Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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बालखिल्य
को दिया गया है (तै. आ. १.२३ ) । एक ब्रह्मचारी ऋषिगण के नाते इनका निर्देश मैत्र्युपनिषद में प्राप्त है ( मैन्यु. २.३ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
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पौराणिक [आहित्य में इन ग्रंथों में इन्हें ब्रह्मपुत्र ऋतु के पुत्र कहा गया है एवं इनकी माता का नाम सन्नति अथवा क्रिया बताया गया है ( विष्णु. १.१० भा. ४.१.९) । वायु के अनुसार, इनका जन्म कुशःभों से हुआ था, एवं वारणियज्ञ के कारण इन्हें अप्रतिहत तप:सामर्थ्य प्राप्त हुआ था ( वायु. ६५.५५९ १०१. २१३) । इसी कारण इन्हें मनोज संगत एवं ‘सार्वभौम ' कहा गया है। स्वरूपवर्णन -- इस समुद्राय में से हर एक ऋपद से बहुत ही छोटा, याने फि अंगुल के मध्यभाग के बराबर शरीराला था । सूर्य के अनन्य भक्त होने के कारण, ये सूर्यलोक में रहते थे, एवं वहाँ पक्षियों की भाँति एक एक दाना वीन कर उसीसे ही अपना जीवननिर्वाह करते थे सूर्यकिरणों का पान करते हुए, वे तपस्या में व्यय रहते थे ( म. स. ११. १२२.) । ब्रह्मांड के अनुसार, ये ब्रह्मलोक में रहते थे, एवं केवल वायु' भक्षण करते थे ( ब्रह्मांड. २.२५.४) ।
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अपने पिता ऋतु के समान ये भी पवित्र, सत्यवादी एवं व्रतपरायण थे ( म. आ. ६०.८ ) । प्रातःकाल से सायंकाल तक ये सूर्य के ' गौरवस्तोत्र ' गाते गाते उसीके ही सम्मुख बहते थे। मृगछाला, चीर एवं वल ये इनके वस्त्र रहते थे ये वृक्ष की शाखा पर उल्टे लटक कर तपस्या करते थे।
वालिन
फिर कश्यप ऋषि के अनुरोध पर, देवेंद्र का निर्माण करने का अपना निश्चय इन्होंने छोड़ दिया, एवं अपने यज्ञ का फल कश्यप को प्रदान किया। वही फल आगे चल निर्माण हुआ (म.आ. २६-२७ देखिये ) 1 कर कदवान ने विनता को दिया, जिससे खगेन्द्र गरुड का
तपसामध्ये – अपनी तपस्या के बल पर वे सिद्धमुनि एवं ऋषि बन गये थे ( मस्य. १२६.४५ ) । ये सर्व धर्मों के ज्ञाता थे, एवं अपनी तपस्या से सृष्टि के समस्त पापों को दग्ध कर, अपने तेज़ से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते थे। इनके पर ही सारा जग निर्भर था, एवं इन्हीं की तपस्या, सत्य एवं क्षमा के प्रभाव से संपूर्ण भूतों की स्थिति बनी रहती थी (म. अनु. १४१-१४२) । इन्होंने सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ किया था ( म. व. ८८.९ ) । ये पृथु राजा के मंत्री बने थे ( म. शां. ५९.११७ ) । दिवाली के समय प्रकाशित किये जाने वाले आकाशदीप का महत्त्व सर्वप्रथम इन्होंने ही क किया था ( स्कंद. २.४.७) । इन्होंने चित्ररथ को कौशिक ऋषि की अस्थियों सरस्वती नदी में विसर्जित कर मुक्ति प्राप्त कराने की सलाह दी थी (भा. ६.८. ४०) ।
परिवार - इनकी पुण्या एवं आत्म सुमति नामक दो कनिष्ठ बहनों का निर्देश वायु में प्राप्त है (वायु. २८.३३) ।
वालायन वाकलि नामक अंगिरा ऋ के तीन शिष्यों में से एक । बाष्कलि ने 'वालखिल्य संहिता का प्रणयन कर उसे दो अन्य शिष्यों के साथ इसे सिखायी थी ( बाप्कलि २, देखिये) ।
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इन्द्र का निर्माण एक घरऋषि ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया । उस समय वज में सहाय्यता करने के लिए एक छोटी सी पलाश की टहनी पर लटक कर ये उपस्थित हुए। इनकी अंगुष्ठमात्र शरीरयष्टि देख कर बद्र ने इनका उपहास किया । तदुपरान्त अत्यधिक क्रुद्ध हो कर इन्होंने एक नया इंद्र निर्माण करने का निश्चय किया, एवं इस हेतु एक यज्ञ का आयोजन किया। उस समय कश्यप ऋषि ने इन्हें बार बार समझाया एवं कहा, 'देवराव रेह के इंद्र स्थान पर अन्य इन्द्र को उत्पन्न करना उचित नहीं है। अब वही अच्छा है कि, आप देवों के नहीं, बल्कि पक्षियों के इन्द्र का निर्माण करे । इसी समय, इंद्र भी इनकी शरण में आया ।
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वालिन् -- किष्किंधा देश का सुविख्यात वानरराजा, को महेंद्र एवं ऋक्षकन्या विरमा का पुत्र था (ब्रह्मांड २. ७.२१४-२४८; भा. ९.१०.१२ ) । वाल्मीकि रामायण के प्रक्षिप्त काण्ड में इसे ऋक्षरज नामक वानर का पुत्र कहा गया है ( वा. रा. उ. प्रक्षिप्त ६ ) ।
इसके छोटे भाई का नाम सुग्रीव था, जिसे इसने यौवराज्याभिषेक किया था ( वा. रा. उ. ३४ ) । इसकी पत्नी का नाम तारा था, जो इसके तार नामक अमात्य की कन्या थी ( वा. रा. उ. ३४ म. व. २६४.१६ ) । बाल्मीकि रामायण में अन्यत्र तारा को सुपेण वानर की कन्या कहा गया है ( वा. रा. क्र. २२ ब्रह्म २.७. २१८ ) । वालिन स्वयं आयेत पराक्रमी वानरराज था, जो राम दाशरथि के द्वारा किये गये इसके वध के कारण रामकथा में अमर हुआ है ।
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