Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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श्वेतकेतु
राजा का भी समकालीन था एवं इस राजा के दरबार में इसने वाजसनेय से वादविवाद किया था (नृ. उ. २.७० १ ) । इस वादविवाद में यह याज्ञवल्क्य से पराजित हुआ
था।
प्राचीन चरित्रकोश
बाल्यकाल--इसके बाल्यकाल के संबंध में संक्षिप्त जानकारी छांदोग्य उपनिषद में प्राप्त है। बचपन में यह अत्यंत उद्दण्ड था, जिस कारण बारह वर्ष की आयु तक इसका उपनयन नहीं हुआ था। बाद में इसका उपनयन हुआ, एवं चौबीस वर्ष की आयु तक इसने अध्ययन किया ।
इसके पिता ने इसे उपदेश दिया था, 'अपने कुछ में कोई विद्याहीन पैदा नहीं हुआ है। इसी कारण तुम्हारा यही कर्तव्य है कि तुम ब्रह्मचर्य का सेवन कर विद्यासंपन्न बनो' । अपने पिता की आशा के अनुसार, अपनी आयु के बारहवें वर्ष से चौबीस वर्ष तक इसने गुरुगृह में रह कर विद्याग्रहण किया।
बिद्यार्जन — कौपीतकि उपनिषद् के अनुसार, इसने चित्र गाम्यांयणि के पास जा कर शान संपादन किया ( कौ. उ. १.१ ) । अपने समकालीन प्रवाह जैवल नामक राजा से भी इसके विद्या प्राप्त करने का निर्देश भी वृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है। एक बार जब यह पांचालों की विद्वत्सभा में गया था, तब उस समय पांचाल राजा प्रवाहण जेल से इसका तत्त्वज्ञानविषयक वादविवाद हुआ। इस वादविवाद में प्रवाहण के द्वारा पई प्रभ पूछे जाने पर, यह उनका योग्य जवाब न दे सका। इतना ही नहीं, इसका पिता उद्दालक आरुणि भी प्रवाहण के इन प्रश्नों का जया नहीं दे सका। इस कारण यह एवं इसके पिता परास्त हो कर प्रवाहण की शरण में गये, एवं उसे अपना गुरु बना कर इन्होंने उससे शन प्राप्त किया (बृ. उ. ६.२ ) ।
धर्मदीपन - इस प्रकार विद्याग्रहण कर विद्वान होने के कारण वह अपने को बड़ा विद्वान समझने लगा एवं दिन-ब-दिन इसका अहंकार बढ़ता ही गया। उस समय इसके पिता ने किताबी ज्ञान से अनुभवगम्य ज्ञान फिस प्रकार अधिक श्रेष्ठ है, इसका शान इसे दिया एवं इसे आत्मशान का उपदेश किया, जो 'तत्वमसि' नाम से सुविख्यात है ।
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श्वेतकेतु
इसने अपने पिता से प्रभ किया, मिट्टी के एक परमाणु का ज्ञान होने से उसके सभी मे नाम एवं रूपों का ज्ञान हमें प्राप्त होता है। उसी प्रकार आप ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु का जन मुझे बतायें कि जिन कारण सृष्टि के समस्त चराचर वस्तुओं का ज्ञान मुझे प्राप्त हो सके। इस पर इसके पिता ने इसे जवाब दिया, 'तुम (याने तुम्हारी आत्मा), एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएँ दोनों एक है, एवं ये सारी वस्तुओं का रूप तू ही है. (तत्त्वमसि ) | अगर तू अपने आपको (याने अपनी आत्मा को ) जान सकेगा, तो तुझे इस सृष्टि का ज्ञान। रूप से हो जायेगा।
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'तत्वमसि' उपदेश इसके पिता उद्दालक अरुण ऋषि के द्वारा इसे दिया हुआ 'तत्त्वमसि' का उपदेश छांदोग्य उपनिनिपद में प्राप्त है ( छ. उ. ६.८-१६))
इसे उपर्युक्त तत्त्व समझाते हुए इसके पिता ने नदी समुद्र, पानी, नमक आदि नौ प्रकार के इसे दिये, एवं हर समय 'तत्त्वमसि' शब्द का पुनरुच्चारण किया । यही 'तत्त्वमसि' शब्दप्रयोग आगे चलकर, अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों में से एक बन गया।
यज्ञसंस्था का आचार्य कौषीतकि ब्राह्मण में इसे पौषीतकि लोगों के यशसंस्था का प्रमुख आचार्य कहा गया है। यशसंस्था में विविध पुरोहितों के कर्तव्य क्या होना चाहिए, यज्ञपरंपरा में कौनसी त्रुटियाँ है, इस संबंध में अनेकानेक मौलिक विचार इसने प्रकट किये हैं। ब्रह्म चारी एवं तापसी लोगों के लिए विभिन्न आवरण भी इसने प्रतिपादित किये है, एवं उस संबंध में अपने मौलिक विचार प्रकट किये हैं। इसके पूर्व कालीन धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथों में ब्रह्मचारियों के द्वारा मधुम करने का निषेध माना गया है। इसने किन्तु मधुभक्षण करने के संबंध में यह आक्षेप करे. ३. ५.४.१८ ) । अन्य ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त यज्ञवि कथाओं में भी इसके अभिमतों का निर्देश प्राप्त है (शां. बा. २६. ४ गो. मा. १.२२) ।
भक्षण
आचायों के द्वारा किये गये कार्यों में ज्ञान की उपासना प्रमुख एवं अर्थराजन गौण मानना चाहिए इस संबंध में इसका एवं इसके पिता उदाह उद्दालक आरुणि का एक संवाद शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्त है (यां. श्री. १६.२७.६ ) | एक बार नामक आचार्य काशी, कोसल एवं विदेह इन तीनों देश के राजाओं का पुरोहित बन गया। उस समय यह अत्यधिक न हो कर पिता से कटु वचन करने लगा । इस पर पिता ने इसे, कहा:
। जल जातुकर्ण्य
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