे वि ॥ २७११ ॥ 'वृत्तकलहोऽपि ' कलहकरणोत्तरकालमपि कषायकलुषितः पश्चात्तापतप्तमानसो वा यन्न पठति १त् । एवं च देवतास्थानीयेन तीर्थकरेण निषिद्धामुपेक्षां कुर्वाणेष्वाचार्य प्रभृतिषु वनखण्डस्थानीयस्य गच्छस्य पद्मसरःस्थानीयस्य च संयमस्य विनाशः सञ्जायते ||२७०७ ॥ अधाधिकरणकारिणामेव विशेषदोषान् दर्शयति - तावो कां० ॥ २ न चारित्र - ज्ञानानां तथा कां• ॥ ३ एतचिह्नमध्यगः पाठः कां० एव वर्तते ॥ ४ अथ भेदपदं प्रकारान्तरेण वित्रृणोति इत्यत्रतरणं कां० ॥ ५ 'चनैः शपिते 'ता' भा० ॥ ६°ति द्वितीयसाधौ 'प' कां० ॥ ७ अथ ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां हानिं व्याख्याति इत्यवतरणं कां० ॥ 25 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ व्यवशमनपकृते सू० ३४ एषा ज्ञानपरिहाणिः । साधुप्रद्वेषतः साधर्मिकवात्सल्यं विराधितं भवति, अवात्सल्ये च दर्शनपरिहाणिः । यथा च क्रोधादीनां कषायाणां वृद्धिस्तथा 'चरणेऽपि' चारित्रस्य परिहाणिर्भवति, विशुद्धसंयमस्थानप्रतिपातेनाविशुद्धसंयमस्थानेषु गमनं भवतीत्यर्थः ॥ २७११ ॥ एतच्च व्यवहारमाश्रित्योक्तम् । निश्चयतस्तु अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ। साहूण पदोसेण य, संसारं सो विवड्ढेइ ॥ २७१२॥ खुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् ‘अकषायमेव' कषायविरहितमेव चारित्रं भगवद्भिः प्रज्ञप्तम् । अतो निश्चयनयाभिप्रायेण कषायसहितः संयत एव न भवति, चारित्रशून्यत्वात् । तथा साधूनामुपरि यः प्रद्वेषस्तेनासौ साधिकरणः सन् संसारं वर्द्धयति, दीर्घतरं करोतीति भावः । 10 यत एते दोषास्तत उपेक्षा न विधेया ॥ २७१२ ॥ किं पुनस्तर्हि कर्त्तव्यम् ? इत्याह आगाढे अहिगरणे, उवसम अवकडणा य गुरुवयणं । उवसमह कुणह ज्झायं, छड्डणया सागपत्तेहिं ॥ २७१३ ॥ 'आगाढे' कर्कशेऽधिकरणे उत्पन्ने सति द्वयोरप्युपशमः कर्त्तव्यः । कथम् ? इत्याह-कलहायमानयोस्तयोः पार्थस्थितैः साधुभिः 'अपकर्षणम्' अपसारणं कर्त्तव्यम् । गुरुभिश्चोपशमना16 र्थमिदं वचनमभिधातव्यम्-आर्याः ! उपशाम्यतोपशाम्यत, गाथायामनुक्तमपि द्विवचनं प्रक्रमाद् दृश्यम् , अनुपशान्तानां कुतः संयमः ? कुतो वा खाध्यायः ?, तस्मादुपशमं कृत्वा खाध्यायं कुरुत, किमेवं द्रमकवत् कनकरसस्य शाकपत्रैः 'छर्दनां' परित्यागं कुरुथ ? ॥२७१३।। कः पुनरयं द्रमकः ? उच्यते जहा एगो परिवायगो दमगपुरि चिन्तासोगसागरावगाढं पासत्ति, पुच्छति य–किमेवं 20 चिंतापरो? । तेण से सम्भावो कहितो 'दारिदाभिभूतो मि' ति । तेण भणितं-इस्सरं तुम करेमि, जतो नेमि ततो गच्छाहि, जं च भणामि तं सचं कायवं । ताहे ते संबलं घेत्तुं पचयनिगुंजं पविट्ठा । परिवायगेण य भणितो--एस कणगरसो सीत-वाता-ऽऽतव-परिस्समं अगणिन्तेहिं तिसा-खुधावेयणं सहतेहिं बंभचारीहिं अचित्तकंद-मूल-पत्त-पुप्फ-फलाहारीहिं समीपत्तपुडएहिं भावतो अरुस्समाणेहिं घेत्तबो, एस से उवचारो । तेण दमगेण सो कणगरसो उव25 चारेण गहितो', तुंबयं भरितं । ततो निग्गता । तेण परिबायगेण भणितं-सुरुटेण वि तुमे एस सागपत्तेण न छड्डिययो । ततो सो परिचायगो गच्छंतो तं दमगपुरिसं पुणो पुणो भणइ-मम पभावेण ईसरो भविस्ससि । सो य पुणो पुणो भन्नमाणो रुटो भणति-जं तुज्झ पसाएण ईसरत्तणं तेण मे न कजं । तं कणगरसं सागपत्तेण छड्डेति । ताहे परिवाय गेण भन्नति–हा हा दुरात्मन् ! किमेयं तुमे कयं ?। 30 जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-नियम-चभमइएहिं । तं दाणि पच्छ नाहिसि, छडिंतो सागपत्तेहिं ॥ २७१४ ॥ RA» एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ २°तो, कडुयदुद्धियं भरि' मा Private & Personal use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७१२-१७] प्रथम उद्देशः । ७६५ — यदर्जितं शमीसम्बन्धिभिः खल्लकैः–पत्रपुटैस्तपो-नियम-ब्रह्मयुक्तैः तदिदानीं शाकपत्रैः परित्यजन् 'पश्चात्' परित्यागकालादूई परितप्यमानो ज्ञास्यसि, यथा-दुष्ठु मया कृतं यच्चिरसश्चितः कनकरसः शाकपत्रैरुत्सिच्य परित्यक्तः । एवं परिव्राजकेण द्रमक उपालब्धः । अथाचार्यस्तावधिकरणकारिणावुपालभते-आर्याः ! यच्चारित्रं कनकरसस्थानीयं तपो-नियम-ब्रह्मचयमयैः शमीखल्लकैरर्जितं परीषहोपसर्गादिश्रममगणयद्भिश्चिरात् कथं कथमपि मीलितं तदिदानी । शाकपत्रसदृशैः कषायैः परित्यजन्तः पश्चात् परितप्यमानाः स्वयमेव ज्ञास्यथ । यथा-हा! बहुकालोपार्जितेन संयमकनकरसेन तुम्बकस्थानीयं खजीवं बहुपूर्ण कृत्वा पश्चात् कलहायमानः शाकवृक्षपत्रस्थानीयैः कषायैरुत्सिच्योत्सिच्यायमात्मा रिक्तीकृतः, शिरस्तुण्डमुण्डनादिश्च प्रत्रज्याप्रयासो मुधैव विहित इति ॥ २७१४ ॥ आह कथमेकमुहूर्तभाविनाऽपि क्रोधादिना चिरसञ्चितं चारित्रं क्षयमुपनीयते ? उच्यते 10 जं अजियं चरित्तं, देखणाए वि पुष्वकोडीए । तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण ॥ २७१५॥ यदर्जितं चारित्रं 'देशोनयाऽपि' अष्टवर्षन्यूनयाऽपि पूर्वकोट्या तदपि, आस्तामल्पतरकालोपार्जितमित्यपिशब्दार्थः, 'कषायितमात्रः' उदीर्णमात्रक्रोधादिकषाय इत्यर्थः 'नाशयति' हारयति 'नरः' पुरुषः 'मुहूर्तेन' अन्तर्मुहूर्तेनेति भावः । यथा प्रभूतकालसञ्चितोऽपि महान् तृणराशिः 15 सकृत्मज्वालितेनाप्यमिना सकलोऽपि भस्मसाद भवति, एवं क्रोधानलेनापि सकृदुदीरितेन चिरसश्चितं चारित्रमपि भस्मीभवतीति हृदयम् ॥ २७१५ ॥ एवमाचार्येण सामान्यतस्तयोरनुशिष्टितव्या, न त्वेकमेव कञ्चन विशेष्य भणनीयम् । यत आह आयरिय एगु न भणे, अह एगु निवारि मासियं लहुगं। राग-दोसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ ॥ २७१६ ॥ 20 आचार्यो नैकमधिकरणकारिणं 'भणति' अनुशास्ति । अथाचार्य एकमेव 'निवारयति' अनुशास्ति न द्वितीयं ततो मासिकं लघुकमापद्यते, असामाचारीनिष्पन्नमिति भावः । तस्मादाचार्यों राग-द्वेषविमुक्तः शीतगृहसमो भवेत् । शीतगृहं नाम-वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम् , तच्च वर्षासु निवातप्रवातं शीतकाले सोष्मं ग्रीष्मकाले शीतलम् । यथा च तच्चक्रवर्तिनः सर्व क्षम तथा द्रमकादेरपि प्राकृतपुरुषस्य तत् सर्व क्षममेव भवति, एवमाचार्यैरपि निर्विशेषैर्भवितव्यम् 25 ॥ २७१६ ॥ अथ विशेषं करोति तत इमे दोषाः वारेइ एस एयं, ममं न वारेइ पक्खरागेणं । बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एकं ॥२७१७॥ एष आचार्यः 'आत्मीयोऽयम्' इति बुद्ध्या अमुं वारयति, मां तु परबुद्ध्या पश्यन्न वारयति, एवं पक्षरागेण क्रियमाणेन अननुशिष्यमाणः साधुर्बाह्यभावं गच्छति । यद्वा सोऽननुशिष्यमाणो 30 गाढतरमधिकरणं कुर्यात् । अथवा तमाचार्य परिस्फुटमेव ब्रूयात्-त्वं मामेवैकं बाह्यतया १ लमयैः तदुपचारसंयुक्तरित्यर्थः तदिदा का० ॥ २-३ °नुशास्यमा भा० Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [व्यवशमनप्रकृते सू० ३४ प्रेक्षसे । ततश्चात्मानमुद्दध्य यदि मारयति तत आचार्यस्य पाराञ्चिकम् । अथोन्निष्कामति ततो मूलम् । तस्माद् द्वावप्यनुशासनीयौ ॥ २७१७॥ अनुशिष्टौ च यद्युपशान्तौ ततः सुन्दरम् । अथैक उपशान्तो न द्वितीयः, तेन चोपशान्तेन गत्वा स खापराधप्रतिपत्तिपुरस्सरं क्षामितः परमसौ नोपशाम्यति । आह कथमेतदसौ जानाति 6 यथाऽयं नोपशान्तः ? उच्यते-यदा वन्द्यमानोऽपि न वन्दनकं प्रतीच्छति, यदि वाऽवमरत्नाधिकोऽसौ ततस्तं रत्नाधिकं न वन्दते, आद्रियमाणोऽपि वा नाद्रियते । एवं तमनुपशान्तमुपलक्ष्य ततोऽसौ किं करोति ? इत्याह उवसंतोऽणुवसंतं, तु पासिया विनवेइ आयरियं । तस्स उ पण्णवणट्ठा, निक्खेवों परे इमो होइ ॥ २७१८॥ 10 उपशान्तः साधुरनुपशान्तमपरं दृष्ट्वाऽऽचार्य विज्ञपयति-क्षमाश्रमणाः ! उपशान्तोऽहम् परमेष ज्येष्ठार्योऽमुको वा नोपशाम्यति । तत आचार्यास्तस्य प्रज्ञापनार्थ परनिक्षेपं कुर्वन्ति । स च परनिक्षेपः 'अयं' वक्ष्यमाणो भवति ॥ २७१८ ॥ तमेवाह नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तदनमन्ने अ । [उ.नि. ३८५] आएस कम बहु पहाण भावओ उ परो होइ ॥ २७१९ ॥ 15 नामपरः स्थापनापरो द्रव्यपरः क्षेत्रपरः कालपरः । एते च द्रव्यपरादयः प्रत्येक द्विधा, तद्यथा-"तदन्नमन्ने य" ति तद्रव्यान्योऽन्यद्रव्यान्यश्च, तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्चेत्यर्थः । एवं तरक्षेत्रपरोऽन्यक्षेत्रपरश्च, तत्कालपरोऽन्यकालपरश्च । तथाऽऽदेशपरः क्रमपरो बहुपरः प्रधानपरो भावपरश्चेति दशधा मूलभेदापेक्षया परनिक्षेपो भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २७१९॥ अथास्या एवं भाष्यकारो व्याख्या कर्तुकामो नाम-स्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य ज्ञशरीर-भव्य20 शरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यपरं तावदाह परमाणुपुग्गलो खलु, तद्दव्यपरो भवे अणुस्सेव । अनद्दव्वपरो खलु, दुपएसियमाइणो तस्स ॥ २७२०॥ द्रव्यपरो द्विधा, तद्यथा-तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्च । तंत्र 'अणोः' परमाणु-( ग्रन्थानम्७००० । सर्वग्रन्थानम्-१९२२०) पुद्गलस्यापरः परमाणुपुद्गलः परतया चिन्त्यमानस्तद्रव्य25 परो भवति । 'तस्यैव' परमाणुपुद्गलस्य द्विप्रदेशिकादयः स्कन्धाः परतया चिन्स्यमाना अन्यद्रव्यपरा भवन्ति ॥२७२० ॥ एमेव य खंधाण वि, तद्दव्यपरा उ तुल्लसंघाया। जे उ अतुल्लपएसा, अणू य तस्सऽन्नदव्वपरा ॥ २७२१॥ 'एवमेव च' परमाणुपुद्गलवद् व्यणुकप्रभृतीनां स्कन्धानामपि ये 'तुल्यसङ्घाताः' परस्परं समा30 नप्रदेशसङ्ख्याकाः स्कन्धास्ते तद्रव्यपराः, ये पुनः 'अतुल्यप्रदेशाः' विसदृशप्रदेशसङ्ख्याकाः स्कन्धाः 'अणवश्च' एकाणुकास्ते सर्वेऽप्यन्यद्रव्यपरा भवन्ति । तद्यथा-व्यणुकस्कन्धो व्यणुकस्कन्धस्य तद्रव्यपरः, त्र्यणुकादयस्तु स्कन्धाः परमाणवश्च तस्यान्यद्रव्यपराः; एवं व्यणुकादयो तत्र परमाणुपुद्गलः खल्वपरस्य 'अणोरेव' परमाणुपुद्गलस्यैव परतया कां० ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७१८-२४] प्रथम उद्देशः । ७६७ ऽप्यनन्ताणुकपर्यन्ताः स्कन्धाः परस्परं तुल्यप्रदेशसङ्ख्याकास्तद्रव्यपराः, विसदृशप्रदेशसङ्ख्याकास्त्वन्यद्रव्यपरा मन्तव्याः, यावत् सर्वोत्कृष्टाणुको महास्कन्धः ॥ २७२१ ॥ - अथ क्षेत्र-कालपरौ प्रतिपादयति एगपएसोगाढादि खेलें एमेव जा असंखेज्जा । एगसमयाइठिइणो, कालम्मि वि जा असंखेजा ।। २७२२ ॥ 'क्षेत्रे' क्षेत्रविषयेऽपि परद्वारे चिन्त्यमाने 'एवमेव' तत्क्षेत्रपरा-ऽन्यक्षेत्रपरभेदेन पुद्गला एकप्रदेशावगाढादयोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढं यावद् द्रष्टव्याः । तद्यथा-एकप्रदेशावगाढः परमाणुः स्कन्धो वा एकप्रदेशावगाढस्य तत्क्षेत्रपरः, द्वित्रिप्रदेशावगाढादयः पुनस्तस्यान्यक्षेत्रपराः; तथा द्विप्रदेशावगाढः स्कन्धो- द्विप्रदेशावगाढस्य स्कन्धस्य तत्क्षेत्रपरः, एकव्यादिप्रदेशावगाढास्तु तस्यान्यक्षेत्रपराः; एवं विस्तरेण सर्वाऽवगाहना द्रष्टव्या । कालेऽप्येकसमयादिस्थितयः पुद्गला 10 यावदसङ्ख्येयसमयस्थितयस्तावत् तत्कालपरा-ऽन्यकालपरभेदाद्वक्तव्याः-तत्रैकसमयस्थितिकानां पुद्गलानामेकसमयस्थितिकास्तत्कालपराः, द्विव्यादिसमयस्थितिकाः पुनरन्यकालपराः; एवं यावदसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीगतासङ्ख्येयसमयस्थितिकानां पुद्गलानां तावत्सङ्ख्याकसमयस्थितिका एव तत्कालपराः, शेषास्त्वेकसमयस्थितिकादयः सर्वेऽप्यन्यकालपरा अवसातव्याः ॥ २७२२॥ अथादेशपरं व्याचष्टे-- 15 भोअण-पेसणमादीसु एगखित्तट्ठियं तु जं पच्छा। __ आदिसइ भुंज कुणसु व, आएसपरो हवइ एस ॥ २७२३ ॥ भोजन-प्रतीतं प्रेषणं-व्यापारणं तदादिषु कार्येषु कञ्चन पुरुषमेकस्मिन् क्षेत्रे स्थितमपि 'पश्चात्' पर्यन्ते आदिशति-यथा 'भुक्ष्व' भोजनं विधेहि, 'कुरु वा' कृष्यादिकर्म विधेहि, एष आदेशपरो भवति, आदेश:-आज्ञपनं तदाश्रित्य परः-पाश्चात्य आदेशपर इति व्युत्पत्तेः 20 ॥ २७२३ ॥ अथ क्रमपरमाह दव्वाइ कमो चउहा, दव्वे परमाणुमाइ जाऽणंतं । एगुत्तरवुड्डीए, विवड्डियाणं परो होइ ॥ २७२४ ॥ - क्रमः परिपाटीरित्येकोऽर्थः, तमाश्रित्य परः क्रमपरः । स चतुर्दा-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदात् । तत्र 'द्रव्ये' द्रव्यतः परमाणुमादौ कृत्वा अनन्तप्रदेशिकस्कन्धं यावदेकोत्तरप्रदेशवृद्ध्या 25 वर्धितानां पुद्गलद्रव्याणां यो यदपेक्षया परः स तस्माद् द्रव्यक्रमपरो भवति, तद्यथा-परमाणुपुद्गलाद् द्विप्रदेशिकस्कन्धः, द्विप्रदेशिकस्कन्धात् त्रिप्रदेशिकस्कन्धः, एवं यावदसङ्ख्येयप्रदेशिकस्कन्धादनन्तप्रदेशिकस्कन्धो द्रव्यक्रमपरः । क्षेत्रक्रमपरोऽप्येवमेव; नवरमेकप्रदेशावगाढा द्विप्रदेशावगाढः, द्विप्रदेशावगाढात् त्रिप्रदेशावगाढः, एवं यावत् सङ्ख्येयप्रदेशावगाढादसङ्ख्येयप्रदेशावगाढः क्षेत्रक्रमपरः । कालक्रमपरस्त्वेवम्-एकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकः, 36 द्विसमयस्थितिकात् त्रिसमयस्थितिकः, एवं यावत् सङ्ख्येयसमयस्थितिकादसङ्ख्येयसमयस्थितिकः १ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० एव वर्तते ॥ २ कारणेषु क° त० से. मो० ले.॥ ३°पर उच्यते, आदे° भा० ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [व्यवशमनप्रकृते सू० ३४ कालक्रमपरः । भावक्रमपरः पुनरेवम्-एकगुणकालकाद् द्विगुणकालकः, द्विगुणकालकात् त्रिगुणकालकः, एवं यावदसोयगुणकालकादनन्तगुणकालको भावक्रमपरः । एवं नील-लोहितहारिद्र-शुक्लरूपेषु शेषेष्वपि चतुर्पु वर्णपु, सुरभि-दुरभिलक्षणे च गन्धद्वये, तिक्त-कटु-कषायाऽम्ल-मधुरात्मके च रसपञ्चके, गुरु-लघु-मृदु-कठिन-स्निग्ध-रूक्ष-शीतोष्णलक्षणे च स्पर्शाष्टके ध्यथाक्रमं भावक्रमपरता मावनीया ॥ २७२४ ॥ अथ बहुपरं भावयति जीवा १ पुग्गल २ समया ३, दव्य ४ पएसा य ५ पजवा ६ चेव । थोबा १ गंता २ णंता ३, विसेसमहिया ४ दुवेऽणंता ५-६ ॥ २७२५ ॥ इह पूर्वार्द्ध-पश्चार्द्धपदानां यथाक्रम योजना कार्या । तद्यथा - 'जीवाः' संसारि-मुक्तभेदभिन्नास्ते सर्वस्तोकाः, जीवेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, पुद्गलेभ्यः समया अनन्तगुणाः, समयेभ्यो 10द्रव्याणि विशेषाधिकानि, द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणाः, प्रदेशेभ्यः पर्याया अनन्तगुणाः । उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ एएसि णं मंते ! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सवदवाणं सबपएसाणं सवपज्जवाण य कमरे कतरेहितो अप्म वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबथोवा जीवा, पोग्गला अणंतगुणा, अद्धासमया अणंतगुणा, सबदबा विसेसाहिया, सबपएसा अणंतगुणा, 15 सबपज्जवा अणंतगुणा (श० २५ उ० ३ सू० ७३३)। अत्रामीषामित्थमल्पबहुत्वे हेतुभावना भगवतीटीकायां वृद्धैरुपदर्शिताऽऽस्ते, अतस्तदर्थिना सैवावलोकनीया ॥ २७२५ ॥ अथ प्रधानपरमाह दुव्वे सचिचमादी, सचित्तदुपएसु होइ तित्थयरो। - सीहो चउप्पएसुं, अपयपहाणा बहुविहा उ ॥ २७२६ ॥ 20 प्रधान एव परः प्रधानपरः, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र 'द्रव्ये' द्रव्यतस्त्रिधा सचित्तादि, आदिशब्दाद् मिश्रोऽचित्तश्च । तत्र सचित्तप्रधानस्त्रिधा–द्विपद-चतुष्पदा-ऽपदभेदात् । तत्र द्विपदेषु तीर्थकरः प्रधानो भवति, चतुष्पदेषु सिंहः प्रधानो भवति, अपदेषु बहुविधाः सुदर्शनाभिधानजम्बूवृक्षप्रभृतयः पनसादयो वा प्रधानाः । अचित्तः प्रधानपरोऽनेकधा, तद्यथा-धातुषु सुवर्णम् , वस्त्रेषु चीनांशुकम् , गन्धद्रव्येषु गोशीर्षचन्दनमित्यादि । 25 मिश्रप्रधानपराणि तु सुवर्णकटकाद्यलङ्कृतविग्रहाणि तीर्थकरादिद्रव्याण्येव द्रष्टव्यानि ॥२७२६॥ भावप्रधानपरमाह वण्ण-रस-गंध-फासेसु उत्तमा जे उ भू-दग-वणेसु । मणि-खीरोदगमादी, पुष्फ-फलादी य रुक्खेसु ॥ २७२७ ॥ "वष्य-रस-गंध-फासेसु" ति तृतीयार्थे सप्तमी, ततो वर्णेन रसेन गन्धेन स्पर्शेन वा 374 वर्णादिलक्षणैर्भावैरित्यर्थः । ये 'भू-दक-वनेषु' पृथिवीकाया-ऽप्काय-वनस्पतिकायेषु उत्तमाने भावप्रधानपराः । तानेव पश्चा?नोदाहरति-"मणि-खीरोदग" इत्यादि । पृथिवीकायेषु १°ताऽस्ति अ° भा० कां०॥ २प्रधानपरो द्विधा-द्रव्य भा० ॥ ३ - एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथाः २७२५-३१] प्रथम उद्देशः । ७६९ पद्मराग- वज्र-वैडूर्यादिमणयः प्रधानाः, अप्कायेषु क्षीरोदकादिपानीयानि 'वृक्षेषु' वनस्पतिषु पुष्प - फलादीनि प्रधानानि ॥ २७२७ ॥ गतः प्रधानपरः । अथ भावपरो व्याख्यायते — भावः - क्षायोपशमिका दिस्तदपेक्षमा पर:भावान्तरवर्ती भावपरैः । स च इहौद किमावर्ती गृह्यते । तथा चाहआढणमभुवाणं, वंदण संभुंजणा य संवासो । या जो कुणई, आराहण अकुणओ नत्थि ।। २७२८ ।। अकसायं निव्वाणं, सव्वेहि वि जिणवरेहिँ पन्नत्तं । सो लब्भइ भावपरो, जो उवसंते अणुवसंतो ॥। २७२९ ॥ आदरो अभ्युत्थानं वन्दनं सम्भोजनं संवासश्चेत्येतानि पदानि य उपशान्तो भूत्वा करोति तस्याराधना अस्ति, यस्त्वेतानि न करोति तस्याराधना नास्ति । एतेन "जो उवसमइ तस्स 10 अस्थि आराहणा" इत्यादिकः सूत्रावयवो व्याख्यातः । अथ किमर्थमादरादिपदानामकरणे आराधना नास्ति ? इत्याह – 'अकषायं ' कषायाभावसम्भवि 'निर्वाण' सकलकर्मक्षयलक्षणं सर्वैरपि जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । अतो यः कश्चिदुपशान्तेऽपि साधावनुपशान्त आदरादिपदानामकणेन सकषायः स भावपरो लभ्यते, औदयिकभाववर्त्तित्वात् ॥ २७२८ ॥ २७२९ ॥ अथाचार्यस्तमुपशान्तसाधुं प्रज्ञापयन् प्रस्तुतयोजनां कुर्वन्नाह - सो वट्ट ओदइए, भावे तं पुण खओवसमियम्मि | जह सो तुह भावपरो, एमेव य संजम-तवाणं ॥ २७३० ॥ भोभद्र ! 'सः' द्वितीयः साधुरद्याप्यौदयिके भावे वर्त्तते', स्वं पुनः क्षायोपशमिके भावे वर्त्तसे । अतो यथाऽसौ 'तव' त्वदपेक्षया भावपरस्तथा संयम - तपोभ्यामप्ययं परः - पृथग्भूत इति । अतस्त्वया न काचित् तदीया चिन्ता विधेया ॥ २७३० ॥ द्वितीयपदे कुर्यादप्यधिकरणम्, यत आह १ °रः । अत्र चानेनैवाधिकारः, शेषास्तु शिष्यमतिविकाशनार्थे प्ररूपिताः । स च भावपरः इहौदयिक' भा० ॥ २ °ते, अतः स्वेच्छयाssदरादीनि पदानि कुर्याद्वा न वेति । स्वं कां 5 15 खेत्ताद कोविओवा, अनलविर्गिचट्टया व जाणं पि । अहिगरणं तु करेत्ता, करेज सव्वाणि वि षयाणि ॥ २७३१ ॥ क्षिप्तचित्तः आदिशब्दाद् दृप्तचित्तो यक्षाविष्टो वा अनात्मवशत्वादधिकरणं कुर्यात् । 'अकोविदो वा' अद्याप्यपरिणतजिनवचन: शैक्षः सोऽप्यज्ञत्वादधिकरणं विदध्यात् । मद्वा 'जान - 25 न्नपि' गीतार्थोऽपीत्यर्थः अनलस्य - प्रव्रज्याया अयोग्यस्य नपुंसकादेः कारणे दीक्षितस्य तत्कारपरिसमाप्तौ विवेचनार्थं - परिष्ठापनाय तेन सहाधिकरणं करोति, कृत्वा चाधिकरणं सर्वाण्यप्यनादरादीनि पदानि कुर्यात् ॥ २७३१ ॥ ॥ व्यवशमनप्रकृतं समाप्तम् ॥ 20 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चारप्रकृते सूत्रम् ३५ चा र प्रकृतम् 15 सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासासु चारए ३५॥ अस्य सम्बन्धमाह अहिगरणं काऊण व, गच्छइ तं वा वि उवसमेउं जे । . पुव्वं च अणुवसंते, खामेस्सं वयइ संबंधो ॥ २७३२ ॥ अधिकरणं कृत्वा वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः कषायानुबद्धमना अन्यत्र ग्रामादौ गच्छति । यद्वा 'तत्' अधिकरणमुत्पन्नं श्रुत्वा कश्चिद् धर्मश्रद्धावान् तदुपशमयितुमागच्छति । “जे"10 शब्दः पादपूरणे । यदि वा पूर्वमनुपशान्तः सन्नन्यत्र ग्रामादौ गतः, तत्र च स्वयमन्योपदेशेन वा 'क्षमयिष्याम्यहं तं साधुम्' इतिपरिणाममुपगतो भूयस्तत्रैव ग्रामे व्रजति । तच गमनमनेन सूत्रेण वर्षासु प्रतिषिध्यत इत्ययं पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्य सम्बन्धः ॥ २७३२ ॥ अमुमेव तृतीयसम्बन्धप्रकारं व्याख्याति अहवा अखामियम्मि त्ति कोइ गच्छेज्ज ओसवणकाले। सुभमवि तम्मि उ गमणं, वासावासासु वारेइ ॥ २७३३ ॥ अथवाऽनुपशान्त एवान्यत्र गतः, तत्र च वर्षासु पर्युषणाकाले समायाते सति 'अधिकरणं मया न क्षमितम् , अतः कथं मे सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं विधीयमानं शुद्धिमेष्यति ?' इति परिभाव्य यत्र द्वितीयः साधुश्चतुर्मास्यां स्थितोऽस्ति तत्राधिकरणं क्षमयितुं कश्चिद् गच्छति, तच्च तदीयं तत्र गमनं शुभमपि वर्षवर्षासु अनेन सूत्रेण वारयतीति ॥ २७३३ ॥ 20 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षांपलक्षिता वर्षा वर्षवर्षास्तासु 'चरितुं' "चर गति-भक्षणयोः” इति धातुरत्र गत्यर्थो गृह्यते, ग्रामानुग्रामं पर्यटितुमित्यर्थः । यद्वा भक्षणार्थोऽप्यत्र गृह्यते, तथाहि-भक्षणं-समुद्देशनं तच्च यथा ऋतुबद्धे साधूनां तथा वर्षासु कर्तुं न कल्पते, तदानीं हि चतुर्थभक्तादिप्रत्याख्यानपरायणैर्भवितव्यम् , विकृतीनां चाभीक्ष्णं ग्रहणं न कर्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः वासावासो दुविहो, पाउस वासा य पाउसे गुरुगा। वासासु होति लहुगा, ते च्चिय पुण्णे अणितस्स ।। २७३४ ॥ वसन्ति-एकत्र ग्रामादौ तिष्ठन्ति लोकाः प्रायोऽस्मिन्निति वासः, वर्षा एव वासो वर्षावासः । स द्विधा-प्रावृड् वर्षारात्रश्च । तत्र श्रावण-भाद्रपदमासौ प्रावृडुच्यते, अश्विन-कार्तिको तु वर्षारात्रः । आह च चूर्णिकृत् १ एतन्मध्यगः पाठः कां• एव वर्त्तते ॥ २ °सु ओसवणं-कषायाणां व्यवशमनं तस्य कालः पर्युषणापर्वसमय इत्यर्थः तस्मिन् समायाते कां ॥ 26. For Private & Personal use only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७३२-३७] प्रथम उद्देशः । ७७१ पाउसो सावणो भद्दवओ अ, वासारत्तो अस्सोओ कत्तियओ अत्ति । विशेषचूर्णिकृत् पुनराह___पाउसो आसाढो सावणो अ, वासारत्तो भद्दवओ अम्सोओ अ ति । » तत्र यदि प्रावृषि ग्रामानुग्रामं चरन्ति तदा चतुर्गुरुकाः, वर्षासु विचरतश्चतुर्लघुकाः, 'त एव' चत्वारो लघुकाः पूर्णे वर्षाराने 'अनिर्यतः' अनिर्गच्छतः प्रायश्चित्तम् ।। २७३४ ॥ तत्र प्रावृषि विहरतस्तावद् दोषानाह वासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ २७३५ ॥ ___ इह वर्षावासः श्रावणो भाद्रपदश्चाभिधीयते, तत्र विहारं कुर्वतश्चत्वारो मासाः 'अनुद्धाताः' गुरवः प्रायश्चित्तं भवति, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया ॥२७३५।। 10 तामेव भावयति छकायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु । वुभण अभिहण रुक्खोल्ल, सावय तेणे गिलाणे य ॥ २७३६ ॥ वर्षासु विहरतः षट्कायानां विराधना । तथा 'आपतनं' वर्षे निपतति वर्षाकल्पादितीमनभयाद् वृक्षादेरधस्तिष्ठतस्तदीयशाखादिना शिरस्यभिघातो भवेत् ; यद्वा 'आपतनं' कर्दमपि-15 च्छिले पथि स्खलनम् । विषमे वा भूप्रदेशे निपतेत् । 'स्थाणुः' कीलकः सः । कर्दमे जले वाऽदृश्यमानः पादयोरास्फलेत् । कण्टकैर्वा पादतले विध्येत् । उदकवाहेन वा गिरिनद्या वा 'वाहनम्' उरिक्षप्यान्यत्र नयनं भवेत् । तथा गिरिनदीतटिकया मार्गे गच्छतोऽभिघातो भवेत् । “रुक्खोल्ल" ति यद्यार्दीकरणभयाद् वृक्षमालीयते, स च वृक्षः प्रबलवातप्रेरिततया पतेत् तत्रात्म-संयमविराधना । तथा यस्य वृक्षस्याधस्तिष्ठति तस्योपरि चित्रकादिकः श्वापद 20 आरूढो भवेत् तेनानागाढमागाढं वा परिताप्येत । "तेणे'' त्ति अवहमानेषु मार्गेषु द्विविधाः स्तेना विश्वस्ताः सञ्चरेयुः, तैरुपधेर्वा तस्य वा साधोरपहारः क्रियेत; अकाले वा परिभ्रमन् स्तेनक इति शयेत । “गिलाणे" त्ति तीमितेनोपधिना प्रात्रियमाणेन भक्तेऽजीर्यमाणे ग्लानो भवेत् । एवमापतनादिप्वात्मविराधना संयमविराधना वा या यत्र सम्भवति सा तत्र योजनीया ॥ २७३६ ॥ अथ पट्कायविराधनां व्याख्यानयति अक्खुन्नेसु पहेसुं, पुढवी उदगं च होइ दुहओ वि । उल्लपयावण अगणी, इहरा पणगो हरिय कुंथू ।। २७३७ ।। अक्षुण्णाः-अमर्दिताः पन्थानः प्रावृषि भवन्ति, तेपु विहरन् पृथ्वीकायं विराधयति । तथा 'द्विविधमपि' भौमा-ऽन्तरिक्षभेदाद् द्विप्रकारमप्युदकं तदा सम्भवति ततोऽप्कायविराधना । वर्षेण आर्दीभूतमुपधिं यद्यमिना प्रतापयति तदाऽग्निविराधना । यत्राग्निस्तत्र वायुरवश्यं भवतीति 30 १ - एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ २ °तस्तस्य दोषा भा० कां. विना ॥ ३°लनम् , फिलसनकमित्यर्थः । “विसमें"ति विष° कां । "आवडणं फेल्लसणं अप्फिडितं वा" इति चूर्णी ॥ ४ - एतचिह्नगतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ 25 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चारप्रकृते सूत्रम् ३५ वायुविराधनाऽपि । 'इतरथा' यद्युपधिं न प्रतापयति तदा पनकः सम्मूर्च्छति, तत्संसक्तं चोपधिं प्रावृण्वतः परिदधतः प्रत्युपेक्षमाणस्य वाऽनन्तकायसङ्घट्टनादिनिप्पन्नं प्रायश्चित्तम् ; 'हरितानि वा' दूर्वादीनि तदानीमचिरोद्गतानि निरन्तराणि च भवेयुः ततो वनस्पतिविराधना । अप्रत्युपेक्षमाणे उपधौ कुन्थुप्रभृतयो जन्तवः सम्मूर्च्छन्ति, मार्गे गच्छतामिन्द्रगोप5 शिशुनाग-कुत्तिकादयस्त्रसप्राणिनो बह्वो भवन्ति ततस्त्रसकायविराधना । एवं षण्णामपि कायानां विराधना यतः प्रावृषि विहरतां भवति अतो न विहर्त्तव्यम् । द्वितीयपदे विहरेदपि ॥ २७३७ ॥ कथम् ? इत्याह असिवे ओमोयरिए, रायहढे भए व गेलने । . आवाहाईएसु व, पंचसु ठाणेसु रीइजा ॥ २७३८ ॥ 10 'अशिवे' र अशिवगृहीतेषु प्रभूतेषु कुलेषु असंस्तरन्नन्यत्र गच्छेत् । - परपक्षतो वा अवमौदर्ये सञ्जाते सति असंस्तरन् गच्छेत् । राजद्विष्टे विराधनाभयाद् गच्छति । 'भये वा' बोधिक-स्तेनसमुत्थे 'यद्यमी मां द्रक्ष्यन्ति ततोऽपहरिष्यन्ति' इति मत्वा गच्छति । ग्लानो वा कश्चिदन्यत्र सञ्जातस्तस्य प्रति चरणार्थं गच्छति । आबाधादिषु वा पञ्चसु स्थानेषूत्पन्नेषु प्रावृष्यपि 'रीयेत' ग्रामान्तरं गच्छेत् ॥ २७३८ ॥ तान्येवाबाधादीनि स्थानानि दर्शयति आवाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाह वा दओहंसि । पव्वहणे व परेहिं, पंचहिँ ठाणेहि रीइज्जा ॥ २७३९ ॥ आवाधं नाम-मानसी पीडा, भयं-स्तेनादिसमुत्थम् , दुर्भिक्षं-प्रतीतम् , एतेषु समुत्पन्नेषु, अथवा 'दकौघे' पानीयप्रवाहेण प्रतिश्रये ग्रामे वा व्यूढे सति, 'परैर्वा' प्रत्यनीकैर्दण्डिकादिभिः 'प्रव्यथने' परिभवे ताडने वा विधीयमाने, एतेषु पञ्चसु स्थानेषु प्रावृष्यपि रीयेत ॥२७३९॥ एतं तु पाउसम्मी, भणियं वासासु नवरि चउलहुगा । ते चेव तत्थ दोसा, विइयपदं तं चिमं वऽन्नं ॥ २७४० ॥ 'एतद्' अनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तं दोषजालं द्वितीयपदं च प्रावृषि भणितम् । अथ 'वर्षासु' वर्षारात्रेऽश्विन-कार्तिकरूपे चरति ततश्चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । 'त एव च' तत्र विहरतः षट्कायविराधनादयो दोषाः, तदेव च द्वितीयपदम् । इदं वा 'अन्य' अपरं द्वितीयपदमभि25 धीयते ॥ २७४० ॥ असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने । नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा ॥ २७४१॥ अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये वा ग्लानकारणे वा समुत्पन्ने वर्षासु ग्रामान्तरं गच्छेत् , एतावत् प्रागुक्तमेव द्वितीयपदम् । अथेदमपरमुच्यते-ज्ञानादित्रयस्यार्थायान्यत्र वर्षासु गच्छेत् । 30 तत्रापूर्वः कोऽपि श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याचार्यस्य विद्यते, स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामो वर्तते, स च श्रुतस्कन्धस्तत आचार्यादगृह्यमाणो व्यवच्छिद्यते, अतस्तदध्ययनार्थं वर्षाखपि गच्छेत् । एवं १ > एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ २°च्छेदिति भावः ॥ भा० ॥ ३'षि श्रावण-भाद्रपदरूपायां विहरतां भणि° कां० ॥४ान्न गृह्यते ततो व्यव° भा० ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७३८-४४] प्रथम उद्देशः । ७७३ दर्शनप्रभावकशास्त्राणामप्यध्ययनार्थ गच्छेत् । चारित्रार्थ नाम-तत्र क्षेत्रे स्त्रीसमुत्थदोषरेषणादोपैर्वा चारित्रं न शुध्यतीति तन्निमित्तमन्यत्र वर्षासु गच्छेत् । “वीसुंभण" ति 'विष्कम्भनं' मरणम् , तत्र यस्याचार्यस्य ते शिष्याः स आचार्यो मरणधर्ममुपगतः, तस्मॅिश्च गच्छेऽपर आचार्यों न विद्यते, अतस्ते वर्षास्वपि अन्यं गणमुपसम्पत्तुं गच्छेयुः । अथवा “वीसुंभण" त्ति 'विष्वग्भवनं नाम' कश्चिदुत्तमार्थ प्रतिपत्तुकामस्तस्य विशोधिकरणार्थं गच्छेत् । “पेसणेणं व" । त्ति कश्चिदाचार्येणान्यतरस्मिन् औत्पत्ति के कारणे वर्षावपि प्रेषितो भवेत् , स च तस्मिन् कारणे समापिते भूयोऽपि गुरूणां समीपे समागच्छेत् ।। २७४१ ॥ अथवेदं द्वितीयपदम् आऊ तेऊ वाऊ, दुब्बल संकामिए अ ओमाणे । पाणाइ सप्प कुंथू , उट्ठण तह थंडिलस्सऽसती ।। २७४२ ॥ अप्कायेन वसतिः प्लाविता भवेत् स्थण्डिलानि वा व्यूढानि, अग्निकायेन वा प्रतिश्रयो 10 ग्रामो वा दग्धः, “वाऊ” इत्ति वातेन वा तत्र वसतिर्भमा, “दुबल" त्ति वर्षेण तीम्यमाना वसतिः 'दुर्वला' पतितुकामा सजाता, “संकामिए य" ति स ग्रामो धिग्जातीयादेः कस्यापि प्रत्यनीकस्य सङ्क्रामितः-दत्त इत्यर्थः, अथवा “संकामिए य" ति तानि श्राद्धकुलान्यन्यत्र ग्रामे सङ्क्रामितानि, “ओमाणे" त्ति इन्द्रमहादिषु बहवः पाण्डुराङ्गप्रभृतय आगतास्तैरवमानं सञ्जातम् , 'प्राणादिभिर्वा' मर्कोटकोद्देहिकादिभिर्वसतिः संसक्ता भवेत् , सर्पो वा वसतौ समागत्य 15 स्थितः, अनुद्धरिनामकैर्वा कुन्थुजीवैर्वसतिः संसक्ता समजायत, ग्रामो वा सकलोऽपि 'उत्थितः' उद्वसीभूतः, 'स्थण्डिलस्य वा' विचारभूमिलक्षणस्य हरितकायादिभिरभावः समजनि, एवमादिकस्तत्र व्याघातो भवेत् ॥ २७४२ ॥ अत एव ते साधवः प्रागेवामुं विधिं विदधति मूलग्गामे तिनि उ, पडिवसभेसु पि तिन्नि वसहीओ । ठायंता पेहिंति उ, वियार-वाघायमाइट्ठा ।। २७४३ ॥ __ मूलग्रामो नाम-यत्र साधवः स्थिताः सन्ति तस्मिन् तिस्रो वसतीः प्रत्युपेक्षन्ते । प्रतिवृषभग्रामा नाम-येषु भिक्षाचर्यया गम्यते तेष्वपि प्रत्येकं तिस्रो वसतीस्तिष्ठन्त एवं प्रत्युपेक्षन्ते । किमर्थम् ? इत्याह-मूलगामे यदि विचारभूमेर्वसतेर्वा व्याघातो भवति ततस्तेषु प्रतिवृषभनामेषु तिष्ठन्ति ॥ २७४३ ॥ तत्राप्कायादिव्याघाते समुत्पन्ने यतनामाहउदगा-ऽगणि-वायाइसु, अन्नस्सऽसतीइ थंभणुद्दवणे । 25 संकामियम्मि भयणा, उट्ठण थंडिल्ल अन्नत्थ ॥ २७४४ ॥ उदकेन वा अमिना वा वातेन वा आदिशब्दात् त्रसप्राणादिजन्तुसंसक्त्या वा व्याघाते समुत्पन्नेऽन्यस्यां वसतौ तिष्ठन्ति । अथ नास्त्यन्या वसतिस्तत उदका-ऽमि-वातान् स्तम्भनी १°वनमुच्यते, तच्च जीवाच्छरीरस्य पृथग्भवनम् , तत्र प्रत्यासन्नीभूते सति कश्चिदुत्त का० ॥ २ द्वितीयपदमाह इत्यवतरणं भा० ॥ ३ तानि निधाकुलान्य° भा० कां० । “अधवा 'संकामिते य' तिणीसाघराणि अण्णम्मि गामे संकंताणि ।" इ ४ वा' प्राशुकविचा कां. ॥ ५ वर्षावासे तिष्ठन्तः प्रथमत एव तिस्रो कां ॥ ६ °च प्रथमतः 'प्रेक्षन्ते' प्रत्यु' कां० ॥ 20 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चारप्रकृते सूत्रम् ३६ विद्यया स्तनन्ति । यत्र च सर्पः समागत्य तिष्ठति तत्र तस्य सर्पस्य 'अपद्रावणं' विद्ययाऽन्यत्र नयनं कुर्वन्ति । यत्र च ग्रामस्वामी कुलानि वा अन्यानि सङ्क्रान्तानि तत्र भजना कर्तव्यायदि स ग्रामखामी कुलानि वा भद्रकाणि ततस्तत्रैव तिष्ठन्ति, अथ प्रान्तानि ततोऽन्यत्र गच्छन्ति । अथासौ ग्राम उत्थितः स्थण्डिलानां वा व्याघातः समजायत ततोऽन्यत्र ग्रामे 5 गच्छन्ति ॥ २७४४ ॥ अवमान-दुर्बलशय्ययोर्यतनामाह इंदमहादी व समागतेसु परउत्थिएसु य जयंति । पडिवसभेसु सखित्ते, दुब्बलसेन्जाए देसूणं ॥ २७४५ ॥ इन्द्रमहोत्सवादौ वा बहुषु परतीर्थिकेषु समागतेषु खक्षेत्रे ये प्रतिवृषभप्रामास्तेषु अन्तरपल्लिकासु च भिक्षाग्रहणाय यतन्ते । अथ तेष्वपि न संस्तरन्ति ततोऽन्यत्र गच्छन्ति । 'दुर्बल10 शय्यायां' वर्षेण तीम्यमानतया वसतौ दुर्बलायां सञ्जातायां स्थूणां दद्यात् ॥ २७४५ ॥ अथ वसतिप्रमार्जने विधिमाह दोन्नि उ पमजणाओ, उडुम्मि वासासु तइय मज्झण्हे । वसहिं बहुसों पमजेण, अइसंघट्टऽन्नहिं गच्छे ॥ २७४६ ॥ वसतेरष्टसु ऋतुबद्धमासेषु द्वे प्रामार्जने कर्तव्ये, तद्यथा-पूर्वाहेऽपराह्ने च । वर्षासु पुनस्तृ15 तीया प्रमार्जना मध्याह्ने विधेया । अथ कुन्थुप्रभृतिभिस्त्रसप्राणैः संसक्ता वसतिस्तत ऋतुबद्धे वर्षावासे च यथोक्तप्रमाणादतिरिक्तमपि बहुशः प्रमार्जनं कुर्यात् । अथ बहुशः प्रमार्जने त्रसप्राणानामतीव सङ्घट्टो भवति अतिबहवो वा त्रसास्ततोऽन्यत्र ग्रामे गच्छेयुः ॥ २७४६ ॥ गच्छतां च मार्गे यतनामाह उत्तण ससावयाणि य, गंभीराणि य जलाणि वजेंता । तलियरहिया दिवसओ, अन्भासतरे वए खेत्ते ॥ २७४७ ॥ __'उत्तॄणानि नाम' ऊर्धीभूतानि तृणानि दीर्घाणीति यावत् तानि यत्र मार्गे भवन्ति, 'सश्वा. पदानि च' सिंह-व्याघ्रादिश्वापदोपेतानि यत्र तृणानि भवन्ति, 'गम्भीराणि च' अस्ताघानि जलानि यत्र भवन्ति, तान् मार्गान् वर्जयन्तः 'तलिकारहिताः' अनुपानका दिवसतो गच्छन्ति न रात्रौ । यच्चाभ्यासतरम्-अतिप्रत्यासन्नं क्षेत्रं तत्र व्रजन्ति ॥ २७४७ ॥ 25 सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंत-गिम्हासु चारए ३६ ॥ अस्य सम्बन्धमाह१ 'स्वक्षेत्रे' सक्रोशयोजनप्रमाणे ये प्रति का० ॥ २ जह, अइ° ता० ॥ ३ एतदने ग्रन्थानम्-३५०० इति मो० ले० ॥ ४ एवमादौ कारणे वर्षास्वप्यन्यं ग्रामं गच्छतां मार्गे का ॥ ५ उद्-ऊोभूतानि दीर्घाणीति यावद् यानि तृणानि तानि उत्तृणानि उच्यन्ते, तानि च यत्र मार्गे भवन्ति तेन न गच्छन्ति । 'सश्वा भा० ॥ 20 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७४५-५० ] प्रथम उद्देशः । दुस्संचर बहुपाणादि काउ वासासु जं न विहरिंसु । तस्स उ विवजयम्मी, चरंति अह सुत्तसंबंधो ॥ २७४८ ॥ वर्षासु कर्दमाकुलतया दुःसञ्चरं बहुप्राण-हरितादिसङ्कुलं वा मेदिनीतलं भवतीति कृत्वा यत् तदानीं न विहृतवन्तः, तत एव 'तस्य' वर्षावासस्य 'विपर्यये' ऋतुबद्धे काले सुसञ्चरमल्पप्राणजातीयं वा मत्वा 'चरन्ति' ग्रामानुग्रामं विहरन्ति । 'अथ' एष पूर्वसूत्रेण सहास्य : सूत्रस्य सम्बन्ध इति ॥ २७४८॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्त-ग्रीष्मयोरष्टसु ऋतुबद्धमासेषु 'चरितुं' ग्रामानुग्रामं पर्यटितुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरःपुण्णे अनिग्गमें लहुगा, दोसा ते चेव उग्गमादीया। 10 दुबल-खमग-गिलाणा, गोरस उवहिं पडिच्छंति ॥ २७४९ ॥ यदि पूर्ण वर्षावासे ततः क्षेत्रान्न निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो लघुकाः । त एव चोद्गमाशुद्धिस्त्रीसमुत्थादयो दोषा ये मासकल्पप्रकृते (गा० २०२७) दर्शिताः । अपरे चामी दोषाः-- "दुब्बल'' इत्यादि । ये साधव आचाम्लेन 'दुर्बलाः' कृशीभूतशरीरास्ते 'कदा वर्षावासः पूरिप्यते ?' इत्येवं निर्गमनं प्रतीक्षमाणा यत् परितापनादिकमवाप्नुवन्ति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । 15 क्षपका वा विकृष्टतपोनिष्टप्तवपुषो निर्गमनं प्रतीक्षन्ते; ग्लानो वा अधुनोत्थितो दुःखं तत्र तिष्ठति, चतुर्मासादूर्द्धमप्यवस्थानेन क्षेत्रस्य चमढिततया तथाविधपथ्याद्यभावात् ; गोरसधातुको वा कश्चित् सिन्धुदेशीयः प्रव्रजितः सोऽपि गोरसाभावान्न तत्र स्थातुं शक्नोति; उपधिर्वा पूर्वगृहीतः परिक्षीणोऽतस्तमभिनवमुत्पादयितुं साधवो निर्गमनं प्रतीक्षन्ते; ततस्तेन विना यत् परिताप्यन्ते तन्निष्पन्नमनिर्गच्छतां प्रायश्चित्तम् ॥ २७४९ ॥ अथ निर्गच्छन्ति ततः किं भवति ? इत्याह एए न होंति दोसा, बहिया सुलभं च भिक्ख उवही य । __ भवसिद्धिया उ वाणा, बिइयपय गिलाणमादीसु ॥ २७५० ॥ २ वर्षावासे पूर्णे - निर्गच्छताम् 'एते' अनन्तरोक्ता दोषा न भवन्ति । 'बहिश्च' बहिर्यामेष विहरतां भैक्षं सुलभं भवति, तेन च दुर्बल-क्षपकादीनामाप्यायना स्यात् । उपधिश्च बहिः, प्राप्यते । भवसिद्धिकाश्च सत्त्वा बोधमासादयन्ति । केचिद्वा तदानीमाचार्याणां दर्शनमभिलषन्ति तेषां सर्वविरत्यादिप्रतिपत्तिः । आज्ञा च भगवतां तीर्थकृतां कृता भवति। यत एवमतो र वर्षावासानन्तरं - निर्गन्तव्यम् । द्वितीयपदे ग्लानादिषु कारणेषु न निर्गच्छन्ति, आदिशब्दादवमौदर्यादिपरिग्रहः । अत्र च यतना यथा मासकल्पप्रकृते "चउभाग तिभागऽद्धे, १°णजातीयसङ्क भा० ॥ २°णः, बहिश्च तेषु दिवसेषु सुलभोऽसौ पश्चाद् दुर्लभो भवति, ततस्तेन विना भा० । "उवधी वा पुव्वगहितो परिक्खीणो, बहिता य तेहिं दिवसेहिं सुलभो पच्छा दुल्लभो, जं तेण विणा पाविहिंति तण्णिफणं ।" इति चूर्णी ॥ ३-४ एतन्मध्यगतः पाठः कां. एव वर्तते ॥ 20 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ चारप्रकृते सूत्रम् ३६ जयंतऽनिच्छे अलंभे वा ।" (गा० २०२८) इत्यादिना दर्शिता तथैव द्रष्टव्या ॥२७५० ।। ___ तम्हा उ विहरियव्वं, विहिणा जे मासकप्पिया गामा । छड्डेइ बंदणादी, तइ लहुगा मग्गणा पत्था ॥ २७५१ ॥ यदि ग्लानादिकारणं न स्यात् ततोऽवश्यं विधिना मासकल्पप्रकृतोक्तेन (गा० १४८०) 5 ये मासकल्पप्रायोग्या ग्रामास्तेषु विहर्त्तव्यम् । अथ मासकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि 'चैत्यवन्दनादिभिः' वक्ष्यमाणैः कारणैः छर्दयति तदा यावन्ति क्षेत्राणि परित्यज्य गच्छति तावन्ति चतुर्लघुकानि । “मग्गणा पत्थ" त्ति द्वितीयपदे मासकल्पप्रायोग्यक्षेत्राणामपि परित्यागे ये गुणास्तेषां 'मार्गणा' अन्वेषणा 'पथ्या' हिता ॥२७५१॥ अथ वन्दनादीन्येव कारणानि प्रतिपादयति आयरिय साहु वंदण, चेइय नीयल्लए तहा सन्नी । . गमणं च देसदसण, वइगासु य एवमाईणि ॥२७५२।। [नि.भा. १०५५] आचार्याणां साधूनां चैत्यानां वा वन्दनार्थ गच्छति । 'निजकाः' संज्ञातकाः संज्ञिनः' श्रावकास्तेषामुभयेषामपि दर्शनार्थ देशदर्शनार्थं वा गमनं करोति । वजिकासु वा 'क्षीरादिकं लप्स्येऽहम्' इति कृत्वा गच्छति । एवमादीनि' कारणानि मासकल्पयोग्यक्षेत्रं परित्यजन्नवल. म्बते ।। २७५२ ।। अथामून्येव व्याख्यानयति अप्पुव्य विवित्त बहुस्सुया य परियारवं च आयरिया। परियारवज साहू, चेइय पुव्वा अभिनवा वा ॥२७५३॥ [नि.१०५६] गाहिस्सामि व नीए, सण्णी वा भिक्खुमाइ बुग्गाहे ।। बहुगुण अपुव्य देसो, वइगाइसु खीरमादीणि ॥२७५४।। [नि.१०५७] 'अपूर्वाः' अदृष्टपूर्वाः 'विविक्ताः' निरतिचारचारित्राः 'बहुश्रुता नाम' युगप्रधानागमा 20 विचित्रश्रुता वा 'परिवारवन्तश्च' बहुसाधुसमूहपरिवृताः, एवंविधा आचार्या अमुकत्र नग. रादौ तिष्ठन्ति तानहं वन्दिष्ये । साधवोऽप्येवंविधगुणोपेता एव, नवरं परिवारवर्जास्ते भवन्ति । चैत्यानि 'पूर्वाणि वा' चिरन्तनानि जीवन्तस्वामिप्रतिमादीनि 'अभिनवानि वा तत्कालकृतानि, 'एतानि ममादृष्टपूर्वाणि' इति बुद्ध्या तेषां वन्दनाय गच्छति ॥ २७५३ ॥ ___ तथा 'निजकान् वा' संज्ञातकान् ‘ग्राहयिष्यामि' बोधयिष्यामीत्यर्थः, 'संज्ञिनो वा' श्राव25 कान् 'भिक्षुकादिः' तच्चन्निक-परिव्राजकादिपरपाषण्डी व्युराहयति तेषां स्थिरीकरणार्थम् , देशो वा 'बहुगुणः' सुलभभैक्षतादिगुणोपेतोऽपूर्वश्च वर्तते, वजिकायां-गोकुले आदिशब्दात् प्रचुरद्रव्यपतिप्रामादिषु वा क्षीर-दधि-घृता-ऽवगाहिमादीनि लभ्यन्ते, एवमादिभिः कारणैर्मासकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि परित्यजति ॥ २७५४ ॥ अत्र दोषान् दर्शयति अद्धाणे उव्वाता, भिक्खोवहि साण तेण पडिणीए । ओमाण अभोज घरे, थंडिल असतीइ जे जत्थ ॥२७५५।। [नि.१०५८] ते साधवोऽध्वनि व्रजन्तः 'उद्वाताः' परिश्रान्ताः सन्तश्चिन्तयन्ति-अप्रै ग्रामे गुरवः १°नि अपुष्टालम्बनरूपाणि कार' का० ॥ २ अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्या का० ॥ ३जीवितखा त० हे.॥ ४°त्र स्थाने गु° भा० ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७७७ भाष्यगाथाः २७५१-५७ ] प्रथम उद्देशः । स्थास्यन्ति । आचार्याश्च तं ग्रामं व्यतीत्याग्रतो गताः, ततस्ते छिन्नायामाशायां वजन्तो यदनागाढमागाढं वा परिताप्यन्ते तन्निष्पन्नं सूरीणां प्रायश्चित्तम् । भैक्षं वा तत्र स्फिटितायां वेलायां न प्राप्येत, अत्यन्तपरिश्रान्ता वा मार्ग एवोपधि परित्यजेयुः । अकाले च पर्यटतां श्वान उपद्रवं कुर्युः, स्तेना वा तेषामुपधिं तानेव वाऽपहरेयुः, प्रत्यनीको वा तदानीं विजनं मत्वा हन्याद्वा मारयेद्वा, अवमानं वा स्वपक्षतः परपक्षतो वा भवेत् , 'अभोज्यगृहेषु वा' रजकादिसम्बन्धिषु । भिक्षां गृह्णीयुः तत्रैव वा तिष्ठेयुः, ततश्च प्रवचनविराधना । स्थण्डिलानि वा तत्र न भवेयुः, तेषामभावे संयमात्मविराधना । एवं ये यत्र दोषाः सम्भवन्ति ते तत्र योजयितव्याः ॥२७५५॥ अथ द्वितीयपदमाह बिइयपए असिवाई, उवहिस्स उ कारणा व लेवो वा।। बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियाई व आगाढे ॥ २७५६ ॥ द्वितीयपदेऽशिवादीनि कारणानि विज्ञाय व्यतिव्रजेयुरपि । तत्र यदपान्तराले क्षेत्रं तदशिवगृहीतम् , आदिशब्दादवमौदर्य-राजद्विष्टादिदोषयुक्तं खाध्यायो वा तत्र न शुध्यतीत्यादिपरिग्रहः । उपधिः-वस्त्र पात्रादिरूपस्तत्र न लभ्यते, पुरोवर्तिनि तु ग्रामादौ लभ्यते, अतस्तस्य कारणात् । लेपो वा अग्रतोवर्तिनि प्रामे लभ्यते न तत्र । गच्छस्य वा बहुगुणतरं तत् क्षेत्रम् , श्वान-प्रत्यनीकाद्यभावाद् भिक्षात्रयवेलासद्भावाच्च । आचार्यादीनां वा प्रायोग्यं तत्र विद्यते; यद्वा 15 "आयरियाई व" ति सम्यक्त्वं ग्रहीतुकामाः केचिदाचार्याणां दर्शनं काहन्ति; आदिशब्दात् परप्रवादी वा कश्चिदुद्धोषणां कारयेत् , यथा- शून्याः परप्रवादा इत्यादि; ते चाचार्या वादलब्धिसम्पन्नाः अतस्तन्निग्रहार्थं गच्छेयुः । “आगाढे" ति आगाढयोगवाहिनां वा प्रायोग्यमर्वाग् न प्राप्यते, परस्मिन् प्रामे तु प्राप्यते । यद्वा आगाढं सप्तधा, तद्यथा-द्रव्यागाढं क्षेत्रागाढं कालागाढं भावागाढं पुरुषागाढं चिकित्सागाढं सहायागाढम् । तत्र द्रव्यागाढमेषणीयं द्रव्यं तत्र 20 न लभ्यते । क्षेत्रागाढं नाम तदतीव खलु(खुल)क्षेत्रम् , खल्पभैक्षदायकमित्यर्थः । कालागाढं तत् क्षेत्रं न ऋतुक्षमम् । भावागाढं ग्लानादिप्रायोग्यं तत्र न लभ्यते । पुरुषागाढमाचार्यादिपुरुषाणां तदकारकम् । चिकित्सागाढं वैद्यास्तत्र न प्राप्यन्ते । सहायागाढं सहायास्तत्र न सन्तीति ॥ २७५६ ॥ एएहि कारणेहिं, एक-दुगंतर तिगंतरं वा वि। संकममाणो खेत्तं, पुट्ठो वि जओ नऽइकमइ ॥ २७५७॥ 'एतैः' अशिवादिभिः कारणैरेकं वा द्वे त्रीणि वा अपान्तरालक्षेत्राण्यतिक्रम्यापरं क्षेत्र सङ्कामन् पूर्वोक्तैर्देषैिः स्पृष्टोऽपि न दोषवान् भवति । 'यतः' यस्मात् तीर्थकराज्ञामसौ नातिकामति, यद्वा 'यतो नाम' यतनायुक्तः ॥ २७५७ ॥ १ ग्रामं मासकल्पयोग्यमपि व्यती कां० ॥ २०६ः, अतस्तं ग्रामं व्यतीत्याग्रेतनं गच्छेयुः । यद्वा उप° कां० ।। ३°मादौ सुलभतरः । लेपो भा० ॥ 25 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वैराज्य प्रकृते सूत्रम् ३७ निकारणगमणम्मि, जे चिय आलंवणा उ पडिकुट्ठा । कजम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुज्झई जयणा ।। २७५८ ॥ 'निष्कारणे' अशिवाद्यभावे यद् गमनम्-अपान्तरालक्षेत्रपरित्यागेन क्षेत्रान्तरसङ्क्रमणं तत्र 'यान्येव' आचार्य-साधु-चैत्यवन्दनादीन्यालम्बनानि 'प्रतिकुष्टानि' प्रतिषिद्धानि, 'कार्ये' द्वितीयपदे ज्ञान-दर्शनादिविशुद्धिनिमित्तं सङ्क्रामन् 'तैरेव' आचार्यादिभिरालम्बनैः यतनायुक्तः 'शुद्ध्यति' अदोषभाग भवति ॥ २७५८ ॥ ॥ चारप्रकृतं समाप्तम् ॥ वै राज्य वि रु द्ध राज्य प्रकृ त म् 15 सूत्रम्10 नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वेरज-वि रुद्धरजंसि सजं गमणं सज्ज आगमणं सज गमणागमणं करित्तए । जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज-विरुद्धरजंसि सज्ज गमणं सजं आगमणं सजं गमणागमणं करेइ, करितं वा साइजइ, से दुहओ विइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ३७॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह चारो त्ति अइपसंगा, विरुद्धरजे वि मा चरिजाहि । इय एसो उवघाओ, वेरजविरुद्धसुत्तस्स ॥ २७५९ ॥ 20 अनन्तरसूत्रे हेमन्त-ग्रीप्मयो मानुग्रामं 'चारः' गमनं कत्तुं कल्पते इत्युक्तेऽतिप्रसङ्गतो विरुद्धराज्येऽपि वर्तमाने मा चारीदित्यभिप्रायेणेदं सूत्रमारभ्यते । एष वैराज्यविरुद्धराज्यसूत्रस्य 'उपोद्धातः' सम्बन्धः ॥ २७५९ ॥ अनेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वैराज्य-विरुद्धराज्ये 'सद्यः' तत्कालं गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं कर्तुम् । यः खलु निम्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा 23 वैराज्य-विरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं करोति, कुर्वन्तं वा 'स्वादयति' अनुमोदयति, सः 'द्विधाऽपि' तीर्थकृतां राजश्व सम्बन्धिनीमाज्ञामतिक्रामन् 'आपद्यते' प्रामोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकम् , चतुर्गुरुकमित्यर्थः । इति सूत्रसङ्केपार्थः ।। १°वादिकारणाभावे का० ॥ २ °चार्य-साधु-चैत्यवन्दनादिभि का० ॥ ३ "एप सूत्रार्थः । अधुना नियुक्तिविस्तरः ।" इति चूगो ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७५८-६२ ] प्रथम उद्देशः । .. अथ विस्तरार्थं भाष्यकृदाह वेरं जत्थ उ रजे, वेरं जायं व वेररजं वा । जं च विरजइ रजं, रजेणं विगयरायं वा ॥ २७६० ॥ . यत्र राज्ये पूर्वपुरुषपरम्परागतं वैरं तद् वैराज्यमुच्यते, नैरुक्ती शब्दनिप्पत्तिः । यद्वा न पूर्वपुरुषपरम्परागतं परं सम्प्रति ययो राज्ययोर्वैरं 'जातम्' उत्पन्नं तद् वैराज्यम् । अथवा पर-5 कीयग्राम-नगरदाहादीनि कुर्वन् यत्र राजादिः वैरे-विरोधे रज्यते तादृशं डमरं वैराज्यमुच्यते । यदि वा यद् राज्यममात्यादिप्रधानपुरुषसमूहरूपं "रजेणं" ति विवक्षितेन राज्ञा सह 'विरज्यते' विरक्तीभवति तद् वैराज्यम् । इष्टरूपनिप्पत्तिः सर्वत्रापि निरुक्तिवशात् । यद्वा विगतः-मृतः प्रोषितो वा राजा यत्र तद् विगतराजकम्-अराजकमित्यर्थः, तदेव वैराज्यम् । यत्र तु द्वयोरपि राज्ञो राज्ये परस्परं गमनागमनं विरुद्धं तद् विरुद्धराज्यमुच्यते ॥ २५६० ॥ .. 10 अथ सद्यःप्रभृतीनि शेषपदानि व्यावष्टे सज्जग्गहणा तीयं, अणागयं चेव वारियं वेरं । पनवग पडुच्च गयं, होजाऽऽगमणं व उभयं वा ॥ २७६१ ॥ सद्यः-वर्तमानकालभावि यद् वैरं तत्र गमनादिकं न कल्पते, एवं सद्योग्रहणादतीतमना. गतं च वैरं निवारितं भवति, यत्र वैरं पूर्वोत्पन्नमस्ति यत्र वा भविष्यत्तया सम्भाव्यमानं 15 तत्रापि क्षेत्रे गमनादीनि न कर्तव्यानीति भावः । तथा प्रज्ञापकं प्रतीत्य 'गतं' गमनमागमनम् 'उभयं वा' गमनागमनमत्र भवति । तत्र यत्र प्रज्ञापकस्तिष्ठति ततो यदन्यत्र गम्यते तद् गमनम्, अन्यतः स्थानात् प्रज्ञापकसम्मुखं यदागम्यते तदागमनम् , गत्वा प्रत्यागमने विधीयमाने गमनागमनम् ॥ २७६१ ॥ अथ वैरशब्दस्य निक्षेपमाह नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे य । तं महिस-वसभ-बग्घा-सीहा नरएसु सिज्झणया ॥२७६२।। [नि.भा. ३३५९] नामवैरं स्थापनावैरं द्रव्यवैरं क्षेत्रवैरं कालवैरं भाववैरं चेति षड्विधं वैरम् । तत्र नाम-स्थापनावैरे सुगमे । द्रव्यवैरं तु यद् द्रव्यनिमित्तं गोत्रजादीनां वैरमुत्पद्यते । क्षेत्रवैरं यस्मिन् क्षेत्रे यस्य वा क्षेत्रस्य हेतो(रमुत्पद्यते । कालवैरं तु यस्मिन् काले वैरमुत्पद्यते, यावन्तं वा कालं वैरं वर्त्तते । भाववैरं तु पश्चाःनाह-"तं महिस" इत्यादि । 'तद्' इति भाववैरं "महिष-वृषभ" 25 इत्यादिना तु दृष्टान्तसूचा । स चायम्___ एगत्थ गामे गावीओ चोरेहिं गहियाओ । तओ जो गामस्स मयरगो सो कुढेण निग्गओ। अम्मियाओ गावीओ । जुद्धं संपलग्गं । चोराहिवो सेणावई महत्तरेण सह संपलग्गो । ते रुदज्झाणोवगया एकमेकं वहेउं मया पढमपुढवीए नारगा उववन्ना । तओ उज्वट्टा ते दो १ च्यते, पृषोदरादित्वाद् वैरशब्दसम्बन्धिनो रकारस्य लोपः । यद्वा न भा० ॥ २°म् । “वेररजं व त्ति अथवा का० ॥ ३ अथवा यः परेषां नृपतीनां ग्राम-नगरदाहादीनि करोति स खलु वैरोत्पादने रज्यत इति कृत्वा यत् तादृशं डमरं तद् वैरा भा० ॥ ४ एवं:सूत्रे सद्योग्रहणादतीतमनागतं च वैरमुपलक्षणत्वाद् निवा° कां० ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ वैराज्य प्रकृते सूत्रम् ३७ 15. वि'महिसा जाया। अन्नमन्नं पासित्ता आसुरत्ता झुज्झिउं मया दुच्चं पुढविं गया । तओ उबट्टित्ता वसभा जाया । तेणेव वेरेणं अन्नमन्नं मारित्ता पुणो दुच्चं पुढविं गया । तओ उपट्टित्ता दो वि वग्घा जाया । तत्थ वि अन्नोन्नं पहित्ता मया तचं पुढवि गया। ततो उबट्टित्ता दो वि सीहा उववन्ना । तस्थ वि एकमेकं वहित्ता मया चउत्थपुढवीए नारगा उववन्ना । ततो उबट्टा दो 5 वि मणुएसु उववन्ना । तत्थ जिणसासणं पवन्ना, सिद्धा य ॥ 1 एतद् भाववैरं मन्तव्यम् । अत्र चानेनैवाधिकार इति ॥ २७६२ ॥ वैराज्यग्रहणादेतेऽप्यर्थाः सूचिता भवन्तीति दर्शयति अणराए जुवराए, तत्तो वेरजए अबेरजे । एत्तो एकिकम्मि उ, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ २७६३ ॥ 10 अराजके यौवराज्ये ततश्च वैराज्ये द्वैराज्ये चेति चतुर्णा भेदानामेकैकस्मिन् भेदे गच्छत स्तपः-कालविशेषिताश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः । तत्र प्रथमे द्वाभ्यामपि तपः-कालाभ्यां लघवः, द्वितीये कालगुरवः, तृतीये तपोगुरवः, चतुर्थे द्वाभ्यामपि गुरवः ॥ २७६३ ॥ अराजकादीनामेव चतुर्णा व्याख्यानमाह__अणरायं निवमरणे, जुवराया जाव दोच णऽभिसित्तो। वेरजं तु परवलं, दाइयकलहो उ बेरजं ।। २७६४ ॥ नृपस्य-प्राक्तनस्य राज्ञो मरणे सञ्जाते सति यावदद्यापि राजा युवराजश्चैतौ द्वावपि नाभिषिक्तौ तावदराजकं भण्यते । प्राचीननृपतिना यो यौवराज्येऽभिषिक्त आसीत् तेनाधिष्ठितं राज्यम् पैरमनेन यावन्नाद्यापि द्वितीयो युवराजोऽभिषिक्तः तावद् यौवराज्यमुच्यते । यत्र तु 'परवलं' परचक्रमागत्य विड्वरं करोति तद् वैराज्यम् । यत्र तु द्वयोर्दायकयोः-सगोत्रयोरेकरा20 ज्याभिलाषिणोः खखकटकसन्निविष्टयोः परस्परं कलहः-विग्रहस्तद् द्वैराज्यमुच्यते ॥२७६४॥ व्याख्यातं वैराज्यम् । अथ विरुद्धराज्यं व्याख्यानयति अविरुद्धा वाणियगा, गमणा-ऽऽगमणं च होइ अविरुद्धं । निस्संचार विरुद्धे, न कप्पए बंधणाईया ॥ २७६५ ॥ १ वि महिसजूहेसु महिसबसहा उववन्ना, जूहाहिवा इत्यर्थः । तत्थ वि अन्नमन्नं पासित्ता आसुरुट्टा जुद्ध संपलग्गा अन्नोन्नं वहित्ता मया दोच्चपुढवीए नारगा उववन्ना। तओ उव्वट्टित्ता दो वि वग्घा जाया भा० । "तत्य चोरसेणावइणा समं हताहतिं मया पढमपुढवीं गया। तओ उव्वहिता महिसा वसभा य जाया, संड त्ति भणियं होइ । अनमन्नं पासित्ता पुन्वभववेराणुबंधेणं अईव रोसो समुप्पनो । हताहतिं मया दोच्चपुढवीं गता । तो उव्व हित्ता वग्घा जाया।" इति विशेष २» एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ °दे विहारं कुर्वत आचार्यादेस्तपः कां० ॥ ४ परमसौ यावन्नाद्यापि द्वितीयं युवराजमभिषिञ्चति तावद् यौवराज्यमुच्यते । यत्तु 'परबलेन' परचक्रेणागत्य समन्ततो विलोपितं तद् वैराज्यम् । यत्र तुद्व भा० ॥ ५ अथ वैराज्ये यादृशे कल्पते यादृशे च न कल्पते तदेतद् दर्शयति भा० । “एतं वेरचं निर्युक्तायुक्तम् । विरुद्धराज्यमविरुद्धराज्यमपेक्ष्य भवति तेन तदुच्यते-अविरुद्धा० ।” इति चूर्णौ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७६३-६७] प्रथम उद्देशः । ७८१ यत्र वैराज्ये वाणिजकाः परस्परं गच्छन्तोऽविरुद्धास्तत्रं साधूनामपि गमनागमनं विरुद्धं न भवति, कल्पते तत्र गन्तुमिति भावः । यत्र तु वणिजां शेषजनपदस्य च निस्सञ्चारं कृतंगमनागमननिषेधो विहितैस्तद् वैराज्यं विरुद्धमुच्यते, तस्मिन् विरुद्धराज्ये गमनादिकं न कल्पते। कुतः ? इत्याह- "बंधणाईय" त्ति नृपतिविहिताः बन्धनादयो दोषास्तत्र भवन्तीति ॥२७६५॥ तत् पुनर्गमनागमनं कथं भवति ? इत्याह अत्ताण चोर मेया, वग्गुर सोणिय पलाइणो पहिया । पडिचरगा य सहाया, गमणागमणम्मि नायव्वा ॥२७६६ ॥ ___ इह विरुद्धराज्ये गच्छतामनेके प्रकाराः-तत्र » "अत्ताण" त्ति संयता आत्मनैव चौरादिसहायविरहिता गच्छन्ति, एष चूर्ण्यभिप्रायः; निशीथचूर्ण्यभिप्रायस्तु-"अत्ताण" त्ति अत्राणा नाम-स्कन्धन्यस्तलगुडद्वितीया ये देशान्तरं गच्छन्ति कार्पटिका वा स तैः सह 10 साधवोऽपि गच्छन्तीति प्रथमः प्रकारः, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या » १ । तथा 'चौराः' गवादिहारिणः २, 'मेदा नाम' गृहीतचापा दिवा रात्रौ च जीवहिंसापरा म्लेच्छविशेषाः ३, 'वागुरिकाः' पाशप्रयोगेण मृगघातकाः ४, शौनिकाः' शुनिकाद्वितीया लुब्धकाः ५, 'पलायिनो नाम' ये भटादयो राज्ञः पृच्छां विना सकुटुम्बाः प्रणश्य राज्यान्तरं गच्छन्ति ६, 'पथिकाः' नानाविधनगर-ग्राम-देशपरिभ्रमणकारिणः ७, 'प्रतिचरका नाम' ये परराष्ट्र स्वरूपं प्रच्छन्नचारि-13 तया गवेषयन्ति, हेरिका इत्यर्थः ८ । एते आत्मादयोऽत्राणादयो वाऽष्टौ भेदा भवन्ति । केषाश्चिदाचार्याणां वागुरिकाः शौनिकाश्च द्वयेऽप्येक एव भेदस्तन्मतेनाष्टमा अहिमरका भवन्ति । अहिः-सर्पस्तद्वदकृतेऽप्यपकारे परं मारयन्तीत्यहिमरकाः । एते सहायाः साधूनां वैराज्यगमनागमने ज्ञातव्याः ॥ २७६६ ॥ एतेष्वेव भङ्गोपदर्शनायाहअत्ताणमाइएK, दिय पह दिटे य अद्विया भयणा। 20 एत्तो एगयरेणं, गमणागमणम्मि आणाई ॥ २७६७ ॥ __ आत्मादिभेदेषु अत्राणादिषु वा सहायेप्वेकैकस्मिन् दिवा-पथ-दृष्टपदैः सप्रतिपक्षरष्टिका भजना भवति, अष्टावष्टौ भङ्गा भवन्तीत्यर्थः । तथाहि-आत्मना सहायविरहिता दिवा मार्गेण राजपुरुषैदृष्टा गच्छन्ति १ आत्मना दिवा मार्गेण राजपुरुषैरदृष्टाः २ आत्मना दिवा उन्मार्गेण राजपुरुषैदृष्टाः ३ आत्मना दिवा उन्मार्गेण राजपुरुषैरदृष्टाः ४ आत्मना रात्रौ मार्गेण दृष्टाः ५ 25 १°त्र शेषस्यापि जनपदस्य गमनागमनमविरुद्धम्, तत्र साधूनां कल्पते गन्तुमिति वाक्यशेषः । यत्र त भा०॥ २°त इति भावः तद विरु०भा०॥ ३ कतिभिः प्रकारैर्भव कां० ॥ ४-५N एतन्मध्यगतः पाठः भा० त• डे० नास्ति ॥ ६°च्छामन्तरेण पुत्र दार-धनसमेताराज्या भा० ॥ ७°राष्ट्रीय ग्राम-नगर-सेनादीनां प्रच्छन्नचारितया स्वरूपं गवे भा० ॥ ८°काः, “पृषोदरादयः” (सि० ३-२-१५५) इति रूपनिष्पत्तिः, घातका इत्यर्थः । एते को० ॥ ९ “भत्तणा दिवा पंथेण अदिट्ठो १, भत्तणा दिवा पंथेण दिट्ठो २, अत्तणा दिवा उप्पंथेण अदिट्ठो ३, अत्तणा दिवा उप्पंथेण दिट्ठो एक, अत्तणा राओ पंथेण अदिट्ठो र्ल, अत्तणा राओ पंथेण दिट्ठो फ्री, भत्तणा राओ उप्पंथेण अविट्ठो प्रा, अत्तणा राओ उप्पथेण दिट्ठो हा।" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वैराज्य० प्रकृते सूत्रम् ३७ आत्मना रात्रौ मार्गेणादृष्टाः ६ आत्मना रात्री उन्मार्गण दृष्टाः ७ आत्मना रात्रावुन्मार्गेणादृष्टा गच्छन्ति ८ । एवं चौरादिभिः द्वितीयव्याख्यानापेक्षया त्वत्राणादिभिः प्रतिचरकान्तैः सहायैरपि सार्द्ध गच्छतां प्रत्येकमष्टौ भङ्गाः कर्त्तव्याः । “एत्तो एग" इत्यादि पश्चार्द्धम् --एतेषामष्टानां भेदानां प्रत्येकमष्टविधानां मध्यादेकतरेणापि प्रकारेण यो गमनागमनं करोति तस्याऽऽज्ञा-ऽनव5 स्थादयो दोषा भवन्ति ॥ २७६७ ॥ प्रायश्चित्तं चेदम् __ अत्ताणमाइएसुं, दिय-पह-दिडेसु चउलहू होति । राओ अपह अदिढे, चउगुरुगाऽइक्कमे मूलं ॥ २७६८॥ __ आत्मादिष्वत्राणादिषु वा पदेषु ये दिवाविषयाः प्रथमे चत्वारो भङ्गकास्तेषु पथ-दृष्टपदाभ्यां सप्रतिपक्षाभ्यामुपलक्षितेषु तपः-कालविशेषिताश्चत्वारो लघुकाः । ये तु रात्रिविषयाः पाश्चात्या10श्चत्वारो भङ्गकास्तेषु अपथा-ऽदृष्टपदाभ्यां सप्रतिपक्षाभ्यामुपलक्षितेषु तपः-कालविशेषिताश्चत्वारो गुरुकाः । यतो राज्यात् प्रधावितस्तस्य 'अतिक्रमे' अतिलङ्घने कृते सति मूलम् ॥ २७६८ ॥ अथ सर्वभङ्गपरिमाणज्ञापनार्थमाह अत्ताणमाइयाणं, अट्ठण्हऽढहि पएहिँ भइयाणं । चउसहिए पयाणं, विराहणा होइमा दुविहा ॥ २७६९ ॥ 15 आत्मादीनामत्राणादीनां वा अष्टानां पदानामष्टभिः 'पदैः' भङ्गैः प्रत्येकं 'भक्तानां' गुणि तानां चतुःषष्टिसङ्ख्यानि भङ्गकपदानि भवन्ति । चतुःषष्टेश्च पदानामन्यतरेण गच्छत इयं 'द्विविधा' संयमा-ऽऽत्मलक्षणा विराधना भवति ॥ २७६९ ॥ तामेवाह छक्काय गहणकड्डण, पंथं भित्तूण चेव अइगमणं । - सुन्नम्मि य अइगमणे, विराहणा दुण्ह वग्गाणं ॥ २७७० ॥ 20 अपथे-अशस्त्रोपहतपृथिव्यां गच्छन् पृथिवीकायम् , नद्यादिसन्तरणेऽवश्यायसम्भवे वाड कायम् , दवानलसम्भवे सार्थिकप्रज्वालिताग्निप्रतापने वा तेजःकायम् , “यत्राग्निस्तत्र नियमाद् वायुभवति" इति कृत्वा वायुकायम् , हरितादिमर्दने प्रलम्बासेवने वा वनस्पतिम् , पृथिव्युदकवनस्पतिसमाश्रितत्रसानां परितापनादौ त्रसकायम् , एवं षट् कायान् विराधयति इति संयमविराधना । तथा राजपुरुषा ग्रहणाकर्षणादिकं विदध्युरित्यात्मविराधना । अथ ते साधवः 25 पन्थानं' मार्ग भित्त्वोत्पथेन परजनपदे 'अतिगमन' प्रवेशं कुर्वन्ति ततो गाढतरेऽपराधे लगन्ति । 'शून्ये वा' स्थानपालविरहिते मार्गेऽतिगमने विधीयमाने 'द्वयोरपि वर्गयोः' संयतानां सहायानां च विराधना भवतीति ॥ २७७० ॥ - अथ षट्कायविराधनायां तावत् प्रायश्चित्तमाह छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽइबायणे मूलं ॥ २७७१॥ अस्या व्याख्या प्राग्वत् (गा० ४६१) ॥ २७७१ ॥ अथ ग्रहणाकर्षणापदं व्याचष्टे१°नां भङ्गानां प्रत्येकमष्टविधानां सर्वसङ्ख्यया चतुःषष्टिसङ्ख्यानां भेदानां मध्या' कां ॥ २ अथात्मविराधनां बिभावयिषुर्ग्रहणाकर्षणाद्वारं व्या भा० ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८३ भाष्यगाथाः २७६८-७५] प्रथम उद्देशः । संजय-गिहि-तदुभयभद्दया य तह तदुभयस्स वि य पंता । चउभंगों गोम्मिएहि, संजयभद्दा विसजेति ॥ २७७२ ।। गौल्मिका नाम-ये राज्ञः पुरुषाः स्थानकं बद्धा पन्थानं रक्षयन्ति तेषु चतुर्भङ्गी-संयतभद्रका गृहस्थप्रान्ताः १, गृहिणां भद्रकाः संयतप्रान्ताः २, संयतभद्रका अपि गृहस्थभद्रका अँपि ३, न संयतभद्रका न गृहस्थभद्रकाः किन्तु तदुभयस्यापि प्रान्ताः ४ । अत्र ये संयतभद्रका 5 गौल्मिकाः प्रथमतृतीयभङ्गवर्तिन इत्यर्थः ते साधून् गच्छतो विसर्जयन्ति न निरुन्धते॥२७७२।। संजयभद्दगमुक्के, वीया घेत्तुं गिही वि गिण्हंति । जे पुण संजयपंता, गिण्हंति जई गिही मुत्तुं ॥ २७७३ ॥ संयतभद्रकैर्मुक्तानपि साधून 'द्वितीयाः' द्वितीयभङ्गवर्तिनः स्थानपालकास्ते संयतप्रान्तत्वाद् गृह्णन्ति, गृहीत्वा च ते 'गृहिणोऽपि' प्रथमस्थानपालकान् गृह्णन्ति, 'कस्माद् भवद्भिरमी संयता 10 मुक्ताः' इति कृत्वा । यद्वा ते साधवो गृहस्थसहिता गच्छन्तः संयतभद्रकैर्मुक्ताः, गृहस्था अपि तैः 'अमीषां साधूनामेते सहायाः' इत्यभिप्रायेण मुक्ताः, परं ये द्वितीयभङ्गवर्तिनः स्थानपालकास्ते संयतप्रान्ततया संयतान् गृहीत्वा गृहस्थानपि गृह्णन्ति, यस्माद् 'अमीभिः समं यूयं गच्छतेत्यतो यूयमप्यपराधिनः' इति कृत्वा । ये पुनः संयतप्रान्ताः, पुनःशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि ? ये गौल्मिकाः संयतानामेवातीव प्रद्विष्टास्ते गृहिणो मुक्त्वा यतीन् गृह्णन्ति, गृहीत्वा च बन्धना-15 दिकं कुर्युः ॥ २७७३ ॥ परम-तइयमुकाणं, रज्जे दिट्ठाण दोण्ह वि विणासो। पररजपवेसेवं, जओ वि णिती तहिं पेवं ॥ २७७४ ॥ प्रथमतृतीयभङ्गयोः संयतभद्र कैर्मुक्ताः सन्तः साधवः परराज्ये प्रविष्टा दृष्टाश्च राजपुरुषैः, ततः पृष्टाः-किमुत्पथेनायाताः ? उत पथा ? । यदि साधवो भणन्ति 'उत्पथेन' तत 20 उन्मार्गगामित्वात् 'चारिका एते' इति कृत्वा ग्रहणाकर्षणादिकं प्रामुवन्ति । अथ ब्रुवते 'पथा वयमागताः' ततो द्वयोरपि वर्गयोर्विनाशो भवति, संयतानां स्थानपालकानां चेति भावः । एवं परराज्यप्रवेशे दोषा अभिहिताः । यतोऽपि राज्याद् निर्गच्छन्ति तत्राप्येत एव दोषा भवन्ति ॥ २७७१ ॥ अथ “पंथं भित्तूण” (गा० २७७०) इत्यादिदं व्याख्यानयतिरक्खिज्जइ वा पंथो, जइ तं भित्तूण जणवयमइंति । 25 गाढतरं अवराहो, सुते सुन्ने व दोण्हं पि ॥ २७७५ ॥ अथ चौर-हेरिकादिभयात् पन्था रक्ष्यते, न वा कस्यापि गमनागमनं कर्तुं स्थानपालकाः प्रयच्छन्ति, ततस्तं पन्थानं भित्त्वा यद्युत्पथेन परनृपतेर्जनपदम् 'अतियन्ति' प्रविशन्ति ततो गाढतरमपराधो भवति, महान् दोषस्तेषां लगतीति भावः । अत्र साधूनामेव दोषो न स्थानपालकानाम् । अथ स्थानपालकाः सुप्ता भवन्ति शून्यं वा तत् स्थानकं वर्तते, स्थानपालकानाम- 30 १°नकबद्धाः प° मो० ले० ॥ २°ङ्गी भवति, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , तद्यथा-संय° को० ॥ ३ अपि, एते तदुभयभद्रका उच्यन्ते ३, तथा न सं° का० ॥ ४ पदत्रयं व्या भा० का ० ॥ För Privaté & Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ७८४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [वैराज्य प्रकृते सूत्रम् ३७ न्यत्र कुत्रापि गमनात् , तत्र यदि साधवो गच्छन्ति तदा 'द्वयोरपि वर्गयोः' स्थानपालकानां संयतानां चेत्यर्थः ग्रहणाकर्षणादयो दोषा भवन्ति ॥२७७५ ॥ तानेव सप्रायश्चित्तान् दर्शयति गेण्हणें गुरुगा छम्मास कड्डणे छैओं होइ ववहारे । पच्छाकडे य मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं ॥ २७७६ ॥ उद्दावण निविसए, एगमणेगे पओस पारंची। अणवटुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ ।। २७७७ ॥ गाथाद्वयस्यापि व्याख्या प्राग्वत् (गा० ९०४-५) ॥ २७७६ ॥ २७७७ ॥ एवमात्मनैवासहायानामत्राणसहायानां वा गच्छतां दोषा अभिहिताः । अथ चौरादिसहाय- युक्तानां दोषानतिदिशन्नाह एमेव सेसएहि वि, चोराईहि समगं तु वच्चंते । सविसेसयरा दोसा, पत्थारो जाव भंसणया ॥ २७७८ ॥ एवमेव चौर-प्रतिचरकादिसहायैः शेषैरपि समकं व्रजतां दोषास्त एव ग्रहणाकर्षणादयो वक्तव्याः, परं सविशेषतराः । तथाहि तेषां साधूनां दोषेण यदन्येषामपि तद्गच्छीयानां परगच्छीयानां वा कुलस्य वा गणस्य वा सङ्घस्य वा ग्रहणाकर्षणादिकम् एष प्रस्तार उच्यते । 15 स वा भवेद् जीवितस्य वा चरणस्य वा भ्रंशनं स्यात् । यावच्छब्दोपादानात् शरीरविकतनभेदा द्रष्टव्याः ॥ २७७८ ॥ सविशेषदोषदर्शनार्थमाह तेणट्ठम्मि पसनण, निस्संकिऍ मूल अहिमरे चरिमं ।। जइ ताव होंति भद्दय, दोसा ते तं चिमं चऽनं ॥ २७७९ ॥ स्तेनादिभिः सह गच्छन् स्तैन्यार्थे प्रसजनं करोति, स्तैन्यादिकं करोति कारयति अनुमन्यते 20 वा इत्यर्थः । तथा यदि स्तेनोऽयम्' इति शयते तदा चत्वारो गुरुकाः । निःशङ्किते मूलम् । 'अभिमरोऽयम्' इति निःशङ्किते 'चरमं' पाराञ्चिकम् । अपि च यदि तावत् ते स्थानपालका भद्रका भवन्ति तथापि वैराज्यं सङ्क्रामतः साधून् दृष्ट्वा चिन्तयन्ति-एतेऽपि यदीदृशानि कुर्वन्ति तर्हि न किमप्यमीषां मध्ये शोभनम् , तीर्थकरेण वा किं न प्रतिषिद्धं वैराज्यसक्रमणम् ? इत्यादि । एवं च तेऽपि प्रान्तीभवन्ति । अथवा यदि ते स्थानपाला भद्रका भवन्ति तदा तैर्विसर्जितानां 25 परराष्ट्रं प्रविष्टानां त एव दोषाः, तदेव च चतुर्गुरुकादिकं प्रायश्चित्तम् , इदं चान्यत् प्रायश्चिचावहं दोषजालम् ॥ २७७९ ॥ १ तदेव दर्शयति आयरिय उवज्झाया, कुल गण संघो य चेइयाइं च । सव्वे वि परिच्चत्ता, वेरजं संकमंतेणं ॥ २७८० ॥ 'आचार्याः' अर्थदातारः 'उपाध्यायाः' सूत्रप्रदाः 'कुलं' नागेन्द्रादि 'गणः' परस्परसापे30 क्षानेककुलसमुदायः 'सङ्घः' गणसमुदायः 'चैत्यानि' भगवद्विम्बानि जिनभवनानि वा । एते आचार्यादयः सर्वेऽपि वैराज्यं सङ्कामता परित्यक्ताः ॥ २७८० ॥ एतदेव भावयति किं आगय त्थ ते बिति संति णे इत्थ आयरियमादी । » एतचिहगतमवतरणं का० ॥ २ रजे सं° ता० ॥ ३ त्थ बेंती, संती णे ता.॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७७६-८४] प्रथम उद्देशः । उग्याएमो रुस्खे, मा एंतु फलत्थिणो सउणा ॥ २७८१ ॥ 'ते' साधवो राजपुरुषैः पृच्छयन्ते–किमर्थं यूयमिहागताः स्थ ? । साधवो ब्रुवते-'सन्ति' विद्यन्ते “णे' अस्माकमिहाचार्यादयः अतो वयमागताः । ततो राजपुरुषा दृष्टान्तं वदन्तियस्मात् फलार्थिनः 'शकुनाः' पक्षिणो वृक्षानागच्छन्ति तस्मात् तानेव वृक्षानुद्धातयामः, मा फलार्थिनः शकुना आगच्छन्तु । एतेन दृष्टान्तसामर्थेन तानेवाचार्यादीनुद्धातयामो येन तदर्थमिह 5 कोऽपि नागच्छति ॥ २७८१ ॥ यत एते दोषा अतः एयारिसे विहारो, न कप्पई समणसुविहियाणं तु । दो सीमेऽइक्कमई, जिणसीमं रायसीमं च ॥ २७८२ ॥ एतादृशे वैराज्ये विरुद्धराज्ये विहारः श्रमणानां सुविहितानां न कल्पते । यस्तु करोति स द्वे सीमानावतिक्रामति, तद्यथा-'जिनसीमानं' 'न कल्पते वैराज्यसङ्क्रमणं कर्तुम्' इति लक्षणां 10 'राजसीमानं च' 'नकर्तव्यो मदीयराज्यात् परराज्ये गमागमः' इति रूपाम् ॥२७८२॥ किञ्च बंधं वहं च घोरं, आवजइ एरिसे विहरमाणो । तम्हा उ विवजेजा, वेरज-विरुद्धसंकमणं ॥ २७८३ ॥ 'बन्धं' निगडादिनियन्त्रणं 'वधं च' कशाघातादिकं 'घोरं' भयानकमीशे विहरमाणो यत आपद्यते तस्माद् वैराज्य-विरुद्धराज्यसङ्क्रमणं विवर्जयेत् ।। २७८३ ॥ अथ द्वितीयपदमाह--15 दसण नाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमायरिए। अधिकरण वाद राय कुलसंगते कप्पई गंतुं ॥ २७८४ ॥ दर्शनार्थ ज्ञानार्थ वैराज्यसङ्क्रमणमपि कुर्यात् । “माय" त्ति मातापितरौ कस्यापि प्रव्रजितुकामौ शोकेन म्रियेते तयोः समाधानार्थं गच्छेत् । “भत्तविसोहि" ति कश्चित् साधुभक्तं प्रत्याख्यातुकामः स विशोधिम्-आलोचनां दातुकामो गीतार्थस्य पार्थे गच्छेत् , अजङ्गमस्य वा 20 तस्य पार्श्वे गीतार्था गच्छन्ति । "गिलाण" ति ग्लानस्य वा प्रतिचरणार्थ प्रायोग्यौषधहेतवे वा गच्छेत् । "आयरिय" त्ति आचार्यसमीपे आचार्याणामादेशेन वा गच्छति । "अधिकरण" ति कस्यापि साधोः केनापि गृहिणा सहाधिकरणमुत्पन्नम् , स च गृही नोपशाम्यति, ततः प्रज्ञापनालब्धिमान् तस्योपशमनाय गच्छति । "वाद" त्ति अन्यराज्ये परप्रवादी कश्चिदुत्थितः तस्य निग्रहार्थं वादलब्धिसम्पन्नेन गन्तव्यम् । “राय" ति राजा वा कश्चित् परराष्ट्रीयः साधूनामुलक परि प्रद्विष्टस्तस्योपशमनार्थ सलब्धिकेन गन्तव्यम् । “कुलसंगय" ति उपलक्षणत्वात् कुल-गणसङ्घसङ्गतं किमपि कार्यमुत्पन्नं कुलादिविषयमित्यर्थः । अथवा "रायकुलसंगत" ति एकमेव १°मः, येन ते फलार्थिनः शकुना नागच्छन्ति । एतेन भा० ॥ २°था-जिनसीमानं राजसीमानं च । तत्र जिनसीमा नाम-'न कल्पते पैराज्यसक्रमणं कर्तुम्' इति लक्षणा भगवतामाशा, राजसीमा तु-'न कर्त्तव्यो मदीयराज्यात् परराज्ये गमागमः' इति रूपा, उमे अपि सीमानावेवमतिकामतीति ॥ २७८२ ॥ कां०॥ ३ "आयरिओ त्ति सो भत्तं पचक्खाइउकामो तस्स णिजवणट्ठाए गच्छेजा। महिकरणं वा कुल-गण-संपाणं समुप्पनं तस्स उवसमणट्ठा गच्छेन ।" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वैराज्य० प्रकृते सूत्रम् ३७ पदम् , राजकुलेन सह सङ्गतं-सम्बद्धं केनापि साधुना अधिकरणं कृतं तदुपशमनाय गच्छति । एवमादिषु कार्येषु वैराज्येऽपि गन्तुं कल्पते ॥ २७८४ ॥ । अथ दर्शन-ज्ञानपदद्वयं भाष्यकृद् व्याख्यानयति सुत्त-ऽत्थ-तदुभयविसारयम्मि पडियन्न उत्तिमट्ठम्मि । __ एतारिसम्मि कप्पइ, वेरज-विरुद्धसंकमणं ॥ २७८५ ॥ दर्शनप्रभावकशास्त्राणामाचारादिश्रुतज्ञानस्य वा सम्बन्धि यदन्यत्राविद्यमानं सूत्रार्थतदुभयं तत्र विशारदः कश्चिदाचार्यः स चोत्तमार्थमनशनं प्रतिपन्नः । यस्मिँश्च क्षेत्रेऽसौ स्थितस्तत्र अपान्तराले वा वैराज्यं वर्तते, 'तौ च सूत्रार्थो मा व्यवच्छेदं प्रापताम्' इति कृत्वा एतादृशे कारणे वैराज्य-विरुद्धे सङ्क्रमणं कर्तुं कल्पते ॥ २७८५ ॥ 10 अथ येन विधिना तत्र गन्तव्यं तमभिधित्सुराह आपुच्छिय आरक्खिय-सेहि-सेणावई-अमच्च-राईणं । अइगमणे निग्गमणे, एस विही होइ नायव्यो । २७८६ ॥ आपृच्छयारक्षिकं ततः श्रेष्ठिनं ततः सेनापतिं ततोऽमात्यं ततो राजानमप्यापृच्छय निर्गन्तव्यं प्रवेष्टव्यं वा । एष विधिः 'अतिगमने' परराज्यप्रवेशे निर्गमने च' पूर्वस्माद् राज्याद् 15 निर्गमने च ज्ञातव्यो भवति ॥ २७८६ ॥ अमुमेवार्थ प्रकटयन्नाह-- आरक्खितो विसजइ, अहव भणिजा स पुच्छह तु सेटिं । जाव निवो ता नेयं, मुद्दा पुरिसो व दृतेणं ॥ २७८७ ॥ वैराज्य-विरुद्धं गच्छता प्रथमत एवारक्षिकः प्रष्टव्यः । यद्यसौ विसर्जयति ततो लष्टम् । अथासौ भणेत्-नाहं जानामि, 'श्रेष्ठिनं' श्रीदेवताऽध्यासितशिरोवेष्टनविभूषितोत्तमाङ्गं पृच्छत । 20 ततः श्रेष्ठी प्रष्टव्यः, एवं यावद् 'नृपः' राजा तावद् 'नेयं' नेतव्यं वक्तव्यमित्यर्थः । तचैवम् - श्रेष्ठी पृष्टो यदि विसर्जयति ततः सुन्दरम् , अथासौ ब्रूयात्-अहं न जानामि, सेनापति प्रभयत । ततः सेनापतिः प्रनितो यद्यनुजानीते ततः शोभनम् , अथासौ ब्रूयात् –अमात्यं पृच्छत । ततोऽसावमात्यः पृष्टो यदि विसर्जयति ततो लष्टम् , अथ ब्रूयात्-राजानं पृच्छत । ततो राजाऽपि प्रष्टव्यः । एते च राजादयो यदि विसर्जयन्ति तदा मुद्रापट्टकं दूतपुरुषं वा 25 मार्गयितव्याः, येन 'राजादिना विसर्जिता एते' इति स्थानपालकाः प्रत्ययतः पथमवतारयन्ति; यो वा दूतस्तत्र राज्ये व्रजति तेन साई गच्छन्ति ॥ २७८७ ॥ एवं तावद् यतो राज्यान्निर्गच्छन्ति तत्र विधिरुक्तः । अथ यत्र राज्ये गन्तुकामास्तत्र प्रविशतां विधिमाह-- जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारिति तेसि नायं तु। आरक्खियाइ ते वि य, तेणेव कमेण पुच्छंति ॥ २७८८ ॥ 30 यत्रापि राज्ये गन्तुकामास्तत्रापि ये साधवो वर्तन्ते तेषां लेखप्रेषणेन सन्देशकप्रेषणेन वा प्रागेव ज्ञातं कुर्वन्ति, यथा-वयमितो राज्यात् तत्रागन्तुकामाः, अतो भवद्भिस्तत्रारक्षिकादयः १'राज्य विरुद्धराज्येऽपि कां०॥ २°शानलक्षणमाद्यं पद का० ॥ ३°धिरतिगमने निर्गमने च ज्ञातव्यो भा० त• डे० ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७८५-९१] प्रथम उद्देशः । प्रष्टव्याः । ततस्तेऽपि तेनैव' पूर्वोक्तेन क्रमेण आरक्षिकादीन् पृच्छन्ति । यदा तैरनुज्ञातं भवति तदा तान् साधून् ज्ञापयन्ति-आरक्षिकादिभिरत्रानुज्ञातमस्ति, भवद्भिरत्रागन्तव्यम् ॥२७८८ ॥ एष निर्गमने प्रवेशे च विधिरुक्तः । अथ "आयरिय" ति पदं विशेषतो भावयन्नाह राईण दोण्ह भंडण, आयरिए आसियावणं होइ।। कयकरणे करणं वा, निवेद जयणाएँ संकमणं ॥ २७८९ ॥ द्वयो राज्ञोः परस्परं 'भण्डनं' कलहो वर्त्तते, तत्रैकस्य राज्ञः कोऽप्याचार्योऽतीव पूजा-सत्कारस्थानम् , ततश्च द्वितीयो नृपतिस्तत् परिज्ञायाऽऽत्मीयदक्षपुरुषैः "आसिआवणं" ति तस्याचार्यस्यापहरणं कारयति 'अस्मिन् हि गृहीते स प्रतिपन्थिपार्थिवो गृहीत एव भवति' इति । अत्र च यः 'कृतकरणः' धनुर्वेदादौ गृहवासे कृतपरिश्रमस्तस्य तत्र करणं भवति, तेनाचार्यापहारिणा सह युद्धं कर्तुमुपतिष्ठत इत्यर्थः । अथ नास्ति कोऽपि कृतकरणस्ततो यस्य राज्ञः सकाशादपढ-10 तस्तस्य निवेदनं कृत्वा यतनया शेषसाधवः सङ्क्रमणं कुर्वन्ति ॥ २७८९ ॥ इदमेव स्फुटतरमाह-(ग्रन्थानम्-७५०० । सर्वग्रन्थाग्रम्-१९७२०) अब्भरहियस्स हरणे, उज्जाणाईठियस्स गुरुणो उ । उव्वट्टणासमत्थे, दूरगए वा वि सवि बोलं ॥ २७९० ॥ पेसवियम्मि अदेंते, रत्ना जइ विउ विसजिया सिस्सा । 15 गुरुणो निवेइयम्मि, हारिंतगराइणो पुचि ॥ २७९१॥ 'अभ्यर्हितस्य' राजमान्यस्य 'गुरोः' आचार्यस्योद्यान-सभा-प्रपादिषु स्थितस्य हरणं भवति । यदि च कोऽपि युद्धकरणेन विद्याप्रयोगेण वा तस्योद्वर्तनायाः-वालनायाः समर्थो भवति ततः स तं निवार्याचार्य प्रत्याहरति । अथ नास्त्युद्वर्तनासमर्थः ततः क्षणमात्रं साधवस्तूष्णीका आसते । यदा आचार्यापहारी दूरं गतो भवति तदा “सवि" त्ति सर्वेऽपि साधवो बोलं कुर्वन्ति-अस्माकमा- 20 चार्यों हृतो हृतः, धावत धावत लोकाः ! इति । आसन्नस्थिते तु वोलं न कुर्वन्ति 'मा भूत् परस्परं बहुजनक्षयकारी युद्धविप्लवः' इति । ततश्च राजा साधुभिरभिधातव्यः-अनाथा वयमाचार्यविना, अत आचार्या यथाऽत्रागच्छन्ति तथा कुरुत । एवमुक्तोऽसौ द्वितीयस्य राज्ञो दूतं विसर्जयतिशीघ्रमाचार्यः प्रेषणीय इति । यदि तेन प्रस्थापितस्ततो लष्टम् । अथासौ दूते प्रेषितेऽप्याचार्य न ददाति-न विसर्जयतीत्यर्थः ततः साधवो द्वे त्रीणि वा दिनानि राजानं दृष्ट्वा ब्रुवते-अस्मान् 25 विसर्जयत येन गुरूणामुपकण्ठं गच्छामः, कीदृशा वयं गुरुविरहिता अत्र तिष्ठन्तः? खाध्यायादिकं वाऽत्र न किमपि निर्वहतीत्यादि । एवमुक्ते यद्यपि ते शिष्या राज्ञा विसर्जितास्तथापि गुरूणां सन्देशकप्रेषणेन निवेदयन्ति–वयमागच्छन्तः स्मः । ततो गुरवः "हारिंतगराइणो पुविं" ति अपहर्तृराज्ञः पूर्वमेव निवेदयन्ति-अहं शिष्यानप्यानयामि, अतः स्थानपालानामादेशं प्रयच्छत येन ते तान्न गृह्णन्ति । एवं निवेदिते सति यतनया सङ्क्रमणं कुर्वन्ति ॥२७९० ॥२७९१ ॥ 30 ॥ वैराज्यविरुद्धराज्यप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ अथाचार्यद्वारं विशे° भा०॥ २°त्यर्थः । वाशब्दादन्यो वा विद्याप्रयोगेण तं निवारयति । अथ नास्ति कां० ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सू० ३८ अ व ग्रह प्रकृतम् सूत्रम् निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पाय-पुंछणेण वा उवनिमंतिजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चं पि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ३८॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह __ अविरुद्ध भिक्खगतं, कोइ निमंतेज वत्थमाईहिं । 10 कारण विरुद्धचारी, विगिंचितो वा वि गेण्हेजा ॥ २७९२ ॥ ___ 'अविरुद्धे' विरुद्धराज्यविरहिते ग्रामादौ 'भिक्षागतं' भिक्षायां प्रविष्टं साधु कश्चिदुपासकादिर्वस्त्रादिभिर्निमन्त्रयेत् , यद्वा 'कारणे' दर्शन-ज्ञानादौ विरुद्धराज्यचारी स्तेनादिभिः 'विविक्तः' मुषितः सन् वस्त्राणि गृह्णीयात् , अतो वस्त्रग्रहण विधिः प्रतिपाद्यते ॥ २७९२ ॥ ___ अहवा लोइयतेणं, निवसीम अइच्छिए इमं भणितं । दोच्चमणणुन्नवेडं, उत्तरियं वत्थभोगादी ॥ २७९३ ॥ अथवा नृपसीमानमतिक्रम्य विरुद्धराज्यसङ्क्रमणे लौकिकस्तैन्यम् , इदमनन्तरसूत्रे भणितम् । अत्र तु सूत्रे द्वितीयं वारमवग्रहमाचार्यसमीपेऽननुज्ञाप्य यदा वस्त्रपरिभोगम् आदिशब्दाद् धारणं वा करोति तदा लोकोत्तरिकस्तैन्यं भवतीति प्रतिपाद्यते ॥ २७९३ ॥ ___ एभिः सम्बन्धैरायातस्यास्य व्याख्या-निर्ग्रन्थं' पूर्वोक्तशब्दार्थ चशब्दोऽर्थान्तरोपन्यासे 20 "ण"मिति वाक्यालङ्कारे गृहस्य पतिः-स्वामी गृहपतिस्तस्यै कुलं-गृहं 'पिण्डपातप्रतिज्ञया' पिण्ड:-ओदनादिस्तस्य पातः-पाने प्रवेशस्तत्प्रतिज्ञया-तत्प्रत्ययमनुप्रविष्टं 'कश्चिद्' उपासकादिर्वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पात्र-प्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् । वस्त्रं सौत्रिकमिह गृह्यते, प्रतिग्रहः-पात्रकम् , कम्बलम्-ओर्णिकः कल्पः, पात्रशब्देन तु पात्रबन्ध-पात्रकेसरिकाप्रभृतिकः पात्रनियोगः, प्रोञ्छनशब्देन तु रजोहरणमुच्यते, आह च चूर्णिकृत्--- पायग्गहणेणं पायभंडयं गहियं, पुंछणं रयहरणं ति । १°रुद्ध' पूर्वसूत्रनिषिद्धविरु° का ॥ २°नादौ वाऽऽलम्बने साते सति विरु° कां०॥ ३ अथ द्विती कां० विना ॥ ४°न्दो वाक्यान्त° भा० ॥ ५ त. डे. मो० ले. विनाऽन्यत्र-"स्य यत् कुलं-गृहं तत् पिण्ड° भा० । स्य यत् कुलंगृहं गृहपतिकुलं तत् 'पिण्ड का । “गाधावति गाधा गृहमित्येकोऽर्थः तस्य गृहस्य पतिः गृहपति तस्य कुलं गृहमित्येकोऽर्थः।" इति 25 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७९२-९५] प्रथम उद्देशः । ७८९ 1 ततश्च पात्रं च प्रोञ्छनं चेति पात्र-प्रोञ्छनम् , समाहारद्वन्द्वः, - एतैः उप-सामीप्ये आगत्य निमन्त्रयेत् । उपनिमन्त्रितस्य च "से" तस्य निर्ग्रन्थस्य 'साकारकृतं' 'आचार्यसत्कमेतद् वस्त्रं न मम, अतो यस्मै ते दास्यन्ति अन्यस्मै वा मह्यं वा आत्मना वा परिभोक्ष्यन्ते तस्यैतद् भविष्यति' इत्येवं सविकल्पवचनव्यवस्थापितं सद् गृहीत्वा तत आचार्यपादमूले तद् वस्त्रं स्थापयित्वा यदि ते तस्यैव साधोः प्रयच्छन्ति तदा 'द्वितीयमप्यवग्रहम्' एकस्तावद् गृहस्थादवग्रहो- 5 ऽनुज्ञापितो द्वितीयं पुनराचार्यपादमूलादवग्रहमनुज्ञाप्य धारणा-परिभोगरूपं द्विविधमपि परिहार तस्य वस्त्रस्य 'परिहत्तुं' धातूनामनेकार्थत्वाद् आचरितुं कल्पते इति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं बिभणिषुराह दुविहं च होइ वत्थं, जायणवत्थं निमंतणाए य। . निमंतणवत्थं ठप्पं, जायणवत्थं तु वोच्छामि ॥ २७९४ ॥ 10 द्विविधं च भवति वस्त्रम्-याच्वस्त्रं निमन्त्रणावस्त्रं च । तत्र निमन्त्रणावस्त्रं 'स्थाप्यं । पश्चादभिधास्यते इत्यर्थः । याच्यावस्त्रं पुनः साम्प्रतमेव वक्ष्यामि ॥ २७१४ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति नाम ठवणावत्थं, दव्वव्वत्थं च भाववत्थं च । एसो खलु वत्थस्सा, निक्खेवों चउव्विहो होइ ।। (गा० ६०३) 13 ईत्यादिकाः एवं तु गविढेसुं, आयरिया देंति जस्स जं नत्थि । समभागेसु कएसु व, जहराइणिया भवे बीओ॥ (गा० ६४८) इति पर्यन्ताः षट्चत्वारिंशद् गाथा यथा पीठिकायां वस्त्रकल्पिकद्वारे (पत्र १७४) तथैवात्र द्रष्टव्याः ॥ उपसंहरन्नाह एयं जायणवत्थं, भणियं एत्तो निमंतणं वोच्छं । पुच्छादुगपरिसुद्धं, पुणरवि पुच्छेजिमा मेरा ॥ २७९५ ॥ एतद् याच्यावस्त्रं भणितम् । इत ऊई निमन्त्रणावस्त्रं वक्ष्यामि । तच्च यदा 'कस्यैतद् वस्त्रम् ? किं वा नित्यनिवसनीयादिकमिदमासीत् ?' इति पृच्छाद्वयेन परिशुद्धं भवति तदा 'पुनरपि' तृतीयया पृच्छया पृच्छेत् । तत्र च 'इयं' वक्ष्यमाणा 'मर्यादा' सामाचारी ॥२७९५॥ तामेवाह-27 20 १ » एतचिह्नगतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ २ "परिहरित्तए त्ति आयरित्तए ॥ एष सूत्रार्थः । अधुना नियुक्तिविस्तर:-"दुविधं च० गाधाद्वयं” इति चूर्णौ ॥ ___३ 'याच्यावस्त्रं तु याच्मा-प्रार्थना तया प्राप्तं यद् वस्त्रं तद् यात्रावस्त्रम्, शाकपार्थिवादित्वाद् मध्यमपदलोपी समासः, तत् पुनः साम्प्र कां० ॥ ४ इत आरम्य-एवं कां० ।। ५°द्वारे व्याख्यातास्तदवस्था एवात्रापि तथैव द्रष्टव्याः कां ॥ ६ तदपि यदा 'पृच्छाद्वयपरिशुद्धं' 'कस्यैतद् वस्त्रम् ? किं वा नित्यनिवसनीयादिकमिदमासीत् ?' इति द्वाभ्यां निर्दोषमिति निश्चितं तदा 'पुनरपि' भा० ॥ ७ °या किमर्थं ददासि ?' इति लक्षणया पृच्छेत् का ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सू० ३८ विउसग्ग जोग संघाडएंण भोइयकुले तिविह पुच्छा। कस्स इमं किं व इमं, कस्स व कजे लहुग आणा ॥ २७९६॥ 'व्युत्सगों नाम' उपयोगसम्बन्धी कायोत्सर्गस्तं कृत्वा, 'यस्य च योगः' इति भणित्वा, सङ्घाटकेन भिक्षार्थ निर्गतः । ततो भोगिककुले उपलक्षणत्वादन्यत्रापि यथाप्रधाने कुले प्रविष्टः । कयाचिदीश्वस्या महता सम्भ्रमेण भक्त-पानेन प्रतिलाभ्य वस्त्रेण निमन्त्रितः, तत्र त्रिविधा पृच्छा प्रयोक्तव्या । तद्यथा-'कस्य सत्कमिदं वस्त्रम् ? किं वा इदमासीत् ?' अनेन पृच्छाद्वयेन परिशुद्धं यदा भवति तदा प्रष्टव्यम्-कस्य वा कार्यस्य हेतोः प्रयच्छसि ? इति । यद्येवं न पृच्छति ततश्चत्वारो लघवः आज्ञादयश्च दोषाः ॥२७९६ ॥ अथ विशेषदोषानभिधित्सुराह मिच्छत्त सोच संका, विराहणा भोइए तहिँ गए वा। 10 चउत्थं व विंटलं वा, वेंटल दाणं च ववहारो ॥ २७९७ ॥ भोगिन्या दीयमानं वनं यदि 'कन कार्येण प्रयच्छसि ?' इति न पृच्छ्यते तदा भोगिको मिथ्यात्वं गच्छेत् । अथासौ देशान्तरं गतस्तत आगतस्य महत्तरादिमुखाच्छ्रुत्वा शङ्का भवति । भोगिके तत्र स्थिते 'गते वा' देशान्तरप्राप्ते पश्चादायाते सति 'विराधना' वक्ष्यमाणा भवति । सा चाविरतिका 'चतुर्थं वा' मैथुनमवभाषेत 'वेण्टलं वा' वशीकरणादिप्रयोगं पृच्छेत् ततश्च 15 वक्तव्यम्-वेण्टलमहं न जानामि, उपलक्षणत्वात् चतुर्थ च प्रतिसेवितुं न कल्पते । ततो यदि सा वस्त्रं याचते तदा दानं कर्त्तव्यम् , भूयोऽपि तद् वस्त्रं तस्या एव समर्पणीयमिति भावः । अथ तद् वस्त्रं छिन्नं वा प्राघुणकादीनां दत्तं वा भवेत् सा च तदेव वस्त्रं मार्गयेत् तदा राजकुलं गस्वा व्यवहारः कर्त्तव्य इति द्वारगाथासमासार्थः॥२७९७॥अथैनामेव विवरीषुराह वत्थम्मि नीणियम्मि, किं दलसि अपुच्छिऊण जइ गेण्हे ।। अन्नस्स भोयगस्स व, संका घडिया णु किं पुट्विं ॥ २७९८॥ __ वस्त्रे भोगिन्या निष्काशिते सति यदि किं' किमर्थं ददासि ? इत्यपृष्ट्वैव गृह्णाति तदा 'भोक्तुः' तदीयस्यैव भर्तुः 'अन्यस्य वा श्वशुर-देवरादेः शङ्का भवेत् । नुरिति वितर्के, किं मन्ये एतौ परस्परं पूर्वमेव घटितौ यदेवं तूष्णीको दान-ग्रहणे कुरुतः ? अथवा किमेषा मैथुनार्थिनी भूत्वा वस्त्रमस्मै प्रयच्छति ? उत वेण्टलार्थिनी ? इति ॥ २७९८ ॥ मिच्छत्तं गच्छेजा, दिजंतं ददु भोयओ तीसे । वोच्छेद पओसं वा, एगमणेगाण सो कुजा ॥ २७९९ ॥ तद् वस्त्रं दीयमानं दृष्ट्वा तस्याः सम्बन्धी 'भोजकः' भर्ता मिथ्यात्वं गच्छेत् , यथानिस्सारं प्रवचनममीषामित्यादि । प्रतिपन्नमिथ्यात्वश्च तस्य वैकस्य साघोरनेकेषां वा साधूनां तद्व्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुर्यात् प्रद्वेषं वा गच्छेत् ॥ २७९९ ॥ १°५ अ भो° ता. विना ॥ २ 'सङ्घाटकः' साधुयुग्मलक्षणो भिक्षार्थे नि° कां० ॥ ३ दम् ? कस्य वा कार्यस्य अर्थाय प्रयच्छसि । तत्राद्यपृच्छाद्वयपरिशुद्धं यदा भवति तदा प्रष्टव्यम्-केन कार्येण प्रयच्छसि ? भा०॥ ४°म्-न कल्पते मैथुनं प्रतिसेवितुम्, वेण्टलं वा अहं न जानामि । ततो यदि भा० ॥ 25 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९१ भाष्यगाथाः २७९६-२८०२) प्रथम उद्देशः । गतं मिथ्यात्वद्वारम् । अथ 'श्रुत्वा शङ्का' द्वारं विराधनाद्वारं चाह-» एमेव पउत्थे भोइयम्मि तुसिणीयदाण-गहणे तु ।। महतरगादीकहिए, एगतर पतोस वोच्छेदो ॥ २८०० ॥ मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेंटले लहुगा । संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरा पउत्थम्मि ॥ २८०१॥ एवमेव 'प्रोषिते' देशान्तरगतेऽपि भोगिके दोषा वक्तव्याः । तथाहि-तेन भोगिकेन देशान्तरं गच्छता ये महत्तरकाः स्थापितास्तैः आदिशब्दाद् महत्तरिकया ब्यक्षरिकया कर्मकरेण वा तयोरविरतिका-संयतयोस्तूष्णीकदान-ग्रहणं दृष्ट्वा भोगिकस्य भूयः समागतस्य कथितम् । ततश्चै सः 'एकतरस्य' संयतस्याविरतिकाया वा उपरि प्रद्वेषं गच्छेत् , प्रद्विष्टश्चाविरतिकां संयतं वा हन्याद् निष्काशयेद्वा बन्नीयाद्वा निरुन्ध्याद्वा विमानयेद्वा, व्यवच्छेदं वैकस्यानेकेषां वा कुर्यात् । 10 अत्र च मैथुनशङ्कायां चत्वारो गुरुकाः, निःशङ्किते मूलम् । वेण्टलशङ्कायां चत्वारो लघुकाः, निःशङ्किते चत्वारो गुरवः । सविशेषतराश्च दोषाः प्रोषिते भोगिके भवन्ति, ते च यथासानं प्रागेवोक्ताः (गा० २७९९) ॥ २८०० ॥ २८०१ ॥ एवं ता गेण्हते, गहिए दोसा पुणो इमे होति ।। घरगयमुवस्सए वा, ओभासइ पुच्छए वा वि ॥ २८०२ ॥ 15 एवं तावद् वस्त्रं गृह्णतो दोषा उक्ताः, गृहीते पुनर्वस्त्रे 'एते' वक्ष्यमाणा दोषा भवन्तितस्मिन् गृहे यदा स एव साधुरन्यस्मिन् दिवसे गतो भवति सा वा अविरतिका तस्य साधोरुपाश्रये आगता भवति तदा मैथुनमवभाषते-त्वं ममोझामको भव । वेण्टलं वा सा पृच्छति १ एतन्मध्यगतः पाठः त० डे० मो० ले. नास्ति ॥ २ च तच्छुत्वा भोगिको मैथुनविषयां वेण्टलविषयां वा शङ्कां कुर्यात् । अत एव सः 'एक कां• ॥ ३ °के वक्तव्याः , ते भा० ॥ ४ इतोऽग्रे भा० विनाऽन्यत्र मिच्छत्तं गच्छिना, दिजंतं दट्ठ भोयओ तीसे। वोच्छेय पओसं वा, एगमणेगाण सो कुजा ॥ तद् वस्त्रं दीयमानं दृष्ट्वा तस्याः सम्बन्धी 'भोजकः' भर्ती मिथ्यात्वं गच्छेत्, यथानिस्सारं प्रवचनममीषाम् इत्यादि । प्रतिपन्नमिथ्यात्वश्च तस्य वा एकस्य साधोरने. केषां वा साधूनां तद्रव्या-ऽन्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुर्यात् प्रद्वेषं वा गच्छेत् ॥ एवं ता० गाथा त० डे० मो० ले। अथ चतुर्थावभाषण-वेण्टलपृच्छाद्वारे विवृणोति-एवं ता० गाथा का० । "णिस्संकिए मिच्छत्त त्ति अस्य व्याख्या-मिच्छत्तं गच्छेज्जा० गाधा कंठा ॥” इति चूर्णौ । मिच्छत्तं गच्छिज्जा० गाथा त० डे. मो० ले० चूर्णौ च व्याख्यासहिता पुनरावर्तिता वर्तते, भा० को. विशेषचूर्णौ बृहद्भाष्ये च सर्वथा नास्ति, २८०१ गाथाव्याख्यान्ते "ते च यथास्थानं प्रागेवोक्ताः" इति टीकाकृदुल्लेखदर्शनेन नेयं गाथाऽत्र टीकाकर्तुरभिमतेति वयं मन्यामह इति नेयं गाथा तट्टीका च मूल आहता ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सू० ३८ कथय किमपि तादृशं वशीकरणं येन भोगिको मे वशीभवति ॥ २८०२ ॥ इदमेव स्पष्टयति - पुच्छाहीणं गहियं, आगमणं पुच्छणा निमित्तस्स । छिन्नं पि हु दायव्वं, ववहारो लब्भए तत्थ ॥ २८०३ ॥ ग्रहणकाले 'केन कार्येण मे प्रयच्छसि ?' इत्येवं पृच्छया हीनं वस्त्रं गृहीतम् । गृहीते च b तस्याः संयतप्रतिश्रये आगमनम् आगता च सा 'पुत्रो मे भविता ? न वा ?' इत्यादिकं निमित्तं पृच्छति', येन वाऽहं भोगिकस्याभिरुचिता भवामि तत् किमप्युपदिश । ततः साधुना वक्तव्यम् —न कल्पते मैथुनं प्रतिसेवितुं साधूनाम्, वेण्टलं निमित्तं वा नाहं जानामि । एवमुक्ते यदि सा वस्त्रं भूयोऽपि मार्गयेत् ततः प्रतिदातव्यम् । अथ तेन वस्त्रेण च्छित्त्वा पात्रधादिकं किमप्यपरं कृतं ततश्छिन्नमपि तदेव दातव्यम् । अथ व्यवहारद्वारं व्याख्यायते10 तत्र यदि सा छिन्नं न गृह्णाति, ब्रवीति च - मम सकलमेव प्रयच्छ । ततो राजकुलं गत्वा व्यवहारे प्रारब्धे कारणिका अभिधातव्याः, यथा - केनचिद् वृक्षखामिना वृक्षो विक्रीतः, ऋयिकेण च मूल्यं दत्त्वा छित्त्वा च खगृहं नीतः, ततः स विक्रयिकः पश्चात्तापितो भणति - प्रतिगृहाण मूल्यम् प्रत्यर्पय मदीयं वृक्षम् ; क्रयिकः प्राह - मया स वृक्षश्छित्त्वा पृथक्काष्ठानि कृतः, अतः कथं तमेव वृक्षमखण्डमहं ते समर्पयामि ?; एवं विवदमानौ तौ राजकुलमुपस्थितौ, 15 ततः कथयत कारणिकाः ! किं स क्रयिको युष्माभिर्वृक्षं दाप्यते ? अथ दाप्यते ततः काष्ठान्येव, न पूर्वावस्थं वृक्षमिति व्यवहारो लभ्यते ॥ २८०३ ॥ 3 पाहुणएणऽण्णेण व, नीयं व हियं व होइ दङ्कं वा । तहियं अणुट्ठाई, अन्नं वा दड्ढ मोत्तूणं ।। २८०४ ॥ अथ वस्त्रं प्राघुणकेनान्येन वा साधुनाऽन्यत्र नीतं भवेत् स्तेनेन वा हृतं प्रदीपनेन वा दग्ध 20 तत्र चानुशिष्ट्यादिकं कर्त्तव्यम् । अनुशिष्टिर्नाम - सद्भावकथनपुरःसरं प्रज्ञापना । तथाऽप्यनुपरतायां धर्मकथा कर्त्तव्या, विद्यया मंत्रेण वा निराकरणीया । तदभावेऽन्यद् वस्त्रं तस्यादात व्यम्, परं दग्धं वस्त्रं मुक्त्वा, दग्धे हृते वा न किञ्चिद् दीयत इति भावः । यदि सा राजकुलमुपतिष्ठते ततस्तत्रापि व्यवहारो लभ्यते, “दत्त्वा दानमनीश्वरः" इति ॥ २८०४ ॥ अथ दानकाले साधुना पृष्टम् - किंनिमित्तं ददासि ? तत्र सा तूंष्णिका स्थिता, बहिश्चे25 ष्टया न तथाविधः कोऽपि भाव उपदर्शितः, परं ग्रहणानन्तरं काचिदुपाश्रयमागत्य वेण्टलं पृच्छति चतुर्थमवभाषते वा तत्राभिधातव्यम् - न वि जाणामों निमित्तं, न य णे कप्पइ पउंजिउं गिहिणो । परदारदोसकहणं, तं मम माया य भगिणी य ॥ २८०५ ॥ वयं निमित्तं न जानीमः, न च "णे" अस्माकं जानतामपि गृहिणः पुरतो निमित्तं प्रयोक्तुं १ °ति, उपलक्षणमिदम्, तेन चतुर्थमवभाषते वशीकरणं वा पृच्छति येनाहं भो' कां० ॥ २ मो० ले० विनाऽन्यत्र —म् । एतेन दानद्वारमपि विवृतम् । अथ व्यव' कां० | 'म् । अथ सा छिन्नं भा० त० डे० ॥ ३ एतदग्रे अत्रैव प्रकारान्तरमाह इत्यवतरणं कां० ॥ ४ भवति हृतं वा स्तेनेन प्रदीपनकेन वा कां० ॥ ५ °हिणां पु° कां विना ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८०३-९] प्रथम उद्देशः । ७९३ कल्पते, तपः-संयमादिक्षतिप्रसङ्गात् । या च चतुर्थमवभाषते तस्याः परदारदोषकथनं क्रियते, यथा— परपुरुष-परदारप्रसक्तयोः स्त्री-पुंसयोरिहैव भवे दण्डन- मुण्डन - तर्जन- ताडनादयः, परभवे तु नरकगतौ गतानां तप्तायः पुत्तलिकालिङ्गनादयः, तत उद्वृत्तानां तिर्यग्मनुष्यभवग्रहणेषु भूयो भूयो नपुंसकत्व - दौर्भाग्यप्रभृतयो बहवः प्रत्यपायाः । अपि च त्वं मम माता वा भगिनी वा वर्त्तसे अतः कृतमनया वार्त्तयेति ।। २८०५ ।। वस्त्रदानस्यैव कारणान्तरमाह - एक्कस्स व एकस्स व, कजे दिजंत गिण्हई जो उ । ते चैव तेस्स दोसा, बालम्मि य भावसंबंधी || २८०६ ॥ 'एकस्य वा ' पूर्वसम्बन्धस्य 'एकस्य वा' पश्चात्सम्बन्धस्य कार्ये दीयमानं वस्त्रं यः साधुर्गृहाति तस्य 'त एव' प्रागुक्ताः शङ्कादयो दोषाः । 'बाले च' बालविषयो भावसम्बन्धो वक्ष्यमाणो भवतीति' समासार्थः ॥ २८०६ ॥ अथैनामेव गाथां विवृणोति 10 अहवण पुट्ठा पुवेण पच्छबंधेण वा सरिसमाह । संकाइया उ तत्थ वि, कडगा य बहू महिलियाणं ।। २८०७ ॥ अथवा सा दात्री पृष्टा सँती ' पूर्वसम्बन्धेन' यादृशो मम भ्राता तादृश एव त्वं वर्त्तसे, 'पश्चात्सम्बन्धेन तु' श्वशुरस्य देवरस्य भर्तुर्वा सदृशस्त्वं विलोक्यसे अतोऽहं भवते वस्त्रं प्रयच्छामीत्याह, एवमन्यतरेण सम्बन्धकार्येण दीयमानं यदि गृह्णाति तदा त एव शङ्कादयो दोषाः । 15 यदि च तस्या अविरतिकाया बालमपत्यं किमपि विद्यते तदा स साधुस्तया भ्रातृभावेन प्रतिपन्नः सन् चिन्तयति — इदं मे भागिनेयम्; अथ भर्तृतया प्रतिपन्नस्ततश्चिन्तयति — इदं मे पुत्रभाण्डम् ; एवमादिको भावसम्बन्धो भवति, ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः । किञ्च महेलि - कानां बहूनि 'कृतकानि' कैतवानि भवन्ति, तेर्ने देवरादिग्रहणोपायेन सम्बन्धमानीय चारित्रात् परिभ्रंशयन्तीति भावः ॥ २८०७ ॥ यत एवमतः 20 एयद्दोस विमुक्कं, वत्थग्गहणं तु होइ कायव्वं । खमउत्ति दुब्बलो त्ति य, धम्मो त्ति य होति निद्दोसं ॥ २८-८ ॥ एतै:- :- अनन्तरोक्तैर्देषैर्विमुक्तं वस्त्रग्रहणं साधुना कर्त्तव्यं भवति । कथम् ? इत्याह“खमउ त्ति” इत्यादि । यदि सा दात्री पृष्टा सती ब्रूयात् – 'क्षपकः' तपस्वी त्वम्, अथवा दुर्बलोऽसि क्षपकतया स्वभावेन वा ततस्ते प्रयच्छामि, यद्वा 'तपखिने दीयमाने धर्मो भवति' इति 25 कृत्वा ददामीति, एवं ब्रुवति दायके तद् वस्त्रं लभ्यमानं निर्दोषं भवति || २८०८|| किञ्चआरंभनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहि धम्मे कयमणाणं ।। २८०९ ।। १ तत्थ दो ता० ॥ २ °ति निर्युक्तिगाथासमा कां० ॥ ३ सती पूर्वसम्बन्धेन वा पश्चात्सम्बन्धेन वा यदि 'सदृशं' सम्बन्धिनं तं साधुम् 'आह' ब्रूते । तत्र पूर्वसम्बन्धेन यथा - यादशो कां० ॥ ४°न पत्यादिग्रहणों भा० ॥ आरम्भः-षट्कायोपमर्दः तस्मान्निवृत्तानां तथा 'अक्रीणतां' वस्त्रादिक्रयमकुर्वाणानाम् 'अकारयतां' आरम्भ-क्रयकरणे परमव्यापारयतामेवंविधानां 'धर्मे' श्रुत चारित्रभेदभिन्ने कृतमनसां 30 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सू० ३८ साधूनां गृहिमिः सर्वारम्भप्रवृत्तैः 'धर्मार्थ' कुशलानुबन्धिपुण्योपार्जनाथ वस्त्र-पात्रादिकं यथायोग्यं दातव्यम् इति बुद्ध्या य उपासकादिर्वस्त्रेणोपनिमन्त्रयति तस्य ग्रहीतव्यमिति प्रक्रमः ॥ २८०९ ॥ तदेवं वस्त्रमुत्पन्नं यावद् गुरूणां समीपे न गम्यते तावत् कस्यावग्रहे भवति ? इति उच्यते5 संघाडए पविडे, रायणिए तह य ओमरायणिए । जं लब्भइ पाओग्गं, रायणिए उग्गहो होइ ॥ २८१० ॥ उपयोगकायोत्सर्ग कृत्वा भिक्षार्थ सङ्घाटकः प्रविष्टः, तत्रैको रानिको द्वितीयोऽवमरालिकः। तत्र च यत् प्रायोम्यं सङ्घाटकेन लभ्यते तद् यावदाचार्यपादमूलं न गम्यते तावत् सर्वं 'रानि. कस्य' ज्येष्ठार्यस्याक्ग्रहो भवति, ज्येष्ठार्यस्तस्य स्वामीति भावः ॥ २८१० ॥ अथ यदुक्तम्-- 10 "कप्पइ से सागारकडं गहाय दोचं पि उग्गहं अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए" (उ०१ सू० ३८) तदेतद् यथा केचिदाचार्यदेशीयाः खच्छन्दबुद्ध्या व्याचक्षते तथा प्रतिपादयति-- दोचं पि उग्गहो चि य, केइ गिहत्थेसु दोच्चमिच्छति ।। साग ! गुरुणो नयामो, अणिच्छे पच्चाहरिस्सामो॥ २८११॥ 'द्वितीयमपि वारमवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः' इति सूत्रे यदुक्तं तत् केचिदाचार्या गृहस्थविषयं 16 द्वितीयमवग्रहमिच्छन्ति । कथम् ? इत्याह--"साग" इत्यादि । यः श्रावको वस्त्रं ददाति स वक्तव्यः-हे श्रावक ! वयमेतद् वस्त्रं गृहीत्वा गुरूणां समीपे तावन्नयामः, यद्याचार्या एतद् ग्रहीष्यन्ति ततो भूयोऽप्यागम्य भवतः समीपे द्वितीयं वारमवग्रहमनुज्ञापयिष्याम इति, अथाचार्या वस्त्रं न ग्रहीष्यन्ति ततस्तेषां वस्त्रस्यानिच्छायां भवत एवेदं प्रत्याहरिष्यामः ॥२८११॥ 4 अमुमेव पक्षं परः समर्थयन्नाह-~ 20 इहरा परिट्ठवणिया, तस्स व पञ्चप्पिणंति अहिगरणं । गिहिगहणे अहिगरणं, सो वा दट्टण वोच्छेदं ॥ २८१२ ॥ 'इतरथा' यद्येवं न विधीयते ततो दर्शितमपि वस्त्रं यदाऽऽचार्या न गृह्णीयुस्तदा पारिष्ठापनिकादोषः । अथ न परिष्ठापयन्ति ततोऽप्रातिहारिकं गृहीत्वा भूयस्तस्यैव गृहस्थस्य प्रत्यर्पयतां परिभोग-धावनादिकमधिकरणमुपजायते । अथ तत् परिष्ठापितं वस्त्रं कोऽपि गृही गृह्णाति 26 ततोऽप्यधिकरणमेव । ‘स वा' दाता तद् वस्त्रं परिष्ठापितं श्रुत्वा अन्यगृहस्थगृहीतं वा दृष्ट्या तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदमेकस्यानेकेषां वा साधूनां कुर्यात् ॥ २८१२ ॥ अथ सूरिः परोक्तं दूषयन्नाह चोयम ! गुरुपडिसिद्धे, तहिं पउत्थे धरित दिन्नं तु ।' धरणुज्झणे अहिमरणं, गेण्हेज सयं व पडिणीयं ॥ २८१३ ॥ 30 हे नोदक ! एवं क्रियमाणे त एव त्वदुक्ता दोषा भवन्ति । तथाहि-तद् वस्त्रमानीय गुरूणामर्पितम् , तेन चाचार्याणां न प्रयोजनं ततस्तैः प्रतिषिद्धम् , तच्च वस्त्रं यावत् तस्य दाय १२ एतचिह्नगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ २'दोषो भवति । 'वा' इति अथवा चेन्न परिकां०॥ ३ एतदप्रै ग्रन्थानम-४००० इति भा० विना ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८१०-१४] प्रथम उद्देशः । ७९५ कस्य प्रत्यर्प्यते तावदसौ ग्रामान्तरं प्रोषितः, प्रोषिते च तस्मिन् यदि तद् वस्त्रं धारयति-परिभुझे इत्यर्थः तदा अदत्तादानम् । अथ तस्य सत्कं भणित्वा धारयति तदाऽधिकरणम् । अथात्मार्थितं कृत्वा धारयति तथाप्यधिकरणम् , अतिरिक्तोपकरणस्यापरिभोग्यतया अधिकरणत्वात् । अथ तद् वस्त्रमुज्झति-परिष्ठापयतीत्यर्थः तथापि गृहिगृहीतेऽधिकरणं परिष्ठापनादोषाश्च । अथवा प्रतिनीतं तद् वस्त्रं 'खयमेव' आत्मना गृह्णीयाद्, न प्रतिदद्यादिति भावः । तस्मादेष त्वदुक्को 5 द्वितीयावग्रहो न भवति, किन्तु गृहस्थहस्ताद् वस्त्रं गृहीत्वा गुरुमूलमागम्य तेषां समर्प्य यदि ते तस्यैव प्रयच्छन्ति तदा यत् ते भूयोऽप्यवग्रहमनुज्ञाप्यन्ते एष द्वितीयावग्रहः ॥ २८१३ ॥ सूत्रम् निग्गंथं च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा 10 कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चं पि उग्गहमणुन्नवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ३९ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाष्यम्बहिया व निग्गयाणं, जायणवत्थं तहेव जयणाए । 15 निमंतणवत्थें तहेव, सुद्धमसुद्धं च खमगादी ॥ २८१४ ॥ 'बहिः' विचारभूमौ वा विहारभूमौ वा निर्गतानां याच्यावस्त्रं तथैव यतनया ग्रहीतुं कल्पते यथा भिक्षाचर्यायामुक्तम् (गा० २७९४) । निमन्त्रणावस्त्रमपि तथैव शुद्धमशुद्धं च वक्तव्यम् (गा० २७९५ आदि)। शुद्धं नाम-यत् क्षपक इति वा धर्म इति वा कृत्वा दीयते । अशुद्धंयत् चतुर्थ-वेण्टलादिकार्येण दीयते ॥ २८१४ ॥ 20 सूत्रम् निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणिपायमूले ठवित्ता दोचं पि उग्गहम- 25 गुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ४० ॥ तथा निग्गंथिं च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि . १ 'वहिः' विचारभूमौ-संज्ञाभुवि विहारभूमौ वा-स्वाध्यायभूमिकायां निर्गतानां भा० विना ॥ २ ग्रहीतव्यं यथा भा० ॥ . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सू० ४०-४१ वा निक्खंतिं समाणिं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय पवित्तिणिपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि उग्गहमणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ४१ ॥ अस्य सूत्रद्वयस्यापि व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाप्यविस्तरः निग्गंथिवत्थगहणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। मिच्छत्ते संकाई, पसजणा जाव चरिमपदं ॥ २८१५ ॥ निम्रन्थीनां गृहस्थेभ्यो वस्त्रग्रहणं कुर्वन्तीनां चत्वारो मासा अनुद्धाताः प्रायश्चित्तम् । ताश्च वस्त्रं गृह्णन्तीदृष्ट्वा कश्चिदभिनवश्राद्धो मिथ्यात्वं गच्छेत्-अहो! निर्ग्रन्थ्योऽपि भाटिं गृह्णन्तीति । 10 अथवा शङ्कां कुर्यात्-किं मन्ये धर्मार्थं दत्तमियं गृह्णाति ? उत भाटिनिमित्तम् ? । एवं शङ्कायां चतुर्गुरु । निःशङ्किते मूलम् । प्रसजना नाम-भोजिका-घाटिकादिप्रसङ्गपरम्परा, तत्र 'चरमपदं' पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तम् ॥ २८१५ ॥ इदमेव भावयति पुरिसेहिंतो वत्थं, गिण्हंतिं दिस्स संकमादीया । ओभासणा चउत्थे, पडिसिद्ध करेज उड्डाहं ॥ २८१६ 15 पुरुषेभ्यः सकाशाद् वस्त्रं गृह्णन्ती निर्ग्रन्थीं दृष्ट्वा शङ्कादयो दोषाः । शङ्का नाम-किमेषा भाटिं गृह्णाति ? । एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, भोजिकायाः कथिते षड्लघु, घाटिकस्य कथने षड्गुरु, ज्ञातीनां कथने च्छेदः, आरक्षिकेण श्रुते मूलम् , श्रेष्ठि-सार्थवाह-पुरोहितैः श्रुतेऽनवस्थाप्यम् , अमात्य-नृपतिभ्यां श्रुते पाराञ्चिकम् । स वा गृहस्थो वस्त्राणि दत्त्वा चतुर्थविषयामवभाषणां कुर्यात् , तया च प्रतिषिद्धे उड्डाहं कुर्यात्-एषा मदीयां भाटिं गृहीत्वा सम्प्रति 20 मदुक्तं न करोतीति ॥ २८१६ ॥ किञ्चान्यत् लोभेअ आभिओगे, विराहणा पट्टएण दिटुंतो। दायव्य गणहरेणं, तं पि परिच्छित्तु जयणाए ॥ २८१७ ॥ "लोभेय" त्ति येन वा तेन वा वस्त्रादिना स्त्री सुखेनैव प्रलोभ्यते । “आभिओगे" त्ति कोऽप्युदारशरीरां संयती दृष्ट्वा तस्या वशीकरणार्थमभियोगं कुर्यात् । ततश्चारित्रविराधना । अत्र 25 च पट्टकेन दृष्टान्तः । यत एवमतः संयतीनां गणधरेण वस्त्राणि दातव्यानि । 'तदपि' वस्त्रदानं सप्त दिवसानि 'परीक्ष्य' परीक्षां कृत्वा 'यतनया' वक्ष्यमाणलक्षणया कर्तव्यमिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ।। २८१७ ॥ अथ विस्तरार्थमाह पगई पेलवसत्ता, लोभिजइ जेण तेण वा इत्थी। अवि य हु मोहो दिप्पड़, सहरं तासिं सरीरेसु ॥ २८१८॥ 20 'प्रकृत्या' खभावेनैव स्त्री प्रायः 'पेलवसत्त्वा' तुच्छधृतिबला ततो येन वा तेन वा १°रु । आदिशब्दाद् भाटिनिमित्तमेव गृह्णातीति निःशङ्किते का० ॥ २ 'पट्टकेन' वक्ष्यमाणलक्षणेन दृ° कां० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८१५-२१) प्रथम उद्देशः । ७९७ वस्त्रादिना लोभ्यते । अपि च ताः स्वभावेनैव बहुमोहा भवन्ति अतस्तासां पुरुषैः सह संलापं कुर्वतीनां दानं च गृह्णतीनां 'खैरं' खेच्छया शरीरेषु मोहो दीप्यते । अभियोगं वा तस्या विद्याभिमन्त्रितवस्त्रप्रदानव्याजेन कुर्यात् , अभियोगिता च सती चारित्रं विराधयेत् ॥ २८१८ ॥ तथा चात्र पट्टकदृष्टान्तमाह वियरग समीवारामे, ससरक्खे पुप्फदाण पट्ट कया। निसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण निच्छुमणं ॥ २८१९ ॥ एगत्थ गामे कूविया, सा य आरामसमीवे । ततो य इथिजणो पाणियं वहइ । तम्मि आरामे एगो ससरक्खो । सो कूवियातडे उरालं अविरइयं दटुं तीए विजाभिमंतियाणि पुप्फाणि देइ । तीए घरं गंतुं नीसापट्टए ताणि ठवियाणि । ततो ते पुप्फा पट्टगं आविसिउं अडरत्तवेलाए घरदारं पिट्टेति । ततो अगारो निग्गओ पेच्छइ पट्टगं सपुप्फगं । तेण अगारी 10 पुच्छिता । तीए सब्भावो कहिओ। तेण वि गामस्स कहियं । गामेण सो ससरक्खो निच्छूढो॥ __ अथाक्षरगमनिका-'विदरकः' कूपिका, सा चारामस्य समीपे । ततः सरजस्कः कूपिकातटे काञ्चिदविरतिकां दृष्ट्वा विद्याभिमन्त्रितपुष्पदानं करोति । तया च गृहे गत्वा तानि पट्टके कृतानि । ततो 'निशि' रात्रौ 'वेलायाम्' अर्द्धरात्रे गृहद्वारस्य पिट्टनं तैः कृतम् । ततस्तेन तस्याः पृच्छा कृता । सद्भावे च कथिते ग्रामस्य कथयित्वा तेन निष्काशनं सरजस्कस्य कृतम् । 15 यत एते दोषा अतो निर्ग्रन्थी भिरात्मना गृहस्थेभ्यो वस्त्राणि न ग्रहीतव्यानि, किन्तु गणधरेण तासां दातव्यानि ॥ २८१९ ॥ कः पुनरत्र विधिः ? इति अत आह सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छणे गुरुगा। देइ गणी गणिणीए, गुरुगा सय दाण अट्ठाणे ॥ २८२० ॥ संयतीप्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य सप्त दिवसान् स्थापयति-परिवासयति । ततः स्थापयित्वा कल्पं 20 च कृत्वा स्थविरो धर्मश्रद्धावान् प्रावार्यते । यदि नास्ति कोऽपि विकारः सुन्दरम् । एवं परीक्षा कर्त्तव्या । यद्यपरीक्ष्य प्रयच्छति ततश्चत्वारो गुरवः । एवं परीक्षिते 'गणी' गणधरः 'गणिन्याः' प्रवर्तिन्याः वस्त्राणि प्रयच्छति । साऽपि गणिनी संयतीनां यथाक्रमं ददाति । अथाचार्य आत्मना प्रयच्छति ततश्चतुर्गुरुकम् । काचिद् मन्दधर्मा ब्रूयात् एतस्याः सुन्दरतरं दत्तं न मम, तन्नूनमियमस्याभीष्टा । एवं स्वयं दाने विधीयमाने आचार्यस्यास्थाने स्थापनं भवति । 25 यत एवमतो नात्मना दातव्यं किन्तु प्रवर्तिन्या तासां दापयितव्यम् ।। २८२० ॥ नोदकः प्राह-यद्येवं तर्हि सूत्रं निरर्थकम् , तत्र निर्ग्रन्थ्या वस्त्रग्रहणस्यानुज्ञातत्वात् । आचार्यः प्राह असइ समणाण चोयग! जाइय-निमंतणवत्थ तह चेव । जायंति थेरि असई, विमिस्सिया मोत्तिमे ठाणे ॥ २८२१ ॥ हे नोदक ! सूत्रं निरर्थकं न भवति, किन्तु श्रमणानामसति यदा स्थविरा निर्यन्थ्यो वस्त्राणि 30 १ 'गणी' आचार्यः सः 'गणिन्याः' प्रवर्तिन्याः प्रयच्छति । साऽपि गणिनी पूर्वोक्तेन विधिना ददाति । अथा भा० ॥ २°मतः प्रवर्तिन्या तासां दातव्यम् त• डे० मो० ले० ॥ ३ °य-नेमंतवत्थ ता० ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सू० ४०-४१ गृह्णन्ति तद्विषयमेतत् सूत्रम् । तत्र याच्यावस्त्रे निमन्त्रणवस्त्रे च तथैव सर्वोऽपि विधिद्रष्टव्यः । ताश्च प्रथमतः स्थविरा एव केवला याचन्ते । तासामसति तरुणीविमिश्रिताः स्थविराः, परमेतानि स्थानानि मुक्त्वा ॥ २८२१ ।। तान्येव दर्शयति कावालिए य भिक्खू, सुइवादी कुबिए अ वेसित्थी। वाणियग तरुण संसह मेहुणे भोइए चेव ॥ २८२२ ॥ माता पिया य भगिणी, भाउग संबंधिए य तह सन्नी । भावित कुलेसु गहणं, असई पडिलोम जयणाए ॥ २८२३ ॥ _ 'कापालिकः' अस्थिसरजस्कः, भिक्षुकः' सौगतः, 'शुचिवादी' दकसौकरिकः, 'कूर्चिकः' कूर्चेन्धरः, वेश्यास्त्री वाणिजकाश्च प्रतीताः, 'तरुणः' युवा, 'संसृष्टः' पूर्वपरिचित उद्भामकः, 10 मैथुनः' मातुलपुत्रः, 'भोक्ता' भर्ता, माता पिता भगिनी भ्राता एते चत्वारोऽपि प्रसिद्धाः, _ 'सम्बन्धी' सामान्यतः सज्ञातिकः, 'संज्ञी' श्रावकः । एतान् कापालिकादीन् मुक्त्वा यानि भावितानि यथाप्रधानानि मध्यस्थानि कुलानि तेषु संयतीभिर्वस्त्रग्रहणं कर्त्तव्यम् । अथ भावितकुलानि न प्राप्यन्ते ततस्तेषामभावे 'प्रतिलोमं' प्रतीपक्रमेण प्रतिषिद्धस्थानेष्वेव यतनया यथा कन्यमाणा दोषा न भवन्ति तथा गृह्णीयुरिति सङ्ग्रहगाथाद्वयसमासार्थः ॥२८२२ ॥ २८२३ ॥ 15 अथैतदेव प्रतिपदं भावयति अट्ठी विजा कुच्छित, भिक्खु निरुद्धा उ लज्जएऽण्णत्थ । एव दगसोय कुच्चिग, सुइग ति य वंभचारित्ता ॥ २८२४ ॥ “अट्टि" त्ति अस्थिसरजस्काः, ते विद्यया मन्त्रेण वा संयतीनां वस्त्रदानव्याजेनाभियोगं कुर्युः, अपि च ते 'कुत्सिताः' जुगुप्सिता भवन्ति । ये तु 'भिक्षुकाः' सौगतास्ते प्रायो निरुद्धबस्तयः 20 'अन्यत्र च' यक्षरिकादिषु गच्छन्तो लज्जन्ते, गाथायां प्राकृतत्वादेकवचननिर्देशः । एवं 'दकसौकरिकाः' परिव्राजकाः 'कूर्चिकाश्च' कूर्चन्धरा वक्तव्याः, ते चोभयेऽप्येवं मन्यन्तेएताः श्रमण्यो ब्रह्मचारित्वादप्रसवाः, अप्रसवत्वाच्च 'शुचयः' पवित्रा एता इति ॥ २८२४ ॥ अन्नठवण जुन्ना, अभिओगे जा व रूविणी गणिया । भोइग चोरिय दिन्नं, दटुं समणीसु उड्डाहो ॥ २८२५ ॥ 25 या जीर्णा गणिका सा स्वयं विवपयितुमसमर्था रूपवती संयतीं दृष्ट्वा 'अन्यस्थापनार्थम्' अपरगणिकास्थापनार्थमभियोगयेत् । या वा रूपवती गणिका साऽप्येवमेवाभियोगं कुर्यात् । तथा यो मातुलपुत्रस्हेरे स्वभोजिकाया वस्त्रं चौरिकया संयत्याः दत्तम् , तच्च तया प्रावृतं दृष्ट्वा सा भोगिनी बहुजनमध्ये उड्डाहं कुर्यात्-एषा मे गृहभङ्गं करोति ॥ २८२५ ॥ देसिय वाणिय लोभा, सई दिनेण उ चिरं पि होहित्ति । 30 तरुणुब्भामग भोयग, संका आतोभयसमुत्था ॥ २८२६ ॥ 'देशिकः' देशान्तरायातो वाणिजश्चिन्तयति-'सकृद्' एकवारं 'दत्तेन' दानेन ममेयं १हीयादिति त० डे० मो० ले० ॥ २°न आत्मीयाया भोगिन्याश्चौरिकया वस्त्रं दत्तम्, तच्च श्रमण्या प्रावृतं भा० ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८२२ - ३० ] प्रथम उद्देशः । ७९९ चिरमपि भविष्यति इति विचिन्त्य लोभाद् भूयांसि वस्त्राणि दत्त्वा प्रलोभयेत् । यस्तु तरुणः स विकार बहुल उत्कटमोहश्च भवति, संसृष्टः पूर्वोद्रामक:, 'भोक्ता' प्राक्तनो भर्त्ता, एतेषां हस्तादादीयमाने वस्त्रे शङ्कादय आत्मोभयसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति ।। २८२६ ॥ दाहामो णं कस्स, नियया सो होहिई सहाओ णे । सन्नी वि संजयाणं, दाहि इति विष्परीणामे ॥ २८२७ ॥ 5 मातृ-पितृप्रभृतयः 'निजकाः' खजनाश्चिन्तयन्ति - य[स्य क ] स्याप्येनां वयं दास्यामः सः अस्माकं सहायो भविष्यति ; यस्तु 'संज्ञी' श्रावकः सोऽपि - एषा मे धर्म सहाया भविष्यति, अन्यच्च संयतानामेषा विपुलं भक्तपानं मदीये गृहे वर्त्तमाना दास्यति ; 'इति' एवं चिन्तयित्वा विपरिणामयेत्, विपरिणाम्य चोन्निष्क्रमणं कारयेत् । यत एवमत एतानि स्थानानि वर्जयित्वा यानि भावितकुलानि तेषु ग्रहीतव्यम् । भावितकुलानामभावे प्रतिषिद्धस्थानेष्वेव पश्चानुपूर्व्या गृह्णी- 10 यात्—प्रथमं यः सभोगिनीकः श्रावकस्तस्य सकाशाद् ग्रहीतव्यम्, तस्याभावेऽभोगिनी कश्रावकहस्तादपि, एवं प्रतीपक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद् भिक्षुकाणामभावे कापालिकानां सकाशादपि यतनया वस्त्रग्रहणं कर्त्तव्यम् || २८२७ ॥ यतनामेवाह-मग्गति थेरियाओ, लद्धं पि य थेरियाज गेव्हंति । आगार दट्टु तरुणीण व देंते तं न गिण्हंति ।। २८२८ ॥ याः स्थविरा धर्मश्रद्धालवो गीतार्थाश्च ता वस्त्राणि मार्गयन्ति । लब्धमपि च वस्त्रं दायकसकाशात् स्थविरा एव गृह्णन्ति । अथासौ दाता काणाक्षिप्रभृतीनाकारान् करोति, स्थविरया वा हस्ते प्रसारिते भणति - - तव न ददामि एतस्यास्तरुण्याः प्रयच्छामीति । एवमाकारान् दृष्ट्वा तरुणीनां वा ददतं दायकं विज्ञाय तद् वस्त्रं न गृह्णन्ति ।। २८२८ ॥ एवमादिदोषविप्रमुक्तं वस्त्रमुत्पाद्य वसतिं प्राप्तानामयं विधिः- , १ ये तु मातृ-पितृप्रभृतयो 'निजकाः' स्वजनास्ते चिन्तयन्ति - "णं" इति एनां संयत कस्यापि वयं दास्यामः, सः "णे" अस्माकं कां० ॥ सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पें कते थेरिया परिच्छंति । सुद्धस्स होइ धरणा, असुद्ध छेतुं परिवणा ।। २८२९ ॥ सप्त दिवसान् वस्त्रं स्थापयन्ति । यद्यस्थापयित्वा परिभुञ्जते तदा चत्वारो गुरव आज्ञादयश्च दोषाः । यत एवं ततः स्थापयित्वा कल्पं - - प्रक्षालनं कुर्वन्ति । कृते च कल्पे स्थविरास्तद् वस्त्रं प्रावृत्य परीक्षन्ते । यदि शुद्धं ततस्तस्य धारणम्, अथ 'अशुद्धम्' अशुद्धभावोत्पादकं तद् वस्त्रं 25 ततस्तत् छित्त्वा परिष्ठापनं कर्त्तव्यम् || २८२९ ॥ अथ वस्त्रोत्पादनविनिर्गतानां निर्मन्थानां निर्मन्थीनां च सामान्यतो लाभा -ऽलाभादिनिमित्तपरिज्ञानोपायमाह जं पुण पढमं वत्थं, चउकोणा तस्स होंति लाभाए । वितिरिच्छंता मज्झे, य गरहिया चउगुरू आणा ।। २८३० ॥ यत् पुनः प्रथमं वस्त्रं लभ्यते तस्य ये चत्वारो कोणकास्ते वक्ष्यमाणाञ्जन- खञ्जनलेपादि - 30 चिह्नोपलक्षिता लाभाय भवन्ति, उपलक्षणमिदम् तेन यौ अञ्चलमध्यभागौ तावपि लाभाय 15 20 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सू० ४०-४१ भवतः । यौ तु वितिरश्चीनौ कर्णपट्टिकाया अन्त्यौ विभागौ यश्च तयोर्मध्यवर्ती विभागः एते त्रयोऽप्यञ्जनलेपादिचिहोपलक्षिताः ‘गर्हिताः' अप्रशस्ताः। एतेषु चात्मविराधनासद्भावाच्चतुर्गुरुकमाज्ञा च भगवतां विराधिता भवति ॥ २८३० ॥ अयमेवार्थोऽन्याचार्यपरिपाट्याऽभिधीयते नवभागकए वत्थे, चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स। लाभो विणासमन्ने, अंते मज्झे य जाणाहि ॥ २८३१ ॥ ___इह यतो वस्त्रमायतं ततः प्रथमतस्त्रयो भागाः कल्प्यन्ते, भूयोऽप्येकैको भागस्त्रिधा विभज्यते, एवं नवभागीकृते वस्त्रे ये चत्वारः कोणका अपिशब्दात् कोणकमध्यवर्तिनौ च द्वौ भागौ तेषु वस्त्रस्याञ्जनलेपादिसम्भवे लाभो भवति । ये पुनः 'अन्ये' अपरे वस्त्रमध्यवर्तिनस्त्रयो भागाः, तद्यथा-द्वावन्त्यविभागौ एकः सर्वमध्यवर्ती विभागः, तेषु 'विनाशं' ग्लानत्वा10 दिकं जानीहि ॥ २८३१ ॥ .. अथ यैश्चिकैस्तेषु विभागेषु लाभो विनाशो वाऽनुमीयते तान्येवाह __अंजण-खंजण-कद्दमलित्ते, मूसगभक्खिय अग्गिविदड्ढे । तुन्निय कुट्टिय पज्जवलीढे, होइ विवाग सुहो असुहो वा ॥२८३२॥ अञ्जनं-सौवीराञ्जनादि खञ्जनं-दीपमलः कर्दमः-पङ्कस्तैर्लिप्ते-खरण्टिते, तथा मूषकैः उपल15 क्षणत्वात् कंसारिकादिभिश्च भक्षिते, अग्निना वा विशेषेण दग्धे, तथा तुन्नकारेण 'तुन्निते' खकलाकौशलतः पूरितच्छिद्रे, 'कुट्टिते च' रजककुट्टनेन पतितच्छिद्रे, पर्यवैः-पुराणादिभिः पर्यायै-ढे-युक्ते, अतिजीर्णतया कुत्सितवर्णान्तरादिसंयुक्ते स्फटिते वा इत्यर्थः । एवंविधे वस्त्रे गृहीते सति शुभोऽशुभो वा विपाकः परिणामो भवति । तत्र ये शुभा विभागास्तेषु शुभो विपाको ये त्वशुभास्तेष्वशुभ इति ॥ २८३२ ॥ 20 अथ नवानामपि विभागानां खामिनः प्रतिपादयति चउरो य दियिया भागा, दुवे भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो ॥ २८३३॥ चत्वारः कोणकाः 'दैव्याः' देवसम्बन्धिनो भागाः । 'द्वौ' अञ्चलमध्यभागी 'मानुषौ' मनुष्यस्वामिकौ । 'द्वौ च भागौ' कर्णपट्टिकामध्यलक्षणौ 'आसुरौ' असुरसम्बन्धिनौ । सर्वमध्यगतः 25 पुनरेको भागः 'राक्षसः' राक्षसखामिक इति ॥ २८३३ ॥ अर्थतेषु विभागेषु शुभा-ऽशुभफलमाह दिव्वेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो । आसुरेसु य गेलन्नं, मज्झे मरणमाइसे ॥ २८३४ ॥ दैव्येषु भागेषु यद्यञ्जनादिभिर्दूषितं वस्त्रं भवति तदा तस्मिन् गृहीते साधूनामुत्तमो वस्त्र-पात्रा30 दीनां लाभो भवेत् । मानुषभागयोरञ्जनाद्युपदूषिते च वस्त्रे मध्यमो लाभो भवति । आसुरभागयोरञ्जनादिदूषितयोर्लानत्वं भवति । राक्षसभागे पुनरञ्जनादियुक्ते यतीनां मरणमादिशेदिति ॥ २८३४ ॥ अथाखण्डस्यैव वस्त्रस्य लक्षणमाह-~ १ दो य भा॰ ता०॥ २ » एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २८३१-३७ ] प्रथम उद्देशः । जं किंचि होइ वत्थं, पमाणवं सम रुइं थिरं निद्धं । परदोसे निरुवहतं, तारिसगं खू भवे धन्नं ॥ २८३५ यत्किञ्चिद् वस्त्रं 'प्रमाणवत्' सूत्रोक्तप्रमाणोपेतं 'समं नाम ' नान्यत्र स्थूलमन्यत्र लक्ष्णं 'रुचि नाम' रुचिकारकं 'स्थिर' दृढं 'स्त्रिग्धं' सतेजः, एभिः पञ्चभिः पदैर्द्वात्रिंशद् भङ्गा भवन्ति, एवं प्रथमो भङ्गो गृहीतः । तथा परदोषाः - आसुर - राक्षसभागेष्वञ्जन-खञ्जनप्रभृत- 6 यस्तैः 'निरुपहतं' वर्जितम्, यद्वा परः -दायकस्तस्य ये दोषाः क्रीत - कृतादयस्तैर्विवर्जितं तादृशं वस्त्रम्, खुरवधारणे, तादृशमेव 'धन्यं' ज्ञानादिधनप्रापकलक्षणोपेतमित्यर्थः ॥ २८३५ ॥ ॥ अवग्रहप्रकृतं समाप्तम् ॥ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्तए ४२ ॥ अस्य सम्बन्धं घटयन्नाह रात्रि भक्त प्रकृत म् -50:0:8 ८०१ अहिगारे पगए, राईभत्तवयपालणा इणमो । सुतं उदाहु थेरा, मा पीला होज सव्वेसिं ॥ २८३६ ॥ पूर्वसूत्रे द्वितीयावग्रहानुज्ञामन्तरेण वस्त्रं न परिभोक्तव्यमिति तृतीयव्रतस्याधिकारः प्रकृतः । तस्मिँश्च प्रकृते रात्रिभक्तव्रतपालनार्थमिदं सूत्रं 'स्थविरा:' श्रीभद्रबाहुस्वामिन उदाहृतवन्तः । कुतः ? इत्याह- मा तस्मिन् षष्ठत्रते भने 'सर्वेषामपि ' महाव्रतानां 'पीडा' विराधना भवेदिति कृत्वा ॥ २८३६ ॥ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह - अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - नो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्मन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा 'अशनं वा' ओदनादि 'पानं वा' आयामादि 'खादिमं वा' फलादि 'खादिमं वा ' शुण्ठ्यादि प्रतिग्रहीतुमिति सूत्राक्षरार्थः || अथ भाष्य विस्तरः १ प नवमो भ° त० डे० मो० ले० । “एस पढमो भंगो गहितो” इति चूर्णौ ॥ 10 15 अहवा पिंडो भणिओ, न यावि तस्स भणिओ गहणकालो । तस्स ग्रहणं खपाए, वारेइ अणंतरे सुत्ते ॥ २८३७ ॥ अथवा "निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए" ( उ० सू० ३८-४१ ) इत्यादिषु सूत्रेषु पिण्डो भणितः । नं च तस्य पिण्डस्य अपिशब्दाद् वस्त्रादेर्वा ग्रहणकालो भणितः 'कदा गृह्यते ? कदा च न ?' इति, अतः पूर्वसूत्रेभ्यो यदनन्तरमिदमेव सूत्रं तत्र 'तस्य' 25 पिण्डस्य ग्रहणं 'क्षपायां' रात्रौ निवारयतीति ॥ २८३७ ॥ 20 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ रातो व वियाले वा, संज्झा राई उ केसि विकालो । चउरो य अणुग्धाया, चोदगपडिघाय आणादी || २८३८ || “रात्रौ वा विकाले वा” इति यदुक्तं सूत्रे तत्र सन्ध्यां रात्रिरुच्यते, राजते - शोभते इति निरुक्तिवशात् । शेषा सर्वाऽपि रजनी विगतः सन्ध्याकालोऽत्रेति कृत्वा विकाल उच्यते । केषाञ्चिदाचार्याणां दिवस लक्षणकालविगमात् सन्ध्या विकालः, शेषा तु रात्रिः, रज्जंति ( रञ्जन्ति ) स्तेन - पारदारिकादयोऽत्रेति कृत्वा । एतयो रात्रि - विकालयोः सूत्रोक्तं चतुर्विधमाहारं गृहतो भुञ्जानस्य च चत्वारोऽनुद्धाता मासाः प्रायश्चित्तम् । नोदकः प्रेरयति - किमिति रात्रिभोजनं परिहियते ? उच्यते-- बहुदोषदर्शनात् । पुनरपि परः प्राह - युष्माकं द्वाचत्वारिंशद्दोषपरिशुद्धः पिण्डः परिभुज्यते इति समयस्थितिः, तेषु च द्वाचत्वारिंशद्दोषेषु रात्रिभोजनं न कापि 10 प्रतिषिद्धम्, अप्रतिषिद्धत्वाच्चावश्यमेव निर्दोषमिति मे मतिः । अस्य नोदकवचनस्य प्रतिघातं - प्रतिषेधमाचार्यः करोति — नोदक ! भवत एवं ब्रुवाणस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः, तथाहि —यत् त्वया प्रतिपादितं 'रात्रिभोजनप्रतिषेधः क्वाप्यस्माभिर्न दृष्ट:' इत्यादि तदेतदज्ञानप्रलपितमिव लक्ष्यते ॥ २८३८ ॥ यतः - जइ वि य न पडिसिद्धं, बायालीसाऍ राइभत्तं तु । छट्ठे महव्वयम्मी, पडिसेहो तस्स नणु वृत्तो ॥ २८३९ ।। यद्यपि च द्वाचत्वारिंशति दोषेषु रात्रिभक्तं न प्रतिषिद्धं तथापि पष्ठे महात्रते पड्जीवनि - कायां ननु तस्य प्रतिषेध उक्त एव । तथा च सूत्रम् - अहावरे छट्टे भंते! व राइभोयणाओ वेरमणं । ( दशवै० अ० ४ ) इत्यादि । ॥ २८३९ ॥ अपि च 20 जइ ता दिया न कप्पर, तमं ति काऊण कोट्टयाईसु । किं पुण तमस्सईए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ || २८४० ॥ यदि तावत् 'तमः' अन्धकारमिति कृत्वा नीचद्वारकोष्ठकादिषु दिवाऽपि भक्तपानं ग्रहीतुं न कल्पते, 15 ८०२ “नीयदुवारं तमसं, कोट्टगं परिवज्जए ।" ( दशवै० अ० ५ उ० १ गा० २० ) 25 इति वचनात् ; ततः किं पुनः 'तमखत्यां' बहलतमः पटलकलितायां 'शर्वय्या' रात्रौ कल्पि - प्यते ? नैवेति भावः ॥ २८४० ॥ यच्चोक्तम्– 'रात्रिभक्ते दोषा न सन्ति ' इति तदप्यपरिभावितभाषितम्, यतः साक्षादेवामी दोषास्तत्रोपलभ्यन्ते— 30 मिच्छत्तम्मी भिक्खू, विराहणा होइ संजमायाए । पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल साणे य ।। २८४१ ।। गोणे य तेणमादी, उन्भाग एवमाइ आयाए । १न्ध्या, येन राजते- शोभते ततो निर्युक्तया रात्रिरुच्यते । शेषा सर्वाऽपि रजनी विकालः । केषाञ्चिदाचार्याणां दिवसविगमात् सन्ध्या विकाल इत्युच्यते, शेषा तु सर्वाऽपि रात्रिरिति । एतयो रात्रि भा० ॥ २ °ते ! महत्वए भा० ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८३८-४३] प्रथम उद्देशः । संजमविराहणाए, छक्काया पाणवहमादी ॥ २८४२ ॥ भगवता प्रतिषिद्धं रात्रिभोजनं कुर्वता आज्ञाभङ्गः कृतो भवति । तं दृष्ट्वाऽन्येऽपि रात्रिभक्ते प्रवर्तन्ते इत्यनवस्थाऽपि स्यात् । मिथ्यात्वे तु भिक्षुदृष्टान्तो वक्तव्यः 'जहा-कालोदाई नाम भिक्खुगो रयणीए एगस्स माहणस्स गिहं भिक्खट्टा पविट्ठो । तओ माहणी तस्स भिक्खानिमित्तं जाव मज्झे पविसइ ताव अंधयारबहलयाए अग्गओ खीलओ न दिट्टो । तत्थावडियाए तीसे खीलएण कुच्छी फाडिओ। सा य गुविणी आसि । गम्भो फुरफुरंतो पडिओ मओ य । सा वि य मया । तं दटुं लोगेण भणियं-अदिट्ठधम्माणो एए ति ॥ ___ एवं साधुरपि रात्रौ भिक्षामटन् भगवत्यसर्वज्ञत्वशङ्कामुत्पादयति । तथा » विराधना द्विविधा-संयमे आत्मनि च । तत्रात्मविराधना भाव्यते-रात्रौ मार्गमपश्यतः प्रस्खलनं भवति, 10 स्थाणु-कण्टकाभ्यां वा पादयोः परिताप्येत, विषम-निम्नोन्नतं दरी-र्ता तयोर्वा प्रपतेत् , व्यालः-सर्पस्तेन वा दश्येते, श्वानो वा रात्रावुपद्रवं कुर्यात् ॥ २८४१॥ ___ 'गौः' बलीवर्दस्तेन अभिहन्येत, स्तेना आदिशब्दादारक्षिकादयो वा तमकाले पर्यटन्तं गृहीयुः । यद्वा स.एव साधुरकाले पर्यटन स्तेन आदिशब्दाचारिको वा अभिमरो वा उद्रामको वा आरक्षिकपुरुषैः शङ्कयेत, ततश्च प्रान्तापनादयो दोषाः । एवमादयो दोषा आत्मविरा-15 धनाविषया भवन्ति । संयमविराधनायां तु षट् काया निशि तमस्यदृश्यमानाः स्फुटमेव विराध्यन्ते, अथवा प्राणवधादयो दोषा रात्रौ पिण्डं गवेपयतो भवन्ति ॥ २८४२॥ तानेव भावयति पाणवह पाणगहणे, कप्पट्ठोद्दाणए अ संका उ । . भणिओ न ठाइ ठाणे, मोसम्मि उ संकणा साणे ॥ २८४३॥ 20 "दिवा बीजसंसक्तोदकादीनि सुप्रत्युपेक्षतया सुखेनैव साधुः परिहर्तुमीष्टे, रात्रौ तु दुःप्रत्युपेक्षतया तेषां परिहारः कत्तुं न शक्यते, अतः प्राणिग्रहणे प्राणवधो भवति । कल्पस्थके चापदाणेऽगारिणो वक्ष्यमाणनीत्या शङ्का भवेत्-नूनमेतेनापद्रावित इति । तथा कोऽपि साधुरगारिणा भणितः-रात्रौ मा मदीयं गृहमायासीरिति । ततः 'श्वानस्ते गृहमायास्यन्ति' इति प्रतिज्ञां कृत्वा गतः, परमसौ 'स्थाने' स्ववचने न तिष्ठति ततश्च मृषावादमसौ ब्रूत इति शङ्का 25 गृहस्थस्य स्यात् । एतदुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २८४३ ॥ ११ एच्चिह्नान्तर्वती पाठः भा० नास्ति ॥ २°त, यद्वा मर्कोटकादिनाऽपि दयः सर्प शङ्केत ततः शङ्काविषं समुल्ललति, श्वा भा० ।। ३°श्च ते वध-बन्धादिक विध्युः । एव कॉ. ॥ ४ इह दिवा त्रसप्राणिसंसक्तादीनि कां० । “पाणिवधो पाणिगहणे भवति, कधं ? उदउल्लवीयसंसत्तं, पाणा णिवतिता महिं । दिवा एताणि वजेंतो, रातो तत्थ कधं चरे ? ॥" चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ५'पाणिग्रहणे त्रसप्राणिसंसक्तादीनामादाने 'प्राणवधः' प्रथममहावतविराधनालक्षणो भवति कां० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्करुपसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ अथ कल्पस्थकेऽपद्राणे यथा शङ्का भवति तदेतदुपदर्शयति हतुं सवित्तिणिसुयं, पडियरई काउमऽग्गदारम्मि । समणेण णोल्लियम्मी, पवेदण जणस्त आसंका ॥ २८४४ ॥ काचिदविरतिका रजन्यां सपत्नीसुतं हत्वा ततस्तमाद्वारे कृत्वा कपाटस्य पृष्ठतस्तमवष्टभ्य 'प्रतिचरति प्रतिजामती तिष्ठति । श्रमणश्च तदानी भिक्षार्थमायातः तेन कपाटं प्रेरितम् , स च दारकः सहसैव भूमौ पतितः । ततस्तया प्रवेदनं कृतं पूत्कृतमित्यर्थः, यथा-आः ! कष्टं संयतेन दारको व्यापादित इति । ततश्च जनस्याशङ्का भवति-किं मन्ये सत्यमेवेदम् ? इति । तत्र ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः ॥ २८४४ ॥ अथ मृषावादे विराधनामाशङ्कां चाह मा निसि मोकं एज्जसु, भणाइ एहिंति ते गिहं सुणगा। पुणरितं सड्डिपई, भणाइ सुणओ सि किं जातो ॥ २८४५ ॥ एवं चिय मे रत्ति, कुसणं दिजाहि तं च सुणएण । खइयं ति य भणमाणे, भणाइ जाणामि ते सुणए ॥ २८४६॥ काचिदविरतिका कस्यापि साधोरुपशान्ता, सा तस्य रात्रावप्यागतस्य भक्त-पानं प्रयच्छति, तद् दृष्ट्वा तदीयेन भर्ना स साधुरभिहितः-मा 'निशि' रात्रौ मदीयम् 'ओकः' गृहमायासीः । 15 ततः साधुर्भणति-एष्यन्ति त्वदीयं गृहं शुनका इति । ततः स साधुर्जिह्वादण्डदोषेणाकृष्यमाणः पुनस्तदीयं गृहमागतवान् । तं पुनरायान्तं स श्राद्धिकापतिर्भणति-किमेवं त्वं श्वा नो जातः ? । एवं मृषावाददोषमापद्यते । अथवा एवमेव केनचिदगारिणा साधुर्निशि समागच्छन् प्रतिषिद्धः 'श्वानस्ते गृहमागमिष्यन्ति' इति प्रतिज्ञां कृतवान् । अन्यदा च तेनाविरतिकेन दिवा भुञ्जानेन महिला भणिता-मन्निमित्तमद्य कुसणं स्थापयेः, पश्चाच्च मम रात्रौ भुञ्जानस्य 20 'दद्याः' परिवेषयेः । ततस्तया स्थापितम् । तच्च शुनकेन भक्षितम् । रात्रौ च सा भणितापरिवेषय मम तत् कुसणम् । तया भणितं-शुनकेन भक्षितम् । स ऐवं भणन्त्यां तस्यां गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । स प्राह-जानाम्यहं 'ते' त्वदीयान् शुनकान् । एवं मृषावादविषया शङ्का भवेत् ॥ २८४५ ॥ २८४६ ॥ __ अथ तृतीयचतुर्थव्रतयोविराधनामाशकां च प्रतिपादयति __ सयमेव कोइ लुद्धो, अवहरती तं पडुच्च कम्मकरी । वाणिगिणी मेहुन्नं, बहुसो व चिरं व संका या ॥ २८४७ ॥ कश्चिल्लुब्धो भिक्षार्थं प्रविष्टो रजन्यामाकीर्णविप्रकीर्ण वस्त्र-हिरण्यादि दृष्ट्वा खयमेवापहरेत् । अथवा तं संयतं प्रतीत्य कर्मकरी काचिदपहरेत् , 'संयतेन हृतं भविष्यतीति गृहपतिप्रभृतयश्चिन्तयिष्यन्ति' इति बुद्ध्या सा सुवर्णादिकं चोरयेदिति भावः । तथा काचिद् वाणिजिका १°वं भवान् श्वा भा० । "अविरतओ भणति-तुम सा णो जातो?" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ २० एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे• नास्ति । ३°म्यहं तद् मानुषं येन शुनकेन भूत्वा भक्षितम् । एवं भा० । “सो भणइ-जाणामि तं माणुससाणं जेण खड्यं" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८४४-४९] प्रथम उद्देशः । ८०५ प्रोषितभर्तृका मैथुनमवभाषेत, तद्वचनाभ्युपगमे चतुर्थव्रतविराधना । तथा आहारनिमित्तं बहुशः प्रवेश-निर्गमौ कुर्वाणश्चिरं चालाप-संलापादिभिस्तिष्ठन् मैथुनप्रतिसेवायां जनैः शङ्कयेत ॥२८४७॥ अथ पञ्चमव्रतविषये विराधना-शङ्के दर्शयति अणभोगेण भएण व, पडिणीओम्मीस भत्तपाणं तु । [ओ.नि.४८३] दिजा हिरनमादी, आवजण संकणा दिट्टे ॥ २८४८ ॥ कश्चिदनाभोगेन भक्त-पानोन्मिश्रितं हिरण्यादि दद्याद् भयेन वा । यथा- कयाचिद् यक्षरिकया हिरण्यादिकमपहृतम् , सा च तं न शक्नोति सङ्गोपयितुं वा प्रत्यर्पयितुं वा, ततः संयतस्य भैक्षेण समं दद्यात् । प्रत्यनीकतया वा दद्यात् , यथा काष्ठश्रेष्टिसाधोर्वजानामिकया प्राक्तनभार्यया इति । एवं च हिरण्यादिके गृहीते सति कश्चित् तत्रैव समूच्छी कुर्यात् , » मूर्च्छया चैकान्ते सङ्गोप्य धारयतः परिग्रहदोषस्यापत्तिर्भवति । तथा तत् सुवर्णादिकं भक्तपानसम्मिश्रं 10 दीयमानं दत्तं वा प्रतिग्रहे जाज्वल्यमानं कश्चित् पश्येत् , दृष्टे च तस्य शङ्का जायेत-किं मन्येऽयं जानानो लुब्धतया गृह्णाति ? उताजानानः प्रमादात् ? इत्यादि । यत एते दोषा अतो रात्रौ न पर्यटितव्यम् ॥ २८४८ ॥ अथ रात्रिभक्तमेव भेदतः प्ररूपयन्नाह तं पि य चउन्विहं राइभोयणं चोलपट्टमइरेगे। परियावन्न विगिंचण, दर गुलिया रुक्ख सुन्नघरे ॥ २८४९॥ 16 तदपि च रात्रिभोजनं चतुर्विधम् , तद्यथा-दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं १ दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तं २ रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तं ३ रात्रौ गृहीतं रात्रौ भुक्तं च ४ इति । एतेषु चतुर्ध्वपि भङ्गेषु यथाक्रमं तपःकाललघु १ कालगुरु २ तपोगुरुको ३ भयगुरुकरूपाश्चत्वारो गुरवः । तत्र प्रथमभङ्गो भाव्यते--"चोलपट्ट" त्ति कस्यापि संयतस्य संज्ञातकानां सङ्खडिरुपस्थिता, स च तस्मिन् दिवसे प्रातरेवाभक्तार्थ प्रत्याख्यातवान् , ततः ‘मा मामेतेऽभक्तार्थिनं न ज्ञास्यन्ति' इति 20 कृत्वा पात्रकैरनुद्राहितैश्चोलपट्टकसहितो गतः संज्ञातकगृहं पृष्टश्च-किं भवद्भिर्भाजनानि नानीतानि ?; ततस्तेनान्येन वा साधुना भणितम् --अद्याभक्तार्थिक इति; ततस्ते संज्ञातकाः 'कल्ये वयं दास्यामः' इति कृत्वा यत् तदर्थ स्थापयन्ति द्वितीयदिने च यद्यसौ तद् गृहीत्वा भुङ्क्ते तदा प्रथमभङ्गो भवति । “अइरेगे" ति सङ्खड्यामन्यत्र वा कचिदतिरिक्तमवगाहिमादि लब्धम् , तच्च 'पर्यापन्नं परिष्ठापनायोग्यतां प्राप्तम्, ततस्तस्य 'विगिञ्चणं' परिष्ठापनं तदर्थ निर्गतः, 25 तच्चोत्कृष्टमविनाशि द्रव्यं मत्वा द्वितीयदिने समुद्देशनार्थ दर-गुलिका-वृक्ष-शून्यगृहे स्थापयति । दरः-बिलम् , गुलिका नाम-पिटकं बुसपुञ्जो वा, वृक्षशब्देन वृक्षकोटरमुच्यते, यद्वा "गुलिया रुक्ख" ति गुलिकाः-पिण्डकास्तान् कृत्वा वृक्षकोटरे स्थापयति, शुन्यगृह-प्रतीतम् । एतेषु स्थापयित्वा द्वितीयदिवसे मुञ्जानस्य प्रथमभङ्गो भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः॥२८४९॥ १ » एतन्मध्यगतः पाठः त. डे. मो. ले. नास्ति । “पडिणीयताए जधा कटुस्स । संजतो य तत्थेव लुब्मेजा, एवं परिग्गहे आवजणा" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ .२°षु तपा-कालविशेषिताश्चत्वारो गुरवः। तत्र भा०॥ ३पिकण्टकं मो. ले.॥ ४°ति गाथा भा० त• डे० ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ अथ भाष्यकार एवैनां व्याख्यानयति सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ खमणं मोहतिगिच्छा, पच्छित्तमजीरमाण खमओ वा । गच्छ सचोलपट्टो, पुच्छ दुवणं पढमभंगो ।। २८५० ॥ एकेन साधुना क्षपणं कृतं उपवास इत्यर्थः, तच्च मोहचिकित्सार्थं वा प्रायश्चित्तविशुद्धिहेइनोर्वा अजीर्यमाणभक्तपरिणतिनिमित्तं वा, 'क्षपको वा' एकान्तरितादिक्षपणकर्त्ताऽसौ; तद्दिने च तस्य संज्ञातकानां सङ्खडिरुपस्थिता, तैश्च साधवो भिक्षाग्रहणार्थमामन्त्रिताः, क्षपक साधुश्चानुद्राहितपात्रकः ‘सचोलपट्टः' चोलपट्टकद्वितीयो 'मामेतेऽत्र स्थितमभक्तार्थिनं न ज्ञास्यन्ति, अजानानाश्च न मदर्थं संविभागं स्थापयिष्यन्ति' इति बुद्ध्या प्रस्थितः, आचार्यान् प्रतिब्रवीति च - ते स्वभावत एवातिप्रान्ता मां विना न पर्याप्तं प्रदास्यन्ति, न वा अवगा हिमादीन्युत्कृष्टद्रव्याणि 10 ढौकयिष्यन्ति, ततोऽहं गच्छामीति । स च तत्र गतः सन्ननुग्राहितपात्रको दृष्ट्वा तैः पृष्टःकिमद्योपवासी ज्येष्ठार्यः ? इति । स प्राह – आमम् । ततस्तदर्थमवगाहिमादिसंविभागमभणिता अपि स्थापयन्ति 'कल्ये पारण कदिवसे दास्यामः' इति कृत्वा । यद्यपि ते न स्थापयन्ति तथापि क्षपकस्य चत्वारो गुरुकाः, भावतस्तेन सन्निधिस्थापनायाः कारितत्वात् । द्वितीय दिवसे च तद् गृहीत्वा भुञ्जानस्य प्रथमभङ्गो भवति ॥ २८५० ।। अथातिरिक्तादिपदानि व्याचष्टे - कारणगहिउव्वरियं, आवलियविहीऍ पुच्छिऊण गओ । 15 भोक्खं सुए दराइसु, ठवेइ साभिग्गहनो वा ॥ २८५१ ॥ 30 इह साधूनां भिक्षामटतां कचिदतर्कितः प्रभूतभक्तस्य लाभोऽभवत् सङ्खड्यां वा प्रचुरमवगाहिमादि लब्धम्, अनुपचितक्षेत्रे वा गुरु-ग्लानादीनां प्रायोग्यग्रहणाय सर्वैरपि सङ्घाटकैर्मात्रकाणि व्यापारितानि, एवमादिभिः कारणैः प्रायोग्यद्रव्यमतिरिक्तं गृहीतं तच्चोद्वरितम् । तत 20 आवलिका[ म्]-आचाम्लिका-ऽभक्तार्थिका दिपरिपाटिरूपां विधिना - प्रत्याख्यान निर्युक्तत्यादिशास्त्रप्रसिद्धेन प्रकारेण 'पृष्ट्वा' निमन्त्र्य तथाप्यतिरिक्तं परिष्ठापनाय गत एकान्तमनापातं बहुप्राशुकं स्थण्डिलम् । तत्र च प्राप्त उत्कृष्टाविना शिद्रव्यलोभेन "सुए" त्ति वः' कल्ये भोक्ष्येऽहमिति चिन्तयित्वा दरे आदिशब्दाद् गुलिका - वृक्षको टर-शून्यगृहेषु स्थापयति । स च साभिग्रहो वा _स्याद् 'अन्यो वा' अनभिग्रहः । साभिग्रहो नाम - 'यत् किञ्चिदाहारोपकरणादिकं परिष्ठापना योग्यं 25 भवति तत् सर्वं मया परिष्ठापयितव्यम्' इत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहः, तद्विपरीतोऽनभिग्रह इति ॥ २८५१ ॥ अथैतेषु स्थापयतः प्रायश्चित्तमाह बिलें मूलं गुरुगा वा, अनंतें गुरु लहुग सेस जं चन्नं । थेय उ निक्खित्ते, पाहुण-साणाइखइए वा ॥ २८५२ ॥ आरोवणा उ तस्सा, बंधस्स परूवणा य कायव्वा । कुल नाम गमाउं, मंसाऽजिन्नं न जाऽऽउट्टो ॥ २८५३ ॥ बिले स्थापयतो मूलं गुरुका वा — यदि वसिमे बिले स्थापयति तदा मूलम्, उद्वसे चत्वारो गुरवः । अनन्तवनस्पतिकोटरे स्थापयतश्चतुर्गुरवः । 'शेषेषु' प्रत्येक वनस्पति कोटर - गुलिका-शून्यगृहेषु स्थापयतश्चतुर्लघवः, यच्च 'अन्यद्' आत्म-संयमविराधनादिकमापद्यते तन्निष्पन्नं प्राय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०७ भाष्यगाथाः २८५०-५५] प्रथम उद्देशः । श्चित्तम् । अथ स्थविरागृहे स्थापयति ततस्तत्र निक्षिप्ते चत्वारो लघवः । अथ तया तत् प्राघुणकाय दत्तं खयमेव वा प्राघुणकेन भुक्तं श्वान-गवादिभिर्वा भक्षितं तदा 'तस्य' स्थापकस्यारोपणा कर्तव्या, चतुर्लघुकादिकं यथायोग्यं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति भावः । तत्र च प्राघुणकादिना भुक्ते कियन्तं कालं यावत् कर्मबन्धो भवति? इत्याशङ्कायां बन्धस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या । सा चेयम् - "कुल" इत्यादि । केचिदाचार्यदेशीयाः ब्रुवते-यावत् तस्य प्राघुणकस्य सप्तमः कुलवंशः तावदनुसमयं तस्य स्थापकस्य साधोः कर्मबन्धो मन्तव्यः । अपरे प्राहुः-यावत् तस्य नाम-गोत्रं नाद्यापि प्रक्षीणम् । अन्ये भणन्ति-यावत् तस्यास्थीनि ध्रियन्ते । इतरे ब्रुवतेयावदसावायुर्धारयति । तदपरे कथयन्ति-यावत् तस्य तत्प्रत्ययो मांसोपचयो ध्रियते । अन्ये. प्रतिपादयन्ति-यावत् तस्य तद् भक्तमद्यापि न जीर्णम् । आचार्यः प्राह-एते सर्वेऽप्यनादेशाः, सिद्धान्तसद्भावः पुनरयम् –यावदसौ स्थापकसाधुरद्यापि तस्मात् स्थानाद् 'नावृत्तः' 10 नालोचनाप्रदानादिना प्रतिक्रान्तः तावत् तस्य कर्मबन्धो न व्यवच्छिद्यते ॥२८५२ ॥२८५३ ।। __ गतः प्रथमो भङ्गः । अथ शेषभङ्गत्रयीं भावयति संखडिगमणे वीओ, वीयारगयस्स तइयओ होइ। सन्नायगमण चरिमो, तस्स इमे वन्निया भेदा ॥ २८५४ ॥ अपराहे या सङ्खडी तस्यां गमने 'दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तम्' इति द्वितीयभङ्गो भवति । 15 अनुद्गते सूर्ये बहिर्विचारभूमौ गतस्य बलिना निमन्त्रितस्य 'रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तम्' इति तृतीयो भङ्गः । संज्ञातककुलगमने संज्ञातकानामेव वचनेनात्मीयलौल्येन वा रात्रौ गृहीत्वा रात्रावेव भुञ्जानस्य 'चरमः' चतुर्थो भङ्गः । तस्य च चतुर्थभङ्गस्य 'ईमे' वक्ष्यमाणाः प्रायश्चित्तभेदा वर्णिता इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ २८५४ ॥ अथैनामेव गाथां व्याख्यानयति गिरिजनगमाईसु व, संखडि उक्कोसलं. विइओ उ। अग्गिहि मंगलट्ठी, पंथिग-वइगाइसू तइओ ॥ २८५५ ॥ गिरियज्ञो नाम-कोकणादिदेशेषु सायाह्नकालभावी प्रकरणविशेषः । आह च चूर्णिकृत् गिरियज्ञः कोङ्कणादिषु भवति उस्सूरे ति । विशेषचूर्णिकारः पुनराह__'गिरिजनो मतबालसंखडी भन्नइ, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ ति । [ गिरिजन त्ति भूमिदाहो त्ति भणितं होइ।] __तदादिषु सङ्खडिषु वा शब्दादन्यत्र वा कापि » सूर्ये ध्रियमाणे उत्कृष्टम्-अवगाहिमादि द्रव्यं लब्ध्वा यावत् प्रतिश्रयमागच्छति तावदस्तमुपगतो रविः ततो रात्रौ भुत इति द्वितीयो १ 'नावर्त्तते' ना भा० ॥ २ कामति ताव भा० । “गाऽऽउइ ण पडिकमति" इति चूर्णौ ॥ ३ इमे भेदा भवन्ति । ते चाग्रतो वक्ष्यन्ते ॥ २८५४॥ अथैनामेव गाथां विवृणोतिगिरि भा० ॥ ४ गिरिनतिजन्नातीसु व ता० ॥ ५गिरिकन्ना मत्त इति विशेषचूर्णिप्रतौ ॥ ६॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति । 20 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ भङ्गः । तथा दक्षिणापथे कुडवार्द्धमात्रया समितया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते, से हेमन्त - कालेऽरुणोदयवेलायां अग्निष्टिकायां पक्त्वा धूलीजङ्घाय दीयते, तं गृहीत्वा भुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गः । श्राद्धो वा प्रातर्गन्तुकामः साधुं विचारभूमौ गच्छन्तं दृष्ट्वा मङ्गलार्थी अनुद्गते सूर्ये निमन्त्रयेत्, पथिका वा पन्थानं व्यतित्रजन्तो निमन्त्रयेयुः, व्रजिकायां वाऽनुद्गते सूर्ये उच्चलि - तुकामाः साधुं प्रतिलाभयेयुः, एवमादिषु गृहीत्वा भुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गो भवति ॥ २८५५ ॥ अथ चतुर्थभङ्गं व्याख्यानयति छन्दिय- सयंगयाण व सन्नायगसंखडीइ वीसरणं । दिवसे गते संभरणं, खामण कल्लं न इहि ति ॥ २८५६ ॥ केषाञ्चित् साधूनां संज्ञातकगृहे सङ्घ डिरुपस्थिता, तत्र ते छन्दिताः - निमन्त्रिताः स्वयं वा10 अनिमन्त्रिता गताः । ततः संज्ञातकैस्ते संयता अभिहिताः - अद्य यूयं मा भिक्षां पर्यटत, वयमेव पर्याप्तं प्रदास्याम इति । ते च संयता भोजनकाले परिवेषणादिकृत्यव्यमाणां तेषां विस्मरणपथमुपागमन् । ततो यदा लोकस्य यद् दातव्यं तद् दत्तम्, यच्च कर्त्तव्यं तत् कृतम्, ततः क्षणिकीभूतैस्तैर्दिवसे 'गते' व्यतीते सति संयतानां संस्मरणं कृतम् । ततस्ते रात्रौ प्राञ्जलिपुटाः पादयोः पतित्वा क्षामणां कुर्वन्ति – परिवेषणव्ययैरस्माभिर्यूयं न संस्मृताः, क्षमध्यमस्मदपराधम् गृह्णीध्व15 मस्मदनुग्रहाय भक्तपानमिति । संयता ब्रुवते - कल्ये ग्रहीष्यामः, नेदानीं रात्राविति ॥ २८५६ ॥ गृहस्थाः प्रश्नयन्ति — किं कारणम् ? । संयताः प्रतिब्रुवते — I संसत्ता न सुझ, नणु जोण्हा अवि य दो वि उसिनाई । काले अन्भ रए वा मणिदीबुद्दित्तए बेंति ॥ २८५७ ॥ (ग्रन्थाग्रम् - ८००० । सर्वग्रन्थाग्रम् - २०२२० ) रात्रौ भक्तपानं कीटिकादिभिः संसक्त20 मसंसक्तं वेति न शुद्ध्यति, आदिशब्दाद् यूयमस्मदर्थं भिक्षामानयन्तो मार्गे कीटिकादिजन्तूनामाक्रमणं कुरुथ तच्च यूयं वयं च न पश्यामः । तदा च चन्द्रज्योत्स्ना वर्त्तते ततस्ते गृहस्था श्रुवते - नन्वियमीदृशी ज्योत्स्ना या दिवसमपि विशेषयति, अपि च ' द्वे अपि' कूर - कुसणे भक्त-पानके वा उष्णे, नास्ति संसक्तिदोष इति । अथै 'काल : ' कृष्णोऽसौ पक्षो वर्त्तते, शुक्लपक्षे वा. अभ्रच्छन्नो रजश्छन्नो वा चन्द्रो भवेत्, ततस्ते गृहस्थाः “बिंति" चि ब्रुवते - अस्माकं 25 मणिरलमस्ति तेन दिवसोऽपि विशिष्यते, प्रदीपो वा उद्दीप्तं वा - ज्योतिः पूर्वकृतं विद्यते तेन परिस्फुटः प्रकाशो भवति । एवमुक्ते यदि गृह्णन्ति भुञ्जते वा तत इदं नौसंस्थितं प्रायश्चित्तम् ॥ २८५७ ॥ - तैदेव दर्शयति -- १स गुड-घृतोन्मिश्रोऽरुणोदयवेलायां धूलीजङ्घाय दीयते, एषोऽग्निष्टिकाब्राह्मण उच्यते, तं गृही भा० ॥ २ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र - मः, मात्रकस्य चोत्क्षेपण-निक्षेपणादि न शुद्ध्यतीत्यादि । तदा मा० । मः इत्यादिदोषपरिग्रहः । तदा कां० ॥ ३ "थवा "काल" ति स कृष्णः पक्षो वर्त्तते, ज्योत्स्नापक्षे भा० ॥ ४ भविता भा० कां० ॥ एतन्मध्यगतः पाठः कां• एव वर्त्तते ॥ ५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ भाष्यगाथाः २८५६-५९] प्रथम उद्देशः । जोण्हा-मणी-पदीवा, उद्दित्त जहन्नगाइँ ठाणाई । चउगुरुगा छग्गुरुगा, छेओ मूलं जहण्णम्मि ॥ २८५८॥ ज्योत्स्नाया उद्योते भुञ्जानस्य चत्वारो गुरवः, मणिप्रकाशे पहुरवः, प्रदीपप्रकाशे च्छेदः, उद्दीप्तोद्योते मूलम् । अमूनि प्रायश्चित्तानि ज्योत्लादिपदोपलक्षितानि यथाक्रममघोऽधः स्थापनीयानि । » एतानि जघन्यानि स्थानानि । किमुक्तं भवति'?—प्रसङ्गमन्तरेण जघन्यतोऽप्येतानि प्रायश्चित्तानि द्रष्टव्यानि ॥२८५८॥ अथ प्रसङ्गतो यत् प्रायश्चित्तं भवति तद् बिभणिषुराह ___ भोत्तूण य आगमणं, गुरूहि वसभेहि कुल गणे संघे । आरोवण कायव्वा, बिइया य अभिक्खगहणेणं ॥ २८५९ ॥ रात्रौ ज्योत्स्नाप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरूणां समीपे तेषामागमनम् । आगतैश्चालोचनापरिणतैरन्यथा वा गुरूणां कथितम् । ततो गुरुभिरुक्तम्-दुक्षु कृतं भवद्भिर्यन्निशाभक्तमासेवितम् 110 इत्युक्ते यदि सम्यगावृत्ताः-'मिथ्यादुष्कृतम् , न भूय एवं करिष्यामः' इति ततश्चतुर्गुरवः । अथ नावृत्ताः किन्तु गुरुवचनातिक्रमं कुर्वन्ति–'को नाम दोषो यदि ज्योत्स्वाप्रकाशे दिवससङ्काशे भुक्तम् ?' इति ततः षड्गुरुकाः । वृषभैरभिहिताः-'आर्याः ! किमेवं गुरूणां वचनमतिकामथ ! यदि (इति) वृषभवचने सम्यगावृत्तास्ततः षड्गुरुका एव, अथ वृषभवचनातिक्रमं कुर्वन्ति ततश्छेदः । एवं कुलेन कुलस्थविरैर्वा प्रतिनोदितानां सम्यगावृत्तानां छेद एव, अनावृत्तानां मूलम् । 15 गणेन गणस्थविरैर्वा नोदिता यद्यावृत्तास्ततो मूलमेव, अथ नावृत्तास्ततोऽनवस्थाप्यम् । सङ्घन सङ्घस्थविरैर्वा नोदिताः 'किमिति गणं गणस्थविरान् वा अतिक्रामथ ?' इत्युक्ते यद्यावर्त्तन्ते ततोऽनवस्थाप्यमेव, अनावर्तमानानां पाराञ्चिकम् । एषा च 'आरोपणा' प्रायश्चित्तवृद्धिर्गुरु-वृषभादिवचनातिक्रमनिष्पन्ना प्रागुक्तजघन्यप्रायश्चित्तस्थानेभ्यो दक्षिणतः कर्तव्या । द्वितीया तु रात्रिभक्तस्यैव यद् अभीक्ष्णग्रहणं-पुनःपुनरासेवा तन्निष्पन्ना वामपार्श्वतः कर्त्तव्या । तद्यथा--एक वार 0 ज्योत्स्नाप्रकाशे भुञ्जतश्चत्वारो गुरवः, द्वितीयं वारं षड्गुरवः, तृतीयं वारं छेदः, चतुर्थ वारं मूलम् , पञ्चमं वारमनवस्थाप्यम्, षष्ठं वारं भुञ्जानस्य पाराश्चिकम् , एषा ज्योत्साप्रकाशे प्रायश्चित्तवृद्धिरुक्ता । एवं मणिप्रकाशेऽपि, नवरं गुरुभिः प्रतिनोदिता यद्यावृत्तास्ततः षड्गुरुकम्, अथ गुरुवचनमतिकामन्ति ततश्छेदः; एवं वृषभवचनातिक्रमे मूलम् , कुलस्थविरातिक्रमेऽनवस्थाप्यम् , गणस्थविर-सङ्घस्थविरातिक्रमे पाराश्चिकम् , अभीक्ष्णसेवायां तु पञ्चभिवारैः पाराञ्चि-25 कम् । एवं प्रदीपेऽपि दक्षिणतो वामतश्वारोपणा, नवरमाचार्यातिक्रमे मूलम् , वृषभातिक्रमेऽनवस्थाप्यम् , कुल-गण-सङ्घस्थविरातिक्रमे पाराञ्चिकम् , अभीक्ष्णसेवायां तु चतुर्भिीरैः पाराश्चिकम् । एवमुद्दीप्तप्रकाशेऽपि, नवरमाचार्यातिक्रमेऽनवस्थाप्यम् , वृषभ-कुल-गण-सङ्घस्थविराणां चतुर्णामप्यतिक्रमे पाराच्चिकम् , अभीक्ष्णसेवायां तु त्रिभिवारैः पाराञ्चिकम् , एषा प्रथमा नौरवसातव्या । द्वितीयादयोऽपि वक्ष्यमाणा एवमेव स्थाप्याः ॥ २८५९॥ ११ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ २°ति? इत्याह-"जहन्नम्मि" ति पञ्चम्यर्थे सप्तमी, ततः प्रस' कां० ॥ ३°ना तेभ्य एव जघन्यप्रायश्चित्तस्थानेभ्यो वाम का.॥ ४°दयस्तु पुरतोऽभिधास्यन्ते ॥ २८५९ ॥ अथ शिष्यः पृच्छति-कुल-गण मा०॥ 30 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तपकृते सू० ४२ ___ शिष्यः प्राह-कुल-गण-सङ्घस्थविरवचनमतिकामतां यद् गुरुतरं प्रायश्चित्तमुक्तं तदत्र किं कारणम् ? अत्रोच्यते-एते त्रयोऽपि स्थविरा आचार्यादपि गरीयांसो मन्तव्याः, प्रमाणपुरुषतया स्थापितत्वात् । कथं पुनरेते प्रमाणपुरुषाः ? उच्यते तिहिं थेरेहिँ कयं जं, सटाणे तं तिगं न वोलेइ । हेट्ठिल्ला वि उवरिमे, उपरिमथेरा उ भइयव्या ॥ २८६० ॥ 'त्रिभिः' कुल-गण-सङ्घस्थविरैः यद् आभवयवहारादिविषयं कार्य कृतं तत् कार्य खस्थाने 'त्रिकं' कुल-गण-सङ्घलक्षणं 'न वोलयति' न व्यतिक्रामतीत्यर्थः । किमुक्तं भवति ?-कुलस्थ. विरेण कृतं कुलं नातिकामति, गणस्थविरेण कृतं गणो नातिकामति, सङ्घस्थविरेण कृतं सङ्घो नातिकामति' । "हेट्ठिल्ला वि उवरिमे" ति 'अधस्तनाः' कुलस्थविरास्तेऽप्युपरितनैः-गणस्थ10 विरैः सङ्घस्थविरैश्च कृतं नातिकामन्ति, तथा गणस्थविराः सङ्घस्थविरेभ्योऽधस्तनास्ततो यत् सङ्घस्थविरैः कृतं तद् गणस्थविरा नातिकामन्ति । उपरितनास्तु स्थविराः 'भक्तव्याः' विकल्पयितव्याः । कथम् ? इति चेद् उच्यते-कुलस्थविरैररक्तद्विष्टैर्यत् कृतं तद् गणस्थविराः सङ्घस्थविराश्च नान्यथा कुर्वन्ति, अथागमोक्तविधिमन्तरेण रक्तद्विष्टैः कृतं ततस्तन्न प्रमाणयन्ति । एवं गणस्थविरैरपि यदरक्तद्विष्टैः कृतं तत् सङ्घस्थविरा नातिकामन्ति, अथ रक्तद्विष्टैः कृतं ततो 15 न प्रमाणयन्ति । अत एतेषु गुरुतरं प्रायश्चित्तम् ॥ २८६० ॥ ... अथ द्वितीयतृतीयचतुर्थनौदर्शनार्थमाह चंदुजोर्वे कों दोसो, अप्पप्पाणे य फासुए दवे । . भिक्खू वसभाऽऽयरिए, गच्छम्मि य अट्ठ संघाडा ॥ २८६१॥ - ज्योत्स्नाप्रकाशे भुक्त्वा समागत्य गुरूणामालोचयन्ति ततो भिक्षुभिः प्रतिनोदिता यदि 20 सम्यगावर्तन्ते ततश्चतुर्गुरुकमेवे । अथ ब्रुवते-'चन्द्रोद्योते को नाम दोषः ? को वा अल्पप्रा णेऽवगाहिमादौ प्राशुके द्रव्ये ?' एवं भणतां षड्लघवः । ततो वृषभैरभिधीयन्ते-'आर्याः ! मा भिक्षूणामतिक्रमं कुरुत' यद्यावर्तन्ते ततः षड्लघुका एव, अथ वृषभानतिकामन्ति ततः षड्रुकाः । तत आचार्यैरभिहिता यद्यावृत्तास्ततः षड्गुरुका एव, अनावृत्तानां छेदः । “गच्छम्मि य" ति कुल-गण-सङ्घा इह गच्छशब्देनोच्यन्ते, ततः कुलेन भणिता यदि सम्यगुपरतास्ततश्छेद 26 एव, अथ नोपरमन्ते ततो मूलम् । गणेनाप्यभिहिता यद्यावृत्तास्ततो मूलम् , अथ नावृत्तास्ततोऽ नवस्थाप्यम् । ततः सङ्घनाभिहिता यधुपरमन्ते ततोऽनवस्थाप्यम् , अथ नोपरमन्ते ततः पाराञ्चिकम् । एषा प्रायश्चित्तवैद्धिदक्षिणतः कर्त्तव्या । अभीक्ष्णसेवायाम्--द्वितीयं वारं ज्योत्स्नाप्रकाशे भुञ्जानस्य षड्लघुकम् , तृतीयं वारं षड्गुरुकम् , चतुर्थं छेदः, पञ्चमं मूलम् , षष्ठमनवस्थाप्यम् , सप्तमं वारं पाराञ्चिकम् , एषा प्रायश्चित्तवृद्धिर्वामतः स्थापयितव्या । एवं मणि-प्रदी १°ति । अथवा "तत्तियं" ति पाठः, तावन्मात्रमेव कार्य कुलादयो व्यवहरन्ति यावमात्रं कुलस्थविरादिभिः कृतं नोपरिणाद् व्यवहारं संवर्द्धयन्ति । "हेट्ठि' भा० ॥ २°व, रात्रिभक्त प्रतिसेवनानिष्पन्न मिति भावः । अथ कां० ॥ ३. वृद्धिस्तथैव प्रागुक्तजघन्यप्रायश्चित्तस्थानेभ्यो दक्षि कां० ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ८११ भाष्यमाथाः २८६०-६३ ] पोद्दीप्तप्रकाशेष्वपि भिक्षु-वृषभाद्यतिक्रमनिष्पन्ना दक्षिणतोऽभीक्ष्णसेवा निष्पन्ना तु वामतो यथाक्रमं प्रायश्चित्तवृद्धिः स्थापनीया । एषा द्वितीया नौरभिधीयते । तृतीयाऽपि नौरेवमेव कर्त्तव्या, नवरं तस्यां ज्योत्स्नादिप्रकाशेषु भुक्त्वा न कस्याप्याचार्यादेः कथयन्ति किन्तु भिक्षुप्रभृतयस्तेषां परस्परं संलापं श्रुत्वाऽन्यस्य वा श्रावकादेर्मुखादा कर्ण्य तान् प्रतिनोदयन्ति, शेषं सर्वमपि द्वितीयनवद् द्रष्टव्यम् । चतुर्थी पुनरियम् — भिक्षूणामतिक्रमे चतुर्गुरु, वृषभाणामति-5 क्रमे षड्लघु, आचार्याणामतिक्रमे षड्गुरु, गच्छस्य साधुसमूहरूपस्यातिक्रमे छेदः, कुलस्यातिक्रमे मूलम्, गणस्यातिक्रमेऽनवस्थाप्यम्, सङ्घस्यातिक्रमे पाराञ्चिकम् एषा दक्षिणतः प्रायश्चित्तवृद्धिः । द्वितीया त्वभीक्ष्णसेवानिष्पन्ना चतुर्गुरुकादारभ्य सप्तभिर्वीरैः पाराञ्चिकं यावद् वामतः स्थापनीया, एवं ज्योत्स्ना यामुक्तम् । मणि- प्रदीपोद्दीप्तेष्वपि यथाक्रमं पड्लघुक-षड्गुरुकच्छेदानादौ कृत्वा पाराञ्चिकान्ता दक्षिणतो वामतश्चैवमेव प्रायश्चित्तवृद्धिर्द्रष्टव्या, एषा चतुर्थी 10 नौरुच्यते । "अट्ठ संघाड" त्ति एकैकस्यां च नावि द्वे द्वे प्रायश्चित्तलते भवतः, तद्यथा - दक्षिणपार्श्ववर्त्तिनी वामपार्श्ववर्त्तिनी च ततश्चतसृषु नौषु सर्वसङ्ख्ययाऽष्टौ लता लभ्यन्ते, ताश्चाष्टौ सङ्घाटका मन्तव्याः । यत आह चूर्णिकृत् - "अट्ट संघाड" त्ति जो जोहा-मणि-पदीवुद्दित्तेमु मूलपच्छित्तपत्थारो तस्स इतो वि चत्तारि पच्छित्तलयाओ इतो वि चत्तारि, सव्वेते अट्ठ संवाडगा । संघाड त्ति वा लय त्ति वा पगारो 15 ति वा एग ति । ॥ २८६१ ॥ अथ ज्योत्स्नादिविवक्षारहितं सामान्यतः प्रायश्चित्तमाह " सन्नायग आगमणे, संखडि राओ अ भोयणे मूलं । fare tragपो, तयम्मि य होइ पारंची || २८६२ ॥ संज्ञातककुले आगमनं कृत्वा सङ्खड्यां वा गत्वा रात्रौ यदि भुङ्क्ते तदा मूलनतविराधनानि - 20 प्पन्नं मूलं नाम प्रायश्चितम्, द्वितीयं वारं रात्रौ भुञ्जानस्यानवस्थाप्यम्, तृतीयं वारं पाराञ्चिकम् । अथवा भिक्षो रात्रौ भुञ्जानस्य मूलम्, द्वितीयः - उपाध्यायस्तस्यानवस्थाप्यम्, तृतीयःआचार्यस्तस्य रात्रौ भुञ्जानस्य पाराञ्चिकम् || २८६२ ॥ अथ यदुक्तम् 'अल्पप्राणे प्राशुकद्रव्ये को दोषः ?' इति तदेतत् परिहरन्नाह— जइ वियफासुगदव्वं, कुंथू-पणगाइ तह वि दुष्पस्सा | पचक्खनाणिणो वि हु, राईभत्तं परिहरति ।। २८६३ ॥ यद्यपि तत् प्राशुकद्रव्यमवगाहिमादि तथापि 'कुन्थु - पनकादयः' आगन्तुक तदुद्भवा जन्तवो रात्रौ दुर्दर्शा भवन्ति । किञ्च येsपि तावत् 'प्रत्यक्षज्ञानिनः ' केवलिप्रभृतयस्ते यद्यपि ज्ञानालोकेन तदुद्भवा ssगन्तुकसत्त्वविरहितं भक्तपानं पश्यन्ति तथापि 'हु' निश्चितं रात्रिभक्तं परिहरन्ति, मूलगुणविराधना मा भूदिति कृत्वा ।। २८६३ ॥ १ तं प्रकारान्तरतः प्राय' कां० ॥ २ वारं रात्रौ भुञ्जानः पाराञ्चिको भवति । अथवा कां० ॥ ३ °यं पदमाचार्यत्वलक्षणं तत्र वर्त्तमानो रात्रौ भुञ्जानः पाराञ्चिको भवति ॥ कां० ॥ 25 30 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ८१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ अथ यदुक्तम् 'चन्द्र-प्रदीपादिप्रकाशे को दोषः ?' इति तत्र परिहारमाह जह वि य पिपीलियाई, दीसंति पैईव-जोइउज्जोए । तह वि खलु अणाइन्न, मूलवयविराहणा जेणं ।। २८६४ ॥ यद्यपि प्रदीप-ज्योतिषोः उपलक्षणत्वात् चन्द्रस्य चोद्योते पिपीलिकादयो जन्तवो दृश्यन्ते 5 तथापि 'खलु' निश्चयेन अनाचीर्णमिदं रात्रिभक्तम् । कुतः ? इत्याह- मूलवताना-प्राणाति. पातविरमणादीनां महाव्रतानां प्रागुक्तनीत्या विराधना येन रात्रिभक्ते भवति अतो रात्रौ न भोक्तव्यम् ॥ २८६४ ॥ अथ "गच्छम्मि य" ति पदं व्याचष्टे गच्छगहणेण गच्छो, भणाइ अहवा कुलाइओ गच्छो। गच्छग्गहणे व कए, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥ २८६५॥ 10 गच्छग्रहणेन 'गच्छः' साधुसमूहरूपो रात्रिभक्तप्रतिसेवकान् ‘भणति' नोदयतीति मन्तव्यम् , यथा चतुर्थ्यां नावि चतुर्थे पदे । अथवा गच्छग्रहणेन 'कुलादिकः' कुल-गण-सङ्घरूपो गच्छो नोदयतीति मन्तव्यम् , यथा सर्वाखपि नौषु । यद्वा गच्छग्रहणे कृते गच्छवासिनां ग्रहणं विज्ञेयम् , तेषामेवेदं प्रायश्चित्तनिकुरुम्बं न जिनकल्पिकादीनाम् ॥ २८६५ ॥ इह पूर्व भाष्यकारेण प्रथमा नौः परिस्पष्टमुपदर्शिता न द्वितीयादयः, अतो यथाक्रमं तासां व्याख्यानमाह बिइयादेसे भिक्खू, भणंति दुट्ठ में कयं ति वोलेंति । छल्लहु वसभे छग्गुरु, छेदो मूलाइ जा चरिमं ॥ २८६६ ॥ 'द्वितीयादेशो नाम' द्वितीयनौसंस्थितः प्रायश्चित्तप्रकारः, तत्र तथैव रात्रौ भुक्त्वा गुरूणां निवेदिते भिक्षवो भणन्ति-दुष्ठु "भे" भवद्भिः कृतमिति । तच्च वचनं यदि ते 'वोलयन्ति' न प्रतिपद्यन्ते तदा षड्लघुकम् , वृषभवचनातिक्रमे षड्गुरुकम् , आचार्याणामतिक्रमे च्छेदः, 20 कुलस्थविरस्याप्रमाणीकरणे मूलम् , गणस्थविरस्याप्रमाणनेऽनवस्थाप्यम्, सङ्घस्थविरस्यातिक्रमणे पाराञ्चिकम् । एवं मणिप्रकाशादिष्वपि मन्तव्यम् , नवरं मणिप्रकाशे षड्गुरुकात् प्रदीपप्रकाशे छेदाद् उद्दीप्ते मूलादारब्धव्यम् । अभीक्ष्णसेवायां तु सप्तभिवारैः पाराञ्चिकम् । भावना तु प्रागेव कृतेति ॥ २८६६ ॥ तृतीया भाव्यते तइयादेसे भोत्तूण आगया नेव कस्सइ कहिंति । तेसऽनतो व सोचा, खिसंतऽह भिक्खुणो ते उ ॥ २८६७ ॥ 'तृतीयादेशे' तृतीयायां नावि तथैव भुक्त्वा समागताः सन्तो नैव कस्यापि कथयन्ति । नवरं भिक्षवस्तेषां परस्परं संलापं श्रुत्वा, तैर्वाऽन्यस्य कस्यापि श्रावकादेः कथितं ततो वा १ पईवमाइउज्जोए भा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका । दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ २ मूलगुणविराहणा भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी ४ ॥ ३ प्रदीपाद्युद्योते पिपीलि° भा० ॥ ४ 'मूलगुणानां' प्राणा भा० ॥ ५म्, पुनःशब्दो गच्छवासिनामेव रात्रिभक्तप्रतिसेवनासम्भव इति विशेषणार्थः, ततश्च तेषामेवे का ॥ ६ कृतेति न भूयो भाव्यते ॥ २८६६ ॥ तहया भा• कां० ॥ 25 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः २८६४-७१] प्रथम उद्देशः । ८१३ श्रुत्वा भिक्षवस्तान् 'अथ' श्रवणानन्तरं 'खिसंति' खरण्टयन्तीत्यर्थः ॥ २८६७ ॥ खरण्टिताश्च यद्यतिक्रामन्ति तत इयं प्रायश्चित्तवृद्धिः भिक्खुणों अतिकमंते, छल्लहुगा वसमें होति छग्गुरुगा। गुरु-कुल-गण-संघाइक्कमे य छेदाइ जा चरिमं ॥ २८६८ ॥ भिक्षूनतिक्रामति पड्लघुकाः, वृषभाणामतिक्रमे षड्गुरुकाः, गुरूणामतिक्रमे छेदः कुल-5 स्यातिक्रमे मूलम् , गणस्यातिक्रमेऽनवस्थाप्यम् , सङ्घस्यातिक्रमे पाराञ्चिकम् ॥ २८६८ ॥ अथ चतुर्थी नावमुपदर्शयति- . भिक्खू वसभाऽऽयरिए, वयणं गच्छस्स कुल गणे संघे । गुरुगादऽइक्कमंते, जा सपद चउत्थ आदेसो ॥ २८६९ ॥ ५ ज्योत्लाप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरूणामालोचिते भिक्षुभिनोंदिता यद्यावृत्तास्ततश्चतुर्गुरुकाः । 10 अथ » भिक्षूणां वचनमतिकामन्ति ततोऽपि चतुर्गुरु, वृषभाणां वचनमतिकामतः षड्लघुकाः, आचार्यानतिकामतः षड्गुरुकाः, गच्छममन्यमानस्य च्छेदः, कुलमप्रमाणीकुर्वतो मूलम् , गणम. प्रमाणयतोऽनवस्थाप्यम् , सङ्घ व्यतिक्रामतः 'खपदं' पाराञ्चिकम् । अभीक्ष्णसेवायामपि प्रथमे द्वितीये च वारे चतुर्गुरुकम् , तृतीयादिप्वष्टमान्तेषु वारेषु षड्लघुकादि पाराञ्चिकान्तम् । एषः 'चतुर्थ आदेशः' चतुर्थी नौः इत्यर्थः ।। २८६९ ॥ अथ पूर्वोक्तानेव प्रायश्चित्तवृद्धिहेतूने सन्दर्शयति पेच्छह उ अणायारं, रत्तिं भुत्तुं न कस्सइ कहति । एवं एकेकनिवेयणेण वुड्डी उ पच्छित्ते ।। २८७०॥ 'पश्यताममीषामनाचारं यदेवं रात्रौ भुक्त्वा न कस्यापि कथयन्ति' एवं भिक्षुभिः खरण्टिता यदि नावर्तन्ते ततो भिक्षवो वृषभाणां कथयन्ति, वृषभा गुरूणाम् , गुरवोऽपि कुलस्येत्यादि । 20 एवमेकैकस्य-वृषभादेनिवेदनेन प्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्भवति ॥ २८७० ॥ को दोसो को दोसो, त्ति भणंते लग्गई बिइयठाणं । अहवा अभिक्खगहणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो ॥ २८७१ ॥ १त. डे• मो० ले० विनाऽन्यत्र-थूणामतिक्रमे षड्' भा० । शिक्षा प्रयच्छतोऽतिक्रमे षड् कां० ॥ २ अत्र भा० पुस्तके-अथ यथा भिक्षवस्तान् खरण्टयन्ति तथा प्रतिपादयति इत्यवतीर्य पेच्छह उ अणायारं० इति २८७० गाथा व्याख्याताऽस्ति । तदनन्तरं अथ चतुर्थी नावंमुपदर्शयति इत्यवतीर्य भिक्खू वसभाऽऽयरिए० इति २८६९ गाथा व्याख्याताऽस्ति ॥ ३- एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । ४°मतश्चत्वारो गुरुकाः, वृषभानतिकामतः पह' भा० ॥ ५°चार्याणां वचनमति कां०॥ ६ मपि चतुर्गुरुकादारन्धमष्टभिर्वारैः स्वपदम् । एषः भा०॥ ७°न् संगृह्य सन्द भा०॥ ८°लस्य, कुलमपि गणस्य, गणोऽपि सकस्य निवेदयति । एवमे भा०॥ ९ आयारा भा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका । दृश्यतां पत्रं ८१४ टिप्पणी ३ ॥ - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ 16 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [रात्रिभक्तपकृते सू० ४२ चन्द्रोद्योतादिषु को दोपः ? को दोषः ? इत्युत्तरप्रदानेन द्वितीयं प्रायश्चित्तस्थानं 'लगति' प्राप्नोति । अथवा 'अभीक्ष्णग्रहणे' पुनःपुनरासेवायाम् , अथवा 'वस्तुनः' आचार्योपाध्यायादिरूपस्य यः 'अतिचारः' रात्रिभक्तलक्षणस्तस्मात् प्रायश्चित्तवृद्धिर्भवति । यत एवं प्रायश्चित्तजालम् अतो न कल्पते चतुर्विधमपि रात्रिभक्तम् । कारणसद्भावे पुनः कल्पते ॥ २८७१ ॥ 6 तान्येव कारणानि दर्शयति विइयपयं गेलन्ने, पढमे बिइए य अणहियासम्मि । फिट्टइ चंदगवेझं, समाहिमरणं व अद्धाणे ॥ २८७२ ॥ 'द्वितीयपदं नाम' 'दिवा गृहीतं दिवा भुक्तम्' इत्यादिचतुर्भङ्गीप्रतिसेवनात्मकं तदागाढे ग्लानत्वे आसेवितव्यम् । प्रथमद्वितीयपरीषहातुरतायां वा, “अणहियासम्मि" ति असहिष्णु10 तायां वा, चन्द्रकवेधं नामानशनं तदसमाधिमुपगतस्य 'स्फिटति' न निर्वहतीति भावः, अत. स्तस्य यथा समाधिमरणं भवति तथा चतुर्भङ्गयाऽपि यतितव्यम् । अध्वनि वा चतुर्खपि भङ्गेषु ग्रहणं कर्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ २८७२ ॥ _अथैनामेव विवरीषुग्लानत्वद्वारं व्याख्यानयति पइदिणमलब्भमाणे, विसोहि समइच्छिउं पढम भंगो। दुल्लभ दिवसंते वा, अहि-मूलरुयाइसुं विइओ ॥ २८७३ ॥ एमेव तइयभंगो, आइ तमो अंतए पगासो उ ।। दुहओ वि अप्पगासो, एमेव य अंतिमो भंगो ॥ २८७४ ॥ ___यदा ग्लानस्य प्रतिदिनं विशुद्धं भक्तपानं न लभ्यते तदा पञ्चकपरिहाण्या ये विशोधिको व्यादयो दोषास्तेषु प्रतिदिवसं ग्रहीतव्यम् , यावचतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् ; यदा तदपि समति20 क्रान्तस्तदा प्रथमभङ्गो भवति', रात्रौ परिवास्य दिवा दातव्यमित्यर्थः । तथा 'दुर्लभं' ग्लानप्रायोग्यमशनादि द्रव्यं तच्च गृहीत्वा यावत् प्रतिश्रयमागच्छति तावदम्तमुपगतः सविता अतो दिवा गृहीत्वा रात्रौ ग्लानस्य दातव्यम् ; अथवा कश्चिद् दिवसान्ते 'अहिना' सर्पण खायेत, शूलरुग् वा कस्यापि तदानीमुद्धावेत, आदिग्रहणाद् विष-विसूचिकादिष्वागाढेपु समुत्पन्नेषु सर्पडङ्काद्युपशमनलब्धप्रत्ययमगदाद्यौषधमानीय यावद दीयते तावदस्तं गतो रविः अतो रात्रावपि 23 दातव्यम् , एष द्वितीयो भङ्गः । एवमेव तृतीयो भङ्गो वक्तव्यः, यानि प्रथम-द्वितीयभङ्गयोः १ अग्नि-चन्द्रो त० डे० ॥ २°त्तरोत्तरं भणन् द्विती° को ॥ ३ °नः' भिक्षु-वृषभादेः 'अतिचाराद' अतिक्रमणाद् उत्तरोत्तरप्रायश्चित्तवृद्धिर्भवति । यत एतावत् प्रायश्चित्तजालमुपढौकते अतो न भा० ॥ ४°शोधिकादयो दो भा० कां० विना । “विसोहि त्ति विसोहि कोडी" इति चूर्णी ॥ ५°ति, दिवा गृहीत्वा दिवा भुङ्क्ते इत्यर्थः भा० । “जता पतिदिवसं ण लम्मति तदा 'विसोहि' ति विसोहिकोडी पणगातो आरम्भ जाव चउलहुगा जत्थ पच्छित्तं तं पति दिवसं गेण्हति; जाधे चउलहगं वोलीणो ताधे पढमभंगेणं दिया घेत्तुं दिया मुंजति, परिवासितमित्यर्थः ।" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ६ आदिशब्दाद् विष° भा०॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८७२-७८] प्रथम उद्देशः । ८१५ कारणानि तानि तृतीयभङ्गेऽपि भवन्तीति भावः । अत्र च भङ्गे आदौ 'तमः' अन्धकारं रात्रिपदमित्यर्थः, अन्ते च 'प्रकाश' दिवापदम् । 'अन्तिमः' चतुर्थो भङ्गः सोऽपि 'एवमेव ' अहिदष्टाद|वागाढकारणे प्रति सेवितव्यः, नवरमसौ द्विधाऽप्यप्रकाशो मन्तव्य इति ॥ २८७३ ॥ ॥ २८७४ ॥ गतं ग्लानद्वारम् । अथ प्रथम द्वितीया - सहिष्णुपदानि व्याचष्टे - पढमबिया रस्सा, असहुस्स हवेज अहव जुअलस्स । कालम्मि दुरहियासे, भंगचउक्केण गहणं तु ॥ २८७५ ।। प्रथमः- क्षुधा परीषहो द्वितीयः - पिपासापरीपहस्ताभ्यामातुरस्य, 'असहिष्णोर्वा' स्थूलभद्रस्वामिलघुभ्रातृश्रीयककल्पस्य युगलं-वाल-वृद्धरूपं तस्य वा असहिष्णोः, काले वा 'दुरधिसहे' अवमौदर्यलक्षणे भङ्गचतुष्केणापि ग्रहणं कर्त्तव्यम् ॥ २८७५ ॥ एमेव उत्तिमडे, चंदगवेज्झसरिसे भवे भंगा | उभयवगासो पदम, आदी अंते य सव्वतमो ॥ २८७६ ॥ चन्द्रको नाम - चक्राष्टको परिवर्तिन्याः पुत्तलिकाया वामांक्षिगोलकः तस्य वेधः - ताडनं तत्सदृशे - तद्वद् दुराराधे 'उत्तमार्थे' अनशने प्रतिपन्ने सति यदि कदाचिदसमाधिरुत्पद्यते तदा 'मा नमस्कारं नाराधयिष्यति, असमाधिमृत्युना वा मा म्रियताम्' इति कृत्वा चत्वारोऽपि भङ्गाः प्रयोक्तव्या भवेयुः । तत्र च प्रथमो भङ्ग उभयप्रकाशः, द्वितीयो भङ्ग आदौ प्रकाशवान् अन्ते 15 तमखान्, तृतीयो अन्ते प्रकाशवान् आदौ तमखान्, चतुर्थो भङ्गः 'सर्वतमः' उभयथाऽपि तमोयुक्तः, रात्रौ गृहीत्वा रात्रावेव भोगभावादिति ॥ २८७६ ॥ अथाध्वद्वारं सविस्तरं व्याचिख्यासुराह- १ 'आदी' आद्ये ग्रहणाख्यपदे 'तमः' कां० ॥ २ 'अन्ते च' भुक्तलक्षणे पदे 'प्र' कां० ॥ ३ 'द्विधाऽप्यप्रकाशः' ग्रहण- भोगयोरुभयोरपि रात्रिपदयुक्तो मन्त' कां० ॥ अद्वाणमिव होजा, भंगा चउरो उ तं न कप्पइ उ । दुविहा उ होंति उदरा, पोट्टे तह धन्नभाणे य ॥ २८७७ ॥ अध्वनि वा वर्त्तमानानां चत्वारोऽपि भङ्गा भवेयुः परं 'तेंद्' अध्वगमनं कर्तुमूर्द्धदरे साधूनां न कल्पते । ते च दुरा द्विविधाः, तद्यथा - पोहदरा धान्यभाजनदराश्च । तत्र पोट्टम् - उदरं तद्रूपा दराः पोदराः, धान्यभाजनानि - कटपल्यादयस्तान्येव दरा धान्यभाजनदराः । तेरा ऊर्द्ध यत्र पूर्यन्ते तदूर्द्धदरमुच्यते ॥ २८७७ ॥ << अँमुमेवार्थं सविशेषं भणन् प्रायश्चित्तं च दर्शयन्नाह - उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाणपत्रजणं तु दप्पेण | लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ ॥ २८७८ ॥ ऊर्द्धदरम्-अनन्तरोक्तं सुभिक्षं - सुलभभैक्षम् । अत्र चत्वारो भङ्गाः - - ऊर्द्धदरमपि सुभक्षमपि १ ऊर्द्धदरमसुभिक्षं २ सुभिक्षं नोर्द्धदरं ३ नोर्द्धदरं न सुभिक्षम् ४ । अत्र द्वितीय ४° काशो भवति, ग्रहण- भोग पदयोरुभयोरपि दिवापदयुक्त इति भावः, एवं द्विती को ० ॥ ५ 'तम्' अध्वानं गन्तुमूर्खदरे न क भा० ॥ ६ एतविगतमवतरणं को एव वर्त्तते ॥ 5 10 20 25 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ चतुर्थभङ्गयोरध्वगमनं कर्त्तव्यम् । अथ प्रथमतृतीयभङ्गयोरध्वप्रतिपत्तिं दर्पतः करोति तदा शुद्धपदेऽपि चत्वारो लघुकाः । यद् वा यत्र संयमविराधनादिकमापद्यते तन्निष्पन्नं तत्र प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम् ॥ २८७८ ॥ प्रथमतृतीयभङ्गयोरप्येतैः कारणैर्गन्तुं कल्पत इति दर्शयति नाणट्ठ दसणट्ठा, चरितट्ठा एवमाइ गंतव्वं । उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्येण गंतव्यं ॥ २८७९ ॥ [नि.भा.३४२७] ज्ञानाथ दर्शनार्थ चारित्रार्थमेवमादिभिः कारणैर्गन्तव्यम् । गच्छद्भिश्च तलिकादिकमुपकरणं ग्रहीतव्यम् । पूर्वप्रत्युपेक्षितेन च सार्थेन सह गन्तव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥२८७९॥ अथैनामेव व्याख्यानयति सगुरु कुल सदेसे वा, नाणे गहिए सई य सामत्थे । बच्चइ उ अन्नंदेसे, दंसणजुत्ताइअत्थो वा ॥ २८८० ॥ ज्ञानम्-आचारादिश्रुतं तद् यावत् खगुरूणां समीपे सूत्रतोऽर्थतश्च विद्यते' तावति सम्पूर्णेऽपि गृहीते, स यद्यपरस्यापि श्रुतस्य ग्रहणे सामर्थ्यमस्ति । ततः खंदेशे यदात्मीयं कुलं तत्र, तदभावे परकुले वा गत्वा शेषश्रुतग्रहणं कर्त्तव्यम् । अथ नास्ति खदेशे तथाविधः कोऽपि बहु श्रुत आचार्यस्ततोऽन्यदेशं गच्छति । तत्रापि ये आसन्नतरा एकवाचनाकाश्चाचार्यास्तेषां समी16 पेऽवशिष्यमाणं श्रुतं गृह्णाति । यदा च परिपूर्णमपि विवक्षितयुगसम्भवि श्रुतं गृहीतं तदा यद्यात्मनः प्रतिभादिकं सामर्थ्यमस्ति ततः "दंसणजुत्ताइअत्थो व" ति दर्शनविशुद्धिकारणीया गोविन्दनियुक्तिः आदिशब्दात् सम्म(न्मोति-तत्त्वार्थप्रभृतीनि च शास्त्राणि तदर्थः-तत्प्रयोजनः प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समीपे गच्छेत् ॥२८८०॥ अथ चारित्रार्थमिति द्वारमाह पडिकुट्ठ देस कारण गया उ तंदुवरमि निति चरणट्ठा । असिवाई व भविस्सइ, भूए व वयंति परदेसं ॥ २८८१॥ सिन्धुदेशप्रभृतिको योऽसंयमविषयः स भगवता 'प्रतिक्रुष्टः' न तत्र विहर्तव्यम् । परं तं प्रतिषिद्धदेशमशिवादिभिः कारणैर्गताः ततो यदा तेषां कारणानाम् 'उपरमः' परिसमाप्तिर्भवति तदा चारित्रार्थ ततोऽसंयमविषयाद् निर्गच्छन्ति, निर्गत्य च संयमविषयं गच्छन्ति । यद्वा तत्र क्षेत्रे वसतां निमित्तबलेन ज्ञातम् , यथा--अशिवादिकमत्र भविष्यति, अथवा 'भूतम्' उत्प25 न्नमत्राशिवादि, अतः परदेशं व्रजन्ति । एवमादिभिः कारणैरध्वानं गन्तव्यतया निश्चित्य गच्छोपग्रहकरमिदमुपकरणं गृह्णन्ति ॥ २८८१ ॥ सकिं पुनस्तत् ? इति अत आह-~ चम्माइलोहगहणं, नंदीभाणे य |म्मकरए य । परउत्थियउवकरणे, गुलियाओ खोलमाईणि ॥ २८८२ ॥ धर्मशब्देन चर्ममयं तलिकाद्युपकरणं गृह्यते, आदिशब्दात् सिक्ककादिपरिग्रहः । लोहग्रह १एतदने त. डे. मो. ले० प्रतिषु ग्रन्थानम-४५०० इति वत्तते ॥ २० एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति। 4 एतन्मध्यगतमवतरणं कां. एव वर्तते ॥ ४ प्रस्यन्तरेषु कचित् चम्मकरए इति दृश्यते । एवमप्रेऽपि बोदव्यम् ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाण्यगाथाः २८७९-८५] प्रथम उद्देशः । णेन पिप्पलकादिलोहमयोपकरणानां च ग्रहणमध्वानं गच्छता कर्त्तव्यम् । नन्दीभाजनं धर्मकरकन्ध तथा 'परतीथिकोपकरणं' वक्ष्यमाणरूपं तथा 'गुलिका नाम तुवरवृक्षचूर्णगुटिकाः खोला:गोरसभावितानि पोतानि । एवमादीन्युपकरणानि ग्रहीतव्यानीति द्वारगाथासमासार्थः ॥२८८२॥ अथास्या एवाद्यपदं व्याचिख्यासुः प्रतिद्वारगाथामाह तलिय पुडग वज्झे या, कोसग कत्ती य सिक्कए काए। । पिप्पलग सूइ आरिय, नक्खचणि सत्थकोसे य॥ २८८३ ॥ तलिकाः-उपानहः, पुटकाः-खल्लकानि, वर्भः-प्रतीतः, कोशकः-नखभरक्षार्थ यत्राकुल्यः प्रक्षिप्यन्ते, कृत्तिः-चर्म, सिक्ककं -प्रतीतम् , कायो नाम-कापोतिका, पिप्पलकः सूची आरिका च प्रतीताः, नखार्चनी-नखहरणिका, 'शस्त्रकोशः' शिरावेधादिशस्त्रसमुदाय इति प्रतिद्वारगाथासङ्केपार्थः ॥ २८८३ ॥ अथैनामेव गाथां प्रतिपदं विवृणोति तलियाउ रत्तिगमणे, कंटुप्पहतेण सावए असहू । पुडगा विवचि सीए, वज्झो पुण छिन्नसंधट्ठा ॥ २८८४ ॥ तलिकाः-क्रमणिकास्ताश्च रात्री गमने कण्टकरक्षणार्थ पादेषु बध्यन्ते । सार्थवशाद्वा पन्थानं मुक्त्वोत्पथेन गच्छतां स्तेन-श्वापदभयेन वा त्वरितं गम्यमाने दिवाऽपि बध्यन्ते । 'असहिष्णुः' सुकुमारपादः स कण्टकसंरक्षणार्थ क्रमणिकाः पादयोध्नाति । ताश्च प्रथममेकतलिकाः, तदप्राप्ती 15 यावञ्चतुस्तलिका अपि गृह्यन्ते । 'पुटकानि' खल्लकानि तानि शीतेन पादयोः 'विवर्निकासु' विपादिकासु स्फटन्तीषु बध्यन्ते । 'वर्भः' पुनस्तलिकादीनां छिन्नानां-त्रुटितानां सन्धान-सङ्कदृनं तदर्थं गृह्यते ॥ २८८४ ॥ कोसग नहरक्वट्ठा, हिमा-ऽहि-कंटाइसू उखपुसादी। कत्ती वि विकरणट्ठा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा ।। २८८५ ॥ "कोसग" ति अङ्गुलीकोशको नखभङ्गरक्षार्थ गृह्यते, तत्र पादयोरमुल्योऽङ्गुष्ठकश्च प्रक्षिप्यन्ते । तथा हिम-शीतम् अहि-कण्टको-प्रतीतौ तदादिप्रत्यपायरक्षणार्थ खपुसा आदिशब्दादर्द्धजचिका-जचिकादयश्च गृह्यन्ते । 'कृत्तिः' चर्म तत् प्रलम्बादिविकरणार्थ गृखते, मा धूल्या लोलीभावमनुभूय मलिनानि भूवन्निति कृत्वा । तथा "विवित्त" चि ते साधवः कदापि सेनैः 'विविक्ताः' मुषिता भवेयुस्ततो वस्त्राभावे कृत्तिं प्रावृण्वन्ति । यत्र वा पृथिलीकायो भवति सत्र 25 कृत्तिं प्रस्तीर्य समुद्दिशन्ति, एवं पृथिवीकायरक्षा । आदिशब्दात् प्रतिलोमे वनदवे तृणरहितप्रदेशाभावे कृत्तिं प्रस्तीर्य तिष्ठन्तीति कृत्वा तेजःकायरेक्षाऽपि कृता स्यात् ॥ २८८५ ।। गतं चर्मद्वारम् । अथादिग्रहणलब्धे सिक्क-कापोतिके व्याख्यानयति तहिँ सिकएहिँ हिंडति, जत्थ विवित्ता व पल्लिगमणं वा । १ प्रत्यन्तरेषु क्वचित् चर्मकरक इति वर्तते । एवमग्रेऽपि ज्ञातव्यम् ॥ २°ति गाथाद्वयसमा त• डे० मो० ले० ॥ ३°सार्थः । एतानि चर्ममयादीन्युपकरणानि ग्रहीतव्यानि ॥ २८८२ ॥ अथामा क. ४ °रक्षणार्थमपि कवियते ॥ २८८५ ॥ का• ॥ 20 - - - Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ परलिंगग्गहणम्मि वि, निक्खिवणट्ठा व अन्नत्थ ॥ २८८६ ॥ यत्र 'विविक्ताः' मुषितास्तत्र पात्रबन्धाभावे चौरपल्यां वा भिक्षार्थ गमनं विदधाना अलाबुकानि सिक्ककेषु कृत्वा हिण्डन्ते । चक्रचरीदिसम्बन्धिपरलिङ्गेन वा भक्त पानग्रहणे प्राप्ते सिक्कक्रेन पर्यटितव्यम् । अवकल्पादेर्वा सिक्कके निक्षेपणं कार्यम् । प्रलम्बादिकं वा सिककेप्यानीय 5 'अन्यत्र' स्थविरागृहादौ निक्षिप्यते । स तदर्थ सिककं ग्रहीतव्यम् । ॥ २८८६ ।। जे चेव कारणा सिक्कगस्स ते चेव होंति काए वि । कप्पुवही बालाइव, वहंति तेहिं पलंवे वा ॥ २८८७ ॥ थान्येव कारणानि सिक्ककस्योक्तानि तान्येव 'कायेऽपि' कापोतिकायामपि भवन्ति । यद्वा सिक्कक-कापोतिकयोरयमुपयोगः–'कल्पम्' अध्यकल्पम् उपधिमाचार्या-ऽसहिष्णुप्रभृतीनां 1८ बालादीन् वा प्रलम्बानि वा उपलक्षणत्वादाकस्मिकशूलविद्धं वा ताभ्यां' सिक्कक-कापोतिकाभ्यां वहन्ति ॥ २८८७ ॥ अथ लोहग्रहणद्वारं भावयति पिप्पलओं विकरणहा, विवित्त जुन्ने व संधणं सूई । आरि तलिसंधणट्ठा, नक्खच्चण नक्ख-कंटाई ॥ २८८८ ॥ 'पिप्पलकः' प्रलम्बविकरणार्थं गृह्यते । तथा 'विविक्तानां' मुषितानां यदवशिष्यमाणं वस्त्रं 15 यद् वा खभावजीणे तस्य सन्धानार्थ सीवनार्थ वा सूची ग्रहीतव्या । त्रुटिततलिकानां सन्धानार्थमारा गृह्यते । 'नखार्चनं' नखहरणिका सा नखच्छेदनार्थ कण्टकादिशल्योद्धरणार्थं वा गृह्यते ॥ २८८८ ॥ शस्त्रकोशः पुनरयम् -शिरावेधशस्त्रकं पच्छणशस्त्रकं कल्पनशस्त्रकं लोहकण्टिका सन्देशकः । एवमादिकस्य शस्त्रकोशस्योपयोगं दर्शयति कोसाहि-सल्ल-कंटग, अगदोसहमाइयं तु चग्गहणा। __ अहवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य ज जोग्गं ॥ २८८९ ॥ "कोस" ति शस्त्रकोशेनेदं प्रयोजनम् ---अहिः-सर्पस्तेन यावन्मात्रमङ्गं दष्टं तावच्छिद्यते, शल्यं वा कण्टको वा नखहरिणकया हर्जुमशक्यस्तेन द्रियते । इह प्रतिद्वारगाथायां "सत्थकोसे य" (गा० २८८३) त्ति यश्चशब्दस्तद्रहणादगदौषधादिकं ग्रहीतव्यम् । तत्र यदनेकद्रव्यैर्निप्पन्नं तदगदम् , यत् पुनरेकाङ्गिक तत् सर्वमप्यौषधम् । अथवा चशब्दोपादानात् 'क्षेत्रे' दक्षिणा25 पथादौ यद् यत्र दुर्लभम् , 'काले' ग्रीष्मादौ यत् सक्तुप्रभृतिकं शीतलद्रव्यमुपयोगि, महति गच्छे वा यत् केवइयादिकं साधारणम् , 'पुरुषस्य वा' आचार्यादेर्यस्य यद् योग्यं तद् यथायोगं ग्रहीतव्यम् ॥ २८८९ ॥ नन्दीभाजन-धर्मकरकयोरुपयोगमाह एकं भरेमि भाणं, अणुकंपा णंदिभाण दरिसंति । निति व तं वइगाइसु, गालिंति दवं तु करएणं ।। २८९० ॥ 30 - "अणुकंप" ति अध्वप्रतिपन्नानां कोऽप्यनुकम्पया यात्-अहं युप्मभ्यं दिने दिने एक भाजनं 'बिभर्मि' पूरयामि, ततस्तत्र नन्दीभाजनं दर्शयन्ति । अथवा 'तद्' नन्दीभाजनं भिक्षा१.न्ते, गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् । चक्र' कां० ॥ २ °रादिलिङ्गे भा० कां० विना ॥ ३ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ।। ४ पूर्वगाथायां यान्ये कां० ॥ 20 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८८६-९३ ] प्रथम उद्देशः । ८१९ चर्यया त्रजिकादिषु नयन्ति । तथा प्रामुकमप्रामुकं वा 'द्रवं' पानकं 'करकेण' धर्मकरकेण गालयन्ति ॥ २८९० ॥ परतीर्थिकोपकरणमाह - परउत्थियउवगरणं, खेत्ते काले य जं तु अविरुद्धं । तं यणि- लंबा, पडिणीऍ दिया व कोट्टादी || २८९१ ॥ परयूथिकाः - तच्चन्निकादयस्तेषां सम्बन्धि यद् उपकरणं यत्र क्षेत्रे काले वा 'अविरुद्धम्' 5 अर्चितं तद् रजन्यां भक्त-पानग्रहणार्थं प्रलम्बानयनार्थं वा कर्त्तव्यम् । यत्र वा प्रत्यनीका भवन्ति तत्र परतीर्थिकवेषच्छन्ना गच्छन्ति भक्तपानं वोत्पादयन्ति । म्लेच्छकोट्टं वा गताः परतीर्थिकवेषेण दिवा पुद्गलादिकं गृह्णन्ति । आदिशब्दात् प्रत्यन्तकोट्टादिपरिग्रहः ॥ २८९१ ॥ अथ गुलिका-खोलद्वारे व्याख्यानयति गोरसभाविय पोत्ते, पुव्वकय दवस्सऽसंभवे धोवे । असई उगुलिय मिय, सुन्ने नवरंगदइयादी || २८९२ ॥ गोरसभावितानि 'पोतानि' वस्त्राणि खोलानि भण्यन्ते । तेषु पूर्वकृतेष्वध्वानं प्रविष्टानां यदा प्राशुकद्रवस्यासम्भवस्तदा तानि पोतानि 'धावेयुः' प्रक्षालयेयुः । अगीतार्थप्रत्ययोत्पादनार्थं च आलोच्यते – गोकुलादिदं संसृष्टपानकमानीतम् । अथ न सन्ति खोलानि ततो गुलिका:तुवरवृक्षचूर्णगुटिकास्तद्भावनया पानकं प्राशुकीकृत्य 'मृगाः' अगीतार्थास्तेषां चित्तरक्षणार्थं 'शून्ये 15 ग्रामे प्रतिसार्थिकादीनां नवरङ्गदृतिका देरिदं गृहीतम्' इत्यालोचयन्ति । विशेष चूर्णौ तु गुलिका- खोलपदे इत्थं व्याख्याते – जत्थ पबयकोट्टाइसु पंडरंगादी पुज्जंति संजयाण ते पडिणीया होज्ज तत्थ 'गुलिय' त्ति वक्कलाणि घेप्पंति । 'खोल' त्ति सीसखोला, ती सिरं वेढियवं जहा न नज्जइ लोयहयं सीसं, सीस संरक्खणट्टाए वा ॥ २८९२ ॥ अथैषामुपकरणानां ग्रहणं न करोति ततः --- एकम्मिय ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । आणणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ २८९३ ॥ ‘एकैकस्मिन् स्थाने' एकैकस्योपकरणस्याग्रहणे इत्यर्थः चत्वारो मासाः 'अनुद्धाताः गुरवो भवन्ति, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमाऽऽत्मविषया ।। २८९३ ॥ अमुमेवार्थं स्पष्टतरमाह १°न्ति । अथवा "गुलिया खोल” त्ति अन्यथा व्याख्यायतेते - यत्र पर्वतकोट्टादौ पाण्डुराङ्गाः पूज्यन्ते ते च संयतानां प्रत्यनीकाः तत्र गुलिका नाम-वल्कलानि ताः परिधातव्याः, येन पाण्डुराङ्गवेशो भवति । खोला नाम-शीर्षवेष्टनं तया शीर्ष वेष्टयितव्यं यथा न ज्ञायते लोवहतं शीर्षमिति, शीर्षरक्षणार्थ वा खोला ग्राह्या । न चैतत् स्वमनीषिकाविजृम्भितम्, यत आह विशेषचूर्णिकृत् - पञ्चय कोट्टाइसु पंडरंगादी पुजंति, संजयाण ते पडिणीया होजा, तेण दिया वि 'गुलिय' त्ति वक्कलाणि घे पंति, 'खोल' त्ति सीसखोया, जहा न नज्जइ लोयदयं सीसं, सीससंरक्खणट्ठाए वा ॥ २८९२ ॥ अधामीपा० भा० ॥ २ अथामीषा भा० कां० ॥ ३ 'वार्थ नियुक्तिगाथोक्तं भाष्यकारः स्पष्टु° कां० ॥ 10 20 25 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ एमाइ अणागयदोसरक्खणट्ठा अगेण्हणे गुरुगा। अणुकूले निग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं ॥ २८९४ ॥ एवमादीनामुपकरणानामनागतमेव संयमात्मविराधनादिदोषरक्षणार्थं ग्रहणं कर्त्तव्यम् । अथ न गृह्णाति ततः प्रत्येकं चत्वारो गुरवः । गतमुपकरणद्वारम् । अथ पूर्वप्रत्युपेक्षितेन सार्थेन 5 गन्तव्यमिति व्याख्याति-"अणुकूले'' इत्यादि । अनुकूलं चन्द्रबलं ताराबलं वा यदा सूरीणां भवति तदा 'निर्गमकः' प्रस्थानं क्रियते । निर्गताश्चोपाश्रयाद् यावत् सार्थं न प्राप्नुवन्ति तावदात्मनैव शकुनं गृह्णन्ति । सार्थ प्राप्तास्तु सार्थसत्केन शकुनेन गच्छन्ति ॥ २८९४ ॥ इदमेव सविशेषमाह . अप्पत्ताण निमित्तं, पत्ता सस्थम्मि तिनि परिसाओ । 10 सुद्धे त्ति पत्थियाणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो ॥ २८९५ ॥ सार्थेऽप्राप्तानां 'निमित्तं' शकुनग्रहणं भवति । प्राप्तानां तु यः सार्थस्य शकुनः स संयतानामपि भवति । सार्थ च प्राप्ताः सन्तस्तिस्रः परिषदः कुर्वन्ति, तद्यथा-सिंहपर्पदं वृषभपर्पदं मृगपर्षदम् । तथा सार्थः 'शुद्धः' निर्दोष इति कृत्वा प्रस्थिताः परं यदा 'अध्वनि' अटवी प्राप्ता भवन्ति तदा कोऽपि प्रत्यनीको भिक्षायाः प्रतिषेधं कुर्यादिति 'नियुक्तिगाथासमासार्थः 15॥ २८९५ ॥ अथ एनामेव विवरीषुः प्रथमपदव्याख्यानं सुगमत्वादनादृत्य » सिंहादीनां पर्षदां व्याख्यानमाह कडजोगि सीहपरिसा, गीयत्थ थिरा य वसभपरिसा उ । सुत्तकडमगीयत्था, मिगपरिसा होइ नायव्वा ॥ २८९६ ।।। कृतयोगिनो नाम-गीतार्थाः परं न तो समर्थास्ते सिंहपर्षदुच्यन्ते, ये तु गीतार्था अपरं 20 च 'स्थिराः' बलवन्तस्ते वृषभपर्षद् , ये तु 'कृतसूत्राः' सूत्रेऽधीतिनः परमगीतार्थास्ते मृगपर्षदिति ज्ञातव्या भवति ॥ २८९६ ॥ अथ "सुद्धि त्ति पत्थियाणं" ति पदं व्याख्यायते-साधुमिः प्रथमत एव सार्थाधिपतिरभिधातव्यः-वयं युष्माभिः समं व्रजामो यद्यस्माकमुदन्तमुद्वहथ । एवमुक्ते यद्यसावभ्युपगच्छति ततः शुद्धः सार्थ इति मत्वा प्रस्थिताः, परमटवीप्राप्तानां कोऽप्येवं कुर्यात् सिद्धत्थग पुप्फे वा, एवं वुत्तुं पि निच्छुभइ पंतो।। भत्तं वा पडिसेहइ, तिण्हऽणुसट्ठाइ तत्थ इमा ॥ २८९७ ॥ यथा 'सिद्धार्थाः' सर्षपाश्चम्पकपुष्पाणि वा शिरसि स्थापितानि काञ्चिदपि पीडां न कुर्वन्ति, एवं यूयमपि मम कमपि भारं न कुरुथ । एवमुक्त्वाऽपि कश्चित् 'प्रान्तः' भिक्षूपासकादिरटवीमध्ये सार्थाद् निष्काशयति--मा यूयमस्माभिः सार्द्धमागच्छतेति; भक्तपानं वा प्रतिषेधयति30 माऽमीषां कोऽपि किञ्चिदपि दद्यात् ; ततः 'त्रयाणां' सार्थ-सार्थवाहा-ऽऽयत्तिकानामनुशिष्यादिका इयं यतना कर्तव्या ॥ २८९७ ॥ तामेवाह अणुसट्ठी धम्मकहा, विज निमित्ते पभुत्तकरणं वा । १ एतचिहान्तर्गतः पाठः का० एव वर्तते ॥ २°था बलवन्तस्ते भा० ॥ 25 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २८२४-२९००] प्रथम उद्देशः । ८२१ परउत्थिगा व वसभा, सयं व थेरी व चउभंगो ॥ २८९८॥ यद् इहलोकापायप्रदर्शनं क्रियते साऽनुशिष्टिरुच्यते, यत् पुनरिह परत्र च सप्रपञ्चं कर्मविपाकोपदर्शनं सा धर्मकथा, तयाऽनुशिष्या धर्मकथया वा सार्थः सार्थवाह आयत्तिका वा उपशमयितव्याः, विद्यया मन्त्रेण वा ते वशीकर्तव्याः, निमित्तेन वा आवर्त्तनीयाः । यो वा साधुः प्रभुः-सहस्रयोधी बलवान् स सार्थवाहं बवा स्वयमेव सार्थमधिष्ठाय प्रभुत्वं करोति ।। एषा निष्काशने यतना । भिक्षाप्रतिषेधे पुनरियम् --सर्वथा भिक्षाया अलाभे वृषभाः परयूथिका भूत्वा भक्तपानमुत्पादयन्ति, सार्थवाहं वा प्रज्ञापयन्ति । यदि च सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः 'स्वयं वा' खलिङ्गेनैव रात्रिभक्तविषयया चतुर्भङ्गया यतन्ते । अथागीतार्थमिश्रास्ततः स्थविराया गृहे निक्षिपन्ति ॥ २८५८ ॥ अमुमेवान्त्यपादं व्याख्यानयति पडिसेह अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो । थेरिसगासं तु मिए, पेसे तत्तो व आणीयं ॥ २८९९ ।। सार्थाधिपतिना भक्तपानस्य प्रतिषेधः कृतः, यद्वा न कृतः प्रतिषेधः परं स्तेनैः सार्थः सर्वोऽपि विलुलितः अतो भक्तपानं न लभ्यते, ततो यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्तदा 'स्वयमेव' परलिङ्गमन्तरेण रात्रिभक्तचतुर्भङ्गी यतनया प्रतिसेवितव्या । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । अथागीतार्थमिश्रास्ततो यदि तत्र सार्थे भद्रिका स्थविरा विद्यते तदा तस्याः समीपे निक्षिपन्ति । 15 ततः स्थविरायाः सकाशं मृगान् प्रेष्य तेषां पाश्चीदानाययेत् , 'ततो वा' स्थविरासमीपादानीतमित्यगीतार्थानां पुरतो भणन्ति ॥ २८९९ ॥ अथवा कुओं एवं पल्लीओ, सड्ढा थेरि पडिसत्थिगाओ वा। नायम्मि य पचवणा, न हु असरीरो भवइ धम्मो ॥ २९००॥ वृषभैः स्थविरासमीपादानीते सति यदि ते मृगाः प्रश्नयेयुः-----कुत एतदानीतम् ?, ततो 20 वक्तव्यम् –पल्याः सकाशादिदमानीतम् , दानादिश्राद्धैर्वा दत्तम् , स्थविरया वा वितीर्णम् , प्रतिसार्थिकाद् वा लब्धम् । एवमपि यदि तैर्मृगैतिं भवति ततस्तेषां प्रज्ञापना कर्तव्याभो भद्राः ! नास्ति 'अशरीरः' शरीरविरहितो धर्मः अत इदं शरीरं सर्वप्रयत्नेन रक्षणीयम् , उक्तश्च शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्वते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ अतः प्रतिसेवध्वमिदम् ,» पश्चादिदं चान्यच्च प्रायश्चित्तेन विशोधयिष्याम इति ॥२९००॥ अथ पूर्वोक्तानां तिसृणामपि पर्षदां गमनविधिमाह१°न्ति । 'स्वयं वा' स्वलिङ्गेनैव रात्रौ भक्तमुत्पादयन्ति यदि सर्वेऽपि गीतार्थाः । अथागीतार्थ मिश्रास्ततः स्थविराया गृहे निक्षिपन्ति । एवं चतुर्भद्याऽपि यतन्ते ॥२८९८॥ भा०॥ २ दा "गीयत्थेसु" त्ति विभक्ति व्यत्ययाद् गीताथैः स्वय° कां० ॥ ३"विरामूलाद्वाऽऽनीतम्, प्र° भा० ॥ ४ ति यथा-सन्निधिस्थापितमिति, तत' का०॥ ५4 एतन्मध्यगतः पाठः कां. प्रतावेव वर्तते ॥ 25 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ पुरतो वच्चंत मिगा, मज्झे वसभा उ मग्गओ सीहा । पिट्ठओं वसभऽन्नेसिं, पडियाऽसहुरक्खगा दोहं ॥ २९०१ ॥ अध्वनि गच्छतां पुरतः 'मृगाः' अगीतार्था मध्ये 'वृषभाः ' समर्थ - गीतार्थाः 'मार्गतः ' पृष्ठतः 'सिंहाः' गीतार्था व्रजन्ति । अन्येषामाचार्याणां मतेन पृष्ठतो वृषभा व्रजन्ति । किं 5 कारणम् ? इति अत आह— 'द्वयानां' मृग-सिंहानां बाल-वृद्धानां वा ये 'पतिताः' परिश्रान्ता ये च 'असहिष्णवः' क्षुधा पिपासापरीषहाभ्यां पीडितास्तेषां रक्षका वृषभाः पृष्ठतः स्थिता व्रजन्ति ॥ २९०१ ॥ अथवा 10 ८२२ पुरतो य पासतो पितो य वसभा हवंति अद्धाणे । गणवइपासे वसभा, मिगमज्झे नियम वसभेगो ।। २९०२ ॥ अध्वनि व्रजतां वृषभाः पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतश्च व्रजन्ति । तथा गणपतिः - आचार्यस्तस्य पार्श्वे नियमादेव वृषभा भवन्ति । मृगाणां च मध्ये नियमादेको वृषभो भवति ॥ २९०२ ॥ ते च वृषभः किं कुर्वन्ति ? इत्याह - वसभा सीहेसु मिगेसु चैव थामावहारविजढा उ । 15 जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गह कुणंति ॥ २९०३ ॥ वृषभाः ‘स्थामापहारविमुक्ताः' अनिगूहितबल-वीर्याः सन्तो मृगेषु सिंहेषु वा यो यत्र येषां मध्ये असहिष्णुर्भवति तस्य तथोपग्रहं कुर्वन्ति ॥ २९०३ ॥ कथम् ? इत्याहभत्ते पाणे विस्सामणे य उवगरण - देहवहणे य । थामावहारविजढा, तिन्नि वि उवगिण्हए वसभा ।। २९०४ ॥ मृगाणां सिंहानां वृषभाणां च मध्ये यः क्षुधार्त्तो भवति तस्य भक्तं प्रयच्छन्ति, पिपासितस्य 20 पानकं ददति, परिश्रान्तस्य विश्रामणां कुर्वन्ति । य उपकरणं देहं वा वोढुं न शक्नोति तस्य तयोर्वहनं कुर्वन्ति । एवं स्थामापहारविमुक्ता वृषभाः 'त्रीनपि' मृग-सिंह- वृषभानुपगृह्णन्ति ॥ २९०४ ॥ जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं अणागयं भणिओ । सट्टा सट्ठाणे, तस्सुवओगो इहं कमसो ।। २९०५ ॥ अध्वनि प्रविशतां योऽसौ तलिकादिरूपकरणगणोऽनागतं ग्रहीतव्यो भणितः तस्येह स्वस्थाने 25 स्वस्थाने अचक्षुर्विषयगमनादावुपस्थिते 'क्रमशः ' क्रमेणोपयोगः कर्त्तव्यः, येन यदा प्रयोजनं भवति तत् तदा तत्र प्रयोक्तव्यमिति भावः ।। २९०५ ॥ • अथाध्वनि गच्छतामेव भक्तपानालाभे विधिमाह – - असई य गम्ममाणे, पडिसत्थे तेण - सुन्नगामे वा । १ मिगा य मज्झम्मि वसभाणं भा० ता० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी २ ॥ २ °न्ति । ये तु मृगास्ते वृषभाणां मध्ये भवन्ति ॥ २९०२ ॥ वसभा भा० ॥ ३ मध्ये पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतश्चासहि” `कां० ॥ ४ एवं भक्तपानादिविषयं वैयावृत्त्यं स्थामा कां० ॥ ५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । रुक्खाईण पलोयण, असई नंदी दुविह दव्वे ॥ २९०६ ॥ तत्राध्वनि गम्यमाने भक्तपानस्य 'असति' अलाभे प्रतिसार्थे वा स्तेनपल्लयां वा शून्यग्रामे वा भक्तपानादि गवेषयन्ति, वृक्षादीनां वा प्रलम्बादिनिमित्तं प्रलोकनं कर्त्तव्यम् । सर्वथा वा संस्तरणस्यासति द्विविधं–परीत्तानन्तादिभेदाद् द्विप्रकारं यद् द्रव्यं तेन यथा 'नन्दिः ' तपःसंयमयोगानां स्फातिर्भवति तथा विधेयमिति' निर्युक्तिगाथासमासार्थः ॥ २९०६ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह - भत्ते व पाणेण व, निमंतएऽणुग्गए व अत्थमिए । आइचो उदय त्तिय, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ २९०७ ॥ अध्वानं गच्छतां यदि कोऽपि प्रतिसार्थो मिलितः, तत्र च केचिद् दानरुचयो भक्तेन वा पान वा रात्रानुते वाऽस्तमिते वा सूर्ये निमन्त्रयेयुः ततो यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्तदा गृह्णन्ति; 10 अथागीतार्थमिश्रास्ततो गीतार्था ब्रुवते - गच्छत यूयम्, वयमुदित एवादित्ये भक्तपानं गृहीत्वा पश्चादागमिष्याम इति । ततः प्रस्थितेषु मृगेषु गीतार्थास्तत्क्षणमेव गृहीत्वा सार्थमनुगच्छन्ति । स्थिते सार्थे मृगाणां शृण्वतामालोचयन्ति - आदित्य उदित इति मत्वा वयं ग्रहणं कृत्वा समागताः । एवंविधां यतनां गीतार्थः संविग्नः करोति ॥ २९०७ ॥ - अथ किमर्थं गीतार्थसंविग्नग्रहणम् ? इत्याह भाष्यगाथाः २९०१-९] १ °ति सङ्ग्रहगाथा' भा० ॥ ३ एवेत्युक्तं भ° भा० त०डे० ॥ ५ तदुत्क्रमेण ग्रहीतव्यम् ॥ भा० ॥ गीत्थग्गणेणं, सामाए गिण्हए भवे गीओ । संविग्गग्गहणेणं, तं गेहंतो वि संविग्गो ।। २९०८॥ 'गीतार्थग्रहणेनेदमावेदितम् — यो गीतार्थो भवति स एव ' श्यामायां' रात्रौ गृह्णाति नागीतार्थः । संविग्नग्रहणेन तु तद् रात्रिभक्तं गृह्णन्नप्यसौ संविग्न एवै यथोक्तयतनाकारित्वेन मोक्षाभिलाष्येव मन्तव्य इत्युक्तं भवति ॥ २९०८ ॥ गतं प्रतिसार्थद्वारम् । अथ स्तेनपल्लीद्वारम् - तस्यां च पिशितं सम्भवति तत्रायं विधि:बेइंदियमाईणं, संथरणे चउलहू उ सविसेसा । ते चैव असंथरणे, विविरीय सभाव साहारे ।। २९०९ ॥ - यदि ‘संस्तरणे' ~< इर्तेरभक्तपाननिर्वाहे सति द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलं गृह्णन्ति तदा चतुर्लघवः ‘सविशेषाः’ तपः-कालविशेषिताः । तद्यथा — द्वीन्द्रियपुद्गलं गृह्णाति चत्वारो लघवस्तपसा 25 कालेन च लघुकाः, त्रीन्द्रियपुद्गले त एव कालेन गुरुकाः तपसा लघुकाः, चतुरिन्द्रियपुले तपोगुरुकाः काललघुकाः, पञ्चेन्द्रियपुद्गले द्वाभ्यामपि तपः - कालाभ्यां गुरुकाः । अथासंस्तरणं भवति ततो यदि द्वीन्द्रियादिक्रममुल्लङ्घय 'विपरीतम्' उत्क्रमेण गृह्णाति ततस्त एव चत्वारो लघवः । अथापवादस्याप्यपवाद उच्यते — द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलमधिकतरेन्द्रियपुद्गलादल्पतरबलं ततो यत् खभावेनैव साधारणं तद् गृह्णन्ति ॥ २९०९ ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ एतन्मध्यगतः ४ पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ६ अमुमेवार्थ सविशेषमाह इत्यवतरणं को० ॥ ८२३ A Do 15 20 30 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ जत्थ विसेसं जाणंति तत्थ लिंगेण चउलहू पिसिए । अभाएण उ गहणं, सत्थम्मि वि होइ एसेव ।। २९१०॥ यत्र ग्रामे विशेषं जानन्ति यथा 'साधवः पिशितं न भुञ्जते' तत्र यदि स्खलिङ्गेन पिशितं गृहन्ति तदा चतुर्लघवः । अतोऽज्ञातेनैव तत्र ग्रह्ण कार्यम् , परलिङ्गेनेत्यर्थः । स्तेनपल्यादी5 नामभावे सार्थेऽपि पुद्गलग्रहणे एष एव क्रमो विज्ञेयः ॥२९१० ॥ अथ शून्यग्रामद्वारमाह-- अद्धाणासंथरणे, मुन्ने दव्मम्मि कप्पई गहणं । लहुओ लहुया गुरुगा, जहन्नए मज्झिमुक्कोसे ॥ २९११ ॥ अध्वप्रतिपन्नानामसंस्तरणे जाते 'शून्यग्रामे' तं सार्थमायान्तं दृष्ट्वा 'चौरसेना समागच्छति' इति शक्कयोद्वसिते ग्राने । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नस्य 'द्रव्यस्य' आहारादेब्रह्म कत्तुं 10 कल्पते । । अत्र "दवन्मि" ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी । - अथ संस्तरणे गृह्णाति तत इदमोघतः प्रायश्चित्तम्-जघन्ये मासलघु, मध्यमे चत्वारो लघवः, उत्कृष्टे चत्वारो गुरवः ॥ २९११ ॥ आह जघन्यमध्यमोत्कृष्टान्येव वयं न जानीमः अतो निरूप्यतामेतत्स्वरूपम् , उच्यते उकोसं विगईओ, मज्झिमगं होइ कूरमाईणि । दोसीणाइ जहन्नं, गिण्हते आयरियमादी ।। २९१२ ॥ 15 उत्कृष्टं द्रव्यं 'विकृतयः' दधि-दुग्ध-घृतादयः, मध्यमं द्रव्यं कूर-कुसणादीनि, जघन्यं द्रव्यं दोषान्नादि । एतानि गृह्णतामाचार्यादीनामाज्ञादयो दोषाः ॥ २९१२ ॥ अथ पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तम Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः २९१०-१८] प्रथम उद्देशः । ८२५ असंस्तरणे गृह्णतां यतनामाह विलओलए व जायइ, अहवा कडवालए अणुनवए । ___ इयरेण व सत्थभया, अन्नभया बुट्टिते कोट्टे ॥ २९१५ ॥ "विलओलग" ति देशीपदत्वा, लुण्टाकाः, यैः स ग्रामो मुषित इत्यर्थः, तान् वा तत्र शून्यग्रामे विकृत्यादिद्रव्यं याचते । अथवा कटपालकाः-ये तत्र वृद्धादयोऽजङ्गमा गृहपालकाः। स्थिता न नष्टास्ताननुज्ञापयेत् । "इयरेण व" त्ति स्खलिङ्गेनालभ्यमाने 'इतरेण' परलिङ्गेनापि गृह्णन्ति । तथा कोठें नाम-यदटव्यां चतुर्वर्णजनपदमिश्रं भिल्लदुर्ग वसति तस्मिन्नपि सार्थमयाद्वा 'अन्यभयाद्वा' परचक्रागमादिलक्षणाद् ‘उत्थिते' उद्वसीभूते सति जघन्यादिद्रव्यस्य ग्रहणं कल्पते ॥ २९१५ ॥ तत्रेयं यतना उद्दढसेस बाहिं, अंतो वी पंत गिहमट्टि । बहि अंत तओ दिटुं, एवं मज्झे तहुकोसे ॥२९१६ ॥ "उदृढं" ति देशीवचनत्वाद मुषितं तस्य यत् शेष-लुण्टाकैर्मुक्त्वा प्रामादेर्बहिः परित्यक्तं तद् जघन्यमदृष्टं प्रथमतो गृह्णन्ति, तस्यासति प्रामादेरन्तः प्रान्तमेवादृष्टम् , तदभावे प्रामादेर्बहिः प्रान्तं दृष्टम् , ततो ग्रामादेरन्तरपि प्रान्तं दृष्टं गृह्णन्ति । तदभावे मध्यममप्येवमेव चारणीयम् । तदमाप्तावुत्कृष्टमप्यनयैव चारणिकया ग्रहीतव्यम् ॥ २९१६ ॥ अथवा किमनेन जघन्यादिविकल्पप्रदर्शनेन ? तुल्लम्मि अदत्तम्मी, तं गिण्हसु जेण आवई तरसि । तुल्लो तत्थ अवाओ, तुच्छबलं वजए तेणं ॥ २९१७॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टेषु 'तुल्ये' समानेऽदत्तदोषे सति 'त' विकृत्यादिकं द्रव्यं गृहाण येन 'आपदम्' असंस्तरणलक्षणां 'तरसि' पारं प्रापयसि, यतस्तुल्य एव तत्र संयमात्मविराधनाढूपोऽ-20 पायः तेन हेतुना 'तुच्छबलं' दोषान्नादिद्रव्यं वर्जयेत् ॥ २९१७ ॥ गतं शून्यग्रामद्वारम् । अथ "रुक्खाईण पलोयण" त्ति (गा० २९०६) पदं व्याख्यानयति फासुग जोणिपरित्ते, एगहि अबद्ध भिन्नाभिन्ने य । बद्धहिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए ॥ २९१८ ॥ 'प्राशुकम्' अचित्तीभूतम् , परीचा योनिरस्येति परीत्तयोनिकम् , गाथायां प्राकृतत्वाद् 25 १°द लुण्टाका उच्यन्ते, लुण्टाका नाम-यैः कां० ॥ २ ज्ञाप्य गृह्णाति । "इय° भा० ॥ ३°न्ति । यद्वा स ग्रामः कथं शून्यो जातः ? इत्याह-"इतरेणं" ति इतरनामचौरभयं तेन तथा महतः सार्थस्य भयाद्वा 'अन्यभयाद्वा' परचक्रागमादिलक्षणादुत्थिते ग्रामे, "कोट्टे" त्ति यदटवीमध्ये भिल्ल पुलिन्द्र-चतुर्वर्ण-जनपदमिधं दुर्ग वसति तत् कोट्ट मुच्यते, तस्मिन्नपि शून्ये जघन्यादिद्रव्यस्य ग्रहणं कल्पते भा० ॥ ४°षं तदुइँढशेषम् , लुण्टाकानां मुष्णतां यदन्नादिकमुद्धरितमित्यर्थः, तद् जघ का॥ ५ तुच्छफलं भा०॥ ६°षु तुल्य एव तावददत्तादानदोषः, अतस्तुल्येऽदत्तं भा० ॥ ७°रूपो ग्रहणाकर्षणादिको वाऽपायः भा०॥ ८ तुच्छफलं भा० ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ 10 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४२ व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः, 'एकास्थिकम्' एकबीजम् , 'अबद्धास्थिकं नाम' अद्याप्यबद्धबीजम् अनिष्पन्नमित्यर्थः, 'भिन्नं विदारितम् , एतेन प्रथमो भङ्गः सूचितः, “अभिन्ने य" त्ति 'अभिनम्' अविदारितम् , अनेन द्वितीयो भङ्ग उपात्तः । उच्चारणविधिः पुनरेवम्-प्राशुकं परीत्तयोनिकमेकास्थिकमबद्धास्थिकं भिन्नम् १, प्राशुकं परीचयोनिकमेकास्थिकमबद्धास्थिकमभिन्नम् २, 5 एवं बद्धास्थिकेऽपि द्वौ भङ्गो वक्तव्यौ ४ । एते एकास्थिके चत्वारो भङ्गा लब्धाः, बहुबीजेऽप्येवमेव चत्वारो लभ्यन्ते, जाता अष्टौ भङ्गाः । एते परीत्तयोनिपदममुञ्चता लब्धाः, एवमेवानन्तयोनिपदेनाप्यष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते, जाताः षोडश भङ्गाः । एते प्राशुकपदेन लब्धाः, एवमेवाप्राशुकपदेनापि षोडशावाप्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया जाता द्वात्रिंशद् भङ्गाः । एते च वृक्षस्याधस्तात् पतितं प्रलम्बमधिकृत्य मन्तव्याः ॥ २९१८ ॥ एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुवीए । साहारणं सभावा, आदीऍ बहुगुणं जं च ॥ २९१९ ॥ एवमेव वृक्षस्योपर्यपि एकास्थिकपदे तथैव बहुबीजपदे उपलक्षणत्वात् प्राशुकादिशेषपदेषु च द्वात्रिंशद् भङ्गाः कर्त्तव्याः । अत्र च यो यः पूर्वो भङ्गकः स स प्रथममासेवितव्यः । सर्वथा वाऽधस्तात् पतितानां प्रलम्बानामप्राप्तौ वृक्षोपरिवर्तिप्रलम्बविषया अपि द्वात्रिंशद् भङ्गका यथा15 क्रममेवासेवितव्याः । अथापवादस्याप्यपवाद उच्यते - 'स्वभावात्' प्रकृत्यैव 'साधारणं' शरीरोपष्टम्भकारकं द्रव्यमेकास्थिकमनेकास्थिकं वा बद्धास्थिकमबद्धास्थिकं वा परीत्तमनन्तं वा तद् उत्क्रमेणापि 'आदते' गृह्णाति, 'यद्' यस्मात् तस्यामवस्थायां तदेव 'बहुगुणं' संयमादीनां बहूपकारकमिति ॥ २९१९ ॥ अथ द्वारगाथा(२९०६)ऽन्तर्गतं नन्दिपदं व्याख्यानयति नंदंति जेण तव-संजमेसु नेव य दर त्ति खिजति । जायंति न दीणा वा, नंदि अतो समयतो सन्ना ॥ २९२० ॥ अध्वनि वर्तमानाः साधवो येन द्रव्येणाभ्यवहृतेन तपः-संयमयोः 'नन्दन्ति' समा १°रणसभा भा० । एतदनुसारेणेव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ २°पि द्वात्रिंशद् भङ्गाः कर्तव्याः । कथम् ? इत्याह-"एगट्ठिय तह य होइ बहुवीए" त्ति उपलक्षणमिदं प्राशुकादीनां शेषपदानाम् । अत्र च यो यः भा० ॥ ३ त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र-ते-"साहारण" इत्यादि । साधारणः-शरीरोपष्टम्भकारी यः स्वभावस्तस्मात्, यच्चेतिशब्दः प्रकारान्तरोपन्यासे स्वगतानेकभेदसूचने वा, यद् द्रव्यमेकास्थिकमनेकास्थिकं वा बद्धास्थिकमबद्धास्थिकं वा परीत्तमनन्तं वा यस्यामवस्थायां [यत्] साधारणस्वभावाद् 'बहुगुणं' संयमादीनां बहूपकारकं तदा तदेव 'आदत्ते गृह्णाति न क्रमाक्रमविचारणं विदधाति ॥ २९.१९ ॥ अथ भा० । ते-तादृशेऽध्वनि वहमानानां 'स्वभावात्' प्रकृत्यैव 'साधारणं' शरीरोपटम्भकारि "जं च" त्ति यदेव द्रव्यमेकास्थिक कां० । “साहारणसभाव त्ति अप्पणो सभावं गाउं जेण खइएण साहारिजइ सो तं गेण्इइ” विशेपचूर्णौ ॥ ४ अथ नियुक्तिगाथा कां ॥ ५»» एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९१९-२२] प्रथम उद्देशः । ८२७ धिसमृद्धिमनुभवन्ति तद् नन्दिः । यद्वा येन द्रव्येणोपभुक्तेन नैव "दर" त्ति द्रुतं 'क्षीयन्ते ' न कृशीभवन्तीत्यर्थः तद् नन्दिः । अथवा येनोपयुक्तेन न दीना जायन्ते तदपि निरुक्तिवशाद् नन्दि: । अत्र पाठान्तरम् – “जायंति नंदिया व " ति नन्द्या - ज्ञान-दर्शन- चारित्रात्मिकया समृद्ध्या युक्ताः साधवो येतस्तेन द्रव्येण जायन्ते अतस्तस्य नन्दिरिति 'समयतः संज्ञा' आग -: मतः परिभाषा ॥ २९२० ॥ तच्च द्रव्यं द्विविधम्, तद्यथा 6 परिनिट्ठिय जीवजढं, जलयं थलयं अचित्तमियरं च । परित्तेतरं च दुविहं, पाणगजयणं अतो वोच्छं ।। २९२१ ॥ द्विधा द्रव्यम् - परिनिष्ठितं जीवविप्रमुक्तं च । परिनिष्ठितं नाम - यत् परार्थमचित्तीकृतम्। जीवविप्रमुक्तं तु–साध्वर्थमचित्चीकृतम्, आधाकर्मेति हृदयम् । आह च चूर्णिकृत् — परिनिट्ठियं ति जं परकडमचित्तं, जीवजढं ति आहाकम्मं । यद्वा द्विविधं द्रव्यम् – जलजं स्थलजं चेति । अथवा अचितेतर भेदाद् द्विधा । तत्राचितं नाम-यद् न परार्थमचित्तीकृतं नापि संयतार्थं केवलमायुः क्षयेणाचित्तीभूतम् । • तथा चाह चूर्णिकृत् — अचित्तं ति जं नावि परट्ठाए अचित्तीभूयं, नावि संजयट्टाए, केवलं आउक्खएणं अचित्तं ति 14 यत् पुनरायुर्धारयति तत् सचित्तम् । अथवा 'परीतं ' प्रत्येकम् ' इतरद्' अनन्तमिति वा 15 द्विविधम् । एवमादिकं द्विविधं द्रव्यमसंस्तरणे ग्रहीतव्यम् । तदेवमुक्ता तावदाहारयतना । अथ पानकयतनामत ऊर्द्ध वक्ष्ये ॥ २९२१ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितुवरे फले अपत्ते, रुक्ख - सिला-तुप्प - मद्दणाईसु | पासंद पवाए, आयवतत्ते वहे अवहे ।। २९२२ ॥ तद्यथा- अध्वनि वर्त्तमानैः काञ्जिकादिप्राशुकपानकाप्राप्ता वीदृशानि पानकानि ग्रहीतव्यानि 120 — तुवरफलानि - हरितकी प्रभृतीनि तुवरपत्राणि - पलाशपत्रादीनि तैः परिणामितं पानकं प्रथमतो ग्राह्यम् । तथा "रुक्खे” त्ति वृक्षकोटरे कटुकफल- पत्रादिपरिणामितम्, एवंविधस्याभावे ‘“सिल” ति सिलाजतुभावितम्, तदभावे "तुप्प” त्ति मृतक - कडेवर -वशा-घृतादिभिः परिणामितम्, तदप्राप्तौ " मद्दणाई सु" ति हस्त्यादिमर्दनेनाक्रान्तम्, आदिशब्दो हस्त्यादीनामेवानेकभेदसूचकः, तदभावे प्रस्यन्दनं - निर्झरणं तत्पानकम्, ततः प्रपातोदकम्, प्रपातो 25 नाम-यत्र पर्वतात् पानीयं निपतति, यथा उज्जयन्तादिगिरौ, तदभावे आतपेन यत् तप्तं तत् प्रथमम् 'अवहं' अवहमानकं पश्चात् तदेव 'वह' वहमानकं ग्राह्यम् । गौथायां बन्धानुलोम्याद् वहपदस्य पूर्वं पाठ इति ॥ २९२२ ॥ अथ “मद्दणाईसु" त्ति पदं व्याचष्टे १ यतो जायन्तेऽतः संस्तरणस्य नन्दिरिति 'समयसंज्ञा' आगमपरिभाषा, यथा यथा संस्तरणं भवति तथा तथा विधेयमिति भावः ॥ २९२० ॥ अथ द्विविधं द्रव्यं व्याचष्टे - परि° भा० ॥ २ 'क्षपणादचित्ती' मो० ले० ॥ ३1 एतच्चिहगतः पाठः भा० कां • विना नास्ति ॥ ४-५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ६-७ √ एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ 10 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४३ जड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य । उपरिवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा ।। २९२३ ॥ 'जड्डः' हस्ती, खड्गो नाम-एकशृङ्ग आटव्यतिर्य विशेषः, 'गो-महिषौ' प्रसिद्धौ, 'गवयः' मयाकृतिराटव्यजीवविशेषः, 'सूकर-मृगौ' प्रसिद्धौ । एतैर्जड्डादिभिर्मर्दनेन परिणामितं पानक इयथाक्रममध्वनि ग्रहीतव्यम् । अथ 'उत्सरिपाट्या' यथोक्तक्रममुल्लङ्घय ग्रहणं करोति ततश्चत्वारो मासा लघुका भवेयुः ।। २९२३ ॥ सूत्रम् नऽन्नत्थ एगेणं पुव्वपडिलेहिएणं सेज्जा-संथारएणं ४३॥ "म कल्पते रात्री वा विकाले वा" (सूत्रं ४२) इति योऽयं प्रतिषेधः स एकस्मात् 10 पूर्वप्रत्युपेक्षितात् शय्या-संस्तारकादन्यत्र । इहान्यत्रशब्दः परिवर्जनार्थः, यथा अन्यत्र द्रोण-भीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराङ्मुखाः । द्रोण-भीष्मौ वर्जयित्वेत्यर्थः । ततश्चैकं शय्या-संस्तारकं विहायापरं किमपि रात्रौ ग्रहीतुं न कल्पत इति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः रातो सिज्जा-संथारग्गहणे, चउरो मासा हवंति उग्धाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ २९२४ ॥ शेरतेऽस्यामिति शय्या-वसतिः, सैव संस्तारकः शय्यासंस्तारकः; यद्वा शय्या-वसतिरेव, संस्तारको द्विधा-परिशाटी अपरिशाटी चेति, ततः शय्योपलक्षितः संस्तारकः शय्यासंस्तारकः, शय्या च संस्तारकश्चेत्यर्थः । - तस्य च यद्यपि सूत्रे रात्रौ ग्रहणमनुज्ञातं तथाप्युत्सर्गतो न कल्पते । यदि गृह्णाति ततश्चत्वारो मासा उद्घाताः प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च 20 दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया ॥ २९२४ ॥ तामेव भावयति __ छकायाण विराहण, पासवणुच्चारमेव संथारे ।। पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल गोणे य ॥ २९२५ ॥ रात्रावप्रत्युपेक्षितायां भूमावुच्चारं प्रश्रवणं वा व्युत्सृजतः 'षटकायानां' पृथिव्यादीनां विराधना । अथैतद्दोषभयान्न व्युत्सृजति तत आत्मविराधना । यत्र वा व्युत्सृजति तत्र बिलान्निर्गत्य दीर्घजातीयेन भक्ष्येत, एवमप्यात्मविराधना । “संथारे" त्ति अप्रत्युपेक्षितायां भूमौ संस्तारक प्रक्षिपतः ‘एवमेव' षट्कायविराधना, बिलादावात्मविराधनाऽपि । तथा 'स्थाणुः' कीलकस्तत्र प्रस्खलनं भवेत् , कण्टकैर्वा विध्येत, 'विषमे' निम्नोन्नते 'दरीषु' वा बिलेषु प्रस्खलेत् प्रपतेद्वा, 'व्यालाः' सस्तैिर्दश्येत, 'गौः' बलीवर्दस्तेनाभिघातो भवेत् ॥ २९२५ ॥ किञ्च एरंडइए साणे, गोम्मिय आरक्खि तेणगा दुबिहा । 30 एए हवंति दोसा, वेसित्थि-नपुंसएसुं वा ॥ २९२६ ॥ ११ एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्तते ।। २°म्, चतुर्लघव इत्यर्थः। आज्ञा कां० ॥ _Jain Education Internatio३ एवमुत्स जनऽप्यात्म भाorlvate & Personal use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९२३-२९) प्रथम उद्देशः । ८२९ “एरंडइए साणे" ति हडकयितः श्वा तेन खायेत । 'गौल्मिकैः' बद्धस्थानकै रक्षपालैः 'आरक्षकैर्वा' चौरग्राहैर्गुह्येत । स्तेनका द्विविधाः-शरीरस्तेना उपधिस्तेनाश्च, तैरुपधिरपह्रियेत साधवो वा हियेरन् । एते दोपा रात्रौ शय्या-संस्तारकग्रहणे भवन्ति । तथा 'वेश्यास्त्री-नपुंसकेषु वा' वेश्यापाटके नपुंसकपाटके वा स्थितानां रात्रौ परिवर्तयतां खाध्यायशब्दं श्रुत्वा लोकः प्रवचनावर्णवादं कुर्यात् - अहो ! साधवस्तपोवनमासेवन्ते । यत एते दोषा अतो न रात्रौ शय्या-संस्तारको ग्रहीतव्य इति ॥ २९२६ ।। आह यद्येवं ततः-- सुत्तं निरत्थगं कारणियं, इणमो अद्धाणनिग्गया साहू । मरुगाण कोढगम्मी, पुव्वद्दिट्टम्मि संज्झाए ॥ २९२७ ॥ सूत्रं निरर्थकं प्राप्नोति । सूरिराह-न भवति सूत्रं निरर्थकं किन्तु कारणिकम् । किं पुनस्तत् कारणम् ? इत्याह-'इदम्' अनन्तरमेवोच्यमानम्-अध्वनिर्गताः केचन साधवोऽस्त-10 मनवेलायां ग्रामं प्राप्ताः, तत्र तैर्मरुकाणां 'कोष्ठकः' अध्ययनापवरको दृष्टः परं तदीयः खामी तत्र सन्निहितो न विद्यते, ततस्ते साधवस्तं मरुककोष्ठकमुच्चार-प्रश्रवणभूमिकाश्च प्रत्युपेक्ष्य खामिनम्-अध्यापकं समागतं याचन्ते; याचयित्वा च तत्र कोष्ठके पूर्वदृष्टे सन्ध्यायां गृह्यमाणे सूत्रनिपातो द्रष्टव्यः ॥ २९२७ ॥ एवं सन्ध्यालक्षणां रात्रिमङ्गीकृत्योक्तम् , न केवलं सन्ध्यायां किन्तु विकालेऽपि शय्या-संस्तारकस्यामीभिः कारणैर्ग्रहणं कल्पते 18 दूरे व अन्नगामो, उबाया तेण सावय नदी वा । दुल्लभ वसहि ग्गामे, रुक्खाइठियाण समुदाणं ॥ २९२८॥ यतो ग्रामात् प्रस्थिताः ततो यत्र गन्तुमीप्सितं सोऽन्यग्रामो दूरे, अथवा 'उद्वाताः' परिश्रान्तास्ततो विश्राम्यन्तः समायाताः, स्तेन-श्वापदभयाद्वा सार्थमन्तरेणागन्तुं न शक्यते स च सार्थश्चिरेण लब्धः, नदी वा प्रव्यूढा; एतैः कारणैर्यस्मिन् ग्रामे प्रस्थितास्तमसम्प्राप्ता अपान्तराल-20 ग्रामे भिक्षावेलायां प्राप्ताः, तत्र च वसतिः दुर्लभा, अतो मार्गयद्भिरपि तत्क्षणं न लब्धा, ततो वृक्षादिमूले बहिः स्थित्वा सर्वेऽपि 'समुदानं' भैक्षं हिण्डितवन्तः ॥ २९२८ ॥ तैश्च हिण्डमानैरमूषां वसतीनामेकतरा दृष्टा भवति कम्मार-णंत-दारग-कलाय-सम भुजमाणि दिय दिट्ठा । तेसु गएसु विसंते, जहिँ दिट्ठा उभयभोमाई ॥२९२९ ॥ कर्मारा:-लोहकारास्तेषां शाला करिशाला, नन्तकानि-वस्त्राणि तानि यत्र व्यूयन्ते सा नन्तकशाला, दारकाः-बालकास्ते यत्र दिवसतः पठन्ति सा दारकशाला लेखशालेत्यर्थः, कलादाः-सुवर्णकारास्तेषां शाला कलादशाला, सभा-बहुजनोपवेशनस्थानम् । यद्वा सभाशब्दः शालापर्यायोऽतः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-कारसभा नन्तकसभा इत्यादि । एतासामेकतरा दिवा मुँज्यमाना दृष्टा, ततो व्यतीतायां सन्ध्यायां 'तेषु' लोहकारादिषु गतेषु ताननुज्ञाप्य तत्र 30 १ "एरंडइओ हडकथितमित्यर्थः” इति चूर्णौ । “अलकडओ एरेडइओ" इति विशेषचूर्णौ ॥ २ अतो दुर्लभवसतिके तत्र ग्रामे सा मार्ग° का० ॥ ३ 'भुज्यमाना' उपभोग्यतामानीयमाना दृष्टा का० ॥ 25 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [रात्रिभक्तपकृते सू० ४३ कारशालादौ प्रविशन्ति । तत्रापि यत्र दिवसत एव ( ग्रन्थानम्-८५०० । सर्वग्रन्थाप्रम्-२०७२०) 'उभयभूमिके' उच्चार-प्रश्रवणभूमिकालक्षणे आदिशब्दात् कालभूमिश्च यत्रं 'दृष्टाः' प्रत्युपेक्षिता भवन्ति तत्र रजन्यामपि गन्तुं कल्पते, अन च सूत्रनिपातः ॥ २९२९ ।। ___ एवमापवादिके सूत्रे भूयोऽप्यर्थतो द्वितीयपदमुच्यते-पूर्वमप्रत्युपेक्षिताखपि संस्तारकोचारप्रश्रवणभूमिषु तिष्ठन्ति । कथम् ? इत्याह मज्झे व देउलाई, बाहिं व ठियाण होइ अइगमणं । ‘सावय मकोडग तेण वाल मसयाऽयगर साणे ॥ २९३०॥ 'मध्ये वा' ग्रामादेमध्यभागे यद् देवकुलम् आदिग्रहणात् कोष्ठकशाला वा तत्र दिवसतो विधिना स्थिताः, अथवा प्रामादेः 'बहिः' देवकुलादौ सकलमपि दिवसं स्थिताः, ततो लोक1८स्तत्र स्थितान् दृष्ट्वा ब्रूयात्- "सावय” इत्यादि, अत्र देवकुलादौ रात्रौ श्वापदः-सिंह-व्या घ्रादिस्तद्भयं भवति अतो नात्र भवतां वस्तुं युज्यते; अथवा-मर्कोटका अत्र रात्रावुत्तिष्ठन्ते, स्तेना वा द्विविधा अत्र रजन्यामभिपतन्ति, व्यालो वा सर्पः स खादति, मशका वा निशायामत्राभिद्रवन्ति, अजगरो वाऽत्र रात्रौ गिलति, श्वानो वा समागत्य दशति; एतैर्व्याघातकारण रात्रावन्यस्यां वसतौ 'अतिगमनं प्रवेशो भवति ॥ २९३० ॥ इदमेव स्फुटतरमाह दिवसट्ठिया वि रसिं, दोसे मक्कोडगाइए नाउं । अंतो वयंति अन्न, वसहिं बहिया व अंतो उ॥ २९३१ ॥ देवकुलादौ दिवसतः स्थिता अपि रात्रौ मर्कोटकादीन् दोषान् ज्ञात्वा यदि 'अन्तः' प्रामाभ्यन्तरे स्थितास्ततो ग्रामान्तर्वर्तिनीमेवान्यां वसतिं व्रजन्ति, तदप्राप्तौ बाहिरिकायां गच्छन्ति । अथ दिवसतो बहिर्देवकुलादिषु स्थिताः ततस्तत्रापि रात्रौ पूर्वोक्तान् दोषान् मत्या 20 'बहिः' बाहिरिकाया अन्तः समागच्छन्ति ॥ २९३१ ॥ . अथोक्तमेवार्थमन्याचार्यपरिपाट्या प्रतिपादयति पुवट्ठिए व रति, दट्टण जणो भणाइ मा एत्थं । निवसह इत्थं सावय-तकरमाइ उ अहिलिंति ॥ २९३२ ॥ देवकुलादौ पूर्वस्थितान् साधून रात्रौ दृष्ट्वा जनो भणति, यथा-माऽत्र निवसत, यतोऽत्र 2 रात्रौ श्वापद-तस्करादयः 'अभिलीयन्ते' समागच्छन्ति ॥ २९३२ ॥ इत्थी नपुंसओ वा, खंधारो आगतो त्ति अइगमणं । गामाणुगामि एहि वि, होज विगालो इमेहिं तु ॥ २९३३ ॥ लोको ब्रूयात्-अत्र देवकुलादौ रात्रौ स्त्री वा नपुंसको वा समागत्योपसर्ग करोति, स्कन्धावारो वा आगतः, एवमादिभिः कारणैर्बाहिरिकायाः सकाशादन्तः 'अतिगमनं' प्रवेशं कुर्युः 30 ग्रामाभ्यन्तराद्वा बहिर्गच्छेयुः। एवं तावदध्वनिर्गतानां यतनोक्ता । अथ विहरतां प्रतिपाद्यते"गामाणुगामि" इत्यादि, ये मासकल्पविधिना ग्रामानुग्रामं विहरन्ति तेषामपि 'एभिः' वक्ष्य. १°ल्पते । एवंविधे पूर्वप्रत्युपेक्षिते शय्या-संस्तारके सन्ध्यासमये तिष्ठतां प्रस्तुतसूत्रनिपातो द्रष्टव्यः ॥ २९२९ ॥ कां० ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९३०-३७] प्रथम उद्देशः । माणैः कारणैर्विकालो भवेत् ॥ २९३३ ॥ तान्येवाह वितिगिड तेण सावय, फिडिय गिलाणे व दुब्बल नई वा । पडणीय सेह सत्थे, न उ पत्ता पढमविइयाई || २९३४ ॥ यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तस्माद् यमन्यं ग्रामं प्रस्थिताः सः 'व्यतिकृष्टः ' दूरदेशवर्ती, स्तेना वा द्विविधाः श्वापदा वा पथि वर्त्तन्ते तद्भयात् चिरलब्धसार्थेन सह आगताः, 'स्फिटिता वा' 5 सार्थात् परिभ्रष्टास्ततो यावन्मार्गमवतीर्णास्तावदुत्सूरं समजनि, यद्वा साधुः कोऽपि स्फिटितः स यावदन्वेषितस्तावच्चिरीभूतम्, ग्लानो वा साधुरधुनोत्थितः शनैः शनैः समागच्छति, दुर्बलो वा स्वभावेनैव कश्चित् सोऽपि न शीघ्रं गन्तुं शक्नोति, नदी वा पूर्णा यावदवरिच्यते तावत् प्रतीक्षमाणाः स्थिताः, यद्वा नदी यावत् परिरयगमनेन परिहियते तावद् विलम्बो लग्नः, प्रत्यनीकैर्वा पन्थाः समन्ततो रुद्धः ततो यावदपरेण मार्गेणागम्यते तावदुत्सूरं जातम्, शैक्षो वा कश्चिदु- 10 त्पन्नः स पथि प्रतीक्षितः, अथवा तस्य दिवा व्रजतः सागारिकं सार्थो वा शनैः शनैरागच्छति, यद्वा तं सार्थं प्रतीक्षमाणानां विकालः सञ्जातः । एतैः कारणैः प्रथमद्वितीयपौरुष्योः आदिग्रहणात् तृतीयचतुर्थ्योरपि पौरुष्योः 'न तु' नैव प्राप्ता भवेयुः, अर्थादापन्नं विकाले रात्रौ प्राप्ताः, ततश्च तदानीं प्राप्तैस्तैर्विधिना ग्रामे प्रवेष्टव्यं नाविधिना ॥ २९३४ ॥ यत आहअगमणे अविहीए, चउगुरुगा पुव्ववन्निया दोसा । आणाइणो विराहण, नायव्वा संजमाऽऽयाए ॥ २९३५ ॥ यद्यविधिना ‘अतिगमनं' प्रवेशं कुर्वन्ति ततञ्चत्वारो गुरुकाः 'पूर्ववर्णिताश्च' षट्कायविराधना- प्रेस्खलन-प्रपतनादयो दोषा अत्रावसातव्याः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया ज्ञातव्या, यत एवमतो विधिना प्रवेष्टव्यम् ॥ २९३५ ॥ कः पुनर्विधिः ? इति अत आह ८३१ 15 सव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाऍ चउगुरुगा । आणणो विराहण, पुत्रि पविसंति गीयत्था ।। २९३६ ।। ते साधवः यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः सर्व एव प्रविशन्ति । अथ मिश्रास्ततो यदि 'अयतनयां' र्वेक्ष्यमाणयतनामकृत्वा प्रविशन्ति तदा चतुर्गुरुकाः; आज्ञादयो दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया । का पुनर्यतना ? इति अत आह—- 'पूर्व' प्रथमं तावद् गीतार्थाः 25 प्रविशन्ति, पश्चादगीतार्थी इति सङ्ग्रहगाथासङ्क्षेपार्थः || २९३६ ॥ अथैनामेव विवृणोति - जइ सव्वे गीयत्था, सव्वे पविसंति ते वसहिमेव । २ १ स्ततो यमन्यं भा० ॥ एतच्चिद्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ३ 'वः सर्वे गीतार्था वा भवेयुः मिश्रा वा, तत्र यदि सर्वेऽपि कां० ॥ ४- एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ५ समासार्थः भा० की ० ॥ 20 विहि अविहीऍ पवेसो, मिस्से अविहीइ गुरुगा उ ॥ २९३७ ॥ यदि ते साधवः सर्वे गीतार्थास्ततः सर्वेऽपि ते समकमेव वसतिं प्रविशन्ति । अथागीतार्थ - मिश्रास्ते ततो द्विधा प्रवेशः - विधिना अविधिना च । यद्यविधिना प्रविशन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः । 30 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [रात्रिभक्तपकृते सू० ४३ अविधिर्नाम-यद्यगीतार्थमिश्राः सर्वेऽपि प्रविशन्ति ॥ २९३७ ॥ कः पुनस्तत्र दोषो भवति ? इति उच्यते विप्परिणामो अप्पच्चओ य दुक्खं च चोदणा होइ। पुरतो जयणाकरणे, अकरणे सव्वे वि खलु चत्ता ॥ २९३८ ॥ । यदि मृगाणां पुरतो ज्योतिरानयनादिकां वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्ति ततस्तेषां विपरिणामो भवेत्—न वर्तते अग्निकायसमारम्भः कर्तुमित्युपदिश्य सम्प्रति तमेव स्वयं समारभन्ते इति । अप्रत्ययोऽपि तेषामुपजायेत-यथैतदलीकं तथा सर्वमप्यमीषामेवंविधमिति; ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः । तथा तेषां मृगाणां पश्चादग्निकायसङ्घट्टादि कुर्वतामपरां वा सामाचारी वितथामाचरतां दुःखं नोदना भवति, 'तदा खयमन्येन वा अग्निकायसमारम्भं कृत्वा सम्प्रत्यस्मान् 1८ वारयत' इत्यादि सम्मुखवलनतः सम्यक् शिक्षा न प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः । अथैतद्दोषभयादेनां ज्योतिर्यतनां न कुर्वन्ति ततः 'सर्वेऽपि' आचार्यादयः परित्यक्ता भवन्ति, तेषां सर्प-श्वानादिभिरात्मविराधनासद्भावात् । तस्माद् विधिना प्रवेष्टव्यम् ॥ २९३८ ॥ तमेव विधिमाह बाहिं काऊण मिए, गीया पविसंति पुंछणे घेत्तुं । देउल सभ परिभुत्ते, मग्गंति सजोइए चेव ॥ २९३९ ॥ 15 मृगान् बहिः 'कृत्वा' स्थापयित्वा 'प्रोञ्छनानि' दारुदण्डकानि गृहीत्वा गीतार्थाः स प्रथमतो ग्राम प्रविशन्ति । प्रविश्य च देवकुल-सभादीनि 'परिभुक्तानि' परिभुज्यमानानि 'सज्योतींषि च' खयोगेनैव ज्योतिःसहितानि मार्गयन्ति । अथ पूर्वकृतं ज्योतिस्तत्र न प्राप्यते ततः खयमेव तदानयन्ति आनाययन्ति वा । एवमुच्चारादिभूमिकाः प्रत्युपेक्ष्य मृगानानयन्ति ॥ २९३९ ॥ परिभुजमाण असई, सुन्नागारे संति सारविए। 20 अहुणुयासिय सकवाड निबिले निच्चले चेव ॥ २९४०॥ परिभुज्यमाना वसतिर्यदि न लभ्यते तदा 'शून्यागारं' शून्यगृहं गवेषयन्ति । तच्च 'अधुनोद्वासितं' साम्प्रतमेवोद्वसीभूतं 'सकपाटं' कपाटयुक्तं निर्विलं' सर्पादिबिलरहितं 'निश्चलं' दृढं न पतितुकामम् । एवं विधं गवेषणीयम् । अत्र चतुर्भिः पदैः षोडश भङ्गा भवन्ति । एषां च मध्ये यः प्रथमो भङ्गस्तदुपेते शून्यगृहे 'सारविते' प्रमार्जिते वसन्ति ॥ २९४० ॥ 25. अत्र सर्वेषु गीतार्थेषु तावद विधिमाह जइ नाणयंति जोई, गिहिणो तो गंतु अप्पणा आणे । ___ कालोभयसंथाराण भूमिओ पेहए तेणं ॥ २९४१ ॥ यदि गृहिणः प्रेरिता अपि ज्योति नयन्ति तत आत्मनाऽपि गत्वा गीतार्था आनयन्ति । ततस्तेन ज्योतिषा कालोभयसंस्ताराणां भूमीः प्रत्युपेक्षेत, कालभूमी संज्ञाभूमी कायिकीभूमी 3८ संस्तारकभूमी चेत्यर्थः ॥ २९४१ ॥ _असई य पईवस्सा, गोवालाकंचु दारुदंडेणं । १ज्योतिरानयनादिकां यतनां कां० ॥२-३ N> एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ ४ अत्रापि सर्वेषां गीतार्थानां स एव विधिस्तथापि विनेयजनानुग्रहार्थ पुनरप्याह भा०॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । बिल पुंछणेण ढकण, मंतेण व जा पभायं तु ।। २९४२ ॥ अथ प्रदीपो न प्राप्यते ततः प्रदीपस्यासति गोपालकचुकं परिधाय तेन खशरीरं सुस्थगित कृत्वा दारुदण्डकेन वसतिं प्रमार्जयन्ति । यानि च तत्र विलानि तेषां पादप्रोञ्छनेन " ढक्कणं"ति स्थगनं कुर्वन्ति, मन्त्रेण वा तान्यभिमन्त्रयन्ति यावत् प्रभातं सञ्जातम् । प्रभाते तु पादप्रोछनादिकमपनयन्ति ॥ २२४२ ॥ Б • एवं सर्वेषां गीतार्थानां विधिरुक्तः । अथ गीतार्थमिश्राणां तमेवातिदिशति — एमेव य भूमितिए, हरियाई खाणु-कंट- बिलमाई । दोदुगवट्ठा, पेहिय इयरे पवेसंति ॥ २९४३ ॥ 1 • यथा सर्वेषां गीतार्थानां विधिरुक्तस्तथा अगीतार्थमिश्राणामप्येवमेव ज्ञातव्यः । नवरं तानगीतार्थान् बहिः स्थापयित्वा गीतार्थाः प्रविश्य वसतिं गृहीला तत्र - 'भूमित्रिके' संज्ञा - 10 कायिकी-कालभूमिलक्षणे हरित- बीजादीन् जन्तून् स्थाणु- कण्टक- बिलादींश्च प्रत्यपायान् ' दोषद्वयवर्जनार्थं' संयमा-ऽऽत्मविराधनालक्षणदोषद्वय परिहारार्थं प्रत्युपेक्ष्य ततः 'इतरान् मृगान् वसतिं प्रवेशयन्ति ।। २९४३ ॥ ठाणास य बाहिं, तेणगदोच्चा व सव्वें पविसंति । 15 गुरुगा उ अजयणाए, विष्परिणामाइ ते चैव ।। २९४४ ॥ यदि बहिः स्थानं नास्ति यत्र मृगाः स्थाप्यन्ते "तेणगदोच्चा व" ति स्तेनकभयं वा बहिततः सर्व एव प्रविशन्ति । प्रविष्टाश्च यद्ययतनां कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः, त एव च शेषाः ॥ २९४४ ॥ भाष्यगाथाः २९३८-४५ ] ति प्रश्नावकाशमाशङ्कय तत्स्वरूपमाह - - मा तत्थ अंधकारम्मि | " २९४५॥ ८३३, .." यथा ते 20 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४३ . आणेइ इहं जोई, अयगोलं मा निवारेह ॥ २९४६ ॥ यदा गृही दक्षतया खयमेव ज्योतिरानयति तं च कोऽप्यगीतार्थो वारयति तदा स वक्तव्यः-अस्माभिरभणितः स्वयोगेन यद्येष गृहस्थ आत्मनोऽर्थ 'नुः' इति संशये उताहो नु अस्मदर्थ 'इह' अस्मिन् स्थाने ज्योतिरानयति ततः किमस्माकमेतदीयया चिन्तया ? । अत 5 एनमयोगोलकल्पं मा निवारयतेति ॥ २९४६ ॥ गिहिणं भणंति पुरओ, अइतमसमिणं न पस्सिमो किंचि । आणति जइ अवुत्ता, तहेव जयणा निवारंते ॥ २९४७ ॥ अथ ते गृहस्थाः स्वयं नानयन्ति ततो गीतार्था अन्यव्यपदेशेन तेषां गृहिणां पुरतो भणन्ति–'अतितमः' अतीवान्धकारमिदम् , न पश्यामो वयं किञ्चिदपीति । यद्येवम् 'अनुक्ताः' 10साक्षादभणिताः सन्तो ज्योतिरानयन्ति ततः सुन्दरमेव । यश्च तत्र निवारयति तस्य 'यतना' तथैव नोदना कार्या ॥ २९४७ ॥ अथ ते गृहस्था अन्यव्यपदेशेनोक्तं नावबुध्यन्ते ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह गंतूण य पन्नवणा, आणण तह चेव पुधभणियं तु । भणण अदायण असई, पच्छायण मल्लगाईसु ॥ २९४८॥ 15 गीतार्थैर्गत्वा चशब्दादगत्वाऽपि तत्र स्थितैर्गृहिणां प्रज्ञापना विधेया, यथा-न पश्यामो वयमत्र बिलादिकं स्थाणु-कण्टकादिकं वा, अत उद्योतो यथा भवति तथा कुरुत । एवं परिस्फुटमभिहिताः सन्तस्ते प्रदीपस्यानयनं कुर्वन्ति । यश्चागीतार्थो निवारयति तस्य 'तथैव' नोदनायाम् "अयगोलं मा निवारेह" (गा० २९४६) इत्यादिकं पूर्वभणितमेव द्रष्टव्यम् । "भणण" ति गृहिषु 'प्रदीपमानय' इति प्रज्ञाप्यमानेषु यो ब्रवीति 'किमेवं सावधप्रवृत्तिं कार20 यसि ?' इति तस्याग्रे मिथ्यादुष्कृतभणनं कर्त्तव्यम् । “असई" ति अथ गृहस्थः प्रदीपमानेतुं नेच्छति ततः "अदायण पच्छायण मल्लगाईसु" त्ति मृगाणामदर्शनाय मल्लकादिभिः प्रच्छाय प्रदीपः खयमानेतन्यः ॥ २९४८ ॥ अथेदमेवोत्तराद्ध विवरीषुराह गिहि जोइं मग्गंतो, मिगपुरओ भणइ चोइओ इणमो। णाभोगेण मउत्तं, मिच्छाकारं भणामि अहं ॥ २९४९ ॥ 25 गृहिणां समीपे 'ज्योतिः' प्रदीपं 'मृगपुरतः' मृगाणां शृण्वतां मार्गयेन् यदि केनचिन्नोदितः-किमेवं सावधं कारयसि ? इति; ततोऽसौ गीतार्थ इत्थं भणति-अनाभोगेन मयेदमुक्तम् , अतोऽहं मिथ्याकारं भणामि, मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छामीत्यर्थः ॥ २९४९ ॥ एमेव जइ परोक्खं, जाणंति मिगा जहेइणा भणिओ। तत्थ वि चोइजंतो, सहसाऽणाभोगओ भणइ ॥ २९५० ॥ 30 एवमेव यदि मृगाणां परोक्षं गृहे गत्वा गृहस्थो भणितः तदाऽपि यदि ते मृगाः कथमपि __जानन्ति, यथा-एतेन साधुना गृहस्थः 'भणितः' प्रदीपानयनाय प्रेरितः; तत्राप्यपरेण नोद्यमानः सन् भणति—सहसाकारेणानाभोगतो वा मयेदमुक्तम् , मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ २९५० ॥ १°तितामसम्' अतीव सान्ध भा० ॥ २°यन् अगीतार्थेन केन भा० ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९४६-५५] प्रथम उद्देशः। ८३५ गिहिगम्मि अणिच्छंते, सयमेवाणेइ आवरित्ताणं । जत्थ दुगाई दीवा, तत्तो मा पच्छकम्मं तु ॥ २९५१॥ अथ गृही प्रदीपमानेतुं नेच्छति ततः स्वयमेव मल्लकसम्पुटेन वा कपरेण वा कल्पेन वा प्रदीपमावृत्यानयति । तत्रापि यत्र गृहे 'द्विकादयः' द्वित्रिप्रभृतयः दीपाः ततो गृहादानयति । कुतः? इत्याह-"मा पच्छकम्मं तु" त्ति यत्रैक एव दीपो भवति तत्रापरप्रदीपकरणलक्षणं । पश्चात्कर्म मा भूदिति कृत्वा ततः प्रदीपो नानेतव्यः ॥ २९५१ ॥ ततश्च उजोविय आयरिओ, किमिदं अहगं मि जीवियट्ठीओ। आयरिए पनवणा, नट्ठो य मओ य पबइओ ॥ २९५२ ॥ उद्योतिते प्रतिश्रये सति आचार्यो भणति हन्त ! किमिदं भवता कृतम् ? । स प्राहक्षमाश्रमणाः ! अहमद्यापि जीवितार्थी अतो बिलादिपरिज्ञानार्थ मयेत्थं कृतम् । तत आचार्यों 10 मातृस्थानेन तस्य प्रज्ञापनां करोति–हन्त ! मृत एव त्वम् , कुतो भवतो जीवितम् ? यत एवं कुर्वन् प्रव्रजितः 'नष्टश्च' सन्मार्गपरिभ्रष्टो 'मृतश्च' संयमजीवितविरहितो भवतीति ॥२९५२॥ . . अथ पूर्वोक्तमेवार्थ विशेषयन्नाह-- तस्सेव य मग्गेणं, वारणलक्खेण निंति वसभा उ। भूमितियम्मि उ दिद्वे, पञ्चप्पिय मो इमा मेरा ॥ २९५३॥ 15 'तस्यैव' ज्योतिरानेतुः साधोः 'मार्गेण' पृष्ठतः 'वारणालक्ष्येण' निवारणव्याजेन वृषभा निर्गच्छन्ति । ततः 'भूमित्रिके' उच्चार-प्रश्रवण-कालभूमिलक्षणे दृष्टे सति प्रदीपे प्रत्यर्पिते "मो". इति निपातः पादपूरणे इयं 'मर्यादा' सामाचारी ॥ २९५३ ॥ तामेवाह-- खरंटण वेंटिय भायण, गहिए निक्खिवण बाहि पडिलेहा । वसभेहि गहियचित्ता, इयरें पसाइंति कल्लाणं ॥ २९५४ ॥ 20 . येन प्रदीपानयनायाविरतकः प्रेरितो येन वा प्रदीप आनीतः तस्य गुरुभिः खरण्टना कर्तव्या। ततोऽसौ वेण्टिकां भाजनानि च गृहीत्वा "निक्खिवण" ति बहिः स्थाप्यते, निर्गच्छास्माकं गच्छाद् न त्वया कार्यमिति । ततोऽसौ कैतवनिष्काशितो बहिःस्थितैः प्रतिलेखयति प्रतिक्रमणं च विदधाति । ततो वृषभैर्गृहीतचित्ताः 'इतरे' मृगा गुरुं 'प्रसादयन्ति' प्रसन्नं कुर्वन्ति । ततो गुरवस्तं भूयोऽप्यानाय्य पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति ॥ २९५४ ॥ अथ कथं वृषभा मृगाणां चित्तग्रहणं कुर्वन्ति ? इत्याह तुम्ह य अम्ह य अट्ठा, एसमकासी न केवलं सभया । खामेमु गुरुं पविसउ, बहुसुंदरकारओ अम्हं ॥ २९५५ ॥ आर्याः ! युष्माकमस्माकं च सर्पादिप्रत्यपायरक्षणार्थमेष एवमकार्षीत् , न केवलं खभयादेव, अत आगच्छत येन सर्वेऽपि 'गुरु' क्षमाश्रमणं क्षमयामः, प्रविशतु 'बहुसुन्दरकारकः' प्रत्यपाय-20 रक्षकतया बहुकल्याणकरोऽस्माकं भूयः प्रतिश्रयम् । एवमुक्ता मृगा वृषभैः सह समागत्य गुरु १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥२ND एतन्मध्यगतमवतरणं कां. एव वर्तते ॥ ३°तः प्रत्युपेक्षते प्रतिक्रमणं भा० ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ने वि विद्दवेहिइ, अलमजो ! अहव तुब्भ मरिसेमि । सिं पि होइ बलियं, अकजमेयं न य तुदंति ॥ २९५६ ॥ एष एवं कुर्वन्नन्यानपि साधून् 'विद्रावयिष्यति' विनाशयिष्यति अत आर्याः ! 'अलं' पर्याप्तमस्माकमेतेन । साधवो ब्रुवते - क्षमाश्रमणाः ! न भूय एवं करिष्यति, एकवारमपराधं क्षमयन्तु भगवन्तः । गुरवो भणन्ति - यद्येवं ततोऽहं युष्माकं मर्षयामि, परमेतस्य पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं प्रदीयते । एवमुक्ते 'तेषामपि' अगीतार्थानां 'बलिकम्' अत्यर्थं हृदये भवति, यथा— नूनमकार्यमेतदिति । न च पश्चाद् ज्योतिःस्पर्शनादौ नोद्यमानास्तुदन्ति, प्रतिनोदनया न 10 व्यथामुत्पादयन्तीत्यर्थः ॥ २९५६ ॥ एसो विही उ अंतो, बाहि निरुद्धे इमो विही होइ । 5 ८३६ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४३ प्रसादयन्ति ततो गुरवः क्षाम्यमाणा ब्रुवते - आर्याः ! यूयमपि निर्द्धर्माणः सञ्जाताः ? ॥ २९५५॥ ---- यतः -- सावय तेणय पडिणीय देवयाए विही ठाणं ।। २९५७ ।। एष विधिः 'अन्तः ' ग्रामाभ्यन्तरे प्रविष्टानामुक्तः । अथ बहिस्तिष्ठतां विधिरुच्यते- तंत्राध्वप्रतिपन्नास्ते साधवो विकाले तं ग्रामं प्राप्ताः परं द्वाराणि तत्र स्थगितानि, ततो 13 ‘निरुद्धे' स्थगितद्वारे ग्रामादौ विकाले वा तत्रापूर्वः प्रवेशं न लभते इत्यादिकारणसम्भवे बहिःस्थितानां यदि श्वापदभयं स्तेनकभयं प्रत्यनीकभयं वा भवति तदा वक्ष्यमाणो विधिः कर्त्तव्यो भवति, यावद् देवताया आकम्पनार्थं विधिना 'स्थानं' कायोत्सर्गलक्षणं क्षपकेण कर्त्तव्यमिति. ॥ २९५७ ॥ यतनामेवाह भूमिघर देउले वा, सहियावरणे व रहियआवरणे । रहिए विजा अंचित मीस सचित्त गुरु आणा ।। २९५८ ।। हस्तिष्ठतां यदि श्वापदादिभयं तदा भूमिगृहे देवकुले वा आवरणं - कपाटं तेन सहिते तिष्ठन्ति । गाथायां प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः । अथ सकपाटं न प्राप्यते तत आवरणरहितेऽपि तिष्ठन्ति 1 तंत्र विद्यया द्वारं स्थगयन्ति, दिशां वा विद्याप्रयोगेण बन्ध विदधति यथा श्वापदादयो न प्रविशन्ति । विद्याया अभावे अचित्तकण्टिकाभिः, तदप्राप्तौ 25 मिश्रकण्टिकाभिः, तदलाभे सचित्तकण्टिकाभिरपि स्थगयन्ति । तदभावे "गुरु आण" चिगुरवो रूपयन्ति, यथा - आचार्यादीनां मारणान्तिके उपसर्गे उपस्थिते सति यः तन्निवारणे पराक्रमणीयमिति' निर्युक्तिगाथासमासार्थः 1 - 20 ● ल कवाडं । -५९ ॥ यत Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९५६-६४ ] प्रथम उद्देशः । ८३७ आनयन्ति । अथ नास्ति कपाटं ततो विद्यया द्वारं स्थगयन्ति । तदभावे कण्टिकाभिः प्रथममचित्ताभिः ततो मिश्राभिः ततः सचित्ताभिरपि स्थगयन्ति ।। २९५९ ॥ एएस असईए, पागार वई व रुक्ख नीसाए । परिखेव विज अच्चित्त मीस सच्चित्त गुरु आणा ।। २९६० ।। 'एतेषां ' भूमिगृहादीनामसति प्राकारं वा वृतिं वा वृक्षं वा 'निश्राय' निश्रां कृत्वा तिष्ठन्ति । ॐ तत्रापि विद्यया परिक्षेपं कुर्वन्ति । तदभावे कण्टिकाभिर्यथाक्रममचित्त - मिश्र - सचिताभिः परिक्षिपन्ति । गुरवश्चाज्ञाप्ररूपणां वक्ष्यमाणां कुर्वन्ति ॥ २९६० ॥ गिरि - नइ तलागमाई, एमेवागम ठएंति विजाई । एग दुगे तिदिसिं वा, ठएंति असईऍ सव्वत्तो ।। २९६१ ।। गिरिं वा नदीं वा तडागं वा आदिग्रहणाद् गर्त्तादिकं वा निश्रां कृत्वा तिष्ठन्ति । तेषां च 10 यंत्रक एव प्रवेशस्तत्र प्रथमतस्तिष्ठन्ति तदभावे यत्र द्वयोर्दिशोः प्रवेशः, तदप्राप्तौ यत्र तिसृषु दिक्षु प्रवेशस्तत्रापि तिष्ठन्ति । तेषां च 'आगमं' प्रवेशमुखम् 'एवमेव' विद्यादिभिः स्थगयन्ति । “ असईय सबत्तो" त्तिं प्राकारादिनिश्राया एकप्रवेशादीनां वा गिरिप्रभृतीनामप्राप्तावाकाशे वसन्तः सर्वतो विद्याप्रयोगेण स्थगयन्ति दिशां वा बन्धं कुर्वन्ति । विद्याया अभावे कण्टिकाभिः सर्वतोवृतिं कुर्वन्ति । तदभावे गुरव आज्ञाप्ररूपणां कुर्वन्ति ।। २९६१ ॥ केन विधिना ? इति चेद् उच्यते नाउमगीयं बलिणं, अविजाणंता व तेसि बलसारं । घोरे भयम्म थेरा, भणति अविगीयथेत्थं ।। २९६२ ॥ ज्ञात्वा कमप्यगीतार्थं 'बलिनं' समर्थम्, यद्वा अविजानन्तः 'तेषां' स्वसाधूनां 'बलसारं ' पराक्रममाहात्म्यम्, कस्य कीदृशः पराक्रमो विद्यते इत्येवमजानन्त इत्यर्थः, 'घोरे' रौद्रे श्वापदा - 20 दिभये 'स्थविरा:' आचार्याः 'अविगीतस्थैर्यार्थम्' अगीतार्थस्थिरीकरणार्थं भणन्ति ।। २९६२ ॥ कथम् ? इत्याह आयरिe गच्छमि य, कुल गण संघे य चेइय विणासे । आलोय पडिकतो, सुद्धो जं निजरा विउला ।। २९६३ ॥ षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदाद् आचार्यस्य वा गच्छस्य वा कुलस्य वा गणस्य वा सङ्घस्य वा 23 चैत्यस्य वा विनाशे उपस्थिते सति सहस्रयोधिप्रभृतिना खवीर्यमहापयता तथा पराक्रमणीयं यथा तेषामाचार्यादीनां विनाशो नोपजायते । स च तथा पराक्रममाणो यद्यपराधमापन्नस्तथाप्यालोचितप्रतिक्रान्तः शुद्धः, गुरुसमक्षमालोच्य मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेणैवासौ शुद्ध इति भावः । 'कुतः ? इत्याह – 'यद्' यस्मात् कारणाद् 'विपुला' महती 'निर्जरा' कर्मक्षयलक्षणा तस्य भवति, पुष्टालम्बनमवलम्ब्य भगवदाज्ञया प्रवर्त्तमानत्वादिति ॥ २९६३ ॥ सोऊण य पनवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं । सीहाई चैव तिगं, तवबलिए देवयट्ठाणं ।। २९६४ ॥ १ एतद ग्रन्थानम् - ५००० इवि त० डे० मो० ले० ॥ 15 50 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [रात्रिभक्तप्रकृते सू० ४३ एवंविधां प्रज्ञापनां श्रुत्वा यः कृतकरणः-सहस्रयोधिप्रभृतिकस्तस्य गदाया आदिशब्दाद लगुडस्य वा ग्रहणं भवति । गृहीत्वा च गदादिकमसौ गुरून् ब्रवीति-भगवन् ! शेरतां विश्वस्ताः सर्वेऽपि साधवः, अहं सिंहादीनां निवारणां करिष्यामि । ततः सुप्ताः साधवः । स पुनरेकाकी गदाहस्तः प्रतिजाग्रदवतिष्ठते । तस्य च प्रतिजाग्रतः सिंहत्रिकं समागच्छेत् , आदिशब्दाद् 5.व्याघ्रादिपरिग्रहः । तत्र च वृद्धसम्प्रदाय:.. सो साहू गयाहत्थो पडियरमाणो चिट्ठइ । नवरं सीहो आगतो । तेण ईसि त्ति आहतो नाइदूरं गंतुं मओ। अन्नो सीहो आगओ। सो चिंतेइ-सो चेव पुणो आगओ । तओ गाढतरं आहओ । सो नस्संतो पढमस्स आरओ मओ । अन्नो वि सीहो आगओ। सो चिंतेइतइयं पि वारं सो चेव पुणो आगओ। ताहे बिइयाओ बलिययरं आहओ । नस्संतो बीयस्स 10 आरओ मओ। तओ वोलिया खेमेण रयणि ति ॥ ईदृशस्य कृतकरणस्याभावे यः 'तपोबलिकः' विकृष्टतपसा बलीयान् क्षपकः स देवताया आकम्पननिमितं 'स्थान' कायोत्सर्ग करोति । एतदग्रतो भावयिष्यते ॥ २९६४ ॥ अथ तेन कृतकरणसाधुना प्राभातिकप्रतिक्रमणवेलायां यथा गुरुसमक्षमालोचितं तथा प्रतिपादयति हंत म्मि पुरा सीह, खुडुयाइ इयाणि मंदथामो मि । तिन्नाऽऽवाए सीहो, रत्ति पहओ मया न मओ॥ २९६५ ॥ क्षमाश्रमणाः ! 'पुरा' पूर्वमहं प्रबलशरीरतया खुडुक्कामात्रेणैव सिंहं हन्ताऽस्मि, इदानीं तु मन्दस्थामाऽस्मि ततः "तिन्नाऽऽवाए" त्ति विभक्तिव्यत्ययात् 'त्रिष्वापातेषु' आगमनेषु गदाघातेन सिंहो रात्रौ मया प्रहतः परं 'न मृतः' नापद्राणः । एवमालोच्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तवान् । एतावतैव चासौ शुद्धः, अदुष्टपरिणामत्वात् ॥ २९६५ ॥ नितेहिं तिनि सीहा, आसन्ने नाइदूर दूरे य । निग्गयजीहा दिवा, स चावि पुट्ठो इमं भणइ ॥ २९६६ ॥ प्रभाते निर्गत्य पन्थानं गच्छद्भिः ते त्रयः सिंहा निर्गतजिह्वा दृष्टाः । तत्रैक आसन्ने, द्वितीयो नातिदूरे, तृतीयस्तु दूरे । स च आचार्यैः पृष्टः-आर्य ! किमेवं सिंहत्रयं विपन्नमवलोक्यते । ततः स इदं भणति ॥ २९६६ ॥ मा मरिहिइ ति गाद, न आहओ तेण पढमओ दरे। गाढतर विइय तइओ, न य मे नायं जहऽनन्नो ॥ २९६७ ॥ भगवन् ! यदा प्रथमः सिंह आयातस्तदा मया ‘मा मरिष्यति' इति कृत्वा गाढं नाहतस्तेनासौ दूरे गत्वा विपन्नः । द्वितीयस्तु ‘स एवायं भूयोऽप्यायातः' इति बुद्ध्या गाढतरमाहतः तेनासौ नासन्ने नातिदूरे । तृतीयस्तु द्वितीयादपि गाढतरमाहतस्तेनासौ प्रत्यासन्न एवं भूभागे गत्वा 30 मृतः । न च मया ज्ञातम् , यथा-अयमन्यान्यः सिंहः समागतो न स एवेति ॥ २९६७ ॥ ईदृशस्य कृतकरणस्याभावे देवतायाः कायोत्सर्गः कर्तव्यः, स च केन कियन्तं वा कालं यावत् ! इति अत्रोच्यते१°मायातम्, आदि भा० ॥ 20 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । खमओ व देवयाए, उस्सग्ग करेइ जाव आउट्टा | रक्खामि जा पभायं, सुर्वंतु जइणो सुवीसत्था ।। २९६८ ॥ क्षपको वा देवताया आकम्पननिमित्तं कायोत्सर्गं करोति यावदसौ ' आवृत्ता' आराधिता सती ब्रूते - भगवन् ! पारय कायोत्सर्गम्, यावत् प्रभातं तावदहं श्वापदाद्युपसर्ग रक्षामि, खपन्तु यतयः सुविश्वस्ता इति ॥ २९६८ ॥ रात्रिवस्त्रादिग्रह ण प्रकृतम् भाष्यगाथाः २९६५-७१ ] यत्र प्रकृतम् सूत्रम् नो कप्पड़ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा रातो वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिगाहित्तए ४४ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह जह सेाणाहारो, वत्थादेमेव मा अइपसंगा | दिदिवत्थगहणं, कुजा उ निसिं अतो सुतं । २९६९ ॥ यथा शय्या– वसतिः अनाहार इति कृत्वा रात्रौ कल्पिष्यते इत्यतिप्रसङ्गाद् दिवादृष्टस्य वस्त्रस्य 'निशि' मारभ्यत इति ॥ २९६९॥ -- ८३९ S अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा प्रतिग्रहीतुमिति सूत्राक्षरगमनिका ॥ अथ भाष्यविस्तरः 5 ग्रहीतुं कल्पते, एवमेव वस्त्रादिकमपि 15 रात्रौ ग्रहणं मा कुर्यादित्यत इदं सूत्र - १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ २ विश्यम्मि विह विवित्ता भा० ता० । एतदनुसारेणैव भा० टीका। दृश्यतां पत्र ८४० टिप्पणी १ ॥ 10 20 रातो बत्थग्गणे, चउरो मासा हवंति उघाया । आणणो य दोसा, आवजण संकणा जाव ।। २९७० ॥ रात्रौ वस्त्रग्रहणे चत्वारो मासा उद्धाताः प्रायश्चित्तं आज्ञादयश्च दोषाः । तथा यथा रात्रौ भक्तग्रहणे मिथ्यात्व-षट्कायविराधनादयो दोषा उक्ताः यावत् पञ्चखपि प्राणातिपातादिष्वापत्तिस्तद्विषया च शङ्का एतत् सर्वमपि दोषजालं रात्रौ वस्त्रग्रहणेऽपि तथैव वक्तव्यम् ॥ २९७० ॥ 25 -1 यतश्चैवमतो न ग्रहीतव्यं रात्रौ वस्त्रम्, कारणे तु गृह्णीयादपीति दर्शयति-बिइयं विहे विवित्ता, पडिसत्थाई समिच्च रयणीए । तेय पर च्चिय सत्था, चलिहिंतुभए व इको वा ॥ २९७१ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे वस्त्रप्रकृते सू० ४ ४ द्वितीयपंदमत्रोच्यते-'विहे' अध्धनि 'विविक्ताः' मुषिताः सन्तः प्रतिसार्थादिकं समेत्य' प्राप्य रजन्यामपि वस्त्र-प्रतिग्रहादिकं गृह्णन्ति । तत्रापि कथम् ? इत्याह-तावुभावपि सार्थो 'प्रगे' प्रातरेवानुद्गते सूर्ये चलिष्यतः, ‘एको वा' अन्यतरः सार्थप्रतिसार्थयोर्मध्ये चलिष्यतीति मत्वा रात्रावपि ग्रहणं कुर्वन्ति । अत एव चोत्सर्गपदेऽध्वा गन्तुमेव न कल्पते यत्रैते दोषा उत्पद्यन्ते 5॥ २९७१ ॥ तथा चाह उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाणपवजणं तु दप्पेण । लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवजई जत्थ ॥ २९७२ ॥ ईयं रात्रिभक्तसूत्रे » व्याख्यातार्था (गा० २८७८ ) ॥२९७२ ॥ द्वितीयपदमाह नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं । 10 उवगरण पुत्रपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ २९७३ ॥ इयमपि गतार्थी (गा० २८७९) ॥ २९७३ ॥ सत्थे विविच्चमाणे, असंजए संजए तदुभए य । मग्गंते जयण दाणं, छिन्नं पि हु कप्पई घेत्तुं ॥ २९७४ ॥ ज्ञानाद्यर्थमध्वानं प्रतिपन्नानामपान्तराले चतुर्विधाः स्तेना भवेयुः-एके असंयतप्रान्ताः १ 18 अन्ये संयतप्रान्ताः २ अपरे तदुभयप्रान्ताः ३ अन्ये तदुभयभद्रकाः ४ । तत्रासंयतप्रान्तैः स्तेनैः सार्थे 'विविच्यमाने' मुष्यमाणेऽत एव साधूनां पार्थाद् वस्त्राणि मार्गयति यतनया दानं कर्तव्यम् । प्रत्यर्यमाणं च च्छिन्नमपि तदेव वस्त्रं ग्रहीतुं कल्पते नान्यदिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ २९७४ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह संजयभद्दा गिहिभद्दगा य पंतोभए उभयभद्दा । 20 तेणा होति चउद्धा, विगिचणा दोसु तू जइणं ॥ २९७५ ॥ ___ एके स्तेनाः संयतभद्रकाः परं गृहस्थप्रान्ताः, अपरे गृहस्थभद्रकाः परं संयतप्रान्ताः, अन्ये उभयेषामपि प्रान्ताः, अपरे उभयेषामपि भद्रकाः, एवं स्तेनाश्चतुर्विधा भवन्ति । अत्र च द्वितीयतृतीययोर्द्वयोर्भङ्गयोर्यतीनां 'विवेचनं' वस्त्रेभ्यः पृथक्करणं भवति ॥ २९७५ ॥ अथ यत्र संयता न विविक्ताः स गृहस्थास्तु विविक्ताः । तत्र विधिमाह-- जइ देंतऽजाइया जाइया व न वि देति लहुग गुरुगा य । सागार दाण गमणं, गहणं तस्से नऽन्नस्स ।। २९७६ ॥ साधवो यद्ययाचिताः सन्तो वस्त्राणि गृहिणां प्रयच्छन्ति तदा चतुर्लघु । अथ याचिताः सन्तो न प्रयच्छन्ति तदा चत्वारो गुरवः । अतः 'साकार' प्रातिहारिकं भणित्वा प्रयच्छन्ति, यथा-भवद्भिः प्रत्यर्पणीयमिदमस्माकं यद्यग्विर्तमाना गृहं वा गता अन्यद् वस्त्रं लभध्वे । १°पदे विहे' भा०॥ २॥ एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ ३ काः ४। यत्र च गृहस्था विविक्तास्तत्र तेषां वस्त्राणि मार्गयतां यतनया भा० ॥ ४°ति नियुक्तिगाथा कां०॥ ५एके गृह त• डे• मो० ले० ॥ ६। एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ ७°व वत्थस्स भा० को० विना ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९७२-७९] प्रथम उद्देशः । ८४१ 'गमनं नाम' येषां गृहस्थानां तद् वस्त्रं प्रदत्तं ते यद्यन्येन पथा गच्छन्ति ततः साधुभिरपि तेनैव पथा गन्तव्यम् ; यद्यन्येन व्रजन्ति ततश्चतुर्लघु । यदा तेऽध्वनो निर्गता भवन्ति तदा छिन्नस्यापि तस्यैव वस्त्रस्य ग्रहणं कर्त्तव्यं नान्यस्य ॥ २९७६ ॥ ततः पुनर्वस्त्रं कीदृशं दातव्यम् ? इत्याह--- दंडपडिहारवजं, चोल-पडल-पत्तबंधवजं च । परिजुण्णाणं दाणं, उड्डाह-पओसपरिहरणा ॥ २९७७॥ महती जीर्णकम्बलिका दण्डपरिहार उच्यते, तद्वर्जम् , चोलपट्ट-पडलक-पात्रबन्धवर्ज च यानि शेषाणि परिजीर्णवस्त्राणि तेषामुड्डाह-प्रद्वेषपरिहरणार्थ दानं कर्त्तव्यम् । उड्डाहो नामअहो ! अमीषामनुकम्पा ये विविक्तानामप्यस्माकं चीवराणि न प्रयच्छन्ति, प्रद्वेषो नाम-अप्रीतिकम् ; तद्वशाच प्रान्तापनादयो दोषास्तत्परिहरणार्थं दातव्यम् ॥ २९७७ ॥ अथ “छिन्नं पि" त्ति ( गा० २९७४ ) योऽयमपिशब्दस्तत्सूचितमिदमपरमाह धोयस्स व रत्तस्स व, अन्नस्स वऽगिण्हणम्मि चउलहुगा। तं चेव घेत्तु धोउं, परिभुंजे जुण्णमुज्झेजा ॥ २९७८ ॥ यदि तैर्गृहस्थैस्तद् वस्त्रं धौतं वा रक्तं वा तथापि तस्यैव ग्रहणं कर्त्तव्यम् । अथासाधुप्रायोग्यं कृतमिति मत्वा न गृह्णन्ति अन्यस्य वा ग्रहणं कुर्वन्ति तदा चतुर्लघवः । अतस्तदेव 15 वस्त्रं गृहीत्वा क्षारादिना धौवा च साधुप्रायोग्यं कृत्वा परिभुञ्जते। अथातीव जीर्ण ततः 'उज्झेयुः' परिष्ठापयेयुरित्यर्थः ॥ २९७८ ॥ . गतः प्रथमो भङ्गः । अथ 'गृहस्थभद्रकाः संयतप्रान्ताः' इति द्वितीयो भङ्गो भाव्यते तत्र भूयश्चतुर्भङ्गी-संयत्यो विविक्ता न संयताः १ संयता विविक्ता न संयत्यः २ संयत्योऽपि विविक्ताः संयता अपि विविक्ताः ३ न संयत्यो नापि संयता विविक्ताः ४ । अत्र विधिम-20 भिधित्सुराह सट्ठाणे अणुकंपा, संजय पडिहारिए निसिटे य । असईअ तदुभए वा, जयणा पडिसत्थमाईसु ॥ २९७९ ॥ यंत्र संयता गृहिणश्च विविक्ता न संयत्यः तत्र संयतीनां खस्थानं साधवः तत्रानुकम्पा कर्तव्या, साधूनां वस्त्रं दातव्यमित्यर्थः, साधुभिरपि तत् प्रातिहारिकं ग्राह्यम् । यत्र संयत्यों गृहस्थाश्च मुषिता न संयताः तत्र साधूनां संयत्यः खस्थानं तासां वस्त्रदानेनानुकम्पा कर्तव्या, तच्च 'निसृष्टं' निदे दातव्यं न प्रातिहारिकम् । “असईय" ति अथात्मनोऽप्यधिकमुपकरणं नास्ति ततः प्रातिहारिकमपि तासां दातव्यम् । तथा तदुभयं-साधुसाध्वीवर्गः तस्य विविक्तस्य वस्त्राभावे प्रतिसार्थादिषु 'यतना' वस्त्रान्वेषणविषया कर्त्तव्येति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः॥२९७९॥ अथैनामेव विवृणोति न विवित्ता जत्थ मुणी, समणी य गिही य जत्थ उद्दढा। १ तदेव ग्रहीतव्यम् । अथा भा० ॥ २ साधु-साध्वीजनैः स्तेनविविक्तैः सद्भिः स्वस्था नेऽनुकम्पा कर्तव्या। तत्र यत्र संयता का० ॥ ३ नियुक्तिगाथा कां.॥ 30 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे वस्त्रपकृते सू० ४४ सट्ठाणऽणुकंप तहिं, समणुनियरासु वि तहेव ॥ २९८० ॥ यत्र मुनयो न विविक्ताः श्रमण्यश्च गृहिणश्च यत्र "उढ' त्ति मुषिताः तत्र 'स्वस्थाने' संयतीवर्गेऽनुकम्पा कर्त्तव्या । ताश्च संयत्यो द्विविधाः-संविना असंविनाश्च । यदि सन्ति ततः सर्वासामपि दातव्यानि । अथ न सन्ति तावन्ति वस्त्राणि ततः संविमसंयतीनां देयानि । ता 5 अपि द्विविधाः-समनोज्ञाः-साम्भोगिन्य इतराश्च-असाम्भोगिन्यः । यदि पूर्यन्ते ततो द्वयोरपि वर्गयोस्तथैव दातव्यानि । अथ न पूर्यन्ते ततः स्वस्थाने दातव्यानि, समनोज्ञानामित्यर्थः। १ अपिशब्दाद् या धृतिदुर्बलास्ताः संविमा असंविमा वा स्थविरास्तरुण्यो वा भवन्तु नियमात् तासां दातव्यम् ॥ २९८० ॥ यत्र साधवो विविक्तास्तत्रेयं यतना10 लिंगट्ट भिक्ख सीए, गिण्हती पाडिहारियमिमेसु । अमणुन्नियरगिहीसुं, जं लद्धं तन्निभं दिति ॥ २९८१ ॥ लिङ्गार्थ तावदवश्यं रजोहरण-मुखवस्त्रिके ग्रहीतव्ये, भिक्षार्थ तु पात्रबन्ध-पटलकादि, शीतत्राणार्थं तु प्रावरणादि, एतत् सर्वमपि प्रातिहारिकमेतेषु गृह्णन्ति । तद्यथा-अमनोज्ञाः असाम्भोगिकाः इतरे-पार्श्वस्थादयः गृहिणः-प्रतीताः, १ एतेषु यदि प्राप्यते ततः सुन्दरमेव, » 18 अर्थतेषु न प्राप्यते ततः संयतीनामपि हस्तात् प्रातिहारिकं ग्राह्यम् । ततो र अँध्वोत्तीर्णैः ।यत् चोलपट्टादिकं यदा लब्धं भवति तदा 'तन्निभं' तत्सदृशं प्रातिहारिकम् । असाम्भोगिकादीनां » 'ददति' प्रत्यर्पयन्ति । इह द्वितीयभङ्गे व्याख्यायमाने प्रथम-तृतीय-चतुर्थभङ्गा अपि लेशतः स्पृष्टा अवगन्तव्याः ॥२९८१॥ गतो द्वितीयभङ्गः । अथ तृतीयभङ्गं व्याख्यानयति उडूढे व तदुभए, सपक्ख परपक्ख तदुभयं होइ । अहवा वि समण समणी, समणुनियरेसु एमेव ॥ २९८२ ॥ तदुभये वा 'उद्दढे' मुषिते सत्येवमेव यतना ज्ञातव्या । अथ तदुभयमिति किमुच्यते ? इत्याहा बँपक्षः परपक्षश्चेति तदुभयं भवति, » स्वपक्षः-संयताः परपक्षः-गृहस्थाः । अथवा तदुभयं नाम श्रमणाः श्रमण्यश्च । यद्वा तदुभयं समनोज्ञाः 'इतरे' अमनोज्ञाश्च । • अंपिशब्दाद् व्यवहितसम्बन्धादत्र योजिताद् ! यदि वा संविना असंविनाश्चेति तदुभयम 25॥ २९८२ ॥ तत्र मुषिते सति विधिमाह अमणुन्नेतर गिहि-संजईसु असइ पडिसत्थ-पल्लीसु । तिण्हऽट्ठाए गहणं, परिहारिय एतरे चेव ॥ २९८३ ॥ १°धा:-"समणुन्न" त्ति समनोज्ञया-परस्परसदृशया सामाचार्या वर्तन्त इति समनोहा:-कां० ॥२ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३-४-५ एतदन्तर्गतः पाठः का. एव वर्तते ॥ ६ एतदन्तर्गतः पाठः त. डे० मो० ले० नास्ति ॥ ७ एतदन्तर्गतः पाठः कां• एव वर्तते ॥ ८°म् । एतेष्वपि मुषितेषु 'एवमेव' अनन्तरोक्तो विधिद्रष्टव्यः ॥ २९८२॥ यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति-अमणुन्ने का० ॥ ९ समणुन्ने भा० विशेषचूर्णौ च । दृश्यतां पत्र ८४३ टिप्पणी १।त. डे. का. मो.