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आतिथेय ( वि० ) [स्त्री० - यी ] [ अतिथिषु साधुः ढञ अतिथये इदं ढक् वा ] 1. अतिथियों की सेवा करने वाला, अतिथियों के उपयुक्त - प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेय: रघु०५/२, १२/२५ तमातिथेयी बहुमानपूर्वया कु०५/३१, 2. अतिथि के उचित या उपयुक्त - आतिथेयः सत्कारः श० १, यम् अतिथि सत्कार -आतिथेयमनिवारितातिथिः – शि० १४१३८, सज्जातिथेया वयं - मा० २५०, यी सत्कार, मेहमान नवाजी -भामि० ११८५ ।
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आतिथ्य ( वि० ) [ अतिथि + ष्यञ् ] सत्कारशील, अतिथि के लिए उपयुक्त - थ्यः अतिथि, ध्यम् सत्कारपूर्वक स्वागत, अतिथि सत्कार - तथातिथ्यक्रियाशांत रथक्षोभ परिश्रमम् रघु० १ ५८ । आतिदेशिक (वि० ) ( स्त्री० की ) [ अतिदेश + ठक् ] ( व्या० में) अतिदेश से सम्बद्ध-तु० ।
आतिरे ( 1 ) क्यम् [ अतिरेक + प्यत्र पक्षे उभयपद वृद्धिः ] फालतूपन, अधिकता, बहुतायत । आतिशय्यम् [ अतिशय + ष्यञ] अधिकता, बहुतायत, बृहत् परिमाण ।
आतुः [ अत् + उण् ] लट्ठों का बना बेड़ा, घन्नई ( घड़ों को बाँध कर बनाई गई नौका) ।
आतुर (वि० ) [ ईषदर्थे आ + त् + उरच् ] 1. चोटिल, घायल 2. ( रोग से ग्रस्त, प्रभावित, पीड़ित - राव - णावरजा तत्र राघवं मढनातुरा - रघु० १२/३२: काम, भय आदि 3. रुग्ण ( मन या शरीर से ), आकाशेशास्तु विज्ञेया बालवृद्धकृशातुराः मनु० ४।१८३, 4. उत्सुक, उतावला 5. दुर्बल, कमजोर र रोगी । सम० - शाला हस्पताल |
आतोयम्,- धकम् [आ + तुद् + ण्यत्, स्वार्थे कन् च | एक प्रकार का वाद्ययंत्र आतोद्यविन्यासादिका विधयः - वेणी० १ स्रजमातोद्यशिरोनिवेशिताम्- रघु० ८ ३४, १५१८८, उत्तर० ७ ।
आत्त (भू० क० कृ० ) [ आ + दा+क्त] 1. लिया हुआ,
प्राप्त किया हुआ, माना हुआ, स्वीकार किया हुआ -- एवमात्तरतिः- रघु० ११।५७, मालवि० ५1१, 2. अंगीकार किया हुआ, उत्तरदायित्व लिया हुआ 3. आकृष्ट 4. खींचा हुआ, निस्सारित-गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य-- रघु० ५।२६ इसी प्रकार आत्तबलं ११/७६ ले जाया गया । सम० - गन्ध (वि० ) 1 जिसका घमंड निकाल दिया गया हो, आक्रान्त, पराजित केनात्तगन्धो माणवक: शं० ६ 2. संधा हुआ ( जैसे कि फूल ) - आत्तगन्धमवधूय शत्रुभिः शि० १४१८४ ( यहाँ आ° नं० 1 में बताये अर्थ भी रखता है), गर्व (वि०) अवमानित, तिरस्कृत, अनादृत, दण्ड (वि०) राजकीय दण्ड को धारण करने
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वाला, मनस्क (वि०) जिसका मन (हर्प आदि के कारण ) स्थानान्तरित हो गया हो ।
आत्मक ( वि० ) [ आत्मन् । कन् । ( समास के अन्त में ) से
बना हुआ, से रचा हुआ, स्वभाव का लक्षण का, पंच पाँच तहों वाला, संशय = संदिग्ध स्वभाव का, इसी प्रकार दुःखी, दहन" ।
आत्मकोय, आत्मीय (वि०) [आत्मक (न्) + छ] अपनों से सम्बन्ध रखने वाला, अपना सर्वः कान्तमात्मीयं पश्यति श० २, स्वामिनमात्मीयं करिष्यामि हि० २, जीत लेना, प्रसादमात्मीयमिवात्मदर्शः रघु० ७/६८, कु० २०१९, बन्धु, सम्बन्धो, बान्धव । आत्मन् (पुं० ) [ अत् + मनिण् ] 1. आत्मा, जीव किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत् हि० १, आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु - कठ० ३1३, 2. स्व, आत्म- इस अर्थ में प्रायः यह शब्द तीनों पुरुषों में तथा पुल्लिंग के एक वचन में प्रयुक्त होता है चाहे उस संज्ञा शब्द का लिंग, वचन कुछ ही हो जिसका यह उल्लेख करता है --- आश्रमदर्शनेन आत्मानं पुनोमह श० १, गुप्तं ददृशुरात्मानं सर्वाः स्वप्नेषु वामनैः रघु० १०/६०, देवी ...प्राप्तप्रसवमात्मानं गङ्गादेव्यां विमुञ्चति -- उत्तर० ७१२, गोपायन्ति कुलस्त्रिय आत्मानमात्मना - महा०, 3. परमात्मा, ब्रह्म तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः संभूतः उप०, उत्तर० ११, 4. सार, प्रकृति दे० 'आत्मक' ऊपर 5. चरित्र, विशेषता 6. नैसर्गिक प्रकृति या स्वभाव 7. व्यक्ति या समस्त शरीर स्थितः सर्वोन्नतेनोर्वी श्रान्त्वा मेरुरिवात्मना
- रघु० १।१४, मनु० १२ १२, ४. मन, बुद्धि मंदात्मन् महात्मन् आदि 9. समझ तु० आत्मसम्पन्न, आत्मवत् आदि 10. विचारणशक्ति, विचार और तर्कशक्ति 11. सप्राणता, जीवट, साहस 12. रूप, प्रतिमा 13. पुत्र आत्मा वै पुत्रनामासि 14. देखभाल, प्रयत्न 15. सूर्य 16. अग्नि 17. वायु' से बना या से युक्त अर्थ को प्रकट करने के लिए 'आत्मन्' शब्द समास के अन्त में प्रयुक्त होता है- दे० आत्मक | सम० -- अधीन (वि० ) अपने ऊपर आश्रित, स्वाश्रित, निराश्रित (नः) 1 पुत्र 2. साला, पत्नी का भाई 3. मसखरा या विदूषक (नाटय साहित्य में ), अनुगमनम् व्यक्तिगत सेवा, अपहारः अपने आप को छिपाना - कथं वा आत्मापहारं करोमि श० १, - अपहारकः छद्मवेषी, कपटी, आराम (वि०) 1 ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील (जैसे कि कोई योगी), आत्मज्ञान का अन्वेषक - आत्मारामा विहितरतयो निविकल्पे समाधी - वेणी० १।२३. 2. अपने आप में प्रसन्न, आशिन् (पुं० ) मछली ( ऐसा समझा जाता है कि मछली अपने बच्चों को या अपनी जाति के
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