Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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विश्वमहत्
प्राचीन चरित्रकोश
विश्वरूप
विश्वमहत्--(स. इ.) एक राजा, जो वायु के अनु- महाभारत एवं पुराणों में--इन ग्रंथों में इसे सार कृतशर्मन् राजा का पुत्र था । विष्णु एवं भागवत में इसे प्रजापति त्वष्ट का द्वितीय पुत्र माना गया है, एवं इसे 'विश्वसह' कहा गया है।
वृत्र से समीकृत किया गया है (भा. ६.५ म. उ. ९. विश्वभर--बिराटनगर का एक व्यापारी, जिसे | ४; शां. २०१.१८)। इसकी माता का नाम विरोचना लोमश ऋपि ने तीर्थों का माहाम्य कथन किया था ( गरुड. (वैरोचनी, रचना अथवा यशोधरा) था, जो असुरराज
| प्रह्लाद की कन्या, एवं विरोचन दैत्य की छोटी बहन विश्वमानुष--एक व्यक्ति (ऋ. ८. ४५.२२)। | थी (भा. ६.६.४४; वायु. ८४.१९; ब्रह्मांड. ३.१.८१; कई अभ्यासकों के अनुसार, यह व्यक्तिनाम न हो कर | गणेश. १.६६.१२)। इससे अखिल मानव जाति की ओर संकेत किया गया है। स्वरूपवर्णन--इसे तीन सिर थे, जिनमें से एक मुख विश्वरथ-विश्वामित्र ऋषि का नामान्तर (ब्रह्म. से यह अन्न भक्षण करता था (अन्नाद), दूसरे से यह
सोमपान करता था ( सोमपीथ), एवं तीसरे से यह सुरापान विश्वरंधि--(सु. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय विश्वगश्व राजा
करता था (सुरापीथ)। महाभारत के अनुसार, अपने का नामान्तर (विश्वगश्व देखिये)।
तीन मुखों में से, एक से यह वेद पढ़ता था, दूसरे से विश्वरूप--वरुणसभा का एक राक्षस (म. स.
सुरापान करता था, एवं तीसरे से दुनिया देखा करता था
(म. शां. ३२९.२३)। विश्वरूप त्रिशिरसबाट--एक आचार्य, जो देवां देवों का पुरोहित-एक बार इंद्र ने देवगुरु बृहस्पति का पुरोहित था। किन्तु प्रारंभ से ही यह देवों से भी
का अपमान किया, जिस कारण वह देवपक्ष का त्याग कर अधिक कामुरां पर मन करता था, जिससे प्रतीत होता है
चला गया। इस कारण इंद्र ने विश्वरूप को देवों का पुरोहित कि. यह स्वयं देव न हो कर असुर ही था।
बनाया। वैदिक साहित्य में---इस साहित्य में इसे त्रिशिरस् | - (तीन मिरांवाला ) दैत्य कहा गया है (ऋ. १०. ८)।
__ वध-शुरु से ही यह असुर पक्ष को देव पक्ष से अधिक
चाहता था (म. शां. ३२९.१७)। यह ज्ञात होते ही, इंद्र . यह त्वष्ट्र का पुत्र था, जिस कारण इसे 'त्वाष्ट्र' कहा गया
ने इसके पास अनेकानेक अप्सराएँ भेज कर इसे देवगुरुहै (ऋ. १०.७६)। यद्यपि यह असुरों से संबंधित था,
पद से भ्रष्ट करना चाहा। किन्तु इसने इंद्र का षड्यंत्र -फिर भी इसे देवों का पुरोहित कहा गया, है (तै. सं.
पहचान लिया, एवं यह इंद्रवध के लिए तपस्या करने
लगा (म. शां. ३२९.३४)। इंद्र के द्वारा किये गये इसके वध की कथा तैत्तिरीय- संहिता में प्राप्त है। यद्यपि यह देवों का पुरोहित था,
- इसका वध करने में इंद्र का वज्र भी विफल हुआ। फिर भी यज्ञ का अधिकार हविभाग यह असुरों को देता
फिर इंद्र ने तक्षन् के द्वारा कुटार से इसके तीनों था। इस कारण इंद्र ने अपने वज्र से इसके तीनों सिर
मस्तक तोड़ डाले (म. उ. ९.३४)। महाभारत में
अन्यत्र, दधीचि ऋषि के अस्थियों से बने हुए अस्त्रों से काट कर इसका वध किया। इसका वध करने के कारण, इंद्र को ब्रह्माहत्या का
इंद्र के द्वारा इसका वध होने का निर्देश भी प्राप्त है (म. पातक लग गया। अपने इस पातक के इंद्र ने तीन भाग
शां. ३२९.२७)। किये. एवं वे पृथ्वी, वृक्ष एवं स्त्रियों में बाँट दिये। इस इसकी मृत्यु के पश्चात् इसके 'सोमपीथ'. 'सुरापीथ' कारण, पृथ्वी में सड़ने का, वृक्षों में टूटने का, एवं स्त्रियों | 'अन्नाद' मस्तकों से क्रमशः कपिजल, कलविक एवं तित्तिर में रजस्त्राव होने का दोष निर्माण हुआ। इसी कारण | पक्षियों का निर्माण हुआ। रजस्वला स्त्री से संभोग करना त्याज्य माना गया एवं ऐसे अपने पुत्र के वध से त्वष्ट अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं संभोग से दोषयुक्त संतति उत्पन्न होने लगी (तै. सं. | उसने इंद्रवध करने के लिए अपने तपःप्रभाव से वृत्र
| नामक असुर निर्माण किया। पश्चात् देवों ने जम्भिका के आगे चल कर, त्रित ने इसका वध किया, एवं इंद्र की | द्वारा वृत्र का वध किया (म. उ. ९.४-३४; भा. ६. ब्रह्माहत्या के पातक से मुक्तता की (श. वा. १.२.३.२)।। ६-९)।
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