________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1196 ) मृगयुवतिगणः समं स्थिता वृणते हि विमृश्यकारिणम् ब्रजवनिता धृतचित्तविभ्रमाः॥ गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः / कि० 2 / 30 / (2) उपचित्र परि० विषमे यदि सोसलगा दले (5) वेगवती भी युजिभाद् गुरुकावुपचित्रम् / परि० सयुगात सगुरू विषमे चेद गण. स, स, स, ल, ग (विषम चरण) माविह वेगवती युजि भाद्गौ। भ, भ, भ, ग, ग (सम चरण) गण. स, स, स, ग (विषम चरण) उवा० मुरवरिवपुस्तनुतां मुई भ, भ, भ, ग, ग (सम चरण) हेमनिभांशुकचन्दनलिप्तम् / उदा० स्मरवेगवती ब्रजरामा गगनं चपलामिलितं यथा केशववंशरवैरतिमुग्धा। शारदनीरघरैरुपचित्रम् // रभसान्न गुरून गणयन्ती (3) पुष्पिताग्रा (औपच्छन्दसिक) केलिनिकुञ्जगृहाय जगाम / / परि० अयुजि नगरेफतो यकारो (6) हरिणप्लुता युजितु नजो जरगाश्च पुष्पित्तापा। परि० सयुगात्सलघू विषमे गुरुगण. न, न, र, य (विषम चरण) युजि नभी भरको हरिणप्लुता / न, ज, ज, र, ग (सम चरण) गण. स, स, स, ल, ग (विषम चरण) उदा० अथ मदनवधूरुपप्लवान्तं न, भ, भ, र (सम चरण) व्यसनकृशा परिपालयांबभूव / शशिन इव दिवातनस्य लेखा उदा० स्फुटफेनचया हरिणप्लुता किरणपरिक्षयधुसरा प्रदोषम् // कु० 4 / 46 / बलिमनोज्ञतटा तरणेः सुता। (4) वियोगिनी (वंतालीय या सुन्दरी) सकलहंसकूलारव शालिनी परि० विषमे ससजा गुरुः समे विहरतो हरति स्म हरेमनः // सभरा लोऽथ गुरु वियोगिनी / विशे० अपरवक्त्र या औपच्छन्दसिक और वैतालीय या गण. स, स, ज, ग (विषम चरण) वियोगिनी प्रायः जाति समझे जाते हैं (दे० अनुस, भ, र, ल, ग (सम चरण) भाग घ)। परन्तु कभी कभी गणयोजना में उनकी उदा. सहसा विदधीत न क्रिया परिभाषा दी जाती है, इसी लिए वे यहां कुत्तों के मविवेकः परमापदां पदम् / अन्तर्गत दे दिये गये हैं। अनुभाग (ग) विषमवृत्त (असमवृत्त) क्लान्तिरहितमभिराधयितुम इस श्रेणी के अन्तर्गत उद्गता अत्यंत विधिवत्तपांसि विदधे धनंजयः / / कि० 12 / 1 / सामान्य वृत्त कहलाता है। दे०शि० 15 भी। परि० प्रथमे सजी यदि सलोन उगता का एक और भेद बताया जाता नसजगुरुकाण्यनन्तरम् / है जिसके तृतीय चरण में भ, न, ज, ल, ग के यद्यथ भनजलगाः स्युरयो स्थान में भ, न, भ, ग होते हैं। वृत्तों के सजसा जगी च भवतीयमुद्गता // अन्य भेद जिनमें प्रत्येक चरणों के वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है, 'गाथा' के सामान्यशीर्षक के गण. स, ज, स, ल (प्रथम चरण) अन्तर्गत बतलाये है। चार से भिन्न चरणों की न, स, ज, ग (द्वितीय चरण) संख्या वाले वृत्तों के लिए भी यही नाम म्यवात भ, न, ज, ल, ग (तृतीय चरण) होता है। जहाँ तक "उपजाति' का संबंध है ये स, ज, स, ज, ग (चतुर्थ परण) किसी भी नियमित वृत्त के दो या दो से अधिक उपा० अथ वासवस्य वचनेन चरणों को मिला कर अर्धसमवृत्त या विषमवृत्त रुचिरवदनस्त्रिलोचनम् / बना लिए जाते है। - - For Private and Personal Use Only