ले. प्रतिषु चूर्णी वृहद्भाष्ये च अमणुन्ने° इति वत्तेते ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९८०-८७ ] प्रथम उद्देशः । ८४३ अमनोज्ञाः-असाम्भोगिकोः इतरे-पार्थस्थादयः, गृहिणः संयत्यश्च प्रतीताः, एतेषु विविक्ततया वस्त्राभावे प्रतिसार्थे वा पल्यां वा पञ्चकपरिहाण्या वस्त्रं मार्गयितव्यम् । संयतीनां तु नास्ति पञ्चकपरिहाणिः, यदैव लभ्यते तदैव गृहीत्वा गात्राच्छादनं ताभिः कर्त्तव्यम् । तच्च वस्त्रं 'त्रयाणां' लिङ्ग-भिक्षा-शीतत्राणानामर्थाय प्रातिहारिकं वा 'इतरद् वा' निसृष्टं ग्राह्यम् ॥२९८३॥ एवं तु दिया गहणं, अहवा रत्तिं मिलेज पडिसत्थो। गीएसु रत्ति गहणं, मीसेसु इमा तहिं जयणा ॥ २९८४ ॥ एवं दिवा ग्रहणमभिहितम् । अथ रात्री प्रतिसार्थों मिलेत् तत्र च यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततो रात्रावेव गृह्णन्ति । अथागीतार्थमिश्रास्ततस्तेषु मिश्रेष्वियं यतना ॥ २९८४ ॥ तामेवाह वत्थेण व पाएण व, निमंतएऽणुग्गए व अत्थमिए । आइच्चो उदिउ ति य, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ २९८५ ॥ 10 प्रतिसाथै कश्चिद् दानश्राद्धादिरनुद्गते वाऽस्तमिते वा सूर्ये वस्त्रेण वा पात्रेण वा निमन्त्रयेत् , तत्र च यदि सार्थो रात्रावेव चलितुकामस्तदा गीतार्था गुरून् भणन्ति-यूयं व्रजत, वयमुदिते आदित्ये गृहीत्वा समागमिष्यामः । ततो रजन्यामेव गृहीत्वा सार्थस्य पृष्ठतो नातिदूरासन्ने समागच्छन्ति । स्थिते च सार्थे गुरूणामालोचयन्ति-उदिते सूर्ये वस्त्रग्रहणं कृत्वा समायाताः। एवं गीतार्थाः संविमा गृह्णन्ति ॥ २९८५ ॥ 15 अथ प्रतिसार्थे पल्यां वा न लभ्येत न वा प्रतिसार्थादिकं दृश्येत ततः किम् ? इत्याह खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्थपिहणं तु । ___अद्धाणविवित्ताणं, आगाढं सेसऽणागाई ॥ २९८६ ॥ चर्मखण्डानि संयतीनां विविक्तानां परिधानाय दातव्यानि । तदभावे शाकादिपत्राणि । तदप्राप्तौ दर्भश्चीवरं घनं ग्रथित्वा समर्पयन्ति । सर्वथा परिधानाभावे हस्तेनापि गुह्यदेशस्य 20 पिधानं ताभिः कर्त्तव्यम् । एवमध्वनि विविक्तानामागाढं कारणं मन्तव्यम् । शेषं तु सर्वमप्युपकरणाभावेऽनागाढम् ॥ २९८६ ॥ असईय निग्गया खुड्डगाइ पेसंति चउसु वग्गेसु। अप्पाहिंति वगारं, साहुं व वियारमाइगयं ॥ २९८७ ॥ प्रतिसार्थपल्ल्यादौ वस्त्राणाम् 'असति' अप्राप्तौ अध्वनो निर्गता उद्यानं प्राप्ताः सन्तः 'क्षुल्लकादि' 25 क्षुल्लकं क्षुल्लिकां वा विवक्षितं ग्राम नगरं वा चत्वारः-संयत-संयती-श्रावक-श्राविकालक्षणा ये वर्गास्तेषु-तेषां समीपे प्रेषयन्ति; यद्वा साम्भोगिकाः संयता एको वर्गः, अन्यसाम्भोगिका इति द्वितीयः, साम्भोगिकाः संयत्य इति तृतीयः, अन्यसाम्भोगिका इति चतुर्थः, एतेषां वा समीपे १ समनोज्ञाः-साम्भो भा० । “समणुन्ना असमणुन्ना वि अविवित्ता णत्थि, संजईओ वि णत्थि, ताहे पडिसत्थपल्लीसु मग्गियध्वं ।" इति विशेपचूर्णी ॥ २°काः तेषु तथा इतरेषु-पार्श्वस्थादिषु गृहिषु संयतीषु वा तदुभयविवि का ॥ ३ सतो मा सार्थात् स्फिटामेति हेतो रजन्या' कां० ॥ ४ कार्यम् । एव मो० ले.॥ ५ "आदिग्गहणेणं थेरं थेरि वा पेसवेंति" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वस्त्रप्रकृते सू० ४४ प्रेषयन्ति । अथ नास्ति क्षुल्लकः क्षुल्लिका वा ततो यस्ततो ग्रामाद नगराद्वा 'अगारः' गृहस्थः समायातः यो वा साधुर्विचारभूम्यादावागतस्तं "अप्पाहिति" सन्दिशन्ति, यथा-साधु-साध्वीप्रभृतीनां साम्भोगिकसंयतादीनां वा भवता कथयितव्यम्-साधवः साध्व्यश्च बहिरग्रोद्याने स्थिताः सन्ति, ते चाध्वनि स्तेनैर्विविक्ताः, अतस्तेषां योग्यानि चीवराणि प्रेषणीयानि । अत्र 5 चायं विधिः-संयतैः संयतानां वस्त्राणि दातव्यानि, संयतीनां तु संयतीभिः । अथ तत्र संयताः संयत्यो वा न सन्ति तदा श्रावकाः श्राविका वा प्रयच्छन्ति ।। २९८७ ॥ यत्र तु संयत्यः संयतानां संयता वा संयतीनां प्रयच्छन्ति तत्र विधिमाह खुड्डी थेराणऽप्पे, आलोगितरी ठवित्तु पविसंति । ते वि य घेत्तुमइगया, समणुन्नजढे जयंतेवं ॥ २९८८ ॥ 10 क्षुल्लिका उद्यानं गत्वा स्थविरसाधूनां वस्त्राण्यर्पयन्ति; अथ न सन्ति क्षुल्लिकाः ततः 'इतराः' मध्यमास्तरुण्यो वा गत्वा स्थविराणामालोके स्थापयित्वा भूयोऽपि ग्रामं प्रविशन्ति । यत्र संयतैः संयतीनां दातव्यं तत्र क्षुल्लकाः स्थविरसाध्वीनामर्पयन्ति; क्षुल्लकाभावे शेषा अपि साधवः स्थविराया आलोके स्थापयन्ति । 'तेऽपि च' संयताः संयतीदत्तानि वस्त्राणि गृहीत्वा प्रावृत्य नगरम् 'अतिगताः' प्रविष्टाः सन्त आत्मयोग्यमुपकरणमुत्पाद्य संयतीसत्कवस्त्राणि प्रत्यर्पयन्ति । 15 एवं समनोज्ञेषु विधिरुक्तः । “समणुन्नजढे जयंतेवं" ति यत्र समनोज्ञाः-साम्भोगिका न भवन्ति तत्र ‘एवं' वक्ष्यमाणनीत्या यतन्ते ॥ २९८८ ॥ अद्धाणनिग्गयाई, संविग्गा सन्नि दुविह अस्सण्णी । संजइ एसणमाई, असंविग्गा दोण्णि वी वग्गा ॥ २९८९ ॥ अध्वनो निर्गता यत्र ग्रामादौ प्राप्तास्तत्रेमे भवेयुः-'संविनाः' उद्यतविहारिणः, ते चेहा20 न्यसाम्भोगिका गृह्यन्ते । 'संज्ञिनः' श्रावकास्ते द्विविधाः-संविमभाविता असं विग्नभाविताश्च । असंज्ञिनोऽपि द्विविधाः-आभिग्रहिका-ऽनाभिग्रहिकमिथ्यादृष्टिभेदात् । “संजइ" ति अमनोज्ञसंयत्यः । असंविमा अपि द्वौ वर्गों, तद्यथा-साधुवर्गः साध्वीवर्गश्च । अत्र विधिरुच्यते"एसणमाइ" ति संज्ञिप्रभृतिषु शुद्धं वस्त्रमप्राप्नुवन्तः पञ्चकपरिहाणिक्रमेणैषणादोषेषु यतन्त इति ॥ २९८९ ॥ अथैतदेव सविस्तरं व्याख्यानयति25. संविग्गेतरभाविय, सन्नी मिच्छा उ गाहणागाढे । असंविग्ग मिगाहरणं, अभिग्गहमिच्छेसु विस हीला ॥ २९९० ॥ संज्ञिनो द्विविधाः-संविमभाविता इतरभाविताश्च । मिथ्यादृष्टयोऽपि द्विविधाः--आगाढा अनागाढाश्च । तत्र प्रथमं संविग्नभावितेषु संज्ञिषु, तदेप्राप्तावनागाढमिथ्यादृष्टिषु शुद्धं वस्त्रमन्वेषणीयम् । असंविमभावितेष्वागाढमिथ्यादृष्टिषु च न गृह्णन्ति, कुतः ? इत्याह -असंविग्न30 भाविताः ‘मृगाहरणं' लुब्धकदृष्टान्तं (गा० १६०७) चेतसि प्रणिधाय साधुनामकल्प्यं १ यतनामेवाह इत्यवतरणं कां• ॥ २ अध्वनिर्गताः आदिशब्दाद् वसिमे वर्तमाना उपधेरभावे वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्ति । तत्र ते साधवोऽध्वनो निर्गता का ० ॥ ३ °न्ते, साम्भो. गिकेषु विधेरुक्तत्वात् । 'संक्षिनः' कां• ॥४ अथैनामेव नियुक्तिगाथां सवि कां० ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २९८८-९३] प्रथम उद्देशः । ८४५ प्रयच्छन्ति । ये त्वाभिग्रहिकमिथ्यादृष्टयस्ते साधुदर्शनप्रद्वेषतो विषं प्रयुञ्जीरन् हीला वा कुर्यु:अहो ! अदत्तदाना अमी वराका इत्थं क्लिश्यन्तीत्यादि ॥ २९९० ॥ अथानागाढमिथ्यादृष्टिषु शुद्धं न प्राप्यते ततः किं विधेयम् ? इत्याह असंविग्गभाविएसुं, आगाटेसुं जयंति पणगादी । उवएसो संघाडग, पुबग्गहियं व अन्नेसु ॥ २९९१ ॥ असंविमभावितेषु यद् उद्गमादिदोषविशुद्धं वस्त्रं तद् ग्रहीतव्यम् । तदभावे आगाढमिथ्यादृष्टिप्वपि यद्यात्म-प्रवचनोपघातो न स्यात् । अथ तेप्वपि शुद्धं न प्राप्यते ततः संविग्नभावितादिष्वेव पञ्चकादिपरिहाण्या तावद् यतन्ते यावद् भिन्नमासं प्राप्ता भवन्ति । ततो अन्यसाम्भोगिकैर्येषु कुलेषुपदेशो दत्तः तेषु याचितव्यम् । तथाप्यप्राप्तौ तेषां सङ्घाटकेन । एवमप्यलाभे तेषामेव यत् पूर्वगृहीतं वस्त्रादि तद् ग्रहीतव्यम् ॥ २९९१ ॥ अमुमेवार्थ सविशेषज्ञापनाय पुनरप्याह उवएसो संघाडग, तेसिं अट्टाए पुव्वगहियं तु । अभिनव पुराण सुद्धं, उत्तर मूले सयं वा वि ॥ २९९२ ॥ अन्यसाम्भोगिकोपदेशेन प्रथमतः पर्यटन्ति । ततस्तदीयसङ्घाटकेन । तथाप्यप्राप्तौ तेषामयान्यसाम्भोगिकाः पर्यटन्ति । तथापि यदि न लभ्यते ततस्तेषामेव यत् पूर्वगृहीतं वस्त्रं तद् 15 ग्रहीतव्यम् । तच्चाभिनवं वा स्यात् पुराणं वा, पूर्वमभिनवं पश्चात् पुराणमपि गृह्यते । तदपि यद्युत्तरगुण-मूलगुणशुद्धं तत उपादेयं नान्यथा । अथ सर्वथाऽपि न प्राप्यते ततो यः कृतकरणो भवति तेन खयमेव व्यूतव्यम् । एतच्च यथावसरमुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २९९२ ॥ तदेवमन्यसाम्भोगिकानामपि पूर्वगृहीतं यदा न प्राप्यते तदा मासलघुकादारभ्य तावद् यतन्ते यावत् चतुर्लघुकं प्राप्ताः । ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह उवएसो संघाडग, पुव्वग्गहियं व निइयमाईणं । अभिनव पुराण सुद्धं, पुव्यमभुत्तं ततो भुत्तं ॥ २९९३ ॥ चतुर्लघुप्राप्ताः सन्तो नित्यवासि-पार्श्वस्थादीनामुपदेशेन वस्त्रमुत्पादयन्ति । तदभावे तेषामेव सङ्घाटकेन । तथाऽप्यलाभे यत् तेषां पूर्वगृहीतं मूलोत्तरगुणशुद्धमभिनवमपरिभुक्तं तत् प्रथमतो ग्रहीतव्यम् , ततः परिभुक्तमपि । तदप्राप्तौ पुराणमपि मूलोत्तरगुणशुद्धमपरिभुक्तम् , ततः परि-25 भुक्तमपि ग्राह्यम् । इह निशीथचूर्ण्यभिप्रायेणास्यैव कल्पस्य विशेषचूर्ण्यभिप्रायेण चान्यसाम्भोगिकान् यावन्नास्ति पञ्चकपरिहाणिः किन्तु तत ऊर्द्ध पञ्चकपरिहाण्या यतित्वा यदा मासलघुप्राप्ताः तदा पार्श्वस्थादीनामुपदेशादिना गृह्णन्तीति द्वयोरपि चूर्योरभिप्रायः; परमेतञ्चूर्णिकृता भिन्नमासप्राप्ता अन्यसाम्भोगिकानां चतुर्लघुप्राप्ताश्च पार्श्वस्थादीनामुपदेशादिना वस्त्र. ग्रहणे यतन्त इति प्रतिपादितम् ; अतस्तदनुरोधेनास्माभिरपि तथैव व्याख्यातमित्यवगन्तव्यम् ३० ॥ २९९३ ॥ अथोक्तमप्यर्थं विशेषज्ञापनार्थं भूयोऽप्याह१ °म्भोगिकैरुपदिष्टेषु कुलेषु मार्गयितव्यम् । भा० ॥ २ °वार्थ विधिशेष त० डे० ॥ ३ पदेशो येषु कुलेषु जातस्तेषु प्रथ' का० ॥ 20 • Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ८४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [वस्त्रप्रकृते सू० ४४ उत्तर मूले सुद्धे, नवे पुराणे चउक्कभयणेवं । परिकम्मण परिभोगे, न होंति दोसा अभिनवम्मि ॥२९९४ ॥ स ईंह मूलोत्तरगुणशुद्धयोश्चतुर्भङ्गी, तद्यथा-- मूलगुणशुद्धमप्युत्तरगुणशुद्धमपि १ मूलगुणशुद्धं नोत्तरगुणशुद्धम् २ न मूलगुणशुद्धमुत्तरगुणशुद्धम् ३ न मूलगुणशुद्धं नोत्तरगुण5 शुद्धम् ४ । एतेषु चतुर्यु भङ्गेषु प्रत्येकं नव-पुराणपदविषयं यद् भङ्गचतुष्कं तस्य भजना-सेवा यथाक्रममेवं कर्तव्या। तथाहि-यत् तावद् मूलोत्तरगुणविशुद्धं तत् प्रथमतो नवमपरिभुक्तं ग्रहीतव्यम् , तदभावे नवं परिभुक्तम् । तदप्राप्तौ पुराणमपरिभुक्तम् , तदलाभे पुराणं परिभुक्तम् । एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वपि भङ्गेषु चत्वारश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति, यथाक्रम चैते आसेवितव्याः । कुतः ? इत्याह-परिकर्मणादोषाः-अविधिसीवनादयः परिभोगदोषाश्च10 मलिनीभूत-प्रक्षित सुगन्धिगन्धभावित्वादयोऽभिनवेऽपरिभुक्ते च वस्त्रे न भवन्ति । अथ पार्श्वस्थादिष्वपि न प्राप्यते ततोऽमनोज्ञसंयतीनामप्युपदेशेन गृह्णाति, तेषां वा अर्थाय ताः पर्यटन्ति, पूर्वगृहीतं वा तासां ग्रहीतव्यम् । तदभावेऽसंविग्नसंयतीनामप्युपदेशादिना गृह्णन्ति ॥ २९९४ ॥ अथैवमपि न प्राप्यते ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह असईय लिंगकरणं, पन्नवणट्ठा सयं व गहणट्ठा । आगाढ़े कारणम्मी, जहेव हंसाइणो गहणं ॥ २९९५ ॥ एवमपि 'असति' अलभ्यमाने शाक्यादिवेषेण तदीयोपासकानां यतिभ्यो वस्त्रदापनाय प्रज्ञापनार्थ स्वयं वा ग्रहणं-वस्त्रस्योत्पादनं तदर्थं परलिङ्गं कर्त्तव्यम् । किं बहुना ? ईदृशे आगाढे कारणे यथैव हंसतैलादेरनुज्ञापितस्यापि ग्रहणं दृष्टं तथैव वस्त्रस्यापि द्रष्टव्यम् । तथाप्यलाभे सूत्रं मार्गयित्वाऽन्यैर्वाययति । तदभावे खयमेवाल्पसागारिके वयति ॥ २९९५ ॥ 20 अथ सूत्रं न लभ्यते ततः को विधिः ? इत्याह सेडुय रूए पिंजिय, पेलु ग्गहणे य लहुग दप्पेणं । तव-कालेहि विसिट्ठा, कारणे अकमेण ते चेव ॥ २९९६ ॥ . 'सेडगो नाम' कर्पासः, स एव लोढितः सन् वीजरहितो रूतम् , तदेव रूतं पिञ्जनिकया ताडितं पिञ्जितम् , तदेव पूणिकया वलितं पेलुरिति भण्यते । एतेषां यदि दर्पण ग्रहणं करोति 2 तदा चत्वारो लघुकास्तपः-कालाभ्यां विशिष्टाः । तत्र सेडुके उभयगुरुकाः, रूते तपोगुरुकाः, पिञ्जिते कालगुरुकाः, पेलुके द्वाभ्यां लघुकाः । कारणे पुनः प्रथमं पेलुकं पश्चात् पिञ्जितं ततो रूतं ततः सेडुकमपि गृह्णाति । अथाक्रमेण गृह्णाति ततस्त एव चत्वारो लघुकाः । सेडुकं च त्रिवर्षातीतं विध्वस्तयोनिकमेव ग्रहीतुं कल्पते न सचित्तम् ॥ २९९६ ॥ ... ततश्च सेडुकादीनि गृहीत्वा किं करोति ? इत्याह-~ 30 कडजोगि एकओवा, असईए नालबद्धसहिओ वा । निप्फाए उवगरणं, उभओपक्खस्स पाओग्गं ॥ २९९७ ॥ ११- एतच्चिह्नगतः पाठः का• एव वर्तते ॥ २°लादीनामनुज्ञापितानामपि ग्रह भा० ॥ ३ » एतच्चिदगतमवतरणं कां० एव वर्तते ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९९४-३०००] प्रथम उद्देशः । ८४७ कृतयोगी नाम-यो गृहवासे कर्त्तनं वयनं वा कृतवान् । स गच्छस्य वस्त्राभावे एकको वा नालबद्धसंयतीसहितो वा विजने भूभागे कर्त्तनं वयनं च कृत्वा 'उभयपक्षस्य' संयत-संयतीलक्षणस्य प्रायोग्यमुपकरणं व निष्पादयति । ततः संयताः संयत्यश्च यथायोगमुपकरणं । परिभुञ्जते ॥ २९९७ ॥ ततः किम् ? इत्याह अगीयत्थेसु विगिचे, जहलाभं सुलभउबहिखेत्तेसु । पच्छित्तं च वहंति, अलंमें तं चेव धारेति ॥ २९९८ ॥ यद्यगीतार्थमिश्रास्ततः सुलभोपधिक्षेत्रेषु गताः सन्तः 'यथालाभं' यद् यद् वस्त्रं लभन्ते तत्तत्सदृशमपरं व्यूतवस्त्रं 'विविचन्ति' परिष्ठापयन्तीत्यर्थः, अगीतार्थप्रत्ययनिमित्तं च यथालघु प्रायश्चितं वहन्ति । अथापरं न लभ्यते ततः 'तदेव' स्वयंव्यूतं वस्त्रं धारयन्ति । अथ सर्वेऽपि गीतार्थास्ततोऽपरस्य लाभे प्राक्तनं परित्यजन्ति वा न वा, न कोऽपि नियमः ॥२९९८॥ 10 __ अथ "अद्धाणनिग्गयाई" (गा० २९८९) इत्यत्र योऽयमादिशब्दस्तस्य फलमुपदर्शयन्नाह एमेव य वसिमम्मि वि, झामिय ओम हिय बूढ परिजुन्ने । पुव्वुट्ठिए व सत्थे, समइच्छंता व ते वा वि ॥ २९९९ ॥ न केवलमध्वनि विविक्तानामेष विधिः, किन्तु ग्रामादौ वसिमेऽपि वसतां यत्रोपधिर-15 मिकायेन 'ध्यामितः' दग्धः, अवमौदर्ये वा विक्रीतः, चौरैर्वा हृतः, वर्षासु वा पानीयपूरेण व्यूढः, 'परिजीर्णो वा' पुराणतया दुर्बलीभूतो विवक्षितं कार्यं कर्तुमसमर्थः, तत्रापि 'एवमेव' आमन्तरोक्तो विधिर्मन्तव्यः । अत्र चापरो विशेष उपदर्यते-यत्र ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति तत्र सार्थः कश्चित् प्राप्तः, स चादित्योदयात् पूर्वमेवोत्थितः-उच्चलितुमारब्धो वर्त्तते, यत्र च गेतस्य तस्य रविरुदेष्यति तत्र गच्छतामपान्तराले स्तेनभयम् , “समइच्छंता व ते वा वि" 20 त्ति 'ते वा' साधवो दग्ध हताद्युपधयः समतिकामन्तः-गच्छन्तः तं साथ रात्रौ प्राप्ताः, अतो रात्रावेव तत्र वस्त्रादिकं यतनया गृहन्ति ॥ २९९९ ॥ अथेदमेवोत्तरार्द्ध व्याचष्टे सो वि य नत्तं पत्तो, नत्तं चिय चलिउमिच्छइ भयं च। . ते वा नत्तं पत्ता, गिण्हिज पए चलिउकामा ॥३००० ॥ 'सोऽपि च' सार्थः 'नक्तं' रात्रौ तत्र ग्रामे प्राप्तः, नक्तमेव च ततश्चलितुमिच्छति, अपा-25 न्तराले च स्तेनादिभयम् ; 'ते वा' साधवो दवायुपधयः तं सार्थ 'नक्तं' रात्रौ प्राप्ताः, 'प्रगे' प्रभातेऽनुद्गत एव सूर्येऽग्रतश्चलितुकामाः, अतो रात्रावेव यथोक्तनीत्या वस्त्रादि गृहीयुः ॥३०००॥ ॥ रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ एतच्चिह्नगतः पाठः कां. भा० एव वर्तते ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ हरियाहडियाप्र० सू० ४५ हरिया हडिया प्रकृतम् सूत्रम् - नऽन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए । साविय परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्टा वा मट्ठा वा संपधूमिया वा ४५ ॥ अस्य सम्बन्धमाह --- सुत्तेणेव य जोगो, हरियाहडि कप्पए निसिं घेतुं । हरिऊण य आहडिया, छूढा हरिए वाऽऽहड्ड ।। ३००१ ॥ 'सूत्रेणैव' सूत्रस्य 'योगः' सम्बन्धोऽत्रास्ति । अनन्तरसूत्रे रात्रौ वस्त्रादिकं ग्रहीतुं न कल्पते 10 इत्युक्तम् । अत्र तु या हृताहृतिका सा 'निशि' रात्रौ ग्रहीतुं कल्पते इति प्रतिपाद्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - "न कल्पते रात्रौ वस्त्रं ग्रहीतुम्" इति प्रतिषेधः अन्यत्रैकस्या हृताहृतिकाया हरिताहृतिकाया वा । तत्र पूर्वं हृतं पश्चादाहृतम् - आनीतं वस्त्रं हृताहतम्, तदेव हताहतिका, खार्थे कप्रत्ययः, "अतिवर्त्तन्ते खार्थिकप्रत्ययाः प्रकृति-लिङ्ग-वचनानि" इति वचनाद् अत्र रूढितः स्त्रीलिङ्गनिर्देशः । एवं हरितेषु - वनस्पतिष्वाहृतं हरिताहृतं वस्त्रम्, 15 तदेव हरिताहृतिका । 'साऽपि च ' हृताहृतिका 'परिभुक्ता' परिधानादौ व्यापारिता, 'धौता' अप्कायेन प्रक्षालिता, 'रक्ता' विचित्रवर्णकैरुपरञ्जिता, 'घृष्टा' घट्टकादिना घट्टिता, 'मृष्टा' सुकुमारीकृता, 'सम्प्रधूमिता' धूपद्रव्येण समन्ततः प्रकर्षेण धूपिता । वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः । एवंविधाऽपि सा खीकर्त्तव्या, न पुनरसाधुप्रायोग्या कृतेति कृत्वा परिहर्त्तव्येति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यम् –“हरिऊण य" इत्यादि पश्चार्द्धम् । स्तेनैः पूर्वं हत्वा पश्चाद् यद् वस्त्रमा20 हृतम् - आनीतं तदेव हृताहृति केत्युच्यते । यद्वा हृत्वा हरितेषु प्रक्षिप्ता या सा हरिताहतिका ॥ ३००१ ॥ सा पुनः कथं भवति ? इत्याह- अद्धाणमणद्धाणे, व विवित्ताणं तु होज आहडिया | अविहे वसंति खेमे, विहं न गच्छे सइ गुणेसु ।। ३००२ ॥ अध्वनि अनध्वनि वा 'विविक्तानां' मुषितानां हृताहृतिका सम्भवति । तत्र 'अविहे' अन25 ध्वनि मासकल्पेन विहरन्तः 'क्षेमे' निरुपद्रवे ग्रामादौ वसन्ति । अतः 'सत्सु ' विद्यमानेषु ज्ञानादिगुणेषु 'विहम्' अध्वानं 'न गच्छेत्' नानुप्रविशेत् ॥ ३००२ ॥ तथा चाह १- ३ एतचिह्नमध्यवर्ती सूत्रांशः सवृत्तिकः भा० प्रतौ नात्र वर्त्तते, किन्तु "पुढवी आउक्काए० " इति ३०२८ गाथावृत्त्यनन्तरं सूत्रम् इत्यवतीर्य पृथक्सूत्रत्वेन सवृत्तिको वर्त्तते । दृश्यतां पत्र ८५४ टिप्पणी १। चूर्णो विशेषचूर्णो वृहद्भाष्ये तु अत्रैव समग्रं सूत्रं व्याख्यातं वर्त्तते ॥ २न्धः क्रियते । अन भा० ॥ ४ अत्रैव प्रायश्चित्तं द्वितीयपदं च दर्शयन्नाह इत्यवतरणं कां० ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४९ भाष्यगाथाः ३००१-८] प्रथम उद्देशः । उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाणपवजणं तु दप्पेणं । लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ ॥ ३००३ ॥ नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्यं । उवगरण पुवपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ ३००४॥ गाथाद्वयमपि प्राग् (गा० २८७८-७९) व्याख्यातम् ॥ ३००३ ॥ ३००४॥ 5 तत्राध्वनि प्रविशतां विधिमाह अद्धाण पविसमाणा, गुरुं पवादिति ते गता पुरतो । अह तत्थ न वादेंती, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ३००५ ॥ अध्वानं प्रविशन्तः प्रथममेव 'गुरुम्' आचार्य प्रवादयन्ति, गुरोः प्रवादमुत्थापयन्तीत्यर्थः । यथा-'ते' अस्माकमाचार्याः 'पुरतः' पूर्वमेवान्येन सार्थेन सह गताः अत एव वयं त्वरामहे, 10 कथं नाम तेषां समीपं क्षिप्रमेव प्राप्नुयाम ? । अथ तत्राध्वनि प्रविशन्त एवं न प्रवादयन्ति ततश्चतुर्मासा गुरुकाः प्रायश्चितम् ॥ ३००५ ॥ गुरुसारक्खणहेउं, तम्हा थेरो उ गणधरो होइ । विहरइ य गणाहिवई, अद्धाणे भिक्खुभावेणं ॥ ३००६ ॥ तस्माद् गुरूणां संरक्षणहेतोर्यः 'स्थविरः' वयोवृद्धः स गणधरो भवति, गणधराकारधारकः 15 क्रियत इत्यर्थः । यस्तु गणाधिपतिः सः 'अध्वनि' मार्गे खयं 'भिक्षुभावेन' सामान्यसाधुवेषण विहरति ॥ ३००६ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते--कदाचिदध्वनि साधवः स्तेनकैर्विविक्ताः क्रियेरन् ततस्ते स्तेनकाश्चिन्तयेयु: हयनायगा न काहिंति उत्तरं राउले गणे वा वि। अम्हं आहिपइस्स व, नायग-मित्ताइएहिं वा ॥ ३००७ ॥ हतो नायकः-आचार्यों येषां ते हतनायकास्तथाभूताः सन्त एते व्रतिनो राजकुले वा गणे वा गत्वा न किमपि 'उत्तरम्' उपकरणापहाररावात्मकं करिष्यन्ति, अखामिकतया निराशीभूतत्वात् । तथाऽस्माकं योऽधिपतिः तस्य वा तदीया वा ये ज्ञातकाः-खजना यानि च तदीयानि मित्राणि तदादीनां-तत्प्रभृतीनामन्तिके गतास्तैः पृष्टाः सन्तो न किमप्युत्तरं प्रदास्यन्ति, आचायस्यैव तत्पदानप्रगल्भत्वादिति भावः । तस्मादाचार्यमेवापद्रावयाम इति विचिन्त्य तथैव कुर्युः । 25 ततो यथोक्तनीत्या गुरवः प्रवादयितव्याः ॥ ३००७ ॥ ते च स्तेनाश्चतुर्विधाः संजयपंता य तहा, गिहिभद्दा चेव साहुभद्दा य । तदुभयभद्दा पंता, संजयभद्देसु आहडिया ॥ ३००८॥ एके संयतपान्ता गृहस्थभद्रकाः १ अन्ये साधूनां भद्रका गृहस्थप्रान्ताः २ अपरे तदुभयभद्रकाः ३ अपरे तदुभयप्रान्ताः ४ । अत्र ये संयतभद्रकास्तेषु हृताहृतिका भवेत् , हृत्वाऽपि 30 ते भूयो वस्त्रमर्पयेयुरित्यर्थः ॥ ३००८ ॥ ॥ इदमेव स्पष्टयति-- सत्थे विविच्चमाणे, आहिपई भद्दओ व पंतो वा। १ एतन्मध्यगतमवतरणं का वर्तते ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे [ हरिया हडियाप्र० सू० ४५ भद्दो 'दट्ठूण निवारणं व गहियं व पेसेइ ।। ३००९ ॥ सार्थे स्तेनैः 'विविच्यमाने' मुष्यमाणे साधवोऽपि विविच्येरन् । तत्र च यः 'अधिपतिः ' चौरसेनाधिपतिः स साधूनां भद्रको वा स्यात् प्रान्तो वा । यदि भद्रकस्तदा साधून् विविच्यमानान् दृष्ट्वा निवारणं करोति, 'मैतेषां वस्त्राण्यपहरत' इति । अथ नासौ तत्र सन्निहितस्ततः 5 स्तेनैगृहीतं सदुपकरणं भूयोऽपि प्रेषयति । ३००९ || अमुमेव गाथाऽवयवं व्याचष्टे - नीयं द बहिं, छिन्नदसं सिव्वणीहि वा नाउं । पेसे उवालभित्ताण तकरे भद्दओ अहिवो || ३०१० ॥ स चौरसेनाधिपतिः साधूनामुपधिं 'नीतम्' उपढौकितं दृष्ट्वा छिन्नदशाकत्वेन साधुसम्बन्धिनीभिः सीवनीभिः सीवितत्वेन वा 'साधूनां सत्कमेतद् वस्त्रम्' इति ज्ञात्वा तानू तस्करानुपालभते10 आः पापाः ! विनष्टाः स्थ यूयं यदेवं महात्मनां साधूनां वस्त्राण्यपहृतानीत्यादि । एवमुपालभ्य भूयोऽपि तस्योपधेः साधूनामर्पणार्थं तानेव तस्करान् साधूनामन्तिके प्रेषयति ॥ ३०१० ॥ वीसत्थमपिते, भरण छड्डित्तु के वच्चति । बहिया पासवण उवस्सए व दिवम्मि जा जयणा ॥ ३०११ ॥ स्तेना द्विविधाः -- आक्रान्तिका अनाक्रान्तिकाश्च । तत्र ये आक्रान्तिकास्ते कुतोऽपि न 15 बिभ्यति, अत एव ते चौरसेनापतिना वस्त्रप्रत्यर्पणार्थं प्रेषिताः सन्तः 'विश्वस्ताः' निर्भया दिवसत एव आनीय वस्त्रं संयतानामर्पयन्ति । अनाक्रान्तिकास्तु भयेन ' मा केनाप्यारक्षकादिना ग्रहीष्यामहे' इति परिभाव्य रात्रावानीयोपाश्रयाद् बहिः प्रश्रवणभूमावुपाश्रयमध्ये वा वस्त्रं छर्दयित्वा 'व्रजन्ति' पलायन्ते । तस्मिन् वस्त्रे दृष्टे सति या वक्ष्यमाणा यतना सा करणीया ॥ ३०११ ॥ तामेवाह ८५० 20 freeगीया अविगीयपच्चयट्ठा करिति वीसुं तु । जर संजई वि तहियं, विगिंचिया तासि वि तहेव ।। ३०१२ ।। यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततस्तदुपकरणं मौलोपकरणेन सह मीलयित्वा यथास्वरुचि तं परिभुञ्जते । अथ ते केचिद् गीतार्थाः केचिच्चा गीतार्थाः ततो गीतार्था अविगीतप्रत्ययार्थं हृताहृति कोपकरणं 'विष्वक्' पृथक् स्थापयन्ति । ते ह्यगीतार्था एवं चिन्तयेयुः - एष स्तेन प्रत्यर्पित उपधि25 स्तावदुपहतः, उपहतेन च सह मिश्रित इतरोऽप्युपहत एव, अतस्तेषां प्रत्ययार्थं हृताहृति कोपकरणं पृथक् स्थापयन्ति । अथ संयत्योऽपि विविक्ताः ततस्तासामप्युकरणं तथैव पृथक् कुर्वन्ति ॥ ३०१२ ॥ I जो विय तेसिं उवही, अहागडऽप्पो य सपरिकम्मो य । पिय करिति वीसुं, मा अविगीयाइ भंडेजा ॥ ३०१३ योऽपि च ' तेषां' साधूनां यथाकृतोऽल्पपरिकर्मा सपरिकर्मा चोपधिस्तमपि विष्वक् परस्परं १ 'हीत्वा तत्समीपमुपनीतं सद् भूयो भा० ॥ २ष्ट्वा “छिन्नदसं" ति हेतौ द्वितीया, भावप्रधानश्च निर्देशः, ततोऽयमर्थः - छिन्न कां ॥ ३ या उभं° ता० भा० भा० प्रतावेतदनुसारेणैव टीका | दृश्यतां पत्र ८५१ दिप्पणी १ ॥ 30 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 15 भाष्यगाथाः ३००९-१८] प्रथम उद्देशः । कुर्वन्ति । कुतः ? इत्याह-मा ‘अविगीतादयः' अगीतार्थादयः परस्परं 'भण्डेयुः' कलहं कुर्युः, यथा-किमिति त्वया मंदीयो यथाकृतोपधिः सपरिकर्मणा सह मीलितः ? इत्यादि ॥३०१३॥ एवं तावद् भद्रकसेनापतौ विधिरभिहितः । अथ प्रान्तविषयं विधिमाह (ग्रन्थाग्रम् ---९००० । सर्वग्रन्थानम्-२१२२० ।) पंतोवहिम्मि लुद्धो, आयरिए इच्छए विवादेउं । कयकरणे करणं वा, आगाहें किसो सयं भणइ ॥ ३०१४ ॥ प्रान्तश्चौरसेनापतिः 'उपधौ' उपकरणे लुब्धः सन् आचार्यान् व्यापादयितुमिच्छति । ततो यस्तत्र 'कृतकरणः' धर्मकथालब्धिमान् धनुर्वेदादिकृताभ्यासो वा स तत्र करणं करोति, धर्मकथादिना खभुजबलप्रकटनेन वा तमुपशमयतीत्यर्थः । अथवा ईदृशे आगाढे कार्ये यः 'कृशः' दुर्बलदेहः सः 'वयम्' आत्मनैवात्मानमाचार्य भणति ॥३०१४॥ ऐनामे गाथां भावयति-10 को तुब्भं आयरितो, एवं परिपुच्छियम्मि अद्धाणे । जो कहयइ आयरियं, लग्गइ गुरुए चउम्मासे ॥ ३०१५॥ प्रान्तः सेनापतिः पृच्छति-को युष्माकं मध्ये आचार्यः ? । एवमध्वनि गच्छतां परिपृष्टे सति यः कश्चिदाचार्य निर्धार्य कथयति सः 'लगति' प्राप्नोति चतुरो मासान् गुरुकानिति ॥ ३०१५ ॥ किं तर्हि वक्तव्यम् ? इत्याह सत्थेणऽन्त्रेण गया, एहिंति व मग्गतो गुरू अम्हं । सथिल्लए व पुच्छह, हयं पलायं व साहिति ॥ ३०१६ ॥ येऽस्माकं गुरवस्तेऽन्येन सार्थेन सह प्रागेव गताः, 'मार्गतो वा' पृष्ठतस्ते एष्यन्ति, यदि वा न प्रतीतिर्भवतां ततः सार्थिकान् पृच्छत, यद्वा 'हतोऽसावस्माकमाचार्यः पलायितो वा, वयं साम्प्रतमनाथा व महे' एवं कथयन्ति ॥ ३०१६ ॥ अत्रैव प्रकारान्तरमाह-- 20 जो वा दुब्बलदेहो, जुंगियदेहो अँसब्भवको वा। गुरु किल एएसि अहं, न य मि पगम्भो गुरुगुणेहिं ॥ ३०१७ ॥ अथवा यो दुर्वलदेहो यो वा 'जुङ्गितदेहः' विकलाङ्गः यो वा 'अँसभ्यवाक्यः' असमञ्जसप्रलापी स सेनापतिं प्रति वक्ति-अंहं किलैतेषां सर्वेषामपि गुरुः परं 'न च' नैवास्म्यहं 'प्रगल्भः' सम्पूर्णः 'गुरुगुणैः' शरीरसम्पदादिभिः ॥ ३०१७ ॥ 25 वाहीणं व अभिभूतो, खंज कुणी काणओ व हं जातो। मा मे बाहह सीसे, जं इच्छह तं कुणह मझं ॥ ३०१८॥ 'व्याधिना वा रोगेणाहमतीवाभिभूतः तथा 'खञ्जः' पादविकल: 'कुणिः' पाणिविकलः १°ताः' अगीतार्थाः पर' भा० ॥ २ मदीयमनुपहतमुपकरणमुपहतेन सह मीलितम् ? यथाकृतं वासपरिकर्मणा सह ? इत्यादि भा० ॥ ३ एतदेव भा भा० ॥४°व नियुक्तिमा का०॥ ५। एतदन्तर्गतमवतरणं कां. एव वर्त्तते ॥ ६ असञ्चवको त० डे. मो० ले० । टीकाऽप्यत्रैतदनुसारेणैव । दृश्यतां टिप्पणी ॥ ७ 'असत्यवाक्यः' त० डे० मो० ले० ॥ ८ अहमेवैतेपां भा०॥ ९°ण मि यऽभि ता०॥ १० व मी जातो भा० कां० ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [हरियाडियाप्र० सूत्रम् ४५ 'काणः' चक्षुर्विकलः ईदृशो वाऽहं जातोऽस्मि, अतो मा मदीयान् शिष्यान् बाधध्वम्, यद् मारणादिकं कर्तुमिच्छथ तद् ममैव कुरुध्वम् ॥ ३०१८ ॥ यतः इहरा वि मरिउमिच्छं, संतिं सिरसाण देह मं हणह । मयमारगत्तणमिणं, जं कीरइ मुंचह सुते मे ॥ ३०१९ ॥ 5 इतरथाऽपि तावदहं मर्तुमिच्छामि अतो मदीयशिष्याणां शान्ति प्रयच्छत, मां पुनः यथा खरुचि 'हत' विनाशयत; यतो यदिदं मम मारणं भवद्भिः क्रियते तद् मृतस्यैव मारकत्वं भवति, अतो मुञ्चत मदीयान् ‘सुतान्' शिष्यान् ॥ ३०१९ ॥ अपि च एयं पि ताव जाणह, रिसिवज्झा जह न सुंदरी होइ । इह य परत्थ य लोए, मुंचंतऽणुलोमिया एवं ॥ ३०२० ॥ 10 भो भद्राः ! एतदपि तावद् यूयं जानीथ, यथा--ऋषिहत्या विधीयमाना इह च परत्र च लोके सुन्दरा न भवति । एवम् 'अनुलोमिताः' प्रज्ञापिताः सन्तस्ते तस्कराः साधून् मुञ्चन्ति ॥ ३०२० ॥ अथैवमपि न मुच्येरन् ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह धम्मकहा चुण्णेहि व, मंत निमित्तेण वा वि विजाए । नित्थारेइ बलेण व, अप्पाणं चेव गच्छं च ॥ ३०२१ ॥ 15 यो धर्मकथालब्धिमान् स धर्मकथया तं सेनापतिमुपशमयति, चूर्णैर्वा मन्त्रेण वा निमित्तेन वा विद्यया वा तमावर्त्तयेत् । यो वा धनुर्वेदादौ कृतपरिश्रमः स भुजबलेन तं सेनापतिं निर्जित्यात्मानं गच्छं च निस्तारयति ॥ ३०२१ ॥ अथैषामेकमपि न विद्यते. ततः वीसजिया व तेणं, पंथं फिडिया व हिंडमाणा वा। गंतूण तेणपल्लिं, धम्मकहाईहिँ पन्नवणा ॥ ३०२२॥ 20 'तेन' प्रान्तेन सेनापतिनोपधिमपहृत्य साधवः 'विसर्जिताः' मुक्ता इत्यर्थः, मुक्ताश्च यधु पधिं न गवेषयन्ति ततश्चतुर्लघुकाः । ततः स्तेनपल्लीं गत्वा गवेषयितव्य उपधिः । गच्छतां चापान्तराले यदि कोऽपि प्रश्नयेत्-कुतो भवन्त इहागताः ? ततो वक्तव्यम्-‘पथः' मार्मात् परिभ्रष्टाः 'हिण्डमाना वा' विहारक्रमेण विहरन्त एव वयमिह सम्प्राप्ताः । ततश्च स्तेनपल्ली गत्वा धर्मकथादिभिः सेनापतेः प्रज्ञापना कर्त्तव्या ॥ ३०२२ ॥ अथेदमेव भावयति __भद्दमभई अहिवं, नाउं भद्दे विसंति तं पल्लिं । फिडिया मुत्ति य पंथं, भणंति पुट्ठा कहिं पल्लिं ॥ ३०२३॥ स्तेनपल्ली गच्छद्भिः प्रथमत एवैतद् ज्ञातव्यम्-किमत्र सेनापतिर्भद्रकोऽभद्रको वा ? । यदि भद्रकस्ततस्तां पल्लीं प्रविशन्ति । अथाभद्रकस्ततः ‘मा प्रान्तापना-उपद्रावणादीनि कार्षीद्' इति कृत्वा न तत्र गन्तव्यम् । अथ गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । अथ कोऽप्युपशमनायोत्सहते 30 ततस्तं गृहीत्वा गन्तव्यम् । गच्छन्तश्च 'कुतः किमर्थं भवन्त इहायाताः ? कुत्र वा ब्रजिष्यथ ?' इति पृष्टा भणन्ति–पथः 'स्फिटिताः' परिभ्रष्टा वयमिह पल्ल्यामाहारान्वेषणं कुर्महे ॥३०२३॥ मुसिय त्ति पुच्छमाणं, को पुच्छइ किं व अम्ह मुसियव्यं । अहिवं भणति पुचि, अणिच्छे सन्नायगादीहिं ॥३०२४ ॥ .25 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३०१९-२८ ] प्रथम उद्देशः । ८५३ 'किं मुषिता यूयम् ?' इति पृच्छन्तं ब्रुवते - को नामास्मान् पृच्छति ? किंवा निर्ग्रन्थानामस्माकं मुषितव्र्व्यम् ? इति । ततश्च स्तेनपल्लीं गत्वा यस्तत्र सेनाया अधिपस्तं 'पूर्व' प्रथमतः 'भणन्ति' धर्मकथादिना प्रज्ञापयन्ति । प्रज्ञापितश्च यद्यावृत्तस्ततो वक्तव्यम् — अस्माकमुपि प्रयच्छेति । यदि प्रयच्छति ततः सुन्दरम् । अथ नेच्छति प्रदातुं ततो ये तस्य संज्ञातका:स्वजनाः आदिशब्दाद् मित्रादयश्च ते तथैव धर्मकथादिना प्रज्ञापयितव्याः । ततस्तद्वारेण स सेनापतिरुपशमयितव्यः || ३०२४ ॥ उवसंतो सेणावर, उवगरणं देइ वा दवावे | गtत्थे यहणं, वसुं वसुं च से करणं ॥ ३०२५ ॥ उपशान्तः सन् सेनापतिः स्वयमेवोपकरणं ददाति, स्वमानुषैर्वा दापयति, ततो यदि ते सर्वेऽपि गीतार्थास्तत उपकरणं मिश्रयन्ति वा न वा । अथागीतार्थमिश्रास्ततो गीतार्थैस्तस्योपक- 10 रणस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् । यच्च संयत- संयतीनामुपकरणं तद् 'विष्वग् विष्वक्' पृथक् पृथग् विधेयम् ॥ ३०२५ ॥ अथ सेनापतिर्ब्रूयात्— सत्थो बहू विवित्तो, गिण्हह जं जत्थ पेच्छह अडता । इह पडिपल्ली य, रूसेह बिइजओ हं भे || ३०२६ ॥ सार्थोऽस्मन्मानुषैः 'बहु:' प्रभूतो विविक्तः अतो न ज्ञायते कस्य कुत्र वस्त्रादिकमस्ति ? 15 इति, ततो गृह्णीत यूयं स्वकीयमुपकरणं यद् यत्र पर्यटन्तः पश्यथ । ततः साधुभिर्वक्तव्यम् - यद्येवं ततः खमानुषमस्माभिः सह विसर्जयत । ततस्तदीयमानुषेण सह गच्छन्ति । तच्च ब्रूते – 'इह' अस्यामेव पल्यां प्रतिपल्लीषु वा यद् यद् भवतामुपकरणं तत् तद् "रूसेह" त्ति देशीवचनत्वाद् गवेषयत, अहं भवतां द्वितीयोऽस्मीति । ततो यद् यत्र पश्यन्ति तत् तत्र सेनानुशिष्ट्यादिभिः प्रज्ञाप्य गृह्णन्ति || ३०२६ ॥ 20 अहं ताव न जातो, जह एएसि पि पावइ न हत्थं । तह कुणिमो मोसमिणं, छुभंति पावा अह इमेसु ।। ३०२७ ॥ अस्माकं तावदयं 'मोषः' मुषितवस्त्रादिलक्षणो न जातः, अतो यथैतेषामपि हस्तं न प्राप्नोति तथा वयमेनं मोषं कुर्महे इति विचिन्त्य केचित् 'पापाः' स्तेनकाः 'अथ' इति चिन्तानन्तरमेतेषु प्रक्षिपन्ति ।। ३०२७ ॥ तद्यथा 25 पुढवी आउक्काए, अगड- वणस्स तसेसु साहरई । सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु नायव्वं ।। ३०२८ ॥ पृथिवीकाये वा अप्काये वा अगडे वा गर्त्तायामित्यर्थः वनस्पतिषु वा त्रसेषु वा 'संहरन्ति ' निक्षिपन्तीति यावत्, गाथायामेकवचननिर्देशः प्राकृतत्वात्, एतेषु निक्षिप्तममीषां ग्रहीतुं न कल्पत इति बुद्ध्या । अत्र च 'सूत्रार्थज्ञेन' गीतार्थेन 'पृथिव्यादिनिक्षिप्ते तत्रोपकरणे गृह्य - 30 माणे खल्पतरमेवाधिकरणम्, अगृह्यमाणे तु बहुतरमसंयतपरिभोगा-ऽप्कायप्रक्षालनादिकम् ' [ इति ] एवमपबहुत्वं ज्ञातव्यम्, ज्ञात्वा च ग्रहीतव्यं तद् वस्त्रम् । अथ न गृह्णाति ततश्चतु१ "व्यम् ? येन मुषिता यूयमिति प्रश्नस्यावकाशो भवेदिति । ततश्च भा० ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ हरियाहडियाप्र० सूत्रम् ४५ लघुकाः, अनवस्था चैवं भवति, भूयोऽपि हृत्वा ते वा अन्ये वा एवमेव पृथिव्यादिषु निक्षिपन्तीति भावः ॥ ३०२८ ॥ अथ “सा वि य परिभुत्ता वा" इत्यादि सूत्रावयवं विवृणोति हरियाहडिया सुविहिय!, पंचवन्ना वि कप्पई घेत्तुं । परिभुत्तमपरिभुत्ता, अप्पाबहुगं वियाणित्ता ॥ ३०२९ ॥ 5 हे सुविहित ! हताहृतिका यद्यपि तैः स्तेनकैः पञ्चवर्णा कृता तथापि ग्रहीतुं कल्पते । तथा परिभुक्ता अपरिभुक्ता वा, उपलक्षणत्वाद धौता घृष्टा मृष्टा सम्प्रधूमिता वा भवतु परं तथाप्यल्पबहुत्वं विज्ञाय खीकर्त्तव्यैव, न परिहर्त्तव्या ॥ ३०२९॥ अत्रैव विशेषमाह-~ आधत्ते विक्कीए, परिभुत्ते तस्स चेव गहणं तु ।। अन्नस्स गिण्हणं तस्स चेव जयणाएँ हिंडंति ॥ ३०३० ॥ 10 स्तेनकैस्तद् वस्त्रं 'आधत्तं' ग्रहणके मुक्तं भवेद् विक्रीतं वा परिभुक्तं वा ततस्ते ब्रूयुःवयमन्यद् वस्त्रं प्रयच्छाम इति । ततो वक्तव्यम्-तदेवास्माकं प्रयच्छत नान्येन केनापि प्रयोजनमिति भणित्वा तदेव ग्रहीतव्यम् । यदि न लभ्यते ततोऽनवस्थापसङ्गनिवारणार्थमन्य. स्यापि ग्रहणं कुर्वन्ति । तच्च यदि संस्तरति ततः परिष्ठापयितव्यम् , असंस्तरणे तु परिभोक्तव्यम् । तथा 'तस्यैव' सेनापतेर्मानुषैः सह वस्त्रान्वेषणाय यतनया 'हिण्डन्ते' पर्यटन्ति ॥३०३०॥ 15 इदमेव भावयति ___ अन्नं च देइ उवहिं, सो वि य नातो तहेव अन्नातो।। सुद्धस्स होइ गहणं, असुद्धि घेत्तुं परिट्ठवणा ॥ ३०३१ ॥ अथासौ सेनापतिः ‘अन्यम्' अन्यसाधुसम्बन्धिनमुपधिं ददाति ततः 'सोऽपि च' उपधिः 'ज्ञातो वा स्यात्' संविना- संविमसम्बन्धितयोपलक्षितः 'अज्ञातो वा' तद्विपरीतः । तत्र यः 20 शुद्धः-विधिपरिकर्मितो यथोक्तप्रमाणोपेतश्च स संविमसम्बन्धी तं गृहीत्वा तेषामेव संविमाना मर्पयन्ति । अथ ते देशान्तरं गतास्ततो यदि संस्तरति ततः परिष्ठापयन्ति । अथ न संस्तरति ततः परिभुञ्जते । यः पुनः 'अशुद्धः' एतद्विपरीतः सोऽसंविमानां सम्बन्धी तमप्यनवस्थाऽधिकरणपरिहरणार्थ गृहीत्वा पश्चात् परिष्ठापयन्ति ॥ ३०३१ ॥ इदमेव व्याचष्टे तं सिव्वणीहि नाउं, पमाण हीणाहियं विरंगं वा। इतरोवहिं पि गिण्हइ, मा अहिगरणं पसंगो वा ॥ ३०३२ ॥ __ 'तद्' उपकरणमविधिसीवनिकाभिः सीवितं प्रमाणतश्च हीनाधिकं तथा 'विरङ्ग' विचित्रवर्णकरक्तम् एवंविधं दृष्ट्वा ज्ञातव्यम्, यथा-एष इतरेषाम्-असंविमानामुपधिः, तमपि ज्ञात्वा गृहात्येव । कुतः ? इत्याह-मा तस्मिन्नगृह्यमाणेऽधिकरणमसंयतपरिभोगादिना 'प्रसङ्गो वा' भूयोऽप्युपकरणहरणलक्षणो भवत्विति कृत्वा ॥ ३०३२ ॥ १ एतदनन्तरं भा० प्रतौ सूत्रम् इत्यवतीर्य पञ्चचत्वारिंशत्सूत्रान्तर्गतः । एतचिहान्तर्वर्ती सूत्रांशः तवृत्तिश्चात्र वर्तेते। दृश्यतां पत्र ८४८ टिप्पणी १-३ । तदनन्तरम् अथ भाष्यम् इत्यवतीर्य "हरियाहडिया." इति ३०२९ गाथा व्याख्याताऽस्ति ॥ २॥ एतच्चिह्नगतमबतरणं कां० एव वर्तते ।। ३धी तस्य च ग्रहणं भवति, गृहीत्वा च तं तेषामेव कां०॥ 25 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५५ भाप्यगाथाः ३०२९-३६] प्रथम उद्देशः । अन्नस्स व पल्लीए, जयणा गमणं तु गहण तह चेव । गामाणुगामियम्मि य, गहिए गहणे य जं भणियं ॥ ३०३३ ॥ अथान्यस्य सेनापतेः पल्या हृतोपकरणस्याई नीतं भवेत् ततस्तत्रापि यतनया गमनं ग्रहणं च तथैव' अनुशिष्टि-धर्मकथादिना विधेयम् । एवमध्वनि विविक्तानां विधिरुक्तः । १ अथानध्वनि तमेवातिदिशति-'गामाणुगामि' इत्यादि, » प्रामानुग्रामिकेऽपि विहारे मासकल्प-5 विधिं कुर्वन्तो यदा विविक्ता भवन्ति तदा 'गृहीते' स्वहस्तचटिते "गहणे" ति गृह्यमाणे चोपकरणे उपधिपृथक्करणादिकं धर्मकथादिकं च यत् पूर्व भणितं तदेवात्रापि द्रष्टव्यम् ॥ ३०३३ ॥ इंदमेव व्याचिख्यासुराह तत्थेव आणवावेइ तं तु पेसेइ वा जहिं भद्दो । सत्थेण कप्पियारं, व देइ जो णं तहिं नेइ ॥ ३०३४ ॥ यधुपकरणमन्यस्यां पल्ल्यां नीतं तदा यदि मूलपल्लीपतिर्भद्रकस्तत उपकरणं तत्रैव' आत्मनो मूले तत्पल्लीवास्तव्यमानुषैरानाययति । अथवा 'तम्' इत्यात्मीयमनुष्यं तत्र प्रेषयति यत्रासावन्यस्य सेनापतेः पल्यामुपधिर्वर्तते । अथासौ न समर्थः खसमीपे आनाययितुं ततः सार्थेन सह तस्यां पल्ल्यां गन्तव्यम् । अथ सार्थो न प्राप्यते ततो मूलपल्लीपतिर्मानुषं मार्गयितव्यः । स च 'कल्पितारं' मार्गदर्शयितारं खमनुष्यं ददाति यः 'तत्र' पल्ल्यां "ण"मिति तान् साधून 15 नयति ॥ ३०३४ ॥ अणुसट्ठाई तत्थ वि, काउ सपल्लि इतरीसु वा घेत्तुं । सत्थेणेव जणवयं, उविति अह भदए जयणा ॥ ३०३५ ॥ _ 'तत्रापि' पल्ल्यामनुशिष्टि-धर्मकथादिप्रयोगं कृत्वा गृहीत्वा च स्वकीयमुपकरणजातम् , यदि ततः सार्थो न लभ्यते ततस्तेनैव मनुष्येण सह खपल्यामागच्छन्ति, मूलपल्ल्यामित्यर्थः । तत्र 20 चागत्य सार्थेन सह जनपदमुपयान्ति । अथ तस्याः पल्ल्याः सकाशादितरासां जनपदप्रत्यन्तपल्लीनां सार्थों लभ्यते तासु चोपकरणं नीतं भवेत् ततस्तदर्थे तत्र गत्वा तच्च गृहीत्वा तत एव सार्थेन सार्द्ध जनपदमुपयान्ति । 'अथ' एषा भद्रकेऽन्यपल्लीपतौ यतना भणिता ॥ ३०३५॥ ___ अथ प्रान्तविषयां तामेवाह फड्डगपइए पंते, भणंति सेणावई तहिं पंते । उत्तरउत्तर माडंबियाइ जा पच्छिमो राया ॥ ३०३६॥ इह मूलपल्ली मुक्त्वा या अन्याः पल्ल्यस्तासामधिपतयो मूलपल्लीपतिवशवर्तिनः स्पर्द्धकपतय उच्यन्ते । तेषामेकतरेण साधवो विविक्ताः, स च प्रकृत्यैव प्रान्तः, ततस्तस्मिन् प्रान्ते बहुशोऽपि मार्गिते उपकरणमप्रयच्छति मूलसेनापतिं 'भणन्ति' धर्मकथादिना प्रज्ञापयन्ति, स च प्रज्ञापितः सन् दापयति । अथ सोऽपि प्रान्तः ततो यः कोऽपि माडम्बिकः-छिन्नमडम्बाधि-30 पतिः स प्रज्ञाप्यते । तत उत्तरोत्तरं तावन्नेतव्यं यावद् 'अपश्चिमः' सर्वान्तिमो राजा, तमपि १२ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ २ एनामेव नियुक्तिगाथां व्याचि का० ॥ ३ एतन्मध्यवर्त्यवतरणं भा० त० डे. नास्ति ।। 25 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-धृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ प्रज्ञाप्योपकरणं ग्रहीतव्यमिति भावः । अथ प्रमादाद्युपहतो न मार्गयति न वा धौत-रक्तादिकमसंयतप्रायोग्यमिति कृत्वा गृह्णाति ततश्चतुर्लघवः ॥ ३०३६ ॥ वसिमे वि विवित्ताणं, एमेव य वीसुकरणमादीया । वोसिरणे चउलहुगा, जं अहिगरणं च हाणी जा ॥ ३०३७ ।। 5 न केवलमध्वनि विविक्तानां किन्तु 'वसिमेऽपि' जनपदे विविक्तानामुपकरणविष्वक्करणादीनि कार्याण्येवमेव मन्तव्यानि । यस्तु खोपकरणं व्युत्सृजति, 'को नामात्मानमायासयिष्यति ? इति कृत्वा न गवेषयतीति भावः, तस्य चत्वारो लघवः । यच्च 'अधिकरणम्' अप्कायप्रक्षालनादिकं या च तेनोपकरणेन विना सूत्रार्थयोः संयमयोगानां वा परिहाणिस्तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् । यत एवमतः सर्वप्रयत्नेन गवेषणीयम् ॥ ३०३७ ॥ ॥ हरियाहडियाप्रकृतं समाप्तम् ॥ अ ध्व ग म न प्र कृ त म् सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा अद्धाणगमणं एत्तए ४६ ॥ 15 अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह हरियाहडियट्ठाए, होज विहेमाइयं न वारेमो । जं पुण रत्तिं गमणं, तदट्ट अबह वा सुत्तं ॥ ३०३८ ॥ विहे-अध्वनि गच्छतां हृताहृतिकार्थम् 'एवमादिकं' पल्लीगमनप्रभृतिकं भवेद् न वयं तद् वारयामः । यत् पुना रात्रावध्वनि गमनं 'तदर्थ' हृताहृतिकानिमित्तम् अथवा 'अन्यार्थम्' 20 अन्येषां-ज्ञानादिकारणानामर्थाय तत्र सूत्रमवतरति, तद् न कल्पत इति भावः ॥ ३०३८ ॥ अहवा तत्थ अवाया, वच्चंते होज रत्तिचारिस्स । जइ ता विहं पि रत्ति, वारेतविहं किमंग पुणो ॥३०३९ ।। अथवा 'तंत्र' अध्वनि व्रजतां यो रात्रिचारी-रात्रौ गमनशीलस्तस्य संयमा-ऽऽत्म-प्रवचनविषया बहवः प्रत्यपाया भवेयुरिति रात्रौ गमनं वार्यते । यदि च 'विहमपि' अध्वानमपि रात्री 30 गन्तुं वारयति ततः किमङ्ग पुनः 'अविहम्' अनध्वानम् ? जनपदे सुतरां रात्रौ गन्तुं वारयति इति भावः ॥ ३०३९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्री वा विकाले वाऽध्वगमनं 'एतुं' गन्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः १°य, तनिषेधार्थ प्रस्तुतसूत्रमारभ्यत इति ॥ ३०३८ ॥ अमुमेव सम्बन्धं प्रकारान्तरेजाह-अहवा० गाथा का ॥ २ 'तत्र' हताहतिकासूत्रोक्ते अध्व का० ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३०३७-४४] प्रथम उद्देशः । इहरा वि ता न कप्पइ, अद्धाणं किं तु राइविसयम्मि । अत्थावनी संसइ, कप्पड़ कजे दिया नूणं ।। ३०४०॥ इतरथाऽपि तावन्न कल्यतेऽध्वानं गन्तुं 'किन्तु' किं पुना रात्रिविषये ? तत्र सुतरां न कल्पते । यतश्च सूत्रं रात्रिविषयं प्रतिषेधं विधत्ते अतः 'अर्थापत्तिः' सामर्थ्यगम्यता सैव 'शंसति' कथयति-नूनं ज्ञायते दिवा 'कार्ये' ज्ञानादौ समुत्पन्नेऽध्यानमपि गन्तुं कल्पते । ॥ ३०४० ॥ अथाध्वानमेव भेदतः प्ररूपयन्नाह अद्धाणं पि य दुविहं, पंथो मग्गो य होइ नायव्यो । पंथम्मि नत्थि किंची, मग्गो सग्गामों गुरु आणा ।। ३०४१ ॥ "अद्धाणं" ति नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , ततो» अध्वा द्विविधः, तद्यथा-पन्था मार्गश्च । पन्था नाम-यत्र ग्राम-नगर-पल्ली-वजिकानां 'किश्चिद्' एकतरमपि नास्ति । यत्र पुन-10 ग्रामानुग्रामपरम्परया वसिमं भवति स सग्रामो मार्ग उच्यते । द्वयोरपि रात्री गच्छतश्चत्वारो गुरुकाः; दिवा तु पथि चतुर्गुरवः, मार्गे चतुर्लघवः, आज्ञादयश्च दोषाः ॥ ३०४१ ॥ तं पुण गम्मिज दिवा, रत्तिं वा पंथ गमण मग्गे वा । रत्तिं आएसदुगं, दोसु बि गुरुगा य आणादी ॥ ३०४२ ।। स पुनरध्वा दिवा गम्येत रात्रौ वा, तच्चोभयमपि गमनं पथि वा मार्गे वा स्यात् । तत्र 15 रात्रिशब्दे आदेशद्वयम् । केचिदाचार्या ब्रुवते-सन्ध्या यतो राजते-शोभते तेन निरुक्तिशैल्या रात्रिरुच्यते, यस्तु सन्ध्याया अपगमः स विकालः । अन्ये तु ब्रुवते—यतः सन्ध्याया अपगमे चौर-पारदारिकादयो रमन्ते ततोऽसौ रात्रिरिति परिभाष्यते, सन्ध्यायां तु यत एते विरमन्ति ततः सा विकालः । पन्थानं वा मार्ग वा यदि रात्रौ विकाले वा गच्छति तदा द्वयोरपि चत्वारो गुरवः आज्ञादयश्च दोषाः । इयमन्याचार्यपरिपाट्या गाथा ततो न पौनरुत्यम् 20 ॥३०४२ ॥ तत्र मार्गे तावद दोषानुपदिदर्शयिषुराह मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए । रीयाइ संजमम्मी, छकाय अचक्खुविसयम्मि ॥ ३०४३ ॥ रात्रौ मार्गे गच्छतः साधून दृष्ट्वा कश्चिदभिनवधर्मा मिथ्यात्वं गच्छेत् । उड्डाहो वा प्रवचनस्य भवति । विराधना वा संयमा-ऽऽत्मविषया भवेत् । तत्र संयमविराधनायामीर्यासमिति-25 प्रभृतिकाः समितीन शोधयति, रात्रौ वाऽचक्षुर्विषये षटकाया विराध्यन्ते । एष द्वारगाथासङ्केपार्थः ॥ ३०४३ ॥ साम्प्रतमेनामेव सविस्तरं विवृणोति किं मण्णे निसि गमणं, जतीण सोहिंति वा कहं इरियं । जइवेसेण व तेणा, अडंति गहणाइ उड्डाहो ॥ ३०४४ ॥ अमीषां परलोककार्योद्यतानां यतीनां किमर्थं 'निशि' रात्रौ गमनम् ? किं मन्ये दुष्टचित्ता 30 अमी ? कथं वा रात्रावटन्तोऽमी ई- शोधयन्ति ? यथा चैतदसत्यं तथा सर्वमप्यमीषामसत्यमिति मिथ्यात्वं स्थिरीकृतमुत्पादितं वा भवति । तथा 'यतिवेषेण नूनममी स्तेनाः पर्यटन्ति' ११ एतचिह्नगतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ इति कृत्वा ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिषु पदेषु विधीयमानेषु महान् प्रवचनस्योड्डाहो भवेत् ॥३०४४॥ संजमविराहणाए, महन्वया तत्थ पढम छक्काया। विइए अतेण तेणं, तइऍ अदिन्नं तु कंदाई ॥ ३०४५ ॥ 'संयमविराधना द्विविधा-मूलगुणविषया उत्तरगुणविषया च । 'तत्र' मूलगुणविषयायां 5 महाव्रतानि विराध्यन्ते । तत्र प्रथमे महाव्रते रात्रावचक्षुर्विषयतया 'षटकायाः' पृथिव्यादयो विनाशमश्नुवते, द्वितीये रजन्यामस्तेनमपि स्तेनमिति भाषेत, तृतीये कन्दमूलादिकम् 'अदत्तं' खामिना अवितीर्ण गृह्णीयात् ॥ ३०४५ ॥ अथवा दियदिन्ने वि सचित्ते, जिणतेन्नं किमुय सव्वरीविसए । जेसिं व ते सरीरा, अविदिन्ना तेहिं जीवेहिं ॥ ३०४६ ॥ 10 यद्यपि कन्दादिकं खामिना दत्तं गृह्णाति तथापि सचित्तमिति कृत्वा 'जिनैः' तीर्थकरैर्नानुज्ञातमिति दिवाऽपि स्तन्यं भवति किं पुनः शर्वरी-रात्रिस्तद्विषये-तद्गोचरे गृह्णतः ? । येषां वा जीवानां तानि कन्दादीनि शरीराणि तैरवितीर्णानि गृह्णतस्तृतीयव्रतभङ्गो भवति ॥ ३०४६ ॥ पंचम अणेसणादी, छटे कप्पो व पढम बिड्या वा। भग्गवउ त्ति य जातो, अपरिणतो मेहुणं पि वए ॥ ३०४७ ॥ 15 पञ्चमे महाव्रते अनेषणीयम् , आदिशब्दादाकीर्ण विकीर्ण हिरण्यादिकं च गृह्णतः परिग्रहो भवति । षष्ठे' रात्रिभक्तवते - "कप्पो व” त्ति विभक्तिव्यत्ययाद् । अध्यकल्पं भुञ्जीत, "पढम बीया व" त्ति प्रथम-द्वितीयपरीषहातुरो वा रजन्यां भुञ्जीत वा पिबेद्वा, एवं षष्ठव्रतविराधना । ततश्च 'भग्नवतोऽहम्' इति बुद्ध्या मैथुनमपि 'बजेत्' सेवेत, यद्वा योऽद्याप्यपरि णतः स सार्थे व्रजति सति कायिक्यादिनिमित्तमपसृतः सन् काञ्चिदविरतिकामप्यपसृतां विलो20 क्याल्पसागारिके प्रतिसेवेत ॥ ३०४७ ॥ भाविता मूलगुणविराधना । अथोत्तरगुणविराधनां भावयति. रीयादऽसोहि रत्ति, भासाए उच्चसद्दवाहरणं । न य आदाणुस्सग्गे, सोहऍ कायाइ ठाणाई ॥ ३०४८ ॥ रात्रावीर्यादीनां समितीनाम् 'अशोधिः' शोधिन भवति । तत्राचक्षुर्विषयत्वेनेर्यासमितिम् , 25 पथो विप्रणष्टानां साधूनामुच्चशब्देन व्याहरणं कुर्वन् भाषासमितिम् , उपलक्षणत्वादुदकार्दादिकमपश्यन्नेषणासमितिम् , तथाऽपत्युपेक्षिते भूभागे "ठाणाइ'' त्ति स्थान-निषदनादीनि कुर्वन्नादाननिक्षेपसमितिम् , अस्थण्डिले "कायाई" ति कायिक्यादि व्युत्सृजन् उत्सर्गसमितिं च न शोधयति ॥ ३०४८ ॥ एषा सर्वा संयमविराधना । अथात्मविराधनामुपदर्शयति __ वाले तेणे तह सावए य विसमे य खाणु कंटे य । अकम्हाभयं आयसमुत्थं, रत्तिं मग्गे भवे दोसा ॥ ३०४९ ॥ १ रात्रौ गच्छतां संयमविराधना द्विविधा भवति, तद्यथा-मूल कां० ॥ २ तीर्ण 'सान्धकारतया केनाऽपि न दृश्येऽहम्' इति वुद्ध्या गृह्णी कां० ॥ ३°ते सान्धकारतया अने° कां ॥ ४ एतचिह्नगतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ५°भयं अहे उसमु ता० । “अकम्हाभयं अहेतुकं" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ 130 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३०४५-५३ ] .. प्रथम उद्देशः । ८५९ रात्रौ मार्गे गच्छत एते दोषाः- 'व्यालेन' सर्पादिना दश्येत, स्तेनैरुपकरणं संयतो वा हियेत, सिंहादिभिर्वा श्वापदैरुपद्र्येत, 'विषमे वा' निम्नोन्नते प्रपतेत् , स्थाणुना वा कण्टकैर्वा विध्येत, अथवा 'आत्मसमुत्थं' स्तेनादिबाह्यहेतुविरहेण स्वचित्तकल्पनोत्प्रेक्षितमकम्माद्भयं रात्री मार्गे गच्छतो भवेत् ॥ ३०४९ ॥ अथात्रैव द्वितीयपदमाह कप्पइ गिलाणगट्ठा, रत्तिं मग्गो तहेव संझाए। पंथो य पुवदिट्ठो, आरक्खिओं पुव्वभणिओ य ॥ ३०५० ॥ अथ ग्लानः-रोगातः स एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरं नेतव्यः, यद्वा ग्लानः कश्चिदपरत्र ग्रामादौ सञ्जातः तदर्थ तत्र गन्तव्यम् , एवं ग्लानाथ रात्रौ वा सन्ध्यायां वा मार्गो गन्तुं कल्पते । येन च पथा गन्तव्यं स पूर्वमेव-अर्वाग्दिने दृष्टः-प्रत्युपेक्षितो यथा भवति तथा कर्त्तव्यम् । आरक्षिकश्च पूर्वमेव भणितो विधेयः, » यथा-वयं ग्लानकारणेन रात्रौ गमिप्यामः, भव-10 द्भिर्न किमपि च्छलं ग्रहीतव्यम् । एवमुक्ते तेनानुज्ञाते सति गच्छन्ति ॥ ३०५० ॥ गतं मार्गद्वारम् । अथ पथिद्वारमाह दुविहो ये होइ पंथो, छिन्नद्धाणंतरं अछिन्नं च । छिन्नम्मि नत्थि किंची, अछिन्न पल्लीहिं वइगाहिं ॥३०५१॥ द्विविधश्च भवति पन्थाः, तद्यथा-छिन्नाध्वान्तरमच्छिन्नाध्वान्तरं च । छिन्नं-ग्रामादिर-15 हितमध्धलक्षणं यदन्तरम्-अपान्तरालं तत् छिन्नाध्यान्तरम् , तद्विपरीतमच्छिन्नाध्वान्तरम् । तत्र च्छिन्ने पथि ग्राम-नगर-पल्ली-बजिकानां किञ्चिदेकतरमपि नास्ति, सर्वथैव शून्यत्वात् । यः पुनरच्छिन्नः पन्थाः स पल्लीभिर्वजिकाभिर्वा युक्तो भवति ॥ ३०५१ ॥ छिन्नेण अछिन्नेण व, रत्तिं गुरुगा य दिवसतो लहुगा। उद्दद्दरे पवजण, सुद्धपदे सेवती जं च ॥ ३०५२ ॥ अनन्तरोक्तेन च्छिन्नेनाच्छिन्नेन वा पथा बनतो रात्रौ चतुर्गुरुकाः, दिवा गच्छतश्चतुर्लघुकाः।। अत एव यत्रो दराः पूर्यन्ते तत्र यद्यध्वानं प्रतिपद्यन्ते तदा शुद्धपदेऽप्येतत् प्रायश्चित्तम् , यच्चाकल्पनीयादिकं किमपि सेवते तन्निप्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तमापद्यते ॥ ३०५२ ॥ इदमेवे स्फुटतरमाहउद्दद्दरे सुभिक्खे, खेमे निरुबवे सुहविहारे । 23 जइ पडिवञ्जति पंथं, दप्पेण परं न अन्नेणं ॥ ३०५३ ॥ 'ऊर्द्धदरे' अनन्तरोक्ते 'सुभिक्षे' सुलभभक्षे 'क्षेमे' स्तेन-परचक्रादिभयरहिते 'निरुपद्रवे' अशिवायुपद्रववर्जिते 'सुखविहारे' सुखेनैव मासकल्पविधिना विहर्तुं शक्ये, एवंविधे जनपदे सति यदि पन्थानं छिन्नमच्छिन्नं वा प्रतिपद्यते । कथम् ? इत्याह-'परं' केवलं 'दर्पण' देश. दर्शनादिनिमित्तं न 'अन्येन' ज्ञानादिना पुष्टालम्बनेन ॥ ३०५३ ॥ ततः किं भवति ? इत्याह--30 आणा न कप्पइ त्ति य, अणवत्थ पसंगताए गणणासो । १ इतोऽग्रे ग्रन्थाग्रं ५५०० इति भा० विना ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः का. एव वर्तते ॥ ३°काः प्रायश्चित्तम् , दिवसतो गच्छ° कां ॥ ४°व स्पष्टतर भा०॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ बसणादिसमावण्णे, मिच्छत्ताराहणा भणिया ॥ ३०५४ ॥ 'आज्ञा' 'न कल्पतेऽध्वानं गन्तुम्' इति लक्षणा भगवतां विराधिता भवति । 'अनवस्था' 'यद्यप बहुश्रुतोऽप्येवमध्यानं प्रतिपद्यते ततः किमहं न प्रतिपद्ये ?' एवमनवस्था । अतः 'प्रसङ्गेन' परम्परया सर्वस्यापि गणस्य 'नाशः' चारित्रव्यवच्छेदः प्रामोति । तथाऽध्यानं प्रतिपन्नः सन् 5 यदा 'व्यसनं' द्रव्याद्यापदम् आदिशब्दादपरं वा कमपि प्रत्यपायं समापन्नः-प्राप्तो भवति तदा मिथ्यात्वस्याराधना-अनुसजना भणिता । तथाहि-साधूनध्वनि व्यसनादिसमापन्नान् दृष्ट्वा लोको ब्रूयात् -- अहो ! अमीषां तीर्थकरेणैतदपि न दृष्टम् , यदेवंविधो बहुप्रत्य पायः पन्था न प्रतिपत्तव्यः ॥ ३०५४ ॥ अथ विराधना भाव्यते, सा च द्विधा-आत्मनि संयमे च । तत्रात्मविराधनामाह10 वाय खलु वाय कंडग, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु । वाले सावय तेणे, एमाइ हवंति आयाए । ३०५५ ।। अध्वानं गच्छतः 'खलुकाः' जानुकादिसन्धयो वातेन गृह्यन्ते, “वाय कंडय" ति जङ्घायां वातेन कण्डकान्युत्तिष्ठन्ते, विषमे वा स्थाणौ वा 'आपतनं' प्रम्खलनं भवति, कण्टका वा पादयोर्लगेयुः, व्याला वा श्वापदा वा स्तेना वा उपद्रवेयुः । एवमादिका आत्मविराधना मन्तव्या 16 ।। ३०५५ ॥ संयमविराधनामाह छकायाण विराहण, उवगरणं बाल-वुड्डू-सेहा य। पढमेण व विइएण व, सावय तेणे य मिच्छा य ॥ ३०५६ ॥ अस्थण्डिले स्थान-निषदनादि कुर्वन् पृथिव्यादीनां षण्णां कायानां विराधनां करोति । 'उपकरणम्' अध्वप्रायोग्यं नन्दीप्रतिग्रहादि यदि गृह्णन्ति ततो भारेण वेदनादयो दोषाः । अथ 20 न गृह्णन्ति तत उपकरणेन विना यत् प्राप्नुवन्ति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । बाल-वृद्ध-शैक्षाश्च प्रथ मेन वा द्वितीयेन वा परीषहेण परिताप्यन्ते । साधयो वा श्वापदैर्भक्ष्यन्ते । स्तेनैरुपकरणमपहियते । म्लेच्छा वा क्षुल्लकादीनपहरेयुर्जीविताद्वा व्यपरोपयेयुः ॥ ३०५६ ॥ ___अथोपकरणपदं विशेषतो व्याख्यानयति उवगरणगेण्हणे भार वेदणा तेण गुम्मि अहिगरणं । 23 रीयादि अणुवओगो, गोम्मिय भरवाह उड्डाहो ॥ ३०५७ ॥ ___ उपकरणं-नन्दीप्रतिग्रहा-ऽध्वकल्प-गुलिकादि यदि गृह्णन्ति ततो भारेण महती वेदना जायते । बहूपकरणाश्च स्तेनानां गौलिमकानां वा गम्या भवन्ति । हृतेषु चोपकरणेप्वसंयतेन परिभुज्यमानेष्वधिकरणम् । भाराकान्तानां चेर्यादावनुपयोगो भवति । बहूपकरणान् वा दृष्ट्या 'गौल्मिकाः' स्थानपाला उपद्रवेयुः । लोको वा यात्---अहो ! बहुलोभा भारवाहाश्चैते एवमुड्डाहो 80 भवति । अथैतदोषभयादुपकरणमुज्झन्ति ततो यत् तेन विना प्रामुवन्ति तन्निप्पन्नम् ॥३०५७॥ १°नादोषा भवन्ति ॥ ३०५५ ॥ का० ॥ २र्यादौ नोपयोगो भवति । बहुपकरणान् वा दृष्ट्रा गौलिमका ब्रुवते-अहो ! भा० ॥ ३ नं प्रायश्चित्तम् ॥ ३०५७ ॥ तथा-चम्म कां ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३०५४ - ६२] प्रथम उद्देशः । चम्मकरग सत्थादी, दुलिंग कप्पे अ चिलिमिणिअगहणे । तस विपरिणमुड्डाहो, कंदाइवधो य कुच्छा य ।। ३०५८ ।। इह पूर्वार्द्ध-पश्चार्द्धपदानां यथासत्येन योजना कार्या । तद्यथा – चर्मकरकं यदि न गृह्णन्ति ततः ‘त्रसानां' पूतरकादीनां विराधना भवति । शस्त्रकोशस्य आदिशब्दाद् गुलिका - खोलादीनामग्रहणे कण्टकादिशल्यविद्धानां शैक्षादीनां च विपरिणामो भवति । “दुलिंग" ति लिङ्गद्वयं-गृहिलिङ्गं अन्यपाषण्डिकलिङ्गं च, तयोरुपकरणेऽगृह्यमाणे खलिङ्गेनैव रात्रौ भक्तग्रहणे पिशितादिग्रहणे वा उड्डाहः स्यात् । अध्वकल्पं विना कन्दमूलादीनां वधो भवति । चिलिमिलिकाया अग्रहणे मण्डल्या भुञ्जानान् विलोक्य जनः 'कुत्सां ' जुगुप्सां कुर्यात् ॥ ३० ५८ ॥ अष्परिणामगमरणं, अइपरिणामा य होंति नित्थका । 1 निग्गय गहणे चोड्य, भणति तइया कहं कप्पे ।। ३०५९ ।। 1 तत्राध्वनि गच्छतामेषणीयालाभे पञ्चकादियतनयाऽनेषणीयमपि गृह्यते तच्चापरिणामको न गृह्णाति, अगृह्णानस्य च तस्य मरणं भवेत् । ये पुनरतिपरिणामकास्तेऽकल्पनीयग्रहणं दृष्ट्वा 'नित्थक्का:' निर्लज्जा भवन्ति, ततश्चाध्वनो निर्गताः सन्तोऽकल्प्यग्रहणं कुर्वाणा गीतार्थैः प्रतिनोदिताः–‘आर्याः ! मा गृह्णीध्वमकल्प्यम्' ततस्ते ब्रुवते - तदाऽध्वनि वर्त्तमानानां 'कथमकल्प्यत ?' कथं कल्पनीयमासीत् ? || ३०५९ ॥ तेणभयोदककजे, रतिं सिग्घगति दूरगमणे य । वहणावहणे दोसा, बालादी सल्लविद्धे य || ३०६० ॥ स्तेनभये दण्डक चिलिमिलिकां विना, उदककार्ये चर्मकरकं गुलिकां खोलका नि वा विना यत् प्राप्नुवन्ति - तेन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । रात्रौ सार्थवशेन शीघ्रगतौ दूरगमने बोपस्थिते तलिकाभिर्विना बाल-वृद्धादयः प्रपतन्ति तान् यदि कापोतिकया वहन्ति तदा स्वयं परिताप्यन्ते, 20 अथ कापोतिकाया अभावान्न वहन्ति ततस्ते परिताप्यन्ते । शल्यविद्धाः शस्त्रकोशकेन विना शल्ये ऽनुद्धियमाणे यत् परितापनादिकं प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नम् ॥ ३०६० ॥ यतएवमतो निष्कारणेऽध्वा न प्रतिपत्तव्यः । कारणे तु प्रतिपद्यमानानामयं क्रमः -- वियपय गम्ममाणे, मग्गे असतीय पंथें जतणाए । परिपुच्छिऊण गमणं, अहिणें पल्लीहिं वइगाहिं ॥ ३०६१ ।। 25 द्वितीयपदे अध्वनि गम्यमाने प्रथमं मार्गेण, मार्गस्यासति पथाऽपि यतनया गन्तव्यम् । तत्र च जनं परिपृच्छ्य य: पल्लीभिर्वजिकाभिर्वा अच्छिन्नः पन्थास्तेन गमनं विधेयम् । तदभावे छिन्नेनापि ।। ३०६१ ।। अथ यैः कारणैर्गन्तुं कल्पते तानि दर्शयति असिवे ओमोदरिए, रायहुट्ठे भये व आगाढे । गेलन उत्तिमट्टे, णाणे तह दंसण चरिते ॥ ३०६२ ॥ १ 'अध्वकल्पं ' वक्ष्यमाणलक्षणं विना कां० ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ ३ पदे वक्ष्यमाणैः कारणैः अध्व' कां० ॥ ८६१ ४ °पि वक्ष्यमाणलक्षणया यत कां० ॥ 10 15 30 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्यप्रकृते सूत्रम् ४६ आगाढशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-आगाढेऽशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे होधिक-स्तेनादिभये वा; यद्वा आगाढं नाम-शैक्ष-सागारिकादिकमन्यतरकारणम् , तथा ग्लान उत्तमार्थप्रतिपन्नो वा कचिद् देशान्तरे श्रुतोऽपान्तराले च तत्र च्छिन्नः पन्था अतस्तत्प्रतिचरणार्थ गन्तव्यम् , उत्तमार्थ वा प्रतिपित्सुः संविग्नगीतार्थसमीपे च्छिन्नेनापि पथा गच्छति । 'ज्ञानम्' आचारादि 5 'दर्शन' दर्शनविशुद्धिकारकाणि शास्त्राणि तदर्थमध्वानं गच्छेत् । चारित्रार्थ नाम-यत्र देशे स्त्रीदोषा एषणादोषा वा भवन्ति तं परित्यज्य देशान्तरं गन्तव्यम् ।। ३०६२ ॥ एएहि कारणेहिं, आगाटेहिं तु गम्ममाणेहिं । उवगरण पुव्यपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्यं ॥ ३०६३ ॥ 'एतैः' अशिवादिभिः कारणैरागाढेरेव 'गम्यमानैः' प्राप्यमाणैरुपकरणमध्वप्रायोग्यं गृहीत्वा 10पूर्व-गमनात् प्राक् प्रत्युपेक्षितः-सम्यक् शुद्धाशुद्धतया निरूपितो यः सार्थस्तेन सह गन्तव्यम् ॥ ३०६३ ॥ अथेदमेव स्पष्टयति असिवे अगम्ममाणे, गुरुगा नियमा विराहणा दुविहा । तम्हा खलु गंतव्यं, विहिणा जो वनिओ हिट्ठा ॥३०६४ ॥ अशिवे समुत्पन्ने सति यदि न गम्यते ततश्चत्वारो गुरवः । तत्र च तिष्ठतां नियमाद 15 द्विविधा' संयमा-ऽऽत्मनोः अथवाऽऽत्मनः परस्य चेति विराधना । यत एवं तस्मात् 'खलु' निश्चितं विधिना गन्तव्यम् । कः पुनर्विधिः ? इत्याह-~-यः 'अधस्ताद' ओपनियुक्तो"संवच्छरबारसरण, होही असिवं ति ते तओ निति ।" (भा० गा० १५) इत्यादिगाथाभिवर्णितः । शेषाण्यप्यवमौदर्यादीनि पदानि यथैवौधनियुक्तौ तथैव वक्तव्यानीति ॥ ३०६४ ॥ उवगरण पुधभणियं, अप्पडिलेहिते चउगुरू आणा । ओमाण पंत सत्थिय, अतियत्तिय अप्पपत्थयणो ॥ ३०६५ ॥ उपकरणं 'पूर्वभणितं' रात्रिभक्तसूत्रोक्तं नन्दीभाजन-» चर्मकरकादिकं तदगृहानस्य चतुर्गुरुकाः । सार्थं वा यदि न प्रत्युपेक्षन्ते तदापि चतुर्गुरवः आज्ञादयश्च दोषाः । तथा सार्थः कदाचिदवमानेन स्वपक्ष-परपक्षकृतेनातीवोद्वेजितो भवेत् , यद्वा साथिकाः 'आतियात्रिका वा' सार्थचिन्तकाः प्रान्ता भवेयुः, 'अल्पपश्यदनो वा' स्वल्पशम्बलः स सार्थः ॥ ३०६५॥ 25 अत एतदोषपरिहारार्थ सार्थः प्रत्युपेक्षितव्यः । कथं पुनः ? इति अत्रोच्यते राग-दोस विमुको, सत्थं पडिलेहें सो उ पंचविहो । भंडी बहिलग भरवह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो ॥ ३०६६ ॥ 