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2. बाद में जोड़ा हुआ, वृद्धि, अतिरिक्त निर्देशन (यह उपसर्गः [उप-सज्+घञ्] 1. बीमारी, रोग, रोग से शब्द प्रायः कात्यायन के वार्तिकों के लिए प्रयुक्त होता उत्पन्न कृशता आदि विकार-क्षीणं हन्युश्चोपसर्गाः है, जिनका आशय पाणिनि के सूत्रों में रही छूट व प्रभूता:---सुश्रुत 2. मुसीबत, कष्ट, संकट, आघात, भूलों को सुधारना है, अतः ये परिशिष्ट का काम हानि-रत्न० १११० 3. अपशकुन, अनिष्टकर प्राकृदेते हैं) उदा०-जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् तिक घटना 4. ग्रहण 5. मृत्यु का लक्षण या चिह्न तु० इष्टि 3. (व्या० में) रूप और अर्थ की दृष्टि से 6. धातु के पूर्व लगने वाला उपसर्ग-निपाताश्चादयो प्रत्यादेश।
ज्ञेयाः प्रादयस्तूपसर्गकाः, द्योतकत्वात् क्रियायोगे लोकाउपसंपहा, हणम् [ उप+सम् + ग्रह+अप,ल्युट् वा ] दवगता इमे। गिनती में उपसर्ग २० है.---तथाहि
1. प्रसन्न रखना, सहारा देना, निर्वाह करना 2. सादर प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस् या निर, दुस् या अभिवादन (चरण स्पर्श करते हुए) स्फुरति रभसा- दुर, वि, आ (क) नि, अधि, अपि, अति, सु, उद, त्पाणिः पादोपसंग्रहणाय च---महावी० २।३० 3. स्वी- अभि, प्रति, परि, उप; या २२ यदि निस्-निर् और करण, दत्तक लेना 4. विनम्र संबोधन, अभिवादन दुस-दुर् को अलग २ शब्द समझा जाय। इन उपसगों 5. एकत्रीकरण, मिलाना 6. ग्रहण करना, (पत्नी के. की विशेषता के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त हैं। एक अंगीकार करना रूप में)-दारोपसंग्रहः-याज्ञ० ११५६ सिद्धान्त के अनुसार तो धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं 7. (बाहरी) परिशिष्ट, कोई ऐसी वस्तु जो या तो (अनेकार्था हि धातवः), जब उपसर्ग उन धातुओं के
उपयोगी हो, अथवा सजावट के काम आवे, उपकरण । पूर्व जोड़े जाते हैं तो वह केवल धातुओं में पहले से उपसत्तिः (स्त्री०) [उप+सद् +क्तिन् ] 1. संयोग, मेल विद्यमान-परन्तु गुप्त पड़े हुए-अर्थ को प्रकाशित 2. सेवा, पूजा, परिचर्या 3. भेंट, दान ।
कर देते हैं, वह स्वयं अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं करते उपसवः [उप+सद्+क] 1. निकट जाना 2. भेंट, दान । क्योंकि वह है ही अर्थहीन । दूसरे सिद्धान्त के अनुउपसवनम् [ उप+सद्-+-ल्यट] 1. निकट जाना, समीप
सार उपसर्ग अपना स्वतंत्र अर्थ प्रकट करते हैं, वह पहुंचना 2. गुरु के चरणों में बैठना, शिष्य बनना
धातुओं के अर्थों में सुधार करते हैं, बढ़ाते हैं, और -तत्रोपसदनं चके द्रोणस्येष्वस्त्रकर्मणि-महा०
कई उनके अर्थों को बिल्कुल बदल देते हैं-तू० सिद्धा० 3. पास-पड़ोस 4. सेवा।
--उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते, प्रहाराहारउपसंतान: [ उप+सम्-+-तनु+घञ ] 1. अव्यवहित संहारविहारपरिहारवत् । और तु० धात्वर्थ बाघते संयोग 2. संतति ।
कश्चित्कश्चित्तमनुवर्तते, तमेव विशिनष्ट्यन्य उपसर्गउपसंधानम् [उप+सम --धा-ल्यट] जोड़ना, मिलाना। गतिस्त्रिधा। उपसंन्यासः [ उप+सम्-+-नि-+अस्+घञ्] डाल देना, उपसर्जनम् [उप + सृज् + ल्युट] 1. उड़ेलना 2. मुसीबत, छोड़ देना, त्याग देना।
संकट (ग्रहण आदि), अपशकुन 3. छोड़ना 4. ग्रहण उपसमाधानम् [ उप-सम्+आ+धा+ल्यट] एकत्र
लगना 5. अधीनस्थ व्यक्ति या वस्तू, प्रतिनिधि 6. करना, ढेर लगाना-उपसमाधानं राशीकरणम्
व्या० में) वह शब्द जिसका अपना मूल स्वतंत्र स्वरूप -सिद्धा०।
व्यत्पत्ति के कारण या रचना में प्रयुक्त होने के कारण उपसंपत्तिः (स्त्री) [उप+सम्+पद्+-क्तिन् ]
नष्ट हो गया हो और जब कि वह दूसरे शब्द के अर्थ 1. समीप जाना, पहुँचना 2. किसी अवस्था में प्रविष्ट
का भी निर्धारण करे (विप० प्रधान)। होना।
उपसर्पः [उप+सुप्+घञ] समीप जाना, पहुँच । उपसंपन्न (भू० क. कृ.) [ उप+सम्प द्+क्त ] 1.
उपसर्पणम् [उप+सप्+ल्युट] निकट जाना, पहुँचना, उपलब्ध 2. पहुँचा हुआ, 3. उपस्कृत, अन्वित 4. यज्ञ
__अग्रसर होना। में बलि दिया गया (पशु), बलि दिया गया....मनु०
| उपसर्या [उप---स+यत्+टाप्] गर्मायी हुई या ऋतुमती ५।८१,-नम् मसाला ।
___ गाय जो साँड़ के उपयुक्त हो। उपसंभावः,-या [ उप-+सम+भाष+घन, अ वा1 उपसन्दः [प्रा० स०] एक राक्षस, निकुंभ का पुत्र तथा संद
1. वार्तालाप-कि० ३।३ 2. मैत्रीपूर्ण अनुरोध-उप- का भाई।
संभाषा उपसांत्वनम्-पा० १॥३॥४७ सिद्धाः । उपसूर्यकम् [उपसूर्य+कन्] सूर्यमण्डल या परिवेश। उपसरः [ उप+सृ+अप्] 1. (सांड़ का गाय की ओर) उपसृष्ट (भू० क० कृ०) [उप | सज्+क्त] 1. मिलाया
अभिगमन 2. गाय का प्रथम गर्भ-गवामपसर:-सिद्धा०। हआ, संयुक्त, संलग्न 2. भूत-प्रेताविष्ट, या भूत-प्रेतउपसरणम् [उप+स+ल्युट्] 1. (किसी की ओर) जाना अस्त-उपसृष्टा इव क्षुद्राधिष्ठितभवना:-का०१०७ 2. जिसकी शरण ग्रहण की जाय।
3. कष्टग्रस्त, अभिभूत, क्षतिग्रस्त--रोगोपसष्टतनदुर्व
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