Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
वाल्मीकि
कालोपतऋषियों ने इसे बाहर निकलने का आदेश दिया, एवं कहा, ‘वल्मीक में तपस्या करने कारण तुम्हारा दूसरा कम हुआ है। अतएव आज से तुम वाल्मीकि नाम से ही सुविख्यात होंगे (अ. रा. अयो. ६. ४२-८८) ।
स्कंद पुराण में भी यही कथा प्राप्त है, किंतु यहाँ ऋषि बनने के पूर्व का इसका नाम अग्निशर्मन् दिया गया है ।
मास्याधिकाओं का अन्वयार्थ कई अभ्यासकों के अनुसार, पुराणों में प्राप्त इन सारे कथाओं में वाल्मीकि की नीच जाति प्रतिध्वनित होती है । किंतु इस संबंध में निथित रूप से कहना कठिन है जो कुछ भी हो, इन मगाओं के मूल रूप में 'रामनाम' का निर्देश अप्राप्य है। इससे प्रतीत होता है की, रामभत्तिसांप्रदाय का विकास होने के पश्चात्, यह सारा वृत्तांत रामनाम के गुणगान में परिणत कर दिया गया है (बुल्के, रामकथा g. ४० ) । पुराणों में इसे छब्बीसवाँ वेदव्यास एवं श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है ( विष्णु. ३.३.१८ ) । यह निर्देश भी इसका महात्म्य बढ़ाने के लिए ही किया गया होगा ।
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क्रौंचवध — इसकी शिष्य शाखा काफी बड़ी थी किन्तु उसमें भरद्वाज ऋपि प्रमुख था एक बार यह भरद्वाज के साथ नदी से स्नान कर के वापस आ रहा था । मार्ग में इसने एक व्याच मैथुनासक्त च पक्षियों में एक पर शरसंधान करते हुए देखा। उस समय उस पक्षी के प्रति इसके मन में दया उत्पन्न हुई, एवं इसके मुख से छंदोबद्ध आर्तवाणी निश्यत हुई
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मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥ ( वा. रा. बा. २.१५ ) । अकस्मात् मुख से निकले हुए शब्दों को एक वृत्तबद्ध अनुष्टुभ् श्लोक का रूप प्राप्त होने का चमत्कार देख कर, इसे मन ही मन अत्यंत आश्चर्य हुआ। इसके साथ ही साथ, क्रोध में एक निषाद को इतना कड़ा शाप देने के कारण, इसे अत्यंत दुःख भी हुआ ।
वाल्मीकि
ब्रह्मा के इस आदेशानुसार इसने चौबीससहस्त्र श्लोकों से युक्त रामायण ग्रन्थ की रचना की ( वा. रा. बा. २ ) ।
इसी दुःखित अवस्था में यह बैठा था कि, ब्रह्मा वहाँ प्रकट हुए एवं उन्होंने कहा, 'पछताने का कोई कारण नहीं है । यह श्लोक तुम्हारी कीर्ति का कारण बनेगा । इसी छंद में तुम राम के चरित्र की रचना करो' ।
प्रा. च १०५ ]
रामायण की जन्मकथा - - रामकथा की रचना करने की प्रेरणा वाल्मीकि को कैसी प्राप्त हुई, इस संबंध में इसने नारद के साथ किये एक संवाद का निर्देश वास्मीकि रामायण में प्राप्त है। एक बार तप एवं स्वाध्याय में मन, एवं भाषणकुशल नारद से इसने प्रश्न किया, 'इस संसार में ऐसा कौन महापुरुष है, जो आचार विचार एवं पराक्रम में आदर्श माना जा सकता है'। उस समय नारद ने इसे रामकथा का सार सुनाया, जिसे ही श्लोकबद्ध कर, इसने अपने 'रामायण' महाकाव्य की रचना की था. रा. बा.१)।
इस आख्यायिका से प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज में रामकथा से संबंधित जो कथाएँ लोककथा के रूप में वर्तमान थी, उन्हींको वाल्मीकि ने छंदोबद्ध रूप दे कर रामायण की रचना की ।
सीता संरक्षण राम के द्वारा सीता का त्याग होने पर इसने उसे सँभाला एवं उसकी रक्षा की। उस समय सीता गर्भवती थी। बाद में यथावकाश उसे दो जुड़वे पुत्र उत्पन्न हुए। उनका 'कुश' एवं 'लव' नामकरण इसी ने ही किया एवं उन्हें पालपोस कर विवादान भी किया। वे कुमार बड़े होने पर, इसने उन्हें स्वयं के द्वारा विरचित रामायण काव्य सिखाया। पश्चात् कुश रूप ने वाल्मीकि के द्वारा विरचित रामायण का गायन सर्वत्र करना शुरू किया। इस प्रकार वे अयोध्या नगरी में भी पहुँच गये, जहाँ राम दाशरथि के अश्वमेध यज्ञ के स्थान पर उन्होंने रामायण का गान किया ( वा. रा. उ. ९३९४) ।
रामसभा में — कुशलव के द्वारा किये गये रामायण के साभिनय गायन से राम मंत्रमुग्ध हुआ, एवं जब उसे पता चला कि, ये ऋषिकुमार सामान्य भाट नही, बल्कि उसीके ही पुत्र है, तन्न वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। सीता को अपने पास बुलवा लिया । उस समय वाल्मीकि स्वयं सीता के साथ रामसभा में उपस्थित हुआ, एवं इसने सीता के सतीत्व की साक्ष दी। उस समय इसने अपने सहस्र वर्षों के तप का एवं सत्यप्रतिज्ञता का निर्देश कर सीता का स्वीकार करने की प्रार्थना राम से की. ( वा. रा. उ. ९६.२० ) । पश्चात् इसीके कहने पर सीता ने पातिव्रत्य की कसम खा कर भूमि में प्रवेश किया।
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