'राग-द्वेषविमुक्तो नाम' यस्य गन्तव्ये न रागो न वा द्वेषः स सार्थ प्रत्युपेक्षते । स च सार्थः पञ्चविधः, तद्यथा-भण्डी-गन्त्री तदुपलक्षितः प्रथमः सार्थः। बहिलकाः--करभी-वेसर-बलीवर्द30प्रभृतयः तदुपलक्षितो द्वितीयः । भारवहाः-पोट्टलिकावाहकास्तेषां सार्थः तृतीयः । औद १ °वे आगाढेऽवमौदर्य आगाढे राजद्विष्टे आगाढे वोधिक-स्तेनादिभये वा छिन्नेनापि पथा गन्तव्यम् । यद्वा आगाढं नाम कां० ॥ २ ग्यं नन्दीभाजनादिकं प्रागुक्तनीत्या गृही कां ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे. नाति ॥ ४ सारक्षकाः कां० ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाप्यगाथाः ३०६३-७०] प्रथम उद्देशः ।, ८६३ रिका नाम-यत्र गताः तत्र रूपकादिकं प्रक्षिप्य समुद्दिशन्ति, समुद्देशनानन्तरं भूयोऽप्यग्रतो गच्छन्ति, एष चतुर्थः । कार्पटिकाः-भिक्षाचरास्ते भिक्षां भ्रमन्तो व्रजन्ति तेषां सार्थः पञ्चमः ॥ ३०६६ ॥ अथैनामेवं गाथां विवृणोति गंतव्यदेसरांगी, असत्थ सत्थं पि कुणति जे दोसा। इअरो सत्थमसत्थं, करेइ अच्छंति जे दोसा ॥ ३०६७ ॥ यो गन्तव्ये देशे रागी स सार्थप्रत्युपेक्षकः कृतोऽसार्थमपि सार्थ करोति, ततः कुसार्थेन गच्छतां ये दोषास्तानापद्यन्ते, तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तं सूरयः प्रामुवन्तीति भावः । » 'इतरो . नाम' गन्तव्यदेशद्वेषवान् स सार्थमप्यसार्थ करोति, ततस्तत्राशिवादिषु सन्तिष्ठमानानां ये दोषास्तान प्राप्नुवन्ति । । तस्माद् राग-द्वेषविमुक्तः सार्थप्रत्युपेक्षकः सूरिभिः प्रस्थापनीयः ॥ ३०६७॥ अथ सार्थपञ्चकेऽपि गमनक्रमं गुणागुणविभागं च दर्शयति-- उप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादिसंभवो होजा। परिवहणं दोसु भवे, वालादी सल्ल गेलने ॥३०६८॥ 'उत्परिपाट्या' यथोक्तक्रममुल्लङ्य यदि सार्थेन सह गच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः । किमुक्तं भवति ?–भण्डीसार्थे विद्यमाने यदि बहिलकसार्थेन गच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः, अथ भण्डीसार्थो न प्राप्यते ततो बहिलकसार्थेनापि गन्तव्यम् , तत्र विद्यमाने भारवहसार्थेन गच्छन्ति 15 तदापि चतुर्गुरवः, एवं भारवहादिसार्थेप्यपि भावनीयम् । अत्र चायेषु 'त्रिषु' भण्डी-बहिलकभार्रवह सार्थेषु काञ्जिकोंदिपानकानां सम्भवो भवेत् , 'द्वयोस्तु' भण्डी-बहिलकसार्थयोर्वालानाम् आदिशब्दाद् वृद्धानां दुर्बलानां शल्यविद्धानां ग्लानानां च परिवहनं भवेत् ॥ ३०६८॥ किं पुनः सार्थे प्रत्युपेक्षणीयम् ? इत्याह-- सत्थं च सत्थवाह, सत्थविहाणं च आदियत्तं च । 20 दव्यं खेत्तं कालं, भावोमाणं च पडिलेहे ॥ ३०६९॥ . सार्थं सार्थवाहं सार्थविधानम् आतियात्रिकं द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावम् अवमानं च प्रत्युपेक्षेत इति द्वारगाथास पार्थः ॥ ३०६९ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति . सत्थि ति पंच भेया, सत्थाहा अट्ठ आइयत्तीया । सत्थस्स विहाणं पुण, गणिमाई चउविहं होइ ॥ ३०७० ॥ सार्थ इति पदेन भण्डीसार्थादयः पूर्वोक्ताः पञ्च भेदा गृहीताः । सार्थवाहाः पुनरष्टौ, आतियात्रिका अप्यष्टौ, उभयेऽप्युत्तरत्र वश्यन्ते । सार्थविधानं पुनर्गणिमादिभेदाच्चतुर्विधं भवति। १°व नियुक्तिगाथां कां० ॥ २ रागो भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ ३ यस्य गन्तव्य देश रागः स सार्थ भा० ॥ ४-५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० त. 3. नान्ति ॥ ६ रवाह का• विना ॥ ७ रवाह' क•ि ॥ ८ 'रवाह' मो० ले ॥ ____९ कायामोष्णोदकादि क्रा० ॥ १० कथं पुनः सार्थःप्रत्युपेक्षणीयः? भा०॥ ११ ताः, ते च विधिना प्रतिलेखनीयाः । तथा सार्धवा" का ॥ १२ 'आतियात्रिकाच' सार्थरक्षकाः तेऽयष्टी, उभयेषामपि भेदा वक्ष्यमाणलक्षणाः पतिलेखनीयाः। सार्धविधानं कां। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ तत्र गणिमं - यदेकव्यादिसङ्ख्यया गणयित्वा दीयते, यथा - हरीतकी - पूगफलादि । धरिमं - यत् तुलायां धृत्वा दीयते, यथा - खण्ड-शर्करादि । मेयं यत् पलादिना सेतिकादिना वा मीयते, यथा — घृतादिकं तन्दुलादिकं वा । पारिच्छेद्यं नाम - यच्चक्षुषा परीक्ष्यते, यथावस्त्र - रत्न - मौक्तिकादि । एतच्चतुर्विधमपि द्रव्यं भण्डीसार्थादिषु प्रत्युपेक्षणीयम् । तथा द्रव्य-क्षेत्र5 काल - भावैरपि सार्थः प्रत्युपेक्षणीयः ३०७० ॥ तत्र द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणां तावदाह- अनुरङ्गा नाम - घंसिकास्तदादीनि यानानि गवेषणीयानि, आदिशब्दात् शकटादिपरिग्रहः । वाहनानि 'गुण्ठादीनि' गुण्ठो नाम - घोटको महिषो वा, आदिशब्दात् करभ-वृषभादिपरि10 ग्रहः । एतेषां यानानां वाहनानां चानुज्ञापना कर्त्तव्या, यथा - अस्माकं कोऽपि बालो वृद्धो दुर्बलो ग्लानः शल्यविद्धो वा गन्तुं न शक्नुयात् स युष्माभिरनुरङ्गादौ वा तुरङ्गादौ वा आरोहयितव्यः । यदि ‘एवम् धर्मः' इति कृत्वाऽनुजानन्ति ततः सुन्दरम् । अथ नानुजानन्ति ततः 'भृत्या' मूल्येनापि यथाऽऽरोहयन्ति तथा प्रज्ञापयितव्याः । अथ मूल्येनापि बालादीनामारोहणं नेच्छन्ति ततः ‘प्रतिक्रुष्टाः' प्रतिषिद्धाः, तैः सह न गन्तव्यमित्यर्थः ॥ ३०७१ ॥ " अपि च--- 15 अणुरंगाई जाणे, गुंठाई वाहणे अणुण्णवणा । धम्मुत्ति वा भई व बालादि अणिच्छे पडिकुट्ठा ॥ ३०७१ ॥ दंतिक- गोर- तिल-गुल - सप्पिएमा दिभंडभरिए । अंतरवाघातमिव तं दितिहरा उ किं देति ॥ ३०७२ ॥ मोदक-मण्डका ऽशोकवर्त्यादिकं यद् बहुविधं दन्तखाद्यकं तद् दन्तिकम्, “गोर” त्ति गोधूमाः, 'तैल-गुडौ' प्रतीतौ, 'सर्पिः' घृतम्, एवमादीनां भक्ष्यभाण्डानां यत्र शानि 30 भृतानि प्राप्यन्ते स सार्थो द्रव्यतः शुद्धः । यत एवमादिभाण्डभृतेषु शकटादिषु सत्सु यद्यपि अन्तरा - अपान्तराले व्याघातःतः - वर्षा - नदीपूरादिक उत्पद्यते तथापि 'तद्' दन्तिकादिकं ते सार्थिकाः स्वयमपि भचयन्ति साधूनामपि च प्रयच्छन्ति । 'इतरथा' तेषामभावे किं ददति ?, न किमपीत्यर्थः ॥ ३०७२ || व्याघातकारणान्येव दर्शयति वासेण नदीपूरेण वा वि तेणभय हत्थि रोधे य । खोभे व जत्थ गम्मति, असिवं वेमादि वाघाता ॥ ३०७३ || सार्थस्य गच्छतोऽपान्तराले आर्गेढवर्षेण वा नदीपूरेण वा बहुतरदिवसान् व्याघात उपस्थितः, अग्रतो वा स्तेनानां भयमुत्पन्नम् दुष्टहस्तिना वा मार्गों निरुद्ध:, 'यत्र वा' नगरादौ 'गम्यते' गन्तुमिष्यते तत्र रोधको वा राज्यक्षोभो वा अशिवं वा उत्पन्नम्, एवमादयो गमनस्य व्याघाता भवन्ति । तेषूपस्थितेषु यद्यपान्तराले सार्थः सन्निवेशं कृत्वा तिष्ठति तथापि दन्तिका - ३० दिबहुविधखाद्यद्रव्यभृतासु गन्त्रीषु सुखेनैव साधवः संस्तरन्ति । अतस्तेन सह गन्तव्यम् ॥ ३०७३ ॥ न पुनरीदृशेन 25 १ 'भ-हस्त्यादिपरि° भा० ॥ २एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्त्तते ॥ ३°न्तिकादि' मा० कां० ॥ ४ 'गाढं वर्ष पतितुमारब्धम्, चतुर्मासवाहिनी वा नदी पूरेण समायाता, अग्र० भा० ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६५ भाष्यगाथाः ३०७१-७७] प्रथम उद्देशः । कुंकु अगुरुं पत्तं, चोयं कत्थूरिया य हिंगुं च । संखग-लोणभरितेण, न तेण सत्थेण गंतव्वं ॥ ३०७४ ॥ ___ कुंकुमं अगुरुः तगरपत्रं "चोयं" ति त्वक् कस्तूरिका हिङ्गुरेवमादिकमखाद्यद्रव्यं यत्र भवति, यश्च शङ्खन लवणेन वा भृतः-पूर्णः, तत्रान्तरा व्याघाते समुत्पन्ने निष्ठितशम्बलाः सार्थिकाः किं प्रयच्छन्तु ? यत एवमतः 'तेन' तादृशेन सार्थेन सह न गन्तव्यम् ॥ ३०७४ ॥ गता द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणा । अथ क्षेत्र-काल-भावैस्तामाह खेत्ते जं वालादी, अपरिस्संता वयंति अद्धाणं । काले जो पुव्वण्हे, भावें सपक्खादणोमाणं ॥ ३०७५ ॥ यावन्मात्रमध्वानं बाल-वृद्धादयोऽपरिश्रान्ताः 'बजन्ति' गन्तुं शक्नुवन्ति तावन्मानं यदि सार्थों व्रजति तदा स सार्थः 'क्षेत्रे' क्षेत्रतः शुद्धः । तथा यः सूर्योदयवेलायां प्रस्थितः पूर्वाह्ने तिष्ठति 10 स कालतः शुद्धः । यत्र तु खपक्ष-परपक्षभिक्षाचरैरनवमानं स भावतः शुद्धः ॥ ३०७५ ॥ एकिक्को सो दुविहो, सुद्धो ओमाणपेल्लितो चेव ।। मिच्छत्तपरिग्गहितो, गमणाऽऽदियणे य ठाणे अ॥ ३०७६ ॥ भण्डीसार्थ-बहिलकसार्थयोर्मध्यादेकैको द्विविधः-शुद्धोऽशुद्धश्च । शुद्धो नाम-यो नावमानप्रेरितः, अवमानप्रेरितोऽशुद्धः । तथा सार्थवाह आदियात्रिको वा यो वा तत्र प्रधानः स यदि 15 मिथ्यादृष्टिस्तदा स सार्थो मिथ्यात्वपरिगृहीत इति कृत्वा ना गन्तव्यः । “गमणाऽऽइयणे य ठाणे य" ति गमने यः सार्थः मृदुगतिः अच्छिन्नेन वा पथा व्रजति, आदनं-भोजनं तद्वेलायां यस्तिष्ठति, 'स्थाने च' स्थण्डिले यो निवेशं करोति ईदृशः शुद्धः ॥ ३०७६ ॥ अथ खपक्ष-परपक्षावमानं व्याख्यानयति समणा समणि सपक्खो, परपक्खो लिंगिणो गिहत्था य । 20 आया-संजमदोसा, असईय सपक्खवजेण ॥ ३०७७ ॥ स्वपक्षः श्रमणाः श्रमण्यश्च द्रष्टव्याः । परपक्षो लिङ्गिनो गृहस्थाश्च । इह लिङ्गिनोऽन्यतीथिका द्रष्टव्याः । ईदृशेन भिक्षाचरवर्गेणाकीर्णे पर्याप्तमलभमानानामात्म-संयमदोषा भवन्ति । तत्रात्मदोषाः परितापनादिना, संयमदोषास्तु कन्दादिग्रहणेनेति । अथानवमानं सर्वथैव न प्राप्यते ततोऽनवमानस्यासति 'स्वपक्षवर्जन' स्वपक्षावमानं वर्जयित्वा यत्र परपक्षावमानं भवति 25 तेन गन्तव्यम् । तत्र जनो भिक्षाग्रहणे विशेषं जानाति-इमे श्रमणाः, एते तु तच्चन्निकादय इति ॥ ३०७७ ॥ “गमणाऽऽदियणे य ठाणे य" त्ति पदत्रयं व्याचष्टे१°म तगरं पत्तं ता०॥ २ यत्र कुङ्कमा-गुरु-तगरपत्र-त्व-कस्तूरिका-हिङ्ग्वादिकमखाद्य भा० ॥ ३°वन्तीति भावः, ताव भा० ॥ ४सार्थः क्षेत्रशद्धः कां. विना ॥ ५तु 'स्वपक्षाद्यनवमानं स्वपक्ष का ६ शुद्धो मन्तव्यः ॥ ३०७५ ॥ अथावमानप्रत्युपेक्षणां भावयति-एकिको कां ॥ ७°सार्थादीनामेकैकः सार्थो द्विवि° भा० । “एकेको ति भंडिओ बहिलगो य, एस दुविहो वि सुद्धो असुद्धो य” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ८°नुमन्तव्यः भा० मो० ले० ॥ · Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ गमणं जो जुत्तगती, वइगा-पल्लीहिं वा अछिण्णेणं । थंडिल्लं तत्थ भवे, भिक्खग्गहणे य वसही य ।। ३०७८ ॥ आदियणे भोत्तूणं, ण चलति अवरण्हें तेण गंतव्यं । तेण परं भयणा ऊ, ठाणे थंडिल्लठाई उ ॥ ३०७९ ॥ 5 गमनशुद्धो नाम यः सार्थः ‘युक्तगतिः' मन्दगमनः, न शीघ्रं गच्छतीत्यर्थः; यो वा बजि. का-पल्लीभिरच्छिन्नः पन्थास्तेन गच्छति, यतस्तत्राच्छिन्ने पथि स्थण्डिलं भवति, वजिकादौ च सुखेनैव भिक्षाग्रहणं वसतिश्च प्राप्यते ॥ ३०७८॥ ___ आदनं-भोजनं तद्वेलायां यस्तिष्ठति, भुक्त्वा चापराह्ने न चलति' तेन सह गन्तव्यम् । "तेण परं भयणा उ” त्ति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया, 'ततः परं' भोजनादनन्तरमपराह्ने 10 यश्चलति तत्र भजनी कर्त्तव्या-यदि सर्वेऽपि साधवः समर्थास्तदानीं गन्तुं ततः शुद्धः, अथ न शक्नुवन्ति ततोऽशुद्ध इति । स्थानं नाम-गमनादुपरम्य निवेशं कृत्वा क्वचित् प्रदेशेऽवस्थानम् , तत्र यः स्थण्डिलस्थायी स शुद्धः, अस्थण्डिले तिष्ठन्नशुद्ध इति ॥ ३०७२ ॥ अथ यदुक्तम् ‘अष्टौ सार्थवाहा आदियात्रिकाश्च' (गा० ३०७० ) इति तदेतद् व्याख्यानयति पुराण सावग सम्मदिहि अहाभद्द दाणसड्ढे य । 15 अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अण्णतित्थी य ॥ ३०८० ॥ 'पुराणः' पश्चात्कृतः १ 'श्रावकः' प्रतिपन्नाणुव्रतः २ 'सम्यग्दृष्टिः' अविरतसम्यग्दर्शनी ३ 'यथाभद्रकः' सामान्यतः साधुदर्शनपक्षपाती ४ 'दानश्राद्धः' प्रकृत्यैव दानरुचिमान् ५ अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः ६ अभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः ७ अन्यतीर्थिकः ८ एते त्रयोऽपि प्रतीताः । एवमष्टौ सार्थाधिपतयः । आदियात्रिका अप्येवमेवाष्टौ भवन्ति ॥ ३०८० ॥ 20 साम्प्रतमध्वानं प्रतीत्य भङ्गानुपदर्शयति सत्थपणए य सुद्धे, य पेल्लिओ कालऽकालगम-भोगी। कालमकालट्ठाई, सत्थाहऽहाऽऽदियत्तीया । ३०८१ ॥ सार्थपञ्चके भण्डीसार्थो बहिलकसार्थश्चावमाने शुद्धो वा स्यात् प्रेरितो वा, यः शुद्धस्तेन गन्तव्यम् । तथा कालगामिनोऽकालगामिनो वा कालभोजिनोऽकालभोजिनो वा कालनिवेशि25 नोऽकालनिवेशिनो वा स्थण्डिलस्थायिनोऽस्थण्डिलस्थायिनो वा ते पञ्चापि सार्था भवेयुः । तथा अष्टौ सार्थवाहा अष्टौ चाऽऽदियात्रिकाः ॥ ३०८१ ॥ एंभिः पदैः कियन्तो भङ्गा उत्तिष्ठन्ते ? इत्याह-» एतेसिं तु पयाणं, भयणाएँ सयाइँ एक्कपनं तु । वीसं च गमा नेया, एत्तो य सयग्गसो जयणा ॥ ३०८२ ॥ १°च्छति स गमनशुद्धो मन्तव्यः, यत' कां ॥ २°ति स भोजनशुद्धः कां० ॥ ३ मो. ले० विनाऽन्यत्र-ना कार्या-यदि भा० त० डे० । °ना कार्या, तुशब्दः पादपूरणे, यदि कां० ॥ ४°श्वकं शुद्धमन्वेष्यम् , कथम् ? इत्याह-'अप्रेरितं' सपक्ष-परपक्षाभ्यामनुढेजितम् , तथा काल° भा०॥ ५ - एतन्मध्यगतमवतरणं भा० नास्ति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६७. भाष्यगाथाः ३०७८-८६] प्रथम उद्देशः । एतेषां पदानां संयोगेन 'भजनायां' भङ्गरचनायां विधीयमानायामेकपञ्चाशत्सङ्ख्यानि शतानि विशतिश्च 'गमाः' भङ्गका ज्ञेयाः । “एत्तो य सयग्गसो जयण" ति आपत्वाद् एषु' सार्थेषु शुद्धा-ऽशुद्धेषु सार्थवाहा-ऽऽदियात्रिकेषु च भद्रक-प्रान्तेषु अल्पबहुत्वचिन्तायां 'शतायशः' शतसङ्ख्यभेदा यतना भवति ॥ ३०८२ ॥ अमुमेवार्थ भाप्यकारः प्रकटयन्नाह कालुट्ठाई कालनिवेसी, ठाणहाती य कालभोगी य । उग्गतऽणत्थमि थंडिल, मज्झण्ह धरंत सूरे य ॥ ३०८३ ॥ इह पूर्वार्द्ध-पश्चार्द्धपदानां यथासङ्ख्यं योजना, तद्यथा-कालोत्थायी नाम स सार्थों य उद्गते सूर्ये उत्तिष्ठते, चलतीत्यर्थः । कालनिवेशी योऽनस्तमिते रवौ प्रथमायां वा पौरुष्यां निवेशं कृत्वा तिष्ठति । स्थानस्थायी यः स्थण्डिले वजिकादौ तिष्ठति । कालभोजी यो मध्याहे सूर्य वा ध्रियमाणे भुते ॥ ३०८३ ॥ . 10 एतेसिं तु पयाणं, भयणा सोलसविहा उ कायव्या । सत्थपणएण गुणिया, असिती भंगा तु णायव्या ॥ ३०८४॥ 'एतेषां' चतुर्णा पदानां षोडशविधा भजना कर्तव्या, तद्यथा-कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी कालभोजी १ कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी अकालभोजी २ कालोत्थायी कालनिवेशी अस्थानस्थायी कालभोजी ३ कालोत्थायी कालनिवेशी अस्थानस्थायी अकालभोजी 15 ४ । एवमकालनिवेशिपदेनापि चत्वारो भङ्गा अवाप्यन्ते, लब्धा अष्टौ भङ्गाः । एतेऽकालोत्थायिपदेनाप्यष्टौ प्राप्यन्ते, जाताः षोडश भङ्गाः । एते च सार्थपञ्चकेऽपि प्राप्यन्त इति पञ्चभिर्गुण्यन्ते, गुणिताश्चाशीतिर्भङ्गका भवन्ति ॥ ३०८४ ॥ - सत्थाह अट्ठगुणिया, असीति चत्ताल छस्सता होति । ते आइयत्तिगुणिया, सत एकावण्ण वीसहिया ॥ ३०८५॥ 30 पूर्वलब्धा अशीतिभङ्गकाः प्रतिसार्थवाहं प्राप्यन्ते इति कृत्वा अशीतिरष्टभिः सार्थवाहेगें णिताः षट् शतानि चत्वारिंशानि भवन्ति । एतानि चाष्टभिरादियात्रिकैर्गुण्यन्ते जातानि भङ्गकानामेकपञ्चाशच्छतानि विंशत्यधिकानि । एषामन्यतरस्मिन् साथै यथायोगमल्पबहुत्वं परिभाव्य यत्र बहुतरा गुणा भवन्ति तमभिरोच्य गुरुपादमूलमागत्य सार्थप्रत्युपेक्षका आलोचयन्ति ॥ ३०८५ ॥ अथ सार्थवाहस्यानुज्ञापनायां विधिमाह दोण्ह वि चियत्त गमणं, एगस्सऽचियत्त होति भयणा उ । अप्पत्ताण णिमित्तं, पत्ते सत्थम्मि परिसाओ॥ ३०८६ ॥ यत्रैकः सार्थवाहस्तंत्र तमनुज्ञापयन्ति, ये वा प्रधानपुरुषास्तेऽनुज्ञापयितव्याः । अथ द्वौ. सार्थाधिपती ततो द्वावप्यनुज्ञापयितन्यौ, यदि प्रीतिकं ततो गमनं कर्तव्यम् । अथैकस्याप्रीतिकम् .. १ 'विंशतिश्च' विंशत्यधिकानि 'गमाः' कां०॥ २°ध्याह्नवेलायां सूर्ये वा 'ध्रियमाणे' अनस्तमयमाने भु को० ॥ ३ °धा' षोडशभङ्गप्रमाणा भज° का० ॥ ४जी ४। एते कालनिवेशिपदेन लब्धाः, एवमका का० ॥ ५ एते कालोत्थायिपदेन लब्धाः, अकालो भा० कां०॥ ६°श्वकेन गुण्य भा० त• डे.॥ ७°दि द्वयोरपि प्री का०॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ८६८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ 1 अपरस्य प्रीतिकं ततो भजना भवति, यस्तयोः प्रेरकः प्रमाणभूतस्तस्य प्रीतिके गन्तव्यम् - अप्रीतिके न गन्तव्यम् - । सार्थ चाप्राप्तानां 'निमित्र' शकुनग्रहणं भवति । साथै प्राप्ताः पुनः सार्थस्यैव शकुनेन गच्छन्ति । सार्थप्राप्ताश्च तिस्रः परिषदः कुर्वन्ति, तद्यथा-पुरतो मृगपरिषदं मध्ये सिंहपरिषदं पृष्ठतो वृषभपरिषदम् ॥ ३०८६ ॥ 5. अथ 'दोण्ह वि" त्ति पदं विवृणोति दोनि वि समागया सत्थिगो य जस्स व वसेण वच्चति तु । अणणुण्ण विते गुरुगा, एमेव य एगतरपंते ॥ ३०८७॥ सार्थवाह आदियात्रिकश्च द्वावपि मिलितौ समागतौ समकमनुज्ञापयन्ति । अथवा 'सार्थिकः' सार्थों विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाह एक एवानुज्ञाप्यते । यस्य वा वशेन सार्थो व्रजति 10 सोऽनुज्ञाप्यः । अथाननुज्ञापिते सार्थवाहादौ व्रजन्ति तदा चत्वारो गुरुकाः । अथ द्वौ सार्था वेकत्र मिलितौ स्याताम् , तत्र च द्वौ सार्थाधिपती, द्वावप्यनुज्ञापयितव्यौ । अथैकमनुज्ञापयन्ति तत्र 'एवमेव' चतुर्गुरुकाः । अथैकतरः प्रान्तः ततश्चिन्तनीयम्-स प्रेरको वा । स्याद् अप्रेरको वा » । यदि प्रेरकस्ततो न गन्तव्यम् । अथ गच्छन्ति ततः ‘एवमेव' चतुर्गुरुकाः ॥ ३०८७॥ कथं तर्हि गन्तव्यम् ? इत्याह जो होइ पेल्लतो तं, भणंति तुह बाहुछायसंगहिया। वच्चामऽणुग्गहो त्ति य, गमणं इहरा उ गुरु आणा ॥ ३०८८ ॥ यस्तत्र 'प्रेरकः' प्रमाणभूतो भवति तं धर्मलाभयित्वा भणन्ति-यद्यनुजानीत ततो वयं युष्माभिः समं युष्मद्वाहुच्छायासङ्ग्रहीता व्रजामः । एवमुक्ते यद्यसौ ब्रूयात्-भगवन् ! अनुग्रहोऽयं मे, अहं सर्वमपि भगवतामुदन्तमुद्वहामीति; एवमनुज्ञाते गमनं विधेयम् । 'इतरथा' 20 यद्यसौ तूष्णीकस्तिष्ठति ब्रवीति वा 'मा समागच्छत' इति ततो यदि गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरव आज्ञादयश्च दोषाः ॥ ३०८८ ॥ यदि सार्थवाहस्यापरस्य वा प्रेरकस्याप्रीतिके गम्यते तत एते दोषाः पडिसेहण णिच्छुभणं, उपकरणं बालमादि वा हारे। ___ अतियत्त गुम्मिएहि व, उडुभंते ण वारेति ॥ ३०८९ ॥ 25 स सार्थवाहादिः प्रान्तः सन्नटवीमध्यप्राप्तानां साधूनां भक्त-पानप्रतिषेधं सार्थाद्वा निष्काशनं विदध्यात् , उपकरणं वा बालादीन् वा अन्येन स्तेनादिना 'हारयेत्' अपहरणं कारयेदित्यर्थः, 'आदियात्रिकैर्वा' सार्थारक्षकैः ‘गौल्मिकैर्वा' स्थानरक्षपालैः 'उद्दह्यमानान्' मुष्यमाणान् साधून् 'न वारयति' उदासीन आस्ते इत्यर्थः ॥ ३०८९ ॥ यत एवं ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह १ एतचिह्नगतः पाठः भा. कां. एव वर्तते ॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः भा० एव वर्तते ॥ ३ चाद्याप्यप्रा कां० ॥ ४ 'द्वौ' सार्थवाहा-ऽऽदियात्रिको 'समागतौ' मिलितौ समक भा०॥ ५ 'सार्थिकं' सार्थो विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाहमेकमेवानुशापयन्ति । यस्य वा भा० ॥ ६°हः स एक कां० ॥ ७॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ ८ जो वा वि पेल्ल° ता.॥९ उडेचंते ता० ॥ १० °न्तः महाट डे० ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । भगवणे गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणाऍ वसधीए । थंडिल असति मत्तग, वसभा य पदेस वोसिरणं ॥ ३०९० ॥ सार्थवाहादिर्भद्रको ब्रूयात्– यद् यूयमादिशत तदहं सर्वमपि सम्पादयिष्यामि, सिद्धार्थकवत् चम्पकपुष्पवद्वा शिरसि स्थिता अपि मे भारं न कुरुथ । एवं वचने भणिते सति गमनं कर्त्तव्यम् । गच्छद्भिश्चाध्वनि भैक्षविषया भक्तार्थना - समुद्देशनं तद्विषया वसतिविषया च यतना 5 कर्त्तव्या । संज्ञां कायिकीं वा 1 स्थण्डिले व्युत्सृजेयुः । स्थण्डिलस्यासति मात्र के व्युत्सृज्य तावद् वहन्ति यावत् स्थण्डिलं प्राप्नुवन्ति, एवं वृषभा यतन्ते, यद्वा वृषभाः पुरतो गत्वा यत्र स्थण्डिलं तत्र प्रथमत एव तिष्ठन्ति । अथ सर्वथैव स्थण्डिलं न प्राप्यते ततो धर्मा-धर्माssकाशास्तिकाय प्रदेशेष्वपि व्युत्सृजन्ति ॥ ३०९० || अमुमेवार्थमतिदेशद्वारेणाह भाष्यगाथाः ३०८७ – ९३] ८६९ पुव्वं भणिया जयणा, भिक्खे भत्तट्ठ वसहि थंडिल्ले । सौ चैव य होति इहं, णाणत्तं णवरि कप्पम्मि ॥ ३०९१ ॥ भिक्षा-भक्तार्थ-वसति-स्थण्डिलविषया यतना या 'पूर्वम्' अधस्तनसूत्रेषु ओघनिर्युक्तौ वा भणिता सैवेहाध्वनि वर्त्तमानानां मन्तव्या स्थानाशून्यार्थं तु किञ्चिदत्रापि वक्ष्यते । तत्र भैक्षद्वारे 'नवरं' केवलमिह 'कल्पे' अध्वकल्पविषयं नानात्वम् ॥ ३०९१ ॥ तदेवाह - अग्गहणे कप्पस्स उ, गुरुगा दुविधा विराहणा णियमा । पुरिसद्धाणं सत्थं, गाउं वा वीण गिव्हिजा ॥ ३०९२ ॥ छिन्नेऽच्छिन्ने वा पथि यद्यध्वकल्पं न गृह्णन्ति तदा चतुर्गुरवः, 'द्विविधा च' आत्म-संयमभेदाद् विराधना - नियमाद् मन्तव्या । तत्रात्मविराधना भक्ताद्यलाभे क्षुधार्त्तस्य परितापनादिना, संयमविराधना तु क्षुधार्त्तः सन्नध्वकल्पं विना कन्दादिग्रहणं कुर्यात् । अतो ग्रहीतव्योऽध्वकल्पः । एभिः कारणैर्न गृह्णीयादपि – यदि पुरुषाः सर्वेऽपि संहनन - धृति बलवन्तः, अध्वाऽप्ये- 20 कदैवसिको • द्विदैर्वैसिकोवा, सार्थेऽपि प्रभूतभैक्षमवाप्यते तदपि ध्रुवलाभम् 1 सार्थश्च भद्रकः कालभोजी कालस्थायी च । एवमादीनि कारणानि ज्ञात्वा च्छिन्नपथे कल्पं न गृह्णीयात् ॥ ३०९२ ॥ स पुनरध्वकल्पः कीदृशो ग्रहीतव्यः ? इत्युच्यतेसक्कर- घत- गुलमीसा, अगंठिमा खजूरा व तम्मीसा । सत्तू पिण्णागो वा, घत-गुलमिस्सो खरेणं वा ॥ ३०९३ ॥ ऽप्यध्व 25 शंर्करया घृतेन च मिश्राणि 'अग्रन्थिमानि' कदलीफलानि खण्डाखण्डीकृतानि गृह्यन्ते । १ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्त्तते ॥ २ एनामेव निर्युक्तिगाथां व्याख्यातुमाह इत्यवतरणं कां० ॥ ३ सश्चैव भा० ॥ ४ भैक्षविषया भक्तार्थ- वसति - स्थण्डिलविषया च यतना कां० ॥ ५ ་• एतच्चिह्नमध्यगतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ ६ एतन्मध्यगतः पाठः भा० कां० एव वर्त्तते । “अद्धाणं जइ एगदेवसियं दुदेवसियं वा" इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । “भद्दगो य सत्यो कालभोई कालट्ठाई य” इति चूर्णो विशेष८ एतदन्तर्वत्त पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ९° साऽगंठिम खजूरगाव ता• ॥ १० अध्वानं प्रविशद्भिः शर्क कां० ॥ ११ " अगंठिया णाम मरहट्टविसए फलाणि - 'कयलस्स ७ चूर्णौ च ॥ 10 15 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ अथ शर्करी न प्राप्यते ततो गुडेन घृतेन च मिश्रितानि । तेषामभावे खजूराणि घृतगुडमिश्राणि । तदप्राप्तौ सक्तकान् घृत-गुडमिश्रान् । तदलाभे पिण्याकोऽपि । घृत-गुडमिश्रो ग्रहीतव्यः । अथ » घृतं न प्राप्यते ततः खरसंज्ञकेन तैलेन मिश्रितः पिण्याकः ॥ ३०९३॥ एतेषां ग्रहणे गुणमुपदर्शयति थोवा वि हणंति खुहं, न य तण्ह करेंति एतें खजंता। सुक्खोदणं वऽलंभे, समितिम दंतिक चुण्णं वा ॥ ३०९४ ॥ 'एतानि' अग्रन्थिमादीनि खाद्यमानानि स्तोकान्यपि क्षुधं नन्ति, न चैतानि भुक्तानि सन्ति तृष्णां कुर्वन्ति, अत ईदृशोऽध्वकल्पो गृह्यते । ईदृशस्यालाभे 'शुष्कौदनः' शुष्ककूरः, तदलाभे 'समितिमाः' शुष्कमण्डकाः, तैदप्राप्तौ 'दन्तिकचूर्णः' तन्दुललोट्टः, यद्वा दन्तिकं-तन्दुलचूर्णः, 16चूर्ण तु-मोदकादिखाद्यकचूरिः; एतत् सर्वमपि घृत-गुडेन मिश्रयित्वा स्थापनीयम् । यदि शुद्धं भक्तं लभन्ते ततो नाध्वकल्पं भुञ्जते, यावन्मात्रेण वा न्यून शुद्धं लभन्ते तावन्मात्रमध्वकल्पात् परिभुञ्जते, अनुपस्थापितेभ्यो वा प्रयच्छन्ति ॥ ३०९४ ॥ अध्वानं प्रविशद्भिरपरमपि यद् ग्रहीतव्यं तद् दर्शयति-- तिविहाऽऽमयमेसज्जे, वणभेसळे य सप्पि-महु-पट्टे। सुद्धाऽसति तिपरिरए, जा कम णाउमद्धाणं ॥३०९५ ॥ त्रिविधाः-त्रिप्रकारा वातज पित्तज-श्लेष्मजभेदाद् ये आमयाः-रोगास्तेषां यानि भैषज्यानि, यानि च व्रणस्य भैषज्यानि सर्पिमिश्राणि मधुमिश्राणि वा व्रणेषु दत्त्वा पट्टैबध्यन्ते तानि गृहन्ति । सर्वमप्येतदध्वकल्पादिकं प्रथमतः शुद्धम् तदभावेऽशुद्धमपि 'त्रिपरिरययतनया' पञ्चकपरिहाण्या ग्रहीतव्यं यावदाधाकर्मेति । प्रमाणतः पुनरध्वानं स्तोकं वा बहुं वा ज्ञात्वा तदनुसारेणाध्वक20 ल्पोऽपि ग्रहीतव्यः ॥ ३०९५॥ एवं यदा सर्वमप्युत्पादितं भवति तदा किं विधेयम् ? इत्याह अद्धाण पविसमाणो, जाणगनीसाऍ गाहए गच्छं । अह तत्थ न गाहिजा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ३०९६ ॥ अध्वानं प्रविशन् सूरिः प्रथमत एव ज्ञस्य-गीतार्थस्य निश्रया-तं पुरस्कृत्य गच्छमध्वकल्पं ग्राहयति । अथ 'तत्र' अध्वप्रवेशे गच्छं न ग्राहयति ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः । अतो कप्पणाओ, पडिओ एकम्मि ( पक्कम्मि ) डाले बहुईओ।' ताणि फलाणि खंडाखंडिकयाणि" इति विशेषचूर्णौ । “अगंठिमाई ति कयलगाणि खंडाखंडिकयाणि" इति चूर्णौ ॥ .१२ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ .. १ का मो० ले. विनाऽन्यत्र-रा यदि न भा० । रया न ता० त० डे० ॥ .२ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ .३"थोवा वि. गाधा कंठा । पिण्णागस्स अलंमे कुरो सुकवितओ। तदलं'समिइमा' मंडोल्लियाओ। तदलंभे 'दंतिक' त्ति अशोकवादि । तदमे मोदकचूर्णादि घेत्तुं घयगुलेहिं मीसिजंति ।" इति चूर्णौ ॥ . ४ °म् । ततोऽध्वानं वहमाना यदि का० ॥ ५एतदन्तर्गतमवतरणं कां० एव वर्तते ॥ ६ ज्यानि, यद् व्रणभङ्गार्थ घृत-मधु, यश्च व्रणबन्धार्थः चीवरपट्टः। सर्वम भा० ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३०९४-३१००] प्रथम उद्देशः । गीतार्थ पुरस्कृत्यागीतार्थप्रत्ययनिमित्तमन्तराऽन्तरा कानिचिदर्थपदानि परित्यजन् सूरिर्गच्छमध्वकल्पं ग्राहयेत् ॥ ३०९६ ॥ स एवंविधेन विधिना निर्गतानामयं विधिः-- सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था । खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे ॥ ३०९७ ॥ यत्र सभयं तत्र वृषभाः स्वरभेद-वर्णभेदकारिणीभिर्गुलीकाभिरन्यादृशं वरं वर्ण च कृत्वा गच्छन्ति । अथवा यथा 'एते संयताः' इति न ज्ञायते तथा लिङ्गवियोगं कृत्वा गीतार्थी गच्छन्ति । खरकम्मिका वा सन्नद्धपरिकरा यथासम्भवं गृहीतायुधा भूत्वा वृषभाः 'उभयवर्गे' साधु-साध्वीलक्षणे 'गुप्ति' रक्षां कुर्वन्ति ॥ ३०९७ ॥ किञ्च जे पुव्वि उवकरणा, गहिया अद्धाण पविसमाणेहिं । जं जं जोग्गं जत्थ उ, अद्धाणे तस्स परिभोगो ॥ ३०९८॥ 10 यानि पूर्व धर्मकरकादीन्युपकरणानि अध्वानं प्रविशद्भिगृहीतानि तेषां मध्ये यद् यस्मिन् काले योग्यं तस्य तदा अध्वनि परिभोगः कर्त्तव्यः ॥ ३०९८ ॥ ॥ अथाध्वकल्पभोगे विधिमाह-- सुक्खोदणो समितिमा, कंजुसिणोदेहि उण्हविय भुंजे। मूलत्तरे विभासा, जतिऊणं णिग्गते विवेगो ॥ ३०९९ ॥ .. 15 "कंजुसिणोदेहि" त्ति इह च लाटदेशेऽवश्रावणं काञ्जिकं भण्यते । यदाह चूर्णिकृत् अवसावणं लाडाणं कजियं भण्णइ ति ।। ततोऽवश्रावणेनोष्णोदकेन वा शुष्कौदनं शुष्कसमितिमाँश्च 'उप्णयित्वा' मृदुभवनार्थमुष्णीकृत्य भुञ्जीत । "जइऊणं निग्गएँ विवेगो" ति एवमादिकया यतनया यतित्वा यदा अध्वनो निर्गतास्तदा तमध्वकल्पमभुक्तं भुक्तोद्वरितं वा विविचन्ति, परिष्ठापयन्तीत्यर्थः । “मूलुत्तरे 20 विभास" ति ? मूलोत्तरगुणविषया विभाषा कर्तव्या । तद्यथा--->» शिष्यः पृच्छति-यो अध्वकल्प आधाकर्मिकः परिवासितश्च स तावदाधाकम्भिकत्वेनोत्तरगुणोपघाती परिवासितत्वेन तु मूलगुणोपघाती ततः किमेष भुज्यताम् ? उत प्रतिदिवसं लभ्यमानमाधाकर्म ? अंत्रोच्यतेअवकल्पो भुज्यतां नाधाकर्म ॥ ३०९९ ॥ ननु दोषद्वयदुष्टोऽसौ ? सूरिराह कामं कम्मं तु सो कप्पो, णिसिं च परिवासितो।। तहा वि खलु सो सेओ, ण य कम्मं दिणे दिणे ।। ३१०० ॥ 'कामम्' अनुमतम्-यदसावध्वकल्प एकं तावदाधाकर्म अपरं च 'निशि' रात्रौ परिवा११ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २°नामध्वनि वहमानानां विधिं दर्शयति कां० ॥ ३ °चर्मकरका मो० ले० ॥ ४ एतन्मध्यगतमवतरणं कां० एव वर्तते ॥ ५१- एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ६ अत्र केचिदाचार्यदेशीयाः प्रत्युत्तरयन्ति-आधाकर्म भोक्त. व्यम्, न पुनराधाकर्मिकः परिवासितोऽध्वकल्पः, यतो दोषद्वयदुष्टोऽसौ, ततः कथमेकदोषदुष्टमाधाकर्म परिहृत्यासौ भुज्यते? ॥ ३०९९ ॥ सूरिराह कां० ॥ ७ अवधारितमस्माभिः-यदः कां ॥ 25 - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ८७२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ सितः, तथापि 'खलु' निश्चितं 'स एव' अध्वकल्पः श्रेयान् न चाधाकर्म दिने दिने लभ्यमानं वरम् ॥ ३१०० ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते जे ते कम्ममिच्छंति, निग्विणा ते न मे मता ॥ ३१०१ ॥ यदाधाकर्म दिने दिने लभ्यते तत्र 'असकृद्' अनेकवारं जीवोपघातः, अध्वकल्पे तु यदाधाकर्म तत्र 'सकृद्' एकमेव वारं जीवोपघातः, पूर्वहताश्च ते जीवा न दिने दिने हन्यन्ते, अतोऽध्वकल्प एव वरं नाधाकर्म । ये पुनः 'ते' अविदितप्रवचनरहस्यां अध्वकल्पं मूलोत्तरगुणोपघातिनं मत्वा न भुञ्जते, आधाकर्म तु केवलोत्तरगुणोपघातकमिति मत्वा दिने दिने 10 भोक्तुमिच्छन्ति, तेऽत्यन्तनिर्घृणाः सत्त्वेषु, अत एव न ते मम सम्मता इति ॥ ३१०१॥ • भैक्षद्वार एवं विशेषं दर्शयति - आधाकम्माऽसति धातो, सई पुव्वहते त्तिय । ( ग्रन्थाग्रम् -- ९५०० । सर्वग्रन्थाग्रम् - २१७२० ) कालुट्ठाईमादिसु, भंगेसु जतंति वितिय गादी | लिंगविवेगोकते, चुडलीए मग्गतो अभए ।। ३१०२ ॥ कालोत्थायिप्रभृतिषु भङ्गेषु द्वितीयभङ्गमादौ कृत्वा यतन्ते । तथाहि — कालोत्थायी काल15 निवेशी स्थानस्थायी कालभोजी इत्यत्र प्रथमभङ्गे नास्ति यतना, सर्वथाऽपि शुद्धत्वात् ; द्वितीयादिषु तु सम्भर्वेति । तत्र द्वितीयभङ्गे अकालभोजीतिं कृत्वा खलिङ्गविवेकं विधाय रात्रौ परलिङ्गेन गृह्णन्ति । तृतीयचतुर्थभङ्गयो रस्थानस्थायीति कृत्वा यद् गवादिभिराक्रान्तं स्थानं तत्र तिष्ठन्ति । पञ्चमादिषु चतुर्षु भङ्गेष्वकालनिवेशीति कृत्वा कालिकायां तिष्ठन्तश्चुडलिकया संस्तारक भूम्यादिषु बिलादिकं गवेषयन्ति । नवमादिषु षोडशान्तेष्वष्टसु भङ्गेषु अकालोत्थायीति 20 कृत्वा रात्रौ गन्तव्ये उपस्थिते 'मार्गतः' पृष्ठतः स्थिता गच्छन्ति । व सति ? इत्याह – 'अभये ' यदि पृष्ठतो गच्छतां स्तेनादिभयं न भवेत् । भक्तार्थनं तु यः सार्थोऽकालस्थायी तत्र निर्भये पुरतो गत्वा तथा समुद्दिशन्ति यथा समुद्दिष्टे सार्थस्तत्र प्राप्नोति, वसतिं च मध्ये गृह्णन्ति ॥ ३१०२ ॥ तथा 25 सावय अण्णटुकडे, अट्ठा सुक्खें सय जोइ जतणाए । तेणे वयणचडगरं तत्तो व अवाउडा होंति ॥ ३१०३ ॥ श्वापदभयेऽन्यैः- सार्थिकैरात्मार्थं यो वृतिपरिक्षेपः कृतस्तत्र तिष्ठन्ति । तदभावे "अट्ट" चि साधूनामर्थाय कृते वृतिपरिक्षेपे तिष्ठन्ति । तदभावे "सुक्खे सय" ति शुष्ककण्टकाभिः स्वयमेव वृतिपरिक्षेपं कुर्वन्ति । " जोइ जयणाए " ति यदि श्वापदभये ज्योतिषा - अमिना कार्य ततः परकृतमग्निं सेवन्ते । अथ ते तं सेवितुं न प्रयच्छन्ति ततः परकृतमेवाग्निं गृहीत्वा 30 प्राशुकदारुभिः प्रज्वालयन्ति । यत्र तु स्तेनभयं तत्र तथा 'वचनचटकरं ' वागाडम्बरं कुर्वन्ति १स्या आचार्यदेशीया अध्य° कां ॥ २एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ३° पूर्वोक्तभङ्गे कां० ॥ ४ 'वति । तामेव दर्शयति – “लिंगविवेग" इत्यादि, तत्र कां० ॥ ५ न भक्तपानं गृ° कां० ॥ ६° कडे, सुक्खे सयमेव जोइ ता० ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१०१-८] प्रथम उद्देशः । ८७३ यथा ते स्तेना भयादेव शीघ्रं नश्यन्ति । अथवा यतः - यस्या दिशस्ते समागच्छन्ति तदभि मुखीभूय अप्रावृता भवन्ति ॥ ३१०३ ॥ • एवंविधं विधिं कुर्वाणा अध्वनो निस्तरन्ति । अथायं व्याघातो भवेत् - सावय- तेणपरद्धे, सत्थे फिडिया ततो जति हवेजा । अंतिमगा विंटिय, यिट्टणय गोउलं कहणा || ३१०४ ॥ महाटव्यां सिंहादिभिः श्वापदैः स्तेनैर्वा सार्थः प्रारब्धः सन् दिशोदिशि विप्रणष्टः, साधवोऽप्येकां दिशं गृहीत्वा विप्रणष्टाः 'ततः' सार्थात् स्फिटिता यदि भवेयुः, ततो दिग्भागमजानन्तो वनदेवतायाः कायोत्सर्गं कुर्वन्ति सा च व्रजिका विकुर्वति, अन्तिमायां च ब्रजिकायामुपकरणविण्टिकां विस्मारयति, तस्या ग्रहणार्थं साधूनां निवर्तनम् यावत् तत्रागताः तावद् गोकुलं न पश्यन्ति, ततो गुरूणां समीपे कथनम्, यथा— नास्ति सा जिकेति ॥ ३१०४ ॥ 10 इदमेव स्पष्टयति अाणम्मि महंते, वहू॑तो अंतरा तु अडवीए । सत्थो तेणपरद्धो, जो जत्तो सो ततो नट्ठो ।। ३१०५ ।। संजयजणो य सव्वो, कंची सत्थिल्लयं अलभमाणो । -पंथं अजाणमाणो, पविसेज महाडविं भीमं ।। ३१०६ ॥ अध्वनि महति वर्त्तमानः सार्थः सर्वोऽप्यन्तरा महाटव्यां स्तेनैः प्रारब्धः, ततश्च यो यत्र वर्त्तते स तत एव 'नष्टः ' पलायितः || ३१०५ ॥ 15 संयतजनश्च सर्वः कञ्चिदपि सार्थिकमलभमानः पन्थानं चाजानन् भीमां महाटवीं प्रविशेत् ॥ ३१०६ ॥ ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह सव्वत्थामेण ततो, वि सव्वकजुञ्जया पुरिससीहा । वसभा गणीपुरोगा, गच्छं धारिति जतणाए ।। ३१०७ ॥ ततः ‘सर्वस्थाम्न।' सर्वादरेण वृषभाः 'सर्वकार्योद्यताः' सकल गच्छ कार्यैकबद्धकक्षाः 'पुरुषसिंहाः' सातिशयपराक्रमृतया पुरुषाणां मध्ये सिंहकल्पाः 'गणिपुरोगाः' आचार्यपुरस्सरा ईदृश्यां विषमदशायां प्रपतन्तं गच्छं यतनया धारयन्ति ॥ ३१०७ ॥ तामेवाह जइ तत्थ दिसामूढो, हवेज गच्छो सबाल- बुड्डो उ । वणदेवयाऍ ताहे, णियमपगंपं तह करेंति ।। ३१०८ ॥ यदि ‘तत्र’ अटव्यां सबाल-वृद्धोऽपि गच्छो दिङ्मूढो भवेत् ततो नियमेन - निश्चयेन प्रकम्पःदेवताया आकम्पो यस्मादिति नियमप्रकम्पः - कायोत्सर्गस्तं वनदेवताया आकम्पनार्थं तथा कुर्वन्ति यथा सा आकम्पिता सती दिग्भागं वा पन्थानं वा कथयति ॥ ३१०८ ॥ यतः - १ एतदन्तर्ववतरणं भा० नास्ति ॥ २ विधिं विदधाना अध्य कां० ॥ ३ 'त् । कीदृश: ? इति अत आह— अद्धाणम्मि कां० । नास्त्यस्यां प्रतौ " सावयतेण परद्धे . " ३१०४ गाथा तट्टीका च । चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता बृहद्भाष्यकृता चापि नेयं गाथाऽङ्गीकृता दृश्यते ॥ ४ अथवा कां० ॥ 5 20 25 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ सम्मद्दिट्ठी देवा, वेयावच्चं करेंति साहूणं ।। गोकुलविउव्वणाए, आसास परंपरा सुद्धा ॥ ३१०९ ॥ ये सम्यग्दृष्टयो देवास्ते साधूनां 'वैयावृत्त्यं' भक्तपानोपष्टम्भादिना द्रव्यापदायुद्धरणात्मकं कुर्वन्तीति स्थितिः । ततः सम्यग्दृष्टिदेवता काचिद् गोकुलं विकुर्वति । साधूनां तदर्शनेना5श्वासः । ततस्तया देवतया साधवो गोकुलपरम्परया ताक्द् नीता यावज्जनपदं प्राप्ताः । तया एवं नीता अपि ते 'शुद्धाः' निर्दोषाः ॥ ३१०९ ॥ अमुमेवार्थ सविशेषमाह सावय-तेणपरद्धे, सत्थे फिडिया तओ जइ हविजा । ____ अंतिमवइगा विंटिय, नियट्टणय गोउलं कहणा ॥ ३११० ॥ श्वापदैः स्तेनैश्च प्रारब्धे नष्टे च सार्थे 'ततः' सार्थात् स्फिटिता यदि भवेयुः ततः कायोत्सर्गेण 10 देवतामाकम्पयेत् । आकम्पिता च काचित् पन्थानं कथयेत् , काचिद् वजिकाः परम्परया विकुळ जनपदं प्रापयेत् । अन्तिमायां च बजिकायामुपकरणविण्टिकामुपधिं [वा] विस्मारयेत् । तदर्थं साधूनां निवर्तना । यावत् तत्रागतास्तावद् गोकुलं न पश्यन्ति । ततो गुरूणां समीपे कथनम् , यथा-नास्ति सा जिकेति । गुरुभिश्च ज्ञातम् , यथा-एतत् सर्व देवताकृतमिति ॥ ३११०॥ भंडी-बहिलग-भरवाहिगेसु एसा तु वणिया जतणा। ओदरिय विवित्तेसु य, जयण इमा तत्थ णातव्या ॥ ३१११॥ भण्डी-बहिलक-भारवाहिसार्थेषु 'एषा' अनन्तरोक्ता यतना वर्णिता । अथौदरिकेषु 'विवितेषु च' कार्पटिकेष्वियं यतना ज्ञातव्या ॥ ३१११ ॥ तामेवाह ओदरिपत्थयणाऽसइ, पत्थयणं तेसि कन्द-मूल-फला । अग्गहणम्मि य रज्ज , वलिंति गहणं च जयणाए ॥ ३११२ ॥ आगाढे राजद्विष्टादिकार्ये औदरिकादिभिः सह गम्यमाने 'पथ्यदनस्य' शम्बलस्याऽभावे यदि 'तेषाम्' औदरिकादीनां कन्द-मूल-फलान्याहारो भवेत् ततः 'साधूनामपि तमेवाहारं वयं प्रयच्छन्ति । ये च तत्रापरिणतास्ते कन्दादि न गृह्णन्ति । अग्रहणे च ते सार्थिका अपरिणतानां भीषणार्थ रज्जूवलयन्ति, ततो यतनया ग्रहणं कुर्वन्ति ॥ ३११२ ॥ इदमेव स्पष्टयति कंदाइ अभुंजते, अपरिणए सत्थिगाण कहयंति ।। पुच्छा वेधासे पुण, दुक्खिहरा खाइउं पुरतो ।। ३११३॥ अपरिणते कन्दादिकमभुञ्जाने वृषभाः सार्थिकानां कथयन्ति-एतान् तथा भापयत . १ प्राप्ताः । तत्र चापश्चिमे गोकुले तया साधूनासुपकरणविण्टिका विस्मारिता । तदर्थ च प्रतिनिवृत्ता यावद् गोकुलं न पश्यन्ति । ततो विण्टिकां गृहीत्वा प्रत्यागत्य गुरूणामन्तिके यथावदालोचयन्ति । ततो ज्ञातं गुरुभिः, यथा-एतत् सर्व देवताकृतमिति । अत्र च 'शुद्धाः' निर्दोषाः, न प्रायश्चित्तमाज इति ॥ ३१०९ ॥ भंडी-वहिलग भा० । नास्त्यस्यां प्रतौ "सावय-तेणपरद्धे." ३११० गाथा तद्वृत्तिश्च ।। २°षाः, अशठत्वात् ॥ ३१०९ ॥ अमु का० ॥ ३°भिरपि सह भ० का० ॥ 25 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१०९-१९] प्रथम उद्देशः । यथा खादन्ति । ततस्ते सार्थिका रज्जुवलनं कुर्वन्ति । ततो गीतार्थाः कृतसहेताः पृच्छन्तिकथयत, किमेताभी रज्जुभिः प्रयोजनम् । । सार्थिका भणन्ति-वयमेकनावारूढाः, अतो योऽस्माकं कन्दादीनि न भक्षयति तं वयमेताभिर्विहायसि लम्बयामः, 'इतरथा' तस्य बुभुक्षार्तस्य पुरतः खादितुं 'दुःखं' दुष्करम् , न वयं भक्षयितुं शक्नुम इति भावः ॥ ३११३ ॥ इहरा वि मरति एसो, अम्हे खायामों सो वि तु भएण। कंदादि कजगहणे, इमा उ जतणा तहिं होति ॥ ३११४॥ कन्दादीन्यभक्षयन्नितरथाऽप्यस्यामटव्यामवश्यमे म्रियते अतो विहायसि लम्बनेन तं मारयित्वा सुखेनैव वयं भक्षयामः इत्युक्ते 'सोऽपि' अपरिणतो भयेन कन्दादिभक्षणं करोति । एवमादिषु कार्येषु कन्दादिग्रहणे प्राप्ते इयं यतना भवति ॥ ३११४ ॥ तामेवाहफासुग जोणिपरित्ते, एगडिगबद्ध भिन्नभिण्णे अ। 10 बद्धट्टिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए ॥ ३११५ ॥ एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए । साहारणसभावा, आईए बहुगुणं जं च ॥३११६ ॥ द्वे अपि ( गा० २९१८-१९) व्याख्यातार्थे ॥ ३११५॥३११६ ॥पानकयतनामाहतुवरे फले य पत्ते, रुक्ख-सिला-तुप्प-मद्दणादीसु । 15 पासंदणे पवाते, आतवतत्ते वहे अवहे ॥ ३११७ ॥ एषाऽपि (गा० २९२२) गतार्था ॥ ३११७ ॥ मता अशिवविषया यतना । अभावमौदर्यविषयां यतनामाह ओमे एसणसोहिं, पजहति परितावितो दिगिच्छाए। अलभते वि य मरणे, असमाही तित्थवोच्छेदो ॥ ३११८॥ 20 अवमौदरिकं विज्ञायानागतमेव द्वादशभिर्वः निर्गन्तव्यम् । अथ न निर्गच्छन्ति ततश्चतुर्गुरु आज्ञादयश्च दोषाः । तत्र च तिष्ठन् 'दिगिन्छया' क्षुधा परितापितः सन्नेषणाशुद्धि प्रेजहाति, अथवा भक्त-पानमलभमानो मरणमामोति । १ अँसमाधिना च म्रियमाणो देवदुर्गतिं दुर्लभबोधिकत्वं च प्रामोति । » एवं चान्याऽन्यसाधुषु म्रियमाणेषु तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति ॥ ३११८॥ यत एवमतः ओमोदरियागमणे, मग्गे असती य पंथें जयणाए । परिपुच्छिऊण गमणं, चउविहं रायदुटुं च ॥ ३११९॥ अवमौदरिकायां गमने प्राप्ते पूर्व मार्गेण गन्तव्यम् । मार्गस्याभावे पथाऽपि 'किं छिन्नोऽच्छिन्नो वाऽयं पन्थाः ?' इति परिपृच्छ्य 'यतनया' अशिवद्वारोक्तया गमनं विधेयम् । अथ १ मेव क्रिय भा० का विना ॥ २ °पि गाथे रात्रिभक्तसूत्रप्रस्तावे व्या का० ॥ ३ अथ पान कां• ॥ ४°पि रात्रिभक्तसूत्रप्रस्ताव एव गता कां० ॥ ५'प्रजहाति' परित्यजति, अनेषणीयमपि गृहातीति भावः । अथवा कां ॥ ६० एतदन्तर्गतः पाठः भा० का. एव वत्तते ।। 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ८७६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ राजद्विष्टद्वारम्-तच्च निर्विषयादिभिर्वक्ष्यमाणभेदैश्चतुर्विधम् ॥ ३११९ ॥ तत्र स राजा कथं प्रद्वेषमापन्नः ? इत्याशङ्कावकाशमवलोक्येदमाह ओरोहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा। अहिमर अणिट्ठदरिसण, वुग्गाहणया अणायारे ॥३१२० ॥ । अवरोधः-अन्तःपुरं तस्य लिङ्गस्थेन केनाप्याधर्षणा कृता, राज्ञो वाऽभ्यर्हितः-गौरविको राजा-ऽमात्यादिपुत्रः शैक्षो दीक्षितो भवेत् , साधुवेषेण वा केचिदभिमराः प्रविष्टाः, अनिष्टं वा साधुदर्शनं स्वयमेव पुरोहितप्रभृतिभिर्वा व्युद्राहितो मन्यते, संयतो वा कयाचिदविरतिकया सममनाचारं प्रतिसेवमानो दृष्टः । एवमादिभिः कारणैः प्रद्विष्ट इत्थं चतुर्विधं दण्डं प्रयुञ्जीत ॥ ३१२० ॥ निधिसउ ति य पढमो, बितिओ मा देह भत्त-पाणं से । ततितो उवकरणहरो, जीय चरित्तस्स वा भेतो ॥३१२१ ॥ प्रथमो राजदण्डो निर्विषयाऽऽज्ञापनलक्षणः । द्वितीयो मा भक्तपानममीषां प्रयच्छतेत्येवंलक्षणः । तृतीयः पुनरुंपकरणहरः । चतुर्थो जीवितस्य चारित्रस्य वा भेदः कर्त्तव्यः ॥ ३१२१॥ • एवंविधे चतुर्विधे राजद्विष्टे आज्ञातिक्रमं कुर्वाणानां प्रायश्चित्तमाह गुरुगा आणालोवे, बलियतरं कुप्पें पढमए दोसो। गिण्हत-देंतदोसा, वितिय-तिए चरिमे दुविह भेतो ॥ ३१२२ ॥ येन राज्ञा निर्विषया आज्ञप्तास्तदाज्ञालोपं विधाय तिष्ठतां चत्वारो गुरुकाः । अन्यच्चाज्ञातिक्रमे राजा 'बलिकतरं' गाढतरं कुप्यति, एष प्रथमभेदे दोषोऽभिहितः । द्वितीयतृतीयभेदयोर्येन राज्ञा ग्राम-नगरादिषु भक्त-पानमुपकरणं वा वारितं तत्र ये साधवो गृह्णन्ति ये च गृह20 स्थास्तेषां प्रयच्छन्ति तेषामुभयेषामपि दोषाः-ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयो भवन्ति । चरमः-चतुर्थो भेदः स तंत्र द्विविधो भेदो» भवति, जीवितभेदश्चारित्रभेदश्चेत्यर्थः ।। ३१२२ ॥ अथ निर्विषयाज्ञप्तानां गमनविधिमाह सच्छंदेण य गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणे य वसहीए । दारे व ठितो रंभति, एगट्ठ ठितो व आणावे ॥ ३१२३ ॥ 25 यत्र राज्ञो भणिताः-स्वच्छन्दं गच्छन्तु भवन्तः, नाहं गच्छतां कमपि निरोधं कुर्वे; तत्र भैक्षे भक्तार्थने वसतिविषयां च सामाचारी न परिहापयन्ति । अथ 'द्वारे' प्रामादिप्रवेशमुखे स्थितो राजपुरुषवर्गः साधून भिक्षागतान् निरुणद्धि 'एकत्र वा' सभा-देवकुलादौ स्थितः साधू भोक्तुमात्मसमीपे आनाययति ततो वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्तीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३१२३ ॥ साम्प्रतमिदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह सच्छंदेण उ गमणं, सयं व सत्थेण वा वि पुव्वुत्तं । १ एतन्मध्यगतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ २°ज्ञा स्वच्छन्देन गमनमनुज्ञातम्, किमुक्तं भवति ?-यत्र निर्विषयाक्षपने नृपतिना भणिताः कां० ॥ ३ भैक्षविपयां भक्तार्थनं-भोजनं तद्विषयां वस का० ॥ ४°न् भिक्षामात्म भा० ॥ ५ सङ्ग्रहगाथा भा० ॥ 30 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ३१२०-२७] प्रथम उद्देशः । तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथरे वा पणगहाणी ॥ ३१२४ ॥ यत्र राज्ञा स्वच्छन्देन गमनमनुज्ञातं तत्र स्वयं वा सार्थेन वा सहिता गच्छन्तः 'पूर्वोक्तम्' इहैवाशिवद्वारे ( गा० ३१०५-१०) ओपनियुक्तौ वा भर्णितं भैक्ष-षट्काययतनादिकं. कर्तव्यम् । नवरं तत्र खच्छन्दगमने उद्गमादिशुद्धं भक्तपानं ग्राह्यम् । असंस्तरणे पञ्चकपरिहाण्या गृह्णन्ति । अथ राजा 'मा अत्रैव जनपदे कचित् प्रदेशे निलीय स्थास्यन्ति' इति बुद्ध्या पुरुषान् सहायान् प्रयच्छति, ततस्ते पुरुषा भणन्ति-यूयं ग्रामं प्रविश्य तत्र भिक्षामटित्वा भुक्त्वा च प्रत्यागच्छत, वयमिहैव ग्रामद्वारे स्थिताः प्रतीक्षामहे; ततस्ते तत्र स्थिता यो यथा साधुः समागच्छति तं तथा निरुन्धते यावता सर्वेऽपि मिलिताः । अथवा ते राजपुरुषाः सभायां देवकुले वा स्थिता ब्रुवते-यूयं भिक्षामटित्वा गृहीत्वा चेह समागच्छत, अस्माकं समीपे समुद्दिशतेति ॥ ३१२४ ॥ ततश्च तिण्हेगयरे गमणे, एसणमादीसु होति जतियव्वं । भत्तट्ठण थंडिल्ले, असती वसहीऍ जं जत्थ ॥३१२५॥ त्रैयाणां प्रकाराणामेकतरस्मिन् गमने एषणायाम् आदिशब्दादुद्गमोत्पादनयोश्च यतितव्यम् । भक्तार्थनं तु द्वयोराद्यगमनयोर्मण्डल्यादिविधिनैव कुर्वन्ति, तृतीये तु गमने राजपुरुषसमीपे भुञ्जानानां न मण्डल्यादिनियमः । स्थण्डिलसामाचारी तु त्रिष्वपि न हापयन्ति, राजपुरुषसमी-15 पस्थिता वा कुरुकुचां कुर्वन्ति । यदि ते ब्रवीरन्- 'अस्मत्समीपे वस्तव्यम्' ततो वसतावसत्यां यद् यत्राल्पदोषतरं कार्य तत् तत्र कर्त्तव्यम् ॥ ३१२५ ॥ अथ प्रकारत्रयमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह सच्छंदओ य एकं, वितियं अण्णत्थ भोत्तिहं एह ।। ततिए भिक्खं घेत्तुं, इह भुंजह तीसु वी जतणा ॥ ३१२६ ॥ एकं स्वच्छन्दतो गमनम् , द्वितीयं पुनरन्यत्र भुक्तवेह समागच्छत, तृतीयं भिक्षां गृहीत्वा 20 इह समागत्य भोजनं कुरुत, एषु त्रिष्वपि भैक्षादियतना कर्त्तव्या ॥ ३१२६ ॥ 1 अत्रैव विशेषं दर्शयति-~ सबिइजए व मुंचति, आणावेत्तुं व चोल्लए देति । अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसहि अणिच्छे जं अंतं ॥ ३१२७ ॥ वाशब्दाः प्रकारान्तरोपन्यासे । कश्चिदतिप्रान्तः सद्वितीयान् साधून मुञ्चति । किमुक्तं 25 भवति ?–साधूनां भिक्षामटतां राजपुरुषानं पृष्ठतः स्थितान् हिण्डापयति, ते च यद्युत्सुकायमाना अनेषणीयं ग्राहयन्ति; यदि वा स राजपुरुष एकत्र स्थाने साधून निरुध्य 'चोल्लक' भोजनमानाय्य ददाति, यथा-सर्वेऽप्येतदाहारयत; ततोऽसौ वक्तव्यः-अस्माकमुद्गमादि १°तं भैक्षविषयमध्वकल्पग्रहणादिकं षट्काययतनादिकं वा सर्वमपि विधिं कुर्वन्ति । नवरं कां० ॥ २ °म् । अथ शुद्धं न लभ्यते ततः 'वा' इति अथवा असं का० ॥ ३ अनन्तरोक्तादीनां स्वच्छन्दगमनादीनां त्रयाणां मो० ले० कां० ॥ ४ 'यतितव्यं' पञ्चकपरिहाण्या यतना कर्त्तव्या भवति । भक्ता' का ॥ ५ एतदन्तर्गतमवतरणं का० एव वर्तते ॥ ६ °न द्वितीयान् पृष्ठ° भा० का ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुवं व उवक्खडियं, खीरादी वा अणिच्छे जं दिति । कमढग भुत्ते सण्णा, कुरुकुय दुविहेण वि दवेण ॥। ३१२८ ।। अथवा चोल्लके आनीते तन्मध्याद् यत् पूर्वमात्मार्थं तैः 'उपस्कृतं ' राद्धं क्षीर- दध्यादि वा तद् भुञ्जते । यदि पूर्वराद्धं नेच्छति प्रदातुम्, ब्रवीति च - यदहं भोजयामि भणामि वा तत् समुद्दिशत; ततः शुद्धमशुद्धं वा यत् ते प्रयच्छन्ति तद् भुञ्जते । तत्र चेयं यतना - कमढकेषु परस्परं सान्तरमुपविष्टाः सन्तो भुञ्जते, भुक्तोत्तरकालं संज्ञान्युत्सर्जनानन्तरं च प्राशुकमृत्तिकया 10 द्रवेण च 'द्विविधेनापि ' सचित्ता - ऽचित्तभेदभिन्नेन कुरुकुचां कुर्वन्ति । तत्र पूर्वमचित्तेन, पश्चात् सचित्तेनापि पूर्वं मिश्रेण, पश्चाद् व्यवहारसैचित्तेनेति [वा ] ॥ ३१२८ ॥ गतं निर्विषयाज्ञपनद्वारम् । अथ भक्त- पाननिवारणाद्वारं व्याचष्टे 5 292 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ शुद्धं ग्रहीतुं कल्पते । एवमुक्तो यद्युत्सङ्कलयति ततो भिक्षां हिण्डन्ते । अथ नोत्सङ्कलयति ततोऽनुशिष्टिः कर्तव्या । तथापि मोक्तमनिच्छति यत् चोलकं 'अन्तं' पिण्याक- दोषान्नादि तद् गृह्णन्ति ॥ ३१२७ ॥ fare वि होइ जयणा, भत्ते पाणे अलब्भमाणम्मि । दोसी तक- पिंडी, एसणमादीसु जतितव्यं ।। ३१२९ ॥ 15 द्वितीयेऽपि राजद्विष्टे भक्त - पानेऽलभ्यमाने इयं यतना भवति - यावदद्यापि जनो न सञ्चरति तावत् प्रत्यूषवेलायां दोषान्नं तक्रं च गृह्णन्ति, पिण्याक पिण्डिकां वायसपिण्डिकां वा गृहन्ति, ततः पञ्च परिहाणिक्रमेण - एषणादिषु यतितव्यम् || ३१२९ ॥ केषु पुनस्तद् गृह्यते ? इत्याह पुराणादि पण्णवे, णिसिं पि गीतत्यें होति गहणं तु । अग्गीतें दिवा गहणं, सुण्णघरे वा इमेहिं वा ॥ ३१३० ॥ पुराणं वा श्रावक वा साधुसामाचारीकुशलं प्रज्ञाप्य यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः 'निश्यपि ' रात्रावपि ग्रहणं कुर्वन्ति । अगीतार्थमिश्रेषु तु पुराणादिः प्रज्ञापितः सन् शून्यगृहे वाशब्दाद् देवकुलादौ बलिनिवेदनलक्ष्येण पौद्गलिकादिकं स्थापयति तस्य दिवा ग्रहणं कर्त्तव्यम् । एतेषु वा स्थानेषु स्थापितं गृदन्ति ॥ ३१३० ॥ तान्येवाह 20 25 उंबर को डिबे व, देवउले वा णिवेदणं रण्णो । कतकरणे करणं वा असती नंदी दुविहदव्वे || ३१३१ ॥ देवकुलादिषु ये उदुम्बरास्तेष्वर्चनिका लक्ष्येणोपढौकितं कूरादिकं गृह्णन्ति । कोट्टिम्बा नामयत्र गोभक्तं दीयते तत्र गोभक्तलक्ष्येण स्थापितं गृह्णन्ति । अरण्ये वा यद् देवकुलं तत्र बलिनिवेदनं गृह्णन्ति । - [जानं च सदैव स्वयं परेण वा भणन्तो भाणयन्तश्च तिष्ठति (न्ति), 30 यदि राजा बहुभिरप्युपायैरुपशम्यमानोऽपि नोपशाम्यति ततो यः संयतः 'कृतकरण:' इपुशास्त्रे ३ १ सचित्तेनापीति भा० ॥ २ 'णालक्षणे द्वितीये राजद्विषे विधि व्याचष्टे कां० ॥ एतदन्तर्गतः पाठः ता० भा० त० डे० नास्ति ॥ एतदन्तर्गतः पाठः ता० भा० त० डे० नास्ति ॥ ४ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१.२८-३५ ]. प्रथम उद्देशः । ८७९ 1 कृताभ्यासः सहस्रयोधी वा स करणं करोति, तं राजानं बद्धा शास्तीत्यर्थः । विद्याबलेन वा वैक्रियलब्धिसम्पन्नो वा विष्णुकुमारादिरिव तस्य शिक्षां करोति । “असइ " त्ति यदा कृतकर - णादयो न प्राप्यन्ते तदाऽध्वानं गच्छद्भिः 'नन्दि:' प्रमोदो येन द्रव्येण गृहीतेन स्यात् तद् द्विविधमपि ग्रहीतव्यम् । तद्यथा - प्राशुकमप्राशुकं वा, परीत्तमनन्तं वा, परिवासितमपरिवासितं वा, एषणीयमनेषणीयं वेति ॥ ३१३१ ॥ गतं भक्त - पानप्रतिषेधद्वारम् । अथोपकरणहरद्वारं व्याख्यानयति ase व होति जतणा, वत्थे पादे अलब्भमाणम्मि । उच्छुद्ध विप्पइण्णे, एसणमादीसु जतितव्यं ।। ३१३२ ॥ 'तृतीयं राजद्विष्टं नाम' यत्र राज्ञा प्रतिषिद्धम् - 'माऽमीषां वस्त्रं पात्रं वा कोऽपि दद्याद् अपहर्त्तव्यं वा; तत्र वस्त्रे वा पात्रे वा अलभ्यमाने यतना कर्त्तव्या । कथम् ? इत्याह - देवकु - 10 लादिषु कार्पटिकैर्यद् वस्त्रादिकम् 'उच्छुद्धं' परित्यक्तं यच्च 'विप्रकीर्णम्' उत्कुरुटिकादिस्थापितं तद् गृह्णन्ति । एषणादिदोषेषु वा यतितव्यम्, वस्त्रग्रहणे पञ्चकपरिहाण्या यतना कर्त्त - व्येति ॥ ३१३२ ॥ 5 हियसेस गाण असती, तण अगणी सिक्कगा व वागा वा । पेहुण-चम्मग्गहणं, भत्तं तु पलास पाणिसु वा ।। ३१३३ ॥ राज्ञा साधूनामुपकरणानि हृतानि, ततः तच्छेषाणां तदुद्धरितानामभावः संवृत्तः किञ्चिदप्यव शिष्यमाणं नास्तीति भावः । ततः शीताभिभूताः सन्तस्तृणानि गृह्णन्ति अग्निं वा सेवते । पात्रकबन्धाभावे - सिक्केकानि, प्रावरणाभावे तु शणादिवल्कानि गृह्णन्ति । "पेहुणं" ति मयूराङ्गमयी पिच्छिका रजोहरणस्थाने कर्त्तव्या । चर्मणो वा प्रस्तरण- प्रावरणार्थं ग्रहणं कार्यम् । भक्तं तु पलाशपत्रादिषु, तेषामभावे पाणिष्वपि गृह्णीयाद्वा भुञ्जीत वा ॥ ३१३३ ॥ असई य लिंगकरणं, पण्णवणड्डा सयं व गहणट्ठा । आगाढें कारणम्मि, जहेव हंसादिणं गहणं ।। ३१३४ ॥ 20 एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ १ वाऽमीषां वस्त्र पात्रादिकमितिः तत्र कां० ॥ २ ३ मसत्ता संवृत्ता, कि° कां० ॥ ४° । तथा सिक्ककानि वा चल्कानि वा गृह्णीयुः । तत्र पात्रक कां० ॥ ५एतदन्तर्गतः पाठः ता० भा० कां० एव वर्त्तते ॥ यदि राजा स्वलिङ्गेनोपशाम्यमानोऽपि नोपशाम्यति, उपकरणं वा खलिङ्गेन मृभ्यमाणं न लभ्यते, ततः परलिङ्गं कुर्वन्ति । किमर्थम् ? इत्याह- प्रज्ञापनार्थं स्वयं वा ग्रहणार्थम् । किमुक्तं भवति ? – बौद्धादिना राज्ञोऽनुमतेन परलिङ्गेन स्थिताः स्वसमय-परसमयवेदिनो वृषभा 25 युक्तियुक्तैर्वचोभिस्तं राजानं प्रज्ञापयन्ति, तेन वा परलिङ्गेन स्थिता उपकरणं स्वयमेवोत्पादयन्ति । ईशे आगाढे कारणे यथैव हंसतैलादीनां ग्रहणं तथा वस्त्र -पात्रादेरप्यवखापन- तालोद्घाटनादिप्रयोगैः कर्त्तव्यमिति ॥ ३१३४ ॥ गतमुपकरणहरंद्वारम् । अथ जीवित चारित्रभेदद्वारं भावयतिदुविहम्म भेरवमि, विज णिमित् य चुण्ण देवी य । सेट्ठिम्मि अचम्मिय, एसणमादीसु जतितव्यं ॥ ३१३५ ।। 15 30 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अध्वप्रकृते सूत्रम् ४६ 'द्विविधे' जीवित-चारित्रव्यपरोपणात्मके भैरवे समुत्पन्ने तं राजानं विद्यया निमित्तेन वा चूर्णैर्वा वशीकुर्यात् , या वा देवी तस्य राज्ञ इष्टा सा विद्याभिरावय॑ते । एवमप्यनुपशान्तौ श्रेष्ठिनममात्यं वा उपलक्षणत्वात् पाषण्डिगणं वा प्रज्ञापयन्ति, ततस्तद्वारेणोपशमयन्ति । अथवा यावद् नृपतिमुपशमयन्ति तावत् श्रेष्ठिनोऽमात्यस्य वा अवग्रहे तिष्ठन्ति । एषणादिषु च प्राग्व। देव यतितव्यम् ॥ ३१३५॥ आगाढ़े अण्णलिंगं, कालक्खेवो व होति गमणं वा । कयकरणे करणं वा, पच्छादण थावरादीसु ॥३१३६ ॥ आगाढे राजद्विष्टेऽन्यलिङ्गं विधायाज्ञायमानस्तत्रैव कालक्षेपः कर्त्तव्यः विषयान्तरगमनं वा कर्त्तव्यम् । यो वा कृतकरणः स करणं करोति, विष्णुकुमारादिरिव नृपतेः शिक्षा 10 करोतीत्यर्थः । अथ तदपि नास्ति ततः स्थावराः-वृक्षास्तेषां गहनेषु १ ऑदिशब्दात् । पद्मसरःप्रभृतिषु वा आत्मानं प्रच्छाद्य दिवा निलीना आसते रात्रौ च व्रजन्ति ॥ ३१३६ ॥ गतं राजद्विष्टद्वारम् । अथ भयादिद्वाराणि युगपदाह बोहिय-मिच्छादिभए, एमेव य गम्ममाण जतणाए । दोण्हऽट्ठा व गिलाणे, णाणादट्ठा व गम्मंते ॥ ३१३७ ॥ 15 बोधिकाः-मालवस्तेनाः, म्लेच्छाः-पारसीकादयः, तदादीनां भये समुपस्थिते । शीघ्र देशान्तरं » गन्तव्यम् । तत्र च गम्यमाने 'एवमेव' अशिवादिद्वारवद् भैक्षादिकं यतनया कर्तव्यम् । आगाढं तु किञ्चिदौत्पत्तिकं कार्यम् , यथा संज्ञातकैः सन्दिष्टम्-इदं कुलं प्रत्रज्यामभ्युपगच्छति यदि यूयमागच्छथ, अथ नागमिष्यथ ततो विपरिणंस्यति अन्यस्मिन् वा शासने प्रव्रजिष्यति; ईदृशे आगाढे गन्तव्यम् । ग्लानत्वे वा द्वयोरर्थाय गम्यते, वैद्यस्यौषधानां 20 च हेतोरित्यर्थः । उत्तमार्थे तु निर्यापणार्थं प्रतिचरको गच्छेत् । उत्तमार्थ प्रतिपित्सुर्वा विशोधिकरणार्थ गीतार्थसमीपं गच्छेत् । ज्ञान-दर्शन-चारित्रार्थ वा गन्तव्यम् । एतैः कारणैर्गम्यमाने पूर्व मार्गेण पश्चादच्छिन्नेन च्छिन्नेन वा पथाऽपि गन्तव्यम् ॥ ३१३७ ॥ अत्र यतनामाह एगापन्नं च सता, वीसं चऽद्धाणणिग्गमा णेया। एत्तो एकेक्कम्मि य, सतग्गसो होइ जतणाओ॥ ३१३८॥ 25 सार्थपञ्चकेन कालोत्थायिप्रभृतिभिश्चतुर्भिः पदैरष्टभिः सार्थवाहैरष्टभिश्चादियात्रिकैरेकपञ्चा शच्छतानि विंशत्यधिकानि अवनिर्गमप्रकारा भवन्ति । एते च प्राक् सप्रपञ्चं भाविताः (गा० ३०८२-८५)। एतेषु भङ्गकेप्वेकैकस्मिन् भङ्गकेऽशिवादिकारणेऽध्वनि गच्छतां शताग्रशः प्रागुक्तनीत्या यतना भवन्ति ॥ ३१३८ ॥ ॥ अध्वगमनप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ "देवी य त्ति जा वा तस्स महादेवी इट्ठा सा विजादीहिं आउहिज्जति, पच्छा सा तं भाउटेति रायं।" ॥ २-३१» एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. का. एव वर्तते ॥ ४°यः, तेषां भये भा० ॥ ५॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. का. एव वर्तते ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१३६-४२ ] सूत्रम् प्रथम उद्देशः । संख डिप्रकृतम् ias वा संखडिपडियाए इत्तए ४७ ॥ ८८१ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध: ? इत्याह- दुविहायाता उ विहे, बुत्ता ते होज संखडीए तु । तत्थ दिया विन कप्पति, किमु रातिं एस संबंधो ॥ ३१३९ ॥ ‘विहे' अध्वनि गच्छतां संयमाऽऽत्मविराधनाभेदाद् द्विविधाः प्रत्यपाया उक्ताः । सङ्खड्यामपि गच्छतां त एव प्रत्यपाया भवेयुः । अतस्तत्र दिवाऽपि गन्तुं न कल्पते किमुत रात्रौ ! एष सम्बन्धः ॥ ३१३९ ॥ 6 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - "संखडिं वा " इति वाशब्दाद् “न कल्पते " 10 इत्यादिपदान्यनुवर्त्तनीयानि । तद्यथा- न केवलमध्वानं रात्रौ वा विकाले वा गन्तुं न कल्पते, किन्तु सङ्खडिमपि रात्रौ वा विकाले वा सङ्खडिप्रतिज्ञया 'एतुं' गन्तुं न कल्पते । एष सूत्रसपार्थः ॥ अथ भाष्यकारो विस्तरार्थं बिभणिषुराह - संखंडिजंति जहिं, आऊणि जियाण संखडी स खलु । 15 तप्पडिताऍ कप्पति, अण्णत्थ गते सिया गमणं ।। ३१४० ॥ सम्-इति सामस्त्येन खण्ड्यन्ते - त्रोट्यन्ते 'जीवानां' वनस्पतिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्येण 'यत्र ' प्रकरणविशेषे सा खलु ससडिरित्युच्यते, "खरेभ्य इ: " ( सि० हे० औ० सू० ६०६) इत्यौणादिक इप्रत्ययः, पृषोदरादित्वादनुखारलोपः, ती सङ्घडिं 'तत्प्रतिज्ञया' 'सङ्खडिमहं गमि - प्यामि' इत्येवंलक्षणया गन्तुं न कल्पते । एवं ब्रुवता सूत्रेणेदं सूचितम् – 'अन्यार्थम्' अपरकानिमित्तं सङ्खडिग्रामं गतस्य सङ्घड्यामपि गमनं स्यादिति ॥ ३१४० ॥ •1 अथात्रैव प्रायश्चित्तमाह - १ ण गम्मति ता० ॥ २ तां संखंडिजंति जहिं आऊणि जियाण संखार्ड इति लेखकप्रमादप्रविष्टः पाठः भा० कां० विना सर्वास्वपि प्रतिषु वर्तते ॥ ३ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० कां० एव वर्त्तते ॥ ४ ॥ एतन्मध्यगतः पाठः कां० एव वर्त्तते ॥ 20 राओ व दिवसतो वा, संखडिगमणे हवंतऽणुग्धाया । संखडि गमणेगा, दिवसेहिं तहेव पुरिसेहिं ।। ३१४१ ॥ रात्रौ वा दिवसतो वा सङ्खड्यां- 1 सङ्खडिग्राममुद्दिश्य गमने चत्वारोऽनुद्धाताः प्रायश्चित्तम् । सा च सङ्खडी दिवसैः पुरुषैश्चैका अनेका च भवति ॥ ३१४१ ॥ इदमेव स्पष्टयतिएगो एगदिवसियं, एगो गाहियं व कुजाहि । - 25 गा व एगदिवसिं, णेगा व अणेगदिवसं तु ॥ ३१४२ ॥ एकपुरुष एकदैवसिकीं सङ्खडीं कुर्यात्, एकः 'अनेकाहिकाम्' अनेकदैवसिक्रीम्, अनेके पुरुषाः सम्भूयैकदैवसिकीम्, अनेके पुरुषा अनेकदैवसिकीं सङ्खडीं कुर्वन्ति ॥ ३१४२ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ एक्केक्का सा दुविहा, पुरसंखडि पच्छसंखडी चेव । पुवा-ऽवरसूरम्मि, अहवा वि दिसाविभागेणं ॥ ३१४३ ॥ 'एकैका' एकदैवसिकी अनेकदैवसिकी च 'सा' सङ्खडिः प्रत्येक द्विधा-पुरःसङ्खडी पश्चात्सङ्खडी च । या 'पूर्वसूर्ये' पूर्वदिग्विभागमध्यासीने रवौ क्रियते सा पुरःसङ्खडी, या 5 पुनरपरसूर्ये सा पश्चात्सङ्खडी । अथवा दिग्विभागेनानयोः पुरः-पश्चाद्विभागो विज्ञेयः-या विवक्षितग्रामादेः सकाशात् पूर्वस्यां दिशि भवति सा पूर्वसङ्खडी, या तु तस्यैवापरस्यां दिशि सा पश्चात्सङ्खडी ॥ ३१४३ ॥ अत्र प्रायश्चित्तमाह दुविहाए वि चउगुरू, विसेसिया भिक्खुमादिणं गमणे । गुरुगादि व जा सपदं, पुरिसेगा-ऽणेग-दिण-रातो ॥ ३१४४ ॥ 