________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहले पाँच वचनों में कोई रूप नहीं होते, कर्म० द्वि० / व० के पश्चात् 'यूष' के स्थान में विकल्प से यूषन् हो जाता है)। येन (अव्य०) ['यद्' शब्द का करण० का एक बचनांत रूप जो क्रियाविशेषण की भांति प्रयुक्त होता है] 1. जिससे, जिसके द्वारा, जिस लिए, जिस कारण से, जिसके साधन से किं तद् येन मनो हर्तमलं स्याता न शृण्वताम् - रघु० 15 / 64, 14174 2. जिससे कि दर्शय तं चौरसिंहं येन व्यापादयामि पंच०४ 3. चूंकि, क्योंकि। योक्त्रम् [युज+ष्ट्रन् ] 1. डोरी, रस्सी, तस्मा, रज्जु 2. हल के जुए की रस्सी 3. वह रस्सी जिसके द्वारा किसी पशु को गाड़ी के जोड़े से बाँव दिया जाता है। योगः [यज भावादी घञ, कूत्वम] 1. जोड़ना, मिलाना 2. मिलाप, संगम, मिश्रण, उपरागान्ते शशिनः समुपगता रोहिणी योगम-श० 7 / 22, गुणमहतां महते गुणाय योगः-कि० 10 / 25, (वां) योगस्तडित्तोयदयोरिवास्तु रघु० 665 3. संपर्क स्पर्श, संबंध -----तमकमारोप्य शरीरयोगजः सूनिषिञ्चन्तमिवा मृतं त्वचि रघु० 3 / 26 4. काम में लगाना, प्रयोग, इस्तेमाल-एतरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम् -मनु० 9 / 10, रघु० 1086 5. पद्धति, रीति, क्रम, साधन-कथायोगेन बध्यते-हि. 1, 'बातचीत के क्रम में, 6. फल, परिणाम (अधिकतर समास के अन्त में या अपा० के साथ) रक्षायोगादयमपि तपः प्रत्यहं संचिनोति--श० 2 / 14, कु० 7 / 55 7. जुआ 8. वाहन, सवारी, गाड़ी 9. जिरहबख्तर, कवच 10. योग्यता, औचित्य, उपयुक्तता 11. व्यवसाय, कार्य, व्यापार 12. दाव-पेंच, जालसाजी, कूट चाल 13. तरकीब, योजना, उपाय 14. कोशिश उत्साह, परिश्रम, अध्यवसाय-मनु० 7 / 44 15. उपचार, चिकित्सा 16. इन्द्रजाल, अभिचार, मंत्रयोग, जादू, जादूटोना 17. लब्धि, अवाप्ति, अभिग्रहण 18. धन दौलत, द्रव्य 19. नियम, विधि 20 पराश्रय, संबंध, नियमित आदेश या संयोग, एक शब्द की दूसरे शब्द पर निर्भरता 21. निर्वचन, या अर्थ की दृष्टि से शब्द व्युत्पत्ति 22. शब्द के निर्वचनमूलक अर्थ (विप० रूढि) 23. गंभीर भावचिन्तन, मन का संकेन्द्रीकरण, परमात्मचिन्तन, जिसे योगदर्शन में 'चित्तवृत्तिनिरोध' कहते हैं, सती सती योगविसृष्टदेहा कु. 1221, योगेनान्ते तनुत्यजाम् - रघु० 128 24. पतंजलि द्वारा स्थापित दर्शन पद्धति जो सांख्य दर्शन का ही दूसरा भाग समझा जाता है, परन्तु व्यवहारतः यह एक पृथक दर्शन है (योगदर्शन का मुख्य सिद्धांत उन उपायों की शिक्षा देना है जिनके / द्वारा मानव आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में मिल जाय और इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति हो जाय / इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए गंभीर भावचिन्तन ही मुख्य साधन बताया गया है, इस प्रकार के योग या मन के संकेन्द्रीकरण के समुचित अभ्यास के लिए विस्तार के साथ नियमों का प्रतिपादन किया गया है) 25. (अंक में) जोड़, संकलन 26. (ज्योति० में) संयक्ति, दो ग्रहों का योग 27. ताराज 28. विशेष प्रकार का ज्योतिषीय समय-विभाग (इस प्रकार के बहुधा 27 योग गिनाये गये हैं) 29. किसी नक्षत्र पुंज का मुख्य तारा 30 भक्ति, परमात्मा की पवित्र खोज 31. भेदिया, गुप्तचर 32. द्रोही, विश्वासघाती। सम०-- अंगम योग की प्राप्ति के साधन (यह गिनती में आठ है, नामों के लिए दे० यम 5.) -आचारः 1. योग का अभ्यास या पालन 2. बुद्ध के उस संप्रदाय का अनुयायी जो केवल विज्ञान या प्रज्ञा के शाश्वत अस्तित्व को ही मानता है,~-,आचार्यः, 1. जादू का शिक्षक 2. योग दर्शन का अध्यापक, --आषमनम् जालसाजी से भरी बन्धकावस्था--मनु. 81165, आरूढ (वि० (सूक्ष्मभावचिन्तन में निमग्न, -आसनम् सूक्ष्मभावचिन्तन के अनुरूप अंग-स्थिति, - इन्द्रः,-ईशः,--ईश्वरः 1. योग में निष्णात या सिद्धहस्त 2. जिसने अलौकिक शक्ति सम्पादन कर ली है 3. जादूगर 4. देवता 5. शिव का विशेषण 6. याज्ञवल्क्य का विशेषण,-क्षेमः1. सामान की सुरक्षा, संपत्ति की देखभाल 2. दुर्घटनाओं से संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए शुल्क, बीमा 3. कल्याण, कुशलक्षेम, सुरक्षा समृद्धि-तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्-भग० 9 / 22, मुग्धाया मे जनन्या योगक्षेमं वहस्व-मालवि०४ 4. संपत्ति, लाभ, फायदा (पुं०, नपुं० द्वि० व०, --- मौ, मे, नपुं० ए० 20. मम्) (संपत्ति का) भिग्रहण और प्ररक्षण, उपलब्धि और सुरक्षा, पुराने का प्ररक्षण तथा नूतन का अभिग्रहण (जो पहले से अप्राप्त हो) अलभ्यलाभो योगः स्यात् क्षेमो लब्धस्य पालनम् दे० याज्ञ. 1 / 100 और उस पर मिता०, -चूर्णम् जादू का चूर्ण, जादू की शक्ति वाला चूरा,कल्पितमनेन योगचूर्ण मिश्रितमौषधं चन्द्रगुप्ताय-मुद्रा० २,-तारका,--तारा नक्षत्रपुंज का मुख्य तारा,-दानम् 1. योग के सिद्धांतों का संचारण 2. जालसाजी से युक्त उपहार, धारणा सतत भक्ति, अनवरतभजन नाथः शिव का विशेषण,--निद्रा अर्धचिन्तन और अर्धनिद्रित अवस्था, जागरण और निद्रा के मध्य की स्थिति अर्थात् लघुनिद्रा-योगनिद्रां गतस्य मम-पंच० 1, हि० 375, भर्त० 3 / 41 2. युग के अन्त में, For Private and Personal Use Only