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ढक्का [ ढक इति शब्देन कायति ---इक्+के+क+टाप् ] बौक (स्वा० आ०--दौकते, ढौकित) जाना, पहुँचाना
बड़ा ढोल-न ते हुडक्केन न सोपि ढक्कया न मर्दलः ......यान्तं वने रात्रिचरी डुढौके-भट्टि० १२३, १४। सापि न तेऽपि ढक्कया --नै० १५।१७ ।
७१, १५७९-प्रेर०-ढोकयति--ते 1. निकट लाना, ढामरा (स्त्री०) हंसनी।
पहुँचाना -- तन्मान्सं चैव गोमायोस्तैः क्षणादाशु ढौकिढालम् नपुं०] म्यान ।
तम्-महा०, भट्टि०१७।१०३ 2. उपस्थित करना, ढालिन् (०) [ढाल - इनि ढालधारी योद्धा ।
प्रस्तुत करना। दुण्डिः दण्ढ़ --इन् गणेश का विशेषण ।
ढौकनम् [ढौक + ल्यु टु] 1. भेंट 2. उपहार, रिश्वत । ढौलः (पुं०) बड़ा ढोल, मृदङ्ग, ढपली ।
[संस्कृत में 'ण से आरम्भ होने वाला कोई शब्द नहीं, 'ण' से आरम्भ होने वाले बहुत से धातु है वस्तुत: वे सब 'न' से आरम्भ होते हैं, धातुकोश में उन्हें 'ण' से
केवल इसलिए आरम्भ किया गया है जिससे कि यह प्रकट हो जाय कि यहाँ 'न' प्र, परि तथा अन्तर आदि उपसर्ग पूर्व होने पर 'ण' में परिवर्तित हो जाय] ।
तकिल (वि.) [तक+इलन् ] जालसाज, चालाक, धूर्त । | तक्षणम् [ तम् +त्य | छीलना, काटना दारवाणां च तकम् | तक+रक् ] छाछ, मट्ठा । सम०-अटः रई का तक्षणम्-मनु० ५।११५, याज्ञ० १११८५ । डंडा,-सारम् ताज़ा मक्खन ।
'तक्षन् (पुं०) [तक्ष+कनिन् ] 1. बढ़ई, लकड़ी काटने ता (न्वा० स्वा० पर०-तक्षति, तक्ष्णोति, तष्ट) नीरना, वाला (जाति से अथवा लकड़ी का काम करने के
काटना, छीलना, छेनी से काटना, टुकड़े-टुकड़े करना, : कारण) अतक्षा तक्षा-काव्य०, जो जाति से तक्षा नहीं खण्डशः करना आत्मानं तक्षति ह्येष वनं परशुना है, वह तक्षा कहलाता है जब कि वह तक्षा की भांति यथा--महा०, निधाय तक्ष्यते यत्र काष्ठे काष्ठं स उद्धनः तक्षा के काम को करने लगता है, बढ़ई-शि० १२।२५ --- अमर० 2. गढ़ना, बनाना, निर्माण करना (लकड़ी 2. देवताओं का शिल्पी--विश्वकर्मा । में से) 3. बनाना, रचना करना 4. घायल करना, चोट / तगरः | तस्य क्रोडस्य गरः, ष० त. ] एक प्रकार का पौधा । पहँचाना 5. आविष्कार करना, मन में बनाना,-निस्, तक (भ्वा० पर०---तङकति, तडित) 1. सहन करना, -टकड़े-टकड़े करना, सम, छीलना, छेनी से काटना, बर्दाश्त करना 2. हैसना 3. कष्टग्रस्त रहना । चीरना 2. घायल करना, चोट पहुंचाना, प्रहार करना तङ्कः [तङक्--घा अच् वा ] 1. कष्टमय जीवन, आपद्-निस्त्रिशाभ्यां सुतीक्ष्माभ्यामन्योन्यं संततक्षतु:-महा०, ग्रस्त जीवन 2. किसी प्रिय वस्तु के वियोग से उत्पन्न वराह० ४२।२९ ।
शोक 3. भय, डर 4. संगतराश की छेनी। तमकः [ तक्ष-ज्वल ] 1. बढ़ई, लकड़ी का काम करने तङ्कनम् [तङक् + ल्यटा कष्टमय जीवन, आपदग्रस्त जिंदगी।
(जाति से अथवा लकड़ी का धंधा करने के | तङ्ग (भ्वा० पर०-तङ्गति, तङ्गित) 1. जाना, चलना-फिरना कारण) 2. सूत्रधार 3. देवताओं का वास्तुकार, विश्व- 2. हिलाना-जुलाना, कष्ट देना 3. लड़खड़ाना। कर्मा 4. पाताल के मुख्य नागों अर्थात् सपों में से एक, तञ्च (रुधा० पर०-तनक्ति, तञ्चित सिकोड़ना, सिकूडना कश्यप और कद्र का पुत्र (आस्तीक ऋषि के बीच में --तनच्मि व्योम विस्तृतम्- भट्टि० ६१३८ । पड़ने से जनमेजय के सर्पयज्ञ में जलजाने से बचा हुआ, तटः [ तट अच् ] 1. ढाला, उतार, कगार 2. आकाश या इसी सर्पयज्ञ में अनेक सर्प जल कर भस्म हो गये थे) क्षितिज,-टः,-टा, टी,---टम् 1. किनारा, कूल,
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