Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
कण्व
नहीं होगी, ऐसा शाप तुमने दिया । ठीक है । जिसे वह कंठायन--(सो. पुरूरवस् .) वायुमत में मेघातिथि. विद्या मैं सिखाऊँगा, उसे वह फलद्रूप होगी'। पुत्र।
गौरव--इतना कह कर कच देवायानी से विदा ले कर | कंठेविद्धि--ब्रहाविद्धि का शिष्य । इसका शिष्य देवलोक गया। इस प्रकार विद्या संपादन कर के जब गिरिशर्मन् (वं. बा.१)। वह देवलोक वापस आया तब देवों ने तथा इन्द्र ने इसका कंडरीक-ब्रह्मदत्त का मंत्री तथा योगी (ह. वं. १. स्वागत किया तथा यज्ञ का भाग इसे दिया (म. आ. २०.१३)। पितृवर्तिन् तथा ब्रह्मदत्त देखिये। यह ७१.७२, मत्स्य. २५-२६)।
सर्वशास्त्र प्रवर्तक था (मत्स्य. २१.२५) । इसको द्विवेद, कच्छनीर-वैशाख माह में अर्यमा नामक सूर्य के छंदोग तथा अध्वर्यु कहा है (ह. वं. १.२३.२१-२२) साथ भ्रमण करनेवाला नाग (मा. १२.११)। ___कंडु--एक ब्रह्मर्षि । इसके एक वर्ष के पुत्र की जिस
कच्छप-कुबेर के मूर्तिमान नौ निधियों में से वन में मृत्यु हुई, उस वन को इसने उदकरहित किया पाँचवाँ।
| (वा. रा. कि. ४८) । इसका तप नष्ट करने के लिये इंद्र कंजाजना--दाशरथि राम-पुत्र लव की कनिष्ठ । ने प्रग्लोचा नाम की अप्सरा भेजी थी। इस की कन्या स्त्री।
मारीषा (विष्णु. १.१५. भा. ४.३०)। - कटक-मर्कटप के लिये पाठभेद ।
२. व्यास की सामशिष्यपरंपरा के वायु तथा ब्रह्माण्ड कटायनि-भृगुकुल का गोत्रकार ।
मतानुसार लांगलि का शिष्य । कटु-एक अंगिराकुल का गोत्रकार । इसके लिये कंड-कलिंग कन्या तथा अक्रोधन की स्त्री। इसके कटय तथा कंकट पाठभेद हैं।
| पुत्र का नाम देवातिथि । भांडारकर प्रति में करंदु पाठ कठ-वसिष्ठकुल के गोत्रकार ऋषिगण (म. आ. है (म. आ. ९०.२१)। ८.२३०; स. ४.१५)। इसके नाम पर कठ परिशिष्ट, कण्व--एक गोत्रप्रवर्तक तथा सूक्तद्रष्टा । घोर के कण्व कठब्राह्मण, कठ संहिता, कठवल्ल्युपनिषद् तथा कठसूत्र तथा प्रगाथ नाम के दो पुत्र थे। वन में एक बार प्रगाथ ग्रंथ आये हैं । कठसूत्र का निर्देश कात्यायन श्रौतसूत्र में ने कण्व की स्त्री को छेडा । इसलिये कण्व शाप देने लगा।
है (१.३.२३, ४.८.१३)। यही कठशाखा का प्रवर्तक तब प्रगाथ ने इन्हें माता एवं पिता माना। कालांतर में .. होगा (पाणिनी देखिये)। कठ तथा कपिष्ठल कठ का ही इसके वंशजों ने ऋग्वेद वा आठवाँ मंडल तयार किया
(बृहद्दे. ६.३५-३९)। कण्व शब्द का अर्थ सुखमय होता कठ कृष्णयजुर्वेद की शाखा है। कठ लोग विस्तृत है (नीलकंठ टीका)। यह यदतुर्वश का पुरोहित रहा 'प्रदेश में आबाद थे । सिकंदर को कठों ने कड़ा विरोध होगा क्यों कि, कण्वकलोत्पन्न देवातिथि इंद्र से प्रार्थना . किया । कठो का स्थान पंजाब के अन्तिम भाग में सिंधु |
भाग म सिधु करता है कि यदु तथा तुर्वश तुम्हारी कृपा से मुझे सदैव - के तट पर दीखता है।
सुखी दिखाई दें (ऋ. ८.४.७)। २. रेवती देखिये।
इस पुरातन ऋषि कण्व का ऋग्वेद तथा इतरत्र बार बार कठशाठ--एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)।
उल्लेख आता है (ऋ. १.३६.८,१०.११ आदि; अ. कणिक-- धृतराष्ट्र का नीतिशास्त्रविशारद ब्राह्मण
वे; ७. १५. १: १८. ३. १५; वा. सं १७. ७४; पं. मंत्री । इसने पांडवों के संबंध में धृतराष्ट्र को विपरीत
ब्रा.८.१.१; ९.२.६; सां. ब्रा. २८.८)। इसके पुत्र सलाह दी थी (म. आ. परि. १.८१)। इतनी शत्रुता तथा वंशजों का नाम बारबार आता है। यह सूक्तद्रष्टा था बढ जाने पर युद्ध के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है,
(ऋ. १.३६-४३,८; ९.९४)। अंगिरसकुल में कण्व ऐसा इसने बताया । कणिक पाठ भी मिलता है।
मंत्रकार थे । कण्व का वंशज उसके अकेले के कण्व नाम से इसका कथन कणिकनीति नाम से प्रसिद्ध है तथा
(ऋ. १.४४.८; ४६.९; ४७.१०, ४८.४, ८.४३.१) भांडारकर महाभारत में परिशिष्ट में दिया है।
तथा पैतृकनामसहित, जैसे कण्व नार्षद (ऋ. १.११७. कणीशा-कश्यप तथा क्रोधा के कन्या तथा पुलह ८: अ. वे. ४.१९.२), तथा कण्व श्रायस (तै सं. ५. की स्त्री।
४.७.५; क. सं. २१.८; मै. सं ३.३.९.) ऐसा संबोधित कंठ-(सो. पुरूरवस् .) वायुमत में अजमीढ़ पुत्र। । है । इसके अतिरिक्त इसका अनेकवचनी (बहुवचन)
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