________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1198 ) उदा. वपुषा परमेण भूधराणामथ संभाव्यपराक्रम विभेदे।। हरण के रूप में, यदि नवा तथा बारहवा वर्ण लघु मृगमाशु विलोकयांचकार स्थिरदंष्ट्रोग्रमुखं है, और पन्द्रहवां तथा सोलहवां दीर्घ है, शेष वर्ण महेन्द्रसूनुः / / ऐच्छिक है, तो वह वृत्त वानवासिका कहलाता कि० 13 / 1 / है। यदि पाँचवाँ, आठवाँ तथा नवा ह्रस्व हैं, इसी प्रकार इसी सर्ग के अगले बावन श्लोकों और पन्द्रहवां तथा सोलहवाँ दीर्घ हैं तो वह वृत्त में। दे०शि० 20 भी। चित्रा कहलाता है। यदि पाँचवाँ और आठवाँ यह बात ध्यान में रखने की है कि वियोगिनी वर्ण ह्रस्व है, नवां, दसवाँ, पन्द्रहवाँ और सोलहवाँ या सुंदरी तथा अपरववत्र, वैतालीय की ही विशेष- दीर्घ है तो वह उपचित्रा कहलाता है। यदि ताएँ है, और पुष्पिताया तथा मालभारिणी, औप- पांचवां, आठवां और बारहवाँ ह्रस्व है, पन्द्रहवा च्छन्दसिक की। छन्दःशास्त्री वृत्तों की इन दोनों तथा सोलहवाँ दीर्घ है, तथा शष अनिश्चित है, तो श्रेणियों का प्रतिपादन गणयोजना तथा मात्रा वह विश्लोक कहलाता है। कभी कभी एक ही योजना दोनों स्थानों पर करते हैं। इसीलिए यह श्लोक में इन वृत्तों के दो या दो से अधिक भेद यहाँ भी दर्शाये गये हैं और अनुभाग (ग) में भी / मिला दिये जाते हैं, उस अवस्था में हम उसे पावा(ई) मात्रासमक कुलक वृत्त कहते हैं, उसमें कोई विशेष प्रतिबंध मात्रासमक वृत्त में चार चरण होते हैं, और भी नहीं रहता है, केवल प्रत्येक चरण में सोलह प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ। इसके अत्यन्त मात्राओं का होना आवश्यक है। सामान्य प्रकार में नवां वर्ण लघु और अन्तिम वर्ण | उदा० मूढ जहीहि धनागमतृष्णां दीर्घ होता है। इसकी परिभाषा की है:--मात्रा कुरु तनुबुद्धे मनसि वितृष्णाम् / / समकं नवमोल्गान्त्यः / यल्लभसे निजकर्मोपात्तं परन्तु मात्राओं के ह्रस्व या दीर्घ होने के वित्तं तेन विनोदय चित्तम् // कारण इस वृत्त के अनेक भेद हो जाते हैं। उदा- | मोह०१ For Private and Personal Use Only