Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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ययाति
प्राचीन चरित्रकोश
ययाति
'सम्राट' एवं 'श्रेष्ठ विजेता' कहा गया है। इसका राज्य चाहा कि इसे उसमें एक नम्र सुन्दर दिख पड़ी। ययाति ने काल ३००० - २७५० ई. पू. माना जाता है। तत्काल उसे अपना उत्तरीय देकर एवं उसका दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर निकाला । बाद में उस स्त्री से इसे पता चव्य कि, वह दैत्यराज शुक्र की कन्या देवयानी है। अन्त में यह अपने नगर वापस आया (म. आ. ७३.२२-२३; मा. ९.१८) ।
इसने अपने पितामह आयु एवं पिता नहुष के कान्यकुब्ज देश के राज्य का विस्तार कर, अयोध्या के पश्चिम में स्थित मध्यदेश का सारा प्रदेश अपने राज्य में समाविष्ट किया। उत्तरी पश्चिम में सरस्वती नदी तक का सारा प्रदेश इसके राज्य में समाविष्ट था। इसके अतिरिक्त कान्यकुब्ज देश के दक्षिण, दक्षिणीपूर्व एवं पश्चिम में स्थित बहुत सारा प्रदेश इसने अपने बाहुबल से जीता था।
ऋग्वेद में इसे एक प्राचीन यशकर्ता माना गया है, जो वेद की कुछ ऋचाओं का द्रश था (ऋ. १.३१.१७ १०. द्रष्टा ६२.१ ९.१०१.४-६ ) सग्वेद में एक बार इसका निर्देश नहुष राजा के वंशज 'नहुष्य ' के रूप में किया गया है। पूरु के साथ इसके सम्बन्ध का निर्देश वैदिक ग्रंथो में अप्राप्य है । इसलिए महाकाव्य की परम्परा को निश्चित रूप से त्रुटिपूर्ण मानना चाहिए।
जन्म ययाति का वंश अनि चन्द्र तथा सूर्य से उत्पन्न हुआ था (म. आ. १.४४) । प्रजापतिओं में यह दसवाँ था (म. आ. ७१.१ ) | यह नहुष को, सुधन्वन् संज्ञक पितृसन्या विरजा से उत्पन्न पुत्रों में से दूसरा था (म. आ. ७०.२९; ८४.१; ९०.७; उ. ११२.७; द्रो. ११९.५; अनु. १४७.२७; वा. रा. उ. ५८; भा. ९.१८; विष्णु ४.१०; गरुड़. १.१३९.१८; पद्म. सु. १२; अग्नि. २७४; वायु. ९३ . . १३०९ ब्रह्म १२ कूर्म १.२२. १.६६ ) । मत्स्य में, इसकी माता का नाम 'सुधन्वन्' की जगह 'सुस्वधा' दिया गया है ( मत्स्य. १५.२० -२३) । पद्म के अनुसार, यह नहुष को अशोक-सुन्दरी नामक स्त्री से हुआ था (पद्म. भू. १०९ ) । इसके भाइयों की संख्या तथा नाम पुराणों में भिन्न भिन्न दिये गये हैं (नहुष देखिये)। इसका ज्येष्ठ भ्राता यति योग का आश्रय लेकर मुनि हो गया, तथा नहुष अजगर बन गया, जिससे यह भूमण्डल का सम्राट बना ।
एक बार इसने देवयानी के साथ एक अन्य कन्या को देख कर उन दोनों का परिचय करना चाहा । तत्र देवयानी ने बताया, 'मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ, तथा यह वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा है, जो मेरी दासी है। यह सुन कर राजा ने अपना परिचय दिया एवं विदा होने के लिए देवयानी से आशा माँगी तब देवयानी ने राजा को रोक कर उससे प्रार्थना करते हुए कहा, 'मैंनें दो सहस्र दासी तथा शर्मिश के सहित आपको तन मन धन से वरण किया है। अतएव आप मुझे अपनी पत्नी बना कर गौरवान्वित करे' |
ययाति - देवयानीसंवाद - प्रतिलोम विवाह उस समय सर्वत्र प्रचलित न थे, अतएव इसने साफ इन्कार कर दिया । तत्र इसका तथा देवयानी का परस्परसंवाद हुआ, जिसमें देवयानी ने कहा, 'हे राजा, तुम न भूतो कि, जब क्षत्रियकुल का संहार हुआ है, तब ब्राह्मणों से ही क्षत्रियों की उत्पत्ति हुयीं है । लोपामुद्रादि क्षत्रिय कुमारिकाओं का भी ब्राह्मणों से विवाह हुआ है। मेरे पिता आपके न माँगने पर भी यदि मुझे आपको देते हैं, तो आपको कुछ भी आपत्ति न होनी चाहिए। मैं कहती हूँ, इसमें आपको कुछ भी दोष एवं पाप न लगेगा ।
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भागवत के अनुसार, देवयानी ने ययाति से कहा, 'कच के द्वारा मुझे यह शाप मिल चुका है कि, मुझसे कोई भी ब्राह्मणपुत्र शादी न करेंगा । इसीलिए मैं तुमसे बार बार विवाह का निवेदन कर रही हूँ ' (भा. ९.१८) । किन्तु महाभारत के अनुसार, देवयानी ने कच के शाप की बात ययाति से न बतायीं, तथा तर्क के द्वारा उसे समझाने की कोशिश की कि, ययाति उससे विवाह कर ले।
विवाहबाद में शुक्राचार्य ने देवयानी की इच्छा के अनुसार, उसकी शादी ययाति से कर दी। शुक्र ने विवाद में धनसंपत्ति के साथ दो हजार दासियाँ के साथ शर्मिष्ठा को भी ययाति को दिया, तथा कहा, 'शर्मिष्ठा कुलीन घराने की कन्या है, उसे कभी अपनी धय्या पर न बुलाना ' । चलते समय शुक्राचार्य ने ययाति से कहा, 'देवयानी मेरी प्रिय कन्या है। तुम इसे अपनी पटरानी
महाभारत में इसका जीवनचरित्र दो विभागों में दिया गया है : - ( १ ) पूर्वयायात, जिसमें इसके स्वर्गगमन तक का चरित्र प्राप्त है (२) उत्तरयावात, जहाँ इसके स्वर्गपतन के बाद का जीवन ग्रथित किया गया है ( म. आ. ७०–८०; ८१-८८; मत्स्य. २४-८८ ) ।
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देवयानी से भेंट एक घर मृगया के निमित्त जंगल में विचरण करता हुआ, तृषा से व्याकुल होकर यह एक कुएँ के निकट आया। जैसे ही इसने कुँए में पानी देखना
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