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( २०९ ) ----मा० ५ 3. अपनी इष्टसिद्धि के लिए देवता के -उपरागान्ते शशिनः समपगता रोहिणी योगम् प्रति प्रार्थना या निवेदन ।
-~-श० ७२२, शि० २०१४५ 2. राहु या शिरोबिंदु उपयाचितकम-ऊपर दे०, उपयाचित-सिद्धायतनानि कृत- की ओर चढ़ने वाला 3. लाली, लाल रंग, रंग 4. संकट, विविधदेवतोपयाचितकानि-का०६४ ।
कष्ट, आघात,-मृणालिनी हैममिवोपरागम्-रघु० उपयाजः | उप-यज्+घञ । यज्ञ के अतिरिक्त यज- १६७ 5. झिड़की, निन्दा, दुर्वचन । र्वेदीय मंत्र।
उपराजः [ प्रा० स०] वाइसराय, राजप्रतिनिधि, उपउपयानम् [ उप+या+ ल्युट ] पहुँचना, निकट आना,
शासक। ---हरोपयाने त्वरिता बभूव-कु० ७।२२ ।
उपरि (अव्य०) [ ऊर्ध्व+रिल , उप आदेश: 1 पृथकरूप उपयुक्त (भू० क० कृ०) [ उप--युज्+क्त ] 1. संलग्न से प्रयक्त होने वाला संबंधबोधक अव्यय (बहधा
2. योग्य, सही, उचित 3. सेवा के योग्य, काम का। संबं० के साथ; कर्म० तथा अधि के साथ विरल उपयोगः [उप-+-यज+घन] 1. काभ, लाभ, प्रयोग, सेवन प्रयोग), निम्नांकित अर्थ प्रकट करता है—(क) ..-ब्रजन्ति .... अनङ्गलेखक्रिययोपयोगम-कू० ११७ ऊपर, अधिक, पर, पै, की ओर (विप० अधः) (संब० 2. औषधि तैयार करना या देना 3. योग्यता, उपय- के साथ-गतमपरि घनानाम्-श० ७७, अवाङमक्तता, औचित्य 4. संपर्क, आसन्नता ।
खस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपात-रघ० १६०, अर्कस्योपरि उपयोगिन् ( वि०) [उप-यज्घिनण् ] 1. काम में -~-श० २०८, बहुधा समास के अंत में, रथ, तरुवर'
आने वाला, लाभदायक 2. सेवा के योग्य, काम का (ख) समाप्ति पर,-सिर पर, सर्वानन्दानामपरि वर्त3. योग्य, उचित ।
माना--का० १५८ (ग) परे, अतिरिक्त,-याज्ञ० उपरक्त (भू० क० कृ०) [ उप-|-र +क्त ] 1. कष्ट- २।२५३ (घ) के संबंध में, के विषय में, की ओर, पर
ग्रस्त, संकटग्रस्त, दुःखी 2. ग्रहण-ग्रस्त 3. रंजित, रंगीन -परस्परस्योपरिपर्यचीयत - रघ० ३।२४-शा० ३१२३,
---शि०२।१८, कतः ग्रहण-ग्रस्त सुर्य या चन्द्रमा । तवोपरि प्रायोपवेशनं करिष्यामि-तुम्हारे कारण उपरक्षः उप-रम् |-अच् ) अंग रक्षक ।
(ङ) के बाद,-महुर्तादुपरि उपाध्यायश्चेदागच्छेत् उपरक्षणम् [उमर ल्युट् ] पोदार, गारद, -पा० ३।३।९ सिद्धा। सम०-उपरि (उपर्युपरि) चौकी।
1. (कर्म और संबं० के साथ अथवा स्वतन्त्र रूप से) उपरत (भू० क० कृ०) [ उप+रम् । क्त ] 1. निवत्त, निम्नांकित अर्थ प्रकट करता है (क) जरा ऊपर,
विरक्त -रजस्यपरते --मनु० ५।६६ 2. मृत –अद्य- -लोकानपर्य पर्यास्ते माधव:-वोप० (ख) उच्च से उच्चदशमो मासस्तातस्योपरतस-मद्रा० ४। सम-कर्मन तर, कहीं ऊँचा, ऊपर, ऊँचाई पर-उपर्यपरि सर्वेषा(वि.) सांसारिक कार्यों पर भरोसा न करने वाला, मादित्य इव तेजसा-मा० 2. (क्रियाविशेषण के रूप ---स्पृह (वि०) इच्छा से शन्य, सांसारिक आसक्ति में) अर्थ है (क), अत्यंत ऊँचाई पर, पर, ऊपर की और सम्पतियों के प्रति उदासीन ।
ओर(विप अधः)-उपर्यपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति उपरतिः (स्त्री.) उ-रम-।-क्तिन् ] 1. विरक्ति, --हि० २, बहुधा समास में- स्वमद्रोपरिचिह्नितम् निवृत्ति 2. मत्य 3. विषय-भोग से विरक्ति 4. उदा
---याज्ञ०१।३१९ (ख) इसके सिवाय, इसके अतिरिक्त, सीनता 5. यज्ञादि विहित कर्मों से विरक्ति, प्रथापालन
अधिक, और---शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च के हेतु किये जाने वाले कर्मकांड में अविश्वास ।
सप्ततिः ---महा० (ग) बाद में-यदा पूर्वं नासीदुपरि उपरत्नम् [प्रा० स० ] अप्रधान या घटिया रत्न,-उपरत्नानि च तथा नैव भविता--शा० २१७, सर्पिः पौत्वोपरि काचश्च कर्परोऽश्मा तथैव च, मुस्ता शक्तिस्तथा शंख
पयः पिबेत्-सुध्रुत,-चर (वि.) ऊपर विचरने इत्यादीनि बहन्यपि । गुणा यथैव रत्नानामुपरत्नेषु
वाला (पक्षी आदि)-तन,--स्थ (वि०) अधिक ते तथा, किन्तु किंचित्ततो हीना विशेषोऽयमुदाहृतः ।
ऊपर का, अपेक्षाकृत ऊँचा, भागः ऊपर का अंश या उपर (रा) मः । उप+र+घञ्] 1. विरक्ति, निवृत्ति
पार्व, भावः ऊपर या अपेक्षाकृत ऊंचाई पर होना 2. परिवर्जन, त्याग 3. मत्यु ।
--भूमिः (स्त्री०) ऊपर वाली धरती । उपरमणम् | उपरम+ल्यः । 1. रति सुरा से विरक्ति उपरिष्टात् (अव्य०) | ऊ++-रिष्टातिल, उप आदेशः ]
2. प्रथानुरूप कर्मकाण्ड से पिरति 3. विरक्ति, 1. क्रियाविशेषण के रूप में इसका अर्थ है:.-.--(क) निवृत्ति।
अधिक, ऊपर, ऊँचे-भर्तृ० ३।१३१. याज्ञ० १११०६ उपरसः | प्रा० स० । 1. अप्रधान खनिज धातु 2. गौण । (ख) इसके आगे, बाद में, इसके पश्चात्- कल्याणावतंसा भाव या आवेश.3. अप्रधान रस।
हि कल्याणसंपदुपरिष्टाद्भवति-मा० ६, इदमपरिष्टात् अपरागः [ उप+र +घञ्] 1. सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण । व्याख्यातम्, अन्त में (ग) के पीछे (विप० पुरस्तात्)
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