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-- भट्टि० १।१२, २/३६, 3. निकालना, निष्कासन, निर्वासित करना - गृहात्रिरस्ता न तेन वैदेहमुता मनस्तः- - रघु० १४।८४, 4. बाहर फेंकना, (तीर) छोड़ना 5. अस्वीकार करना, ( सम्मति आदि का ) निराकरण करना 6. ग्रहण लगना, छिप जाना, पृष्ठभूमि में गिर पड़ना - भट्टि० १1३, परा छोड़ना, स्यागना, त्याग देना, छोड़ देना- परास्तवसुधो सुधाधिवसति कि० ५।२७, 2. निकाल देना 3. अस्वीकार करना, निराकरण करना, प्रत्याख्यान करना - इति यदुक्तं तदपि परास्तम्- सा० द० १, परि- 1. चारों ओर फेंकना, सब ओर फैलाना, प्रसार करना 2. फैला देना, घेरना - ताम्रोष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य कु० १/४४, 3. मोड़ लेना - पर्यस्त विलोचनेन कु० ३२६८, 4. (आँसू ) गिराना, नीचे फेंकना - रघु० १०1७६, मनु०११११८३ 5. उलट देना, पलट देना, 6. बाहर फेंकना - रघु० १३/१३, ५/४९ परिनि, फैलाना, बिछाना, पर्युद- 1. अस्वीकार करना, निकाल देना 2. निषेध करना, आक्षेप करना, प्र, फेंकना, फेंक देना, उछाल देना, वि, उछालना, बखेरना, अलग-अलग फेंकना, फाड़ देना, नष्ट करना
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-भट्टि० ८।११६, ९/३१, 2. खंडों में विभक्त करना, पृथक करना, क्रम से रखना स्वयं वेदान् व्यस्यन् पंच० ४/५०, विव्यास वेदान् यस्मात्स तस्माद् व्यास इति स्मृतः, महा०, रघु० १० ८५, 3. अलग-अलग लेना, एक-एक करके लेना तदस्ति कि व्यस्तमपि त्रिलोचने- कु०५/७२, देना, पलट देना 5. निकाल देना, हटा देना- विनि
4. उलट
1. रखना, जमा करना, रख देना - विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पैः मेघ० ८८, भट्टि० ३1३, 2. जमा देना, किसी की ओर निर्देश करना
-रामे विन्यस्तमानसाः- रामा०, 3. सौंपना, दे देना, सुपुर्द कर देना, किसी के जिम्मे कर देना, -सुतविन्यस्तपत्नीकः -- याज्ञ० ३।४५, 4. क्रम में रखना, सँवारना, विपरि-, 1. उलट देना, पलट देना, औंधा कर देना, 2. बदलना, परिवर्तन करना- उत्तर० १, 3. भ्रमग्रस्त होना, गलत समझना, प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः भर्तृ० ३९२, 4. परिवर्तित होना ( अक० ) सम्1. मिलना, एकत्र करना, मिलाना, जोड़ देना- मनु० ३।८५, ७1५७, 2. समास में जोड़ देना, समासकरना 3. सामुदायिक रूप से ग्रहण करना - समस्तैरथवा पृथक् मनु० ७ १९८, संयुक्त रूप से या अलग अलग, संनि- 7 1. रखना, सामने लाना, जमा करना, 2. एक ओर रखना, छोड़ना, त्यागना, छोड़ देना- संन्यस्तशस्त्रः रघु० २/५९, संन्यस्ताभरणं गात्रम् - मेघ० ९३, कु० ७१६७, 3. दे
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देना, सौंपना, सुपुर्द करना, हवाले करना भग० ३1३०, 4. ( अक० के रूप में प्रयुक्त) संसार को त्यागना, सांसारिक बंधन तथा सब प्रकार की आसक्तियों को त्याग कर विरक्त हो जाना संदृश्य क्षणभङगुरं तदखिलं धन्यस्तु संन्यस्यति भर्तृ० ३।१३२, अस् (भ्वा० उभ० ) [ असति ते, असित ] 1. जाना,
2. लेना, ग्रहण करना, पकड़ना 3. चमकना ( इस अर्थ को दर्शाने के लिए प्रायः निम्नांकित उदाहरण दिये जाते हैं - निष्प्रभश्च प्रभुरास भभूताम् रघु० ११ । ८१, तेनास लोकः पितृमान् विनेत्रा - १४१२३, लावण्य उत्पाद्य इवास यत्नः कु० १३५, वामन ने यहाँ 'दिदीपे ' ( चमका) अर्थ को माना है चाहे यह दुरूह ही है; उपर्युक्त उदाहरणों में 'आस' को 'बभूव' का समानार्थक मान लेना अधिक उपयुक्त है चाहे इसे शाकटायन की भांति तिङन्तप्रतिरूपकमव्ययम् -- अव्यय मानें, या वल्लभ की भांति इसे व्याकरणविरुद्ध प्रामादिक प्रयोग दे० मल्लि० कु० १।३५ पर) |
असंयत ( वि० ) [ न० त०]1. संयमरहित, अनियंत्रित
2. बंधनहीन, जैसे- असंयतोऽपि मोक्षार्थी में । असंयमः [ न० त०] संयम हीनता, नियन्त्रण का अभाव, विशेषतः ज्ञानेन्द्रियों के ऊपर ।
असंव्यवहित ( वि० ) [ न० त०] व्यवधान रहित, अवकाश रहित ( समय और काल का ) ।
असंशय ( वि० ) [ न० ब० ] संदेह से मुक्त, निश्चयवान् यम् (अव्य० ) निस्सन्देह, असन्दिग्धरूप से, निश्चय ही, असंशयं क्षत्रपरिग्रहमा - श० ११२२ । असंभव ( वि० ) [ न० ब० ] जो सुनने से बाहर हो, जो सुनाई न दे, असंभवे-सुनने के क्षेत्र से बाहर - मेघ० २।२०३ ।
असंसृष्ट ( वि० ) [ न० त०] 1. अमिश्रित, अयुक्त 2.
जो सबके साथ मिल कर न रहता हो, संपत्ति का बँटवारा होने के पश्चात् जो फिर न मिला हो ( उत्तराधिकारी के रूप में ) । असंस्कृत (वि० ) [ न० त०]1. संस्कारहीन, अपरिष्कृत, अपरिमार्जित 2. जो संवारा न गया हो, सजाया न गया हो 3. जिसका कोई शोधनात्मक या परिष्कारात्मक संस्कार न हुआ हो- तः व्याकरणविरुद्ध,
अपशब्द ।
असंस्तुत (वि० ) [ न० त०] 1. अज्ञात, अनजाना, अपरिचित-असंस्तुत इव परित्यक्तो बांधवो जनः-- का० १७३, कि० ३।२, 2. असाधारण, विचित्र 3. सामंजस्य रहित - धावति पश्चादसंस्तुतं चेतः श० १।३४ । असंस्थानम् [ न० त०]1. संसक्ति का अभाव 2. अव्यवस्था, गड़बड़ 3. कमी, दरिद्रता ।
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