Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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युधामन्यु
प्राचीन चरित्रकोश
युधिष्टिर
युधामन्यु-पंचाल देश का एक राजकुमार, जो यह पूर्णतावादी था, इसलिए इसे जीवन की त्रुटियाँ तथा भारतीय युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था । यह महारथि, | अपूर्णता का ज्ञान एवं विवेक अधिक था। इसकी चिंतनमहाधनुर्धर,तथा गदा एवं धनुष्य के युद्ध में अत्यंत प्रवीण शीलता एवं अन्य पाण्डवों की क्रियाशीलता का जो था (म. उ. १६७.५, १९७.३)। भारतीय युद्ध में यह आंतरिक विरोध इसकी आयु में चलता रहा, वहीं पांडवों अजुन का चक्ररक्षक था (म. भी. १६.१९)। का संघर्ष एवं परस्परसौहार्द का अधिष्ठान था। इसके रथ के अश्व 'सारंग.' वर्णके थे (म. द्रो. २२. स्वभाव से अत्यंत चिंतनशील एवं अजातशत्रु हो कर १६०*)। इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध भी, इसे सारी आयुःकाल में अपने कौरव भाईयों के हुआ था:-कृतवर्मन् एवं कूप (म. द्रो. ६७.२९); द्रोण साथ झगड़ना पडा, एवं उत्तरकालीन आयु में उनके साथ एवं दर्योधन (म. द्रो. १०५.८१९०); कर्ण का भाई | महायुद्ध भी करना पड़ा। फिर भी धर्म, नीति, सत्य, चित्रसेन (म. क. ८३.३९)।
क्षमा, आत्मौपम्य आदि जिन धारणाओं को इसने जीवन द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने शिबिर में निद्रिस्त पांडव का मूलाधार मानने का व्रत स्वीकृत किया था, उससे यह योद्धाओं का संहार किया, जिस समय उसके द्वारा यह आजन्म अटल रहा। धर्म का लाद्य मूलतत्त्व उच्चतम भी मारा गया (म. सौ. ८.३४-३५)।
नीतिमत्ता है, ऐसी इसकी धारणा थी। उसी नीतिमत्ता युधिष्टिर-(सो. कुरु.) पाण्डुराजा की पत्नी कुन्ती का पालन वैयक्तिक, कौटुंबिक एवं राजनैतिक जीवन में का ज्येष्ठ पुत्र (भा.९.२२.२७ म. आ. ९०.६९)। होना चाहिये, इस ध्येयपूर्ति के लिए यह आजन्म __तत्त्वदर्शी राजाः-एक धीरोदात्त, ज्ञानी, धर्मनिष्ठ | झगड़ता रहा। एवं तात्विक प्रवृत्तियों का महात्मा मान कर, युधि- धर्म का अधिष्ठान अध्यात्म में नही, बल्कि दया, क्षमा, ष्ठिर का चरित्रचित्रण श्रीव्यास के द्वारा महाभारत शांति जैसे आचरण में है, ऐसी इसकी भावना थी। इसी . में किया गया है । एक महाधनुर्धर एवं पराक्रमी | कारण, धर्माचरण मोक्षप्राप्ति के लिए नही, बल्कि अपने व्यक्ति के नाते से अर्जुन महाभारत का नायक | बांधवों के सुखसमाधान के लिए करना चाहिये, ऐसी प्रतीत होता है। किन्तु अर्जुन की एवं समस्त पाण्डवों की | इसकी विचारधारा थी। सर्वोच्च प्रेरकशक्ति एवं अधिष्ठाता पुरुष, वास्तव में युधिष्ठिर | अपने इन अभिमतों के सिध्यर्थ, इसे आजन्म कष्ट ही है।
सहने पड़े, शत्रुमित्रों की एवं पाण्डव बांधवों की नानाविध अपने समय का सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय होते हये भी. व्यंजना सुननी पड़ी। फिर भी यह अपने तत्त्वों से अटल सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण के सारे गुण इसमें सम्मिलित थे। इस रहा। अपनी इसी विचारों के कारण, यह आजन्म एकाकी तरह इसका व्यक्तिमत्त्व तत्कालीन क्षत्रिय नृपों से नही, | रहा, एवं एकाकी अवस्था में ही इसकी मृत्यु हुयी। बल्कि विदेह देश के तत्त्वचिंतक एवं तत्वज्ञ राजाओं से | जन्म-तूल राशि में जब सूर्य, तथा ज्येष्ठा नक्षत्र में जब अधिक मिलता जुलता था। 'विदेह' जनक से ले कर | चन्द्र था, तब दिन के आठवें अभिजित् मुहुर्त पर आश्विन गौतम बुद्ध तक के जो तत्त्वदर्शी राजा प्राचीन भारत में सुदी पंचमी के दिन दूसरे प्रहर में इसका जन्म हुआ (म. उत्पन्न हुये, उसी परंपरा का युधिष्ठिर भी एक तत्त्वदर्शी | आ. ११४.४; नीलकंठ टीका-१२३.६)। युधिष्ठिर आदि राजा था। महाभारत में प्राप्त युधिष्ठिर के अनेक नीति- | सभी पाण्डव इन्द्रांश थे (मार्क ५.२०-२६)। इसके वचन एवं विचार गौतमबुद्ध के वचनों से मिलते जुलते है। जन्मकाल में आकाशवाणी हुयी थी- 'पाण्डु का यह
चिंतनशील व्यक्तित्त्व-युधिष्ठिर पाण्डवों का ज्येष्ठ | प्रथम पुत्र युधिष्ठिर नाम से विख्यात होगा, इसकी तीनों भ्राता था, जिस कारण यह आजन्म उनका नेता रहा। | लोकों में प्रसिद्धी होगी। यह यशस्वी, तेजस्वी तथा फिर भी इसका व्यक्तित्त्व क्रियाशील क्षत्रिय के बदले, | सदाचारी होगा। यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगण्य, एक तत्त्वदर्शी एवं पूर्णतावादी तत्त्वज्ञ होने के कारण, स्वयं | पराक्रमी एवं सत्यावादी राजा होगा' (म. आ. ११४. पराक्रम न करते हुये भी इसे अपने भाईयों को कार्यप्रवण | ५-७)। करने का मार्ग अधिक पसंद था। इसी कारण अपने पराक्रमी स्वरूपवर्णन-यह शरीर से कृश तथा स्वर्ण के समान भाईयों को कार्यप्रवण करने का, एवं उनके कर्तृत्व को | गौरवर्ण का था। इसकी नाक बड़ी तथा नेत्र आरक्त एवं पूर्णत्व प्राप्त कराने का कार्य यह करता रहा। स्वभाव से | विशाल थे। यह लम्बे कद का था, एवं इसका वक्षःस्थल