Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
- राम के इस कहने पर कैकेयी ने देवासुरयुद्ध के समय, पश्चात् शंगवेरपुर नगरी के समीप भागीरथी नदी को पार दशरथ राजा के द्वारा दिये गये दो वरों की कथा कह सुनाई, | कर, निषादराज गुह ने इसे दक्षिण की ओर पहुँचा दिया । एवं कहा, 'ये वर मैंने राजा से आज माँग लिये है, वहाँ पहुँचते ही राम ने पुनः एकबार लक्ष्मण को अयोध्या जिसके अनुसार अयोध्या का राज्य मेरे पुत्र भरत को | लौट जाने के लिए कहा, किन्तु लक्ष्मण अपने निश्चय पर प्राप्त होगा, एवं तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वनवास जाना | अटल रहा (वा. रा. अयो. ५३ )। पडेगा।
बाद में प्रयाग आ कर राम ने भरद्वाज से मुलाकात इस पर राम ने जीवनमुक्त सिद्ध की भाँति 'शभ छत्र' | की, एवं वनवास के चौदह साल शान्तता से कहाँ बिताये . एवं अन्य राजभूषणों का त्याग किया, एवं स्वजन एवं | जा सकेंगे, इसके संबंध में उस मुनि की सलाह ली। पौरजनों से विदा ले कर वन की ओर प्रस्यान किया | भरद्वाज ने इन्हें चित्रकूट पर्वत पर पर्णकुटी बना कर रहने (वा. रा. अयो. २०.३२-३४)।
की सलाह दी। इस सलाह के अनुसार, कालिंदी नदी को राम का वनगमन का यह निश्चय सुन कर इसकी माता
पार कर यह चित्रकूट पर्वत पर पहुँच गया, जहाँ पर्णकुटी कौसल्या, एवं बन्धु लक्ष्मण ने इसे इस निश्चय से परावृत्त
बना कर रहने लगा। करने का काफी प्रयत्न किया। लक्ष्मण ने इसे कहा, । तत्पश्चात् भरद्वाज ऋषि को साथ ले कर, भरत इससे 'बुढापे के कारण, दशरथ राजा की बुद्धि विनष्ट हो चुकी | मिलने चित्रकूट आया। वहाँ दशरथ राजा की मृत्यु की है। इस कारण, उसकी आज्ञा का पालन करने की कोई भी | वार्ता उसने इसे सुनाई, एवं अयोध्या नगरी को लौट आने जरत नही है।
की इसकी बार बार प्रार्थना की। इसने उसे कहा, 'जो इन आक्षेपों को उत्तर देते समय, एवं अपनी तात्त्विक | कुछ हुआ है, उसके संबंध में अपने आप को दोष दे भूमिका का विवरण करते हुए राम ने कहा
कर, तुम दुःखी न होना । जो कुछ हुआ है उसमें किसी
मानव का दोष नहीं, वह ईश्वर की इच्छा है। इस कारण धर्मोहि परमो लोके धर्म सत्यं प्रतिष्ठितम्।।
तुम वृथा शोक मत करो, बल्कि अयोध्या जा कर, राज्य . धर्मसंश्रितमप्येतत्पिर्तुवचनमुत्तमम् ॥
का सम्हाल करो । यही तुम्हारा कर्तव्य है'। (वा. रा. अयो. २१.४१)।
दण्डकारण्यप्रवेश-भरत के अयोध्यागमन के पश्चात् ( इस संसार में धर्म सर्वश्रेष्ठ है, एवं धर्म ही सत्य का | राम को चित्रकूट पर्वत पर रहने में उदासीनता प्रतीत होने अधिष्ठान है। मेरे पिता ने जो आज्ञा मुझे दी है, वह भी | लगी। इस कारण, इसने चित्रकूट पर्वत को छोड़ कर दक्षिण इसी धर्म का अनुसरण करनेवाली है)।।
में स्थित दण्डकारण्य में प्रवेश किया। वहाँ सर्वप्रथम यह राम ने आगे कहा, 'राजा का यही कर्तव्य है कि वह
| अत्रि ऋषि के आश्रम में गया, एवं उसका एवं उसकी - सत्यमार्ग से चले । राजा के द्वारा असत्याचरण किये जाने
| पत्नी अनसूया का दर्शन लिया। पर उसकी प्रजा भी असत्यमार्ग की ओर जाने की संभावना | आगे चल कर घोर अरण्य प्रारंभ हुआ, जहाँ इसने
विराध नामक राक्षस का वध किया। तत्पश्चात् यह शरभंग वनवास-राम के साथ इसका भाई लक्ष्मण, एवं इसकी | ऋषि के आश्रम में गया, जहाँ उस ऋषि ने अपनी सारी पत्नी सीता इसके साथ वनवास में गये । ये तीनों अयोध्या | तपस्या का दान कर, इसे पुनः राज्य प्राप्त करा देने छोड़ कर सायंकाल के समय पैदल ही तमसा नदी पर आयें, का आश्वासन दिया। किन्तु इसने अत्यंत नम्रता से उसका जहाँ अयोध्या के समस्त पौरजन वनवासगमन की इच्छा | इन्कार किया, एवं यह सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम में गया। से इनके साथ आये । प्रातः काल के समय वनवासगमन के | वहाँ जाते समय इसे राक्षसों के द्वारा मारे गये तपस्वियों लिए उत्सुक पौरजनों को भुलावा दे कर राम, सीता तथा | की हड्डियों का ढेर दिखाई दिया, तब इसने वहाँ स्थित लक्ष्मण के साथ आगे बढ़े। तत्पश्चात् वेदश्रुति, स्पंदिका, ऋषियों को आश्वासन दिया, 'मैं अब इसी वन में रह गोमती आदि नदियों को पार कर, ये दक्षिण दिशा की ओर | कर राक्षसों की पीड़ा से तुम्हारी रक्षा करूँगा' (वा. रा. जाने लगे (वा. रा. अयो. ४९)।
अर. ७)। अयोध्या राज्य के सीमा पर पहुँचते ही इसने अयोध्या | राक्षस-विरोध--राक्षस संहार की राम की इस प्रतिज्ञा एवं वहाँ की देवताओं को पुनः एकबार वंदन किया। | को सुन कर सीता ने इसे इस प्रतिज्ञा से परावृत्त करने प्रा. च. ९२]
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