10 द्विविधायामप्यनन्तरोक्तायां सङ्खड्यां गमने चतुर्गुरुकाः । एते च भिक्षुप्रभृतीनां तपः कालविशेषिताः-भिक्षोस्तपसा कालेन च लघवः, वृषभस्य तपसा लघवः, उपाध्यायस्य कालेन लघवः, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरवः । अथवा चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा एकानेकपुरुषकृतैकानेकदैवसिकसङ्खडीषु रात्रौ गच्छतः 'स्वपदं' छेदादिकं यावन्नेतव्यम् । तद्यथा-भिक्षुरेक पुरुषकृतामेकदैवसिकी सङ्खडी व्रजति चतुर्गुरवः, एकपुरुषकृतानेकदैवसिक्यां षड्लघवः, 15 +4 अनेकपुरुषकृतायामेकदैवसिक्यां षड्गुरवः, » अनेकपुरुषकृतानेकदैवसिक्यां छेदः । एवं भिक्षुविषयमुक्तम् । वृषभस्य षड्लघुकादारब्धं मूले, उपाध्यायस्य षड्गुरुकादारब्धमनवस्थाप्ये, आचार्यस्य च्छेदादारब्धं पाराश्चिके निष्ठामुपयाति ॥३१४४ ॥ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमेवाह आयरियगमणे गुरुगा, वसभाण अवारणम्मि चउलहुगा। दोण्ह वि दोण्णि वि गुरुगा, वसभ बला तेतरे सुद्धा ॥ ३१४५ ॥ 20 आचार्यस्य 'सङ्खड्यां गच्छामः' इति ब्रुवाणस्य चत्वारो गुरवः । तमेवंब्रुवाणं वृषभा न वारयन्ति चतुर्लघुकाः । अथाचार्येण 'सङ्खडी बजामः' इत्युक्ते वृषभा अपि 'व्रजामः' इति भणन्ति ततः 'द्वयोरपि' वृषभा-ऽऽचार्ययोर्ये चत्वारो मासास्ते द्वयेऽपि गुरुकाः कर्त्तव्याः, वृषभाणामपि चतुर्गुरुका भवन्तीति भावः । अथ वृषभैारिता अप्याचार्याः बलामोटिकया गच्छन्ति ततः 'ते' आचार्याः प्रायश्चित्ते लग्नाः, 'इतरे' वृषभास्ते 'शुद्धाः' न प्रायश्चित्तभाज इति ॥ ३१४५॥ सव्वेसि गमणे गुरुगा, आयरियअवारणे भवे गुरुगा। वसभे गीता-गीए, लहुगा गुरुगो य लहुगो य ॥ ३१४६ ॥ यदि सर्वेऽपि साधवो भणन्ति 'सङ्खड्यां गच्छामः' इति ततस्तेषां चत्वारो गुरुकाः । आचार्यास्तान्न वारयति चतुर्गुरवः । वृषभो न वारयति चतुर्लघवः । गीतार्थो भिक्षुर्न वारयति । गुरुको मासः । अगीतार्थो न वारयति » लघुको मासः ॥ ३१४६ ॥ एगस्स अणेगाण व, छंदेण पहाविया तु ते संता । वत्तमवत्तं सोचा, नियत्तणे होंति चउगुरुगा ॥३१४७ ।। १°वन्मन्तव्यम् भा० त० डे० का० ॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः भा. कां. एव वर्तते ॥ ३ अत्र ग्रन्थानम्-६००० इति भा० विना ॥ ४ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एवं वर्तते ॥ 25 80 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१४३-५०] प्रथम उद्देशः । ९८३'एकस्य' आचार्यादेः 'अनेकेषां वा' बहूनां 'छन्देन' अभिप्रायेण 'ते' सङ्खड्या उपरि प्रधाविताः सन्तो वृत्तामवृत्तां वा सङ्खडी श्रुत्वा यदि निवर्तन्ते ततश्चतुर्गुरुका भवन्ति ।। ३१४७॥ इदमेव भावयति वेलाए दिवसेहिं व, कत्तमवत्तं निसम्म पञ्चेति । होहिइ अमुगं दिवसं, सा पुण अण्णम्मि पक्खम्मिः ॥ ३१४८॥ 'वेलया दिवसैर्वा प्रतिनियतां सङ्खडी श्रुत्वा प्रस्थिताः, गच्छद्भिश्चापान्तराले श्रुतम् , यथा-सा सङ्खडी 'वृत्ता' समाप्ता 'अवृत्ता वा' अन्यस्यां वेलायामन्यस्मिन् दिवसे भाविनी; एवं वृत्तामवृत्तां वा 'निशम्य' श्रुत्वा 'प्रत्यायान्ति' प्रतिनिवर्तन्ते । स तंत्र वेलामङ्गीकृत्य » यथा कैश्चिदपि साधुभिः श्रुतम्-अद्यामुकगृहे पूर्वाहवेलायां सङ्खडी भविष्यति ततस्ते पात्राण्युद्राह्य तस्यां गन्तुं प्रस्थिताः, अपान्तराले च तैः श्रुतम् , यथा-अतिक्रान्ताः सा सवडी 110 स एवमपराह्मवेलाभाविनी सङ्खडी श्रुत्वा » प्रस्थिताः, अपान्तराले चाकर्णितम्, यथानाद्यापि तत्र वेला; एवं श्रुत्वा प्रतिनिवर्तन्ते । दिवसमधिकृत्य पुनरित्थम् - "होहिइ" इत्यादि पश्चार्द्धम् । कचिद् ग्रामे स्थितैः श्रुतम्-अमुकग्रामे 'अमुकदिवसे' पञ्चमीप्रभृतिके सङ्खडिर्भविष्यति; इत्याकर्ण्य ते तं ग्राम प्रस्थिताः, तत्र च गच्छद्भिरन्तरा श्रुतम् , यथा-वृत्ता सा सङ्खडी भविष्यति वा । कथम् ? इत्याह-“सा पुण अन्नम्मि पक्खम्मि" ति यस्यां पञ्चम्यां 15 भाविनी सङ्खडी साधुभिः श्रुता सा पुनः 'अन्यस्मिन्' अतीतेऽनागते वा पक्षे भूता वा भविष्यति वा, न तत्पक्षवर्तिनीति भावः ॥ ३१४८ ॥ अथ सङ्खडी कथं कुत्र वा भवति ? इत्युच्यते आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहियाएँ महिमाए । तोसलिविसए विण्णवणट्ठा तह होति गमणं वा ॥ ३१४९ ॥ 'आदेशः' सङ्खडिविषये दृष्टान्तोऽयम् 20. तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडागं नाम सरः । तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽष्टाहिकामहिमां करोति.। तत्रोत्कृष्टावगाहिमादिद्र्व्यस्यादानं-ग्रहणं तदर्थ कोऽपि लुब्धो गन्तुमिच्छति । ततः स गुरूणां विज्ञपनां सङ्खडिगमनार्थ करोति । आचार्या वारयन्ति । तथापि यदि गमनं करोति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं दोषाश्च वक्तव्या इति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ३१४९ ॥ अथैनामेव विवृणोति सेलपुरे इसितलागम्मि होति अट्टाहिया महामहिमा । कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय पादीणवाहम्मिः॥ ३१५० ॥ तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्ष महता विच्छदेनाऽष्टाहिकामहामहिमा भवति । तथा कुण्डलमेण्ठनाम्नो वानमन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवर्ती भूयान् . १ वेलायां दिवसे वा प्रतिनियते प्रवर्तिष्यमाणां सङ्ख भा० ॥ २२ एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्तते ॥३॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ ४°दिधान्यस्याः ता. भा० कां. विना ॥ ५'दानार्थ कोऽपि भा० ॥ ६ ता० भा० का विनाऽन्यत्र-लमेत पभा मो.. ले । 'लमेंत पभा त० डे० ॥ ७°लमैतनानो भा० का विना। "अहवा कोंडलमिडे कों 25 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ संखडिप्रकृतं सूत्रम् ४७ लोकः सङ्खडं करोति । प्रभासे वा तीर्थे अर्बुदे वा पर्वते यात्रायां सङ्खडिः क्रियते । 'प्राचीनवाहः' सरस्वत्याः सम्बन्धी पूर्वदिगभिमुखः प्रवाहः, तत्राऽऽनन्दपुरवास्तव्यो लोको गत्वा यथाविभवं शरदि सङ्घडिं करोति ॥ ३१५० ॥ एवमादिषु सङ्खडीषु कोऽप्युत्कृष्टद्रव्यलुब्धो गुरून् सङ्घडिगमनार्थं विज्ञपयति । गुरवो 6 ब्रुवते - आर्य ! न कल्पते सङ्घडिं गन्तुम्, ततोऽसौ मायया ब्रवीति --- अस्थि य में पुव्वदिट्ठा, चिरदिट्ठा ते अवस्स दट्ठव्वा । मायागमणे गुरुगो, तहेव गामाणुगामम्मि ।। ३१५१ ।। सन्ति मे तत्र ग्रामे 'पूर्वदृष्टाः पूर्वपरिचिताः सुहृदादयः, ते च 'चिरदृष्टाः' प्रभूतकाल - स्तेषां मिलितानामभवदिति भावः, अत इदानीमवश्यं द्रष्टव्यास्ते मया । एवं मायया गुरूना10 पृच्छय यदि गच्छति तदा गुरुको मासः । ग्रामानुग्रामेऽपि विहरतां सङ्घडिं श्रुत्वा गच्छतां तथैव मासगुरुकम् || ३१५१ ॥ इदमेव व्याचष्टे – गामाशुगामियं वा, रीयंता सोउ संखडिं तुरियं । छड़ेति व सति काले, गामं तेसिं पि दोसा उ || ३१५२ ॥ ग्रामानुग्रामिकं वा 'रीयमाणाः' विहरन्तः क्वापि ग्रामे सङ्घडिं श्रुत्वा ये त्वरितं गच्छन्ति; 15 सति वा भिक्षाकाले तं ग्रामं परित्यजन्ति, परित्यज्य च सङ्घडिग्रामं गच्छन्ति तेषामपि 'दोषाः ' वक्ष्यमाणा भवन्ति ॥ ३१५२ ॥ गंतुमणा अन्नदिसिं, अन्नदिसि वयंति संखडिणिमित्तं । मूलग्गामे व अडं, पडिवसभं गच्छति तदट्ठा ॥ ३१५३ ।। भिक्षाचर्यायामन्यस्यां दिशि गन्तुमनसः सङ्खडिं श्रुत्वा तन्निमित्तमन्यस्यां दिशि व्रजन्ति । 20 मूलग्रामे वा अटन् सङ्खडिमाकर्ण्य प्रतिवृषभग्रा मे 'तदर्थं' सङ्घडिहेतोर्गच्छति ॥ ३१५३ ॥ एतेषु सर्वेष्वपि गमनप्रकारेषु दोषानुपदि दर्शयिषुराह गाहि अगाहिं, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं । आणादिणो य दोसा, विराहणा पंथि पत्ते य ॥ ३१५४ ॥ एकाहिकीमने काहिकीं वा तां सङ्घड़ीं गन्तुं दिवा रात्रौ वा प्रतिषिद्धां यदि गच्छति तत 25 आज्ञादयो दोषाः, विराधना च संयमा - ssत्मविषया पथि वर्तमानानां तत्र प्राप्तानां च भवति ॥ ३१५४ ॥ तत्र पथि वर्त्तमानानां तावद् दोषानभिधित्सुंराह मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होति संजमाऽऽयाए । रीयादि संजमम्मि य, छक्काय अचक्खुविसयम्मि ।। ३१५५ ॥ सङ्खडिं गच्छतः साधून् दृष्ट्वा यथाभद्रकादयो मिध्यात्वे स्थिरतरीभवेयुः, उड्डाहो वा भवेत् । डलमेंढो वाणमंत । देवद्रोणी भरुयच्छाहरणीए, तत्थ यात्राए बहुजणो संखडिं करेइ । पभासे अब्बुर य पव्वए जत्ताए संखडी कीरति । पायीणवाहो सरस्वतीए, तत्थ आणंदपुरगा जधाविभवेणं बच्चति सरए ।" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ १ माणलक्षणा मिध्यात्वप्रभृतयो भव' कां० ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१५१-५९] प्रथम उद्देशः। ८८५ तथा संयमा-ऽऽत्मविराधना भवति । तत्र संयमविराधना र भाव्यते-'मा सङ्खडिदिवसो व्यतिक्रामतु' इति कृत्वा » रात्री गच्छन् ईर्यादिसमितीन शोधयति । अचक्षुर्विषये च गच्छतां षट्कायविराधना । आत्मविराधना तु पुरस्ताद् वक्ष्यते ॥ ३१५५ ॥ अथ मिथ्यात्वोड्डाहद्वारे व्याचष्टे जीहादोसनियत्ता, वयंति लूहेहि तजिया भोजे । थिरकरणं मिच्छत्ते, तप्पक्खियखोभणा चेव ॥ ३१५६ ॥ लोको ब्रूयात्-अहो ! अमी श्रमणाः 'जिह्वादोषनिवृत्ताः' रसगृद्धिरहिता अपि 'रूः' वल्ल-चणकादिभिराहारैस्तर्जिताः सन्तः सम्प्रति 'भोज्यार्थ' सङ्खडिहेतोर्गच्छन्ति इत्युड्डाहो भवेत् । तथा यथैतदमीषामसत्यं तथा अन्यदपि मिथ्या प्रलपितमिति मिथ्यात्वे स्थिरीकरणं भवति । ये च तत्पाक्षिकाः-साधुपक्षबहुमानिनः श्रावकास्तेषां क्षोभना-मिथ्यादृष्टिभिः सम्यक्त्वाच्चालना 10 भवति ॥ ३१५६ ॥ अथाऽऽत्मविराधनामाह वाले तेणे तह सावते य विसमे य खाणु कंटे य । अकम्हाभयं आतसमुत्थं, रत्तेमादी भवे दोसा ॥ ३१५७ ॥ रात्रौ सङ्खडिगमने 'व्यालः' सर्पस्तेन दश्येत, स्तेनैरुपकरणमपहियेत, 'श्वापदैः' सिंहादिभिरुपद्येत, 'विषमे च' निम्नोन्नते प्रपतेत्, स्थाणुना वा कण्टकेन वा विध्येत, अकस्माद्भयं 15 चात्मसमुत्थं भवति । रात्रावेवमादयो दोषा भवेयुः ॥ ३१५७ ॥ एवं तावत् पथि गच्छतां दोषा अभिहिताः । अथ तत्र प्राप्तानामाह वसहीए जे दोसा, परउत्थियतज्जणा य बिलधम्मो । आतोज-गीतसद्दे, इत्थीसद्दे य सविकारे ॥ ३१५८ ॥ वसतेः सम्बन्धिनो ये आधाकर्मादयो दोषास्तेषु लगन्ति । परतीर्थिकाश्च तत्र गतानां तर्जनां 20 कुर्वन्ति । 'बिलधर्मो नाम' एकस्यामेव वसतौ गृहस्थैः समं संवत्यैकत्रावस्थानम् , तत्रासङ्खडं स्यात् । तत्र च सङ्खड्यामातोद्य-गीतशब्दाद्यान् स्त्रीशब्दाँश्च सविकारान् श्रुत्वा चशब्दादविरतिका अलङ्कता दृष्ट्वा स्मृतिकरणादयो दोषा इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३१५८ ।। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिआहाकम्मियमादी, मंडवमादीसु होति अणुमण्णा । 25 रुक्खे अब्भापासे, उवरि दोसे परूवेस्सं ॥ ३१५९ ॥ सङ्खडीकर्ता दानश्राद्धो यथाभद्रपो वा साधूनां निमित्तमाधाकर्मिकान् मण्डपान् कारयेत् , आदिशब्दाद् यावन्तिकादिपरिग्रहः । तेषु मण्डपेषु आदिशब्दात् पटकुटीप्रभृतिषु च A तिष्ठतामनुमतिदोषः प्रामोति । अथैतद्दोषभयान्न तत्र तिष्ठन्ति ततोऽन्यत्र वसतिमलभमाना वृक्ष » मूलेऽभावकाशे वा वसन्ति । तत्र च वसतां ये दोषास्तानुपरिष्टादस्मिन्नेव सूत्रे प्ररूपयि-30 १५ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० का० एव वर्तते ॥ २ सङ्खडि बजतः साधून् दृष्ट्रा लोको का० ॥३॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां• एव वर्तते ॥ ४°तां साधूनाम् "अणुमन" त्ति अनुमति° का ॥ . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ ष्यामि ॥ ३१५९ ॥ पस्तीर्थिकतर्जनाद्वारमाह इंदियमुंडे मा किंचि वेह मा णे डहेज सावेणं । पेहा-सोयादीसु य, असंखडं हेउवादो यः ॥ ३१६०॥ ये तत्र सङ्खडी श्रुत्वा शाक्य-भौत-भागवतादयः परतीर्थिकाः समायातास्ते साधून तर्जयन्त 5 इत्थं ब्रुवते-इन्द्रियमुण्डा अमी सङ्खडिप्राप्ताः श्रमणाः, 'मा किञ्चिदमून् ब्रूत' न किमप्यमीपां सम्मुखं विरूपकं भाषणीयम् , मा “णे" युष्मान् अमी तपखिन आक्रुष्टाः सन्तः शापेन दहेयुः । एवं तर्जनामसहमाना अपरिणतास्तैः सहासङ्खडं कुर्युः । तथा प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा तां कुर्वतो दृष्ट्या शौचं वा स्वल्पकलुवादिना पानकेन विधीयमानं दृष्ट्वा आदिशब्दात् संयतभाषया भाषमाणान् श्रुत्वा परतीथिका उड्डञ्चकान् कुर्वन्ति, तत्र तथैवासङ्खडं भवेत् । हेतुना वा ते परतीर्थिका 10वादं मार्गयेयुः । यदि दीयते ततस्तेषामात्मनो वा पराजये यथाक्रमं प्रद्वेषगमन-प्रवचनलाघवादयो दोषाः । अथ न दीयते ततस्ते लोकसमक्षमवर्णवादं कुर्युः-बठरशिरःशि(शे)खरा एते न किमपि जानन्तीत्यादि ॥ ३१६० ॥ बिलधर्मद्वारमाह भिंगारेण ण दिण्णा, ण य तुझं पेतिगी सभा एसा । अतिवहुओ ओवासो, गहितो णु तुए कलहों एवं ॥ ३१६१ ॥ 15 साधारणे सभादौ पिण्डीभूय साधवो गृहस्थाश्च यदेकत्रावतिष्ठन्ते स बिलधर्मः । तेन वसतां साधुभिः प्रभूतेऽवकाशे मालिते सति गृहस्था ब्रुवते-भो श्रमण ! एषा सभा तुभ्यं न भृङ्गारेण दत्ता, उदकेन न कल्पितेति भावः; न च तवेयं 'पैतृकी' पितृपरम्परागता, अतः किन्तु नाम अतिबहुकोऽवकाशस्त्वया गृहीतः ? एवं कलहो भवति ॥ ३१६१ ॥ तत्थ य अतित णेतो, संविट्ठो वा छिवेज इत्थीओ। इच्छमणिच्छे दोसा, भुत्तमभुत्ते य फासादी ॥ ३१६२॥ ___ 'तत्र च' सभादौ कोऽपि साधुरतिगच्छन् निर्गच्छन् वा समुपविष्टो वा स्त्रीः स्पृशेत् तत आत्मपरोभयसमुत्था दोषाः । तत्र च यदि तामविरतिको प्रतिसेवितुमिच्छति तदा संयमविराधना । अथ नेच्छति ततः सा उड्डाहं कुर्यात् । स्त्रीणां च स्पर्शादिषु तथा आतोद्य-गीतशब्दान् स्त्रीसम्बन्धिनश्च हसित-कूजितादिशब्दान् श्रुत्वा भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोषाः ॥ ३१६२ ॥ 25 भूयोऽपि दोषदर्शनार्थमाह आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासाए । वीयारे गेलण्णे, जा जहिं आरोवणा भणिया ॥३१६३ ॥ आवश्यके १ खाध्याये २ प्रत्युपेक्षणायां ३ भोजने ४ च भाषायां ५ विचारे ६ ग्लानत्वे च ७ या यत्रारोपणा भणिता सा तत्र ज्ञातव्येति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३१६३ ॥ 30 साम्प्रतमेनामेव प्रतिपदं विवृणोति आवासगं तत्थ करेंति दोसा, सज्झाय एमेव य पेहणम्मि । उहुंच वारेंतमवारणे य, आरोवणा ताणि अकुव्वओ जा ॥ ३१६४ ॥ १ स्पर्शन-दर्शनादिषु भा० ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१६० - ६७ ] प्रथम उद्देशः । 'तत्र' सभादौ गृहस्थैः सह वसन्तो यद्यावश्यकं स्वाध्यायं वा कुर्वन्ति तदा ते कर्णाघाटकेनागमयन्ति उड्डुञ्चकान् वा कुर्वन्ति, एवमादयो दोषाः । प्रत्युपेक्षणायामपि 'एवमेव' उड्डुञ्चकान् कुर्वन्ति । यदि वार्यन्ते तदा साधुभिः सहासङ्घडं कुर्युः । अथ न वार्यन्ते ततो भगवत्प्रवचनस्य भक्तिः कृता न स्यात् । अथैतद्दोषभयादावश्यकादीनि न कुर्वन्ति ततस्तान्यकुर्वतो या काचिदारोपणा सा द्रष्टव्या । तद्यथा— कायोत्सर्गं न करोति, वन्दनकं न ददाति, स्तुतिप्रदानं नक करोति, सूत्रपौरुषीं न करोति, सर्वेष्वपि मासलघु । अर्थपौरुषीं न करोति मासगुरु । जघन्यमुपधिं न प्रत्युपेक्षते रात्रिन्दिवपञ्चकम् । मध्यमं न प्रत्युपेक्षते मासलघु । उत्कृष्टं न प्रत्युपेक्षते चतुर्लघु ॥ ३१६४ ॥ व्याख्यातमावश्यक- स्वाध्याय- प्रत्युपेक्षणालक्षणं द्वारत्रयम् । अथ भोजनभाषाद्वारे विवृणोति - ८८० जं मंडलिं भंजइ तत्थ मासो, गौरत्थिभासामु य एवमेव । चत्तारि मासा खलु मंडलीए, उड्डाहों भासासमिए वि एवं ।। ३१६५ ।। भोजनं कुर्वन् सागारिकमिति मत्वा यद् मण्डली भनक्ति तत्र मासलघु । अंगारस्थभाषासु च भाष्यमाणासु ‘एवमेव' मासलघु । अथैतत्प्रायश्चित्तभयाद् मण्डल्यां समुद्दिशन्ति तदा चत्वारो मासा लघवः, 'उड्डाहश्च' प्रवचनोपघातो मण्डल्यां समुद्देशने भवति । एवं भाषासमितेऽपि मन्तव्यम्, संयतभाषया भाषमाणस्य चत्वारो लघुमासा भवन्तीति भावः ॥ ३१६५ ।। 15 - अथ विचारद्वारं विवृणोति -> थोवे घणे गंधजुते अभावे, दवस्स वीयारगताण दोसा । आवायसंलोगगया य दोसा करेंतऽकुत्र्वं परितावणादी ।। ३१६६ विचारभूमौ गतानां 'स्तोके' खल्पे 'घने' कलुषे 'गन्धयुते' दुर्गन्धिनि द्रवेऽभावे वा सर्वथैव द्रवस्य 'दोषाः' अवर्णवाद - भक्तपानप्रतिषेधादयो भवन्ति । तथा पुरुषादीनामापाते संलोके 20 वा संज्ञां कायिकीं वा कुर्वन्ति तदा तद्गता दोषा यथा पीठिकायां विचारकल्पिकद्वारे ( गा० ४३०–३७) उक्तास्तथा द्रष्टव्याः । अथैतद्दोषभयात् कायिकीं वा संज्ञां वा न करोति किन्तु धारयति तदा परितापना-महादुःख- मूर्च्छादयो दोषाः || ३१६६ ॥ - अँथ ग्लानद्वारं व्याख्याति — 10 गिलाणतो तत्थऽतिभुंजणेण, उच्चारमादीण व सणिरोधा । अगुत्तसिजा व सण्णिवासा, उड्डाह कुव्वंतिमकुव्वतो य ॥ ३१६७ ॥ 'तत्र' सङ्खड्यामुत्कृष्टद्रव्यलोभादतिमात्रभोजनेन यद्वा सागारिकाकीर्णतया तत्रोच्चारादीनां सन्निरोधाद् ग्लानो भवेत् । अथवा अगुप्ताः - असंवृता याः शय्याः - वसतयस्तासु सन्निवासाद् १न्ति, ततस्तैः समं कलहे भोजनभेदादयो दोषाः कां० ॥ . २ तथा इत्येतावदेवात्रतरणं कां विना ॥ ३ गिद्दत्थभासा भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका। दृश्यतां टिप्पणी ४ ॥ ४ गृहस्थभाषा भा० ॥ ५ एतदन्तर्गत मवतरणं कां० एव वर्त्तते ॥ ६ ता० त० डे० विनाऽन्यत्र -- अथ पुरु° भा० । तथा स्थण्डिले सागारिकसमाकुलतया पुरु° मो० ले० कां० ॥ ७ एतदन्तर्गत मवतरणं कां० एव वर्त्तते ॥ 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮૮ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ ग्लानत्वमुपजायते, प्रतिश्रयशीतलतया भक्तस्याजीर्यमाणत्वात् । स च ग्लानो यदि तत्रोच्चारप्रश्रवणादि करोति तदा सागारिका उड्डाहं कुर्युः । अथ न करोति ततः परितापनादयो दोषाः ॥ ३१६७ ॥ अथैतद्दोषभयाद् ग्रामाद् बहिर्वसन्ति ततः को दोषः स्यात् ? इति प्रश्नावकाशमाशङ्याह बहिया य रुक्खमूले, छक्काया साण-तण-पडिणीए । मत्तुम्मत्त विउव्वण, वाहण जाणे सतीकरणं ॥ ३१६८॥ ग्रामादेर्बहिर्वृक्षमूले आकाशे वा पृथिवीकायः सचित्तरजःप्रभृतिकः, अप्कायः स्नेहकणिकादिः, तेजःकायो विद्युदादिः, वायुकायो महावातादिः, वनस्पतिकायो विवक्षितवृक्षसत्कपुप्प-फलादिः, त्रसकायो वृक्षनिश्रितद्वीन्द्रियादिरूपः सम्भवति; एते षट्कायास्तत्र तिष्ठतां विरा10 ध्यन्ते । असंवृते च तत्र श्वानो भाजनमपहरेत् , स्तेना वा उपद्रवेयुः, प्रत्यनीको वा विजनं मत्वा हन्याद्वा मारयेद्वा । तथा 'मत्ताः' मदिरामदभाविताः 'उन्मत्ताः' मन्मथोन्मादयुक्ता विटा इत्यर्थः ते 'विकुर्वणां' भूषणादिभिरलङ्करणं विधाय तत्रागच्छन्ति, 'वाहनानि' हस्त्यश्वादीनि 'यानानि' शिबिका-रथादीनि, तानि दृष्ट्वा भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणमभुक्तभोगिनां तु कौतुकमु पजायत इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३१६८॥ अथैनामेव र भाष्यकारो- विवृणोति15 मा होज अंतो इति दोसजालं, तो जाति दूरं बहि रुक्खमूले। अभुञ्जमाणे तहियं तु काया, अवाउते तेण सुणा य णेगे ॥ ३१६९ ॥ 'अन्तः' ग्रामाभ्यन्तरे सभादौ वसताम् 'इति' अनन्तरोक्तं दोषजालं मा भूदित्यभिसन्धाय 'ततः' ग्रामाद् बहिर्दूरे वृक्षमूले याति । तत्र च 'अभुज्यमाने' अव्याप्रियमाणे प्रदेशे पूर्वोक्तनीत्या षडपि काया विराध्यन्ते । अपावृते च तत्र स्तेनाः श्वानश्चानेके उपद्रवं विदधति ॥ ३१६९ ॥ 20 उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा, पढ़ति चित्ताऽभिणया बहूणि । . कीलंति मत्ता य अमत्तगा य, तत्थित्थि-पुंसा सुतलंकिता य ॥ ३१७०॥ _ 'तत्र' उद्याने 'उन्मत्ताः' विटाः 'विचित्रवेषाः' विविधवस्त्रादिनेपथ्यधारिणः 'चित्राभिनयाः' नानाप्रकारहस्ताद्यभिनया बहूनि शृङ्गारकाव्यानि पठन्ति । तथा मत्ता अमत्ता वा तत्र स्त्री-पुरुषाः सुष्ठु-वस्त्रा-ऽऽभरणैरलङ्कृताः सन्तः क्रीडन्ति ॥ ३१७० ॥ 25 आसे रहे गोरहगे य चित्ते, तत्थाभिरूढा डगणे य केइ । विचित्तरूवा पुरिसा ललंता, हरंति चित्ताणविकोविताणं ॥३१७१॥ 'तत्र' उद्याने केचित् पुरुषा अश्वान् अपरे रथान् तदन्ये 'गोरथकान्' कल्होडकान् केचित् 'चित्राणि' नानाप्रकाराणि युग्यादीनि यानानि 'डगणानि च' यानविशेषरूपाण्यधिरूढाः सन्तो विचित्ररूपाः पुरुषाः श्रेष्ठिपुत्रादयः 'ललन्तः' क्रीडन्तो 'अविकोविदानाम्' अगीतार्थानां चिचानि 20 हरन्ति । ततश्च भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोषाः ॥ ३१७१ ॥ सामिद्धिसंदसणवावडेण, विप्पस्सता तेसि परेसि मोक्खे । १ इति सङ्ग्रहगाथा भा०॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ ३°मूलं ता० ॥ ४ तं वसतिदोषप्रभृतिकं दोष का० ॥ ५°सि रिद्धी ता० ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८९ 15 भाष्यगाथाः ३१६८-७६] प्रथम उद्देशः । तत्थोतपोतम्मि समंततेणं, भिक्खा-वियारादिसु दुप्पयारं ॥ ३१७२ ॥ समृद्ध्याः-वस्त्रा-ऽऽभरणादिरूपायाः सम्-इति सामस्त्येन यद् दर्शनम्-अवलोकनं तत्र व्यापृतेन-'इदं पश्यामि, इदं वा पश्यामि' इति व्याक्षिप्तचेतसा, तथा 'तेषां परेषां' श्रेष्ठिप्रभृतीनां यान-वाहनादीनि 'मुख्यानि' प्रधानानि विविधम्-अनेकप्रकारं पश्यता सूत्रार्थयोः परिमन्थः कृतः स्यादिति शेषः । तत्र चे स्त्री-पुरुषैः समन्ततः 'उअपोते' देशीपदत्वाद् -5 आकीर्णे भिक्षायां विचारभूमौ आदिशब्दाद् विहारभूम्यादौ च दुष्प्रचारं भवति । यत एते दोषा अतः सङ्खड्यां न गन्तव्यम् ॥ ३१७२ ॥ अथ परः प्राह दोसेहिँ एत्तिएहिं, अगेण्हंता चेव लग्गिमो अम्हे। गेहामु य मुंजामु य, ण य दोस जहा तहा सुणसु ॥ ३१७३॥ सङ्खडिगमने यावन्त एते भवद्भिर्दोषा उक्ता एतावद्भिर्वयं सङ्खडिभक्तमगृह्णाना एव लगामः, 10 ततो न कार्यमस्माकं प्रामादिमध्याध्यासनेन । सूरिराह-वयं सङ्खडिभक्तं गृहीमो वा भुञ्जमहे वा न च 'दोषाः' पूर्वोक्ता यथा भवन्ति तथाऽभिधीयमानं शृणु । इयं पुरातना गाथा ॥३१७३॥ अथैनामेव व्याख्यानयति अपरिग्गहिय अभुत्ते, जति दोसा एत्तिया पसजंती। इत्थं गते सुविहिया, वसंतु रण्णे अणाहारा ।। ३१७४ ॥ परः प्राह-अपरिगृहीतेऽभुक्तेऽपि च सङ्खडिभक्ते यद्येतावन्तो दोषाः पथि गच्छतां प्रामादेमध्ये बहिश्च तिष्ठतां भवन्ति, ततः 'इत्थम्' एवं 'गते' स्थिते सम्प्रति सुविहिता अनाहाराः सन्तोऽरण्ये वसन्तु ॥ ३१७४ ॥ गुरुराह होहिंति न वा दोसा, ते जाण जिणो ण चेव छउमत्थो। पाणियसद्देण उवाहणाउ णाविन्भलो मुयति ॥ ३१७५ ॥ 20 हे नोदक ! नायं नियमो यत् सङ्खडिं गच्छतामवश्यमनन्तरोक्ता दोषा भवन्ति, कारणे यतनया गच्छतस्तेषामसम्भवात् ; ततः 'ते दोषा भविष्यन्ति वा न वा' इत्येवं जिनो जानाति नैव छद्मस्थो भवादृशः । अतो यदुक्तं भवता-"इत्थं गते सुविहिता अरण्ये गत्वा वसन्तु" (गा० ३१७४ ) तदेतदज्ञानविजृम्भितम् , यतः पानीयशब्देनोपानही न 'अविह्वलः' अमूखों मुञ्चति, यो मूल् भवति स एव मुञ्चतीति भावः; एवं भवानपि सङ्खडिगमनमात्रे दोषोपप्रदर्शनं 25 श्रुत्वा यदेवं ग्रामादीन् परित्यज्यारण्यवासमभ्युपगच्छति तद् नूनमबुधचक्रवर्तीति हृदयम् ॥ ३१७५॥ अपि च दोसे चेव विमग्गह, गुणदेसित्तेण णिचमुजुत्ता। ण हु होति सप्पलोद्धी, जीविउकामस्स सेयाए ॥ ३१७६ ॥ हे नोदक ! « यद्यपि कारणे वक्ष्यमाणयतनया सङ्खडिगमने प्रत्युत बहवो गुणा भवन्ति 30 तथापि » गुणद्वेषित्वेन यूयं नित्यमुद्युक्ताः सन्तो गुणान्वेषणबुड्या दोषानेव विमार्गयथ न १च मत्तोन्मत्तादिभिः स्त्री भा० ॥२- एतच्चिह्नगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ - एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० का. एव वर्तते ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ गुणान् ; भवन्ति चेदृशा अपि केचिदस्मिन् जगति ये दोषानेव केवलान् पश्यन्ति न गुणनिवहम् । उक्तञ्च गुणोच्चये सत्यपि सुप्रभूते, दोषेषु यत्नः सुमहान् खलानाम् । क्रमेलकः केलिवनं प्रविश्य, निरीक्षते कण्टकजालमेव । । यतः 'न हि' नैव 'सर्पलुब्धिः' सर्पग्राहकत्वं जीवितुकामस्य पुरुषस्य श्रेयसे भवति, किन्तु प्रत्युत मरणाय; एवं भवतोऽपि संयमगुणान्वेषणबुद्ध्या अरण्यवसनं तन्न श्रेयसे सम्पद्यते, प्रत्युताहाराभावेनार्तध्यानादिपरिणामसम्भवात् कन्द-मूल-फलादिभक्षणाद्वा तस्यैव संयमस्योपघातं जनयति ॥ ३१७६ ॥ आह यद्येवं ततो निरूप्यतां कथमत्र दोषा भवन्ति ? कथं वा न भवन्ति ? इति उच्यते भण्णति उवेच्च गमणे, इति दोसा दप्पदो य जहि गंतुं। कम गहण मुंजणे या, न होंति दोसा अदप्पेणं ॥ ३१७७॥ .. भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्-यदि 'उपेत्य' आकुट्टिकया सङ्खड्यां गच्छति, 'दर्पतश्च' गुरुग्लानादिकारणाभावेन यत्र गत्वा गृह्णाति भुङ्क्ते वा तत्रानन्तरोक्ता दोषा मन्तव्याः । अथ 'क्रमेण' गृहपरिपाट्या सङ्खडिगृहं प्राप्तः ततस्तत्र ग्रहणं भोजनं वा कुर्वाणस्य न दोषा भवन्ति । 'अद15 Lण वा' पुष्टालम्बनेन सङ्खडिप्रतिज्ञयाऽपि गच्छतो न दोषा भवन्ति ॥ ३१७७ ॥ इदमेव भावयति पडिलेहियं च खेत्तं, पंथे गामे व भिक्खवेलाए । गामाणुगामियम्मि य, जहिँ पायोग्गं तहिं लभते ॥ ३१७८ ॥ मासकल्पस्य वर्षावासस्य वा योग्यं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितम् , तत्र च गन्तुं प्रस्थितानां 'पथि' मार्गे 20 वर्तमानानां यद्वा तस्मिन्नेव ग्रामे प्राप्तानां सङ्कडिरुपस्थिता, उभयत्रापि यदि भिक्षावेलायां भक्तपानं प्राप्यते तदा कल्पते गन्तुम् । ग्रामानुग्रामिकेऽप्यनियतविहारे विहरतां यत्र भिक्षावेलायां प्रायोग्यं प्राप्यते तत्र ग्रहीतुं लभते नान्यत्रेति ॥ ३१७८ ॥ अथैनामेवं गाथां व्याचष्टे-- वासाविहारखेत्तं, वचंताऽणंतरा जहिं भोजं । अत्तट्टठिताण तहिं, भिक्खमडंताण कप्पेजा ॥ ३१७९ ॥ 25 वर्षाविहारो नाम-वर्षावासस्तत्प्रायोग्यं क्षेत्रं व्रजताम् 'अन्तरा' पथि यत्र 'भोज्यं' सङ्खडी भवति । आह च चूर्णिकृत् ___ भोजं ति वा संखडि त्ति वा एगढें । 'तत्र' ग्रामादौ 'आत्मार्थस्थितानां' स्वार्थमवस्थितानां न तु सङ्खडिनिमित्तं गृहपरिपाट्या च भिक्षामटतां सङ्खडिं गत्वा भक्त-पानं ग्रहीतुं कल्पते ॥ ३१७९ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते नत्थि पवत्तणदोसो, परिवाडीपडित मो ण याऽऽइण्णा । परसंसट्ठ अविलंबियं च गेण्हंति अणिसण्णा ।। ३१८० ॥ १संयमजीविताभिलाषिणो यदेतदरण्य भा० ॥ २ °पणाऽवु ता० त० डे० ॥ ३ जणेसु य, न ता० ॥ ४°व नियुक्तिगाथां कां० ॥ 50 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१७७-८४] प्रथम उद्देशः । नास्ति तत्र सङ्खड्यां गमने प्रवर्तनादोषः, 'परिपाट्यापतितं' प्राप्तावसरं यतस्तत्र भक्त-पानं गृह्णाति, न तदेवैकं गृहमुद्दिश्य गत्वेति । "मो” इति पादपूरणे । न च सा सङ्खडी 'आकीर्णा' जनाकुला, 'परसंसृष्टं च' गृहस्थादिपरिवेषणनिमित्तं हस्तो वा मात्रकं वा संसृष्टम् , अविलम्बितं च तत्रानिषण्णाः सन्तो गृह्णन्ति, भिक्षावेलायां गमनात् तत्क्षणादेव भक्त-पानं लभन्ते, न पुनरुपविष्टाः प्रतीक्षन्ते इति भावः ॥ ३१८० ॥ किञ्च संतऽन्ने वऽवराधा, कजम्मि जतो ण दोसवं जेसु । जो पुण जतणारहितो, गुणो वि दोसायते तस्स ॥ ३१८१॥ 'सन्ति' विद्यन्ते 'अन्येऽपि' अनेषणीयग्रहणादयोऽपराधा येषु 'कार्ये' ज्ञानादौ 'यतः' प्रयत्न कुर्वन् प्रतिसेवमानोऽपि न दोषवान् भवति, यः पुनर्यतनारहितः प्रवर्तते तस्य गुणोऽपि 'दोषायते' दोष इव मन्तव्य । इत्यर्थः ॥ ३१८१ ॥ इदमेव सविशेषमाह-~ 10 असढस्सऽप्पडिकारे, अत्थे जततो ण कोइ अवराधो । सप्पडिकारे अजतो, दप्पेण व दोसु वी दोसो ॥ ३१८२ ॥ 'अशठस्य' राग-द्वेषरहितस्य 'अप्रतिकारे' प्रतिसेवनां विना नास्त्यन्यो यस्य प्रतिकार इत्ये. वलक्षणे 'अर्थे सङ्खडिगमनादौ यतमानस्य' यतनां कुर्वतो न कोऽप्यपराधो भवति । यस्तु 'सप्रतिकारे' परिहत्तुं शक्येऽर्थे 'अयतः' न यतनां करोति दर्पण वा प्रतिसेवते तस्य 'द्वयोरपि' 15 अयतना-दर्पयोदोषो भवति, कर्मबन्ध इत्यर्थः ॥ ३१८२ ॥ यत एवमतः निदोसा आदिण्णा, दोसवती संखडी अणाइण्णा । सुत्तमणाइण्णाते, तस्स विहाणा इमे होंति ॥ ३१८३ ॥ 'निर्दोषा' वक्ष्यमाणदोषरहिता सङ्खडी 'आचीर्णा' साधूनां गन्तुं कल्पनीया । या तु दोषवती सा अनाचीर्णा । तत्र सूत्रमनाचीर्णायामवतरति, न तत्र सङ्खडिप्रतिज्ञया रात्रौ वा विकाले वा 20 गन्तव्यम् । 'तस्याश्च' अनाचीर्णाया अमूनि 'विधानानि' भेदा भवन्ति ॥३१८३॥ तानेवाह जावंतिया पगणिया, सक्खित्ताऽखित्त बाहिराऽऽइण्णा । अविसुद्धपंथगमणा, सपञ्चवाता य भेदाय ॥ ३१८४ ॥ __ 'यावन्तो भिक्षाचरा आगमिप्यन्ति तावतां दातव्यम्' इत्यभिप्रायेण यस्यां दीयते सा यावन्तिका । 'दश शाक्या दश परिव्राजका दश श्वेतपटाः' एवमादिगणनया यत्र दीयते सा प्रग-25 णिता । "सक्खेत्ते"ति सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनी । “अक्खेत्ते"ति सचित्तपृथिव्यादावक्षेत्रे-अस्थण्डिले स्थिता । "बाहिर' ति सक्रोशयोजनक्षेत्रबहिर्वर्तिनी । 'आकीर्णा नाम' चरक-परिव्राजकादिभिराकुला । अविशुद्धेन-पृथिव्यप्कायादिसंसक्तेन पथा गमनं यस्यां साऽविशुद्धपथगमना । तथा यत्र स्तेन-श्वापदादयो दर्शनादिविषयाश्च प्रत्यपाया भवन्ति सा सप्रत्य १ नादौ पुष्टालम्बने 'यतः' का० ॥ २ND एतदन्तर्गतः पाठः का० एवं वर्तते ॥ ३°स्स अपडि ता० ॥ ४ 'ता, प्रकर्षण-वक्ष्यमाणलक्षणजाति-नामविशेषनिर्धारणेन पापण्डिनां गणनं-गणना यस्यां सा प्रगणितेति व्युत्पत्तेः । “सक्खे कां ॥५°दादिकता दर्शन-ब्रह्मव्रतादिविराधनालक्षणाश्च प्रत्य° का० ॥ ६°नापायादयश्च प्रत्य° भा०॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सेखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ पाया । सा च जीवितभेदाय चरणभेदाय वा भवेदिति' द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३१८४ ॥ ... अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति आचंडाला पढमा, वितिया पासंडजाति-णामेहिं । सक्खेते जा सकोसं, अक्खित्ते पुढविमाईसु ॥ ३१८५ ॥ 5 'प्रथमा' यावन्तिकी सा 'आचण्डाला' यावन्तः केचन तटिका-कार्पटिकादयो भिक्षाचरा यावदपश्चिमश्चाण्डालस्तावतां दातव्यमिति लक्षणा । 'द्वितीया' प्रगणिता प्रकर्षेण पाषण्डिनो जात्या नान्ना वा गणयित्वा यत्र दीयते । तत्र जातिं प्रतीत्य गणना यथा-दश भौता दश भागवता दश श्वेताम्बरा इत्यादि । नाम प्रतीत्य गणना यथा—अमुकः श्वेतपटोऽमुकश्च रक्त__पट इत्यादि । खक्षेत्रसङ्खडी नाम या सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरे भवति । अक्षेत्रसङ्खडी तु या 10 सचित्तपृथिवी-वनस्पतिकायादिष्वनन्तरं परम्परं वा प्रतिष्ठिता ॥ ३१८५ ॥ एतासु गच्छतः प्रायश्चित्तमाह जावंतिगाएँ लहुगा, चउगुरु पगणीऍ लहुग सक्खेत्ते । मीसग-सचित्त-ऽणंतर-परंपरे कायपच्छित्तं ॥३१८६ ॥ यावन्तिकायां चतुर्लघवः । प्रगणितायां चतुर्गुरवः । खक्षेत्रसङ्खड्यां गच्छतश्चतुर्लघु । अक्षे15 सङ्खड्यां मिश्र-सचित्ता-ऽनन्तर-परम्परप्रतिष्ठितायां कायप्रायश्चित्तम् । तत्र पृथिव्यादिषु प्रत्येक वनस्पतिपर्यन्तेषु मिश्रेषु परम्परप्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम् , अनन्तरप्रतिष्ठितायां मासलघु; एतेष्वेव सचित्तेषु परम्परप्रतिष्ठितायां मासलघु, अनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्लघु; अनन्तवनस्पतिष्वेतान्येव प्रायश्चित्तानि गुरुकाणि कर्त्तव्यानि ॥ ३१८६ ॥ र अथ सक्रोशयोजनबहिर्वर्तिनीप्रभृतिषु सङ्खडीषु प्रायश्चित्तमाह-~ 20 बहि बुड्ढि अद्धजोयण, गुरुगादी सत्तहिं भवे सपदं । चरगादी आइण्णा, चउगुरु हत्थाइभंगो य ॥ ३१८७ ॥ क्षेत्राद् बहिः सङ्खड्यां गच्छतश्चतुर्लघु, ततः परमर्द्धयोजनवृद्ध्या चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा सप्तभिवृद्धिभिः 'स्वपदं' पाराञ्चिकं भवेत् । तद्यथा-क्षेत्राद् बहिरर्द्धयोजने चतुर्गुरु, योजने षड्लघु, सार्द्धयोजने षड्गुरु, द्वयोर्योजनयोश्छेदः, अर्द्धतृतीययोजनेषु मूलम् , त्रिषु योजनेषु नवमम्', 25 अर्द्धचतुर्थयोजनेषु पाराञ्चिकम् । तथा या चरक-परिव्राजक कार्पटिकादिभिराकुला सा आकीर्णा तां गच्छतश्चतुर्गुरुकम् । तत्र चातिसम्मन हस्त-पाद-पात्रादिभङ्गो भवेत् ॥ ३१८७ ॥ अथाविशुद्धपथगमनादीनि द्वाराणि व्याख्याति काएहऽविसुद्धपहा, सावय-तेणा पहे अवाया उ । दंसण-बंभवता-ऽऽता, तिविधा पुण होंति पत्तस्स ॥ ३१८८ ॥ दंसणवादे लहुगा, सेसावादेसु चउगुरू होति । जीविय-चरित्तभेदा, विस-चरिगादीहि गुरुका उ ॥ ३१८९ ॥ १°या। तथा "मेदाय" त्ति जीवि कां० ॥ २ ति नियुक्तिगा कां० ॥ ३ एतचिहगतमवतरणं मो. ले. को. एव वर्तते ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१८५-९२] प्रथम उद्देशः । ८९३ 'कायैः' पृथिव्यादिभिरविशुद्धः पन्थाः-मागों यस्याः सङ्खडेः सा तथा, अस्यां च कायनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । प्रत्यपायाश्च द्विविधाः-पथि वर्तमानस्य तत्र प्राप्तस्य च । तत्र पथि वर्तमानस्य श्वापद-स्तेन-कण्टकादयः । तत्र प्राप्तस्य तु त्रिविधाः प्रत्यपाया भवन्ति-दर्शन-ब्रह्मवता-ऽऽत्मापायभेदात् । तत्र सङ्खडिं गतस्य चरक-शाक्यादिमियुगाहणा दर्शनापायः । चरिका-तापसीप्रभृतिभिरन्याभिर्वा मत्तप्रमत्ताभिः स्त्रीभिर्ब्रह्मवतापायः । आत्मापायस्तु पूर्वोक्त एव हस्तभङ्गादिकः ।। एवंविधापायसहिता सप्रत्यपाया ॥ ३१८८ ॥ ___ अत्र च दर्शनापाये चतुर्लघुकाः । शेषेषु-स्तेनश्वापदादिषु ब्रह्मवता-ऽऽत्मविषयेषु प्रत्यपायेषु चतुर्गुरवो भवन्ति । तथा सौगतोपासकादिः सङ्खडिकर्ता विषं वा गरं वा प्रदद्यात्, एवं जीवितभेदः । चरिकादिभिश्चारित्रभेदः । एतयोर्जीवित-चारित्रभेदयोः प्रत्येकं चतुर्गुरवः । एषा यावन्तिकादिदोषदुष्टा सङ्खडिरनाचीर्णा । एतद्विपरीता आचीर्णेति ॥ ३१८९ ॥ 10 द्वितीये पदे एतैः कारणैः सङ्खडिमपि गच्छेत् - ___ कप्पइ गिलाणगट्ठा, संखडिगमणं दिया व रातो वा । दव्वम्मि लब्भमाणे, गुरुउवदेसो त्ति वत्तव्वं ॥ ३१९० ॥ ग्लानार्थ सङ्खडिगमनं दिया रात्रौ वा कल्पते । तत्र च द्रव्ये ग्लानप्रायोग्ये लभ्यमाने यावन्मानं ग्लानस्योपयुज्यते तावति प्रमाणप्राप्ते सति प्रतिषेधयन्ति । यद्यसौ दाता ब्रूयात्-किमिति 15 न गृह्णीथ ? ततः 'वक्तव्यं' भणनीयम्-गुरुः-वैद्यस्तस्योपदेशोऽयम्-यदेतावतः प्रमाणादूर्द्ध ग्लानस्य पथ्यादिकं न दातव्यम् ॥ ३१९० ॥ ईदमेव भावयति पुवि ता सक्खेत्ते, असंखडी संखडीसु वी जतति । पडिवसभमलभंते, ता वञ्चति संखडी जत्थ ॥ ३१९१ ॥ ग्लानस्य प्रायोग्यं पूर्व तावत् 'स्वक्षेत्रे' स्वग्रामेऽसङ्खड्यां गवेषयितव्यम् । यद्यसङ्खड्यां न 20 प्राप्यते ततः स्वग्राम एव याः सङ्खड्यस्तासु A ग्लानप्रायोग्यग्रहणाय » यतते । तदभावे (ग्रन्थानम्-१०००० । सर्वग्रन्थाग्रम्-२२२२०) प्रतिवृषभग्रामेष्वपि प्रथममसङ्खड्यां ततः सङ्खड्यामपि । अथ तत्रापि न लभ्यते ततो यत्र ग्रामादौ सङ्खडी भवति तत्र व्रजन्ति ॥३१९१॥ __ ताश्च सङ्खडयो द्विधा—सम्यग्दर्शनभाविततीर्थविषया मिथ्यादर्शनभाविततीर्थविषयाश्च । तत्र प्रथममाद्यासु गन्तव्यम् , यत आह उजेंत णायसंडे, सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु । सम्मत्तभाविएसुं, ण हुंति मिच्छत्तदोसा उ ॥ ३१९२ ॥ उज्जयन्ते ज्ञातखण्डे सिद्धशिलायामेवमादिषु सम्यक्त्वभावितेषु तीर्थेषु याः प्रतिवर्ष यात्राः-सङ्खडयो भवन्ति तासु गच्छतो मिथ्यात्वस्थिरीकरणादयो दोषा न भवन्ति ।। ३१९२ ॥ एतेसिं असईए, इतरीउ वयंति तत्थिमा जतणा । [ओ. नि. ४१९] 30 १ अथ ग्लानार्थ सङ्खडिगमने विधि दर्शयति इत्येवंप्रकारमवतरणं कां० ॥ २ एनामेव नियुक्तिगाथां भाष्पकारो भाव कां० ॥ ३°म् । अथासल° भा०॥ ४ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० का? एव वर्तते ॥ '25 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ पुट्ठो अतिकमिस्सं, कुणति व अण्णावदेसं तु ॥ ३१९३ ॥ 'एतेषां सम्यतवभावितानामभावे 'इतरा अपि' मिथ्यात्वभाविततीर्थविषयाः सङ्खडी - जन्ति । तत्र च गच्छत इयं यतना - यदि केनापि पृच्छयते ' किं सङ्खडीं गमिष्यथ ?" इति । ततः पृष्टः सवं ब्रूयात् — अतिक्रमिष्याम्यहं सङ्खडीम्, अग्रतो गमिष्यामीत्यर्थः; अथवा ॥ अन्यापदेशं करोति, अन्यत् किमपि प्रतिवचनं ब्रूत इति भावः ॥ ३१९३ ॥ तहियं पुव्वं गंतुं, अप्पोवासासु ठाति वसहीसु । जे य अविषकदोसा, ण णेंति ते तत्थ अगिला ॥ ३१९४ ।। 'तत्र' सङ्खडिया पूर्वमेव गत्वा या अल्पावकाशा वसतयस्तासु तिष्ठन्ति । - गाथायां "टाइ” त्ति एकवचननिर्देशः प्राकृतस्वात् एवमन्यत्रापि वचनःप्रत्ययो यथायोगं द्रष्टव्य इति । 10 विस्तीर्णावकाशा पुनः स्थितानां गृहस्थादिभिः पश्चादागतैः सह त एवासादयो दोषाः । ये च तत्र 'अविपक्कदोषाः' इन्द्रिय- कषायान् निग्रहीतुमसमर्था अविकोविदा वा साधवः, 30 आह च चूर्णिकृत् - अविपक्कदोसा नाम जे असमस्था निगिहिउं इंदिय-कसाए अविकोविया वा । ते तत्रालङ्कृतस्त्रीदर्शनादिसमुत्थदोषपरिजिहीर्षया 'अग्लाने' ग्लानकार्याभावे न निर्गच्छन्ति 15॥ ३१९४ ॥ अथ ग्लानस्य प्रायोग्यग्रहणे विधिमाह - विणा उ ओभासित-संथवेहिं, जं लब्भती तत्थ उ जोग्गदव्वं । गिलाणभुतुव्वरियं वगं तु, न भुंजमाणा वि अतिकमति ।। ३१९५ ।। अवभाषणमवभाषितं—याचनमित्यर्थः, संस्तवनं संस्तवः - दातुर्गुणविकत्थनं तेन सहात्मनः सम्बन्धविकत्थनं वा, ताभ्यां विनाऽपि 'तत्र' सङ्खड्यां यत् प्रायोग्यद्रव्यं लभ्यते तत् प्रथमतो 20ग्लानस्य दातव्यम् । ततो ग्लानेन तन्मध्याद् यद् भुक्तं तत उद्वरितं भुञ्जाना अपि साधवः 'नातिक्रामन्ति' न भगवदाज्ञां विलुम्पन्ति ॥ ३१९५ ॥ ओभासियं जं तु मिलाणगट्ठा, तं माणपत्तं तु णिवास्र्यति । तुब्भे व अण्णे व जया तु बेंति, भुंजेत्थ तो कप्पति णऽण्णहा तू ।। ३१९६ ॥ 'यत्तु' यत् पुनः प्रायोग्यद्रव्यं ग्लानार्थमवभाषितं तद् यदा 'मानप्राप्तं' वैद्योपदिष्टपथ्यमा26 त्राप्राप्तं भवति तदा 'निवारयन्ति' पर्याप्तमायुष्मन् ! एतावता अतः परं ग्लानस्य नोपयोक्ष्यते । एवमुक्ते यदा ते गृहस्था एवं ब्रुवते - 'यूयं वा अन्ये वा साध्वो भुञ्जीध्वम्' तदा ग्लानप्रायोग्यप्रमाणादधिकमपि ग्रहीतुं कल्पते नान्यथा । तुः पादपूरणे ॥ ३१९६ ॥ इदमेव स्फुटतरमाह - दिदिणे दाहिसि थोत्र थोवं, दीहा रुया तेण ण गिहिमोऽम्हे । ण हावयस्सामों गिलाणगस्सा, तुम्भे व ता गिण्हह गिण्हणेवं ।। ३१९७ ॥ भोः श्रावक ! ग्लानस्य 'दीर्घा' चिरकालस्थायिनी 'रुग्' रोगः समस्ति, अतो दिने दिने स्तोकं स्तोकमिदं ग्लानयोग्यं द्रव्यं दास्यसि, तेन कारणेन वयमिदं न गृह्णीमः । ततो यदि ते गृहस्था ब्रुवते - वयं प्रतिदिनं ग्लानस्य प्रायोग्यं न हापयिष्यामः, यूयमपि च तावत् प्रसादं कृत्वा १ एतदन्तर्गतः पाठः कां• एक वर्तते ॥ २ त्रात्मसमुत्थपरोभयदोष भा० ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३१९३-३२०१] प्रथम उद्देशः । गृहीत । एवमुक्ते प्रमाणप्रासादधिकस्यापि ग्रहणं कर्त्तव्यम् ॥ ३१९७ ॥ एवं तावत् साधूनां प्रवेशे लभ्यमाने विधिरुक्तः । अथ यत्र साधवः प्रवेशं न लभन्ते तद्विषयं विधिमाह ने वि लगभई पवेसो, साधूणं लब्भएत्थ अजाण । वावारण परिकिरणा, पडिच्छणा चेव अजाणं ॥ ३१९८ ॥ यत्रान्तःपुरादौ 'नापि' नैव साधूनां प्रवेशो लभ्यते किन्तु लभ्यते तत्रार्यिकाणां प्रवेशः, । कर्मकर्तर्ययं प्रयोगः ततः षष्ठी विभक्तिरदुष्टा, तत्रार्यिकाणां व्यापारणा विधेया । ततस्ता अन्तःपुरादौ प्रविश्य प्रज्ञापयन्ति । तथापि चेन्न प्रवेशो लभ्यते ततः "परिकिरण" त्ति ता आर्यिका ग्लानप्रायोग्यं गृहीत्वा साधूनां पात्रेषु परिकिरन्ति-प्रक्षिपन्ति । तत आर्यिकाणां हस्ताद् ग्लानप्रायोग्यं प्रतीच्छन्ति ॥ ३१९८ ॥ इदमेव स्पष्टयतिअलभमाणे जतिणं पवेसे, अंतेपुरे इन्भघरेसु वा वि। 10 उजाणमाईसु व संठियाणं, अज्जाउ कारिति जतिप्पसं ॥ ३१९९ ॥ राजादीनामन्तःपुरे वा इभ्यगृहेषु वा यतीनां प्रवेशेऽलभ्यमाने उद्यानादिषु वा संस्थितानां साधूनामनागन्तुकानामित्यर्थः, आर्यास्तत्र यतीन् प्रवेशं कारयन्ति । कथम् ? इति चेद् उच्यतेता आर्यिका अन्तःपुरादौ गत्वा प्रज्ञापयन्ति यथैते भगवन्तो महातपखिनो निःस्पृहाः, एतेभ्यो दत्तं बहुफलं भवति । एवमादिप्रज्ञापनया यदा तानि कुलानि भावितानि भवन्ति तदा। साधवः प्रविशन्ति ॥३१९९॥ अथ तथापि प्रवेशो न लभ्यते ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह पुराणमाईसु व णीणवैति, गिहत्थभाणेसु सयं व ताओ। अगारिसंकाएँ जतिचएही, हिट्ठोवभोगेहि अ आणती ॥ ३२०० ॥ आर्यिका गृहस्थभाजनेषु ग्लानप्रायोग्यं गृहीत्वा पुराणादिभिर्गृहस्थैः साधुसमीपं 'नाययन्ति' प्रापयन्तीत्यर्थः । अथ तादृशो गृहस्थो न प्राप्यते ततः खयमेव ता आर्यिका गृहिभाजनेषु 30 गृहीत्वा साधुसमीपं नयन्ति । अथागारिणः शङ्कां कुर्युः-'नूनमेता गृहस्थभाजनेष्वेवंविधमुस्कृष्टद्रव्यं गृहीत्वा केषाश्चिदविरतिकानां प्रयच्छन्ति' ततो यतीनां सत्कानि यानि अधस्तादुपभोग्यानि-असम्भोग्यानि भाजनानि उपहतानीत्यर्थः तेषु गृहीत्वा साधूनां समीपमानाययन्ति आनयन्ति वा ॥ ३२००॥ अथ न सन्ति साधूनामसम्भोग्यानि भाजनानि ततः-» तेसामभावा अहवा वि संका, गिण्हंति भाणेसु सएसु ताओ। 25 अभोइभाणेसु उ तस्स भोगो, गारत्थि तेसेव य भोगिसू वा ॥ ३२०१॥ 'तेषां' संयतभाजनानामभावात् , अथवा तेषु गृह्यमाणे गृहस्थानां 'शङ्का भवेत्' 'एतानि संयतभाजनानि, तदवश्यमेताः संयतानां प्रयच्छन्ति' ततः 'ता:' आर्यिकाः स्वकेषु भाजनेषु गृह्णन्ति । ततः साधवोऽसम्भोग्यभाजनेषु गृहीत्वा तस्य प्रायोग्यद्रव्यस्य भोगं कुर्वते । अस. म्भोग्यभाजनाभावे गृहस्थभाजनेषु । अथ तान्यपि न सन्ति ततः 'तेप्वेव' संयतीभाजनेषु 30 १ "ण वि ल० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ २°ए उ अ° ता० ॥ ३ पनामेव निर्यक्तिगाथां स्पष्ट कां ॥ ४एतदन्तर्गतमवतरणं मो० ले० कां० एव वर्तते ॥ ५ तेसि भो ता० ॥ ६°पाम्' असम्भोग्यानां संय° का । "तेसिं ति संजतभायणाणं" इति चूणों ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [संखडिप्रकृते सूत्रम् ४७ भुञ्जते । अथ संयतीनां तैर्भाजनैः शीघ्रं प्रयोजनं ततः साम्भोगिकेष्वपि भाजनेषु प्रक्षिप्यते । एवं तावद् ग्लाननिमित्तं यथा गृह्यते तथा भणितम् ॥ ३२०१॥ अथ सङ्खडीगमने कारणान्तराण्याह_अद्धाणनिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि । उवधिस्स गहण लिंपण, भावम्मि य तं पि जयणाए ॥ ३२०२ ॥ अध्वनो निर्गताः आदिशब्दादशिवादिनिर्गता वा, अध्वनि वा प्रविशन्तः, अथवा 'अवमे' दुर्भिक्षे वर्तमानाः सङ्खडिं गच्छेयुः । अथवा यत्र ग्रामादौ सङ्खडिस्तत्र 'उपधिः' वस्त्रपात्रादिकः सुलभस्तस्य ग्रहणार्थ गन्तव्यम् ; पात्रकाणि वा लेपनीयानि सन्ति, तत्र च लेपः प्रचुरः सुप्रापश्च; भावो वा शैक्षस्य सङ्खडिगमने समुत्पन्नः; एतैः कारणैः 'तदपि' सङ्खडिगमनं 10 यतनया कर्त्तव्यमिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३२०२ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति पविट्ठकामा व विहं महंतं, विणिग्गया वा वि ततोऽधवोमे । अप्पायणट्ठाय सरीरगाणं, अत्ता वयंती खलु संखडीओ ॥ ३२०३ ॥ 'विहम्' अध्वानं 'महान्तं' विप्रकृष्टं प्रवेष्टुकामाः, 'ततो वा' अध्वनो निर्गता जनपदं प्राप्ताः, अथवा 'अवमे' दुर्भिक्षे चिरमटन्तोऽपि न पर्याप्तं लभन्ते, अतस्ते शरीराण्येव दुर्बला15 हारदग्धान्त्रतया कुत्सितत्वात् शरीरकाणि तेषामाप्यायनार्थम् ; 'आर्ताः' प्रथम-द्वितीयपरीषहपीडिताः, अथवा 'आप्ताः' राग-द्वेषरहिताः, यद्वा "भीमो भीमसेनः” इति न्यायात् आत्तःगृहीतः सूत्रार्थो यैस्ते आत्ताः-गीतार्थाः सङ्खडीजन्ति ॥ ३२०३ ॥ वत्थं व पत्तं व तहिं सुलंभ, णाणादिसि पिंडियवाणिएसु। पवत्तिसं तत्थ कुलादिकजे, लेवं व घेच्छामों अतो वयंति ॥ ३२०४ ॥ 20 'तत्र' क्षेत्रे नानाप्रकाराभ्यो दक्षिणापथादिरूपाभ्यो दिग्भ्यो वस्त्रादिविक्रयार्थ समागत्य पिण्डिताः-मिलिता ये वणिजस्तेषु वस्त्रं वा पात्रं वा सुलभम् । अथवा तत्र क्षेत्रे प्राप्ताः 'कुलादिकार्याणि' कुलं-गण-सङ्घप्रयोजनानि प्रवर्तयिष्यामः, लेपं वा तत्र प्राप्ताः सन्तो ग्रहीष्यामः । अत एवंविधं पुष्टालम्बनमवलम्ब्य सङ्खडीं व्रजन्ति ॥ ३२०४ ॥ १ अथ "शैक्षस्य सङ्खडिगमने भावः समुत्पन्नः" (गा० ३२०२) इति पदं विवृणोति-r 25 सेहं विदित्ता अतितिव्वभावं, गीया गुरुं विण्णवयंति तत्थ । जे तत्थ दोसा अभविंसु पुचि, दीवेत्तु ते तस्स हिता वयंति ॥ ३२०५ ॥ 'शैक्षम्' अभिनवप्रव्रजितम् 'अतितीव्रभावं' सङ्खडिग्रामे गमनेऽतीवतीव्राभिलाषं विदित्वा गीतार्था गुरुं विज्ञपयन्ति, तत आचार्यास्तं शैक्षं भणन्ति-एते वृषभास्ते सहायाः समर्पिताः, एतैः समं भवता सङ्खड्यां गन्तव्यमिति । ततस्ते वृषभाः 'तत्र' सङ्घड्यां गच्छतां पथि वर्तमा30 नानां तत्र प्राप्तानां च दोषाः पूर्वमभवन् अभिहिता इति भावः तान् 'तस्य' शैक्षस्य 'हिताः' मातृवदनुकूलाः सन्तो दीपयन्ति । दीपयित्वा च ततस्तं गृहीत्वा व्रजन्ति ॥ ३२०५ ॥ १ "नि नियुक्तिगा कां० ॥ २ स» एतचिह्नमध्यगतमवतरणं मो० ले कां० एव वर्तते ॥ ३ “पच्छा ते वसभा तेण सेहेण सहिया वयंति" इति चूर्णिः ।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२०२-३२०७] • तंत्र च प्राप्ताः किं कुर्वन्ति ? इत्याह- -Do पुवोदितं दोसगणं च तं तू, वजेंति सेज्जाइजुतं जेताए । संपुणमेवं तु भवे गणित्तं, जं कंखियाणं पविणेति कखं ।। ३२०६ ।। प्रथम उद्देशः । ‘पूर्वोदितं' प्राग्भणितं शय्या– वसतिः तदादिभिर्युतं - सम्बद्धं दोषगणं 'यतनया' प्रागुक्तलक्षणया वर्जयन्ति । आह किमेवं शैक्षस्यानुवर्त्तनां कृत्वा सङ्घ डिगमनमाचार्या अनुजानन्ति : इत्याह‘सम्पूर्णम्' अखण्डमेवंविदधानस्याचार्यस्य 'गणित्वम्' आचार्यकं भवति, यत् 'काङ्क्षितानां' सङ्घडिगमनाद्यभिलाषवतां शिष्याणां काङ्क्षां प्रकर्षेण-तदीप्तिसम्पादनलक्षणेन विनयति - स्फेट - यति । उक्तञ्च दशाश्रुतस्कन्धे गणिसम्पद्वर्णनाप्रक्रमे कंखियम्स कखं पविणित्ता भवइ ति ( चतुर्थी दशा ) । ॥ संखडिप्रकृतं समाप्तम् ॥ विचारभूमी विहार भूमी प्रकृ त म् ८९७ सूत्रम् नो says निग्गंथस एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा । कप्पड़ से अप्प बिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ४८ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इंत्याह ॥ ३२०६ ॥ आहारा नीहारो, अवस्समेसो तु सुत्तसंबंधो । तं पुणण पडिसिद्धं, वारे एगस्स निक्खमणं ।। ३२०७ ॥ पूर्वसूत्रे सङ्खडिप्ररूपणाद्वारेणाहार उक्तः, तस्माच्चाहारादवश्यम्भावी नीहारं इत्यतस्तद्विषयो विधिरनेन सूत्रेणोपवर्ण्यते । कथम् ? इत्याह – 'तत् पुनः' नीहारकरणमाहारानन्तरमवश्यम्भावित्वान्न प्रतिषिद्धम्, किन्तु तदर्थं यद् 'एकस्य' एकाकिनो निष्क्रमणं तदत्र सूत्रे वारयतीति । एष सूत्रसम्बन्धः ॥ ३२०७ ॥ 5 १ एतन्मध्यगतमवतरणं कां० एव वर्त्तते ॥ २ जुयाए ता० ॥ ३ ता० त० डे० मो० ले० विनाऽन्यत्र - तथा युतं भा० । तदादिभिः- तत्प्रभृतिभिर्द्वारैः युतं कां० ॥ 10 15 20 23 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - नो कल्पते 'निर्ग्रन्थस्य' साधोरेकाकिनो रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमिं वा विहारभूमिं वा उद्दिश्य प्रतिश्रयाद् निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ८६८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ विचार०प्रकृते सूत्रम् ४८ कल्पते "से" तस्य निम्रन्थस्यात्मद्वितीयस्य वा आत्मतृतीयस्य वा रात्रौ वा विकाले वा बहि. विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा इति सूत्रसमासार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः रतिं वियारभूमी, णिग्गंथेमाणियस्स पडिकुट्ठा । लहुगो य होति मासो, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ ३२०८॥ रात्रौ उपलक्षणत्वाद् विकाले वा विचारभूमी निर्ग्रन्थस्यैकाकिनो गन्तव्ये प्रतिकुष्टा । सा च द्विविधा-कायिकीभूमिः उच्चारभूमिश्च । कायिकीभूमिं यदि रात्रावेकाकी गच्छति ततो लघुमासः प्रायश्चित्तम् , तत्राप्याज्ञादयो दोषाः ॥ ३२०८ ॥ तथा तेणा-ऽऽरक्खिय-सावय-पडिणीए थी-णपुंस-तेरिच्छे । ओहाणपेहि वेहाणसे य वाले य मुच्छा य ॥ ३२०९॥ स्तेनैरुपधिः संयतो वा हियेत । आरक्षिका एकाकिनं दृष्ट्वा चौर इति बुद्ध्या ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिकं कुर्युः । श्वापदा वा-सिंह-व्याघ्रादयो भक्षयेयुः । प्रत्यनीको वा तमेकाकिनं मत्वा प्रान्तापनादिकं कुर्यात् । स्त्री वा नपुंसको वा तमेकाकिनमुदारशरीरं दृष्ट्वा बलादपि गृह्णीयात् । तिर्यञ्चो वा दुष्टगवादयस्तमभिघातयेयुः, तिर्यग्योनिकां वा स एकाकी प्रतिसेवेत । यो वा 15 अवधावनप्रेक्षी स एकाकी निर्गतः सन् तत एव पलायेत । स्त्रिया वा पण्डकेन वा प्रतिस्खलितः सन् 'भमव्रतोऽहं जातः' इति बुझ्या 'वैहायसम्' उद्बन्धनं कुर्यात् । 'व्यालेन वा' सर्पण वा दश्येत । मूर्छा वा तत्र गतस्य भवेत्, तद्वशेन भूमौ प्रपतितस्य परिताप-महादुःखप्रभृतयो दोषाः ॥ ३२०९ ॥ अस्या एव गाथाया लेशतो व्याख्यानमाह थी पंडे तिरिगीसुव, खलितो वेहाणसं व ओधावे । 20 सेसोवधी-सरीरे, गहणादी मारणं जोए ॥ ३२१० ॥ सेसोवधीमी स्त्रियां पण्डके तिर्यग्योनिकायां वा 'स्खलितः' मैथुनप्रतिसेवनया अपराधमापन्नः सन् 'भग्नप्रतस्य किं मे जीवितेन ?' इति बुद्ध्या वैहायसमभ्युपगच्छेत् । यो वा अवधावनप्रेक्षी स तत एवावधावेत् । 'शेषाणि' सप्त द्वाराणि तेषु यथाक्रममेते दोषाः । तद्यथा---स्तेनेषूपधि-शरीरहरणम् , आरक्षिकेषु ग्रहणा-ऽऽकर्षणादि, शेषेषु तु श्वापदादिषु 'मारणम्' उपघातः संयतस्य 23 भवतीति 'योजयेत्' योजनं कुर्यात् ॥ ३२१० ॥ यत एवमतः-- दुप्पभिई उ अमम्मा, ण य सहसा साहसं समायरति । वारेति च णं वितिओ, पंच य सक्खी उ धम्मस्स ॥ ३२११ ॥ द्विप्रभृतयः साधवो रात्रौ कायिकीभूमौ गच्छन्तः स्तेना-ऽऽरक्षिकादीनामगम्या भवन्ति । न च द्वितीये साधौ तटस्थे सति सहसा 'साहस' मैथुनप्रतिसेवन-वैहायसादि समाचरति । समा30 चरितुकाममपि च "णं" एनं द्वितीयः साधुर्वारयति । यतः 'धर्मस्य' पञ्चमहाव्रतरूपस्य पञ्च साक्षिणो भवन्ति, तद्यथा-अर्हन्तः सिद्धाः साधवः सम्यग्दृष्टयो देवा आत्मा चेति । अतः साधौ तृतीयसाक्षिणि पार्श्ववर्तिनि न सहसा साहसं समाचरति ॥ ३२११ ॥ एवं तावत् कायिकीभूमिमङ्गीकृत्योक्तम् । अथोच्चारभूमिमधिकृत्याह Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९९ भाष्यगाथाः ३२०८-१७] प्रथम उद्देशः । एए चेव य दोसा, सविसेसुच्चारमायरंतस्स । सबितिजगणिक्खमणे, परिहरिया ते भवे दोसा ॥ ३२१२ ॥ 'एत एव' स्तेना-ऽऽरक्षिकादयो दोषाः सप्रायश्चित्ताः 'सविशेषाः' समधिका रजन्यामेकाकिनमुच्चारमाचरतो मन्तव्याः। यदा तु विचारभूमो गच्छन् सद्वितीयः प्रतिश्रयाद् निष्क्रमणं करोति तदा 'ते' स्तेनादयो दोषाः परिहृता भवेयुः ॥ ३२१२ ॥ कथम् ? इत्याह जति दोण्णि तो णिवेदित्तु ऐति तेणभऍ ठाति दारेको । सावयभयम्मि एक्को, णिसिरति तं रक्खती बितिओ ॥ ३२१३ ॥ यदि द्वौ संयतौ कायिकीभूमौ निर्गच्छतः तदा यस्तत्र जागर्ति तस्य निवेद्य द्वावपि निर्गच्छतः । तेनभये तु तयोयोर्मध्यादेको द्वारे तिष्ठति द्वितीयः कायिकी व्युत्सृजति । अथ श्वापदभयं तत एकस्तत्र कायिकी निसृजति, द्वितीयो दण्डकहस्तः 'तं' कायिकी व्युत्सृजन्तमा-10 त्मानं च रक्षति ॥ ३२१३ ॥ अथैकाकिनो यतना प्रतिपाद्यते सभयाऽसति मत्तस्स उ, एक्को उवओग डंडओ हत्थे । वति-कुटुंतेण कडी, कुणति य दारे वि उवयोगं ॥ ३२१४ ॥ यदि सभयं द्वितीयस्य च संयतस्य तत्राभावस्ततो मात्रके व्युत्सर्जनीयम् । अथ मात्रकं न विद्यते तत उपयोगं कृत्वा दण्डकं हस्ते गृहीत्वा वृतेर्वा कुड्यस्य वा अन्तेन-पार्श्वन कटीं कृत्वा 13 कायिकी व्युत्सृजति । द्वारेऽपि च स्तेनादिप्रवेशविषयमुपयोगं करोति ॥ ३२१४ ॥ १ इदमेव सविशेषमाह वितियपदे उ गिलाणस्स कारणा अहव होज एगागी । पुव्व द्विय निदोसे, जतणाएँ णिवेदिउच्चारे ॥ ३२१५ ॥ द्वितीयपदेन तु ग्लानस्य कारणादेकोऽपि निर्गच्छेत् , अथवा स साधुरशिवादिभिः कारणै- 20 रेकाकी भवेत् , यद्वा तत्र पूर्व निर्दोष-निर्भयमिति मत्वा स्थिताः पश्चात् सभयं सञ्जातं तत्रापि यतनया निवेद्य तथैवोच्चारभूमौ प्रश्रवणभूमौ वा गच्छन्ति ॥ ३२१५॥ अथ "ग्लानस्य कारणात्" इति पदं व्याख्यानयति__ एगो गिलाणपासे, वितिओ आपुच्छिऊण तं नीति । चिरगते गिलाणमितरो, जग्गंतं पुच्छिउं णीति ॥ ३२१६॥ 25 इह ते त्रयो जनाः, तेषां च मध्ये एको ग्लानो विद्यते, एकश्च तस्य ग्लानस्य पार्श्वे तिष्ठति, द्वितीयस्तमापृच्छय कायिक्यादिभूमौ निर्गच्छति । स च यदि चिरगतो भवति ततः 'इतरः' ग्लानपावस्थितो ग्लानं जाग्रतमापृच्छय निर्गच्छति ॥ ३२१६ ॥ ऐवं स्तेनादीनां सम्भवे विधिरुक्तः । अथ तदसम्भवे विधिमाह-» जहितं पुण ते दोसा, तेणादीया ण होज पुव्वुत्ता। 30 एक्को वि णिवेदेवें, णितो वि तहिं णऽतिकमति ॥ ३२१७ ॥ यत्र पुनः 'ते' पूर्वोक्ताः स्तेनादयो दोषा न भवन्ति तत्रैकोऽपि शेषसाधूनां जाग्रतां निवेद्य १-२ एतन्मध्यगतमवतरणं कां० एव वर्त्तते ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [विचार०प्रकृते सूत्रम् ४८ निर्गच्छन् नै भगवदाज्ञामतिकामति ॥ ३२१७ ॥ __ एवं विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः । अथ विहारभूमि विषयमाह बहिया वियारभूमी, दोसा ते चेव अधिय छक्काया। पुव्वद्दिढे कप्पड़, वितियं आगाढ संविग्गो ॥ ३२१८ ॥ 5 प्रतिश्रयाद् बहिः 'विहारभूमौ' खाध्यायभूमौ रात्रावेकाकिनो गच्छतः 'त एव' स्तेनाऽऽरक्षिकादयो दोषा भवन्ति, 'अधिकाश्च' अतिरिक्ताः षट्कायविराधनानिष्पन्नाः । 'द्वितीयम्' अपवादपदमत्रोच्यते-कल्पते रात्रावपि खाध्यायभूमौ 'पूर्वदृष्टायां' दिवाप्रत्युपेक्षितायां गन्तुम् । गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि लिङ्गव्यत्ययो द्रष्टव्य इति । तत्राप्यागाढे __ कारणे यः 'संविग्नः' । मोक्षाभिलाषी अत एव वक्ष्यमाणजितेन्द्रियादिगुणोपेतः साधुः » स 1८ गच्छति ॥ ३२१८ ॥ अथागाढपदं व्याचष्टे ते तिणि दोण्णी अह विकतो उ, नवं च सुत्तं सपगासमस्स । सज्झातियं णत्थि रहं च सुत्तं, ण यावि पेहाकुसलो स साहू ॥ ३२१९ ॥ 'ते' साधवो रात्रौ विहारभूमौ गच्छन्त उत्सर्गतस्त्रयो जना गच्छन्ति । त्रयाणामभावे द्वौ गच्छतः । अथ ग्लानादिकार्यव्यापृततया द्वितीयोऽपि न प्राप्यते एवमेकाक्यपि गच्छेत् । 10 किमर्थम् ? इत्याह--'अस्य' विवक्षितसाधोः 'नवम्' अधुनाऽधीतं [ सूत्रं ] 'सप्रकाशं' सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिरूपेणार्थेन सहितं परावर्तनीयं वर्त्तते, खाध्यायिकं च वसतौ तदानीं नास्ति । अथवा 'रहस्यसूत्रं' निशीथादिकं तद् यथा द्वितीयो न शृणोति तथा परावर्तयितव्यम् , न चासौ साधुरनुप्रेक्षाकुशलः । एतेनागाढकारणेन रात्रावपि विहारभूमौ गन्तुं कल्पते ॥ ३२१९ ॥ तत्र कीदृशे गृहे कीदृशेन वा साधुना गन्तव्यम् ? इति दर्शयति आसन्नगेहे दियदिट्ठभोम्मे, घेत्तण कालं तहि जाइ दोसं। वस्सिदिओ दोसविवजितो य, णिदा-विकारा-ऽऽलसवजितप्पा ॥ ३२२० ॥ कालं गृहीत्वा "दोसं" ति प्रादोषिकं खाध्यायं कर्तुमासन्नगेहे 'दिवादृष्टभौमे' दिवाप्रत्युपेक्षितोच्चार-प्रश्रवणभूमिके 'याति' गच्छति । स च ‘वश्येन्द्रियः' इष्टा-ऽनिष्टविषयेषु वर्तमा नानामिन्द्रियाणां निग्रहीता, दोषाः-क्रोधादयस्तैर्विवर्जितः, तथा निद्रया विकारेण च-हास्या28 दिना आलस्येन च वर्जित आत्मा यस्य स तथा एवंविधस्तत्र गन्तुमर्हति नानीदृशः ॥३२२०॥ A अत्रैव विधिं दर्शयति तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, किच्चाण झायं णिसिमेव एति । वाघाततो वा अहवा वि दूरे, सोऊण तत्थेव उवेइ पादो॥ ३२२१ ॥ यस्मिन् श्रावकादिकुले स गच्छति तत् तस्यां वेलायां प्रविशद्भिः साधुभिर्भावितं तद्भावि १ न 'अतिक्रामति' भगवदाशामतिचरति ॥३२१७॥ भा० ॥ २ ता० त० डे० मो० ले विनाs. न्यत्र-षय उच्यते-बहि भा । °षयं तमेवाह का० ॥ ३-४ । एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० कां० एव वर्तते ॥ ५ किं पुनरत्रागाढकारणम् ? इत्या का० ॥ ६°वा अस्ति खाध्यायिक वसतौ परं 'रहः श्रुतं' रहस्य का० ॥ ७॥ एतदन्तर्गतमिदमवतरणं का० एव वर्तते ॥ 20 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०१ भाष्यगाथाः ३२१८-२४] प्रथम उद्देशः । तम् , तदपि 'अदूरे' न दूरदेशवर्ति, एवंविधे गृहे प्रादोषिकं खाध्यायं 'कृत्वा' परिवर्त्य निशायामेव प्रतिश्रयमागच्छति । अथ रजन्यामागच्छतोऽपान्तराले दुष्टश्वान-गवादिभिः स्तेनादिभिर्वा व्याघातः अथवा 'दूरे' दूरदेशवर्तिनी सा विहारभूमिः ततस्तत्रैव गृहे सुप्त्वा 'प्रातः' प्रभाते प्रतिश्रयमुपैति ॥ ३२२१ ॥ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पबिइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा 10 निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ४९ ॥ अस्य व्याख्या प्राम्वत् ॥ अथ भाष्यम् -- सो चेव य संबंधो, नवरि पमाणम्मि होइ णाणतं । जे य जतीणं दोसा, सविसेसतरा उ अजाणं ॥ ३२२२ ॥ 'स एव' निम्रन्थसूत्रोक्तः सम्बन्ध इहापि सूत्रे ज्ञातव्यः । 'नवरं' केवलं प्रमाणे निम्रन्थेभ्यो 15 निर्ग्रन्थीनां नानात्वम् , निम्रन्थानां द्वयोस्त्रयाणां वा निर्गन्तुं कल्पते, निर्ग्रन्थीनां तु द्वयोस्तिसृणां चतसृणां वा इत्ययं सङ्ख्याकृतो विशेष इति भावः । 'ये च' तेना-ऽऽरक्षिकादयो यतीनामेकाकिनिर्गमने दोषाः पूर्वसूत्रे उक्ताः आर्याणामपि त एव सविशेषतरा मन्तव्याः, तरुणाग्रुपद्रवसहिता इति भावः ॥ ३२२२ ॥ बहिया वियारभूमी, णिग्गंथेगाणियाएँ पडिसिद्धा । 20 चउगुरुगाऽऽयरियादी, दोसा ते चेव आणादी ॥ ३२२३ ॥ .. रात्रौ बहिर्विचारभूमौ गमनमेकाकिन्या निर्ग्रन्थ्याः प्रतिषिद्धम् । अत एवैतत् सूत्रमाचार्यः प्रवर्त्तिन्या न कथयति चतुर्गुरवः । प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चतुर्गुरवः । भिक्षुण्यो न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु [सर्वग्रन्थानम्-२२४२०] । प्रवर्तिनीवचनमतिक्रम्य भिक्षुण्यो बलामोटिकया एकाकिन्यो गच्छन्ति चतुर्गुरवः । दोषाश्च त एवाज्ञादयो द्रष्टव्याः ॥ ३२२३ ॥ 25 भीरू पकिच्चेवेऽबला चला य, आसंकितेगा समणी उ रातो । मा पुप्फभूयस्स भवे विणासो, सीलस्स थोवाण ण देति गंतुं ॥३२२४ ॥ इह स्त्री 'प्रकृत्यैव' स्वभावेनैव 'भीरुः' अल्पसत्त्वा, पुरुषं च प्राप्य सा 'अबला' अकिश्चि१ एतदने भा० प्रतिं विहाय सर्वासु प्रतिषु ग्रन्थानम्-६५०० इति वर्तते ॥ २°वऽबलाबला य भा० त० डे• मो० ले.॥ ३ °वा, अथवा 'चला' चपला पुरुषं च प्राप्य सा 'अबला' अकिश्चित्करी, एकाकिनी Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ विचार०प्रकृते सूत्रम् ४९. करी, अत एव तस्या अबलेति नाम, अबला च स्वभावादेव चञ्चला, अत एव एकाकिनी श्रमणी रात्रौ विचारभूमौ गच्छन्ती आशङ्किता स्यात्-अवश्यमेषा व्यभिचारिणीति । अतो मा 'पुष्पभूतस्य' शिरीषपुष्पसुकुमारस्य शीलस्य विनाशो भवेदिति कृत्वा स्तोकानामार्याणां रात्रौ विचारभूमौ गन्तुं भगवन्तः 'न ददति' नानुजानन्तीत्यर्थः ॥ ३२२४ ।। । उपाश्रयेऽपि ताभिरीदृशे वस्तव्यमिति दर्शयति गुत्ते गुत्तदुवारे, कुलपुत्ते इत्थिमज्झै निदोसे । भीतपरिस मद्दविदे, अज्जा सिज्जायरे भणिए ॥ ३२२५ ॥ 'गुप्तो नाम' वृत्यादिपरिक्षिप्तः, 'गुप्तद्वारः' सकपाटः, ईदृशे उपाश्रये स्थातव्यम् । शय्यातरश्च तासां कुलपुत्रको गवेषणीयः । तस्यैव शय्यातरस्य या भगिनीप्रभृतयः स्त्रियस्तासां सम्बन्धि 10 यद् गृहं तन्मध्यवर्ती संयतीनामुपाश्रयो भवति । सोऽपि 'निर्दोषः' पुरुषसागारिकादिदोषरहितः । कुलपुत्रकश्च भीतपर्षद् मार्दविकश्चान्वेषणीयः । भीतपर्षद नाम-यद्भयात् तदीयः परिवारो न कमप्यनाचारं कर्तुमुत्सहते । मार्दविको नाम-मधुरवचनः । ईदृश आर्यायाः शय्यातरो भणितः ॥ ३२२५ ॥ रात्रौ च प्रतिश्रये ताभिरियं यतना कर्त्तव्या . पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहि चिलिमिली उवरिं । 15 तं तह बंधति दारं, जह णं अण्णा ण याणाई ॥ ३२२६ ॥ ___ 'प्रस्तारः' कटः स एकः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे द्वितीयस्तु प्रतिश्रयाद् बहिः कर्तव्यः । 'अन्तश्च' अभ्यन्तरे कटस्योपरि चिलिमिलिकां 'बधान' नियन्त्रय । तत्र च प्रतिहारी तथा बध्नाति द्वारं यथा "गं" इति 'तान्' बन्धान् नान्या संयती मोक्तुं जानाति ॥ ३२२६ ॥ संथारेगंतरिया, अभिक्खणाऽऽउजणा य तरुणीणं । पडिहारि दारमले, मज्झे अपवत्तिणी होति ॥ ३२२७ ॥ 'संस्तारकः' प्रस्तरणमेकान्तरिताना तरुणी-वृद्धानां भवति । अमीक्ष्णं च तरुणीनां यतनया प्रवर्तिन्या प्रतिहारिकया च 'उपयोजना' सङ्घटना कर्त्तव्या । प्रतिहारी च द्वारमूले खपिति । 'मध्ये सर्वमध्यवर्तिनि प्रदेशे प्रवर्तिनी भवति ॥ ३२२७ ॥ निक्खमण पिंडियाणं, अग्गद्दारे य होइ पडिहारी । दारे पवत्तिणी सारणा य फिडिताण जयणाए ॥ ३२२८॥ ___ रात्रौ विचारभूमौ निष्क्रमणं 'पिण्डितानां' समुदितानी त्रि-चतुःप्रभृतीनामित्यर्थः । प्रतिहारी द्वारमुद्धाट्य प्रथमत एवाग्रद्वारे तिष्ठति । प्रवर्तिनी पुनारे स्थिता संयती या यदा प्रविशति तां शिरसि कपोलयोर्वक्षसि च स्पृष्ट्वा प्रवेशयति । याश्च तत्र स्फिटिताः द्वारविप्रनष्टा 90 व रात्रौ विचार भा० । भा० प्रतिगतेयं टीका "भीरू पकिच्चेव चलाऽवला य" इति पाठानुसारिणी वर्तते । “भीरु० वृत्तम्-पुरुषं प्राप्य सा अबला, अत एव तस्याः पर्यायनाम अबलेति । प्रायेण च स्त्री चपलखभावा । एगागिणी णिग्गंधी आसंकिता भवति-अवश्यमेषा व्यभिचारिणीति ॥” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ १°मां चतुः-पश्चप्रमृ भा० ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२२५-३३ ] प्रथम उद्देशः । ९०३ इतस्ततः परिभ्रमन्ति तासां यतनया यथा अप्रीतिकं न भवति तथा स्मारणा कर्तव्या, यथाआर्ये ! इहागच्छ, इतो न भवति द्वारम् ॥ ३२२८ ॥ अथ द्वितीयपदमाह - बियपद गिलाणाए, तु कारणा अहव होज एगागी । आगा कारणमि, गिहिणीसाए वसंतीणं ॥ ३२२९ ॥ द्वितीयपदे ग्लानायाः संयत्याः कारणादेकाकिन्यपि विचारभूमौ गच्छेत् । कथम् ? इति चेद् उच्यते - इह प्रवर्त्तिनी यदा आत्मतृतीया भवति, तत्राप्येका ग्लाना तत एका ग्लानायाः पार्श्वे तिष्ठति, द्वितीया तु निवेद्य निर्गच्छति । अथवा सा अशिवादिभिः कारणैरेकाकिनी भवेत् । तत्र च 'आगाढे' आत्यन्तिके कारणे गृहिनिश्रया वसन्तीनामेकाकिनीनां संयतीनां विधिरभिधीयते ॥ ३२२९ ॥ गाउ कारण ठिया, अविकारकुलेसु इत्थिबहुलेसु । तुन्भ वसीहं णीसा, अजा सेजातरं भणति ॥ ३२३० ॥ एका आर्यिका ' कारणेन' पुष्टालम्बनेन 'अविकारकुलेषु' हास्यादिविकारविरहितेषु स्त्री बहुलेषु कुलेषु स्थिता सती शय्यातरमित्थं भणति - अहं युष्मन्निश्रया वसामि यच्च मम किञ्चित् क्षूणमायाति तत्राहं भवद्भिः स्मरणीयां ॥ ३२३० ॥ इदमेव स्फुटतरमाह - अपुव्वपुंसे अवि पेहमाणी, वारेसि धूतादि जहेव भजं । ताऽवराहेसु ममं पि पेक्खे, जीवो पमादी किमु जोऽवलाणं ।। ३२३१ ॥ भोः श्रावक ! यथा त्वम् 'अपूर्वपुंसः' अदृष्टपूर्व पुरुषान् पश्यन्तीमपि, आस्तां तैः सह सम्भाषणादि कुर्वाणामित्यपिशब्दार्थः, दुहितरम् आदिशब्दाद् भगिनीप्रभृतिकां भार्यां वा यथा वारयसि ; तथा 'अपराधेषु' स्खलितेष्वनुचितसन्दर्शनादिषु 'मामपि प्रेक्षख' अहमपि तथैव वारणीया, यतो जीवः सर्वोऽपि प्रायः 'प्रमादी' अनादिभवाभ्यस्तप्रमादबहुलः, किं पुनर्य : 20 'अबलानां' स्त्रीणां सम्बन्धी ? स चपलखभावतया सुतरां प्रमादीति भावः ॥ ३२३१॥ किञ्चपायं सकजग्गहणालसेयं, बुद्धी परत्थेसु उ जागरूका । तमाउरो पस्सति णेह कत्ता, दोसं उदासीणजणो जंगं तु || ३२३२ ॥ येयं प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्यक्षा बुद्धिः सा प्रायः स्वं - स्वकीयं यत् कार्यं - हिता - ऽहितप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं तद्ग्रहणे-तत्परिच्छेदेऽलसा - जडा, 'परार्थेषु तु' परप्रयोजनेषु 'जागरूका' जागरण - 25 शीला, अत एव 'तं' दोषम् 'इह' जीवलोके 'कर्ता' आत्मीयकार्य साधको जनः 'आतुरः ' उत्सुकः सन् न पश्यति, यकं दोषम् 'उदासीनजनः ' मध्यस्थलोकः तटस्थः पश्यति । अतोऽहं भवतां पार्श्वादात्मानमहितेषु प्रवर्त्तमानं निवारयामीति प्रक्रमः ॥ ३२३२ ॥ १ या, नोपेक्षणीया भा० ॥ तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा, वसंति णारीतों तहिं वसेजा । 30 ता वेति रतिं सह तुम्भ णीहं, अणिच्छमाणीसु विभेमि वेति ।। ३२३३ एवमुक्ते सति यद्यसौ श्रावक इच्छति तदुक्तं प्रतिपद्यते तदा 'तस्य' शय्यातरस्य यत्र ‘अगम्याः’ माता-भगिनीप्रभृतयो नार्यो वसन्ति तत्र सा एकाकिनी संयती वसेत् । ताश्च स्त्रियो २ जयं तु ता० ॥ 10 15 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ९०४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ विचार ० प्रकृते सूत्रम् ४९ ब्रूते — रात्रौ युष्माभिः सहाहं कायिक्याद्यर्थं निर्गमिष्यामि, अतो यदा भवत्य उत्तिष्ठन्ते तदा मामप्युत्थापयत । यदि ता इच्छन्ति ततो लष्टम्, अथ नेच्छन्ति ततेः 'अहं रात्रा - aaraat निर्गच्छन्ती बिभेमि' इत्येवं ब्रवीति ॥ ३२३३ ॥ एवमप्युक्ता यदि ता द्वितीया नागच्छन्ति तदा किं कर्त्तव्यम् : इत्याहमत्तसईए अपवत्तणे वा, सागारिए वा निसि णिक्खमंती | तासं णिवेदेतु ससद्द दंडा, अतीति वा णीति व साधुधम्मा ।। ३२३४ ।। रात्रौ मात्र कायिकी व्युत्सर्जनीया, तैत उगते सूर्ये सा मात्रककायिकी बहिछर्द 叮 नया । - अथ मात्रकं नास्ति, यद्वा तस्या मात्रके कायिक्याः प्रवर्त्तनम् - आगमनं न भवति, सागारिकबहुलं वा तद् गृहम्, एतैः कारणैः 'निशि' रात्रावेकाकिनी निष्क्रामन्ती ' तासां ' 10 शय्यातरीणां निवेद्य सशब्दा- कासितादिशब्दं कुर्वती दण्डकं हस्ते कृत्वा 'साधुधर्मा' शोभन - समाचारों ' अत्येति वा' प्रविशति वा 'निरेति वा' निर्गच्छति वा ॥ ३२३४ ॥ एवं तावद् विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः । अथ विहारभूमिविषयमाहगाहि अगाहि व, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं । चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव जे भणिया ।। ३२३५ ।। 15 एकाकिनीनाम् ‘अनेकाकिनीनां वा' बह्वीनामपि, गाथायां षष्ठ्यर्थे तृतीया, दिवा वा रात्रौ वा विहारभूमौ संयतीनां गन्तुं 'प्रतिषिद्धं' न कल्पते । अत एव यद्येनमर्थमाचार्याः प्रवर्त्तिन्या न कथयन्ति तदा चतुर्गुरवः । प्रवर्त्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चतुर्गुरवः । भिक्षुण्यो न प्रतिशृण्वन्ति लघुमासः । दोषाश्च त एव द्रष्टव्या ये पूर्वं विचारभूमौ भणिताः ॥ ३२३५ ॥ द्वितीयपदे गन्तव्यमपीति दर्शयति 20 गुत्ते गुत्तदुवारे, दुजणवजे णिवेसण संतो । संबंधि णि सण्णी, बितियं आगाढ संविग्गे ।। ३२३६ ।। गुप्ते गुप्तद्वारे 'दुर्जनवर्जे' दुःशीलजनरहिते गृहे स्वाध्यायकरणार्थं गन्तव्यम्, तच्च गृहं यदि 'निवेशनस्य' पाटकस्य 'अन्तः' अभ्यन्तरवर्त्तिं भवति । अथ निवेशनान्तर्न प्राप्यते ततोऽन्यस्मिन्नपि पाटके यः संयतीनां पितृ-भ्रात्रादिरशङ्कनीयः सम्बन्धी, यो वा शय्यातरस्य 'निजः ' 26. सुहृदादिः, यो वा 'संज्ञी' श्रावको माता- पितृसमानस्तस्य गृहे गन्तव्यम् । एतच्च द्वितीयपदमा - . गाढे संविमाया आर्यिकाया मन्तव्यम् । किमुक्तं भवति ? - व्याख्याप्रज्ञप्तिप्रभृतिश्रुतसम्बन्धिनमागाढयोगं काचिदार्यिका प्रतिपन्ना, सा च यदि 'संविग्ना' हास्यादिविकारवर्जिता, ततस्तस्या आत्मतृतीयाया आत्मचतुर्थाया आत्मपञ्चमाया वा पूर्वोक्तगुणोपेतं गृहं गत्वा स्वाध्यायः कर्तुं कल्पते ॥ ३२३६ ॥ तत्रैव गमने विधिं दर्शयति 4 १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० को ० एव वर्त्तते ॥ २ ततोऽनिच्छन्तीषु तासु 'अहं कां० ॥ ३ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० कां० एव वर्त्तते ॥ ४ मो० ले० कां विनाऽन्यत्र - रा 'अतियाति वा' प्रविशति वा निर्ग° ता० । 'रा अतियाति वा निर्ग' त० डे० । 'रा प्रविशति वा निर्ग° भ० ॥ ५ पदे तु ईदृशे गृहे गन्त कां० ॥ ६ एतदन्तर्गतमवतरणं कां० एव वर्त्तते ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२३४-३९] प्रथम उद्देशः । पडिवत्तिकुसल अजा, सज्झायज्झाणकारणुजुत्ता। मोत्तूण अब्भरहितं, अजाण ण कप्पती गंतुं ॥ ३२३७ ॥ प्रतिपत्तिः-उत्तरप्रदानं तत्र कुशला-निपुणा या काचिदार्या सा तस्याः सहाया समर्पणीया। तथा या सा आगाढयोगं प्रतिपन्ना सा खाध्यायस्य यद् ध्यानम्-एकाग्रतया करणं तत्रेदृशे कारणे उद्युक्ता भवेत् । “मोत्तूण अन्भरहियं" ति येषु कुलेषु यथाभद्रकादिषु संयतीनामाग-5 मनम् 'अभ्यर्हितं' गौरवाह तानि मुक्त्वाऽन्यत्र कुले आर्यिकाणां न कल्पते गन्तुम् ॥ ३२३७ ॥ ___ एवंविधे कुले गत्वा स्वाध्यायं कुर्वतीनां यद्यसौ गृहपतिः प्रश्नयेत् -किमर्थं भवत्य इहा. गताः ? ततः प्रतिपत्तिकुशलया वक्तव्यम् सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढजोगं च इमा पवण्णा । तरेण सोहद्दमिदं च तुभं, संभावणिजातों ण अण्णहा ते ॥ ३२३८॥ 10 हे श्रावक ! योऽयमस्माकमुपाश्रयः तत्र स्वाध्यायिकं नास्ति । इयं च संयती आगाढयोगं प्रतिपन्ना वर्तते । “तरेण" त्ति शय्यातरेण सह युष्माकम् ‘इदम्' ईदृशं सकलजनप्रतीतं सौहार्द तद् मत्वा वयमत्र समागताः । अतो नान्यथा त्वया वयं सम्भावनीयाः ॥ ३२३८ ॥ अपि च खुद्दो जणो णत्थि ण यावि दूरे, पच्छण्णभूमी य इहं पकामा । तुम्भेहि लोएंण य चित्तमेतं, सज्झाय-सीलेसु जहोजमो णे ॥ ३२३९ ।। 'क्षुद्रो जनः' दुर्जनलोक इह नास्ति, न चेदं युष्मद्गृहं 'दूरे' अस्मत्प्रतिश्रयाद् दूरवर्ति, प्रच्छन्नभूमिश्च 'इह' युष्मद्गृहे 'प्रकामा' विस्तृता, अतोऽत्रास्माकं स्वाध्यायो निर्व्याघातं निर्वहति । किञ्च युष्माकं लोकस्य च 'चित्तं' प्रतीतमेतत् , यथा--"णे" अस्माकं खाध्याय-शीलयोर्गाढतरः 'उद्यमः' प्रयत्नो भवति ॥ ३२३९॥ ॥ विचारभूमि-विहारभूमिप्रकृतं समाप्तम् ॥ आ र्य क्षेत्र प्रकृतम् 25 सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरस्थिमेणं जाव अंग-मगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ, पञ्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए । एताव ताव कप्पइ । एताव ताव आरिए खेत्ते। णो से कप्पइ एत्तो बाहि । १°एहि य विनमेयं ता० । “विण्णं विज्ञातं" इति चूर्णौ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० तेण परं जत्थ नाण-दसण-चरित्ताई उस्सप्पंति 'त्ति बेमि ५०॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह इति काले पडिसेहो, परूवितो अह इदाणि खेत्तम्मि । चउदिसि समणुण्णायं, मोत्तूण परेण पडिसेहो ॥ ३२४० ॥ 'इति' अमुना प्रकारेण रात्रिलक्षणो यः कालस्तद्विषयः प्रतिषेधः पूर्वसूत्रे प्ररूपितः, 'अथ' अनन्तरमिदानी क्षेत्रविषयः प्ररूप्यते । कथम् ? इत्याह-चतसृषु दिक्षु यावत् क्षेत्रमत्र सूत्रे समनुज्ञातं तावद् मुक्त्वा 'परेण' बहिःक्षेत्रेषु विहारस्य प्रतिषेधो मन्तव्यः॥ ३२४०॥ किञ्च । हेवा वि य पडिसेहो, दवादी दचे आदिसुत्तं तु । 10 घडिमत्त चिलिमिणीए, वत्थादी चेव चत्तारि ॥ ३२४१ ॥ वगडा रच्छा दगतीरगं च विह चरमगं च खित्तम्मि । सारिय पाहुड भावे, सेसा काले य भावे य ॥ ३२४२ ॥ अंधस्तनसूत्रेष्वपि 'द्रव्यादिः' द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविषयः प्रतिषेधो मन्तव्यः । तत्र द्रव्यप्रतिषेधपरम् 'आदिसूत्र' प्रलम्बप्रकृतमित्यर्थः (सू०१-५) तथा घटीमात्रसूत्रं (सू० १६, 15१७) चिलिमिलिकासूत्रं च (सू० १८)। वस्त्रादिप्रतिषेधकानि च चत्वारि सूत्राणि एकं तावत् “निग्गंथं च णं गाहावइकुलं० अणुप्पविर्से केइ वत्थेण वा पाएण वा०" (सू० ३८) इत्यादिलक्षणम्, द्वितीयमिदमेव "बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा०" (सू० ३९) इति विशेषितम् , तृतीय-चतुर्थे त्वेवमेव निम्रन्थीविषये (सू० ४०, ४१), एतान्यपि द्रव्यप्रतिषेधपराणि । तथा वगडासूत्रं (सू० १०,११) रथ्यामुखाऽऽपणगृहादिसूत्रं 20(सू० १२,१३ ) दकतीरसूत्रं (सू०१९) 'विहं' अध्वा तद्विषयं सूत्रं (सू० ४६) » एतदेव च प्रस्तुतं चरमसूत्रं (सू० ५०) एतानि क्षेत्रप्रतिषेधपराणि । तथा यान्योघतो विभागतश्च सागारिकसूत्राणि (सू० २२-२९) यच 'प्राभृतम्' अधिकरणं तद्विषयं सूत्रं (सू० ३४ ) एतानि भावप्रतिषेधपराणि । 'शेषाणि तु' मासकल्पप्रकृतप्रभृतीनि (सू० ६-९) सर्वाण्यपि १त्ति बेमि इति पाठः केवलं कां० प्रतावेव वर्तते । नान्यावस्मत्समीपस्थितासु टीकाप्रतिषु मूलसूत्रप्र. तिषु वा दृश्यते । व्याख्यातश्चायमंशः टीकाकृतेत्यस्माभिर्मूल एवाहतः ॥ २ "हेट्ठा वि. गाधा । दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो। 'वत्यादि' त्ति वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं । एए चत्तारि सुत्ता-पढमो-“गाहावइकुलं" (सू० ३८ ) बिइओ-“बहिया वियारभूमि" (सू० ३९) तइओ-गामाणुग्गाम, चउत्थो-वासावासं, एयं दव्वे । सागारियसुत्तं (सू० २२-२९) अहिकरणसुत्तं (सू • ३४) व भावे । सेसं कण्ठ्यम् ॥” इति विशेपचूर्णिः ॥ “हेट्ठा वि. गाधा । दबतो खेततो कालतो भावतो। वत्यादि त्ति वत्थं पडिग्गहं कंवलं पायपुंछणं । एतेसि हीणातिरेगपडिसेहो ॥ वगडा० गाधा। चरिमगं ति इदमेव मुत्तं (सू० ५०) । अहिगरणसुत्तं च (सू० ३४) भावे । सेसं कंठं ॥” इति चूर्णिः ॥ __३ °षयाणां प्रतिषेधानामन्यतमः कोऽपि क्वापि सूत्रे प्रतिषेधो का० ॥ ४ - एतदन्तर्गतः पाठः भा० का. एव वर्तते ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०७ भाष्यगाथाः ३२४०-४५] प्रथम उद्देशः । सूत्राणि 'काले च भावे च' उभयोरपि प्रतिषेधकानि भवन्ति ॥ ३२४१ ॥ ३२४२ ॥ अहवण सुत्ते सुत्ते, दव्वादीणं चउण्हमोआरो। सो य अधीणो वत्तरि, सोतरि य अतो अणियमोऽयं ॥ ३२४३ ॥ अथवा न पृथग् द्रव्यादिविषयाणि सूत्राणि, किन्तु सूत्रे सूत्रे 'चतुर्णा' द्रव्य-क्षेत्र-कालभावानामवतारः प्रदर्शयितव्यः । 'स च' अवतारो वक्तरि श्रोतरि च 'अधीनः' आयत्तः, यदि 5 वक्ता तथाविधप्रतिपादनशक्तिसमन्वितः श्रोता च ग्रहण-धारणालब्धिसम्पन्नः तदा भवति सूत्रे सूत्रे चतुर्णा द्रव्यादीनामवतारः, अन्यदा तु नेति भावः । अतो नायं नियमो यदवश्यं प्रतिसूत्रं द्रव्यादिचतुष्टयमवतारणीयमिति ॥ ३२४३ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वस्यां दिशि यावदङ्ग-मगधान 'एतुं' विहर्तुम् । अङ्गा नाम-चम्पाप्रतिबद्धो जनपदः । मगधा-राजगृह- 10 प्रतिबद्धो देशः । दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बीमेतुम् । प्रतीच्यां दिशि स्थूणाविषयं यावदेतुम् । उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावदेतुम् । सूत्रे पूर्व-दक्षिणादिपदेभ्यस्तृतीयानिर्देशो लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् । एतावत् तावत् क्षेत्रमवधीकृत्य विहां कल्पते । कुतः ? इत्याहएतावत् तावद् यस्मादार्य क्षेत्रम् । नो "से" तस्य निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या वा कल्पते' 'अतः' एवंविधाद् आर्यक्षेत्रादू बहिर्विहर्तुम् । 'ततः परं' बहिर्देशेषु । अपि सम्प्रतिनृपतिकालादा- 15 रभ्य » यत्र ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि 'उत्सर्पन्ति' स्फातिमासादयन्ति तत्र विहर्त्तव्यम् । 'इतिः' परिसमाप्तौ । ब्रवीमि इति तीर्थकर-गणधरोपदेशेन, न तु स्वमनीषिकयेति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः जो एतं न वि जाणइ, पढमुद्देसस्स अंतिमं सुत्तं । अहवण सव्वऽज्झयणं, तत्थ उ नायं इमं होइ ॥ ३२४४॥ 20 'यः' आचार्यः ‘एतत्' प्रस्तुतं प्रथमोद्देशकस्यान्त्यं सूत्रं न जानाति, अथवा सर्वमपीदं करूपाध्ययनं यो न जानाति, 'तत्र' आचार्य तद्विषयमित्यर्थः 'इदं' वक्ष्यमाणं 'ज्ञातम्' उदाहरणं भवति ॥ ३२४४ ॥ आह किमर्थं प्रथमोद्देशकस्यान्त्यं सूत्रं न जानातीत्युक्तम् ? उच्यते उज्जालितो पदीवो, चाउस्सालस्स मज्झयारम्मि । पमुहे वा तं सव्वं, चाउस्सालं पगासेति ॥ ३२४५॥ 'चतुःशालस्य' गृहस्य 'मध्यकारे' मध्यभागे 'प्रमुखे वा' प्रवेश-निर्गममुखे प्रदीप उज्ज्वालितः सन् 'तत्' चतुःशालं सर्वमपि प्रकाशयति; एवमत्रापि सकलाध्ययनमध्यवर्तिनि प्रस्तुतसूत्रे यदिदं प्रथमोद्देशकस्यान्त्यसूत्रं न जानातीत्युक्तं तद् मध्यदीपंकमवगन्तव्यम् । यद्वा यस्मादत्र प्रथमोद्देशके समासतः सर्वाऽपि सामाचारी समर्थिता ततश्चतुःशालप्रमुखोज्वालितप्रदीप १°ते 'इतः' एवं° भा० ॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० कां० एव वर्त्तते ॥ ३ सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद् बिभणिषुराह-जो एतं भा० ॥ ४°मर्थ प्रथमाध्ययनमध्यवर्तिनि प्रस्तुतसूत्रे यदिदं प्रथमो का० ॥ ५°पकं सकलाध्ययनविषयमव का० ॥ 25 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०८ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० इवेदमन्त्यदीपकमवसातव्यम् । ततश्चेदमुक्तं भवति ?-एतत् कल्पाध्ययनं प्रथमोद्देशकं वा न जानाति स गणपरिवर्ती भगवद्भिर्नानुज्ञातः ॥ ३२४५॥ इदमेव प्रचिकटयिपुः "तत्राचार्ये ज्ञातमिदं भवति” (गा० ३२४४) इति पदं व्याख्यानयति जो गणहरो न याणति, जाणंतो वा न देसती मग्गं । सो सप्पसीसगं पिव, विणस्सती विजपुत्तो वा ॥ ३२४६ ॥ यः कश्चिद् गणधरः 'मार्ग' यथोक्तसामाचारीरूपं न जानाति, जानाति वा परं न शिष्याणां तं मार्गमुपदिशति स सर्पशीर्षकमिव वैद्यपुत्र इव वा विनश्यति ॥ ३२४६ ॥ तत्थं इमं कप्पियं उदाहरणं--एगो सप्पो निच्चं पलोएंतो अप्पणो जहासुहं विहरइ । 10 ताहे से पुंछडा भणति--तुमं निच्चमेव पुरतो गच्छसि । अन्यच्च सी-उण्ह-वासे य तमंधकारे, णिचं पि गच्छामि जतो मि णेसी । गंतव्वए सीसग! कंचि कालं, अहं पिता होज पुरस्सरा ते ।। ३२४७ ॥ भोः शीर्षक ! नित्यमाम्यहं भवत्पृष्ठलग्ना सती यतो यतो मां नयसि तत्र तत्र शीते वा उष्णे वा वर्षे वा निपतति 'तमोऽन्धकारे वा' बहलतमःपटलविलुप्ते प्रदेशे गच्छामि, किं करोमि ? 15 परं साम्प्रतं कञ्चित् कालं 'गन्तव्ये' गमनेऽहमपि तावत् 'ते' तव पुरस्सरा भवेयम् ॥ ३२४७॥ शीर्षकं प्राह ससक्करे कंटइले य मग्गे, वजेमि मोरे णउलादिए य । । बिले य जाणामि अदुट्ट दुढे, मा ता विसूराहि अजाणि एवं ॥ ३२४८॥ हे पुच्छिके ! अंहं पुरस्सरं गच्छन् सन्। 'सशर्करान्' कर्करयुक्तान् कण्टकाकुलाँश्च मार्गान् 20 वर्जयामि । यत्र च मयूरान् नकुलादींश्चात्मोपद्रवकारिणः पश्यामि तत्र न गच्छामि । बिलानि चामूनि अदुष्टानि अमूनि च दुष्टानि इत्येवमहं सम्यग् जानामि । त्वं पुनरेतेषां मध्यादेकमपि न जानासि । अतस्त्वमेवमज्ञा सती मा तावत् “विसूराहि" ति "खिदेर्जूर-विसूरौ” ( सिद्ध० ८-४-१३२) इति प्राकृतलक्षणबलाद् मा खेदमनुभवेत्यर्थः ॥ ३२४८॥ पुच्छिका प्राह तं जाणगं होहि अजाणिगा हं, पुरस्सरं ताव भवाहि अन्ज । 25 एसा अहं गंगलिपासएणं, लग्गा दुअं सीसंग! वच्च वच्च ॥ ३२४९ ॥ ___ शीर्षक ! त्वं ज्ञायकं भव, अहह्मज्ञायिकाऽपि स्थास्यामि, 'पुरस्सरम्' अग्रगामुकं तावत् त्वमद्य भव, अहं पुनरेषा नङ्गलिपाशकेन लग्ना अत्रैव स्थिता, त्वं पुनः 'द्वतं' शीघ्रं व्रज ब्रजेति १°पकं सकलप्रथमोद्देशकविषयमव का० ॥ . २ ता० त० डे. मो० ले० विनाऽन्यत्र-य एनां प्रथमोद्देशकभणितां सामाचारी न जानाति भा० । य एतदखिलमपि कल्पाध्ययनमेकमेव वा प्रथमोद्देशकमर्थतो न जानाति का० ॥ ३ इति नियुक्तिगाथापदं कां० ॥ ४ 'मार्ग' प्रस्तुतशास्त्रोक्तसामा का० ॥ ५ °थ सप्पसीसगोदाहरणं ताव भन्नइ-एगो कां० ॥ ६ °तो मणे मो० ले. कां० विना ॥ ७°व्ये कालेऽहम भा० ॥ ८ » एतदन्तर्गतः पाठः कां० एव वर्तते ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथाः ३२४६-५२ ]. ॥ ३२४९ ॥ शीर्षकमाह- प्रथम उद्देशः । अकोविए ! होहि पुरस्सरा मे, अलं विरोहेण अपंडितेहिं । सस्स छेदं अमुणे ! इमस्स, दहुं जतिं गच्छसि तो गता सि ।। ३२५० ।। 'अकोविदे !” मूर्खे ! भव 'मे' मम पुरस्सरा, अलमपण्डितैः सह विरोधेन चलितेन, परं 'हे अमुणे !' अज्ञे ! अस्य मदीयवंशस्य च्छेदमपि दृष्ट्वा यदि गच्छसि ततस्त्वमपि 'गताऽसि' 5 विनष्टाऽसीत्यर्थः अस्य कार्यस्य पर्यवसानं पश्चात् त्वमपि द्रक्ष्यसीति भावः || ३२५० ॥ अपि च कुलं विणा से सयं पयाता, नदीव कुलं कुलडा उ नारी । निब्बंध एसो हि सोभणो ते, जहा सियालस्स व गाइतन्वे ।। ३२५१ ॥ 'वयम्' आत्मच्छन्देन 'प्रयाता' प्रवृत्ता 'कुलटा' खैरिणी नारी 'कुलं' पितृकुलं धशुरकुलं 10 च विनाशयति । केव किम् ? इत्याह- नदीव कुलम्, यथा नदी खैरं महापूरप्रवृत्ता सती कुलमुभयमपि पातयति तथैषाऽपि कुलद्वयमित्यर्थः । न चायमीदृशः 'निर्बन्ध : ' कदाग्रहः 'ते' तव 'शोभनः' परिणामसुन्दरो भविता । यथा शृगालस्य 'गातव्ये' उन्नदितव्ये निर्बन्धो न शोभनः सञ्जात इति । अत्र खसद्रुमाख्यानकम् - एक्को सियालो रतिं घरं पविट्टो । घरमाणुसेहि चेतितो निच्छुभिउमाढतो । सो सुणगाईहिं 15 पारद्धो नीलीरागरंजणे पडितो, किह वि ततो उत्तिण्णो, नीलवण्णो जातो । तं अन्ने सरभतरक्ख-सियालाई पांसिउं भांति — को तुमं एरिसो ? । सो भइ - अहं सवाहिं मिगजाईहिं खसद्दुमो नाम गिराया कतो, ततो अहं एत्थमागतो, पासामि ताव को मं न नमति ? । ते जाणंति - अपुत्रो एयस्स वण्णो, अवस्सं एस देवेहि अणुग्गहितो । तओ भांति - अम्हे त किंकरा, संदिसह, किं करेमो ? । खसद्दुमो भणति -हत्थिवाहणं देह । दिण्णो, विलंग्गो 20 वियरति । अण्णया सियालेहिं उण्णईयं । ताहे खसद्दुमेणं तं सियालसहावमसहमाणेण उण्णईयं । ततो हत्था 'सो सियालो' त्ति नाउं सोंडाए घेत्तुं मारितो । जहा सो सियालो उन्नईयं सोउं उन्नईए विट्टो एवं तुमं पि विणस्सिहिसिति || ३२५१ ॥ किञ्च — उल्लत्तिया भो ! मम किं करेसी, थामं सयं सुठु अजाणमाणी । सुतं तया किण्ण कताई मूढे !, जं वाणरो कासि सुगेहियाए ।। ३२५२ ।। पुच्छि ! यदि नाम त्वं 'उल्लत्तिता' मम सम्मुखं वलिता ततः खकं 'स्थाम' वीर्यमजानती मम किं करिष्यसि ? न किमपीति भावः । परं मूढे ! त्वया किं न कदाचिदप्येतत् संविधानकं श्रुतं यद् वानरः सुगेहिकायाः शकुनिकायाः सम्मुखमावृत्तः सन् कृतवान् ? | अत्र कथानकम्— ९०९ वासेणं झडिज्जंतं, रुक्खग्गे वानरं थरथरेंतं । सुघरा नाम सउणिया, भणति तयं निड्डए संती ॥ १ विलज्जो विय° भा० क० ॥ २ तथापि स्व' भा० ॥ ३ भा० विनाऽन्यत्र - 'ण सडि' ता० मो० कां० । 'ण पडि' त० डे० ले० ॥ 25 30 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ९१० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० छेत्तूण मे तणाई, आणेऊणं च रुक्खसिहरम्मि । वसही कता णिवाता, तत्थ वसामि निरुबिग्गा ॥ एत्थ हसामि रमामि य, वासारते य ण वि य उल्लामि । अंदोलयामि वानर !, वसंतमासं विलंबेमि ॥ हत्था तव माणुसगस्स जारिसा हिदयए य विण्णाणं । हत्था विण्णाणं जीवितं च मोहप्फलं तुज्झ ॥ विसहसि धारपहारे, न य इच्छसि गेहमप्पणो काउं । वानर ! तुमे असुहिते, अम्हे वि रतिं न विंदामो॥ तह दोच्चं तह तच्चं, रोसवितो तीऍ वानरो पावो । 10 रोसेण धमधमेंतो, उप्फिडितो तं गतो सालं ॥ आकंपितम्मि तो पादवम्मि फिरडि ति निग्गता सुघरा । अण्णम्मि दुमम्मि ठिता, झडिजते सीत-वातेणं ॥ इतरो वि य तं जेड्डु, घेत्तूणं पादवस्स सिहराओ । तणयं एकेक अंछिऊण तो उज्झती कुवितो ॥ भूमीगतम्मि तो णिड्डयम्मि अह भणति वानरो पावो । सुघरे ! अवहितहिदए !, सुण ताव जहा अहिरिया सि ॥ ण व सि ममं मयहरिया, ण व सि ममं सोहिया व णिद्धा वा । सुघरे ! अच्छसु विघरा, जा वट्टसि लोगतत्तीसु ॥ जहा सो वानरो सुघराए पडिचोइओ समाणो तीसे चेव पडिणीईभूओ, एवं तुमं पि 20 मए हितोवएसेणाणुसासिया वि मम चेवोपरि भूय त्ति । अत एवोक्तम् उपदेशो न दातव्यो, यादृशे तादृशे जैने । पश्य वानरमूर्खेण, सुगृही निगृही कृता ॥ ॥ ३२५२ ॥ किश्चान्यत् न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो, संजाणते णावि मियंककंति । 25 किं पीढसप्पी कह दूतकम्मं, अंधो कहिं कत्थ य देसियत्तं ॥ ३२५३ ॥ ___ यथा अन्धश्चित्रकर्मणः 'विशेष' रामणीयकं न जानीते, नापि मृगाकस्य-चन्द्रमसः कान्तिम् , एवं त्वमपि चक्षुरहिततया मार्गे गन्तुं न जानासीति भावः । तथा क पीठेन सर्पितुंगन्तुं शीलमस्येति पीठसपी-पङ्गुः ? क च 'दूतकर्म' सन्देशहारकत्वम् ?, क चान्धः ? क च 'देशकत्वं' मार्गदर्शकत्वम् !, यथा सर्वथैवाघटमानकमिदं तथा भवत्या अपि निष्प्रत्यूहं गमनमिति 3८ भावः ॥ ३२५३ ॥ एवं शीर्षकेणोक्ते सति सा ब्रवीति बुद्धीबलं हीणवला वयंति, किं सत्तजुत्तस्स करेइ बुद्धी । किं ते कहा णेव सुता कतायी, वसुंधरेयं जह वीरभोजा ॥ ३२५४ ॥ १ नरे भा० ॥ २ °बलं भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां पत्र ९११ टिप्पणी १॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२५३-५८ ] प्रथम उद्देशः । ९११ बुद्धिलक्षणं यद् बलं तद् 'हीनबली' निःसत्त्वा एव वदन्ति । यतः सत्त्वयुक्तस्य बुद्धिः किं करोति ? सत्त्वेनैव सर्वकार्यसिद्धेः । किं वा त्वया कदाचिदियं कथा नैव श्रुता - यथा वसुन्धरेयं वीरभोज्या । तदुक्तम् नेयं कुलमायाता, शासने लिखिता न वा । खङ्गेनाक्रम्य भुञ्जीत, वीरभोज्या वसुन्धरा ॥ अथ शीर्षकमाह असंसयं तं अमुणाण मग्गं गता विधाणे दुरतिकमम्मि | इमं तु मे बाहति वामसीले !, अण्णे वि जं का हिसि एकघातं ।। ३२५५ ।। 'असंशयं' निस्संदेहं त्वम् 'अज्ञानां' मूर्खाणां 'मार्गम्' आत्मोपघातरूपं गता । वसति ? इत्याह-- विधाने दुरतिक्रमे सति । विधानं नाम - यद् येन यदा प्राप्तव्यं तद् दुरतिक्रमम्, 10 नान्यथा कर्त्तुं शक्यते । उक्तञ्च — बुद्धिरुत्पद्यते तादृग्, व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशा ज्ञेयाः, यादृशी भवितव्यता | ॥। ३२५४ ॥ अत एव तद् अवश्यम्भावितया नास्मन्मनो दुनोति, परं 'वामशीले !' प्रतिकूलपथगामिनि ! मामिदमेव बाधते यद् 'अन्यानपि ' आत्मव्यतिरिक्तानस्मादृशानेकधातं करिष्यसि, आत्मना 15 सह मारयसीति भावः || ३२५५ ॥ 5 सा मंदबुद्धी अह सीसकस्स, सच्छंद मंदा वयणं अकाउं । पुरस्सरा होतु मुहुत्तमेतं, अपेयचक्खू सगडेण खुण्णा || ३२५६ ।। 'सा' पुच्छिका 'मन्दबुद्धिः' सद्बुद्धिविकला 'अथ' अनन्तरं शीर्षकस्य वचनमकृत्वा 'स्वच्छन्दा' स्वमतिप्रवृत्ता 'मन्दा' गमनक्रियायामलसा बलामोटिकया पुरस्सरा भूत्वा गन्तुं 20 प्रवृत्ता । ततः किमभूत् ? इत्याह- 'अपेतचक्षुः ' लोचनरहिता सा पुरो गच्छन्ती मुहूर्तमात्रेण शकटेन 'क्षुण्णा' आक्रान्ता विपत्तिमुपागता || ३२५६ ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः जे मझसे खलु देस- गामा, अतिष्पितं तेसु भयंतु ! तुझं । लक्खण्ण- हिंडीहिं सुताविया मो, अम्हं पि ता संपर होउ छंदो || ३२५७ ॥ 'ये' अगीतार्थाः शिष्यास्ते आचार्यान् भणन्ति -- भदन्त ! ये खलु 'मध्यदेशे' आर्यक्षेत्रे ' 25 देशाः - मगधादयो ग्रामाश्च - तत्प्रतिबद्धास्तेषु भगवताम् 'अतिप्रियम्' अतीव विहर्तुं रोचते, परं वयमेषु दिवसेषु रूक्षान्नमात्रलाभेन हिण्ड्या च - इतस्ततः परिभ्रमणरूपया सुष्ठु - अतिशयेन तापिताः - दग्धान्नदेहाः सञ्जाताः, अतोऽस्माकमपि तावत् सम्प्रति च्छन्दो भवतु, स्वच्छन्देन यत्र यत्र रोचते तत्र तत्र विहरिष्याम इति || ३२५७ ॥ गुरवो ब्रुवते - देहो वही तेणग-सावतेहिं, पदुट्ठमेच्छेहि य तत्थ तत्थ । जता परिब्भस्सध अंतदेसे, तदा विजाणिस्सह मे विसेसं ।। ३२५८ । १ लम्' अकिञ्चित्करं वद भा० ॥ २ 'लु भिक्खगा भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ ३ त्रे भैक्षग्रामास्तेषु भवताम् भा० ॥ 30 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० भो भद्राः ! यूयं प्रत्यन्तदेशे विहरन्तो यदा देहस्तेनैः-शरीरहरैः उपधिस्तेनैः-उपकरणहरैः श्वापदैः-सिंह-व्याघ्रादिभिः प्रद्विष्टम्लेच्छैश्च तत्र तत्रोपहृताः सन्तः संयमा-ऽऽत्मविराधनादिना परिभ्रंशमाप्स्यथ तदा विज्ञास्यथ 'मे' मदीयं विशेषम् , यथा-हा ! न शोभनं कृतमस्माभिः यदेवं गुरूणां वचनमवगणय्य खच्छन्दसा विहारः कृत इति । यस्तु गणधरो न जानाति, 5 जानानो वा शिष्याणां मार्ग नोपदिशति, स तेषामनुवृत्त्या सन्मार्गमतिक्रम्यानार्यदेशे विहरन् तैरेव शिष्यैः सह विनाशमाविशति; यथा सर्पशीर्षकं पुच्छिकासहितं विनष्टमिति ॥ ३२५८ ॥ अथ वैद्यपुत्रदृष्टान्तमाह वेजस्स एगस्स अहेसि पुत्तो, मतम्मि ताते अणधीयविजो। गंतुं विदेसं अह सो सिलोगं, घेतूणमेगं सगदेसमेति ॥ ३२५९ ॥ 10 एकस्य वैद्यस्य पुत्र आसीत् । स च 'ताते' पितरि मृते सति अनधीतविद्य इति कृत्वा राज्ञः सकाशाद् वृत्तिं न लभते । ततो वैद्यकशास्त्रपठनाथ विदेशं गत्वा तत्र कस्यापि वैद्यस्य पार्थे एक श्लोकं शृणोति स्म पूर्वाले वमनं दद्यादपराहे विरेचनम् । वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम् ।। 15 ततस्तेन चिन्तितम्-हुं ज्ञातं वैद्यकरहस्यम् , अतः किमर्थमत्र तिष्ठामि ? इति । 'अथ' अनन्तरमसौ श्लोकं गृहीत्वा स्वकम्' आत्मीयं देशमुपैति ॥ ३२५९ ॥ अहाऽऽगतो सो उ सयम्मि देसे, लक्ष्ण तं चेव पुराणवित्तिं । रण्णो णियोगेण सुते तिगिच्छं, कुव्वंतु तेणेव समं विणट्ठो ॥ ३२६० ॥ 'अथ' अनन्तरं 'सः' वैद्यपुत्रः खके देशे समागतः सन् राज्ञः समीपे तामेव पुराणां वृत्तिं 20लब्ध्वा अन्यदा राज्ञो नियोगेन 'सुतस्य' राज्ञः पुत्रस्य पूर्वोक्तश्लोकप्रमाणेन चिकित्सां कर्तुमारब्धवान् । ततोऽसौ राजपुत्रस्तदीयया अपप्रयोगक्रियया विनष्टः । राज्ञा चापरे वैद्याः पृष्टाः-- किमेतेन सम्यक्प्रयोगेण क्रिया कृता ? उतापप्रयोगेण ? । तैरुक्तम्-अपप्रयोगेणेति । ततोऽसौ तेन राज्ञा शारीरेण दण्डेन दण्डितः । एवमसावपि 'तेन' राजपुत्रेण समं विनष्ट इति उक्तम् । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः--यथाऽसौ वैद्यपुत्र एकमविकं मरणमनुप्राप्तः एवं य आचार्य इदं 25 कल्पाध्ययनं न जानाति एकदेशं वा जानन् गणं परिवर्तयति स गम्भीरसंसारसागरं परिभ्रमन्ननेकानि जनितव्य मर्त्तव्यानि प्रामोति ॥ ३२६० ॥ अथेदं सूत्रं भगवता यत्र क्षेत्रे यं च कालं प्रतीत्य प्रज्ञप्तं तदेवाह-- . साएयम्मि पुरवरे, सँभूमिभागम्मि वद्धमाणेण । सुत्तमिणं पण्णत्तं, पडुच तं चेव कालं तु ॥ ३२६१ ॥ 30 साकेते पुरवरे सभूमिभागे उद्याने समवसृतेन भगवता वर्द्धमानखामिना सूत्रमिदं 'तमेव' वर्तमानं कालं प्रतीत्य निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां पुरतः प्रज्ञप्तम् ॥३२६१ ॥ कथम् ? इत्याह १ एतदनन्तरं मो० ले० प्रतौ ग्रन्थाग्रम्-७००० इति वर्तते ॥ २°यनं सम्पूर्णमजानन् गणं भा० ॥ . ३ सुभूमि भा० ता.॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२५९--६४] प्रथम उद्देशः । ९१३ मगहा कोसंवी या, थूणाविसओ कुणालविसओ य । एमा विहारभृमी, एतावंताऽऽरियं खेत्तं ॥ ३२६२ ॥ पूर्वस्यां दिशि मगधान दक्षिणस्यां दिशि कौशाम्बी अपरस्यां दिशि स्थूणाविषयं उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावद् ये देशा एतावदार्यक्षेत्रं मन्तव्यम् । अत एव साधूनामेषा विहारभूमी । इतः परं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां विहर्तुं न कल्पते ॥ ३२६२ ॥ अथार्यपदस्य निक्षेपनिरूपणायाह नाम ठवणा दविए, खेत्ते जाती कुले य कम्मे य । ___ भासारिय सिप्पारिय, णाणे तह दंसण चरित्ते ॥ ३२६३ ॥ नामार्याः स्थापनार्या द्रव्यार्याः क्षेत्रार्या जात्यार्याः कुलार्याः कार्याः भाषार्याः शिल्पार्या ज्ञानार्या दर्शनार्याश्चारित्रार्याश्चेति । तत्र नाम-स्थापने सुप्रतीते । द्रव्यार्या नामनादियोम्याः 10 तिनिशवृक्षप्रभृतयः । क्षेत्रार्या अर्द्धषड्विंशतिर्जनपैदाः तद्वासिनो वा । ते च जनपदा राजगृहादिनगरोपलक्षिता मगधादयः । उक्तञ्च रायगिह मगह १ चंपा, अंगा २ तह तामलित्ति वंगा य ३। कंचणपुरं कलिंगा ४, वाणारसि चेव कासी य ५॥ साकेत कोसला ६ गयपुरं च कुरु ७ सोरियं कुसट्टा य ८। 15 कंपिल्लं पंचाला ९, अहिछत्ता जंगला चेव १० ॥ वारवई य सुरट्ठा ११, विदेह मिहिला य १२ वच्छ कोसंबी १३ । नंदिपुरं संडिब्भा १४, भदिलपुरमेव मलया य १५ ॥ वेराड वच्छ १६ वरणा, अच्छा १७ तह मत्तियावइ दसना १८ । सुत्तीवई य चेदी १९, वीयभयं सिंधुसोवीरा २० ॥ महुरा य सूरसेणा २१, पावा भंगी य २२, मासपुरि वट्टा २३ । सावत्थी य कुणाला २४, कोडीवरिसं च लाढा य २५ ॥ सेयविया वि य नगरी, केगइअद्धं च आरियं भणियं ।। जत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं राम-कण्हाणं ॥ ॥ ३२६३ ॥ सम्प्रति जात्यार्यानाह 25 अंबट्ठा य कलंदा, विदेहा विदका ति य । ___ हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इन्भजातिओ ॥ ३२६४ ॥ इह यद्यप्याचारादिषु शास्त्रान्तरेपु बहवो जातिभेदा उपवर्ण्यन्ते तथापि लोके एता एवाम्बष्ठ-कलिन्द-वैदेह-विदक-हारित-तुन्तुणरूपाः 'इभ्यजातयः' अभ्यर्चनीया जातयः प्रसिद्धाः । तत एताभिर्जातिभिरुपेता जात्यार्याः, न शेषजातिभिरिति ॥ ३२६४ ॥ १ अस्मात् साकेतात् पूर्चस्यां दिशि कौशाम्बी भा० विना ॥२ पदवासिनः। ते च भा०॥ ३ लाडा य भा० कां० ॥ ४ °या चुंचुणा भा० को० । टीकाऽप्यत्रैतदनुसारेणैव वर्तते । दृश्यतां टिप्पणी ५॥ ५°त-चुचण° भा० कां० ॥ 30 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ . सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० अथ कुलार्यान् निरूपयति उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया तह य णात कोरव्या । इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होंति नायव्वा ॥ ३२६५ ॥ 'उग्राः' उपदण्डकारित्वादारक्षिकाः । 'भोगाः' गुरुस्थानीयाः । 'राजन्याः' वयस्याः । 5'क्षत्रियाः' सामान्यतो राजोपजीविनः । 'ज्ञाताः' उदारक्षत्रियाः, 'कौरवाः कुरुवंशोद्भवाः, एते द्वयेऽप्येक एव भेदः । 'इक्ष्वाकव:' ऋषभनाथवंशजाः षष्ठाः । एते कुलार्या ज्ञातव्याः ॥ ३२६५॥ ___ 'भाघार्याः' अर्धमागधभाषाभाषिणः । 'शिल्पार्याः' तुण्णाक-तन्तुवायादयः । ज्ञानार्याः पञ्चधा-आभिनिबोधिक-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञानार्यभेदात् । दर्शनार्या द्विधा-सराग10 वीतरागदर्शनार्यभेदात् । तत्र सरागदर्शनार्याः क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यग्दृष्टिभेदाद् द्विधा । वीतरागदर्शनार्या उपशान्तमोहादयः । चारित्रार्याः पञ्चविधाः-सामायिक-च्छेदोपस्थाप्य-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातभेदात् । अत्र च क्षेत्रार्यरधिकारः ॥ अथार्यक्षेत्रविहारे कारणमाह जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ । भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा ॥ ३२६६ ॥ इहार्यक्षेत्रे भगवतां तीर्थकृतां जन्म निष्क्रमणयोः चशब्दाद् ज्ञानोत्पत्तौ च भवनपति-वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिका देवाः ‘महिमाः' सातिशयपूजाः कुर्वन्ति । ताश्च दृष्ट्वा बहवो भव्या विबुध्यन्ते, प्रव्रज्यां च प्रतिपद्यन्ते, चिरप्रव्रजिता अपि स्थिरतरा भवन्ति ॥ ३२६६ ॥ उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणते पहीणकम्माणो । तो उवदिसंति धम्म, जगजीवहियाय तित्थकरा ॥ ३२६७ ॥ 'तस्मिन' तद्देशे 'अनन्ते' अपर्यवसिते 'ज्ञानवरे' मति-श्रुतादिशेषज्ञानप्रधाने केवलाख्ये 'उत्पन्ने' तदावारककर्मक्षयादाविर्भूते सति 'प्रहीणकर्माणः' प्रक्षीणघातिकौशास्तीर्थकराः 'ततः' ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं 'धर्म' श्रुत-चारित्ररूपं जगज्जीवहितायोपदिशन्ति ॥ ३२६७ ॥ लोगच्छेरयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं । संसयवाकरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदे ॥ ३२६८ ॥ ___ लोकस्य-मनुष्यलोकस्य आश्चर्यभूतं-विस्मयकारि देवानामुत्पतनं निपतनं च दृष्ट्वा वह्वो जीवाः प्रतिबुध्यन्ते । तथा देव-मनुप्य-तिर्यग्रुपा असङ्ख्येयाः संज्ञिनः स्वस्वसंशयानां व्याकरणानि-निर्वचनानि जिनवरेन्द्रान् 'तत्र' आर्यजनपदे पृच्छन्ति । भगवन्तोऽपि च सातिशयत्वात् तेषामसङ्ख्येयानामपि युगपदेव संशयानुन्मूलयन्ति ॥ ३२६८ ॥ अपि च30 समणगुणविदुऽत्थ जणो, सुलभो उवधी सतंतमविरुद्धो । आरियविसयम्मि गुणा, णाण-चरण-गच्छवुड्डी य ॥ ३२६९ ।। १ 'ऐश्वा भा० ॥ २ हवो वुद्धा वित्रु ता० भा० कां० विना ॥ स्तोमसाक्षात्करणदक्षे 'अनन्ते' कां॥ 23 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२६५-७४] प्रथम उद्देशः । श्रमणगुणाः-मूलोत्तरगुणरूपाः, तत्र पञ्च महाव्रतानि मूलगुणाः, उद्गमोत्पादनैषणादोषविशुद्धिः अष्टादश शीलाङ्गसहस्राणि चोत्तरगुणाः, तान् वेत्ति--जानातीति श्रमणगुणविद् , ईदृशः 'अत्र' आर्यजनपदे 'जनः' लोकः । अत्र च 'उपधिः' औधिक औपग्रहिकश्च 'खतन्त्रेण' खसिद्धान्तोक्तेन प्रकारेण 'अविरुद्धः' अदूषितः 'सुलभः' सुखेनैव लभ्यते । एते आर्यविषये विहरतां गुणा भवन्ति । तथा ज्ञानस्य चरणस्य उपलक्षणत्वाद् दर्शनस्य चात्र वृद्धिर्भवति, व्याघा-5 ताभावाद् ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि स्फातिमुपगच्छन्तीति भावः । गच्छस्य चात्र वृद्धिर्भवति, बहूनां भव्यजन्तूनां प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः(तेः) ॥ ३२६९॥ एत्थ किर सणि सावग, जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणं । एतेहि कारणेहिं, बहिगमणे होंतिऽणुग्घाया ॥ ३२७० ॥ 'अत्र किल' आर्यक्षेत्रे संज्ञानं संज्ञा-देव-गुरु-धर्मपरिज्ञानं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः-10 अविरतसम्यग्दृष्टयः, 'श्रावकाः' प्रतिपन्नाणुव्रताः, एते 'सुविहिताना' साधूनामभिग्रहान् जानन्ति । अभिग्रहा नाम यथेत्थमाहारादिकममीषां कल्पते इत्थं च न कल्पते, अथवा अभिग्रहा:-द्रव्यक्षेत्र-काल-भावविषयाः प्रागुक्तखरूपाः तान् ज्ञात्वा ते संज्ञि-श्रावकास्तथैव प्रतिपूरयन्ति । एतैः कारणैरार्यजनपदे विहारः कर्तव्य इति वाक्यशेषः । यद्यार्यक्षेत्राद् बहिर्गच्छति ततश्चत्वारो अनुदाता मासाः प्रायश्चित्तम् ॥ ३२७० ॥ 15 आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिद्वंतो। एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु पण्णवणा॥३२७१ ॥ आज्ञादयश्च दोषाः । विराधना चात्म-संयमविषया । तत्र च स्कन्दकाचार्येण दृष्टान्तः कर्तव्यः । अत एतेन कारणेन बहिन गन्तव्यम् । एतद् भगवद्वर्धमानखामिकालं प्रतीत्योक्तम् । इदानीं तु सम्प्रतिनृपतिकालं प्रतीत्य प्रज्ञापना क्रियते यत्र यत्र ज्ञान-दर्शन-चारि-20 त्राण्युत्सर्पन्ति तत्र तत्र विहर्त्तव्यम् ॥ ३२७१ ॥ अथ स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तमाह दोचेण आगतो खंदएण वादे पराजितो कुवितो। खंदगदिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराध तव्वजा ॥ ३२७२॥ उआणाऽऽयुध णूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं । बंध चिरिक णिदाणे, कंबलदाणे रयोहरणं ॥ ३२७३ ॥ अग्गिकुमारुववातो, चिंता देवीय चिण्ह रयहरणं । खिजण सपरिसदिक्खा, जिण साहर वात डाहो य ॥ ३२७४ ॥ सावत्थी नयरी | जियसत्तू राया । धारिणी देवी । तेसिं पुत्तो खंदतो कुमारो जुवराया । भगिणी से पुरंदरजसा । सो य खंदतो साक्तो अभिगतो । इओ य उत्तरावहे 30 पचंते कुंभकारकडं नगरं । दंडती राया। तस्स पुरोहितो पालतो । सा पुरंदरजसा दंड१°दानीन्तनं तु कालं प्र° भा० ।। - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० तिस्स रण्णो दिण्णा । अन्नया पालओ दूतो आगतो । खंदयकुमारेण रायपरिसाए वाए पराजिओ पट्ठो सविसयं गतो । खंदतो पंचहिं सएहिं सद्धिं पबतिओ मुणिसुव्वयसामिणो अंतिए । तस्सेव ते सीसा जाया । अन्नया तित्थयरं आपुच्छति-पंचहिं सएहिं सद्धिं कुंभकारकडं वच्चामि ? । भगवया वारितो 'सोवसगं' ति । पुणो पुच्छति-आराया ? विराहया ?। 5 तुमं मोत्तुं सेसा आराहया । एवं सो गतो कुंभकारकडं । तस्स अग्गुजाणे ठितो । पालगेण य दिट्ठो । ताहे तेणं पुबवेरेणं दंडती वुग्गाहितो-एस परीसहपरातितो पंचहिं सएहिं सद्धिं तव रजं घेच्छिहिति । सो य न पत्तियाइ । ताहे णेण आउहाणि अग्गुजाणे ठवियाणि दंसेऊण बुग्गाहितो। तओ भणति-तुमं चेव से जं जाणसि तं करेहि । तेण पुरिसजंतं कयं । सवे आरद्धा पिल्लिउं । खंदएण भणियं-ममं पढमं मारेहि । ताहे सो भणति—तुम पिच्छाहि ताव 10 सीसे वहिजंते । एवं ते सवे वहिया सिद्धा य । पच्छा खंदयस्स बद्धस्स रुहिरचिरिक्काहि य सिच्चमाणस्स सीसेसु य खंडिजंतेसु असुहो परिणामो जातो । तेण नियाणं कयं । अग्गिकुमारेसु उववन्नो । भगिणीय से कंबलरयणं दिन्नयं, ततोहिंतो रयहरणं कयं । तं रुहिरावलितं सेणाय 'मंसं' ति काउं गहियं । देवीए अग्गतो पडियं । 'कतो एयं रयहरणं ? किं मम भाया मारिउ ?' ति ताए राया भणितो-अहो ! विणट्ठो सि । ताहे सो अग्गिकुमारेसु पजत्तो 15 जातो । ताहे नगरम्स सबतो जोयणपरिमंडले जं किंचि तणं वा कटुं वा तं साहरिउं द8 सज णवयं नगरं । सो य पालओ अणेण सपुत्त-दारओ सह सुणएणं कुंभीए पक्को । पुरंदरजसा य मुणिसुव्वयतित्थयरपायमूले साहरिया सपरिसा ।। ___ अथ गाथात्रयस्याक्षरयोजना-श्रावस्त्यां पालको दौत्येनागतः । स च वादे स्कन्दकेन पराजितः । ततोऽसौ तस्योपरि कुपितः । इतश्च स्कन्दकस्य सुव्रतस्वामिपाधै दीक्षा । अधी20 तसूत्रार्थस्य च तस्यान्यदा भगवतः समीपे पृच्छा-व्रजाम्यहं कुम्भकारकृतं नगरम् । भगवता तु 'सोपसर्गम्' इति भणित्वा निवारणा कृता, तथा 'त्वद्वर्जाः सर्वेऽप्याराधकाः' इति च भणितम् । ततस्तं कुम्भकारकृतपुरमागच्छन्तं पालकेन श्रुत्वा यत्रोद्यानेऽसौ स्थितः तत्रायुधानां “णूमण" ति प्रच्छन्नं स्थापना । ततो नृपस्य कथना, यथा-एष परीषहपराजितस्त्वां मारयित्वा त्वदीयं राज्यमधिष्ठास्यतीत्यादि । ततो राज्ञः कोपोऽभवत् , भणितं च-यत् ते रोचते 25 तदमीषां कुरुप्वेति । ततस्तेन पुरुषयनं कृत्वा पीडयितुमारब्धाः साधवः । स्कन्दकेनोक्तम्-पूर्व मां यन्त्रमध्ये प्रक्षिप । ततस्तेन पापात्मना स्कन्दकस्य स्तम्भे गाढतरं बन्धनम् । ततो निप्पीड्यमानसाधुसम्बन्धिनीभिः शोणितचिरक्काभिः सिक्तेन स्कन्दकेन निदानं कृतम् । भगिन्या च तस्य कम्बलरत्नदानं कृतमासीत् , तेन च रजोहरणं कृतम् । स्कन्दकस्य च विपद्याग्निकुमारेषूपपातः । ततो रजोहरणं शोणितलिप्तं चिह्नमवलोक्य देव्याश्चिन्ता-नूनमपद्राविताः साधवः 30 पापात्मनेति । ततः प्रभूतं राज्ञः पुरतः खेदनम् । ततः 'सपरिषदः' सपरिवारायास्तस्या दीक्षा १ मो० लेत. डे. विनाऽन्यत्र-भारकडं भा० । भकारकक्खडं ता. का० ॥ २°त्तं सउणीय 'मसं' मो० ले०॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१७ भाष्यगाथाः ३२७५-७८ प्रथम उद्देशः । दापनार्थं जिनसमीपे 'संहरणं' नयनम् । संवर्तकवातं विकुळ सकलस्यापि पुरस्य 'दाहः' दहनम् । यत एवमादयो दोषास्ततो नानार्यक्षेत्रे विहर्त्तव्यम् ॥ ३२७२ ।। ३२७३ ॥ ३२७४ ॥ अथ “यत्र ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युत्सर्पन्ति तत्र विहर्त्तव्यम्' (गा० ३२७१) इति यदुक्तं तद्विषयमभिधित्सुः सम्प्रतिनृपतिदृष्टान्तमाह-- कोसंवाऽऽहारकते, अजसुहत्थीण दमगपव्वजा।। अव्वत्तेणं सामाइएण रण्णो घरे जातो ॥ ३२७५ ॥ कौशाम्ब्यामाहारकृते आर्यसुहस्तिनामन्तिके द्रमकेण प्रव्रज्या गृहीता । स तेनाऽव्यक्तेन सामायिकेन मृत्वा राज्ञो गृहे जात इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यः ॥३२७५॥ तच्चेदम् कोसंबीए नैयरीए अजसुहत्थी समोसढा । तया य अंचितकालो । साधुजणो य हिंडमाणो फवति । तत्थ एगेण दमएण ते दिट्ठा । ताहे सो भत्तं जायति । तेहिं भणियं-अम्हं 10 आयरिया जाणंति । ताहे सो गतो आयरियसगासं । आयरिया उवउत्ता । तेहिं णायं-एस पवयणउवग्गहे वट्टिहिति । ताहे भणिओ-जति पञ्चयसि तो दिज्जए भत्तं । सो भणइ-पत्रयामि त्ति । ताहे पञ्चाइतो, सामाइयं कारिओ । तेण अतिसमुद्दिटुं, तओ कालगतो । तस्स अवत्तसामाइयस्स पभावेण कुणालकुमारस्स अंधस्स रण्णो पुत्तो जातो ॥ .. को कुणालो? कहिं वा अंघो ! ति-पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया । तस्स पुत्तो 15 कुणालो । तस्स कुमारभुतीए उज्जेणी दिण्णा । सो य अट्ठवरिसो । रण्णा लेहो विसज्जितोशीघ्रमधीयतां कुमारः । असंवत्तिए लेहे रण्यो उट्टितस्स माइसवत्तीए कतं-अन्धीयतां कुमारः । सयमेव तत्तसलागाए अच्छीणि अंजियाणि । सुतं रण्णा । गामो से दिण्णो । गंधबकलासिक्खणं । पुत्तस्स रज्जत्थी आगतो पाडलिपुत्तं । असोगसिरिणो जवणियंतरिओ गंधवं करेइ । आउट्टो राया भणइ-मग्गमु जं ते अभिरुइयं ति । तेण भणियं- 20 चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति काकणिं ॥ ३२७६ ॥ . चन्द्रगुप्तस्य राज्ञः प्रपौत्रो बिन्दुसारस्य नृपतेः 'नप्ता' पौत्रोऽशोकश्रियो नृपस्य पुत्रः कुणालनामा अन्धः 'काकणीं' राज्यं याचते ॥ ३२७६ ॥ तओ राइणा भणितो-किं ते अंधम्स रजेणं ? । तेण भणियं--पुत्तस्स मे कजं ति । राइणा 23 भणियं-कहिं ते पुत्तो ? ति । तेण आणित्ता दाइओ-इमो मे संपइ जाओ पुत्तो ति । तं चेव नामं कयं । तओ संवडिओ । दिन्नं रजं । तेण संपइराइणा उजेणिं आई काउं दक्खिणावहो सबो तत्थ टिएणं ओअविओ। सवे पच्चंतरायाणो वसीकया । तओ सो विउलं रजसिरिं मुंजइ । किञ्च- . ___ अञ्जसुहत्थाऽऽगमणं, द8 मरणं च पुच्छणा कहणा । पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरण्णो ॥ ३२७७ ॥ १ "नयरीए महागिरी अजमहत्थी य समोसढा" विशेषचूर्णौ ॥ 30 For Private & Personal use only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१८ 10 सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ आर्यक्षेत्रप्रकृते सूत्रम् ५० जीवन्तस्वामिप्रतिमावन्दनार्थमुजयिन्यामार्यसुहस्तिन आगमनम् । तत्र च रथयात्रायो राजाङ्गणप्रदेशे रथपुरतः स्थितानार्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम् । ततस्तत्र गत्वा गुरुपदकमलमभिवन्द्य पृच्छा कृता-भगवन् ! अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम् ! । सूरिराहराज्यादिकम् । ततोऽसौ सम्भ्रान्तः प्रगृहीताञ्जलिरानन्दोदकपूरपूरितनयनयुगः प्राह-भगवन् ! । एवमेवेदम् , परमहं भवद्भिः कुत्रापि दृष्टपूर्वो न वा ? इति । ततः सूरय उपयुज्य कथयन्तिमहाराज ! दृष्टपूर्वः, त्वं पूर्वभवे मदीयः शिष्य आसीदित्यादि । ततोऽसौ परमं संवेगमापन्नस्तदन्तिके सम्यग्दर्शनमूलं पञ्चाणुव्रतमयं श्रावकधर्म प्रपन्नवान् । ततश्चैवं प्रवचने सम्प्रतिराजस्य भक्तिः सञ्जाता ॥ ३२७७ ॥ किञ्च जवमझ मुरियवंसे, दाणे वणि-विवणि दारसंलोए । तसजीवपडिक्कमओ, पभावओ समणसंघस्स ॥ ३२७८ ।। - यथा यवो मध्यभागे पृथुल आदावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि । तथाहि-चन्द्रगुप्तस्तावद् बल-वाहनादिविभूत्या हीन आसीत् , ततो बिन्दुसारो बृहत्तरः, ततोऽप्यशोकश्रीवृहतमः, ततः सम्प्रतिः सर्वोत्कृष्टः, ततो भूयोऽपि तथैव हानिरवसातव्या, एवं यवमध्यकल्पः सम्प्रतिनृपतिरासीत् । तेन च राज्ञा 'द्वारसंलोके' चतुर्खपि नगरद्वारेषु दानं प्रवर्तितम् । 15 "वणि-विवणि" ति इह ये बृहत्तरा आपणास्ते पणय इत्युच्यन्ते, ये तु दरिद्रापणास्ते विपणयः; यद्वा ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः, ये पुनरापणेन विनाऽप्यूर्द्धस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । एतेषु तेन राज्ञा साधूनां वस्त्रादिकं दापितम् । स च राजा वक्ष्यमाणनीत्या सजीवप्रतिक्रामकः प्रभावकश्च श्रमणसङ्घस्यासीत् ।। ३२७८ ॥ अथ "दाणे वणि-विवणिदारसंलोए" इति भावयति ओदरियमओ दारेसु, चउसु पि महाणसे स कारेति । णिताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य ॥ ३२७९ ॥ औदरिकः-द्रमकः पूर्वभवेऽहं भूत्वा मृतः सन् इहायात इत्यात्मीयं वृत्तान्तमनुस्मरन् नगरस्य चतुलपि द्वारेषु स राजा सत्राकारमहानसानि कारयति । ततो दीना-ऽनाथादिपथिकलोको यस्तत्र निर्गच्छन् वा प्रविशन् वा भोक्तुमिच्छति स सर्वोऽपि भोजनं कार्यते । यत् तच्छेष25 मुद्धरति तद् महानसिकानामाभवति । ततो राज्ञा ते महानसिकाः पृष्टाः-यद् युष्माकं दीनादिभ्यो ददतामवशिष्यते तेन यूयं किं कुरुथ ? । ते ब्रुवते-अस्माकं गृहे उपयुज्यते । नृपतिराह-यद् दीनादिभिरभुक्तं तद् भवद्भिः साधूनां दातव्यम् ॥ ३२७९ ॥ एतदेवाह- . साहूण देह एयं, अहं में दाहामि तत्तियं मोल्लं । 30 णेच्छंति घरे घेत्तुं, समणा मम रायपिंडो त्ति ॥ ३२८०॥ ____ साधूनामेतद् भक्तपानं प्रयच्छत, अहं "भे" भवतां तावन्मानं मूल्यं दास्यामि, यतो मम ___गृहे श्रमणा राजपिण्ड इति कृत्वा ग्रहीतुं नेच्छन्ति ॥ ३२८० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२७८-८४ ] प्रथम उद्देशः । एमेव तेलि - गोलिय- पूर्विय मोरंड - दुस्सिए चैव । जं देह तस्स मोल, दलामि पुच्छा य महगिरिणो ।। ३२८१ ॥ एवमेव तैलिकास्तैलम्, गोलिकाः - मथितविक्रायिकास्तत्रादिकम्, पौपिका अपूपादिकम्, मोरेण्डकाः - तिलादिमोदकाः तद्विक्रायिकाखिलादिमोदकान्, दौध्यिका वस्त्राणि च दापिताः । कथम् ? इत्याह-यत् तैल तक्रादि यूयं साधूनां दत्थ तस्य मूल्यमहं भवतां प्रयच्छामीति 15 ततश्चाहार-वस्त्रादौ किमीप्सिते लभ्यमाने श्रीमहागिरिरार्यमुहस्तिनं पृच्छति - आर्य ! प्रचुरमाहार-वस्त्रादिकं प्राप्यते ततो जानीष्व मा राज्ञा लोकः प्रवर्तितो भवेत् ।। ३२८१ ॥ असुहत्थि ममत्ते, अणुरायाधम्मतो जणो देती । संभोग वीसुकरणं, तक्खण आउट्टणें नियती ॥। ३२८२ ॥ आर्यसुहस्ती जानानोऽप्यनेषणामात्मीयशिष्यममत्वेन भणति क्षमाश्रमणाः ! 'अनुराज- 10 धर्मतः' राजधर्ममनुवर्त्तमान एष जन एवं यथेप्सितमाहारादिकं प्रयच्छति । तत आर्यमहागिरिणा भणितम् - आर्य ! त्वमपीदृशो बहुश्रुतो भूत्वा यद्येवमात्मीयशिष्यममत्वेनेत्थं ब्रवीषि, ततो मम तव चाद्यप्रभृति विष्वक्सम्भोगः - नैकत्र मण्डल्यां समुद्देशनादिव्यवहार इति; एवं सम्भोगस्य विष्वक्करणमभवत् । तत आर्यसुहस्ती चिन्तयति -- ' मया तावदेकमनेषणीयमाहारं आनताऽपि साधवो ग्राहिताः, स्वयमपि चानेषणीयं भुक्तम्, अपरं चेदानीमहमित्थमपलपामि, 15 तदेतद् मम द्वितीयं बालस्य मन्दत्वमित्यापन्नम् ; अथवा नाद्यापि किमपि विनष्टं भूयोऽप्यहमेतस्मादर्थात् प्रतिक्रमामि' इति विचिन्त्य तत्क्षणादेवावर्त्तनमभवत् । ततो यथावदालोचनां दत्त्वा खापराधं सम्यक् क्षामयित्वा तस्या अकल्पप्रतिसेवनायास्तस्य निवृत्तिरभूत् । ततो भूयोऽपि तयोः साम्भोगिकत्वमभवत् ॥ ३२८२ ॥ अथ “त्रसजीवप्रतिक्रामकः " ( गा० ३२७८ ) इत्यस्य भावार्थमाह - सोरायाऽवंतिवती, समणाणं सावतो सुविहिताणं । पञ्चतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं ।। ३२८३ ॥ ९१९ 'सः' सम्प्रतिनामा राजा अवन्तीपतिः श्रमणानां 'श्रावकः' उपासकः पञ्चाणुव्रतधारी अभवदिति शेषः । ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्यत आह- 'सुविहितानां' शोभनानुष्ठानानाम् । ततस्तेन राज्ञा ये केचित् प्रात्यन्तिकाःगः - प्रत्यन्तदेशाधिपतयो राजानस्ते सर्वेऽपि ' शब्दा- 25 पिताः' आकारिताः ॥ ३२८३ ॥ ततः किं कृतम् ? इत्याह - १ “मोरंडा नाम रोहमया गोलया जारिसया कीरति ।" इति विशेषचूर्णो ॥ २ 'भृति विसम्भो' मो० के० बिना ॥ कहिओ य तेसि धम्मो, विस्थरतो गाहिता य सम्मत्तं । अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भदगा होह ।। ३२८४ ॥ कथितश्च 'तेषां' प्रात्यन्तिकराजानां तेन विस्तरतो धर्मः । ग्राहिताश्व ते सम्यक्त्वम् । ततः 30 20 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० सनियुक्ति लधुभाष्य-वृत्तिके. बृहत्कल्पसूत्र [ आर्यक्षेत्रावृत्ते सूत्रम् ५० खदेशं गता अपि ते बहुशस्तेन राज्ञा सन्दिष्टाः, यथा-श्रमणानां 'भद्रकाः' भक्तिमन्तो भवत ॥ ३२८४ ॥ अथ कथमसौ श्रमणसङ्घप्रभावको जातः ! इत्याह-- अणुजाणे अणुजाती, पुप्फारुहणाइ उकिरणगाई।। पूयं च वेइयाणं, ते वि सरजेसु कारिंति ॥ ३२८५ ॥ 5 अनुयानं-रथयात्रा तत्रासौ नृपतिः 'अनुयाति दण्ड-भट-भोजिकादिसहितो. रथेन सह हिण्डते । तत्र च पुष्पारोपणम् आदिशब्दाद माल्य-गन्ध-चूर्णा-ऽऽभरणारोपणं च करोति । 'उकिरणगाई" ति रथपुरतो विविधफलानि खाद्यकानि कपर्दक-वस्त्रप्रभृतीनि चोकिरणानि करोति । आह च निशीथचूर्णिकृत् रहगतो व विविहफले खजगे य कबड्डग-वत्थमादी य ओकिरणे करेइ ति ॥ 10 अन्येषां च चैत्यगृहस्थितानां 'चैत्यानां' भगवटिम्बानां पूजां महता विच्छदेंन करोति । तेऽपि र राजान एवमेव स्वराज्येषु रथयात्रामहोत्सवादिकं कारयन्ति । इदं च ते राजानः सम्प्रतिनृपतिना भणिताः ।। ३२८५ ॥ . जति मं जाणह सामि, समणाणं पणमहा सुविहियाणं । दव्वेण में न कर्ज, एयं खु पिय कुणह मझं ।। ३२८६ ॥ 15 यदि मां वानिनं यूयं 'जानीथ मन्यध्वे ततः श्रमणेभ्यः सुविहितेभ्यः 'प्रणमत' प्रणता भवत । 'द्रव्येण दण्डदातव्येनार्थेन मे न कार्यम् , किन्स्वेतदेव श्रमणप्रणमनादिकं मम प्रियम् , तदेतद् यूयं कुरुत ॥ ३२८६ ॥ वीसजिया य तेणं, गमणं घोसायणं सरजेसु । साहूण मुहविहारा, जाता पचंतिया देसा ॥ ३२८७ ।। 20. एवं 'तेन' राज्ञा शिक्षा दत्त्वा विसर्जिताः । ततस्तेषां खराज्येषु गमनम् । तत्र च तैः खदेशेषु सर्वत्राप्यमाघातघोषणं कारितम् , चैत्यगृहाणि च कारितानि । तथा प्रात्यन्तिका देशाः साधूनां सुखविहाराः राजाताः । कथम् ? इति चेदुच्यते-तेन सम्प्रतिना साधवो भणिताःभगवन्तः ! एतान् प्रत्यन्तदेशान् गत्वा धर्मकथया प्रतिबोध्य पर्यटत । साधुभिरुक्तम्-राजन् ! एते साधूनामाहार-वस्त्र-पात्रादेः कल्प्या-ऽकल्प्यविभागं न जानन्ति ततः कथं वयमेतेषु विह25 रामः । ततः सम्प्रतिना साधुवेपेण सभटाः शिक्षा दत्त्वा तेषु प्रत्यन्तदेशेषु विसर्जिताः ॥ ३२८७ ॥ ततः किमभूत् ! इत्याह समणगडभाविएसुं, तेसू रजेसु एसणादीसु।। साहू सुहं विहरिया, तेणं चिय भद्दगा ते उ ॥ ३२८८ ॥ श्रमणवेषधारिभिर्भटेरेपणादिभिः शुद्धमाहारादिग्रहणं कुर्वाणैः साधुविधिना भावितेषु तेषु ० राज्येषु साधवः सुखं विहृताः । तत एव च सम्प्रतिनृपतिकालात् 'ते' प्रत्यन्तदेशा भद्रकाः सत्राताः ।। ३२८८ ॥ १ मसौ पारमेश्वरप्रवचनं प्रभावयति ? इति उच्यते-अणु' भा० ॥ २ पूजनां म ता० त० दे० ॥ ३°मणानां सुविहिताना 'मण° भा• ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३२८५-८९) प्रथम उद्देशः। इदमेव स्पष्टयति उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो, स पत्थिवो णिजियसत्तुसेणो। समंततो साहुसुहप्पयारे, अकासि अंधे दमिले य घोरे ॥ ३२८९॥ उदीर्णाः-प्रबला ये योधास्तैराकुला-सङ्कीर्णा सिद्धा-प्रतिष्ठिता सर्वत्राप्यप्रतिहता सेना यस्य स तथा, अत एव च 'निर्जितशत्रुसेनः' खवशीकृतविपक्षनृपतिसैन्यः एवंविधः स सम्प्रतिनामा । पार्थिवः अन्धान् द्रविडान् चशब्दाद् महाराष्ट्र-कुडुक्कादीन् प्रत्यन्तदेशान् 'घोरान्' प्रत्यपायबहुलान् समन्ततः 'साधुसुखप्रचारान्' साधूनां सुखविहरणान् 'अकार्षीत्' कृतवान् ॥३२८९॥ ॥ आर्यक्षेत्रप्रकृतं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्रीकल्पाध्ययनटीकायां प्रथम उद्देशकः परिसमाप्तः ॥ कल्पे माणिक्यकोशे जिनपतिनृपतेः सूरिभिस्तन्नियुक्तै स्तस्यैवा कतानैर्नयपथनिपुणैश्चिन्त्यमानाधिकारे । पेटा उद्देशकाः स्युः षडिह गहनतामुद्रिता अर्थरलैः, पूर्णास्तत्राऽऽद्यपेटाप्रकटनविधये कुञ्चिकैषाऽस्तु टीका ॥ ॥ सर्वग्रन्थानम्-२२८७५ ॥ १रणीयान 'भका भा० का०॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र कल्पे प्रथम उद्देशक বয়ঃ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કિંમત જેન આત્માનંદ સભા પ્રાપ્ય પુસ્તકો ક્રમ વિગત ૧ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ૨-૩-૪ પુસ્તક * ૨ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ..... ૩ દ્વાદશારે નયચક્ર” ભાગ-૧.. ૪ દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૨..................... ૫ દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૩. ૬ સ્ત્રીનિર્વાણ કેવળી ભુક્તિ પ્રકરણ ............. ૭ જિનદત્ત આખ્યાન. સાધુ-સાધ્વી આવશ્યક ક્રિયા સૂત્ર પ્રત.... કુમાર વિહાર શતક પ્રતાકારે. પ્રાકૃત વ્યાકરણ ....... ૧૧ આત્મક્રાંતિ પ્રકાશ ............. ૧૨ નવસ્મરણાદિ સ્તોત્ર સંદોહ. ૧૩ જાણ્યું અને જોયું............. ૧૪ સુપાર્શ્વનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ . ૧૫ કથાર– કોષ ભાગ-૧ .......... ૧૬ જ્ઞાન પ્રદિપ ભાગ ૧-૨-૩ સાથે. ૧૭ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૧.... ૧૮ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨... ૧૯ શત્રુંજય ગિરિરાજ દર્શન ૨૦ વૈરાગ્ય ઝરણા ..... ૨૧ ઉપદેશમાળા ભાષાંતર... ૨૨ ધર્મ કૌશલ્ય... ૨૩ નમસ્કાર મહામંત્ર........ ૨૪ પુણ્યવિજય વિશેષાંક ૨૫ આત્મવિશુદ્ધિ .. ૨૬ જૈનદર્શન મીમાંસા .... ૨૭ શત્રુંજય તીર્થનો ૧૫મો ઉદ્ધાર .. ૨૮ આત્માનંદ ચોવિસી............. ૨૯ બ્રહ્મચર્ય ચારિત્ર પૂજાદિત્રયી સંગ્રહ. ૩૦ આત્મવલ્લભપૂજા ......... ૩૧ નવપદજી પૂજા.... ૩૨ ગુરુભક્તિ ગહુંલી સંગ્રહ... ૩૩ ભક્તિ ભાવના. ૩૪ જૈન શારદાપૂજન વિધિ... ૩૫ જંબુસ્વામી ચરિત્ર ૩૬ ચાર સાધન ....... ૩૭ શ્રી તીર્થકર ચરિત્ર (સચિત્ર) .......... ... ૫0-00 ... પ૦-૦૦ ૫૦૦-૦૦ ..... ૩૫૦-૦૦ ૩પ૦-૦૦ .... ૨૫-૦૦ . ૧૫-૦૦ ... ૨૦-૦૦ ૨૦-૦૦ પ0-00 .. પ-00 .. ૭-૦૦ 1000 ૨૦-૦૦ ૩૦-૦૦ ૪0:00 ૪૦-૦૦ . ૮૦-૦૦ ... 10-00 . ૩-૦૦ ૩૦-૦૦ ૧૦-૦૦ . પ-૦૦ ૧૦-00 ૧૦00 ૧૦-૦૦ .. ૨-૦૦ ૨-૦૦ પ-૦૦ •. ૫-૦૦ પ-૦૦ ૨-૦૦ ૨-00 •.. પ-૦૦ . ૧પ-૦૦ .......... ૨0-00 .......... ૧પ૦-૦૦ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Veneeeaaaoo Tejas Printers AHMEDABAD PH. 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