________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 824 ) ----रसः,-रेतस् (नपुं०) सोम, वराहः शूकरावतार (अधि० के साथ)-वयं त्वय्यायतामहे ....महावी० में विष्णु, वल्लिः, ल्ली (स्त्री०) सोम की बेल 1149, निस्-, प्रेर० 1. लोटाना, फेर देना--निर्याया पौधा, वाटः यज्ञ के लिए तैयार की गई या घरी तय हस्तन्यासम्---विक्रम० 5; मनु० 11 / 164 गई भूमि, वाहनः विष्णु का विशेषण,-वृक्षः वट 2. बदला देना, वापिस करना, प्रतिहिंसा करना वृक्ष, वेविः,-दी (स्त्री०) यज्ञ की वेदी, शरणम् -रामलक्ष्मणयोवरं स्वयं निर्यातयामि वै---रामा०, यज्ञकक्ष या अस्थायी छप्पर जिसके नीचे बैठकर यज्ञ प्र---, चेष्टा करना, प्रयत्न करना, प्रयास करना, किया जाय, शाला यज्ञ का कमरा,--शेषः, षम् प्रति ..., चेष्टा करना (प्रेर०) फेर देना, वापिस यज्ञ का अवशिष्ट-यज्ञशेषं तथामृतम् मनु० 3 / 285, करना - दे० निस् पूर्वक यत्, सम् , संघर्ष करना, --- श्रेष्ठा सोम का पौधा,--सदस् (नपुं०) यज्ञ में | तर्क वितर्क करना-देवासुरा वा एषु लोकेषु उपस्थित जनमण्डली, संभारः यज्ञ के लिए आवश्यक संयेतिरे। सामग्री, सारः विष्णु का विशेषण,-सिद्धिः (स्त्री०) यत (भू० क० कृ०) [यम् + क्त] 1. प्रतिबद्ध, दमन यज्ञ की पूर्ति, -सूत्रम् दे० यज्ञोपवीत, सेनः राजा किया हुआ, नियंत्रित, पराभूत 2. सीमित, संयत, द्रुपद का विशेषण, स्थाणुः यज्ञ का खम्भा,-हन् (पुं०) मर्यादित, - तम् महावत द्वारा हाथी को एड लगाना। --हनः शिव का विशेषण / सम० --आत्मन् (वि.) स्वयं अपने को अनुशासित यनिकः [यज्ञ+ठन ढाक का पेड़। करने वाला, स्वसंयत, जितेन्द्रिय, (तस्म) यतात्मने यशिय (वि.) [ यज्ञाय हितः-ध] 1. यज्ञसम्बन्धी, यज्ञो- रोचयितुं यतस्व --कु० 3 / 16, १४५,-आहार पयुक्त, या यज्ञपरक 2. पुनीत, पवित्र, दिव्य 3. अर्च- (वि.) मिताहारी, संयमी, इन्द्रिय (वि.) जितेनीय, पूजनीय 4. भक्त, पुण्यशील, - यः 1. देव, देवता न्द्रिय, पवित्र, धर्मात्मा,- चित्त,-मनस,-मानस 2. तीसरा युग, द्वापर। सम०-देशः यज्ञों का देश (वि०) मन को वश में रखने वाला,-वाच् (वि.) --- कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः, स ज्ञेयो मितभाषी, मोनी, मोनावलंबी-दे० 'वाग्यत',---ब्रत यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्ततः परः - मनु० 9 / 23, (वि.) 1. प्रतिज्ञा का पालन करने वाला, अपने -----शाला यज्ञमण्डप / ब्रत को पूरा करने वाला, दृढ़ प्रतिज्ञ / यज्ञीय (वि.) [यज्ञ+छ] यज्ञ संबंधी,-य: गूलर का यतनम् [यत् + ल्युट्] चेष्टा, प्रयत्न / पेड़ / सम०---ब्रह्मपादपः विकंकन नामक पेड़। यतम (वि.) (नपुं०- मत्) [यद् / डतमच्] जो या यज्वन (वि.) (स्त्री०-यज्वरी) [यज+क्वनिप] यज्ञ जौन सा (बहुतों में से)। करने वाला, पूजा करने वाला, अर्चना करने वाला यतर (वि.) (नपुं० --रत्) [यद् ।-डतरच्] जो (दो आदि, (पुं०) 1. जो वेदविहितविधि के अनुसार यज्ञानुष्ठान करता है, यज्ञों का अनुष्ठाता-नीपान्वयः यतस् (अव्य०) [यद्+तसिल] * (बहुधा संबंधबोधक पार्थिव एष यज्वा - रघु० 6 / 46, 1144, 3 / 39, सर्वनाम 'यद्' के अपा० के रूप में प्रयुक्त) 1. जहाँ 18 / 11, कु० 2 / 46 2. विष्णु का नाम / से (व्यक्ति या वस्तु का उल्लेख करते हुए) जिस यत् (भ्वा० आ० यतते, यतित) 1. यत्ल करना, कोशिश जगह से, जिस स्थान से या जिस दिशा से --यतस्त्वया करना, प्रयास करना, उद्योग करना (बहुधा संप्र० ज्ञानमशेषमाप्तम् - रघु० 5 / 4 (यतः यस्मात् जिस या तुमुन्नन्त के साथ) सर्वः कल्ये वयसि यतते लब्धु- से) यतश्च भयमाशङ्कत्याची तां कल्पयेद्दिशम् मर्थान् कुटुम्बी-विक्रम० 3.1 2. प्रयास करना, -मनु० 7 / 189 2. जिस कारण, जिस लिए उत्सुक या आतुर होना, उत्कण्ठित होना- या न 3. क्योंकि, चूंकि, के कारण से, इस लिए कि -उवाच ययो प्रियमन्यवधूभ्यः सारतरागमना यतमानम् -शि०। चैन परमार्थतो हरं न वेत्सि नूनं यत एवमात्थ माम् 4 / 45, रघु० 9 / 7 3. हाथ पैर मारना. निरन्तर --कु० 5 / 75, रघु० 876, प्रायः सहवर्ती 'ततः' उद्योग करना, श्रम करना 4. सावधानी बरतना, के साथ; रघु० 16 / 74 4. जिस समय से लेकर, खबरदार रहना-भग० २।६०-प्रेर० (यातयति-ते) .."जब से कि 5. ताकि, जिससे कि (यतस्ततः 1. जिस 1. लौटाना वापिस करना, बदला देना, हरजाना किसी जगह से, किसी भी दिशा से 2. चाहे किसी देना, फेर देना 2. घृणा करना, निन्दा करना 3. प्रोत्साहन व्यक्ति से 3. चाहे जहां, चारों ओर, किसी भी दिशा देना, प्राण फूंकना, सजीव बनाना 4. सताना, में, मनु० 4 / 15, यतो यतः 1. चाहे जिस जगह से दुःखी करना, परेशान करना 5. तैयार करना, 2. चाहे जिस से, किसी भी व्यक्ति से 3. चाहे जहां, विस्तार से कार्य करना, आ-, 1. प्रयास करना चाहे जिस दिशा में--यतोयतः षट्चरणोऽभिवर्तते कोशिश करना 2. भरोसे पर रहना, निर्भर रहना, I -श० 1124, भग०६।२६; यतः प्रभृति जिस समय For Private and Personal Use Only