Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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राम
प्राचीन चरित्रकोश
राम
हुआ था (म. स. परि. १. क्र. २१. पक्ति ४९४- आजानुबाहुः सुशिराः, सुललाटः सुविक्रम । ४९५)।
समः समविभक्ताङ्गः, स्निग्धवर्णःप्रतापवान् ॥ दशरथ राजा को कौसल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी नामक पीनवक्षा विशालाक्षो, लक्ष्मीवान् शुभलक्षण । तीन पत्नियाँ होते हुए भी कोई भी पुत्र न था। इसी धर्मज्ञः सत्यसंधश्च, प्रजानां च हिते रतः॥ अवस्था में पुत्रप्राप्ति के हेतु उसने ऋष्यशंग ऋषि से एक विष्णुना सदृशो वीर्य, सोमवत् प्रियदर्शनः । 'पुत्रकामेष्टी यज्ञ' कराया। उस यज्ञ में सिद्ध किये गये कालाग्निसदृशः क्रोधे, क्षमया पृथिवीसमः ॥ 'चरु' का आधा भाग दशरथ की पटरानी कौसल्या ने
(वा. रा. बा. १.१०-१८)। भक्षण किया, जिस कारण यज्ञ के पश्चात् एक साल
नामकरण एवं शिक्षा-राम का नामकरण दशरथ राजा बाद उसके गर्भ से राम दाशरथि का जन्म हुआ।
के कुलगुरु वसिष्ठ के द्वारा हुआ, जिसने 'रामत्य लोकराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी के दिन दोपहर के
रामस्य' कह कर इसका नाम 'राम' रख दिया (वा. रा. बारह बजें, जब पाँच ग्रह उच्चस्थिति में थे उस समय
| बा. १८. २९)। नामकरण एवं उपनयन के पश्चात् हुआ था। उस समय पुनर्वसु नक्षत्र, कर्क लग्न एवं लग्न में
वसिष्ठ से इसे शस्त्र एवं शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त हुई (वा. गुरुचंद्र योग था (वा. रा. बा. १८.८-९; अ. रा. १.
रा. बा. १८.३६-३७) । इसे यजुर्वेद का भी ज्ञान प्राप्त ३; पद्म. उ. २४२)।
था ( वा. रा. सु.३५.१४)
. अवतार--पौराणिक साहित्य में इसे श्री विष्णु का वसिष्ठ से उपदेशप्राप्ति--शिक्षा समाप्त होने पर सातवा अवतार कहा गया है। वाल्मीकि रामायण में | सोलह वर्ष का राम ती र्थयात्रा करने के लिए निकला। इस इसे अनेक बार श्रीविष्ण के सदृश पराक्रमी कहा गया | तीर्थयात्रा को समाप्त करने पर, राम के मन में यकायक है ( वा. रा. बा. १.३८), किन्तु श्रीविष्णु का अवतार | विरक्ति की भावना उत्पन्न हुई, एवं धन, राज्य, माता कहीं भी नहीं कहा गया है । क्वचित् एक स्थान पर जहाँ आदि का त्याग कर प्राणत्याग करने के विचार इसके . इसे श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है ( वा. रा. यु. | मन में आने लगे :-- १.१७), वह भाग प्रक्षिप्त प्रतीत होता है।
किं धनेन किमम्बाभि कि राज्येन किमीहया। उत्तरकालीन साहित्य में रामभक्ति की कल्पना का जो इति निश्चयमापन्नः प्राणत्यागपरः स्थितः ॥ जो विकास होने लगा, तब उसके साथ साथ राम के
(यो. वा. १.१०.४६ )। अवतारवाद की कल्पना भी दृढ़ होती गयी। रामतापनीय
राम की यह विलक्षण वैराग्यवृत्ति देख कर वसिष्ठ ने उपनिषद् से ले कर अध्यात्मरामायण तक के समस्त राम उसे ज्ञानकर्मसमुच्चयात्मक उपदेश प्रदान किया, जो भक्तिविषयक रचनाओं में राम को केवल विष्णु का ही
'योगवासिष्ठ' नामक ग्रंथ में समाविष्ट है। नहीं, बल्कि साक्षात् परब्रह्म का ही अवतार माना गया है। वसिष्ठ ने राम से कहा, 'आत्मज्ञान एवं मोक्षप्राप्ति के (अ. रा. बा. १)। इन ग्रंथों के अनुसार, जन्म लेते ही | लिए अपना दैनंदिन व्यवहार एवं कर्तव्य छोड़ने की
अपनी माता कौसल्या को इसने श्रीविष्णु के रूप में दर्शन | आवश्यकता नही है। जीवन सफल बनाने के लिए कर्तव्य दिया था (अ. रा. बा. १.३.१३-१५, पद्म. उ. २६९. निभाने की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी आत्मज्ञान की है:८०; आ. रा. १.२.४)। महाभारत के अनुसार, यह उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः । मार्कंडेय के अंश से, एवं हरीवंश के अनुसार विश्वामित्र तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥ के अंश से उत्पन्न हुआ था। देवी भागवत में राम एवं केवलात्कर्मणो ज्ञानान्नहि मोक्षोऽभिजायते । लक्ष्मण को नरनारायण का अवतार कहा गया है। किन्तूभाभ्यां भवेन्मोक्षः साधनं तूभयं विदुः।। स्वरूपवर्णन- राम का स्वरूपवर्णन 'वाल्मीकि
(यो. वा. १.१.७-८)। रामायण' में प्राप्त है, जिसका पाठन रामभक्त लोग आज भी नित्यपाठ के स्तोत्र की भाँति करते है :
(आकाश में घूमनेवाला पंछी जिस तरह अपने दो
पंखों पर तैरता है, उसी तरह ज्ञान एवं कमों का समुच्चय विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनु । करने से ही मनुष्य को जीवन में परमपद की प्राप्ति हो महोरस्को महेष्वासो, गूढजवररिंदम ॥ सकती है। केवल ज्ञान अथवा केवल कर्म की उपासना करने
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