Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
स्वरूप-वर्णन-ऋग्वेद में इसका स्वरूप वर्णन प्राप्त | इसी कारण शिव के भक्तों में काशी अत्यंत पवित्र एवं है, जहाँ इसका वर्ण भूरा (बभ्र), एवं रूप अतितेजस्वी | मुमुक्षुओं का वसतिस्थान माना गया है (मैत्रेय देखिये) बताया गया है (ऋ. २.३३)। यह सूर्य के समान संवर्त को शवरूप में शिवदर्शन का लाभ काशीक्षेत्र में ही जाज्वल्य, एवं सुवर्ण की भाँति प्रदीप्त है (ऋ. १.४३)। हुआ था। पूषन् देवता की भाँति यह जटाधारी है। बाद की संहिताओं तपस्यास्थान-हिमवत् पर्वत के मुंजवत् शिखर पर में इसे सहस्रनेत्र, एवं नीलवर्णीय ग्रीवा एवं केशवाला | शिव का तपस्यास्थान है। वहां वृक्षों के नीचे, पर्वतों के बताया गया है (वा. सं. १६.७; अ. वे. २.२७)। शिखरों पर, एवं गुफाओं में यह अदृश्यरूप से उमा के इसका पेट कृष्णवर्णीय एवं पीठ रक्तवर्णीय है (अ. वे. | साथ तपस्या करता है। इसकी उपासना करनेवाले, देव१५.१) । यह चर्मधारी है (वा. सं. १६.२-४; | गंधर्व, अप्सरा, देवर्षि, यातुधान, राक्षस एवं कुबेरादि ५१)।
अनुचर विकृत रूप में वहीं रहते हैं, जो रुद्रगण नाम से 'महाभारत एवं पुराणो में प्राप्त रुद्र का स्वरूपवर्णन | प्रसिद्ध हैं । शिव एवं इसके उपासक अदृश्य रूप में रहते कल्पनारम्य प्रतीत होता है। इस वर्णन के अनुसार, | हैं, जिस कारण वे चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देते (म. इसके कुल पाँच मुख थे, जिनमें से पूर्व, उत्तर, पश्चिम | आश्व. ८.१-१२)। एवं उर्ध्व दिशाओं की ओर देखनेवाले मुख सौम्य, एवं
वाहन एवं ध्वज-दक्षप्रजापति ने शिव को नंदिकेश्वर केवल दक्षिण दिशा की ओर देखनेवाला मुख रौद्र था
नामक वृषभ प्रदान किया, जिसे इसने अपना ध्वज एवं (म. अनु. १४०.४६)। इन्द्र के वज्र का प्रहार इसकी
वाहन बनाया। इसी कारण शिव को 'वृषभध्वज' नाम ग्रीवा पर होने के कारण, इसका कंठ नीला हो गया था
प्राप्त हुआ (म. अनु. ७७.२७-२८; शैलाद देखिये)। (म. अनु. १४१.८)। महाभारत में अन्यत्र, समुद्र
___ आयुध-इसका प्रमुख अस्त्र विद्युत्-शर (विद्यत् ) मंथन से निकला हुआ हलाहल विष प्राशन करने के
है, जो इसके द्वारा आकाश से फेंके जाने पर, पृथ्वी को कारण, इसके नीलकंठ बनने का निर्देश प्राप्त है, जहां इसे
विदीर्ण करता है (ऋ. ७.४६ )। इसके धनुषवाण एवं 'श्रीकंठ' भी कहा गया है (म. शां. ३४२.१३)।
वज्र आदि शस्त्रों का भी निर्देश प्राप्त है (ऋ. २.३३.३; • पुराणों में भी इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे । १०५.४२.११, १०.१२६.६)। चतुर्मुख (विष्णुधर्म. ३.४४-४८; ५५.१); अर्धनारी
ऋग्वेद में प्राप्त रुद्र के इस स्वरूप एवं अस्त्रवर्णन में नटेश्वर (मत्स्य. २६०); एवं तीन नेत्रोंवाला कहा गया
आकाश से पृथ्वी पर आनेवाली प्रलयंकर विद्युत् अभिप्रेत
होती है। . निवासस्थान--वैदिक ग्रंथों में इसे पर्वतों में एवं
पराक्रम-ऋग्वेद में इसे भयंकर एवं हिंसक पशु की मूजवत् नामक पर्वत में रहनेवाला बताया गया है (वा.
भाँति विनाशक कहा गया है (ऋ. २.३३)। अपने सं. १६.२-४, ३.६१)। इसका आद्य निवासस्थान मेरुपर्वत था, जिस कारण
प्रभावी शस्त्रों से यह गायों एवं मनुष्यों का वध करता है इसे 'मेरुधामा' नामान्तर प्राप्त था (म. अनु. १७.
(ऋ. १.११४.१०)। यह अत्यंत क्रोधी है, एवं क्रुद्ध
होने पर समस्त मानवजाति को विनष्ट कर देता है। इसी ९१)। विष्णु के अनुसार, हिमालय पर्वत एवं मेरु एक
कारण, इसकी प्रार्थना की गयी है कि, यह क्रोध में आ ही हैं (विष्णु. २.२)। कृष्ण द्वैपायन व्यास ने एवं कुबेर ने मेरुपर्वत पर ही इस की उपासना की थी।
कर अपने स्तोताओं एवं उनके पितरों, संतानों, संबंधियों,
| एवं अश्वों का वध न करे (ऋ. १.११४)। महाभारत में अन्यत्र, इसका निवासस्थान मुंजवान् | अथवा मूजवत् पर्वत बताया गया है, जो कैलास के उस- अपने पुत्र एवं परिवार के लोगों को रोगविमुक्त पार था (म. आश्व. ८.१; सौ. १७.२६, वायु. ४७. | करने के लिए भी इसकी प्रार्थना की गयी है (ऋ. ७. १९)। कैलास एवं हिमालय पर्वत भी इसका निवासस्थान | ४६.२)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसे 'जलाष' (व्याधियों का बताया गया है (म. भी. ७.३१; ब्रह्म. २९.२२)। | उपशमन करनेवाला) एवं 'जलाषभेषज' (उपशामक
इसका अत्यंत प्रिय निवासस्थान काशी में स्थित | औषधियों से युक्त) कहा गया है (ऋ. १.४.३-४)। स्मशान था (म. अनु. १४१.१७-१९, नीलकंठ टीका) यह चिकित्सकों में भी श्रेष्ठ चिकित्सक है (ऋ. २.३३
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