Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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सीता
इसे सहानुभूति के स्थान पर कठोरता ही दिखायी दी। पश्चात् पराये घर में एक साल तक निवास करने के कारण राम ने इसको स्वीकार करना चाहा (राम दाशरथि देखिये) ।
राम का यह निश्चय सुन कर इसने अपने सतीत्व की सौगंध खायी। पश्चात् अग्निपरीक्षा के लिए इसने लक्ष्मण को चिता तैयार करने की आशा दी, एवं उसमें अपना शरीर झोंक दिया । तदुपरान्त इसे हाथ में धारण कर अभि देवता स्वयं प्रकट हुई, एवं इसके सतीत्त्व की साक्ष दे कर कर इसको स्वीकार करने की आज्ञा उसने राम को दी ( वा. रा. सु. ११६.१९ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
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पदचात् राम के साथ यह अयोध्या नगरी में गयी वहाँ इसे राम के साथ राज्याभिषेक किया गया। कुछ समयोपरांत यह गर्भवती हुई, एवं इसने वनविहार की इच्छा राम से प्रकट की । उसी दिन रात को लोकापवाद के कारण राम ने इसका त्याग करने का निश्चय
दूसरे दिन सुबह राम ने लक्ष्मण को बुलाया, एवं इसे गंगा के उस पार छोड़ आने का आदेश दिया। तपोवन दिसाने के बहाने लक्ष्मण इसे रथ पर ले गया, एवं उसने इसे वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ दिया । उस समय यह आत्महत्या कर के प्राणत्याग करना चाहती थी,
होने के कारण यह वह पापकर्म न कर सकी। जन्म-राम के द्वारा परित्याग किये जाने पर वाल्मीकि के आश्रम का सहारा ले कर वह वहीं रहने लगी। पश्चात् इसी आश्रम में इसने दो यमल पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम वाल्मीकि के द्वारा कुश एवं लव रखे ( वा. रा. उ. ६६ ) । देहत्याग कालोपरान्त राम के द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में, इसके पुत्र कुशल की राम से भेंट हुई। उस समय कुशलवों से इसका सारा वृत्तांत जान कर राम ने इसे एनः एक बार अयोध्या बुला लिया वाल्मीकि
इसे स्वयं रामसभा में ले गये, एवं भरी सभा में उन्होंने इसके सतीत्व की साक्ष दी। उस समय जनता को विश्वास दिलाने के उद्देश्य से राम ने इससे अनुरोध किया कि यह अपने सतीत्व का प्रभाग दे इस समय इसने सगंध खाते हुए कहा-
मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये । मेमा देवी विदनुते ।
सीरध्वज
( मन से, कर्म से अथवा वाचा से अगर मैंने राम के सिवा किसी अन्य पुरुष का चिंतन न किया हो, तो पृथ्वीमाता दुभंग हो कर मुझे स्वीकार करें ) ।
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सीता के द्वारा उपर्युक्त आर्त प्रार्थना किये जाने पर, पृथ्वी देवी एक दिव्य सिंहासन पर बैठी हुई प्रकट हुई, एवं इसे अपने शरण ले कर पुनः एक बार गुप्त हुई । यह दिव्य दृश्य देख कर राम स्तिमित हो उठा, एवं अत्यधिक विलाप करने लगा । पश्चात् उसने इसे लौटा देने का पृथ्वी को अनुरोध किया, एवं इसे न लौटा देने पर समस्त पृथ्वी को दग्ध करने की धमकी दी । अन्त में ब्रह्मा ने स्वयं प्रकट हो कर राम को सांत्वना दी।
( वा. रा. उ. ९७.१५)।
चरित्रचित्रण- एक आदर्श भारतीय पतिव्रता मान कर वाल्मीकि रामायण में सीता का चरित्र चित्रण किया गया है। राम इसके लिए देवता है, एकमात्र गति है, इस लोक एवं परलोक का स्वामी है ( इह प्रेत्य च नारिणां पतिरेको गतिः सदा ) ( वा. रा. अयो. २७.६ ) । पातिमत्य धर्म के संबंध में यह सावित्री को आदर्श मानती है (बा. रा. अयो. २९.१९ ) । सावित्री के ही समान यह कुलरीति ( वा. रा. अयो, २६.१०), राजनीति ( वा. रा. अयो, २६.४ ), खौकिक नीति ( वा. रा. कि. ९.२ ) इन सारे तच्चों का ज्ञान रखती है, जिसकी सराहना स्वयं राम के द्वारा की गयी है।
मानस में तुलसी के 'मानस' में चित्रित की गयी सीता, शिव, पार्वती, गणेश आदि की उपासिका है (मानस २.२.२६.७-८ ) । यह राम की केवल पत्नी ही नहीं, बल्कि अनन्य भक्त भी है। इसका ध्यान सदैव रामचरण में ही रहता है :
सियमन राम चरण मन लागा ।
( मानस. २.२.२६.८ )। सीता सावित्री -- प्रजापति की एक कन्या, जो सोम की पत्नी थी (तै. बा. २.१.१०६ प्रजापति देखिये) ।
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सीमन्तिनी चित्रवर्मन् राजा का कन्या जो चित्रांगद राजा की पत्नी थी 'सोमप्रदोषन्त' का माहात्म्य कथन करने के लिए इसकी कथा स्कंद में दी गयी है। चौदह वर्ष की आयु में इसे वैधव्य प्राप्ति का कुयोग था । उस कुयोग के नाशनार्थ यानी मैत्रेयी ने इसे 'सोमप्रदोषस्त' करने के लिए कहा, जिस कारण इसका पति समुद्र में डूबने से बच गया (स्कंद. ३.३.८ - ९) ।
सीरध्वज (जनक) - (सू. निमि.) विदेह देश का सुविख्यात राजा, जो सीता का पिता था। इसके पिता का नाम हस्वरोमन् था ( ७१.१२) । 'सीर का शब्दश
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