________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट 1 संस्कृत छन्दःशास्त्र परिचय --- संस्कृत छन्दःशास्त्र का सबसे पहला और अत्यन्त काव्यात्मक छूट के कारण ह्रस्व रह सकता है, उदा० महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पिंगल ऋषिप्रणीत छन्दःशास्त्र है। कु० 7.11, या शि० 10 // 60; तथापि यहाँ पर यह आठ अध्यायों का एक सूत्रग्रंथ है। अग्निपुराण समालोचकों ने छन्द को छन्दःशास्त्र के सामान्य में भी पिंगलपद्धति पर आधारित छन्दःशास्त्र का नियमों के अनुरूप बनाने के लिए संशोधन भी प्रस्तुत पूर्ण विवरण है। और अनेक ग्रन्थ इसी विषय पर किये है)। इसी प्रकार पाद का अन्तिम अक्षर भी भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा रचे गये हैं-उदा० श्रुतबोध, छन्द की अपेक्षा के अनुरूप लघु या गुरु माना जा वाणीभूषण, बृत्तदर्पण, वृत्तरत्नाकर, वृत्तकौमुदी और सकता है, वह स्वयं चाहे कुछ ही हो। छन्दोमंजरी आदि। आगे के पृष्ठों में मुख्यतः छन्दो- सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् / मंजरी और वृत्तरत्नाकर के आधार पर ही कुछ लिखा वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा / / गया है। इस परिशिष्ट में वैदिक तथा प्राकृत छन्दों मात्राओं की संख्या से निर्धारित होने वाले को नहीं रक्खा गया है। वत्तों में ह्रस्व स्वर की एक मात्रा होती है, और संस्कृत की रचना या तो गद्य में होती है या दीर्घस्वर की दो मात्राएं। पद्य में। काव्यरचना प्रायः इलोकों में होती है। अक्षरों की संख्या से विनियमित वृत्तों की मापश्लोक या पद्य में चार चरण होते हैं जिन्हें या तो तोल के लिए, छन्दःशास्त्र के लेखकों ने आठ 'गणों' अक्षरों की संख्या से विनियमित किया जाता है अथवा (अक्षरपाद) की एक युक्ति निकाली है। प्रत्येक मात्राओं की गिनती से। गण में तीन अक्षर होते हैं, वे तीनों लघु या गुरु पद्य या तो वृत्त होता है अथवा जाति। वृत्त होने के कारण एक दूसरे से भिन्न होते हैं। वे गण एक ऐसा श्लोक होता है जिसका छन्द प्रत्येक चरण नीचे लिखे श्लोक में बतलाये गये है। में अक्षरों की गिनती और स्थिति के अनुसार निर्धा- मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो, रित किया जाता है। जाति एक ऐसा श्लोक होता है भादिगुरुक पुनरादिलघुर्यः / जिसका छन्द प्रत्येक चरण में मात्राओं की गिनती के जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः, अनुसार निश्चित किया जाता है। सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः / / दत्त तीन प्रकारके होते हैं--(१) समवृत्त आदिमध्यावसानेष यरता यान्ति लाघवम् / —जिसमें श्लोक के चारों चरण समान हों। (2) ! भजसा गौरवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् // अर्षसमवृत्त-जिसमें प्रथम तृतीय और द्वितीय तथा प्रतीकाक्षरों में अभिव्यक्त (गुरु, लघु।) भिन्नचतुर्थ चरण समान हों। (3) और विषमवृत्त भिन्न गण निम्न प्रकार से दर्शाये जा सकते है :जिसके चारों चरण असमान हों। 555मगण _ अक्षर (वर्ण) एक ऐसा शब्द है जो एक सांस 155 यगण में बोला जाय, अर्थात् एक स्वर, इसके साथ चाहे 5 / रगण एक व्यंजन हो, चाहे एक से अधिक और चाहे केवल ।।5सगण स्वर ही हो। SSतगण अक्षर (वर्ण) लघु भी होता है, गुरु भी जैसा 15 जगण कि उसका स्वर हो ह्रस्व या दीर्घ / अ इ उ ऋ 5 / भगण और ल ह्रस्व हैं, आ ई ऊ ऋ ए ऐ ओ और औ / / / नगण दीर्घ हैं। परन्तु छन्दःशास्त्र में हस्व स्वर दीर्घ इसी प्रकार 'ल' लघु तथा 'ग' गुरु को प्रकट माना जाता है जबकि उसके आगे अनुस्वार या विसर्ग करता है। हो, अथवा कोई संयुक्त व्यंजन हो, जैसे कि 'गन्ध' विशेष ..प्रत्येक चरण के अक्षरों (वर्णों) की गिनती के का 'अ' या 'गः'। (प्र, ह और बक्र इसके अपवाद अनुसार संस्कृत के छन्दः शास्त्रियों ने बत्तों का वर्गीहै। इनके पूर्व का स्वर यद्यपि एक प्रकार की करण किया है। इस प्रकार वे 'समवृत्तों को छब्बीस For Private and Personal Use Only