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( ४४३ )
प्रत्येकं सविदूषकम् — सा० द० ५४०, उदा० कालिदास का विक्रमोर्वशी ।
त्रोटिः (स्त्री० ) [ त्रुट् + इ ] चोंच, चंचु । सम० - हस्तः पक्षी ।
त्रोत्रम् [ + उत्र ] पशुओं को हांकने की छड़ी । त्वम् (स्वा० पर० त्वक्षति, त्वष्ट) कतरना, बक्कल उतारना, छीलना ।
स्वङ्कारः [ स्वम् + कृ + अण् ] निरादर सूचक 'तू' शब्द से संबोधन करना |
स्वग् ( म्वा० पर० त्वङ्गति)
1. जाना, हिलना-जुलना 2. कूदना, सरपट दौड़ना 3. कांपना । स्वच् (स्त्री० ) [ त्वच् + क्विप् ]
1. खाल ( मनुष्य, साँप आदि की) 2. (गी, हरिण आदि का ) चमड़ा - रघु ० ३।३१ 3. छाल, वल्कल – कु० १७, रघु० २।३७, १७।१२4. ढकना, आवरण 5. स्पर्शज्ञान। सम० अङ्कुरः रोमांच होना, इन्द्रियम् स्पर्शेन्द्रिय, कण्डुरः फोड़ा, -- गन्धः सन्तरा – छेदः चमड़ी में घाव, खरोंच, रगड़, --जम् 1. रुधिर 2. बाल ( शरीर पर के), तरङ्गकः झुर्री, त्रम् कवच, त्वक्त्रं चाचकचे वरम्-- भट्टि० १४०९४, – दोषः चर्मरोग, कोढ़, पारुष्यम् चमड़ी का रूखापन, -- पुष्प: रोमांच, सारः ( त्वचि सारः) बांस, त्वक्साररन्ध्रपरिपूरणलब्धगीतिः -- शि० ४१६१, सुगंध
संतरा ।
त्वचा [ त्वच्+टाप् ] दे० त्वच् । स्वदीय (वि० ) [ युष्मद् + छ, त्वत् आदेशः ] तेरा, तुम्हारा - रघु० ३।५० ।
त्वद् [ युष्मदः त्वद् आदेशः समासे ] ( मध्यम पुरुष का रूप जो कि बहुधा समास में प्रथम पद के रूप में पाया जाता है - उदा० त्वदधीन, त्वत्सादृश्यम् -- आदि ।
स्वद्विध (वि० ) [ तव इव विधा प्रकारो यस्य ] तेरी तरह, तुम्हारी भांति ।
त्वर् (भ्वा० आ० त्वरते, त्वरित) शीघ्रता करना, जल्दी
करना, वेग से चलना, फुर्ती से कार्य करना -- भवान्सुहृदर्थे त्वरताम् - मालवि० २, नानुनेतुमबलाः स तत्वरे - रघु० १९/३८, - प्रेर० त्वरयति-जल्दी कराना,
थ
थः [ थुड् + उ ] पहाड़, धम् 1. रक्षा, प्ररक्षा 2. त्रास, भय 3. मांगलिकता |
बुड़ ( तुदा० पर० - धुडति ) 1. ढकना, पर्दा डालना 2. छिपाना गुप्त रखना ।
बुडनम् [ थुड् + ल्युट् ] ढकना, लपेटना । पुस्कारः [ थुत् +कृ+अण्] 'थुत्' ध्वनि जो थूकने की
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शीघ्रता कराना, आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना ।
स्वरा, स्वरि: ( स्त्री० ) [ त्वर् + अ + टाप्, त्वर् +इन् ] शीघ्रता, क्षिप्रता, वेग - औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा व्यावर्तमाना हिया - रत्ना० १।२ ।
त्वरित ( वि० ) [ त्वर् +क्त] शीघ्रगामी, फुर्तीला, वेगवान्, -तम् शीघ्रता करना, जल्दी करना ( अव्य०) जल्दी से, तेजी से, वेग से, शीघ्रता से ।
स्व
(पुं० ) [ त्वक्ष् + तृच् ] 1. बढ़ई, निर्माता, कारीगर 2. देवताओं का शिल्पी विश्वकर्मा [ पौराणिक कथा के अनुसार त्वष्द् अग्निदेवता माना जाता है, उसके त्रिशिरा नाम का पुत्र तथा संज्ञा नाम की पुत्री थी । संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हो गया परन्तु संज्ञा अपने पति के दारुण तेज को सहन न कर सकी, फलतः त्वष्टा ने सूर्य को खराद पर रख कर उसके प्रभा-मंडल को सावधानी से काट-छांट कर परिष्कृत कर दिया (तु० रवु० ६।३२ -- आरोप्य चक्रभ्रमिमुष्णतेजास्त्वष्ट्रेव यत्नोल्लिखितो विभाति उस बची हुई कतरन से विष्णु का चक्र तथा शिव जी का त्रिशूल एवं देवताओं के अन्य शस्त्र बनाये गये ) ।
त्वादृश्, त्वादृश (स्त्री० शी ) [ त्वमिव दृश्यते युष्मद् + दृश् + क्विन्, कञ् वा, स्त्रियां ङीप् ] तुझ सरीखा, तेरी तरह का - मेघ० ६९ ।
त्विष (भ्वा० उभ० त्वेषति - ते ) चमकना, जगमगाना, दमकना, दहकना ।
विष् (स्त्री० ) [ त्विष् + क्विप् ] 1. प्रकाश, प्रभा, दीप्ति, चमक-दमक चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा - शि० १।३, ९।१३, रघु० ४/७५ रत्ना० १।१८ 2. सौन्दर्य 3. अधिकार, भार 4 अभिलाष, इच्छा 5. प्रथा, प्रचलन 6. हिंसा 7. वक्तृता । सम० - ईशः ( त्विषां पतिः ) सूर्य
त्विषि: [ त्विष् +इन् ] प्रकाश की किरण । त्सरुः [ त्सर् + उ ] 1. रेंगने वाला जानवर 2. तलवार या किसी अन्य हथियार की मूठ – सुप्रग्रहविमलकलधौतसहणा खड्गेन - - - वेणो० ३, त्सरुप्रदेशादपवर्जिताङ्गः - कि० १७/५८, रघु० १८।४८ ।
क्रिया करते समय होती है ।
थुर्व (भ्वा० पर० थूर्वति) चोट पहुँचाना, क्षति पहुँचाना। थूत्कारः, थूत्कृतम् [ थूत् + कृ + अण्, क्त वा ] 'थूत्' की ध्वनि जो थूकने की क्रिया करते समय होती है । येथे (अव्य० ) किसी संगीत वाद्य यंत्र की अनुकरणात्मक ध्वनि ।
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