Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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याज्ञवल्क्य
प्राचीन चरित्रकोश
याज्ञवल्क्य
करने आये हैं ? ' उस समय विश्वास के साथ इसने जवाब व्यवस्था हुये वगैर आत्मा अपनी पुरानी बदन को नही दिया, 'दोनों के लिए ( उभयमेव सम्राट् ); जिनकी छोड़ता है । इस प्रकार, मृत्यु ही स्वयं एक माया होने के सींगों में स्वर्ण मुद्रिकाओं की थैलियाँ लगी हुई हैं. ऐसी | कारण, उसमें दुःख नहीं मानना चाहिये। जिस प्रकार गायों की प्राप्ति मैं उतनी ही आवश्यक समझता हूँ, सुवर्णकार पुराने अलंकारों से नया, एवं पहले से भी जितना कि आवश्यक, विद्वानों के बीच अपनी विजय'। अधिक सुंदर अलंकार बना सकता है, उसी प्रकार आत्मा
अपने द्वारा कही उक्त बात का स्पष्टीकरण करते हुए को पहले से भी अधिक सुंदर जन्म प्राप्त होना संभवनीय इसने स्वयं कहा है, 'मेरा पिता का कथन था कि, बिना है (बृ. उ. ४.४.४)। धन प्राप्त किये किसी को भी आत्मज्ञान न देना चाहिए। याज्ञवल्क्य के यह विचार सुन कर इसकी पत्नी मैत्रेयी ''किन्तु आत्मज्ञान का उपदेश किये बगैर किसी से दक्षिणा भीतिग्रस्त हुयी। इसी कारण अपने मतों का अधिक न लेनी चाहिये, ' ऐसा भी इसका अभिमत था (अननुच्य विवरण न करते हुए याज्ञवल्क्य ने कहा, 'जो मैने कहा है हरेत-दक्षिणां न गृहीयात् )।
वह संसार के अज्ञ लोगों के लिए काफी है' (बृ. उ. जनक राजा के पुरोहित अश्वल के द्वारा पूछने पर भी | २.४.१३)। याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, 'मैं ब्रह्मज्ञ जरुर हूँ, चरित्रचित्रण-याज्ञवल्क्य अपने युग का एक अद्वितीय किन्तु मैं धन को कांक्षा भी मन में रखता हूँ (गोकामा | विद्वान् , वादपटु, एवं आत्मज्ञानी था । यह बड़ा उग्र एव वयं स्मः) ।
| स्वभाव का था। जनक की विद्वत्सभा में विवाद करते इस प्रकार आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक इन दोनों को समय, इसने शाकल्य से आक्रोशपूर्ण शब्दों में कहा था, मान्यता देनेवाला याज्ञवल्क्य पाश्चात्य 'साफिस्ट' लोगों 'आगे तुम इस प्रकार के प्रश्न करोगे, तो तुम्हारा सर जैसा प्रतीत होता है। 'साफिस्ट' वह लोग है, जो काट कर पृथ्वी पर लोटने लगेगा' (मूर्धा ते निपतिष्यति)। तत्त्वज्ञान के उपलक्ष में धनग्रहण करना कोई खराबी नहीं |
यह क्रोधी था, उसी प्रकार परमदयालु तथा कोमल मानते हैं।
प्रवृत्तियों का भी था, जो इसके द्वारा अपनी पत्नी मैत्रेयी (२) आत्मज्ञान--'जीवन में आत्मज्ञान प्राप्त करना | के संवाद से प्रकट है। सम्भव है, और वही अन्तिम सत्य है', ऐसा इसका अभिमत यह जरुर है कि, वादविवाद के बीच स्त्रीजाति हो, था। जनक ने इससे प्रश्न किया था. 'मनुष्य की ज्योति कौन | अथवा कोई भी हो, किसी के प्रति यह कृपाभावना नही है, जो उसे प्रकाश देती है ? ' इस प्रश्न का यथाविध उत्तर | दिखाता था। गार्गी से चल रही चर्चा के बीच, इसने देते हुए इसने सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि को मनुष्य की ज्योति | उसे 'तुम बहुत प्रश्न कर रही हो' (अतिप्रश्नं पृच्छसि) बता कर कहा, 'आत्मज्ञान मनुष्य की अन्तिम ज्योति है, | कह कर, उद्दामता न दिखाने के लिए डाँटा था। जो सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि की अनुपस्थिति में भी उसे प्रकाश यह बड़ा होशियार भी था। जब जनक की सभा में देती है' (बृ. उ. ४.३.२-६)।
जारत्कारव ने ज्ञान एवं कर्म के संबंध में कुछ ऐसे प्रश्न किये जब कि आत्मा ही केवल ज्ञेय एवं ज्ञाता रहता है, उस थे, जो केवल अधिकारी व्यक्तियों ही जान सकते है । उसके अवस्था का वर्णन याज्ञवल्क्य ने उक्त कथन में व्यक्त | जवाब इसने उसे सभा से अलग ले जा कर, एकान्त में किया है। अरस्तू (अॅरिस्टॉटल) उसे 'थिओरिया' बताये थे। अथवा 'उन्मन' अवस्था कहता है।
___ यह अपने समय का सब से बड़ा वादपटु था। अश्वल (३) शुद्धाद्वैतवाद अथवा कर्ममीमांसा-याज्ञवल्क्य | ने इससे 'आचार्य-सम्प्रदाय' के सम्बन्ध में बहुत शुद्धाद्वैतवाद का पुरस्कर्ता था, जिसके अनुसार आत्मा | कठिन प्रश्न पूछे, जिनके तत्काल उचित उत्तर दे कर इसने अजर, अमर एवं कालातीत अवस्था में सर्वत्र उपस्थित | उसे निरुत्तर किया। रहता है । इस कारण, मृत्यु के साथ होनेवाले आत्मा | आत्मगत भाषण--अधिकारी विद्वान् के द्वारा तत्वज्ञानके स्थलांतर अथवा जन्मान्तर में शोक अथवा दुःख करने सम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर ही, उसका जवाब देने की की आवश्यकता नहीं है। जिस तरह घाँस का नया | इसकी पद्धति थी। किंतु कभी कभी ऐसा भी होता था तिनका प्राप्त किये बगैर भँवरा अपना पहला तिनका | कि, भावतिरेक में यह प्रश्न की परिघ से अलग बातों नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार अपने वास्तव्य की नयी | विषयों की विवेचना कर, उनका भी कथन करने लगता