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( ३७७ ) विलोलता, (आंख आदि का) कम्पन, फरकना-भामि० पहियों की गाड़ी,-री कुशलता, दक्षता, योग्यता २०६० 2. चंचलता 3. नश्वरता।
तद्भटचातुरीतुरी-नै० १।१२। चाट: [चट-अच्] बदमाश, ठग (जो पहले उसमें । रा| चातुरक्षम् [चतुरक्ष+अण] चौपड़ या चार पासों के खेल विश्वास जमा लेता है जिसे वह ठगना चाहता है) में चार का दाँव, क्षः छोटा गोल तकिया। -~याज्ञ० ११३३६ -(चाटा: = प्रतारका विश्वास्य ये चातुरथिकः [चतुर्ष अर्थेषु विहित:-ठक] (व्या० में) एक परवनमपहरन्ति-यित०) ।
ऐसा प्रत्यय जो चार भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रकट करने चाटुः-टु (नपुं०) [चट्+उण्] 1. मधुर तथा प्रिय वचन, के लिए शब्द में जोड़ा जाता है।
मीठी बात, चापलूसो, ठकुरसुहाती (विशेषकर किसी चातुराश्रमिक (वि.) (स्त्री०-की), चातुराश्रमिन् प्रेमी के द्वारा अपनो प्रेमिका के प्रति)-प्रियः प्रियायाः (वि०) (स्त्री०–णी) ब्राह्मण की धार्मिक-जीवनचर्या प्रकरोति चाटुम्-ऋतु० ६।१४, विरचितचाटुवचनरचनं के चार कालों में से किसी एक में रहने वाला। चरगरचितप्रणिपातम्--गीत०११, अमरु ८३, पंच० दे० 'आश्रम' । १, शा० ८।१४, चौर० २० (गीतगोविंद के दसवें चातुराधम्यम् [चतुराश्रम+ष्य ] ब्राह्मण की धार्मिकसर्ग का अधिकांश भाग इसी प्रकार की चाटुकारिता जीवनचर्या के चार काल। दे० 'आश्रम'। से भरा हुआ है) 2. स्पष्ट भाषण । सम०----उक्तिः | चातुरिक, चातुर्थक, चातुर्थिक (वि०) (स्त्री०-की) (स्त्री०) खुशामद और झूठी प्रशंसा के वचन, [चातुर+ठक, चतुर्थ+अण, ठक वा] 1. चौथे या,
-उल्लोल,--कार (वि.) प्रिय तथा मधुर बोलने हर चौथे दिन होने वाला,-क: चौथैया बुखार, बाला, चापलूस-शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटु- जुड़ीताप। कारः-मेघ० ३१,-पटु (वि०) झूठी प्रशंसा करने | चातुराह्निक (वि.) (स्त्री०-की) [चतुर्थाह्न+ठक्] में कुशल, पूरा चापलूस, -वटुः मसखरा, भांड,-लोल चौथे दिन होने वाला। (वि.) सुंदरतापूर्वक हिलने वाला,-शतम् सैकड़ों चातुर्दशम् [चतुर्दश्यां दृश्यते इति] राक्षस-सिद्धा० । अनुरोध, बार-बार की जाने वाली खुशामद-पटु- चातुर्दशिकः [चतुर्दशी---ठक् जो चांद्रपक्ष की चतुर्दशी के चाटुशतैरनुकूलम्-गीत० २, गजपुङ्गवस्तु धीर विलोक- दिन भी पढ़ता है (यह 'अनध्याय' का दिन है)। यति चाटुशतश्च भुक्ते--भर्तृ० १३१ ।
चातुर्मासक (वि.) (स्त्री० -सिका) चतुर्षु मासेषु भवः चाणक्यः [चणक-या] नागर राजनीति के प्रख्यात प्रणेता ---अण् + कन्, चतुर्मास+-ठक् +टाप्, ह्रस्वश्च जो विष्णुगुप्त, 'कौटिल्य' भी इन्हीं का नाम है - दे० । चातुर्मास्य यज्ञ का अनुष्ठान करता है।
चातुर्मास्यम् चतुर्मास्+ण्य हर चार महीने के पश्चात् चाणरः (पुं०) कंस का सेवक जो प्रसिद्ध मल्लयोद्धा था, | अनुष्ठेय यज्ञ अर्थात् कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के
जिस समय अकर कृष्ण को मयुरा ले गया तो इस आरंभ में । दुर्दात योद्धा को कृष्ण से लड़ने के लिए भेजा गया। चातुर्यम् [चतुर+ष्य] 1. कुशलता, होशियारी, दक्षता, मल्लयुद्ध में कृष्ण ने इसे पछाड़ दिया और पृथ्वी पर बुद्धिमता 2. लावण्य, रमणीयता, सौन्दर्य--भ्रूचातुरौंद डाला तथा इसके सिर को चूर्ण कर दिया।
र्यम्-भर्तृ० ११३। । चपण्डालः (स्त्री०-ली) [चण्डाल+अण] पतित, अधम तुर्वर्ण्यम् चितुर्वर्ण---ष्य] 1. हिन्दुजाति के मूल चार ----दे० चंडाल,-चाण्डाल: किमयं द्विजातिरथवा-भर्तृ० वर्गों की समष्टि-एवं सामासिक धर्म चातुर्वर्ण्यऽब्रवी३१५६ मनु० ३।२३९, ४।२९, याज्ञ. १९३।
न्मनु:-मनु० १०।६३, ऋक् ६।१३ 2. इन चार चााडालिका-चंडालिका।।
वर्गों का धर्म या कर्तव्य । चातकः (स्त्री०-को) [चच्+ण्वुल] चातक, पपीहा, चातुविध्यम चतुर्विध+व्यञ] चार प्रकार
(कवि सयय के अनुसार यह केवल वर्षाऋतु में ही रूप से), चार प्रकार का प्रभाग । रहता है)-सूक्ष्मा एव पतन्ति चातकमुखे द्वित्राः पयो- चात्वालः [चत् + वालच=चत्वाल+अण्] 1. भूमि में विन्दवः-भर्तृ० २।१२१, दे० २०५१ और रघु० ___खोद कर बनाया हुआ हवनकुण्ड 2. कुशा, दर्भ ।
५।१७। सम...-आनन्दन: 1. वर्षाऋतु 2. बादल। चान्दनिक (वि.) (स्त्री०—की) [चन्दन+ठक] चातनम् [चत् +-णिच् + ल्युट्] 1. हटाना 2. क्षति 1. चन्दन से बनाया हुआ, या उत्पन्न 2. चन्दनरस से पहुँचाना।
सुगन्धित । चातुर (वि.) (स्त्री०-री) 1. चार की संख्या से संबद्ध | चन्द्र (वि.) (स्त्री०-द्री) [चन्द्र+अण] चन्द्रमा से
2. होशियार, योग्य, बुद्धिमान 3. मधुरभाषी, चाप- | ___ संबंध रखने वाला, चन्द्रसंबंधी ---गुरुकाव्यानुगां विभ्रलूस 4. दृष्टिविषयक, प्रत्यक्षज्ञानात्मक--रम् चार | चान्द्रीमभिनभः श्रियम्-शि० २।२,--द्र: 1. चांद्रमास
कौटिल्य ।
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